सपना चमडिया की कविताएँ और सपना की कविताओं पर आशीष मिश्र का आलेख
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| सपना चमड़िया | 
युवा आलोचक आशीष मिश्र ने सपना की कविताओं की एक पड़ताल की है। सपना चमड़िया की कविताओं के साथ हम प्रस्तुत कर रहे हैं आशीष मिश्र का आलेख 'हिमालय से कटा सफाचट मैदान में मारा जाएगा।
सपना चमड़िया की कविताएँ
अनवर चाचा 
जब भी 
दिल्ली आते हैं
बिहू को दो बड़ी चॉकलेट 
और सौ रुपए 
दे कर जाते हैं 
माँ से कहते हैं 
प्रणाम, आप कैसी हैं 
और बाबा से 
का हो कइसन बा ड़ा 
कह कर हाथ मिलाते हैं 
अनवर चाचा 
बिहू को 
बाबा जैसे ही 
लगते, भाते हैं 
उन्हीं की तरह 
लुंगी पहन कर 
काली चाय सुड़कते जाते हैं 
अख़बार किताबें 
बिखेर कर 
माँ का काम 
बढ़ाते जाते हैं 
खुद चिल्लाते हैं 
जोर जोर से 
बातें करते हैं
और मैं बोलूँ तो 
डांट पिलाते हैं। 
अनवर चाचा 
और बाबा 
घंटों बतियाते हैं 
देर रात तक 
साथ निभाए जाते हैं। 
अनवर चाचा 
अक्सर दिल्ली आते हैं। 
जो सौ रुपए वो 
बिहू को देकर जाते हैं 
उनसे कभी गुड़िया 
कभी किताबें ले कर 
बिहू ख़ूब धनवान 
हुई जा रही थी
कि
उसकी एस एस टी की 
किताब ने उसे 
पाठ पढ़ाया
कि हिन्दू-मुस्लिम 
दो अलग-अलग जातियाँ हैं। 
और मैम ने बताया 
हम दिवाली और वो 
ईद मनाते हैं 
हमारे नाम होते हैं 
फलां-फलां 
और उनके अला-बला। 
अनवर चाचा 
जब इस बार आए 
बिहू कुछ उदास थी
हालांकि चॉकलेट 
उतनी ही मीठी 
और सौ का नोट 
बहुत कड़क 
तब बिहू ने चॉकलेट और नोट 
एस एस टी 
की किताब में दबा दिए 
और कहा 
अनवर चाचा से 
आप दिल्ली जल्दी जल्दी 
क्यूँ नहीं आते हैं 
मैं अपनी किताब 
का मुँह 
चॉकलेट से भर देना चाहती हूँ। 
कश्मीर का लड़का 
आज उसका सारा सामान 
घर से चला गया 
जैसे एक दिन वो छोड़ कर 
चला गया था हम सब को 
पर उसके जाने के बाद भी 
उसकी चीजें चीखती थी कभी 
हँसती थी कभी 
और कभी सारी चीजें गले लिपट कर 
मेरे फूट-फूट कर जार-जार रोती थी। 
पलंग में लगा शीशा मेरे चेहरे के साथ 
नुमाया करता था एक और चेहरा हमेशा। 
लकड़ी की कुर्सी लकड़ी के ढाँचे से ज़्यादा 
उसके आराम से पसरे होने की मुद्रा 
में अधलेटी रहती थी 
कभी यहाँ, कभी वहाँ 
कभी सर्दियों की धूप में टैरेस पर 
कभी गप्पें मारते मुझसे 
किचन के दरवाजे पर। 
टी वी के रिमोट पर 
उसकी उँगलियों का स्पर्श 
अभी भी चपलता से घूमता रहता है। 
उसके बिना उसके कमरे का कूलर 
कभी-कभी असहाय गुस्से में 
गरम हवा फेंकने लगता है। 
दही और मूली की चटनी से 
अभी भी मेरी कटोरियाँ गमकती हैं। 
जैसे जाती नहीं है गंध कपड़ों से सिगरेट की 
उसी तरह उसकी कश्मीरी गंध गरम पशमीने 
सी मेरी जिंदगी से लिपटी रहती है। 
जीने खाने के लिए 
उसने अपने देवदारु-चिनार 
सेब और जाफरान छोड़े 
यह झूठ है 
वो तो महसूस था 
उसे तो पता ही नहीं चला कि 
कब सुर्ख सेब हरे हो गए 
और जाफरान भगवा। 
कब देवदारु-चिनार अपनी 
