अनिल जनविजय का आलेख 'लेफ़ तलस्तोय की प्रेम कहानी'
प्रेम मानव जीवन की सघनतम
अनुभूति है। शारीरिक से ज्यादा
मानसिक अनुभूति, जिससे प्रभावित हो हम इसे महसूस ही नहीं करते कुछ भी कर गुजरने के
लिए तैयार हो जाते हैं। दुनिया के महानतम लेखकों में से एक लेफ तलस्तोय ने भी एक
लडकी से प्रेम किया था। इस प्रेम कहानी पर अनिल जनविजय ने एक नजर डाली है। तो आइये
आज पढ़ते हैं लेफ़ तलस्तोय की प्रेम कहानी।
अनिल जनविजय
लेफ़ तलस्तोय की प्रेम
कहानी
1862 का एक दिन। अगस्त का महीना। मास्को के क्रेमलिन में स्थित एक
भवन। इस घर में पहले रूस के ज़ार का परिवार रहता था। यह अब रूस के एक प्रसिद्ध
डाक्टर अन्द्रेय बेर्स का निवास स्थान है। अचानक शाम के समय उनके यहाँ एक
संदेशवाहक आता है। वह बताता है कि जागीरदार लेफ़ तलस्तोय और उनकी बहन मरीया
निकलाएव्ना ने डा० बेर्स परिवार को अपनी जागीर यास्नया-पल्याना में आमन्त्रित किया
है। संदेशवाहक उन्हें तलस्तोय परिवार द्वारा भेजा गया लिखित निमंत्रण-पत्र भी
सौंपता है।
— उन्हें इस निमंत्रण
के लिए हमारी ओर से धन्यवाद कहना — थोड़ा-सा सिर झुका कर रूखी
आवाज़ में डा० बेर्स ने कहा — कुछ ही दिनों में मेरी पत्नी
ल्युबोफ़ अलिक्सान्द्रव्ना और मेरी तीनों बेटियाँ अपने मामा इसलिन्येफ़ के पास
इवीत्सी जाएंगी, अगर सब कुछ ठीक रहेगा तो वे वहीं से
यास्नया-पल्याना भी पहुंच जाएंगी। वहां से यास्नया-पल्याना पास ही है। जागीरदार
साहब से कह देना, मैं तो शायद ही आ पाऊंगा। बहुत काम है।
संदेशवाहक ने जर्मन मूल के इस रूसी
डाक्टर के रूखे स्वर को सुन कर यह अन्दाज़ लगा लिया कि डाक्टर किसी बात पर नाराज़
हैं। वह जवाबी संदेश ले कर चुपचाप वहां से लौट गया। डा० बेर्स अपने परिवार के बारे
में सोचते हुए अगले मरीज़ का इंतज़ार करने लगे। बड़ी बेटी लीज़ा उन्नीस बरस की हो गई
है। समय आ गया है कि अब उसकी शादी कर द्नी चाहिए। वैसे तो अब तक कभी की उसकी शादी
कर दी होती। लेकिन कोई अच्छा लड़का मिले, तब ना...।
लेफ़ तलस्तोय अपने पड़ोसी जागीरदार
इसलिन्येफ़ की भानजियों को उनके बचपन से ही जानते थे। वे अक्सर उनके घर मास्को के
क्रेमलिन में भी आते-जाते थे। इसके लिए बहाने बहुत से मिल जाते थे। लेकिन उनका
उद्देश्य एक ही होता था, किसी तरह डा० बेर्स
की बड़ी बिटिया लीज़ा से निकटता बढ़ाना ताकि उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा जा
सके।
लीज़ा अपने पिता की ही तरह सुडौल, सुन्दर और सुशिक्षित है। ऐसी लड़की से विवाह
करके कोई पुरुष सिर्फ़ गर्व ही कर सकता है। लेकिन लेफ़ तलस्तोय पिछले दो साल से उसके
घर के चक्कर लगा रहे हैं और उन्होंने अभी तक इस सिलसिले में कोई चर्चा तक नहीं की
है। यहां आकर वे बेर्स की नीली आंखों वाली मंझली बेटी सोन्या के साथ ही बात करते
रहते हैं या फिर छुटकी चुलबुली तान्या के साथ हंसी-मज़ाक में लगे रहते हैं। ऐसा
लगता है, मानो वे लीज़ा से डरते हों। हालांकि उनकी उम्र कुछ
कम नहीं है। वे तैंतीस साल के हो चले हैं और अब तक दो लड़ाइयों में हिस्सा ले चुके
हैं। क्या यूं ही कुंआरे घूमते और कभी किसी तो कभी किसी स्त्री के साथ रिश्ते
बनाते उनका मन नहीं भरा है। हालांकि बहुत सुन्दर तो नहीं हैं वे, इतने कि उन्हें हैंडसम कहा जा सके, लेकिन फिर भी ऐसे
वर तो हैं ही, जिस के वरण की इच्छा बहुत-सी लड़कियां कर सकती
हैं। कुलीन वर्ग के सभ्य, धनी, बेहद
समझदार और शिक्षित वर। हां, यह ज़रूर है कि लेखकों की तरह ही
तलस्तोय भी कभी-कभी कुछ अटपटा-सा व्यवहार करते हैं। कभी अपने कृषि-दासों को आज़ाद
करने की कोशिश करते हैं (तब तक रूस में दासप्रथा बाक़ी थी) तो कभी खुद ही हल लेकर
