प्रतुल जोशी का आलेख 'कुछ जगबीती, कुछ आप बीती : “प्रतिरोध का सिनेमा” के दस वर्ष'
बालीवुड के बौद्धिक
दिवालियेपन से निराश लोगों के लिए उम्मीद की किरण है – ‘प्रतिरोध का सिनेमा’। संजय
जोशी ने ‘प्रतिरोध के सिनेमा’ की शुरुआत एक सामाजिक-सांस्कृतिक के रूप में की थी
जो अब एक आन्दोलन का रूप ले चुकी है। गोरखपुर में सन् 2006 से छोटी सी शुरुआत करने
वाले उनके ग्रुप को भी यह अंदाजा नहीं था कि धीरे-धीरे ‘गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल’
राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का हो जायेगा। पिछले वर्षों में ‘गोरखपुर फिल्म
फेस्टिवल’ में देश के नामी-गिरामी फिल्मकारों ने शिरकत की है। आगामी 14-15 मई को
गोरखपुर में ‘11वां गोरखपुर फिल्म
फेस्टिवल’ होने जा रहा है जो ’प्रतिरोध का सिनेमा’ आंदोलन का 56वां पड़ाव
है। इसके सफलता की कामनाएँ करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं प्रतुल जोशी का एक एक
आलेख ‘कुछ जगबीती, कुछ आपबीती’।
कुछ जगबीती, कुछ आप बीती
“प्रतिरोध का सिनेमा” के दस वर्ष
प्रतुल जोशी
उत्तर प्रदेश के पूर्वी अंचल में एक शहर है
गोरखपुर। गोरखपुर शहर का अपना एक अलग मिजाज है। भारत-नेपाल सीमा के पास का एक बड़ा
शहर, दो जातीय गुटों के बीच लम्बे समय तक
चले गैंगवार के किस्से, बरसात के मौसम में जापानी
इन्सेफेलाइटिस से हर वर्ष होने वाली सैकड़ों बच्चों की मौत, गो रक्षा धाम पीठ, सामंती प्रभुत्व के अवशेषों का
प्रतिनिधित्व करती प्रखर जातीय चेतना। इस शहर ने अगर उर्दू साहित्य को फिराक
गोरखपुरी जैसा बड़ा शायर दिया है तो हिन्दी में रामदेव शुक्ल, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, मदनमोहन, परमानंद श्रीवास्तव, रामचन्द्र
शुक्ल जैसे नामचीन साहित्यकार भी इसी शहर की उपज हैं। इसी शहर से वर्ष 2006 में एक
अलग शुरुआत हुई। शहर के कुछ संस्कृतिकर्मियों, जागरुक
नागरिकों एवं राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने एक अलग किस्म के फिल्म फेस्टिवल का आयोजन
किया। इसमें वह फिल्में थीं जो सिंगल स्क्रीन और मल्टीप्लेक्स थियेटरों के पर्दे
पर नहीं दिखाई जातीं। इसमें से कई फिल्में विश्व सिनेमा का दस्तावेज भी हैं। लेकिन
सीमित जनता तक ही उनकी पहुंच है। जैसे एक
फिल्म है ’सुरु’। ’सुरु’ एक तुर्की फिल्म है जिसके निर्देशक हैं इलमास गुने। यह फिल्म तुर्की
के एक दूरस्थ इलाके में भेड़ चराने वाली जनजातियों के आपसी युद्ध और बदलते विश्व
में शहरी समुदायों द्वारा जनजातियों के शोषण पर आधारित है। गजब की फिल्म है ’सुरु’।
लेकिन
गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के एजेण्डे में जनता को सिर्फ मनोरंजन और कम चर्चित
फिल्में दिखाना ही नहीं था। इसकी शुरुआत एक उद्देश्य के साथ हुई। उद्देश्य था ऐसे
सिनेमा को प्रोत्साहित करना जो जनता के संघर्षों को कैमरे में कैद करता हो। इसलिए
फिल्मों के अलावा डॉक्यूमेन्ट्री, इस
फिल्म फेस्टिवल का एक मुख्य अंग है। वर्ष 2006 में भगत सिंह के शहादत दिवस 23
मार्च से शुरु हुआ यह फिल्म आंदोलन अब इतना व्यापक हो चुका है कि देश के 15 शहरों
में इसके नियमित आयोजन हो रहे है। गोरखपुर के अलावा यह शहर हैं लखनऊ, इलाहाबाद, आजमगढ़, बनारस, देवरिया, गाजियाबाद, नैनीताल, रामनगर (उत्तराखण्ड) कोलकाता, चौबीस परगना,
हैदराबाद, पटना, उदयपुर चित्तौड़गढ़, जयपुर, सलुम्बर (राजस्थान)। अपने तरह के अनूठे
इस फिल्म आंदोलन में लगातार नये-नये शहर जुड़ते जा रहे हैं। इस फिल्म आंदोलन को नाम
दिया गया है ’’प्रतिरोध का सिनेमा’’।
’प्रतिरोध का सिनेमा’ के आयोजन में कई बार जाने का अवसर मुझे
