हिमांगी त्रिपाठी का आलेख ‘सेमल के फूल : एक असमाप्त प्रेम कथा’
मार्कण्डेय जी की ख्याति आम तौर पर एक कहानीकार की है लेकिन हमें यह भी याद
रखना होगा कि उन्होंने हिन्दी साहित्य की अधिकतर विधाओं में अपने हाथ आजमाए और वे
इसमें प्रायः सफल भी रहे। अपनी रचनाधर्मिता के शुरुआती दिनों में मार्कण्डेय जी ने
एक लम्बी कहानी लिखी ‘सेमल के फूल’। हालांकि बाद में उन्होंने इसे एक उपन्यास का
रूप दे दिया और व्यक्तिगत तौर पर वे ख़ुद इसे अपना पहला उपन्यास मानते रहे। ‘सेमल
के फूल’ वह रूमानी प्रेम कथा है जो हर समय के युवा दिलों में प्रवहित होती है,
बावजूद इसके भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसका समापन प्रायः असफल रहता आया है। परम्परा
और रुढियों की बात करने वाला समाज वैसे भी युवा प्रेम को स्वीकार कहाँ कर पाता है।
फिर भी युवा पीढियां जमाने के खतरे उठा कर भी प्रेम करती रही हैं और आगे भी करती
रहेंगी। प्रेम न कभी समाप्त हुआ है न कभी होगा। जमाने की बंदिशों को तोड़ना इसका
शगल है और सौभाग्यवश यह आज भी जारी है। दो मई को हम मार्कण्डेय जी के जन्मदिन के
रूप में याद करते हैं। तकनीकी कारणों से हम इस पोस्ट को कुछ विलम्ब से आज दे पा रहे हैं। इस विशेष अवसर पर उन्हें नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे
हैं हिमांगी त्रिपाठी का आलेख ‘सेमल के फूल : एक असमाप्त प्रेम कथा’।
‘सेमल के फूल : एक असमाप्त प्रेम कथा’
हिमांगी त्रिपाठी
कथाकार मार्कण्डेय ने आठ कहानी-संग्रह के अतिरिक्त दो महत्त्वपूर्ण उपन्यास भी
लिखे। ‘सेमल के फूल‘ 1956 ई0 में प्रकाशित मार्कण्डेय का प्रथम
उपन्यास है। यह लेखक द्वारा उसके आरम्भिक रचना-काल में लिखा गया अत्यन्त ही छोटा
उपन्यास है। जब मार्कण्डेय एम0 ए0 उत्तरार्द्ध के विद्यार्थी थे उस समय यह उपन्यास ‘धर्मयुग‘ नामक पत्रिका में
प्रकाशित हुआ। हालाँकि मार्कण्डेय की कविताएँ और कहानियाँ 1956 तक अनेक पत्रिकाओं
में छप चुकी थी किन्तु प्रारम्भ में जो रोमांटिक रुझान उनकी कविताओं में दिखायी
पड़ता है वही प्रभाव उनके प्रथम उपन्यास ‘सेमल के फूल’ में भी दिखायी पड़ता है। इस उपन्यास को कुछ लोग लम्बी प्रेम कथा कह कर
सम्बोधित करते हैं तो कुछ समीक्षक इसे लघु उपन्यास की संज्ञा देते हैं। इस उपन्यास
को एक लम्बी कहानी मानते हुए श्रीप्रकाश मिश्र कहते हैं- ‘सेमल के फूल’ में एक ही
संवेदना और उसके एक ही परिप्रेक्ष्य को उभारने के लिए सभी बातों को केन्द्रीभूत
किया गया है, और दूसरी संवेदनाओं, चरित्रों को उभारने के
लिए पर्याप्त अवसर होने के बावजूद उसका उपयोग नहीं किया गया है, जया, अमृता, अमर, नीलिमा का पति
आदि का उपयोग गात को उभारने के लिए छोड़ दिया गया है। इसलिए यह लम्बी कहानी ही है।”1
बहरहाल अस्सी पृष्ठों का यह लघु उपन्यास मार्कण्डेय की मार्मिक रचना है।
नेमिचन्द्र जैन ‘मार्कण्डेय की कहानियाँ‘ शीर्षक आलेख में इस
उपन्यास के विषय में बताते हुए कहते हैं- ‘सेमल के फूल‘ नीलिमा और सुमंगल की प्रेम कहानी है। सुमंगल किसी बडे़
जमींदार का बेटा है जो राष्ट्रीय आन्दोलन में अपना सब-कुछ त्याग देते हैं। वह
स्वयं आदर्शवादी, संवेदनशील, कलात्मक प्रवृत्ति का
सुरुचिसम्पन्न व्यक्ति है। नीलिमा भी उसकी भाँति ही एक पुराने घराने की समृद्ध
सामन्ती परिवार की माता-पिताविहीन लड़की है। वह भी स्वभाव से बहुत ही अन्तर्मुखी, लजीली और बड़ी
सुकुमार प्रवृत्ति वाली है।”2
कथ्य एवं
समय-संदर्भ
‘सेमल के फूल’ उपन्यास में नीलिमा और सुमंगल के असफल प्रेम को
दर्शाया गया है। इस उपन्यास को असफल प्रेम-कथा इसलिए माना जाता है क्योंकि नीलिमा
और सुमंगल एक-दूसरे को बहुत चाहने के बाद भी अपने-अपने प्रेम को व्यक्त नहीं कर
पाते। सुमंगल एक सामाजिक कार्यकर्ता है। जमींदार का बेटा होने के बावजूद भी उसके
चरित्र में कोई दुर्गुण नहीं दिखायी पड़ता। वह अत्यन्त ही आदर्शवादी और संवेदनशील
व्यक्ति है। वह अपने पिता की ही भाँति संसार की सेवा करना चाहता है और राष्ट्रीय