खेतों को जोतने पहुंच जाते हैं। कभी कृषि-दासों के बच्चों के लिए स्कूल खोलते हैं
तो कभी अपना घरेलू काम खुद ही करने की बात करते हैं। परन्तु, इसमें कोई सन्देह नहीं कि व्यक्ति वे विद्वान हैं। पत्र-पत्रिकाओं में
उनकी तुलना रूसो और शेक्सपीयर से की जाती है। जबकि सोन्या का तो मानना यह है कि
लेफ़ तलस्तोय इन दोनों से भी बड़े लेखक हैं।
उनका उपन्यास ’बचपन’ पढ़ कर तो वह जैसे
उन पर फ़िदा हो गई है। कहीं ऐसा तो नहीं कि तलस्तोय से गहरे प्रभावित हो कर यह लड़की
भी लेखक बनने की तैयारी कर रही हो। वैसे हाल ही में उसने अपनी लिखी एक कहानी सुनाई
थी, जिसके पात्रों के नाम हालांकि दूसरे थे, लेकिन वे पात्र काफ़ी कुछ लीज़ा, लेफ़ तलस्तोय और खुद
सोन्या से ही मिलते-जुलते थे। हे भगवान ! अभी तो उसकी उम्र अट्ठारह की भी नहीं हुई
और हरकतें देखो इसकी। पता नहीं, क्या गुल खिलाएगी...।
मां के साथ मामा के घर इवीत्सी जाने
से पहले डा० बेर्स ने लीज़ा को अपने पास बुलाया और स्नेह भरे स्वर में कहा — मेरी गुड़िया! अगर तुम यास्नया-पल्याना जाओ तो
लेफ़ के साथ अकेले में अधिक से अधिक समय गुज़ारने की कोशिश करना।
लीज़ा शर्म से लाल हो गई — मैं तो पूरी कोशिश करती हूं, पापा। वे खुद ही मुझ से दूर भागते हैं और सोन्या के साथ ज़्यादा समय
गुज़ारते हैं।
— बिटिया, अब कहीं तुम यह न कहने लगना कि उसकी नज़र तान्या पर है।
— नहीं, नहीं, पापा, मुझे पूरा यक़ीन है
कि वे सोन्या पर ही लट्टू हैं। — लीज़ा ने अपनी पलकें झपकाईं।
— अच्छा, चलो छोड़ो, बस बहुत हुआ। एकदम अपनी मां पर गई है।
वैसे ही जलती है दूसरों से, खाली-पीली, बिन बात। — डा० बेर्स का यह मानना था कि औरतों के
दिल की बात वे औरतों से ज़्यादा जानते हैं। अपनी जवानी में उन्होंने भी कम औरतें
नहीं देखी हैं। — बिटिया, इसमें कोई शक
नहीं कि वह तुझे ही प्यार करता है। हां, ऐसा लगता है कि तुझे
अपने दिल की बात बताने में उसे डर लगता है। मुझे लगता है कि तुम जब
यास्नया-पल्याना जाओगी तो सारी बात साफ़ हो जाएगी। इसीलिए उन लोगों ने हमें अपने
यहां बुलाया है...।
आख़िर बेर्स परिवार यास्नया-पल्याना
पहुँच गया। तलस्तोय ने उन सबका भाव-भीना स्वागत किया। सभी के साथ वे बड़ी सहजता और
सौम्यता से मिले। कभी-कभी तो ऐसा लगता कि वे उसी परिवार का एक हिस्सा हों। लेकिन
यहां भी वे अपना अधिकांश समय सोन्या के साथ ही बिताते। उसी की तरफ़ ज़्यादा ध्यान
देते। जब यह सवाल उठा कि रात को सोन्या कहां सोएगी तो जागीरदात लेफ़ तलस्तोय खुद ही
भाग-दौड़ करने लगे। जाकर कहीं से एक आराम-कुर्सी उठा लाए। उसे सोफ़े के साथ इस तरह
लगा दिया कि आरामदेह बिस्तर तैयार हो गया। यह सब देखकर सोन्या जहां थोड़ा-सा असहज
हो उठी, वहीं मन ही मन वह
खुशी भी महसूस कर रही थी।
उसी शाम मेजबान ने अपने इन मेहमानों
के स्वागत में दावत दी। तलस्तोय ने देखा कि सोन्या मेज़ पर नहीं है। वे उसे वहां न
पा कर बेचैन हो उठे और उसे ढूंढ़ने लगे। सोन्या उन्हें घर के पीछे वाले छज्जे में
मिली। वे चुपचाप उसके एकदम पीछे जा कर खड़े हो गए और ज़ोर से उसका असली नाम लिया —
सोफ़िया अन्द्रेव्ना! वह चिहुंक पड़ी। उसने पलट कर पीछे देखा। उसकी नीली मखमली आँखों
के सौन्दर्य ने जैसे उन पर वशीकरण-सा कर दिया। वे कुछ घबरा गए। लेकिन तुरन्त ही
कहा — हम सब खाने पर आपका इन्तज़ार कर रहे हैं। उन्होंने उसे ’आप’ कह कर पुकारा था।
हालाँकि आज तक वे उसे सिर्फ़ ’तुम’ ही
कहते रहे थे। — पता नहीं क्यों,
मुझे आज ज़रा भी भूख नहीं है — सोन्या ने उत्तर दिया
— लेफ़ निकलायविच
! जब तक आप लोग खाना खाएंगे, क्या मैं यहीं बैठ सकती हूँ?
