रूचि भल्ला का संस्मरण 'नदी में उतरती संध्या को देख कर... ...'
संस्मरणों के बहाने हम अपने उस अतीत की सैर करते हैं जिसमें हम खुद
शामिल होते हैं। खुद के बहाने खुद से बातें करते हुए। रूचि भल्ला एक कवयित्री हैं
जो डायरी लेखन के साथ-साथ आजकल संस्मरण भी लिख रही हैं। रूचि के इन संस्मरणों को
पढ़ते हुए जैसे लगता है हम काव्यगत प्रवाह में बहे जा रहे हैं। अभय जी पर लिखा हुआ
रूचि का संस्मरण इसकी एक बानगी है। यह संस्मरण 'परिकथा' के मार्च-अप्रैल 2016 'अभय स्मृति अंक' में प्रकाशित हो चुका है। तो आइए आज पढ़ते हैं रूचि भल्ला का
संस्मरण ‘नदी में उतरती संध्या को देख कर।
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नदी में उतरती संध्या को देख कर... ...
रूचि भल्ला
अप्रैल, 2013 का अंक 'पाखी' को पढ़ते हुए आँखें ठहर गईं एक कविता पर... "नदी में उतरती संध्या
को देख कर.... " अभय जी की लिखी हुई कविता।
कविता मैं पढ़ती गई और कहीं मेरे दिल में उतरती गई। बात उन दिनों की है ...हम गुड़गाँव में शिफ्ट हुए थे, यहाँ आते ही कुछ दिनों में मेरा एक आपरेशन हुआ और मैं बेड -रेस्ट पर थी।
चूँकि गुड़गाँव मेरे लिए नई जगह थी ... बुक -स्टाल आस-पास कोई पता नहीं था। मैंने कुछ
पत्रिकाएँ दिल्ली से मँगवा ली थीं। 'पाखी' उनमें
से एक थी। "नदी में उतरती संध्या को देख कर .... " कविता पढ़ कर मैं खुद
को रोक नहीं सकी और पत्रिका में छपे हुए परिचय से उनका फोन नंबर लेकर मैंने उन्हें फोन
पर संदेश भेज दिया। संदेश का जवाब उनके फोन काल के रूप
में आया। अभय जी धन्यवाद कहते हुए मुझ से पूछ रहे थे, " नाम रुचि है। पढ़ने में रुचि है या लेखन
में भी रुचि है?" और मैं खुशी से बोल पड़ी, "सर!
थोड़ा-बहुत प्रयास करती हूँ।" बातों -बातों में
मैंने उन्हें बताया कि मैं
बेड-रेस्ट पर हूँ ... यहाँ पत्रिकाएँ पास में मिलती नहीं हैं और ये पाखी भी दिल्ली से
मँगवाई है।" अभय सर बोले, "आप अपनी सेहत
का ख्याल रखिए अपना पता दीजिए मैं परिकथा के संपादक मंडल में हूँ, आपको 4-5 पत्रिका ‘परिकथा’ की भेजता हूँ, आप बेड-रेस्ट पर हैं
.... किताबें सबसे अच्छी साथी हैं, आपका वक्त कटेगा।"
और फिर पत्रिकाएँ मेरे घर आ पहुँची कोरियर से।
मेरे लिए बहुत खुशी की बात थी.... और इस तरह उनसे मेरी बात-चीत फोन पर कभी -कभार होने लगी। हर
फोन पर उन्होंने मुझे हमेशा लेखन की
ओर
प्रेरित किया ये कहते हुए कि लिखिए...
खूब लिखिए... अपनी अँगुलियों में लिखने की भूख पैदा करिए।
अभय सर फोन पर कहते, मैं सुनते हुए अपनी
अंगुलियाँ देखती ... मुझे
अँगुलियों में थमी एक कलम दिखती ....