आन्दोलन में अपना सब-कुछ त्याग देता है। नीलिमा भी एक समृद्ध सामन्ती परिवार की
माता-पिताविहीन लड़की है। जन्म होते ही उसके पिता की मृत्यु हो जाती है और जबवह
विवाह करने योग्य हुई तो उसकी माँ भी चल बसी। अपनी व्यथा का वर्णन करते हुए नीलिमा
कहती है- “मैं जब जन्मी तो पिता गये और जब कन्या परायी धरोहर हो कर घरवालों
के गले की फाँस बन जाती है तो माँ भी चुपके से खिसक गयी।”3 माँ की मृत्यु
के बाद उसके जीवन के बाकी दिन उसकी मौसी के यहाँ गुजरते हैं और वहीं पर उसकी
मुलाकात सुमंगल से होती है। दोनों एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं किन्तु
संकोचवश अपने प्रेम को व्यक्त करने में असमर्थ रहते हैं, जिसका नतीजा यह
होता है कि नीलिमा का विवाह किसी दूसरे व्यक्ति से हो जाता है और दोनों आजीवन
एक-दूसरे की यादों को अपने हृदय में सँजोये रहते हैं। नीलिमा के विवाहोपरान्त
सुमंगल स्वयं को सामाजिक कार्य में व्यस्त रखता है, और नीलिमा को भूलने
का प्रयत्न करता है। नीलिमा भी सुमंगल की यादों को अपने हृदय में बसाये अन्दर ही
अन्दर घुटती रहती है जिसके कारण रोगग्रस्त हो जाती है और अन्ततः उसकी मृत्यु हो
जाती है।
यद्यपि देखा जाये तो उपन्यास की इतनी ही कथा है जो सुमंगल और नीलिमा के
इर्द-गिर्द घूमती है। मार्कण्डेय ने इस सामान्य प्रेमकथा को नयी विचारपद्धति के
माध्यम से प्रस्तुत कर इसमें समाज की उस वास्तविकता को उजागर किया है जहाँ प्रेम
के नाम पर कुछ ऐसा ही देखने को मिलता है। हमारे समाज में आज भी प्रेम करने वालों
को हेय दृष्टि से देखा जाता है और साथ ही उन्हें समाज एवं परिवार की मुश्किलों का
सामना करना पड़ता है। यदि इस कथा को एक सामान्य प्रेम -कथा के रूप में प्रस्तुत
किया जाता तो इसमें किसी प्रकार की प्रभावशीलता या नयापन न दिखायी पड़ता और यह एक
सामान्य-सी रचना बन कर रह जाती। किन्तु मार्कण्डेय ने अपने कथा शिल्प के मौलिक
हुनर एवं नवीन विचारों के माध्यम से उपन्यास को एक अलग अन्दाज में प्रस्तुत कर
सफलता अर्जित की है। समूची कथा नीलिमा की डायरी से ली गयी है, जिसमें नीलिमा ने स्वयं के जीवन से सम्बन्धित प्रसंगों को
डायरी में अंकित किया और मार्कण्डेय ने डायरी में वर्णित नीलिमा की दुःख भरी
आपबीती को उपन्यास का रूप दे दिया। नीलिमा ने अपनी कथा में भूत एवं वर्तमान दोनों स्थितियों
को उजागर किया है।
नीलिमा की सुमंगल से प्रथम भेंट अपनी मौसी के घर में होती है। पहली भेंट में
ही नीलिमा को सुमंगल से कुछ विशेष प्रकार का लगाव हो जाता है और वह पहली भेंट में
ही उसे अपना सब कुछ मान लेती है। अपनी डायरी में नीलिमा लिखती है- “देखा भी नहीं उस
दिन कि तुम कैसे हो! हाँ, तुम्हारी पतली, लम्बी अँगुलियाँ, तुम्हारी साफ और
मधुर आवाज इस बात की साक्षी थी कि तुम्हीं मेरे देवता हो। लगा यह तो वही आवाज है, जिसे मैं युग-युग
से खोजती भटक रही थी।”4 इन पंक्तियों में उस भारतीय नारी का वर्णन
किया गया है जो बिना कुछ सोचे समझे अपने मन में ही अपने जीवन साथी का चुनाव कर
लेती है और आजीवन उसे ही अपना सब-कुछ मानती है। यदि देखा जाये तो कारुणिक
स्थितियों एवं मार्मिक विशेषता रखने वाला यह उपन्यास प्रेम कथा के आलावा और कुछ भी
नहीं है, फिर भी भावुकता से भरे इस उपन्यास में कहीं भी शिथिलता नहीं
दिखायी पड़ती है बल्कि इस कथा की सुन्दरता
और अधिक बढ़ जाती है क्योंकि ‘सेमल के फूल’ की कथावस्तु में जहाँ तक
भावावेग या भावुकता का सम्बन्ध है उसमें एक प्रवाह के लगातार दर्शन होते हैं।
भावुकता का यह प्रवाह जिसे नीलिमा का ‘विक्षिप्त भावावेग’ कहा गया है, पाठक को कथ्य के
साथ बाँध कर रखता है।”5 वस्तुतः पाठक को कथ्य से बाँध रखने का हुनर
एवं कथा प्रवाह की सहजता ही मार्कण्डेय की मौलिकता है। यह उपन्यास अपने ही लिखे
जाने के कारण विशिष्ट बन गया है क्योंकि नीलिमा की डायरी में वर्णित की गयी कहानी
को ही इस छोटे उपन्यास का रूप मार्कण्डेय ने दिया है। अतः इसे डायरी शैली में लिखा
गया उपन्यास भी कहा जा सकता है।