भी मिला। इसका एक बेहद निजी कारण भी था। दरअसल इस पूरे फिल्म आंदोलन की स्थापना से
अपन के छोटे भाई संजय जोशी जुड़े रहे हैं। इस समय आंदोलन का राष्ट्रीय संयोजक वही
है। गोरखपुर में सन् 2006 से छोटी सी शुरुआत करने वाले उनके ग्रुप को भी यह अंदाजा
नहीं था कि धीरे-धीरे गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का
हो जायेगा। पिछले वर्षों में गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल में देश के नामी-गिरामी
फिल्मकारों ने शिरकत की है। आगामी 14-15 मई को गोरखपुर में ’11वां गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल’ होने जा रहा है जो ’प्रतिरोध का सिनेमा’ आंदोलन का 56वां पड़ाव है।
संजय जोशी |
एक
प्रश्न यह है कि व्यवसायिकता के इस दौर में ज्यादा से ज्यादा लोग क्यूं इस तरह के
फिल्म आंदोलन से जुड़ रहे हैं। कारण साफ है। लोग बॉलीवुड के बौद्धिक दिवालियेपन से
निराश हैं अधिकांश हिन्दी फिल्मों में समकालीन भारतीय सामाजिक यथार्थ गायब है। अब
तो हिन्दी फिल्में ओवर सीज हिन्दी मार्केट को ध्यान में रख कर बनायी जाती है। देश
के लाखों गांवों में सूखे की मार, गरीब
जनता का गांवों से शहरों की ओर पलायन, शहरों
में बेतहाशा जनसंख्या के बढ़ने से मूलभूत नागरिक सुविधाओं की कमी, बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा अंधाधुंध
फायदे के लिये गरीबों और आदिवासियों को उनके मूल निवास स्थानों/पेशों से उजाड़ना
जैसे विषय अधिकांश व्यवसायिक फिल्मकारों के कैमरे का विषय नहीं बनते। वहीं दूसरी
तरफ सर्वसुलभ और सस्ती डिजिटल तकनीक ने युवा फिल्मकरों की एक ऐसी कतार खड़ी कर दी
है जो जनता और उनके संघर्षों से जुड़े विषयों को अपनी डॉक्यूमेंटरी का विषय बनाते
हैं। ’प्रतिरोध का सिनेमा’ ऐसी फिल्मों, डॉक्यूमेंटरी और फिल्मकारों को मंच
प्रदान करता है और यह फिल्म आंदोलन बिना
किसी सरकारी अनुदान, कॉर्पोरेट और एन जी ओ फंडिंग के पिछले
दस वर्षों से लगातार सक्रिय है। हर शहर में इसका एक ही रुप है। शहर के कुछ समर्पित, वैचारिक रुप से प्रखर एवं फिल्मों ओर
डॉक्यूमेंटरी में रुचि रखने वाले नागरिकों द्वारा एक फिल्म सोसायटी का गठन। फिर
आपस में चंदा करके दो या तीन दिवसीय फिल्म फेस्टिवल का आयोजन। किसी कॉर्पोरेट
घराने, या पूँजीजीपति/भ्रष्ट अधिकारियों से
चंदा लेने की सख्त मनाही है। डॉक्यूमेंटरी और फिल्में उन्हें ’प्रतिरोध का सिनेमा’ के पदाधिकारियों द्वारा मुहैया की जाती
है। पिछले वर्षों में ’प्रतिरोध का सिनेमा’, सिर्फ एक डॉक्यूमेंटरी और फिल्म उत्सव
बन कर ही नहीं रह गया है वरन अब थियेटर, गीत, पेंटिंग, विचार गोष्ठी,
कहानी सुनाना जैसे बहुत से अन्य तत्व
भी जुड़ गये हैं। ’प्रतिरोध का सिनेमा’ आंदोलन ने छोटे शहरों और बड़े शहरों के मध्य विद्यमान
बौद्धिक असमानता को कम करने का काम किया है। अब आपको उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े और
सुदूर गांव में ऐसे लोगों का समूह मिल जायेगा जो एम.एस.सथ्यू, सईद मिर्जा और कुंदन शाह की फिल्मों पर
बात कर रहा हो या आपको सिनेमा और डॉक्यूमेंटरी का अन्तर समझा रहा हो। जनता के
संघर्षों और ताकत को फिल्म के पर्दे पर प्रतिबिम्बित करता ’प्रतिरोध का सिनेमा’ का कारवां आने वाले समय में जनता की
बढ़ती ताकत के साथ बढ़ता ही जायेगा।
सम्पर्क -
कार्यक्रम अधिशासी
पूर्वोत्तर सेवा, आकाशवाणी
शिलांग
मो.-9452739500
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार!
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
Salaam !! Shubhkaamnayen !!
जवाब देंहटाएं- Kamal Jeet Choudhary.