और उसके बाद मैं सोना
चाहूंगी। तलस्तोय ने अपने कन्धे उचकाए और उत्तर दिया — मन
होता है कि आपको देखता ही रहूं। कितनी सहज हैं आप,
कितनी सरल, कितनी सुन्दर...! — और यह कह कर वे जल्दी से खाने की मेज़ पर वापिस लौट आए।
लेफ़ तलस्तोय |
अगले दिन तलस्तोय ने
मेहमानों के लिए पास के जंगल में पिकनिक का आयोजन किया। नौकरों ने भोजन-पानी
और दूसरा सब सामान छकड़ों पर लाद दिया। तीनों लड़कियों और उनकी मां के लिए
फ़िटन का इन्तज़ाम किया गया और तलस्तोय ख़ुद लम्बी अयालों वाले एक ख़ूबसूरत सफ़ेद
घोड़े पर सवार हो गए। तभी उन्होंने देखा कि सोन्या भी घोड़े की सवारी करना
चाहती है। तलस्तोय ने उसके लिए भी अलग से एक और घोड़ा मंगवा दिया। दोनों
अपने-अपने घोड़ों पर सवार होकर आगे-आगे चल पड़े। बेचारी लीज़ा ने बेहद दुखी
होकर अपनी मां से पूछा — ममा, तुम्हें क्या यह सब ठीक
लगता है?
मां ने उत्तर दिया — हां, सब ठीक है, लीज़ा। तुम घुड़सवारी
करने से डरती हो और वह नहीं डरती। ल्युबोफ़ अलिक्सान्द्रव्ना ने अपने मन
की यह बात छुपाने की कोशिश नहीं की कि वे सोन्या को ही सबसे ज़्यादा प्यार
करती हैं। उन्होंने आगे कहा —
अच्छा यही होगा, लीज़ा, कि तुम यह समझ लो कि
अपने सुख के लिए हमें ख़ुद ही लड़ाई करनी चाहिए... सुख किसी को भी थाल में
रखा हुआ नहीं मिल जाता...।
कुछ दिन यास्नया-पल्याना में रहकर
बेर्स परिवार की लड़कियां अपने मामा के पास
इवीत्सी चली गईं। एक-दो दिन के बाद अपने
उस सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर लेफ़
तलस्तोय भी उनके पीछे-पीछे इवीत्सी
पहुँच गए। वे बेहद ख़ुश और ताज़ादम लग रहे
थे। मुस्कान उनके होठों से छलक-छलक जाती
थी। किसी किशोर बालक की तरह वे
बेहद उछाह में थे। लड़कियों के साथ
उन्हीं की तरह से ज़ोर-ज़ोर से बोलते हुए
वे वैसे ही उछल-कूद रहे थे। लड़कियों को
भी उनका साथ पसन्द आ रहा था। वे भी
बात-बेबात बार-बार कभी ज़ोरों से हँसती
थीं तो कभी चीख़ने लगती थीं। नंगे पैर
ही घास पर दौड़ते हुए वे लोग छुअम-छुआई
खेल रहे थे। तभी अचानक सोन्या भाग कर
वहां खड़ी एक घोड़े-रहित बग्घी में जाकर
बैठ गई और बोली — जब कभी मैं
महारानी बनूंगी तो ऐसी ही बग्घी में सवारी किया करूंगी।
तलस्तोय तुरन्त ही उस बग्घी में घोड़े की तरह जुत गए और दो-तीन सौ मीटर तक उस
बग्घी को खींच कर ले गए।
दोपहर में आस-पास की जागीरों से मेहमान वहाँ पहुँचने लगे, जिनमें युवक-युवतियाँ, स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएँ, सभी उम्रों के लोग
थे। कुछ लोग घर के भीतर से पियानो
खींच कर बाहर ले आए। नाचना-गाना शुरू हो
गया। हंगामा बढ़ने लगा। महफ़िल जमने
लगी। परन्तु जैसे-जैसे शोर बढ़ता गया, लेफ़ तलस्तोय शान्त
होते गए। होते-होते हालत यहां तक पहुंची कि तलस्तोय उस महफ़िल से अलग-थलग चुपचाप एक
कोने में खड़े थे। उन्हें जैसे किसी चीज़ ने एकदम बदल कर रख दिया था। वे
उदास नज़रों से नाचते हुए जोड़ों को ताक रहे थे।
शाम के नौ बज चुके थे।
सूर्य की किरणें अपना ताप खो चुकी थीं पर क्षितिज में लाल गोला अभी भी अटका
हुआ था। तलस्तोय ने सोन्या को इशारे से अपने पास बुलाया और घर के भीतर
उस कमरे में ले गए जहाँ सोन्या के मामा इसलिन्येफ़ अक्सर अपने दोस्तों
के साथ ताश खेला करते थे। इस वक़्त भी उदासी उन्हें घेरे हुए थी। कुछ-कुछ
परेशान और उदास स्वर में उन्होंने सोन्या से कहा —
देखिए,
मैं इस सलेट पर अभी कुछ लिखूंगा, क्या आप इसे पढ़
पाएंगी। तलस्तोय ने सलेटी
से जल्दी-जल्दी कुछ अक्षर लिख डाले — आ. ज. औ. जी में सु.