ऊँचाई से कट छंट कर 
संसद की कुर्सियों के पाए 
और 
बड़े नामों की नेमप्लेट बन गए। 
कब सुफैद बर्फ ख़ाकी और मिलिट्री 
के पील पाँव से टूटती दरकती रही। 
आतंकवाद का काला कौवा 
सबसे पहले कहाँ बोला 
संसद में या सीमा पार 
उसने तो सुना ही नहीं। 
इस सबसे बेखबर 
वो चश्में के ठंडे पानी में 
बीयर की बोतलें ठंडी करता रहा 
रफीक चाचा के यहाँ गोश्त उड़ाता रहा 
पड़ोस की लड़की को ताकता, मुस्कुराता रहा। 
वो तो मासूम था 
कि ‘कश्मीर से कन्या
कुमारी तक भारत एक है’
यह पाठ वह भूला ही नहीं। 
वो तो मासूम था कि 
अठारह साल में वोट देने 
पर खुश हुआ 
नाखून काले करवा कर 
निश्चिंत हुआ 
और सीने पर हाथ बांधे 
रातों को बेखौफ सोता रहा। 
नाज था उसे उन लोगों पर 
जिसको उसने चुन कर भेजा था,
कि उन्हीं लोगों ने 
उसे विस्थापन की दीवार 
में चुन दिया, उसे
दिल्ली बुलाया और मार दिया। 
उस दिन से वह न हिला, न डुला,
न हँसा, न रोया 
कभी सड़कों, कभी
कैंपोंटीन टप्परों में भटकता रहा 
इस देश में रहने के लिए । 
कभी ठेला लगाया, कभी अख़बार बेंचे 
जीते रहने के लिए 
जीने के लिए नहीं। 
जब तक जिया 
शर्मसार रहा 
यही सोचता रहा 
कि जो अपना हिमालय छोड़ेगा 
वह इसी तरह 
सफाचट मैदान में मारा जायेगा।  
गुजरात और इराक की माएं 
अभी दस दिन 
सिर्फ दस दिन हुए हैं 
मेरे बच्चे को घर से गये 
कपड़े उसके मैंने ही रखे थे 
एयर बैग में
फिर ना जाने कौन सी 
गठरी में बांध ले गया 
घर की सारी उमंग, चाव और शोर शराबा। 
सब्जी का रंग एकदम फीका है
और दो प्याली चाय में ही 
कट जाता है सारा दिन 
इन्टरनेट और मोबाइल भी 
बिल्कुल चुप है,
यहाँ तक कि टी वी भी 
एक ही राग अलाप रहा है
वो हाथ नहीं न, जो बार बार 
चैनल बदल देते हैं 
हालांकि मेरे जेहन में 
अभी भी विदाई देते उसके 
पुष्ट हाथ काँप रहे हैं।
कोई लड़ाई नहीं
कोई फरमाइश नहीं
कि बाजार की भागमभाग भी 
थम कर खड़ी है
कि बयासी-सतासी नं॰ का 
स्कूटर भी नीचे पड़ा पड़ा 
ऊँघ रहा है। 
और वो नहीं है 
तो दिलरुबा सी लड़की भी
कम ही आती जाती है। 
हम दोनों भी चुप हैं 
कि हमारी आधी रात का आश्वासन भी डरा सहमा है। 
घर के दूसरे छोटे बच्चे
भी उदास हैं 
कि घर में लॉलीपोप नहीं
महक रहा 
कि आइसक्रीम नहीं पिघल रही। 
पर बस आज की रात 
कल ही दिन मंगलवार है
सुबह छः बजे आ जाना है उसे
आने की तारीख़ पता हो 
तो बरसों कट जाते हैं। 
पर एक लकीर सी 
पड़ी हुई है दिल में 
कि गुजरात और इराक 
कि माओं का कोई एक दिन 
मंगलवार होता है
और सुबह छः बजे 
उनके घर तक कोई
रेलगाड़ी आती। 
नमाज़ की तरह 
एक कबूतर का जोड़ा
भरी भीड़ में अकेला हो कर 
चुपचाप चोंच में चोंच डाल कर 
गहरी आवाज़ में बेआवाज हो कर
लेटा हुआ है
बस बीच बीच में 
मादा कबूतर अपने गहरे काले 
पंखों से ढक लेती है 
अपने साथी को 
और जब उठती है तो 
उसके पंखों के रेशे 
यहाँ-वहाँ बिखरे रह जाते हैं 
फिर कभी दोनों 
तिनका, घास, फूस, सींक 
