प्रकाश करात का आलेख 'एरिक हाॅब्सबौम: दिलचस्प समय का इतिहासकार'।


एरिक हाॅब्सबौम
एरिक हाॅब्सबौम एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त मार्क्सवादी इतिहासकार थे। उनकी लेखकीय स्थापनाएँ व्यापक स्तर पर पूरी दुनिया में स्वीकार की गयीं। इन स्थापनाओं के पीछे उनकी वे मान्यताएँ थीं जिसे और लोग बीती हुईं बातें कहने लगे थे। इसके पीछे उनके अकाट्य तर्क थे।  हाॅब्सबौम ने मार्क्सवादी पद्धति का उपयोग करके समाज की संरचना और वर्गों के बारे में तथा पूंजीवाद के साथ आने वाले सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के बारे में बराबर लिखा, जिसका परिप्रेक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय था। भविष्य में एक बेहतर दुनिया के लिए संघर्ष के प्रति हाॅब्सबौम प्रतिबद्ध रहे। आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं प्रकाश करात का आलेख  'एरिक हाॅब्सबौम: दिलचस्प समय का इतिहासकार'।   

एरिक हाॅब्सबौम: दिलचस्प समय का इतिहासकार
प्रकाश करात

बीसवीं शताब्दी में पैदा हुए एरिक जे. हाॅब्सबौम बहुपठित और अति प्रभावशाली मार्क्सवादी इतिहासकार थे। हौब्सबौम के समकालीनों में क्रिस्टोफर हिल और ई.पी. थाम्पसन जैसे प्रतिभाशाली ब्रिटिश मार्क्सवादी इतिहासकार भी थे, किन्तु आधुनिक युग के इतिहासकार के रुप में उपार्जित व्यापक स्वीकृति और अपने लेखन के अंर्तराष्ट्रीय प्रभावों के चलते हाॅब्सबौम अद्वितीय थे।

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1917 में पैदा हुए हाॅब्सबौम बीसवीं शती में जीवन-यापन करते हुए महान ऐतिहासिक एवं राजनैतिक घटनाक्रमों के साक्षी बने। सोवियत संघ का उदय, फासीवाद का उदय, फासी वाद की हार, 1930 के दशक की महान आर्थिक मंदी के साथ पूँजीवाद के उतार-चढ़ावों, पूंजीवाद के स्वर्णयुग (1945-1973), वैश्विक वित्तीय पूंजीवाद के आगमन के साथ सोवियत संघ के विघटन और वित्त संचालित मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के सकंट को उन्होंने निकट से देखा तथा अनुभव किया।

    हाॅब्सबौम का जन्म मिस्र के अलेक्जेन्ड्रिया में हुआ था। उनके पिता अंग्रेज तथा माता आस्ट्रियाई थीं। अनंतर उनका परिवार बर्लिन चला गया जहाँ वे 16 वर्ष की आयु तक रहे। यहीं उन्होंने नाजी आतंक को पाँव जमाते तथा हिटलर को सत्ता पर काबिज होते देखा। वे कम्युनिस्ट पार्टी और सोवियत संघ के प्रति आकर्षित हुए; जिसे वे फासीवाद के खिलाफ, अभेद्य दुर्ग मानते थे। अपनी यहूदी पृष्ठभूमि के चलते हाॅब्सबौम तथा उनके परिवार को इंग्लैण्ड छोड़ना पड़़ा। उसके बाद वे एक ब्रिटिश नागरिक के रुप में लंदन में ही रहे। 1936 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। तदनन्तर वे कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहासकारों के समूह में शामिल हो गए।


कम्युनिस्ट पार्टी के ब्रिटिश इतिहाकारों का यह समूह इतिहास लेखन पर अपने दूरगामी प्रभावों के कारण उत्कृष्ट इतिहास लेखकों के समूह के रुप में प्रसिद्ध हो गया। हंगरी में 1956 के सोवियत हस्तक्षेप के बाद कई प्रमुख इतिहासकारों ने कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ दी, किन्तु सोवियत कार्यवाही पर अपने आलोचनात्मक रुख के बावजूद हाॅब्सबौम पार्टी में बने रहे। 1991 में कम्युनिस्ट पार्टी के विलयन तक वे इसके सदस्य बने रहे।
पार्टी से अपने सम्बन्धों के चलते उन्हें कैम्ब्रिज तथा दूसरे बड़े विश्वविद्यालयों में अध्यापक की नौकरी नहीं मिली। वे लंदन के बर्कबेक काॅलेज में प्रवक्ता हो गए जो नौकरीपेशा और कालेज की शिक्षा चाहने वालों के लिए पाठ्यक्रम संचालित करता था। वे आजीवन इसी कालेज से जुड़े रहे।


