रमेश प्रजापति के कविता संग्रह ‘शून्य काल में बजता झुनझुना’ पर राहुल देव की समीक्षा
पिछले दिनों युवा कवि रमेश
प्रजापति का एक नया कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है – ‘शून्य काल में बजता झुनझुना’।
लम्बे अंतराल के बाद आया रमेश का यह संग्रह उनकी काव्य-यात्रा के विकास को स्पष्ट
रूप से प्रदर्शित करता है। कवि किसी हडबडी में नहीं है। वह अपने समय और समाज को
गौर से देखते हुए रचनारत है। इसीलिए उसकी कविताओं में अब एक परिपक्वता दिखायी पड़ रही
है। युवा कवि राहुल देव ने इस संग्रह पर एक पारखी नजर डाली है। आज पहली बार
प्रस्तुत है रमेश प्रजापति के कविता संग्रह ‘शून्य काल में बजता झुनझुना’ पर राहुल
देव की समीक्षा ‘प्राकृतिक संवेदना की कविताएँ’।
प्राकृतिक
संवेदना की कविताएँ
राहुल
देव
जिस तरह चाहो,
बजाओ इस सभा में
हम नहीं हैं आदमी,
हम झुनझुने हैं
-दुष्यंत कुमार
रमेश प्रजापति कम लिखने वाले लेकिन जनवादी
सरोकारों से सीधा वास्ता रखने वाले कवियों में से हैं। ‘शून्यकाल में बजता झुनझुना’
उनका दूसरा कविता संग्रह है। उनका पहला संग्रह ‘पूरा हँसता चेहरा’ वर्ष 2006
में आया था। नौ वर्षों के एक लम्बे समय के बाद कवि का यह द्वितीय संग्रह बोधि
प्रकाशन से वर्ष 2015 में प्रकाशित हो कर आया है। जिसमें पिछले पंद्रह वर्षों के
दौरान लिखी गयी उनकी कुल 52 छोटी-बड़ी कविताएँ संकलित हैं। मां को समर्पित पृष्ठ के तुरंत बाद भूख से
कुनमुनाता बच्चा, फटा कम्बल और बासी रोटी से बनी कविता कवि की संवेदना का प्रस्थान-बिंदु
साबित होता है और इस तरह एक गहरी संवेदना के साथ कवि पाठक को साथ लेकर उम्मीद की
रौशनी की खोज़ में निकलता है।
रमेश की
कविता का आलंबन समकालीन समय-समाज है। वह प्रकृति के प्रेरणाएं लेते हैं। ‘निगरानी
करो चाँद’ शीर्षक को पढ़ते हुए नदी, परिंदे, पवन, पहाड़, बादल, सूरज और चाँद जैसे
शब्द आते हैं जोकि इस बात की तस्दीक करते हैं। ‘मेरे शब्द’ शीर्षक कविता में वह
लिखते हैं,
“पक रहे
हैं मेरे शब्द
झरबेरी
में
बाजरे
की जड़ों में
धान की
बालियों में
चूल्हे
की कोख में
बच्चे
की आँखों में”
आप देख सकते हैं कि उसकी कविता कहाँ से चल कर आ
रही है।
सरल आमफहम भाषा और सधे हुए प्रयोगधर्मी शिल्प का
भावपूर्ण प्रयोग इनकी कविता में देखने को मिलते हैं। ‘तू अगर ईश्वर है’ संग्रह की
शुरुआती कविताओं में से एक अच्छी कविता है। इसकी अंतिम पंक्तियों में वह संसार में
व्याप्त विषमता, अनाचार और अन्याय को देख कर ईश्वर से सीधा प्रश्न करते हैं,
“तू ईश्वर है
तो क्यूँ आराम फरमाता है पूजाघरों में ।”
इनकी
कविता में बड़े जीवंत और मार्मिक शब्दचित्र आये हैं जैसे ‘बुरे दिन’ शीर्षक कविता
की निम्न पंक्तियाँ,
“फुटपाथ
पर बैठा
टांग
हिलाता मजदूर
बुरे
दिनों को चबा जाता है
मुट्ठी
भर चनों-सा”
कवि का
एकांत उसकी कविता का उत्स बनता है,
“टूटता
है जब मन की अतल गहराई में
बहुत
कुछ एक साथ
तब झरते
हैं मेरे निर्जन में उदासी के फूल।”
‘अरी! लकड़ी’ शीर्षक कविता में कवि लकड़ी के प्रतीक
के माध्यम से मनुष्यता का हितचिंतन करता है। वह सब कुछ बनना चाहता है लेकिन किसी
ज़ालिम राजा की कुर्सी बनना उसे कतई पसंद नहीं। तिमिर बढ़ रहा है कोई सही रास्ता
सुझाई नहीं देता, वह राजपथ को गूँगा-बहरा कहता है क्योंकि गरीबों की आहें शासकों
को सुनाई नहीं देतीं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं और लोकतंत्र का चौथा खम्भा
मीडिया भी अपनी भूमिका का सही तरह से निर्वहन करने में अक्षम साबित हो रहा है।
‘तिमिर धुंधलके में’ इस कठिन समय का बयान बनती हुई कविता है। बगैर किसी अतिरिक्त
आडम्बर के सहज प्राकृतिक सौंदर्यदृष्टि के साथ लिखी गयी ये कविताएँ समकालीन दौर
में कविता का एक नया आस्वाद लेकर चलती हैं।
रमेश प्रजापति |
संग्रह की ‘चौराहे’ शीर्षक कविता में वह
विज्ञापनी संस्कृति और बाज़ार के फैलते शिकंजे को देखते हुए लिखते हैं,
“जीवन के ऐसे चौराहे पर खड़ा हूँ
इसके हर रास्ते पर लुभावने सपने
पकड़ कर बाहें आतुर हैं ले जाने को
अँधेरी कंदराओं में
रोज़ बुना जाता है मेरे ख़िलाफ़
शब्दों का चक्रव्यूह/......./
मैं बाज़ार की चकाचौंध में
पिछड़े खरीदार-सा
हर दिन लौटता हूँ......