इकठ्ठा करते हैं 
घर बनाते हैं 
और लड़ पड़ते हैं अचानक 
बिखरा कर सारे घर का सामान 
उलझ जाते हैं किसी लंबी बहस में
फिर चुनते हैं उसी बहस के तिनके
उन्हें मालूम है 
सुंदर घर 
सार्थक बहस से ही बनेगा 
कौन जाने दोनों में से मनाता है कौन किसे। 
फिर कर के सारे काम मुल्तवी 
देखती हूँ कि 
तिनका-तिनका कर के घर बुनते हैं
कभी दिल, कभी दिमाग और कभी
सपने 
उसी घर में चुनते रहते हैं 
यही कबूतर का जोड़ा 
रमजान के पवित्र महीने में 
मेरे घर की मुडेर पर आ के बैठा था 
देखा मैंने कि 
नर कबूतर 
दिन के पांचो नमाज़ की तरह 
अपने साथी 
के सिजदे में झुका था 
और मादा कबूतर 
दुवाओं की तरह 
उसे अपने सीने में भरती जा रही थी
दोनों की आँखों से 
वज़ू के पवित्र पानी की तरह 
बार बार कई बार 
आँसू झरते जा रहे थे 
और बहती जा रही थी उसमें 
उनकी दूरी, द्वंद्व, अविश्वास और अकेलापन 
मुझे मालूम है यह कबूतर का जोड़ा 
लड़ेगा, जूझेगा, जियेगा और सलामत रहेगा। 
रहमत ख़ान 
तुमने मुझे डरा ही दिया 
मन हुआ 
थोड़ा किनारे ले जा कर 
दरयाफ्त करूँ 
किसकी नेक सलाह से ऐसा किया?
और थोड़ा डाँटू भी 
मुझे जीने नहीं दोगे?
इतने भोले हो अभी भी 
जानते नहीं हवा में 
रक्त की गंध 
सदियों तक रहती है
गले में रूमाल 
आँखों में सुरमा 
यहाँ तक तो फिर 
भी ठीक था 
पर कमअक्ल 
क्या जरूरत थी 
लिखवाने की 
बड़े बड़े अक्षरों में 
‘रहमत ख़ान का रिक्शा’
ये ऐलान, ये हिमाक़त 
मारे जाओगे गुलफाम 
और मारने से पहले 
कोई नहीं देखेगा 
कि 
तुम्हारे रिक्शे पर 
स्कूल के छोटे छोटे 
बच्चे बैठे हैं। 
कि रिक्शे पर बूढ़ी अम्मा
को बिना नाम पूछे
कितनी बार सहारे 
से चढ़ाया है। 
अब मत कहना 
नाम में क्या रखा है 
दुनिया बड़ी कमजर्फ 
कि मियां 
हिमाक़त होगी कहना 
पर ख़ूब ही गाई गई है 
अपने देश में नाम की महिमा। 
दोष तुम्हारा भी क्या है 
परंपरा से जो मिला है 
उसी को सहेजा है 
अब जब ऐलाने जंग 
कर ही दिया है 
तो दौड़ाते रहो
हैदरपुर से मानव चौक
तक अपना रिक्शा
घुलने दो अपना नाम 
हवाओं में फिज़ाओं में। 
जब वो आयेंगे 
पड़ोसियों से, शाखों से 
गली के कुत्तों से 
कुरेदेंगे तुम्हारा नाम 
तो डर मत जाना 
पलच मत जाना 
बदल मत जाना 
अम्मा बाबा का 
दिया हुआ नाम 
रहमत ख़ान। 
रोज मरने के दृश्य 
वहाँ क्या से क्या 
हो गया मीतू। 
ख़बर मिली तो 
देर हो चुकी थी। 
देह तुम्हारी 
पंच तत्त्व में बिला चुकी थी। 
जरूरी संस्कार में सिमट कर 
मुट्ठी भर बचे थे तुम 
और जबरन कहा गया मुझसे 
कि एक बुलंद आदमी को मैं 
छोटे से घड़े में क़ैद मानूँ 
जबकि इतने ऊँचे थे तुम 
कि माथा चूमने को तुम्हारा 
पंजों के बल आसमान 
छूना पड़ता था 
और जब अलग हुए हम 
उस घड़ी तुम्हारा जिंदा चेहरा 
मेरे कंधे पर धड़क रहा था 
सुना था 
कि बहुत देर तक हाथ थामे रहने पर 
लकीरें एक ही हो जाती हैं 
फिर कैसे मानूँ मीतू कि 
मैं जब यहाँ घुटनों पर सिर टिकाए 
सोच रही थी तुम्हारी आँखें