मार्कण्डेय ने इस उपन्यास को शहरी एवं ग्रामीण दोनों ही वातावरण से जोड़ कर
अपने रचनात्मक कौशल का परिचय दिया है। यद्यपि यह एक प्रेम कथा है किन्तु कथा में प्रस्तुत पात्रों के
द्वन्द्व, उनके मन की स्थितियों और उनकी व्यथा, करुणा आदि को
उपन्यासकार ने सजीव रूप में चित्रित किया है। जैसे नीलिमा, जो कथा की प्रमुख पात्र
है जन्म से लेकर मरण तक केवल दुःख और पीडा की ही शिकार रहती है। भले ही यह उपन्यास
शहरी-वातावरण को अधिक उजागर करता है परन्तु साथ ही गाँव के किसान-मजदूरों की
समस्याओं को भी उजागर करता है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि मार्कण्डेय का आत्मीय लगाव
गाँव से ही रहा है और इसी कारण किसान-मजदूर के प्रति वह सदैव आत्मीय रहे हैं। ‘सेमल के फूल’ में भी वह सुमंगल
के माध्यम से किसान-मजदूर के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं- “इनकी पूरी ही
जिन्दगी बदलनी होगी नीलम। ये ही हमारे समाज की रीढ़ हैं। हिन्दुस्तान में, किसी ऐसे सामाजिक
उत्थान की कल्पना ही करनी भयानक भूल होगी, जिसमें किसान-सभ्यता के
विकास में, भारतीय कृषक के व्यक्तिगत श्रम को मान्यता दे कर मशीन को
केवल सहायक के रूप में रखना होगा।”6 ऐसी ही अनेक बातों एवं समस्याओं को इस
उपन्यास में उठाते हुए उसका समाधान बताने का भी प्रयास किया है। जिस समय यह प्रेम
कहानी लिखी गयी उस समय अनेक युवा कथाकारों ने इस सन्दर्भ से मिलती-जुलती अनेक
कथाएँ गढ़ी। धर्मवीर भारती का ‘गुनाहों के देवता’, लक्ष्मी नारायण
लाल का ‘छोटी चंपा, बड़ी चंपा’, केशव प्रसाद मिश्र का ‘काली दीवार’ आदि अनेक उपन्यास
इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इन सभी उपन्यासों की विषयवस्तु असफल प्रेम कथा ही
है।
पात्रों का चरित्र-चित्रण
‘सेमल के फूल’ भले ही एक असफल
प्रेम कथा मानी जाती है किन्तु फिर भी यह मार्कण्डेय की उत्कृष्ट कृति है क्योंकि
इसमें करुणा और भावुकता भी देखने को मिलती है। इसमें नीलिमा और सुमंगल के अतिरिक्त
अमृता, शिबू, मौसी, नीलिमा का पति आदि
पात्रों का यत्र-तत्र वर्णन देखने को मिलता है किन्तु समूची कथा का मुख्य पात्र
नीलिमा और सुमंगल को ही माना गया है क्योंकि “संपूर्ण कथानक एक ही
पात्र की अनुभूतियों के सूत्र में ग्रंथित है। अन्य पात्र यत्र-तत्र आवश्यकतानुसार
आते और चले जाते हैं।”7 सुमंगल और नीलिमा की प्रेमकथा सामान्य धरातल
में ही गतिशील हुई है।
नीलिमा उपन्यास की नायिका होने के साथ ही प्रमुख पात्र भी है। वह समृद्ध
सामन्ती परिवार की ऐसी लड़की है जिसके माता-पिता नहीं हैं। नीलिमा अत्यन्त ही
लज्जाशील, भावुक, अन्तर्मुखी और स्वभाव से कोमल है। बचपन में ही
उसके पिता की मृत्यु हो जाती है और युवावस्था में उसकी माँ की भी मुत्यु हो जाती
है। तत्पश्चात् उसका जीवन मौसी के यहाँ व्यतीत होता है जहाँ उसकी शामों के साथी
थे- बूढा मंटू और सेमल का वृक्ष। अपनी मौसी के यहाँ ही उसकी सुमंगल से भेंट होती
है और दोनों परस्पर प्रेम बन्धन में बँध जाते हैं। किन्तु इन दोनों का प्रेम न तो
व्यक्त होता है और न ही शारीरिक सम्बन्ध तक पहुँचता है। दोनों आन्तरिक रूप से
एक-दूसरे को प्रेम करते हैं किन्तु वैयक्तिक संकोच के कारण कभी व्यक्त नहीं कर
पाते हैं। परिणामस्वरूप नीलिमा का विवाह एक अन्य पुरुष से हो जाता है जो पेशे से
वकील है। विवाहोपरान्त भी नीलिमा सुमंगल की यादों को संजोये रखती है और अन्दर ही
अन्दर घुटने के कारण उसकी मृत्यु हो जाती है।
नीलिमा अपने प्रेम को सुमंगल के समक्ष व्यक्त नहीं कर पाती किन्तु कल्पनाओं
में वह सदैव उसी की यादों में खोयी रहती है। सुमंगल के सोने के लिए जब उसकी मौसी
नीलिमा से चारपाई, तकिया मँगाती है तो नीलिमा का शरीर पूरी तरह
रोमांचित हो उठता है। अपनी डायरी में वह लिखती है-“शर्म के मारे मैं गड़ गई
थी। मेरी चारपाई पऱ.........जैसे मुझे कुछ हो जायेगा। उस बिस्तर को कुछ ऐसा छू
जायेगा जो मेरे छुटाये भी कभी नहीं छूटेगा। फिर मैं कैसे सोऊँगी उस पर?”8 अपने प्रेमी की