विकास की इस अंधी दौड़ में
अक्सर पीछे छूट जाता हूँ दोस्त!
बतियाता रास्ते के पेड़-फूलों से
चौराहे ताकते रहते हैं मेरा मुँह”
तो वहीँ
‘शेष है अभी’ शीर्षक कविता में कवि मनुष्य की मनुष्यता और प्रकृति की सुन्दरता पर
अपना अगाध विश्वास प्रकट करता है,
“शेष है
अभी
नदी के
कंठ में आर्द्रता
वायु
में शीतलता
मौसम
में उदारता
सच्चाई
में दृढ़ता
लुंज-पुंज
शरीर में उत्कंठा
धरती की
कोख में उम्मीद की हरियाली
जीवन
में रंगत और शब्दों में कविता”
इसी तरह ‘सुनो! धान की पुकार’ भी एक बहुत अच्छी
कविता है। प्रकृति के संवेदनो को मानवीय संवेदना के जुड़ाव के जरिये कविता में
सुनने की कोशिश की गयी है। इस कविता को पढ़ते हुए साफ़ पता चलता है कि भले ही अपनी
जीविका के लिए कवि महानगर में आकर बस गया हो लेकिन उसकी जड़ें अभी भी अपने गाँव में
ही हैं। उसने दोनों जगहों के संघर्ष को देखा और भोगा है इसलिए उनकी संवेदना शहरी
और ग्रामीण लोकधर्मिता का संतुलन बनाती चलती है। इस प्रकार गमकना, दमकना, चमकना
जैसे शब्दों को बार-बार पढ़ते हुए आप देख सकते हैं कि इनकी कविताओं में मानवीयता की
खुशबू सर्वत्र विद्यमान है।
‘फूल
गयी बारिश में रोटी’ शीर्षक कविता के जरिये जरा इनके बिम्बों पर दृष्टि डालें,
“बहुत
दिनों से
समुद्र
के किनारे खड़ी
नाव का
मन
मूसलाधार
बारिश में भीगकर
हो गया
है भारी
कुम्हार
के कच्चे दिए
चाक के
पास ही पड़े
तब्दील
हो गये फिर से मिट्टी में.....
कीचड़
में लिपटा पड़ा है शहर
और गाँव
बन गया दुर्गम द्वीप
शहर के
चौराहे पर
लिजलिजी
हो गयी है बारिश में फूल कर
मेहनतकशों
की रोटी”
छोटी सी
लगने वाली यह कविता अपनी पक्षधरता में देखें तो एक बड़े कैनवास की कविता है।
‘जनतंत्र का ढोल’ शीर्षक कविता में वह इसकी विभीषिका दिखाते हैं,
“अँधेरा
इस कदर बढ़ गया है कि
आदमी
अपने एक हाथ से दूसरा हाथ काट रहा है”
इतने
कठिन समय के बावजूद कवि आशा का दामन नहीं छोड़ता और ‘शब्द और चाकू’ कविता में वह
शब्दों के अर्थों से संभावनाओं की कंदील जलाने की बात कहता है इस उम्मीद में कि
कभी न कभी ये सूरत बदलेगी, शायद किसी दिन हडबडाकर यह अँधेरे का पहाड़ करवट बदलेगा।
‘बूँद-बूँद रात’ शीर्षक कविता का निम्न बिम्ब भी दृष्टव्य है,
“...किसी
नटखट बच्चे की दवात से
बूँद-बूँद
टपक रही है रात
आवारा
कुत्ते सा सन्नाटा
टहल रहा
है गलियों में
कहीं
दूर..