पा. की इ. मु. तु. अ. बु. औ. जी. भ. सु. न मि. पा. की सं. की या. दि. हैं। ये
अक्षर लिख कर तलस्तोय ने सलेट सोन्या की ओर बढ़ा दी और अपनी उदास नीली आंखों
से वे उसकी ओर ताकने लगे।
बीसियों साल बाद उस दिन को याद
करते हुए सोफ़िया अन्द्रेव्ना ने उस समय की अपनी मनोदशा का वर्णन इन शब्दों
में किया — मेरा दिल बड़ी ज़ोर से धड़क रहा था,
माथे पर पसीना आ गया था, चेहरा भयानक रूप से
जल रहा था। समय जैसे ठहर गया था। बल्कि
यूं कहना चाहिए कि मैं जैसे समय के बाहर
कहीं गिर पड़ी थी, अपनी चेतना के
बाहर,
सुदूर कहीं अन्तरिक्ष में। मुझे लग रहा
था कि मैं कुछ भी कर सकती
हूं,
सब कुछ मेरे बस में है, मैं सब कुछ समझ रही
थी, हर उस चीज़ को अपनी
बाहों से घेर सकती थी, जो आम तौर पर मेरी
बाहों के घेर में नहीं समा
सकती...।
— आपकी जवानी और... जीवन में सुख पाने की इच्छा — सोन्या उन अक्षरों को
अन्दाज़ से पढ़ने की कोशिश कर रही थी,
पहले अटकते हुए और फिर धीरे-धीरे पूरे
विश्वास के साथ — मुझे तुरन्त अपने बुढ़ापे और... जीवन भर सुख... न मिल पाने
की... संभावना की याद दिलाते हैं।
लेफ़ तलस्तोय को पूरा विश्वास था कि सोन्या एकदम ठीक-ठीक इस वाक्य
को पढ़ लेगी, इसलिए उन्हें ज़रा भी आश्चर्य नहीं हुआ कि सोन्या ने कुछ ही
क्षणों में उनकी उस पहेली को हल कर लिया।
— और अब ज़रा यह पढ़ने की कोशिश कीजिए...। वे सलेट पर कुछ और लिखने
ही जा रहे थे कि सोन्या की मां की आवाज़ सुनाई पड़ी, जो कुछ घबराई हुई-सी
सोन्या को ढूँढ़ रही थीं।
— सोन्या, सोन्या तू कहाँ है?
यहाँ क्या कर रही है? चल, सोने का समय हो गया
है। नीली आंखों वाली वह लड़की शर्म से जैसे ज़मीन में गड़ गई मानो उसे चोरी
करते हुए पकड़ लिया गया हो। वह तुरन्त वहाँ से भाग गई। अपने कमरे में
पहुँचकर उसने मोमबत्ती जलाई और अपनी डायरी में लिखा — आज हमारे बीच जैसे
कुछ घट गया है... कुछ ऐसा... कुछ इतना महत्वपूर्ण कि अब वापिस पीछे की ओर
लौटना मुमकिन नहीं है...।
चेखव के साथ लेफ़ तलस्तोय |
ल्युबोफ़ अलिक्सान्द्रव्ना जब
अपनी बेटियों के साथ वापिस मास्को लौटने लगीं तो अचानक ही तलस्तोय ने कहा — मैं भी आप लोगों के
साथ ही चलूँगा। आपके बिना अब यहां
सब सूना-सूना लगेगा। यहां अब मेरा मन
नहीं लगेगा। उनके इस निर्णय से सब
बेहद ख़ुश हुए। ख़ासकर लीज़ा बहुत ख़ुश हुई।
तलस्तोय ने बताया कि वे फ़िटन में
सबके साथ नहीं, बल्कि फ़िटन के बाहर
फ़िटन-चालक के पास बनी खुली जगह पर
बैठेंगे। लड़कियों से उन्होंने कहा कि
यदि वे भी उनके साथ बाहर बैठना चाहें
तो बारी-बारी से बैठ सकती हैं। जब
सोन्या की बाहर बैठने की बारी आई तो लीज़ा
को अपनी मां के ये शब्द याद आ गए कि
अपने सुख के लिए लड़ाई हमें ख़ुद ही
लड़नी चाहिए। लीज़ा ने सोन्या के कान में
फुसफुसाते हुए कहा — अगर तुझे कोई
फ़र्क न पड़ता हो तो मैं तेरी जगह बाहर
बैठना चाहती हूं। सोन्या ने बड़े गर्व
से अपनी बड़ी बहन को इसका जवाब देते हुए
कहा — नहीं, नहीं, भला मुझे क्या
फ़र्क पड़ने वाला है। लीज़ा बड़े ठाठ से
जाकर तलस्तोय के पास बैठ गई और कोई बात
करने लगी। सोन्या को अचानक ही लगा कि वह
अपनी बहन से घृणा करने लगी है...।
डॉ० बर्स उन्हें घर के
दरवाज़े पर ही इन्तज़ार करते हुए मिले। जब उन्होंने देखा कि लीज़ा तलस्तोय के
साथ उनके निकट ही बैठी है तो वे बहुत ख़ुश हुए। उनके मुंह से अचानक ही
निकला — यह तो एकदम कबूतरों का जोड़ा लगता है।
तलस्तोय मास्को के अपने घर
में रहकर कुछ लिखना-पढ़ना चाहते थे। परन्तु पता नहीं क्यों, कुछ भी पढ़ने या लिखने
की उनकी मनः स्थिति नहीं बन पा रही थी। आख़िर उन्होंने एक फ़िटन
किराए पर ली और क्रेमलिन की ओर चल पड़े। लेफ़ तलस्तोय बेर्स परिवार से इतना
घुल-मिल गए थे और उन्हें उनके साथ रहने व घूमने-फिरने की जैसे आदत हो गई थी, जैसे कोई अपने ही
परिवार के साथ रहता हो। लेकिन इन
दिनों डॉ० बेर्स तलस्तोय के साथ बड़े
ठण्डे ढंग से पेश आने लगे थे। उनकी
ग़र्मजोशी जैसे कहीं बिला गई थी। उनका
व्यवहार ही बदल गया था।
डॉ० बेर्स के इस
रूखे-सूखे व्यवहार और लीज़ा की नाराज़गी से तलस्तोय भी उदास, निराश और अनमने से
रहने लगे। रास्ते के बीच में ही दो बार उन्होंने फ़िटन वाले से फ़िटन वापिस
मोड़ लेने के लिए कहा। वे उस घर में अनचाहे मेहमान बनकर नहीं जाना चाहते थे।
लेकिन दोनों ही बार यह सोच कर कि उनके वहां पहुंचने से सोन्या, तान्या और उनकी मां