उनकी
बातें ऊर्जा से भर देती थीं... मैंने
उन्हें देखा नहीं था... सिर्फ फोन पर सुना था.... सुन कर ही उन्हें जानने लग गई थी।
लगता था मेरे गुरु मेरे मार्गदर्शक हैं वो
...वो
बहुत संक्षेप में मुझसे बात करते थे... पर उन छोटी-छोटी बातों में मैंने जाना कि वो पेशे से वकील थे और
उनकी जीवन -शैली बहुत ही व्यवस्थित थी ....
उनके
लिखने-पढ़ने का समय सुबह होने के पहले से ही शुरू हो जाता .... वो बहुत भोर में उठ
जाते... दबे पाँव रसोई में जाकर बिना कोई आहट किए अपने लिए चाय बनाते और किताबों के संग
जा कर बैठक में बैठ जाते। वो मुझसे भी
कहते
थे.... एक निश्चित समय अपने लिए तय करिए और घर के एक कमरे में जा कर ऐसे बैठिए कि आप आफिस जा रही हैं....
आपका रोज का नियम बनेगा किताबों के
संग
रहने का.... मेरी जब भी उनसे बात होती, बातों-बातों
में बहुत कुछ सिखा जाते।
शुरुआती दिनों में एक बार उन्होंने मुझसे कहा -आप अपनी कुछ कविताएँ भेजिए, मैं पढ़ना चाहूँगा.... मैंने कविताएँ ई-मेल
कर दीं... और प्रतिक्रिया का
इंतजार करने लगी... कुछ दिनों बाद उनका फोन आया, 'पहली बात तो ये कि आपमें कविताओं की समझ है....
दूसरी बात ये कहना चाहूँगा कि आप दुनिया को देखना
शुरू करिए.... अपनी कलम की आँख से... जिस भी आब्जैक्ट को देखेंगी.... जिसे भी
देखेंगी उसके कई डाईमैन्शन्स दिखेंगे
आपको।' मैं अक्सर फोन करती थी.... सर कहते -कुछ
लिखा आपने.... मैं जवाब में न बोलती तो सर
कहते- कुछ लिखें तो बताएं, बात करें। मेरा और
आपका रिश्ता शिव के त्रिशूल पर नहीं टिका है... कलम की नोंक पर टिका है... जितना लिखेंगी, उतना बात करिए....। उनकी बात सुन कर फोन
तक हाथ मुश्किल से पहुँचता था.... इसी सिलसिले में एक बात याद आती है मेरे पास
बहुत सुंदर प्रेरक संदेश मेरे मित्र मुझे भेजा करते थे.... जो मैं अक्सर सर को भेज देती.... उन्होंने बताया कि वे संदेश
उन्हें भी अच्छे लगते थे। एक रोज़ उन्होंने मुझसे पूछा
- क्या ये सब आप खुद लिखती हैं? मैंने कहा नहीं सर .... तो बोले आप देश की अर्थव्यवस्था देख रही
हैं ....देश की आर्थिक स्थिति, इन्हें भेजने में
पैसा लगता है.... आप इन्हें न भेजा करिए.... इस एक-एक पैसे को बचाइए, इसको जोड़ने से पूंजी जोड़ी जा सकती है।
इससे पहले मैंने इस नज़र से इस
बात को कभी देखा नहीं था।
अब तक सर से सिर्फ फोन पर ही बात हुई थी, उनसे मिलना नहीं हुआ था। सर ने बताया वो
सपरिवार साहिबाबाद आ रहे हैं, अपने बेटे के पास ...। मैं उनसे मिलने गुड़गाँव से साहिबाबाद
जा रही थी अपने पति के साथ। मैं बहुत उत्साहित थी, हम दोनों ने सर के लिए एक घड़ी खरीदी।
जब पहुंचे, सर अपने घर के बाहर ही खड़े हुए दिख गए थे
इंतजार में। सादा सा.. चेहरा... चेहरे पर अपनापन...