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हाॅब्सबौम आधुनिक युग तथा सामाजिक परिवर्तन के इतिहासकार के रुप में उभरे। एक इतिहासकार के रूप में उनके कामों के मूल्यांकन का यहाँ मेरा न तो मंतव्य है और न ही मैं उसका सक्षम अधिकारी हूँ। किन्तु हाब्सबौम के लेखन की सामान्य समझ रखने वाले व्यक्ति के रुप में (जिसके लिए हाब्सबौम लिखते रहे हैं) कहा जा सकता है कि हाॅब्सबौम ने मार्क्सवादी पद्धति का उपयोग करके समाज की संरचना और वर्गों के बारे में तथा पूंजीवाद के साथ आने वाले सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के बारे में लिखा। यह सब करते हुए उनका दृष्टिकोण अंर्तराष्ट्रीय रहा।


एरिक हाॅब्सबौम

अपने प्रथम शोध विषय के रुप में उन्होंने पूर्व पूँजीवादी समाजों तथा इंग्लैण्ड और इटली के देहाती इलाकों में प्रतिरोध के रूपों की व्याख्या की। अपनी किताबों ‘प्रिमिटिव रिबेल्स’ और ‘लेबरिंग मेन’ में उन्होंने लूटपाट तथा किसान विद्रोहों की व्याख्या सामाजिक प्रतिरोध के रुप में की। यह निम्नवर्गीय इतिहास लेखन का एक नवाचारी रुप था। परवर्ती सभी निम्नवर्गीय इतिहास अध्ययनों को हाब्सबौम के इस नवाचारी योगदान से सीखना पड़़ा।

एक इतिहासकार के रुप में हाब्सबौम की प्रतिष्ठा मजबूती से उनकी किताबों के प्रसिद्ध चतुष्टय पर टिकी हुई है। तीनों किताबें जो 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति से 1914 के प्रथम विश्वयुद्ध तक के समय़ (जिसे हाॅब्सबौम लाॅन्ग नाइंटिएथ सेंचुरी कहते हैं) को व्याख्यायित करती है।


‘क्रान्ति का युग 1789-1848’, ‘पूंजी का युग 1949-1975’ और ‘साम्राज्य का युग 1875-1914’ तीन शानदार वांगमय तैयार करती हैं। हाब्सबौम दिखाते हैं कि कैसे आधुनिक युग के उदय के कारण 18वीं शती की इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति तथा 1789 की फ्रांसीसी राजनैतिक क्रान्ति में ढूंढे जा सकते हैं। इस दौर के इतिहास से ही क्रान्ति के युग की संरचना हुई है। दूसरा खंड ‘पूँजी का युग’ सांमतवाद विरोधी क्रान्ति तथा औद्योगिक क्रान्ति से जनित ‘बुर्जुवाजी वर्ग’ के उदय के कारणों की खोज करता है। तीसरा वांगमय ‘साम्राज्य का युग’ पूँजीवाद से सम्बन्धित हैं जो यूरोप और उसके औपनिवेशिक वैश्विक साम्राज्य विस्तार में एक प्रमुख प्रणाली बन गया था। जैसा कि हाब्सबौम ने सार रुप में कहा है- ‘‘प्रमुखतः मैंने शताब्दी (अर्थात् 19वीं शती) के इतिहास को पूँजीवाद की विजय और उसके बुर्जुआ समाज के उदार संस्करण के ऐतिहासिक रुप से विशिष्ट प्रतिरुप में रुपान्तरण की केन्द्रीय धुरी के आस-पास संगठित करने की कोशिश की है।’’


ग्रन्थ चतुष्टय के अनुक्रम में हाब्सबौम ने ‘अतियों का युग 1914-1991’ किताब लिखी। प्रथम विश्वयुद्ध से सोवियत संघ के विघटन तक के इतिहास को उन्होंने लघु बीसवीं शताब्दी के इतिहास की संज्ञा दी। यहाँ तक कि उनके वैचारिक विरोधियों ने भी इस ग्रन्थ का श्रेष्ठ कृति के रुप में स्वागत किया। यह किताब फ्रांसिस फुकुयामा के ‘इतिहास का अन्त’ अवधारणा का प्रभावशाली प्रतिवाद थी।