कितनी प्रसन्न होंगी, तलस्तोय ने फ़िटन फिर से
वापिस अपने गन्तव्य की ओर मुड़वा दी।
बेर्स परिवार के साथ
सम्बन्ध बिगड़ने के लिए तलस्तोय ने ख़ुद को ही ज़िम्मेदार माना क्योंकि अभी हाल तक
वे ख़ुद भी तो लीज़ा को ही यास्नया-पल्याना में वधू बनाकर ले जाना चाहते
थे। लेकिन यह भी सच है कि स्त्रियों के प्रति अपनी भावनाओं के मामले में
कितनी ही बार उन्हें धोखा हो चुका है। उनके साथ शारीरिक निकटता की जो
प्यास उनके मन में जलने लगती है, वे कितनी ही बार
उसको वास्तविक प्रेम समझ बैठे हैं, जबकि दोनों में काफ़ी
फ़र्क़ होता है। बेर्स परिवार के साथ मास्को आने से कुछ पहले ही तलस्तोय ने
अपनी डायरी में लिखा था —लीज़ा बेर्स मुझे बेहद लुभाती है,
लेकिन ऐसा होगा नहीं क्योंकि उससे विवाह करने के लिए सिर्फ़ इतना ही ज़रूरी नहीं है कि उसे
देखकर मेरी राल टपकने लगे, बल्कि यह भी ज़रूरी है कि मैं उससे प्रेम करूँ। हमारे बीच केवल शारीरिक आकर्षण ही नहीं बल्कि भावात्मक लगाव भी होना चाहिए।
एक बार तो ऐसा हुआ कि
तलस्तोय ने लगभग पूरी तरह से यह तय कर लिया था कि वे उसके सामने विवाह का
प्रस्ताव रख देंगे। लेकिन तभी उन्हें यह ख़याल आया कि उसके प्रति पारस्परिक
रूप से वैसा ही भावात्मक लगाव न रखने के बावजूद उससे विवाह करके वे उसे
कितना अभाग्यशाली बना देंगे। और तभी से उन्होंने लीज़ा के बारे में सोचना पूरी
तरह से बन्द कर दिया।
अब उनके सामने यह सवाल
उठ खड़ा हुआ था कि क्या उन्हें बेर्स परिवार में आना-जाना बन्द कर
देना चाहिए। परन्तु ऐसा करना भी उनके लिए संभव नहीं था। सोन्या उनके जीवन पर
अचानक वैसे ही छा गई थी, जैसे कोई पहाड़ी नदी अचानक जल बढ़ जाने पर अपने
तटबंधों को तोड़कर उफनने लगती है और अपने आस-पास के सारे इलाके पर छा जाती है।
सच-सच कहा जाए तो उसी के वशीकरण से तो वशीकृत होकर वे उस घर में घुसने का
साहस जुटा पाते हैं, जहां उनके प्रति गृहस्वामी इतनी रुखाई से पेश आता है।
ऐसा क्या घटा, ऐसा क्या हुआ कि वह छोटी-सी किशोरी उन्हें अंधेरे में
रोशनी की किरण की तरह लग रही थी। इसे किसी भी तरह समझ पाना कठिन है। अभी
हाल तक वे उसे सिर्फ़ एक संजीदा व गंभीर किशोरी मानकर उसके साथ बहस और
ठिठोली किया करते थे। और अब वे चाहे कुछ भी क्यों न कर रहे हों, कहीं भी क्यों न हों, उन्हें लगातार उस
लड़की की याद सताती है, उसकी आवाज़ सुनाई देती है,
उसकी नीली आंखें दिखाई देती हैं। सच्चा
प्यार वास्तव में किसी माया की तरह ही होता है।
केवल उत्सुकतावश ही नहीं
बल्कि यह जानने के लिए कि सोन्या के मन में क्या है तलस्तोय ने सोन्या से
उसकी डायरी पढ़ने के लिए मांगी। सोन्या यह अनुरोध सुनकर शर्मा गई और
उसने तलस्तोय को अपनी डायरी देने से मना कर दिया। तब उन्होंने उससे वह
कहानी देने का अनुरोध किया जिसकी कुछ उड़ती हुई ख़बर उन्हें भी मिल गई थी। वह
कहानी उन्हें देने को सहमत तो हो गई,
लेकिन फिर भी यह नहीं चाहती थी कि
तलस्तोय उसकी लिखी कहानी को पढ़ें। उस छोटी-सी किशोरी द्वारा लिखी गई उस
बेहद अच्छी कहानी में कहानी के एक पात्र कुंवर दुब्लीत्स्की के रूप
में तलस्तोय ने ख़ुद को पहचान लिया था —
वह व्यक्ति जिसके सोचने का ढंग
ढुलमुल क़िस्म का होता है, अक्सर उसका चेहरा-मोहरा भी आकर्षक नहीं होता।
कुंवर दुब्लीत्स्की के बारे में कहानी लेखिका की यह टिप्पणी पढ़कर तलस्तोय
हताश हो गए। यह एक बात है कि आप स्वयं यह जानते हैं कि आप बदसूरत हैं और
यह एकदम दूसरी स्थिति, जब कोई आपके मुंह पर आपको यह बता दे कि आप बेहद
बदसूरत हैं। तलस्तोय को यह जानकर भी आश्चर्य हुआ कि इस किशोरी ने जैसे लीज़ा
के सिलसिले में उनके मन की बात पढ़ ली है। नहीं तो अपनी इस कहानी ’ज़िनाइदा’ में उसने भला कैसे यह
दिखला दिया कि बड़ी बहन ज़िनाइदा
का मंगेतर दुब्लीत्स्की उसकी छोटी बहन
नीली आंखों वाली येलेना को प्यार
करने लगा है।
इसका मतलब है कि वह असामान्य मेधा
वाली बेहद संवेदनशील लड़की है, जो वह सब भी देख और समझ
सकती है जो अक्सर दूसरे की आंख से ओझल
रहता है। निश्चय ही अपने अप्रतिम
सौन्दर्य,
संवेदनशीलता और पवित्र व शुद्ध मन के
साथ वह एक अमूल्य निधि है।
लेकिन हाय ! यह कितने दुख की बात है कि
यह अमूल्य निधि उन्हें नहीं मिल
पाएगी। चूंकि अगर उम्र के हिसाब से देखा
जाए तो यह किशोरी उनकी बेटी हो
सकती है। और फिर उसकी नज़र में वे ’ढुलमुल क़िस्म के
अनाकर्षक व्यक्ति’ भी हैं। क्या किया जाए?