होठों पर स्मित सर पर बीचोंबीच बाल न के बराबर थे पर किनारे-किनारे रुई से सफेद बाल, हल्के रंग की पैंट-बुश्शर्ट, पैरों में हवाई चप्पल पहने खड़े हुए उनकी आँखें
पहचान खोजती हुईं सी थीं लेकिन आत्मीयता के जल से
भरी हुईं। मैंने आगे बढ़ कर चरण स्पर्श किए .... हाँ, वो मेरे गुरू थे .... मेरे शिक्षक.....।
ये मेरी पहली मुलाकात थी। बातों -बातों में उन्होंने बताया कि उनका एक बेटा गुड़गाँव में भी रहता
है। मेरे पति ने कहा -अब आप दोनों भी सासाराम से यहीं दिल्ली में ही शिफ्ट हो जाइए
अपने रिटायरमेंट के बाद। वो बोले -नहीं, मैं नहीं छोड़ सकूँगा
अपना गाँव, पहाड़, पोखर, पेड़ अपना सासाराम। मैंने देखा उन्हें
बोलते हुए .... उनकी सजल दो आँखों में मुझे उनका सासाराम तैरते दिखा। अब सोचती हूँ जिस सासाराम को वो अपने
साथ लिए चलते थे उस सासाराम ने
कैसे उन्हें विदा दी होगी, उनसे कैसे अपना हाथ
छुड़ाया होगा। उस दिन की बात याद आती है मुझे कि जब उनसे मिल कर लौटी... उनका फोन आया -रुचि, ये घड़ी जो आपने
गिफ्ट की है, बहुत
अच्छी है पर मैं आपसे एक बात कहना चाहता हूँ...
दरअसल मैं घड़ी पहनता नहीं हूँ। मैंने कहा -कोई बात नहीं सर आप न पहनिए. अपने घर में
कहीं रख लीजिए ...आपके पास रहेगी, समय बताएगी। सर बोले
-मेरी बाँह .... कलाई में घने रोंयेदार बाल हैं, तो
इसलिए मैं पहनता नहीं हूँ, अगर आप कहें तो मैं
इसकी चेन की जगह लैदर स्ट्रैप लगवा लूँ। मैं बोली- सर अब ये आपकी घड़ी है ...जैसा
आपको ठीक लगे। सर ने कहा -मैं
स्ट्रैप लगवा कर पहनूंगा। ये पहली घड़ी होगी जिसे मैं पहनूंगा। अब तो सिर्फ बातें
ही रह गई हैं और बातों की याद और याद आता है मुझे ठहाकों का सम्बन्ध। जब भी उनसे
बात होती, कोई न कोई बात ऐसी
होती कि मैं हँस पड़ती.... सर
ने अब तक फोन पर सिर्फ मेरी हँसी सुनी थी.... ये उन दिनों की बात है जब मैं खुल कर
हँसती थी। कहते हैं वक्त सदा एक सा नहीं रहता.... घूम जाता है उसका पहिया। मेरी
हँसी का पहिया भी घूम गया। अब जब उनका फोन आता ....मैं चुप रहती या उदास। वो कहते
-सुख के दिन भी आएंगे रुचि दुख के दिन बीत जाएंगे। ये बात तो सभी मुझसे कहते....
पर उदासी के दिन इन बातों से
बीतते नहीं थे। मेरी उदासी चुपचाप सुनती रहती और उदास हो जाती। उन्हीं दिनों की बात है सर ने
मुझसे बात करते हुए कहा -सुनो! रुचि
दुखद
दौर का न होना भी तो दुखद दौर है।
ये बात एक बात की तरह
नहीं किसी वेद वाक्य सी लगी ....जीवन-मंत्र सी। उस
दिन उनकी कही ये बात सुन कर मुझे लगा सही तो कह रहे हैं सर ...दुखद दौर का न होना
भी तो दुखद दौर है। इस बीच हमारा तबादला गुड़गाँव
से फरीदाबाद हो गया था। दिन बीत रहे थे। हालात पहले से बेहतर हो गए थे.... तभी
उनकी कविता 'नया ज्ञानोदय' में छपी देखी मैंने.... शीर्षक था 'दुखद दौर'।
कविता पढ़ते हुए मुझे गुड़गाँव के वो दिन याद आने लगे जब सर ने सासाराम से फोन करके मुझे
कहा था मेरे सबसे उदास दिनों में.... 'दुखद दौर का न होना
भी दुखद दौर है।' इस कविता को 'नया ज्ञानोदय' में देख कर बहुत खुश थी, मैं इस कविता के लिए सर को बधाई दे रही
थी। जानती थी कि इस कविता का जन्म
दुख से हुआ था... दुख जो पीछे सुख लाता है.... सर ने यही तो कहा -बताया, मुझे समझाया था।
सर जब दिल्ली आए....