राष्ट्रवाद को समझने में हाब्सबौम का योगदान अप्रतिम है। 1990 में उनकी किताब ‘1780 से राष्ट्र और राष्ट्रवाद’ का प्रकाशन हुआ। हाब्सबौम ने वामपंथियों को राष्ट्रवाद का महिमा मंडन न करने के लिए प्रेरित किया क्योंकि वे महसूस करते थे कि यह उत्तरोत्तर संकीर्ण, कट्टर और अंधराष्ट्रवाद में पर्यवसित होता गया है। 20वीं शताब्दी के अंत में उभरे ‘नव राष्ट्रवाद’ को वे प्रतिक्रियावादी और युगोस्लाविया तथा सोवियत संघ के पतन का जिम्मेदार मानते थे। जातीय राष्ट्रवाद के उदय के लिए वे ‘अस्मिता की राजनीति’ को जिम्मेदार मानते थे। उनके विचार से राष्ट्रीय स्वातन्त्र्य की चेतना के रुप में राष्ट्रवाद अब भी यहाँ-वहाँ अस्तित्व में जरुर था किन्तु वर्तमान समय में अतीत के पुनरुत्थानवाद पर आधारित राष्ट्रवाद की ही प्रबलता है।


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हाॅब्सबौम के योगदान के कुछ आलोचकों का कहना है कि कम्युनिस्ट विचारधारा से सम्बद्धता की वजह से उनकी वस्तुनिष्ठता प्रभावित हुई है तथा उनका विश्लेषण विकृत हो गया है। सोवियत यूनियन में स्तालिनवाद के आतंक की अनदेखी करने के लिए उनकी निंदा की गयी। दरअसल, कम्युनिस्ट पार्टी की उनकी सदस्यता की आलोचना उनकी मार्क्सवादी मीमांसा पद्धति पर केन्द्रित थी, लेकिन जहाँ तक ऐतिहासिक योगदान का सवाल है हाॅब्सबौम का नजरिया स्वतंत्र रहा है। ऐसे कई अवसर आए जब हाॅब्सबौम कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ ग्रेट ब्रिटेन (CPGB) के नजरिए से तथा सोवियत युनियन में हो रही गतिविधियों से सहमत नहीं हुए। किन्तु, दूसरे मार्क्सवादी  इतिहासकारों के विपरीत हाॅब्सबौम ने कभी भी कम्युनिस्ट पार्टी या सोवियत यूनियन के प्रति समर्थन नहीं छोड़ा। दरअसल मार्क्सवादी विश्वदृष्टि और मीमांसा पद्धति ने ही हाॅब्सबौम को इतना उत्कृष्ट इतिहासकार बनाया था। वे असंपृक्त हो कर यूरोप में कम्युनिस्ट पाटियों के भाग्य और सोवियत यूनियन में वास्तविकता में उपस्थित समाजवाद पर लिख सकते थे। वे पश्चिमी यूरोप में वामपंथी तथा मार्क्सवादी विचारधारा आधारित आंदोलनों के समक्ष उपस्थित चुनौतियों पर पैनी दृष्टि रखते थे, जहाँ बुर्जुवा लोकतंत्र तथा पूँजीवाद संघ घिर कर गए थे। इटली में कम्युनिज्म के सैद्धान्तिक आधार के संस्थापक एंटोनियो ग्राम्शी के महत्व को रेखांकित करने वाले मार्क्सवादी विद्वानों में वे प्रथम थे। बाद के वर्षों में वे इटली की कम्युनिस्ट पार्टी के ज्यादा करीब हो गए। वे खुद को इटली की कम्युनिस्ट पार्टी का आध्यात्मिक सदस्य मानते थे। 1990 में इटली की कम्युनिस्ट पार्टी का विघटन एक बड़ा झटका था। इसने उनके इस विश्वास को पुख्ता कर दिया कि यूरोप में पुराने तरीके की कम्युनिस्ट पार्टियों का कोई भविष्य नहीं है।