सोन्या के बिना आगे का सारा जीवन ही
जैसे निरर्थक लगने लगा है।
1862 में सितम्बर
का वह महीना बड़ा ख़राब था। दिन-रात पानी
बरसता रहता। और यह लगातार हो रही
वर्षा तलस्तोय के भीतर अकेलेपन और विरह
की भावना को और भड़का रही थी। रातें
विशेष रूप से पीड़ादायक होतीं। आंख लगते
ही नींद खुल जाती और तलस्तोय मन ही
मन सिर्फ़ यही सोचते रहते कि क्या किया
जाए? मन के भीतर बेचैनी बढ़ने लगी। तलस्तोय ने अपनी
डायरी निकाली और बेताबी के साथ लिखने लगे —
12 सितम्बर,
मैं उसके प्रेम में डूब गया हूं।विश्वास
नहीं होता कि मैं इस तरह बेतहाशा
भी प्यार कर सकता हूं किसी को। मुझे लगता
है कि मैं पाग़ल हो गया हूं। अगर
सब कुछ ऐसा ही चलता रहा तो मैं ख़ुद को
गोली मार लूंगा...। अगली रात जब उनकी
आंख खुली तो वे पूरी तरह से निराश हो
चुके थे। उन्होंने लिखा — 13 सितम्बर, सवेरे उठते ही वहां जाऊंगा और सब कुछ कह दूंगा या फिर ख़ुद को
गोली मार लूंगा...। सुबह के चार बजे हुए हैं। अभी उसके नाम एक पत्र
लिख चुका हूं। सवेरे यह पत्र उसे सौंप दूंगा... हे भगवान, मैं मौत से कितना
डरता हूं !...
लेकिन इसके दो दिन बाद ही वे डॉ०
बेर्स के यहां गए। उनका घर मेहमानों से भरा था। डॉ० बेर्स का पुत्र
अलेक्सान्दर, जो एक आर्मी कालेज का छात्र था,
अपने सहपाठियों के साथ
छुट्टियों में घर आया हुआ था। सोन्या मेहमानों के साथ व्यस्त थी जो उसे एक
क्षण के लिए भी अकेला नहीं छोड़ रहे थे। आख़िर मौक़ा देख कर तलस्तोय ने सोन्या को एक कमरे में बुलाया और उसके हाथ
में अपना पत्र सौंपते हुए कहा —
यह लीजिए... पढ़ लीजिए... मैं यहीं आपके
जवाब का इन्तज़ार कर रहा हूँ।
सोन्या वह पत्र लेकर अपने कमरे में
भाग गई। वह बड़ी कठिनाई से उस पत्र की लिखावट पढ़ पा रही थी — सोफ़िया अन्द्रेव्ना ! मैं
बेहद बेचैन हूं। पिछले तीन हफ़्ते से मैं
रोज़ ही यह सोचता हूं कि आज मैं जाकर सब
कुछ बता दूंगा, पर हर रोज़ ही अपने
दिल में छुपे दर्द, अपने मन की बात और
अपने मन में बसे सुख के साथ मैं आपके
यहां से लौट जाता हूं...। आपकी वह कहानी
जैसे मेरे मन में बस-सी गई है।
उसे पढ़कर मुझे यह विश्वास हो गया है कि
मुझे, दुब्लीत्स्की को,
अब सुख का सपना नहीं देखना
चाहिए...। अब मैं यह महसूस कर रहा हूं कि मैंने आपके परिवार में भी बहुत
गड़बड़ फैला दी है। आपके साथ, सच्चे दिलवाली एक लड़की के साथ मेरे जो आत्मीय
सम्बन्ध थे, वे भी ख़त्म हो गए। अब न तो मैं यहां रुक सकता हूं और न ही
यहां से जा सकता हूं। भगवान के लिए बिना कोई जल्दबाज़ी किए, कृपया मुझे यह बताइए
कि इस परिस्थिति में अब मैं क्या करूं?
... मैं शायद हंसी से मर ही
गया होता, अगर किसी ने मुझे आज से एक महीने पहले यह बताया होता कि मैं
कभी इतना दुःखी हो सकता हूं जितना दुखी मैं आजकल रहता हूं... कृपया सच्चे
मन से मुझे यह बताइए क्या आप मुझसे विवाह करने के लिए तैयार हैं?...
पत्र में आगे भी बहुत-कुछ लिखा था, लेकिन सोन्या उस पत्र
को आगे नहीं पढ़ पाई। उसकी
आँखों के आगे जैसे सब घटनाएं फिर से तैर
रही थीं। वह उस कमरे की तरफ़ भागी, जहां वह तलस्तोय को छोड़ आई थी। लेकिन रास्ते में ही उसे अपनी
मां दिखाई दे गई — ममा, लेफ़ ने मुझ से विवाह करने का प्रस्ताव रखा है — सोन्या ने फ़्रांसीसी भाषा में कहा। —
अरे बिटिया, फिर तू यहां खड़ी मेरा
मुंह क्या देख रही है। जा,
जाकर उन्हें जवाब दे — ल्युबोफ़
अलिक्सान्द्रव्ना ने उससे
कहा। सोन्या जैसे किसी सपने में डूबी-सी
एक के बाद एक कमरे पार करके उस
जगह पहुँची, जहां अपना ज़र्द चेहरा
लिए बेहद घबराए हुए तलस्तोय दीवार के साथ
इस तरह पीठ टिका कर खड़े थे, मानो उन्हें अभी गोली
मार दी जाएगी।
लेफ़ तलस्तोय अपनी पुत्री के साथ |
— हां, बताइए फिर? — तलस्तोय ने जैसे किसी अजनबी-सी आवाज़ में पूछा — क्या आप मुझसे शादी
करेंगी...?