विचारों
के उजले शब्द-रंगों से
स्याह
कैनवस पर
उतर
रहीं हैं खूबसूरत कलाकृतियाँ”
संग्रह
की शीर्षक कविता ‘शून्यकाल में बजता झुनझुना’ में व्यक्त शून्यकाल कुछ यूँ है मानो
आसमान से धरती के बीच प्रकृति और मनुष्य के मध्य अधिवेशन चल रहा हो। यह संयत
आक्रोश की कविता है जिसमें ईश्वर सत्ता के स्थापत्य में उलझा हुआ अपने चमचमाते
शीशमहलों के आँख-कान बंद किये हुए बैठा है, जिरह लगातार जारी है। ‘पानी का वैभव’
इस संग्रह की सबसे छोटी लेकिन अपनी अर्थवत्ता में सबसे सशक्त कविता है। वह लिखते
हैं,
“यूँ ही
अचानक
छेड़
दिया मैंने
बावड़ी
का शांत जल
सिर्फ..
मेरे
छूने भर से ही
काँप
उठा
पानी का
वैभव”
संग्रह
में प्रेम की भावभूमि के दर्शन भी मिलते हैं जब कवि ‘तुम्हारा आना’ शीर्षक कविता
में कह उठता है,
“तुम्हारा
आना
अंधेरों
में सैकड़ों रास्तों का खुल जाना”
संग्रह की कुछेक कमियों पर भी बात हो जाए तो
इनमें कुछ कवितायेँ ऐसी हैं जिनमें एक जैसे कथ्य का दुहराव देखने को मिलता है (पेज
29 व 40) तो कुछ कविताओं में एक अच्छे कथ्य का निर्वाह तत्व कमज़ोर होने से कविता
कमज़ोर हुई है (पेज 22 व 29)। दरअसल निराशावादी दृष्टिकोण कवि के शुरुवाती आशावाद
की परिणति बनती प्रतीत होती है जिसका पाठक पर उतना सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ पाता।
कहीं-कहीं काव्य के रसतत्व और आंतरिक लय की कमी तथा विचारों की अस्पष्टता
काव्यात्मक चूक ही कही जायेगी जिस ओर कवि को आगे ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
संग्रह की अंतिम कुछ कविताओं की अगर बात करें तो ‘सीलमपुर
की झुग्गियां’ शीर्षक लम्बी कविता पर ध्यान बरबस चला जाता है। इस कविता को पढ़कर
आर. चेतनक्रांति की प्रसिद्ध कविता ‘सीलमपुर की लड़कियां’ की याद आ जाना स्वाभाविक
है। ठीक उसी भाषा, शिल्प, आकार-प्रकार में रची गयी कविता है यह, संभवतः कवि ने उसे
पढ़ कर यह कविता लिखने की प्रेरणा प्राप्त की हो बावजूद इसके कविता अपने कहन में
एकदम अलग है। इस कविता की तरह ही अगली कविता ‘सवाल मूंछों का है साधो’ भयानक ख़बर
की कविता के रूप में सामने आती है। इन कविताओं के अतिरिक्त इस संग्रह में ‘माँ का
चश्मा’, ‘हे श्राद्ध के देवताओं’, ‘बांसों का शोकगीत’, ‘महानगर में मजदूर’, ‘कबीर
की कुरती’, ‘रूखे बालों में कनेर का फूल’, ‘आदमी का बनाया पुल’ आदि कई अच्छी और
सार्थक कविताएँ हैं।
रमेश प्रजापति अपना सौन्दर्यबोध प्रकृति के बीच
से लेकर आते हैं। जल, जंगल और ज़मीन से गहरा लगाव, देश के किसानों की बढ़ती
आत्महत्याएं और सर्वहारा की मुक्ति की बेचैनी इनकी कविता का मुख्य स्वर है। इन
कविताओं के साथ उनका रचना समय भी दिया गया है जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि कवि
की काव्ययात्रा उत्तरोत्तर विकसित हुई है। नयी सदी में लिखी गयी उनकी कविताएँ
पूर्व में लिखी गयी उनकी कविताओं की अपेक्षा काव्यात्मक कसौटी पर ज्यादा परिपक्व
प्रतीत होती हैं। इस संग्रह को कविता प्रेमियों द्वारा पढ़ा और सराहा जाना चाहिए।
शून्यकाल में बजता
झुनझुना/ कविता संग्रह/ रमेश प्रजापति/ 2015/ बोधि प्रकाशन, जयपुर/ पृष्ठ 120/
मूल्य 100 रुपये
राहुल देव |
संपर्क -
9/48 साहित्य सदन,
कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध),
सीतापुर, उ.प्र. 261203
मोबाईल – 09454112975
समीक्षक ने अच्छे मुद्दे उठाए हैं। रमेश प्रजापति की कविताएं खास तौर से अपने सरोकारों के कारण पढ़ी जा़ती हैं।
जवाब देंहटाएंसंग्रह का स्वागत । समीक्षक को धन्यवाद।