कल्पनाओं मात्र से नीलिमा के रोमांच को बडे सुन्दर रूप में मार्कण्डेय ने व्यक्त
किया है। अपने हृदय में सुमंगल की यादों को संजोये जब नीलिमा पति-गृह जाती है तो
उसका दुहरा चरित्र हमारे समक्ष उभर कर आता है। एक ओर वह पत्नी का दायित्व निभाती
है तो दूसरी ओर प्रेमिका का। किन्तु पत्नी की अपेक्षा प्रेमिका का ही रूप अधिक उभर
कर आया है।
मार्कण्डेय ने नीलिमा के माध्यम से उन तमाम ऐसी स्त्रियों का चित्रण किया है
जो अपने जीवन में स्वाभाविक रूप से प्रेम तो करती हैं किन्तु उसे व्यक्त नहीं कर
पाती या फिर उसे व्यक्त करने में आजीवन संकोच करती हैं और अपने जीवन को एक समझौते
के रूप में स्वीकार करती हैं। हमारे समाज में ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जहाँ
प्रेम की कसमें तो खायी जाती हैं किन्तु उन कसमों को आजीवन निभाना और समाज के
सामने उसे व्यक्त करने में उनका पूरा जीवन निकल जाता है और अन्ततः समाज द्वारा
आरोपित व्यवस्था को संस्कार के नाम पर स्वीकार करना पड़ता है। और उसे अपने चाहतों
की बलि देनी पड़ती है। कथाकार मार्कण्डेय ने समाज में प्रचलित ऐसे ही प्रेम को अपने
इस छोटे से उपन्यास का विषय बनाया है।
जैसा कि कहा जा चुका है कि इस उपन्यास में नीलिमा का दूसरा चरित्र देखने को
मिलता है, एक पत्नी के रूप में और दूसरा प्रेमिका के रूप में। नीलिमा
पत्नी के रूप में भी अपने कर्तव्य का पालन करती है क्योंकि उपन्यास में एक स्थान
पर उसके पति का यह वाक्यांश इस बात की पुष्टि करता है कि वह पत्नी-धर्म को भी
बखूबी निभा रही है- “ऐसी औरत न तो मैंने देखी है, न देखूँगा। जब से मेरे जीवन में आयी, कभी एक मिनट को
भी न मालूम हुआ कि मैं उदास हूँ....... रात-दिन जैसे मेरी आत्मा पर उसका स्नेह
छाया रहा। मेरी काया का कोई भी रोम ऐसा नहीं दीखता जिस पर उसका संस्पर्श न हो। कोई
भी ऐसा काम नहीं, कोई भी ऐसी चीज नहीं, जिसके पीछे उसकी
छाया न हो।”9 नीलिमा अपने पति की सेवा करने में तनिक भी नहीं हिचकिचाती
है। भले ही उसके मन में सुमंगल की यादें हैं किन्तु वह यह भलीभाँति समझती है कि
पति के प्रति उसका क्या धर्म और कर्तव्य है, तभी तो उसके पति के विचार
नीलिमा के पक्ष में हैं।
नीलिमा अत्यन्त ही केवल स्त्री है। वह ममता और दया की मूर्ति है। उसके चरित्र
की अनेक विशेषताएँ हैं किन्तु अनेक विशेषताओं के साथ प्रत्येक मनुष्य की भाँति
उसमें कुछ खामियाँ भी हैं। उसके सबसे बड़ी कमजोरी उसका संकोची स्वभाव है। दरसल मध्यवर्गीय
संस्कारों में पली होने के कारण वह सामाजिक मर्यादा और लोक-लाज का पूरा ध्यान रखती
है। उसके संस्कार उसे अपना प्रंम जाहिर करने और स्वयं चुने हुए लडके के साथ जीवन
बिताने की आज्ञा नहीं देते, और जीवनपर्यन्त उसे अपने प्रंम में तडपना पडता
है, और इसी कुंठा के कारण वह अन्दर से खोखली हो जाती है। उसी के
शब्दों में-“मेरी ही चीखें मेरे कानों में भर गयी थी, जैसे मेरे ही
हाथों ने मेरा गला घोट दिया हो। पसीने की बड़ी -बड़ी बूँदें माथे पर काँटों की तरह
उग आयी थीं।”10 मार्कण्डेय ने मुख्य पात्र के रूप में नीलिमा के चरित्र
को बडे ही दयनीय रूप में प्रस्तुत किया है। प्रेम की सजा उसे ताउम्र मिलती है और
उसी में घुटते-घुटते वह मर जाती है। “समग्रतः कहा जा सकता है कि नीलिमा का चरित्र प्रेम
को पूजा मान कर तथा आत्मा में उसे निरंतर बनाए रखने वाली सच्ची प्रेमिका का चरित्र
है जो प्रेम कम लिए जीती है और अन्ततः उसी के लिए मर मिटती है। लेखक ने उसके
चरित्र को पूरी सहानुभूति के साथ प्रस्तुत किया है।”11
नीलिमा की भाँति उसका प्रेमी सुमंगल भी उपव्यास का प्रमुख पात्र है। वह किसी
बडे जमींदार का बेटा है जो राष्ट्रीय आन्दोलन में अपना सब-कुछ त्याग देते हैं। वह
आदर्शवादी, संवेदनशील एवं गंभीर प्रकृति का व्यक्ति है। जमींदार घराने
का होने के बावजूद भी उसके चरित्र में किसी भी प्रकार के अवगुण नहीं दिखायी पड़ते।
उसके पिता ने अंग्रेजों की गुलामी कभी नहीं की और देश-प्रेम में वह इतने मशगूल थे