यूरोप में कम्युनिस्ट पार्टियों के कमजोर पड़ जाने या उसका विलयन हो जाने के बावजूद हौब्सबौम पिछले पन्द्रह वर्षों में अत्यधिक प्रभावशाली बनते गए तथा उनकी आवाज़ ज्यादा व्यापक तौर पर सुनी जाने लगी थी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बौद्धिक रुप से उनका सामना ऐसी स्थितियों से था, जहाँ समाजवाद पीछे हट रहा था तथा मौजूदा वैश्विक पूँजीवाद यूरोप की महान मंदी के बाद अपने सबसे बड़े आन्तरिक संकट से जूझ रहा था तथा उसकी चूलें हिली हुई थी। एक इतिहासकार की दूरदर्शिता से एरिक हाब्सबौम ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के दीर्घ पूँजीवादी तेजी के दौर के अंत के बाद के तीन दशकों में नाटकीय परिवर्तनों का विश्लेषण किया। एक ऐसी दुनिया जिसने वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्रान्तियों के साथ उत्पादन की शक्तियों में हिमालयी वृद्धि को अपनी आँखों से देखा था; बड़े परिवर्तनों ने जैसे कि उन्नत पूँजीवादी देशों में किसान वर्ग का आबादी का उपेक्षित हिस्सा बन जाना, संचार क्रान्ति के बाद एक तरफ दुनिया विश्व गाँव बन गयी तो दूसरी तरफ सार्वभौमवाद से पीछे हटने की प्रवृति ने धर्म और जातीयता पर आधारित आदिम अस्मिताओं को भड़काया और उभारा। घटनाक्रमों के इसी उलझाव में हाब्सबौम ने बौद्धिक नैराश्य किन्तु उम्मीद के आशावाद का संतुलन बनाते हुए अपना विश्लेषण प्रस्तुत किया।


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बीसवीं शती के अंत में अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव पर हाब्सबौम ने वास्तविकता में मौजूद समाजवादी व्यवस्था की पराजय के साथ वैश्विक वित्तीय पूँजीवाद और नवउदारवादी प्रभुत्व वाले विश्व का विश्लेषण किया। इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में उनकी आत्मकथा ‘इंटरेस्टिंग टाइम्स, ए लाइफ इन द ट्वन्टीएथ सेन्चुरी’ और ‘हाउ टू चेंज द वल्र्ड: मार्क्स एण्ड मर्क्सिज्म 1840-2007’ शीर्षक से उनके दो बड़े काम सामने आए। अपनी आत्मकथा में हाब्सबौम ने इतिहासकार की भविष्योन्मुखी दूरदर्शिता से हमें उस दुनिया का बोध कराने की कोशिश की जिसमें हम रहते है। समाजवाद की ऐतिहासिक पराजय को स्वीकार करते हुए उन्होंने रेखांकित किया कि भूमंडलीय पूंजीवाद का ढाँचागत संकट साबित करता है कि वह मानवता के भविष्य का अन्तिम विकल्प नहीं है। दूसरी किताब में वर्तमान समय में मार्क्स की प्रासंगिकता को रेखांकित करते हुए उन्होंने संकेत किया कि परिवर्तन अवश्यम्भावी है, भले ही उस परिवर्तन की रुपरेखा अभी तक स्पष्ट न हो। एक बेहतर भविष्य के प्रति अपनी चिरस्थायी आस्था में ही हाॅब्सबौम की महानता छिपी हुई है। अपने अतीत से सम्बन्ध विच्छेद कर लेने में उन्हें कोई तर्क नहीं दीखता, दिवंगत दोस्त और कम्युनिस्ट मारगौट हीनेमन को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कभी उन्होंने कहा था- ‘‘हमें अपना जीवन बर्बाद नहीं करना चाहिए; यद्यपि हममें से कइयों ने अपनी आशाएँ खो दी हैं। सबसे पहले हमने यानि कम्युनिस्टों ने तथा उस समय की दुनिया के इकलौते कम्युनिस्ट राज्य यू.एस.एस.आर (USSR) ने शताब्दी की सबसे बड़ी नकारात्मक जीत के रुप फाॅसीवाद को परास्त किया। यू.एस.एस.आर. (USSR) तथा महान राष्ट्रीय फासिस्ट विरोधी आन्दोलनों, जिसके कि हम अब अगुवा तथा उत्प्रेरक थे ; की वजह से फासीवाद द्वितीय विश्व युद्ध नहीं जीत पाया।’’