— जी हाँ, ज़रूर! मैं आप ही से विवाह करूंगी —
ख़ुशी से विह्वल होते हुए अश्रु भीगे
स्वर में उसने उत्तर दिया।
अगले दिन बेर्स परिवार में
मित्रों और रिश्तेदारों का तांता लग गया। लीज़ा जैसे अधमरी हो गई थी।
प्रायः सभी लोग यह मानते हुए कि तलस्तोय ने उसी को पसन्द किया है, उनके घर पहुंचकर सबसे
पहले उसी को अपनी बाहों में भर लेते। वह
बेचारी बड़ी खिसियाहट के साथ बताती कि
सगाई उसकी नहीं बल्कि सोन्या की हो
रही है। इसलिए बधाई उसे ही देनी चाहिए।
डॉ० बेर्स ने तो बीमारी का बहाना
करके सगाई में भाग ही नहीं लिया। जब
लड़कियों को फ़्रांसीसी भाषा सिखाने वाले
बूढ़े प्रोफ़ेसर ने बड़े दुःख के साथ यह
बात कही — अफ़सोस ! अफ़सोस ! बहुत
अफ़सोस की बात है कि सगाई लीज़ा की नहीं
हुई। कितनी बढ़िया फ़्रांसीसी बोलती है
यह लड़की... — तो
वहां एक असहज सन्नाटा छा गया।
उन दोनों की शादी के लिए
एक सप्ताह बाद का एक दिन तय कर दिया गया। तलस्तोय जल्दी से जल्दी विवाह
करने पर ज़ोर दे रहे थे। वे मन ही मन डर रहे थे कि कहीं ऐसा न हो कि
सोन्या उनसे विवाह करने से इंकार कर दे। लेकिन इसके बावजूद भी उन्होंने
विवाह से पहले ही सोन्या को अपनी डायरी पढ़ने के लिए दे दी। वे यह मानते थे
कि सोन्या को उनके बारे में सब कुछ मालूम होना चाहिए। वह डायरी पढ़कर
स्त्री-पुरुष के बीच पारस्परिक सम्बन्धों के अनुभवों से रहित सोन्या का मन बेहद
क्षुब्ध हो उठा। डायरी से उसे वे बातें भी मालूम हो गईं जिनका वह अब तक सिर्फ़
अन्दाज़ ही लगा सकती थी कि तलस्तोय के सम्बन्ध उससे पहले अन्य कई
स्त्रियों के साथ भी रहे हैं। इनमें से कुछ स्त्रियां तो उनकी कहानियों की पात्र भी बनी हैं। यह सब जानकर वह घंटों रोती रही।
बस इसी वजह से उसके मन को गहरी चोट नहीं लगी क्योंकि उसकी उम्र अभी
अट्ठारह की भी नहीं हुई थी और वह उस डायरी की बहुत सी बातें समझ नहीं पाई थी।
तलस्तोय की पत्नी बनने के बाद शायद वह सब कुछ समझने लगेगी। लेकिन फ़िलहाल
तो वह दो दिन तक तलस्तोय की बीती हुई ज़िन्दगी से ईर्ष्या करते हुए घर में
दीवार पर टंगे एक चाकू को अपनी पीड़ा का हल मानते हुए उस पर नज़र गड़ाए रही।
विवाह से दो दिन पहले
तलस्तोय ने उससे पूछा — शादी के बाद आप कहां रहना चाहेंगी? मास्को में, विदेश में या यहां से
सीधे यास्नया-पल्याना चलेंगी?
यहां से सीधे यास्नया-पल्याना ही चलेंगे
— सोन्या ने बिना एक क्षण की भी देर लगाए सीधा उत्तर दिया।
गिरजे में हुए विवाह-समारोह
के बाद बेर्स परिवार ने अपने घर में विवाह-भोज का आयोजन किया। विवाह से
सम्बन्धित अन्य सामाजिक रस्में भी वहीं अदा की गईं। घर के पास ही एकदम नई
बग्घी खड़ी थी, जिसे तलस्तोय ने नववधू को यास्नया-पल्याना ले
जाने के लिए विशेष रूप से ख़रीदा था। न जाने क्यों तलस्तोय जल्दी से
जल्दी यास्नया-पल्याना पहुंच जाना चाहते थे। वे जल्दबाज़ी कर रहे थे। विदा का
समय हो गया। सोन्या ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। मानो हमेशा के लिए अपना यह घर छोड़कर
जा रही है और अब कभी उसे उस घर में वापिस नहीं आना है। वह अपने पिता के
गले से लिपट गई मानो उनसे क्षमा मांग रही हो कि वैसा नहीं हुआ, जैसा वे चाहते थे।
लीज़ा की जगह वह यास्नया-पल्याना जा रही है।
उसने तान्या को अपनी बाहों में बांध
लिया और अपने भाई के चेहरे को देर तक
चूमती रही। तब तक ख़ुद लीज़ा उसके निकट आ
गई और उसने उसे भी अपनी बाहों में
भर लिया। परन्तु लीज़ा चुप रही। उसने एक
शब्द भी नहीं कहा। वह अभी तक उससे
नाराज़ थी।
24 सितम्बर को संध्या समय यह नवविवाहित जोड़ा यास्नया-पल्याना
पहुंचा। घर की दहलीज़ के बाहर तलस्तोय के
सगे-सम्बन्धियों और नौकरों ने रोटी और
नमक के साथ उनका स्वागत किया। वर-वधू
ने वह शाम अपने शयनकक्ष में बिताई। अगले
दिन सुबह तलस्तोय चुपचाप अपनी
दुल्हन के पास से उठे और उन्होंने अपनी
डायरी में लिखा — 25 सितम्बर, असाधारण सुख। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि यह सुख सिर्फ़ जीवन के
साथ ही ख़त्म हो?