तुम्हारा स्पंदन, तुम्हारी धड़कन
तो दिसंबर की कड़कती ठंड में 
तुम ठंडी काली सड़क पर 
बिना बिछावन सोये थे।
तुम्हारे सिरहाने था सुर्ख, लाल तरल तकिया
जो बह कर जम चुका था 
और तुम्हारे आस पास 
भिनभिना रही थीं
कुछ ख़ाकी रंग की मक्खियाँ 
बाकी गुजरते लोगों का 
ख़ून पानी हो गया था 
मैं होती वहाँ तो 
ऐसे ही नहीं जाने देती सबको 
कि एक पंचायत बुलाती 
और पूछती सबसे पहले 
विकास के उस तेज रफ़्तार 
युग पुरुष से 
जिसने अमेरिकी मॉडल 
पर रचा था सारा संसार 
मैं चुप नहीं रहती 
पूछती उस बड़ी कंपनी 
के मालिक से जिसका 
विज्ञापन टी वी पर चीखता था 
हर मिनट पर 
कि उसका टफ टायर 
सड़क का साथ कभी नहीं छोड़ता 
जाने नहीं देती 
यूँ ही 
उस हेलमेट निर्माता को 
दिखाती उसे तुम्हारा झाड़ियों  
में फँसा हैलमेट 
और पूछती 
इस दृश्य का मतलब क्या है?
ढूंढती 
सभ्यता की विकसित 
उस बड़ी गाड़ी को अंग अंग छितरा कर 
राजमार्ग पर तुम्हारा 
जो अनंत में फरार थी। 
कुछ नहीं कर पाती तो 
इतना जरूर करती कि 
तुम्हारा ध्यान भटकाने वाले 
सड़क के दोनों किनारों के 
सेल वाले लुभावने विज्ञापन 
काले रंग से पुतवा देती। 
अगर मैं तुम्हारे गाँव की 
ओझा गुनी होती तो 
जवाब नहीं मिलने पर 
सबकी आत्माओं को 
कील देती 
लाल पीली हरी 
ट्रैफिक लाइट पर। 
या तुमको ही 
ताकीद करती कि 
जब भी बाहर जाओ 
जान घर पर रख कर जाओ। 
पर कर पाती कुछ भी 
इससे पहले 
देर हो चुकी थी
देह तुम्हारी पंच तत्त्व में बिला चुकी थी।
कितना कहा था तुमसे 
कि जमाना जान हथेली पर 
रख कर घूमने का नहीं है। 
पर देर हो चुकी बहुत 
पंच तत्त्व में बिला चुके तुम 
मैं पूछती हूँ तुमसे 
पूछती हूँ दसों दिशाओं से 
पूछती हूँ क्षिति, जल, पावक 
गगन समीरा से 
कि अभी कैसे 
मर सकते हो तुम 
जबकि स्कूटर के लोन की 
अंतिम किस्त जानी बाकी है।  
‘हिमालय से कटा
सफाचट मैदान में मारा जाएगा’
आशीष मिश्र
पिछले दो दशकों में हिन्दी कविता उभर रही अस्मिताओं के कारण ज़्यादा लोकतान्त्रिक हुई है। साथ ही इन अस्मिताओं ने अपनी खिड़की-दरवाजे खोले हैं और एक अर्थ में इनका भी लोकतान्त्रीकरण हुआ है। अस्मिता की वास्तविक समझ इस बात पर निर्भर करती है, कि उसे कितने बड़े सन्दर्भ में देखा-समझा जा रहा है। स्त्रीवाद अगर परिवार को सन्दर्भ बनाता है तो चीजें बहुत मूर्त रूप में सामने आएँगी और उन सत्ताओं से लड़ना भी आसान होगा। पर संभवतः यह छाया को पीटना होगा जिससे समस्या का हल नहीं मिलेगा। पर जब स्त्रीवाद लैंगिक संरचना को मज़बूत करने वाले सूत्रों को पकड़ना शुरू करता है तो चीजें बहुत विस्तृत (कई बार नज़र की जद से छूटती हुई), अंतर्विरोधी और अमूर्त होती जाती हैं। अनगिनत परिच्छेदी अस्मिता व पहचानों का संजाल मिलता है। यहाँ उसे गहन सांस्कृतिक विमर्श में उतरना पड़ता है और उसे मिलता है कि पूरी दुनिया ही पुंसवाद के महीन तारों से बुनी गई है। अब वह चीजों को