फरीदाबाद मेरे घर भी आए थे। उस दिन
सुबह
नौ बजे उनका फोन आया... वो मैट्रो से फरीदाबाद आ रहे थे... मुझे उन्हें लेने नीलम चौक जाना था। सर थोड़ा
पहले पहुँच गए थे ... मैं कार में ट्रैफिक में अटक गई।
पहुंची तो देखा... सर मैट्रो स्टेशन की सीढ़ियों पर बैठे मिले .... उन्हें अपने इंतजार में बैठा देख कर
खुशी भी हुई और ये भी लगा कि मेरी देरी की
वजह से उन्हें इस तरह बैठना पड़ा। खैर! वो जब कार में आ कर बैठे.... वो सादगी..
भोलापन और हाथ में कपड़े का एक बैग थामे हुए थे.... वो बेहद सरल और आत्मीय थे। मैं
बहुत खुश थी.... उत्साहित इतनी कि उत्साह में घर की ओर
जाती सड़क का रास्ता मैंने बातों-बातों में गलत ले लिया। बात करते हुए हम घर तक आ पहुंचे।
उस दिन जब सर घर आए...
वो सोमवार का दिन ... मेरे व्रत का था। मैं
इस दिन शाम को एक समय ही भोजन लेती हूँ तो खाना दोपहर में सर के लिए बाहर से ही आर्डर कर दिया था।
मैंने सोचा, जितनी देर खाना बनाने में लगेगी उतनी देर में सर को कविताएँ
सुनायी जाएं। मैं चाय बना कर ले आयी
और
सर को अपनी सहेली प्रज्ञा की कविताएँ सुनाने बैठ गई। सर चाय पीते रहे. कविताएँ
ध्यानमग्न होकर सुनते रहे .... हर कविता को सुनते हुए उनकी आँखों में चमक आ जाती। ये चमक प्रज्ञा की
कविताओं पर मिली सच्ची प्रतिक्रिया थी। उस
दिन मैंने जाना कविताओं पर प्रतिक्रिया लिख कर या बोल कर ही नहीं दी जाती.... आँखों में देखी वो चमक मेरी
आँखों में कैद हो गई थी।
मैंने दोपहर के लंच
के लिए खाने की प्लेट लगाई और बाहर से मँगवाया डिब्बा बंद खाना खोला। सर ने देखते
हुए कहा - आपकी प्लेट कहाँ है ... मैं बोली- नहीं, सर ... आज मेरा व्रत
है मैं खाना अभी नहीं खा सकूँगी ... अगर व्रत नहीं होता
तो मैं आपको मटन मँगवा कर खिलाती ... मैंने आपसे बहुत सुना है कि आपको मटन खाना
बहुत पसंद है ...अब जब भी अगली बार आना हुआ मटन -पार्टी पक्की है। तीज -त्यौहार
खास दिनों में मैं जब भी सर को फोन
करती
मुझे सुनने को मिलता ... आज मैं मटन बना रहा हूँ, रुचि।
मटन से उनका खासा लगाव था। वो जब खाना खा रहे थे, मैंने पूछा .... आपको मटन बहुत पसंद है, सर
... वो खाना खाते हुए प्लेट की तरफ देखते हुए बोले - हाँ .... मुझे मटन खाना बहुत
पसंद है इतना कि कोई मुझे दिन में तीन बार भी दे तो मैं चौथी बार भी खाना चाहूंगा ....उसे मना
नहीं करूँगा ...जितनी बार मिलेगा, उतना
खा सकता हूँ मेरी मटन खाने की भूख मिटती नहीं है। मैं सुबह-दोपहर-रात तीनों वक्त खा सकता हूँ।
वो प्लेट की तरफ देखते हुए खाना खाते रहे बताते रहे।
उन्होंने बताया -उनकी सौतेली माँ थीं जो उनके बचपन में घर आयी थीं। वो रोज़ शाम को रात में
खाने के लिए मीट पकातीं .... मीट और मसालों की मिली-जुली
गंध पूरे घर में फैलती जाती थी। वो उस गंध को लिए हुए मीट मिलने के इंतजार में