भविष्य में एक बेहतर दुनिया के लिए संघर्ष के प्रति हौब्सबौम प्रतिबद्ध रहे। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘इंटरेस्टिंग टाइम्स’ का समापन यूँ किया है- ‘‘अब भी यहाँ तक कि इस असन्तोषजनक समय में भी हमें निःशस्त्र नहीं होना चाहिए। सामाजिक अन्याय की भर्त्सना तथा उससे संघर्ष की अब भी जरुरत है। दुनियाँ अपने-आप से बेहतर नहीं होगी।’’


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हाॅब्सबौम से मेरी व्यक्तिगत जान-पहचान सन् 2000 में हुई। लंदन के बर्कबेक काॅलेज में प्रसिद्ध इतिहासविद् से मुलाकात हुई। बहुत सारी चीजों पर हमने बातें की जिनमें से एक मेरी उस योजना के बारे में भी थी जिसमें उनके कम्युनिस्ट इतिहासकारों के समूह के साथी कामरेड विक्टर कीरनैन (जिन्होंने काफी समय बाद मुझे एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में पढ़ाया भी था) के सम्मान में उनकी 90वीं वर्षगांठ पर एक पुस्तक का प्रकाशन भी थी। उन्होंने मेरे सम्पादन में प्रकाशित इस पुस्तक में एक अद्भुत लेख भी कीरनैन के बारे में लिखा था। 2005 में उनकी दिल्ली यात्रा के दौरान हमारी जान पहचान और पुख़्ता हुई। अनंतर अपने कभी-कभार के लंदन के दौरों के समय मैं उनसे मिलता रहा।

नवम्बर 2011 में हैम्पस्टेड स्थित उनके घर में मैं उनसे आखिरी बार मिला था। उनका अस्पताल में आना-जाना लगा हुआ था तथा वे शारीरिक रुप से बहुत क्षीण हो गए थे। किन्तु अपनी आरामकुर्सी में बैठते ही वे बिल्कुल बदल गए। लैटिन अमेरिका में हो रही गतिविधियों से शुरु करके मुझे दुनिया-जहान की सैर कराते हुए उन्होंने चीन पर बात खत्म की। जैसा कि हमेशा होता था उन्होंने भारतीय राजनीति पर कुछ प्रासंगिक सवाल भी दागे।


अंर्तदृष्टि सम्पन्न, पांडित्यपूर्ण और अंत तक अदम्य, एरिक हाॅब्सबौम की यही मेरी चिरस्थायी स्मृति है।



प्रकाश करात
मूल आलेख-
प्रकाश करात

(प्रकाश करात भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हैं और मार्क्सवाद के गहरे अध्येता हैं।)

मूल अंग्रेजी से अनुवाद :
अनिल कुमार सिंह

टिप्पणियाँ

  1. Sudhir Singh

    दुनिया अपने आप नहीं बदलती
    -एक जरुरी लेख

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  2. Ram Pyare Rai

    Pathaniya.Marx ne bhi to duniya bhar ke majdooron ko avaj di thi ek ho kar vyavastha badalane ki.

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  3. उमाशंकर सिंह परमार

    पढ लिया मैने ....सबको पढना चाहिए

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  4. Harbans Mukhia

    Hobsbawm ne marxvad ko bhi ek nayee disha di jo behad aham hai. Unhonne marxvad ko ek naya jeevan diya.

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  5. Santosh Kumar Tiwary

    Unfourtunately I was ignorant about eric hobsbawm before Santosh Chaturvedi post,learnt about him on wikipedia,and placed online order for his some of books,age of revolution,age of capital,age of empire age of extreme,including the book reffered in Santosh post related to nationalism thanks Santosh

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  6. Amrendra Kumar Sharma

    इस आलेख को 'अभिनव कदम' के एरिक हाॅब्सबौम विशेषांक में प्रकाशित करने का गौरव प्राप्त है . कई लोगों ने इस लेख के लिए अभिनव कदम को ख़रीदा . इस लेख को यहाँ देखकर एक बार फिर से अच्छा लगा .

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  7. Sudhir Singh

    जी Amrendra जी! यहाँ पर भी उसी क्रम में है। आपने उस अंक को तैयार करने में धूमकेतू जी के साथ योगदान किया था।

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  8. Rajeev Chandel

    बहुत दिनों बाद फेसबुक पर पठनीय सामग्री मिली.
    धन्यवाद, सुधीर सर!
    अब महसूस होता है कि दुनिया को समझने के लिये पढ़ना कितना जरुरी है.

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