उसकी द्वंद्वात्मकता में पकड़ना शुरू करती है और अन्य अस्मिताओं के साथ समंजित होती हुई सूक्ष्म वास्तविक सत्ताओं तक पहुँच संभव कर लेती है। आज स्त्रीवाद का सन्दर्भ परिवार से निकल वैश्विक संरचना तक फैल चुका है। स्त्री भी जानती है कि इस वर्गीय संरचना के अंदर मुक्ति संभव नहीं। इस संरचना को ‘रिप्लेस’ किए बिना मुक्ति की चाहत बँधी नाव में चप्पू मारना होगा। अतः यह आवश्यक है कि इस संरचना के खिलाफ़ संघर्षरत ताक़तों से जुड़ा जाए। इस तरह यह लड़ाई बहु-विमीय होगी। इस समझ से ही आज स्त्रीवाद वैश्वीकरण विरोधी एक सशक्त आवाज के रूप में विकसित हुआ है। इसने वैश्वीकरण के जेंडर निरपेक्षता के दावे को झुठलाते हुए, इसकी ‘सेकसिस्ट टेंडेंसीज़’ और पुंसवादी सोपानक्रम को मज़बूत करने वाली सबसे बड़ी ताक़त के रूप में दिखाया।
स्त्रीवादी किसी भी तरह के शोषण व दमन को पितृसत्ता के ‘प्रोटोटाइप’ की तरह लेते हुए अपने को विस्तृत संघर्ष से जोड़ता है। एक वक्तव्य में सपना चमड़िया लिखती हैं - “धीरे-धीरे हम समाज और राजनीति के बड़े दायरे को अपनी कविताओं में समेटने की कोशिश करते हैं। जो लेखिकाएँ ऐसा नहीं कर पातीं वो सिर्फ़ ...एक तरह के भाववाद के संजाल में फँसी रहती हैं। मैंने इसे तोड़ने की कोशिश की है”। इस तरह का भाववाद न केवल दुनिया से कटा हुआ होगा बल्कि स्त्री मुक्ति की भी संकीर्ण समझ को दर्शाता है। सपना जी इसे ठीक से समझती हैं। उनका वक्तव्य सिर्फ़ कहने के लिए कहना नहीं है, उनकी कविताएँ इसे प्रमाणित करती हैं। इनमें सिर्फ़ सामाजिक-जातिगत अन्याय के पहाड़ को खोदते और प्रेम की ऊष्मा से भरे दशरथ माझी ही नहीं हैं। इनमें अनवर चाचा हैं, इसमें गुजरात और अफ़गानिस्तान की माएँ हैं, अस्ति-नास्ति के बीच फँसा कश्मीर है, पल-छिन हिंसा के शिकार हम हैं। और साथ ही लड़ने का ताप भी है। यहाँ अनवर चाचा के प्रति वैष्णवी सदाशयता नहीं है। अनवर चाचा सदाशयता की माँग भी नहीं करते, वे अपने ठेठपन में प्यार करते हैं और वही चाहते भी हैं। इस कविता में बाल कविता-सी सहजता है (हालाँकि सांस्कृतिक संदर्भों के कारण यह अपने अन्दर उथल-पुथल से भरी हुई है)। इसका कारण यह है कि बिहू भी इसकी एक विमा है। कहे में यह कविता कवयित्री की है पर देखे में बिहू की। झूठ और प्रपंच पर प्रेम तब विजयी होता है जब बिहू कहती है-
“मैं अपनी किताब का मुँह
चाकलेट से भर देना चाहती हूँ”।
आज जब फ़ासिस्ट ताक़तें पूरे सांस्कृतिक बोध को ही विकृत करने में लगी हैं, तब ये पंक्तियाँ और भी अर्थवान हो जाती हैं। और जब पूंजीवाद सामंतवाद से गठजोड़ करते हुए दमन की प्रक्रिया को और गहन बनाता जा रहा है, यह चीज़ों को उनकी संबद्धता में देख-समझ लेने की दृष्टि देती है। इसी तरह ‘रहमत ख़ान’ कविता में जरूरी सहजता और सार्थक नाटकीयता है। यह नाटकीयता ‘वस्तु’ को लिजलिजी भावुकता से उबार कर उसे विडंबनात्मक बना देती है-
“गले में रुमाल