कि अपना सब-कुछ राष्ट्रीय आन्दोलन में त्याग देते हैं। सुमंगल अपने पिता के
आदर्शों का पालन करते हुए सामाजिक कार्य में अपने को व्यस्त रखता है। नीलिमा के
प्रति उसके मन में भी स्नेह है किन्तु वह भी वैयक्तिक संकोच के कारण नीलिमा के
समक्ष अपना हाल-ए-दिल बया। नहीं कर पाता। वह अन्य पुरुषों की भाँति स्त्री को भोग्या
नहीं मानता अपितु इसके इतर वह नीलिमा को बहुत प्रेम करता है। जिस प्रकार इस
उपन्यास में नीलिता के दुहरे चरित्र को दिखया गया है उसी प्रकार सुमंगल का भी
दुहरा चरित्र देखने को मिलता है, एक प्रेमी के रूप में और दूसरा सामाजिक
कार्यकर्ता के रूप में।
एक प्रेमी के रूप में यदि देखें तो सुमंगल अत्यन्त संकोची और विनम्र है। वह
नीलिमा से पहली बार उसकी मौसी के यहाँ मिलता है। दोनों में एक-दूसरे के प्रति लगाव
बढता है और यह लगाव प्रेम में परिवर्तित हो जाता है, किन्तु उनका यह प्रेम कभी
एक-दूजे के समक्ष व्यक्ज नहीं होता। वह नीलिमा के थोडे से कष्ट को भी बर्दाश्त नहीं
कर पाता और इसी कारण नीलिमा की बीमारी में वह रात-दिन उसकी सेवा में लगा रहता है। प्रेमी
के साथ-साथ वह नीलिमा का पथ-प्रदर्शक भी है। जब नीलिमा के समक्ष अनेक समस्याएँ आती
हैं तो सुमंगल नीलिमा को उन समस्याओं से निकालने का भरपूर प्रयास करता है, इसी कारण नीलिमा
उस पर बहुत विश्वास करती है। नीलिमा को दुःखी देख कर वह स्वयं दुःखी हो जाता है।
अपनी डायरी में बताते हुए नीलिमा कहती है- “तुम्हारा भी गला भर आया
था, पर जल्दी से रुमाल निकाल तुम मेरी आँखें पोंछने लगे थे। मैं
अब भी नहीं जान पायी थी कि तुम कौन थे,
पर थे अपने ही.......शायद
माँ की अभी-अभी आयी याद तुम्हीं थे।”12 सुमंगल स्त्रियों के प्रति सदैव आदर भाव
रखता है। वह अपने संकोची स्वभाव के चलते नीलिमा के समक्ष प्रेम व्यक्त नहीं कर
पाता और आजीवन उसका प्रेम पाने से वंचित रहता है। जब नीलिमा सुमंगल से कहती है कि
वह शादी कर ले तो सुमंगल कहता है- “प्यार कोई सौदा नहीं नीलम! सिर्फ वासना तो पशु
में होती है, मनुष्य तो उससे आगे कुछ और भी चाहता है, कुछ और है उसके
पास-एक चेतन हृदय, एक भक्ति, एक सब-कुछ अर्पित कर देने
की क्षमता; जो उसकी अपनी है, और समर्पण भी कभी
बार-बार... तुम जाने कितनी देर तक बोलते जाते थे -मंथर-मंथर, उदास।”13 सुमंगल के मन
में नीलिमा के प्रति सच्चा प्रेम है जिसमें वासना की भूख लेशमात्र भी नहीं है।
नीलिमा के विवाहोपरान्त भी वह वह उससे उतना ही प्रेम करता है। नीलिमा को पाने में
भले ही वह असमर्थ रहता है किन्तु उसके प्रेम को सदैव अपने हृदय में जीवित रख कर वह
एक सच्चे प्रेमी का परिचय देता है। मार्कण्डेय ने इस उपन्यास के
माध्यम से समाज के ऐसे यथार्थ को प्रस्तुत किया है जो आज के दौर में एक फैशन बन
गया है। आज की युवा पीढी प्रेम की ओर बहुत
तेजी से बढ रही है, जिसमें कुछ तो अपने मन मुताबिक विवाह कर लेते हैं
और कुछ अपने प्रेम का त्याग कर किसी और के
साथ जीवन बिताते हैं।
मार्कण्डेय जी अपनी बड़ी बेटी डॉ. स्वस्ति सिंह के साथ |
सुमंगल के चरित्र का दूसरा पहलू सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में दिखायी पड़ता
है। सामाजिक कार्य के प्रति वह अत्यन्त ईमानदार है। वह अपने दुःख को भले ही नीलिमा
के समक्ष नहीं रखता किन्तु नीलिमा भी उसी की भाँति उसके दुःख को समझती है।जिस
प्रकार नीलिमा के प्रति उसका प्रेम निःस्वार्थ भाव से है उसी प्रकार समाज के प्रति
भी वह अपने कार्य को बिना किसी स्वार्थ के निभाता है। अध्ययन से अधिक वह समाज सेवा
को महत्ता देता है, इसी कारण वह अपनी पढाई छोड़ देता है। किन्तु
उसके बाद भी साहित्य और कला के साथ-साथ नृत्य और संगीत में भी एसकी गहरी रुचि रहती
है। सुमंगल के भीतर जो एक लेखक का गुण छिपा है उसे नीलिमा पाठक के समक्ष इन
वक्तव्यों में प्रस्तुत करती है-“अच्छा होता कि इस कहानी को तुम्हीं लिखते, क्योंकि तुम्हारे
हाथ में एक ऐसी कलम है, जो अपने पैनेपन के बावजूद दुधमुँहे बच्चे को