उन दोनों ने एक लम्बा समय साथ बिताया। 48 साल तक वे एक-दूसरे
के सुख-दुख के सहभागी रहे। उनका सारा जीवन
यास्नया-पल्याना में ही बीता। ऐसा बहुत
कम हुआ जब वे यास्नया-पल्याना छोड़कर
कहीं और गए हों। तलस्तोय ने अपनी सभी
विश्व-प्रसिद्ध रचनाएं अपने विवाह के
बाद ही लिखीं और उन सभी का सम्पादन किया
उनकी पत्नी सोफ़िया अन्द्रेव्ना
ने। अपने साहित्यिक, धार्मिक और नैतिक
अन्वेषणों में व्यस्त तलस्तोय ने
अपनी जागीर की तरफ़ शायद ही कभी कोई
ध्यान दिया हो। यह ज़िम्मेदारी सोफ़िया
अन्द्रेव्ना ने अपने ऊपर ओढ़ ली थी।
लेकिन यह नहीं कहा जा सकता
है कि उनका पारिवारिक जीवन हमेशा शुभ्र और स्वच्छ रहा और उनके जीवन की गाड़ी
हमेशा समगति से ही दौड़ती रही। पारस्परिक रूप से एक-दूसरे के प्रति
गहरे लगाव और प्रेम के बावजूद दोनों की जीवन-दृष्टि में बहुत अन्तर था। उनके
बीच मतभेद इतने गहरे हो गए थे कि वे लोगों के बीच अक्सर चर्चा के विषय
बनने लगे थे। और इस घरेलू विवाद का भी वही अन्त हुआ जो आम तौर पर इस तरह के
विवादों का होता है।
यह
1910 की बात है। पतझड़ का मौसम बीत रहा था।
सर्दियां शुरू होने जा रही थीं।
दिन-प्रतिदिन ठण्ड बढ़ती जा रही थी।
तलस्तोय 82 वर्ष के हो चुके थे। एक रात तलस्तोय ने चुपके से
अपने डॉक्टर को साथ लेकर अपना घर छोड़ दिया और यह तय किया कि वे अब एक मठ
में जाकर रहेंगे। स्टेशन पर पहुंचकर उन्हें जो पहली गाड़ी मिली, वे उसी पर सवार हो गए
ताकि सोफ़िया अन्द्रेव्ना को यह पता नहीं
लगे कि वे कहां गए हैं। साधारण श्रेणी
के उस डिब्बे में, जिसमें तलस्तोय
यात्रा कर रहे थे, बेहद ठण्ड थी। रास्ते
में उन्हें ठण्ड लग गई। उनकी हालत
आगे यात्रा करने लायक नहीं रह गई थी।
अस्तापवा नामक एक छोटे से स्टेशन पर
उन्हें उतरना पड़ा। वहां के
स्टेशन-मास्टर ने अपना कमरा उनके लिए ख़ाली कर दिया। उनकी बीमारी
बढ़ती गई और फिर वे वहां एक सप्ताह तक बेहोश पड़े रहे। तलस्तोय मर रहे हैं, यह ख़बर जल्दी ही सारी
दुनिया में फैल गई। लोगों के
जत्थे अस्तापवा पहुंचने लगे। जनता का यह
मानना था कि सोफ़िया अन्द्रेव्ना की
वजह से ही तलस्तोय को यास्नया-पल्याना
छोड़ना पड़ा है। इसलिए जब सोफ़िया
अन्द्रेव्ना मृत्य-शैय्या पर पड़े
तलस्तोय से मिलने के लिए अस्तापवा पहुंची
तो भीड़ ने उन्हें पति से नहीं मिलने
दिया... ।
उन्हें उसी समय उस कमरे में
घुसने दिया गया, जब तलस्तोय की सांस बन्द हो गई। लेकिन सोफ़िया
अन्द्रेव्ना को यह विश्वास नहीं हुआ कि तलस्तोय मर चुके हैं। वे अपने पति के निकट
ही बैठ गईं। इसके आगे की बात का ज़िक्र करते हुए स्वयं उन्होंने अपने
संस्मरणों में लिखा है...
— मैं उनके कान में
धीरे-धीरे यह फुसफुसाने लगी कि मैं सारा समय वहीं उनके पास ही बैठी रही हूं
और मैं उन्हें बेहद-बेहद प्यार करती हूं। मैं बेहद स्नेह और आत्मीयता के
साथ उनसे बात कर रही थी। मैंने उनसे अपनी ग़लतियों के लिए माफ़ी मांगी। और
अचानक ही उन्होंने एक गहरी सांस भरी। आस-पास जमा लोगों में आश्चर्य की लहर
दौड़ गई। मैं उनसे फिर धीमे-धीमे बातें करने लगी। उन्होंने फिर से एक
गहरी सांस भरी। इसके बाद उन्हें ज़ोरों की एक हिचकी आई और वे हमेशा के लिए
इस दुनिया से विदा हो गए... ।
सम्पर्क -
मोबाइल : 007-916-611-48-64
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