बैठे रहते पर उनके हिस्से आता आलू का एक टुकड़ा
और कटोरा भर शोरबा..... फिर दूसरे दिन उसी तरह मीट बनता.... उसकी गंध से सारा घर
महकता उसमें डाला जाता आलू
और उन्हें लंबे इंतजार के बाद मिलता आलू का टुकड़ा।
उन्हें बचपन में कभी नहीं मीट मिला.... मिला तो केवल भर आलू का टुकड़ा और शोरबा। हर दिन मीट
बनता.... मीट और मसालों की गंध से घर महक उठता.... वो
महक उन्हें रसोई से उठते धुंए की ओर खींचती रहती । दिन मीट बनने की उस गंध के ख्याल में
बीत जाता... शाम से इंतजार शुरू हो
जाता
और हिस्से आती केवल भर महक। वो बता रहे थे... मैं देख रही थी सत्तर साल में भी तरोताजा होती जा रही मीट की
उस बासी गंध को। उन्होंने बताया कि
बड़े
हो कर... अपने पैरों पर खड़े होकर उन्होंने रोटी से पहले मीट कमाया .... कमाया और खूब खाया. इतना खाया पर न तो
उससे पेट भरा न ही खाने की तृष्णा मिटी। मीट
खाने की इच्छा और बढ़ती ही रही.... वो मीट के लिए कभी खुद को न नहीं कह सके.... बचपन में
बनते उस मीट की महक उनका पीछा नहीं
छोड़ती
है वो स्वाद उन्हें कभी मिला ही नहीं उस स्वाद की तलाश में वो मीट खाते चले जा रहे हैं.... वो बता रहे थे
मैं सुन रही थी काश मैं मीट मँगा कर
खिला
देती उस दिन.... मैंने अगली बार मटन -पार्टी का वादा किया था उनसे .... पर बारी ही नहीं आयी ....बारी से पहले
ही वो अब जा चुके थे।
बातों -बातों में उस
रोज़ मैंने उन्हें बताया- मेरी माँ और
पिता
वर्किंग थे। मेरी परवरिश का एक बड़ा हिस्सा मेरे पड़ोस वाले तमिल परिवार में भी
बीता है .... उस परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी रही थी कि उधार पर लाकर घर में खाना
बनता ... मैंने वहीं पर उस घर
में पहले-पहल अन्न खाना सीखा .... मोटा
चावल, अरहर
की पतली दाल और छिक्कल वाले आलू ....उस घर में
मिट्टी के चूल्हे पर बनते। उस घर में नैना-अम्मा मुझे गोद में बिठा कर अपने हाथ से चावल खिलाते थे । उस भात को
खा कर मैं बड़ी हुई हूँ। वही मोटा भात दौड़ रहा है मेरे शरीर में लहू बन कर.....
मैंने होटल-रेस्टोरेंट... में
तमाम किस्म की बिरयानी खायी .... उम्दा से उम्दा बासमती खरीदा ... पर आज भी मेरी ज़ुबान उस मोटे भात को ही
तलाश रही है.... जितना चावल खाती हूँ..... चावल खाने
की तृष्णा मेरी बढ़ती जाती है... उस भात को खाने के लिए मैं कभी तोताराम कुम्हार के घर खाना
खाने पहुंच जाती हूँ कभी मेरे घर काम करने वाली हरबती
का टिफिन खोल कर बैठ जाती हूँ... उस भात उस प्यार की तलाश में अलग -अलग शहरों में जितने भी
लोगों ने मेरे घर काम किया वो सभी मेरी सहेलियाँ बन
जाती हैं.... कोई भी शहर छोड़ने से ज्यादा मुझे इन कामवालियों को छोड़ने का दर्द
रहता है । मैंने बताया.... मैं ज्यादा उनसे जुड़
जाती हूँ जो जीवन में बहुत से सुखों से वंचित रहे हैं, जो सुखी हैं उनसे मेरा जुड़ाव उस तरह नहीं होता ....