सुलाने वाली लोरियों से भी मधुर और पवित्र गीत गा सकती है। जो काल कूट भैरव की
क्रोधाग्नि को शान्त करने के लिये पार्वती के सुकुमार होठों का सुमधुर सम्भाषण लिख
सकती है।”14
सुमंगल के हृदय में गरीब शोषितों के पगति गहरी सहानुभूति है। वह ऐसे लोगों की
खिलाफत करता है जो गरीब किसान-मजदूर का शोषण करते हैं। वह स्वयं की पीडा को दूर
रखकर सामाजिक कार्य में आपने को व्यस्त रखता है। “भौतिक पीडा और उलझन से
अपने व्यक्तित्व को दूर रख कर दुनिया की समस्याओं पर विचार करना, पुम्हारी अपनी
सूझ है, गाँधीवादी दर्शन में।”15 इन सबके बावजूद सुमंगल
के चरित्र की कुछ सीमाएँ भी हैं। जैसे उसका संकोची स्वभाव, समाज के प्रति
अपनी जिम्मेदारियाँ, विनम्रतापूर्ण व्यवहार इत्यादि। उसके
व्यक्तित्व के सम्बन्ध में नेमिचन्द्र जैन लिखते हैं- “उसके व्यक्तित्व
की गहराई अधिक नहीं उभरती और एक प्रकार के आदर्श चित्र जैसा सामने आता है।”16 इस तरह सुमंगल
और नीलिमा के दुहरे चरित्र को दर्शाते हुए अपने विशाल बुद्धि कौशल का परिचय दिया
है। नीलिमा के प्रति उसका सेवाभावउसके प्रेम को अप्रत्यक्ष रूप से दर्शाता है क्योंकि
नीलिमा की बीमारी में वह रात-दिन उसकी देखभाल करता है-“यह तो सुमंगल की
कहो कि रात-रात भर बैठा रह गया इसी स्टूल पर। एकटक तुम्हें देखता रहा। मैं थक गयी, तुम्हारे मौसा तो
तुम्हारे बकने-झकने से भाग ही जाते थे,
पर सुमंगल को जैसे काठ
मार गया था, निश्चल यहीं बैठा रहता, न बोलता, न जाता कहीं।”17 इस प्रकार
नीलिमा से अत्यन्त प्रेम करने के बावजूद
भी वह अपनी सीमाओं को कभी लाँघता नहीं है और इसी कारण नीलिमा से अपना प्रेम व्यक्त
न कर वह उसकी याद में ही अपने दिन गुजारने का प्रयत्न करता है। मार्कण्डेय ने
सामाजिक बन्धनों को ही प्रेम के सामने व्यक्त करने का प्रयास किया है क्योंकि भले
ही समाज का प्रत्येक व्यक्ति कितना ही शिक्षित क्यों न ही जाए किन्तु प्रेम के
प्रति उसका दृष्टिकोण जस का तस है। वर्तमान परिदृश्य में चारित्रिक पतन एवं
व्यभिचार चरम पर है ऐसे में सुमंगल जैसे युवाओं की जीवन दृष्टि आवश्यक है। इसी
विडम्बना को मार्कण्डेय ने बड़ी सौम्यता एवं पीडा के साथ दर्शाया है।
यदि देखा जाए तो सुमंगल का चरित्र सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में प्रेम की
अपेक्षा अधिक उभर कर आया है। वह जितना सामाजिक कार्य के प्रति समर्पित है उतना प्रेम
के प्रति नहीं। फिर भी नीलिमा के प्रति उसके प्रेम को किसी अर्थ में कम नहीं कहा
जा सकता। इस प्रकार अनेक सामाजिक, वैयक्तिक संकोच आदि के बावजूद भी सुमंगल का
अत्यन्त सीधा-सरल चरित्र सबको अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता रखता है।
नीलिमा और सुमंगल के पश्चात एक और पात्र है जो उभर कर आया है और वह पात्र है- जया।
इस उपन्यास में मार्कण्डेय ने जया के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि प्रेम
एक ऐसी वस्तु है जो कभी भी किसी से हो सकती है। जया और नीलिमा दोनों की उम्र लगभग
एक ही है, इसी कारण दोनों का हृदय सुमंगल के प्रति आकृष्ट है, किन्तु महत्व यह
नहीं रखता है कि दोनों सुमंगल से प्रेम करती हैं बल्कि महत्व यह रखता है कि सुमंगल
किससे प्रेम करता है। बहरहाल जया को इस उपन्यास में एक असफल प्रेमिका के रूप में
चित्रित किया गया है क्योंकि उसका प्रेम एकतरफा है। भले ही नीलिमा और सुमंगल
एक-दूसरे से अपना प्रेम व्यक्त नहीं कर पाते किन्तु उनका प्रेम एकतरफा नहीं था
क्योंकि दोनों एक-दूसरे को आन्तरिक रूप से प्रेम करते हैं किन्तु जया सुमंगल से
प्रेम करती है जबकि सुमंगल नीलिमा से। उपन्यास में जया की भी मुख्य भूमिका दिखायी
गयी है। मार्कण्डेय ने नीलिमा के माध्यम से जो जया का चित्रण किया है उससे ज्ञात
होता है कि जया भी अत्यन्त सुन्दर है। लेखक के शब्दों में-“लडकी तो क्या
कहूँ, सयानी थी वह जया- सुन्दर-सी, सजी-बजी। शरीर के एक-एक
अंग को चतुर शिल्पी की तरह तराश कर सजा रखा था। सामान की जाँच-पडताल में उसकी