आँखों में सुरमा
यहाँ तक तो फ़िर भी
ठीक था
पर कमबख्त
क्या जरूरत थी
लिखवाने की
बड़े-बड़े अक्षरों में
रहमत ख़ान का रिक्शा
ये ऐलान, ये हिमाक़त
मारे जाओगे गुलफाम”।
यह कैसा समाज है जहाँ नाम से अपराध तय हो जाता है! इस कविता में नारेबाजी के बजाए चीर देने वाला ठंडापन है।
वैश्विक पूजी-तंत्र हिंसा का ‘महीन सूत्र’ बुन रहा है। हर चीज़ इन सत्ताओं की गिरफ़्त में है। पर ये सूत्र इतने सूक्ष्म और उलझे हैं कि अक्सर हमारे साधारण समझ की जद से छूट जाते हैं। इसने भयंकर विस्थापन को जन्म दिया है। सपना जी का ‘कश्मीर का लड़का’ विस्थापितों की विडम्बना का सशक्त रूपक है। ‘वह अपनी जड़ों से कटे और सफाचट मैदान में पहुँचा दिये गए लोग’ है। वह ऐसे लोगों से जुड़ता है जिनके जंगल राजनीतिक कुर्सी के पाए और पूजीपतियों के नेमप्लेट बन गए। इस कविता की अंतिम पंक्तियाँ बहुत ही अर्थगर्भित हैं –
“कि जो अपना हिमालय छोड़ेगा
वह इसी तरह
सफाचट मैदान में मारा जाएगा”।
यहाँ ‘हिमालय’ भूदृश्य से ज़्यादा अपनी माटी व जातीय स्मृतियाँ है। आज की उत्तर आधुनिक परिस्थितियों में ‘विश्लेषित स्मृतियाँ’ ही प्रतिरोध बन सकती हैं। पूँजी का सांस्कृतिक लीद मनुष्य को स्मृतिहीन बनाने में ही नियोजित है। इस बात से इसका अंदाजा भी लगाया जा सकता है कि सपना जी ‘स्केल्टन विमेन’ की रूमानी कल्पना को नकारती हैं। सपना जी ‘रोज मरने के दृश्य’ में ‘रोज मारे जाने का दृश्य’ रचती हैं। मीतू का ऐक्सिडेंट विश्वासघात है, हत्या है। यह कविता, जिसमें हम रहते हैं उस पूरी संरचना के खिलाफ़, पंचायत बुलाना चाहती है। हिंसा, दमन और विश्वासघात के रेशमी तारों से बुनी यह पूरी संरचना इस हत्या में शामिल है। कार्य-कारण के सूत्र को यह कविता संवेदनक्षम काव्य-न्याय से रचती है। इस जीवन-विरोधी स्थितियों में बाहर निकलना, जान हथेली पर लेकर निकलना है! कवयित्री का गुस्सा भी देखा जा सकता है। और यह गुस्सा उन सारी परिस्थितियों, लोगों व तर्कों के प्रति है, जो इसे बनाए रखने में किसी भी रूप में सहयोगी हैं-
“अगर मैं तुम्हारे गाँव की
ओझा गुनी होती तो
जवाब नहीं मिलने पर
सबकी आत्माओं को
कील देती
लाल पीली हरी
ट्रैफ़िक लाइट पर”
अन्तिम पंक्तियाँ विडंबनाबोध को और भी सघन करती हैं-
“मैं पूछती हूँ तुमसे
पूछती हूँ दसों दिशाओं से
पूछती हूँ क्षिति, जल, पावक
गगन, समीरा से,
कि अभी कैसे
मर सकते हो तुम
जबकि स्कूटर के लोन की
अन्तिम क़िस्त जानी बाक़ी है”।
हिन्दी में इस तरह का पैनापन रघुवीर सहाय के यहाँ ही संभव है। कविता की रग-रग में बसी करुणा इन पंक्तियों को और भी ज़्यादा मार्मिक बनाती है। यही करुणा ‘गुजरात और ईराक़ की माएँ’ शीर्षक कविता में विस्तार पाती है। रघुवीर सहाय का नाम लिया है तो एक बात स्पष्ट करना चाहता हूँ कि रघुवीर सहाय की करुणा पैसिव करुणा है, जो क्रिया में परिणत ही नहीं होती। रामदास सरे बाजार मारा जाएगा पर कोई विरोध नहीं