मैं उनके लिए खुश रहती हूँ...उनके लिए सोचती हूँ.... कि
ईश्वर की कृपा है उन पर ... उनके लिए और क्या
माँगू वो तो वैसे ही सुखी
हैं ....जो सुखों से वंचित रहे हैं उनसे जुड़ती चली जाती हूँ... मेरा जुड़ाव उनसे बढ़ता चला
जाता है।
और मैं सोच में पड़ गई कि ये कौन हैं... कवि,
लेखक ,चिन्तक, दार्शनिक, मार्गदर्शक, गुरु, शिक्षक, हितैषी..... कौन? मुझसे मेरी पहचान कराने आए हैं कि मैं कौन हूँ...
ये उत्तर थमा गए मेरे हाथ में.... वो कौन हैं...
ये सवाल मेरे हाथ में थमा गए जाते हुए। कह कर गए मुझे कि लिखो, खूब लिखो उन पर लिखो...
जो जीवन के सफर में मिले..... लिखो उन पर जो
तुम्हें मिले नहीं..... जिनकी तलाश है तुम्हें... वो तलाश लिखो... जो नहीं लिखोगी...
अन्याय कर जाओगी... लिखो रुचि... अँगुलियों में लिखने की भूख पैदा करो...
सर चले गए कह कर। वो जब लौट रहे थे दिल्ली से
सासाराम मैंने उन्हें फोन किया था -आप कहाँ पहुँचे हैं, सर? वो बोले -अभी दो घंटा में शेरशाह सूरी
की धरती को स्पर्श करूँगा ..... वो दिल्ली से लौट रहे
थे अपने सासाराम। सासाराम उन्हें बुला रहा था अपने पास अपनी दोनों बाँहें फैलाए और
वो पहुंच गए....जाकर गले लग गए उसके, कभी
न बिछड़ने के लिए। वो अब भी सासाराम में ही हैं ..... पेड़ पहाड़ पोखर के आस -पास टहल रहे हैं अपनी कविताओं के
संग बात करते हुए। जिस सासाराम से वो इतना स्नेह करते
थे .... वो सासाराम उन्हें विदा कर ही नहीं सकता .... नहीं जुदा कर सकता खुद से उनको ..... वो
अमर रहेंगे , ठीक उनकी लिखी हुई इस
कविता की तरह ........
शून्य
में जैसे जीवित है हवासात रंगों वाली सूरज की किरण
जब तक बचे हैं नदी सागर पहाड़
फूलों में अदृश्य गंध
जीवित है जब तक बच्चों की मुस्कान
जब तक चिड़ियाएँ चुगती रहेंगी तिनके
आँखें बुनती रहेंगी सपने
और कविताओं के लिए बचे रहेंगे शब्द
मैं बचाए रखूंगा अपना प्यार
मेरी मृत्यु के बाद
मेरी कब्र की नन्ही-नन्ही घासों पर
ओस बूँद बन उतरेगा मेरा प्यार
सम्पर्क -
ई मेल ruchibhalla72@gmail.com
फोन नंबर 09560180202
फरीदाबाद
पढ़ते हुए ऐसा लगा मानो एक हिस्सा मैं भी हूँ ।आँखें भींग गयी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लिखा है!
जवाब देंहटाएंbahut sunder or marmick anukarnye vichar
जवाब देंहटाएंbahut hi aatmeeya . badhai ruchi.
जवाब देंहटाएंbahut hi aatmeeya . badhai ruchi.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा - बधाई रूचि
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