व्यस्तता देख कर, मुझे जाने क्यों लगा, यह जरूर कोई
मास्टरनी है।”18 जया जब नीलिमा की मौसी के घर आयी तो आते ही उसने सुमंगल
के बारे में पूँछा था और उसके बाद उसने नीलिमा को पहचानने की चेष्टा व्यक्त की
किन्तु असफल रही। बाद में मन्टू के बताने पर उसने नीलिमा को पहचान लिया था।
जया के मन में सुमंगल के लिए जो प्रेम था उसे नीलिमा पहचान रही थी क्योंकि “रात सोने से पहले
जया की बातों में तुम्हारा प्रसंग आया-तरह-तरह से, घूम-घूम कर, जैसे बात वहीं
टूटती थी।”19 सुमंगल का जया की बातों में बार-बार जिक्र आना नीलिमा को
कष्ट दे रहा था किन्तु फिर भी नीलिमा के हृदय में जया के प्रति कभी भी जलन की
भावना नहीं आयी। नीलिमा और जया दोनों में मित्रता तो थी किन्तु जया का सुमंगल के
प्रति झुकाव नीलिमा को रास नहीं आता था। एक दिन सुमंगल के आने की खबर सुनकर जया की
खुशी का ठिकाना नहीं था। वह सुमंगल के लिए बहुत अच्छे से तैयार हो गयी। उसने “झीने चम्पई रंग
की साडी पर गेंहुएँ रंग के कुछ विचित्र-से कट के ब्लाउज़ का ऐसा मेल पहले मैंने
कभी नहीं देखा था। कमर और सीने का उतार-चढाव, गुँथे हुए, घुँघरू-से बालों
का सानुपातिक वृत्ताकार गोला; ऐसा श्रृंगार कि देखते ही सारी शक्ल चुभ कर रह
जाये।”20 उसे क्या पता था कि उसका सजना-सँवरना, इंतजार करना सब
व्यर्थ जायेगा। सुमंगल के न आने पर जया की हालत बयाँ नहीं की जा सकती। वह बरबार
सुमंगल की राह देख रही थी किन्तु सुमंगल के न आने पर मौसी ने बडे स्नेह के साथ
कहा-“यी कपडे उतार दे, वरना इसी तरह उठते-बैठते चौपट
हो जाएँगे। सुमंगल को जानती नहीं क्या? इधर तो वह और भी
जिद्दी और फितूरी दिमाग का हो गया है। कुछ पता चलता है उसका।”21 नीलिमा जया की
तडप को भलीभाँति समझती थी और इसी कारण उसे जया पर तरस आ रहा था। जया कमरे में बिना
किसी से कुछ बोले चली जाती है और अन्दर ही अन्दर बहुत दुःखी होती है। उसका तैयार
होना, सुमंगल से मिलने के सपने संजोना सब व्यर्थ चला जाता है। जया
सुमंगल के मन की बात न समझ पाने कारण इस दुःख से जूझती है और विवाहोपरान्त एक सेना
के आदमी के साथ अपनी जिन्दगी बिताती है।
इस प्रकार उपन्यास में जया का इकतरफा प्रेम दिखायी पड़ता है जहाँ उसे कष्ट एवं
पीड़ा के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता। नीलिमा सुमंगल से कुछ कह नहीं पाती
और जया के कहने के बावजूद सुमंगल उसके प्रेम को स्वीकार नहीं करता। इस तरह इस
उपन्यास में जो जिसे चाहता है वह उसे नहीं मिलता और नीलिमा, जया, सुमंगल तीनों ही
एक परिस्थिति से गुजरते हैं।
उपन्यास की कथा में इन तीनों पात्रों के अलावा अमर, अमृता, शिबू, मंटू, राबिन (कुत्ता)
आदि पात्रों का भी यत्र-तत्र वर्णन दिखायी पड़ता है। इन सभी पात्रों से नीलिमा
कहीं न कहीं जुड़ी हुई है। अमर और अमृता पति-पत्नी रूप में अपने नन्हें बच्चे शिबू
के साथ सहज और खुशहाल जीवन व्यतीत करते हैं। पति-पत्नी दोनों नौकरी करते हैं और
महीने की बचत करके कुछ पैसे जमा करते हैं। नीलिमा शिबू को अत्यन्त प्रेम करती है। नीलिमा पर अमर और अमृता के सहज, सरस जीपन का बहुत
प्रभाव पड़ता है किन्तु उसका जीवन उन दोनों के समान अपने स्वाभाविक रूप में आगे
नहीं बढ़ पाता और अन्त में एक विडम्बना बन जाता है। मार्कण्डेय ने नीलिमा की
विडम्बना को एक मार्मिक रूप में प्रस्तुत कर ऐसे प्रेम की ओर संकेत किया है, जो जीवन को
सच्चाई के रूप में देखता है। उपन्यास में नीलिमा द्वारा लिखी गयी डायरी के अन्त
में वह कहती है- “अमृता तू ही जवाब दे सकती है इनको, शीबू तू ही-
तुम्हीं लोग, जो जीवन को उसकी सच्चाइयों में देखते हो......।”22 इस प्रकार
उपन्यास का प्रत्येक पात्र अपनी अहम भूमिका निभाते हुए दिखायी पड़ते हैं।
मार्कण्डेय ने इस उपन्यास में फ्लैशबैक टैकनीक के प्रयोग के साथ शिल्प पर भी
विशेष ध्यान दिया है। यह कथा डायरी शैली के माध्यम से प्रस्तुत की गयी एक ऐसी रचना
है जो सामान्य रचना से बाहर निकल कर एक नये रूप में प्रस्तुत की गयी है। नीलिमा