होगा। इन कविताओं में पैसिव करुणा नहीं; प्रतिरोध है। प्रतिरोध भी सिर्फ़ मुहावरेदार भाषा और नारेबाजी के अर्थ में नहीं, इससे गहरा है। आज पूरे समाज का जिस तरह अमानवीकरण किया जा रहा है और हमारा अपना समाज फ़ासिज़्म के फंदे में कसता जा रहा है, एक संवेदनशील दृश्य भी प्रतिरोध में बदल जाता है। जब वैश्विक पूँजी प्रकृति को चाट जाने पर आमादा हो तो दूब की एक पत्ती उठाना भी सब कुछ की मुखाल्फ़त करना है। इस कविता में व्यक्तिगत अनुभव समष्टि के प्रति करुणा में बदल जाते हैं (थोड़ा और सुधार करें तो- समष्टि के प्रति करुणा के रूप में विकसित होते हैं)। और सामयिक संदर्भों के सहारे अपना राजनीतिक पक्ष और प्रतिपक्ष भी व्यंजित करते हैं। इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि सपना जी अपने समय-संदर्भ के प्रति बहुत सजग हैं। इस संदर्भ में कविता से कौन सी अर्थ छायाएँ विच्छुरित होंगी इसे समझती हैं। इसीलिए कई जगह वे मितभाषी हैं और थोड़ा-सा प्रकाश डाल कर चीज़ों को संदर्भों के हवाले कर देती हैं।
उक्त वक्तव्य में, जहाँ से मैंने उद्धरण दिया है, सपना चमड़िया लिखती हैं- “एक व्यक्ति और एक स्त्री का वाङ्ग्मय एक तरह से हमें प्राप्त नहीं हुआ है। एक स्त्री का वाङ्ग्मय सीमित होता है और दुनिया से उसके परिचित होने के दायरे को बराबर समेट कर रखा गया है। समय में बाँधें तो हद से हद सौ साल पुराना होगा”। एक चीज़ और जोड़ने की जरूरत है कि न सिर्फ़ वाङ्ग्मय सीमित है, अपितु भाषा भी उनकी नहीं है। पूरी भाषा ही पुरुष आत्मवत्ता का विस्तार है। सूक्ष्म से सूक्ष्मतर अर्थ-छवियाँ भी पुंसवादी छापों से लदी हुई हैं। ऐसे में स्त्री के लिए अपने भाव-बोध की कोडिंग अपेक्षाकृत मुश्किल काम है। स्त्रियों में भाषिक सर्जनात्मकता और संरचनागत वैविध्य अधिक देखने को मिलता है। मेरी समझ से इसका कारण यह है कि लेखकों का जीवन-बोध सापेक्षतः जीवन का सामान्य बोध होता या उससे बहुत ज़्यादा समंजित। अतः भाषा के लिए भी कोई नितांत मौलिक संघर्ष नहीं होता, भाषाएँ समान्यतः उनके बोध से अनुकूलित हैं। लेखिकाएँ पुरुषों द्वारा गढ़े गए स्त्रीवादी नारों में उलझ कर अपने प्रतिरोधी दुनिया को ही रचती रहती हैं। इस तरह के जीवन-बोध से एक प्रतिगामी सम्बद्धता बनता है। इसे तोड़ने के लिए सजगता अवश्यक है। सपना चमड़िया की कविताएं इस सम्बद्धता को तोड़ती हुई अपने बोध को रोप देती हैं। यहाँ कविता विविध स्तरों पर पुंसत्त्ववादी अनुभवों को डिकोड करती हुई अपने अनुभवों की कोडिंग करने में सक्रिय दिखेगी।
स्त्रियों ने मिथकों का जितना सर्जनात्मक उपयोग किया है, वह गंभीरता से सोचे जाने की माँग करता है। मुझे सपना जी की कहीं पढ़ी हुई ‘बरसात’ शीर्षक कविता याद आ रही है। जिसमें वे इन्द्र के मिथक को पुनर्व्यख्यायित करती हैं। इसी तरह आप देखें तो मिलेगा कि कवयित्रियाँ प्रकृति को भाषा की तरह रच रही हैं। संभवतः इसका कारण यह है कि दोनों का दमन और शोषण एक ही प्रक्रिया में हुआ है। ‘नमाज़ की तरह’ कविता का एक पाठ इस तरह भी हो सकता है।