द्वारा लिखी गयी डायरी ही पूरी कथा का पाठ्यक्रम बन जाती है और नीलिमा के
मृत्योपरान्त सब के समक्ष आती है। केदार नाथ अग्रवाल इसे दुःखान्त प्रेम कथा मानते
हुए कहते हैं- “यह मर्मव्यथा से भरी कथा है, इसको पढ़ कर मुझे भवभूति
याद आ गये और नयन में करुणा के सघन घन छा गये।”23 इस उपन्यास के विषय
में स्वयं मार्कण्डेय कहते हैं- “जिन्होंने मेरे उपन्यास पढ़े हैं उन्होंने ‘सेमल के फूल’ में गहरी अनुभूतियों की वह गहराई जरूर पायी होगी जिसकी
प्रशंशा करते नेमि चन्द्र जैन नहीं थकते और जिस पर अनेक हिन्दी के प्रसिद्ध कवियों
ने कविताएँ लिख कर भेंजी जिसमें हरिवंश राय बच्चन और केदारनाथ अग्रवाल का नाम
उल्लेखनीय है।”24 इस प्रकार ‘सेमल के फूल’ उपन्यास के माध्यम से
मार्कण्डेय ने समाज के ऐसे विषय को प्रस्तुत किया है जो आज भी प्रासंगिक है। प्रेम
जैसे विषयों को लेकर मार्कण्डेय ने अनेक कहानियाँ भी रची और उनमें उन्होंने
अलग-अलग चरित्रों और कथाओं के माध्यम से उसे बड़ी ही सहजता के साथ प्रस्तुत भी
किया है। युवा वर्ग में प्रेम का पनपना एक आम बात है किन्तु वर्तमान समय में यह भी
एक फैशन बन गया है, जहाँ प्रेम कोई आन्तरिक अनुभूति न हो कर केवल
शारीरिक भूख को मिटाने वाली चीज बन कर रह गया है। ऐसे में सुमंगल और नीलिमा जैसे पात्रों
के माध्यम से मार्कण्डेय ने प्रेम की एक ऐसी परिभाषा गढ़ी है जहाँ वासना से परे निश्छल
और निःस्वार्थ लगाव है। इस भाव के माध्यम से उन्होंने प्रेम की पवित्रता को उस
समाज के सामने प्रस्तुत किया है जो बदलते हुए समय के साथ इसे बड़ी तेजी से भूलता जा
रहा है।
सन्दर्भ
1- संपादक- प्रदीप कुमार, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, हिन्दुस्तानी
अंक-3, जुलाई-सितम्बर 2010, श्रीप्रकाश मिश्र-सेमल के
फूलः एक दृष्टि, पृष्ठ-103
2- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, भूमिका
3- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-17
4- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-19
5- डॉ. जिभाऊ शामराव मोरे- मार्कण्डेय का कथा-साहित्य और ग्रामीण सरोकार, पृष्ठ-152
6- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-47
7- डॉ. सुरेन्द्र प्रसाद-मार्कण्डेय का रचना संसार (कथा-साहित्य के विशेष
सन्दर्भ में), पृष्ठ-32
8- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-35
9- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-11-12
10- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-80
11- डॉ. सुरेन्द्र प्रसाद- मार्कण्डेय का रचना संसार (कथा-साहित्य के विशेष
सन्दर्भ में), पृष्ठ-37
12- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-19
13- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-39
14- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-14
15- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-54
16- नेमि चन्द्र जैन- बदलते परिप्रेक्ष्य, पृष्ठ-156
17- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-58
18- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-21
19- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-23
20- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-28
21- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-29
22- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-79-80
23- केदारनाथ अग्रवाल-सेमल के फूल,
अन्तिम पृष्ठ
24- उषा बनसोडे- मार्कण्डेय का कथा साहित्यः एक अनुशीलन, पृष्ठ-178
(हिमांगी त्रिपाठी महात्मा
गांधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय चित्रकूट सतना (मध्य प्रदेश) से मार्कण्डेय जी की रचनाधर्मिता पर शोध कार्य कर रही हैं।)
सम्पर्क -
द्वारा श्री रजनी कान्त त्रिपाठी
बस स्टैण्ड, मऊ थाना के सामने
मऊ, चित्रकूट (उत्तर प्रदेश)
शुक्रिया मैम
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