सपना चमड़िया का स्त्रीवाद कहीं भी मर्द बनने का आकांक्षी नहीं है। वे ससम्मान और बराबरी का जीवन चाहती हैं। ‘ओ हमारे माझी’, ‘पेट्रोल पंप पर लड़की’, ‘नमाज़ की तरह’ आदि इसी तरह की कविताएं हैं। नमाज़ की तरह कविता को गतानुगतिक प्रेम समझ टाप जाने के बजाए गम्भीर पाठ की जरूरत है। यह गहरे अर्थों में स्त्री की प्रेम कविता है। उसका जीवन सत्य है, जो पुरुष द्वारा अपनी आत्मवत्ता और अनुभव को निरपेक्ष सत्य की तरह गाये गए प्रेम को जगह-जगह से तोड़ती है। यह तमाम सहमतियों-असहमतियों से बुना इसी धरती का मानवीय संबंध है। प्रेम में पुरुष के लिए स्त्री दर्पण की तरह है जहाँ वह अपने को पाना चाहता है, उसे पाना चाहता है जिसे उसने सदियों से वहाँ छोड़ रखा है। । स्त्री के अनुभवों से उसे कोई मतलब नहीं। इसीलिए स्त्रियों ने इसे ‘कार्पस सेक्सुयलिटी’ की तरह भी समझा है। इस कविता में एक-एक चिह्नों पर ध्यान देना होगा। उदाहरण के लिए इन पंक्तियों को लें-
“बस बीच-बीच में
मादा कबूतर अपने गहरे काले
पंखों से ढक लेती है
अपने साथी को”।
विस्तार से बचते हुए सिर्फ़ इतना आग्रह है, कि ‘सब्जेक्ट’ और ‘ऑब्जेक्ट’ अवस्थिति पर ध्यान दें। इस कविता में हिन्दू चिह्नों से बचना सिर्फ़ भगवावाद से लड़ने की चाहत नहीं बल्कि इससे आगे बढ़ कर यह कविता नमाज़, रमजान और वज़ू को भी नितांत मानवीय धरातल पर उतार देती है। और चीज़ों की उदात्तता को स्वीकारते हुए भी ‘मानुष सत्त’ को सबसे ऊपर रखती है।
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| आशीष मिश्र | 
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 (इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)                                       






 
 
 
बहुत सुन्दर कविताएँ और सटीक समीक्षा
जवाब देंहटाएंशुक्रिया !
हटाएंशुक्रिया !
हटाएंकलाकार अपने समय की वास्तविकता को देखता है और समझता है. उसके किसी विशेष पहलू को वह उजागर करता है. इस अर्थ में अन्य पहलुओं को छोड़ता है. उसके दृष्टिकोण का पता केवल उससे ही नहीं चलता जिसे वह दर्शाता है बल्कि उस से भी चलता है जिसे वह त्यागता है – शायद फिर कभी उठाने के लिए. अभी तो ‘अनवर चाचा’ ‘कश्मीर का लड़का’ व ‘रहमत खान’ एक ओर हैं और एक (अनाम) सत्ता है जो उनके खिलाफ है. सपना जी ने अपनी कविता को एक विशेष दिशा दी है जो एक तरह से देखें तो गुजरात से ईराक की ओर जाती है. जहाँ तक हिन्दुस्तान की बात है तो मैं महसूस कर सकता हूँ कि अनवर चाचा, कश्मीर का लड़का और रहमत खान ‘मैं’ हूँ और वह अनाम सत्ता भी ‘मैं’ हूँ. लेकिन ईराक?
जवाब देंहटाएंबेहद शानदार कविताएँ और उन पर आशीष जी की टिप्पणी ! वाह बहुत खूब .
जवाब देंहटाएंपहलीबार और आशीष भाई को बधाई एवं आभार !
-नित्यानंद गायेन