कवि नरेश सक्सेना पर युवा आलोचक नलिन रंजन सिंह का आलेख ‘सुनो चारुशीला: जैसे कविता को लय मिल गई हो’

 
नरेश सक्सेना
नरेश सक्सेना हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं। विज्ञान या कह लें कि अभियांत्रिकी से जुड़े होने का प्रभाव उनकी कविता में स्पष्ट परिलक्षित होता है लेकिन यह प्रभाव कोई कृत्रिमता नहीं पैदा करता अपितु प्रकृति के साथ जुडाव को और पुख्ता ही करता है। नरेश सक्सेना के कविता संग्रह ‘सुनो चारुशीला’ के बहाने से उनके कवि और कवि कर्म की एक पड़ताल कर रहे हैं युवा आलोचक नलिन रंजन सिंह। तो आइए पढ़ते हैं नलिन रंजन सिंह का यह आलेख ‘सुनो चारुशीला: जैसे कविता को लय मिल गई हो’
   
‘सुनो चारुशीला: जैसे कविता को लय मिल गई हो’


नलिन रंजन सिंह

                         
सुनो चारुशीला’ नरेश सक्सेना का दूसरा कविता संग्रह है। पहला संग्रह समुद्र पर हो रही है बारिश’ पाठकों और आलोचकों द्वारा पहले ही सराहना प्राप्त कर चुका है। नरेश सक्सेना पिछले छः दशकों से कविता लेखन की दुनिया में सक्रिय हैं, फिर भी उनके मात्र दो कविता संग्रहों का छपना उनके प्रशंसक पाठकों को आश्चर्यचकित करता है। दरअसल नरेश जी की कविता की ताकत भी यही है -कम लिखना, ज्यादा पढ़ा जाना और पाठकों को याद रहना। नरेश जी हमारे समय के कुछेक कवियों में से हैं जो कम लिखते हैं लेकिन जो लिखते हैं वह यादगार लिखते हैं। आज जबकि लोगों को कविताएँ याद नहीं रहतीं, लोग कविताओं को नहीं, कवियों को याद रखते हैं- तब नरेश जी को लोग उनकी कविताओं से जानते हैं, पहचानते हैं। पहचानने का संदर्भ इसलिए कि नरेश जी की कविताएँ उनसे सुनने का आनंद ही कुछ और है। नरेश सक्सेना की कविताओं में बोध और संरचना के स्तरों पर अलग ताजगी मिलती है। बोध के स्तर पर वे समाज के अंतिम आदमी की संवेदना से जुड़ते हैं, प्रकृति से जुड़ते हैं और समय की चेतना से जुड़ते हैं तो संरचना के स्तर पर वे अपनी कविताएँ छंद और लय के मेल से बुनते हैं।

सुनो चारुशीला’ में नरेश जी की कुल 49 कविताएँ शामिल हैं। ज़्यादातर कविताएँ सन् 2000 के बाद की लिखी गई हैं। कुछ कविताएँ 1960-62 के आस-पास की हैं जिनमें एक घायल दृश्य’  कविता उल्लेखनीय है जो 1962 या 1964 की कल्पना’ में मुक्तिबोध की कविता चम्बल घाटी’ के साथ ही छपी थी। इन्हें पहले संग्रह में ही होना चाहिए था किन्तु ये कविताएँ अगर दूसरे संग्रह में हैं और पुरानी हैं तो भी न ही उनका महत्व कम हुआ है और न ही वे कहीं से पुरानी लगती ही हैं। नरेश जी की कविताओं को पढ़ने-सुनने से ऐसा लगता है कि इनमें से अधिकतर कविताएँ छंदबद्ध हैं और नरेश जी पुरानी परम्परा के वाहक कवि हैं। किन्तु वे ऐसा नहीं मानते। सुनो चारुशीला’ के पूर्वकथन में वे लिखते हैं- कुछ लोगों की धारणा है कि मैं पहले गीत लिखता था, बाद में गद्य शैली में लिखने लगा। यह सच नहीं है। छंद में तो आज भी लिखता हूँ। शिशु’ और घास’ कविताएँ छंद में हैं और इधर की ही लिखी हुई हैं, किन्तु आज की कविता के साथ छंद या लय का निर्वाह सहज संभव नहीं है। ....... मैंने मुख्यतः गद्य शैली में ही कविताएँ लिखी हैं। किन्तु 1962 में एक खास वजह से कुछ गीत लिखे, जिन्हें धर्मयुग ने पूरे रंगीन पृष्ठ पर बड़ी प्रमुखता से छापा। .......शायद इसी कारण लोगों का ध्यान मेरे गीतों की ओर आकर्षित हुआ होगा। ........कल्पना’ में, उन दिनों तीन बार में मेरी कुल आठ कविताएँ छपी थीं जिनमें से सात गद्य में थीं, सिर्फ एक छंद में।"
 
फिर भी संगीत और कविता में एक आंतरिक संगति मानने के कारण वे अपनी कविताओं में स्वर लहरियों का सृजन करते हैं। याद कीजिए नवगीत आंदोलन और फिर पाठ करिए नरेश जी की कविता ज़िला भिंड, गोहद तहसील’ का। स्पष्ट हो जाता है कि नव गीत के सारे तत्व यहाँ मौजूद हैं-

चिल्ला कर उड़ी एक चील
ठोस हुए जाते सन्नाटे में ठोकती गयी जैसे कील
सुन्न पड़ीं आवाज़ें
शोरों को सूँघ गये साँप
दम साधे पड़े हुए,
पत्तों पर हवा के प्रलाप
चली गयी दोपहरी, दृश्यों के
दफ़्तर में लिख कर तातील
हवा ज़रा चली कि फिर रोएगी
ढूहों पर बैठकर चुड़ैल
नदी बेसली के आरे-पारे
उग आएगी भुतही गैल
भरी पड़ी रहेगी सबेरे तक
ज़िला भिंड गोहद तहसील।

नरेश जी की पहली रचना मुक्तक के रूप में 1958 में छपी थी। लेकिन एक कवि के रूप में वे आज भी उतने ही तरोताजा हैं। कविता को लेकर नरेश सक्सेना की दृष्टि साफ है। वे मानते हैं कि  मनोरंजन या विलास का साधन कविता नहीं होती। सभी कलाओं और विज्ञान की तरह आनन्द से अपने अटूट रिश्ते के बावजूद वह पाठक से गम्भीर पाठ’ की माँग करती है।”

     “फूलों पर लिखी गयी कोई कविता भयानक विस्फोट का माध्यम भी बन सकती है। जैसे फोड़े में चीरा लगाने की क्रिया। कविता ऐसी जो पाठक को विचलित करे, भावबोध का परिष्कार करे और दृष्टि को बदल दे: मनुष्यता का ऐसा दस्तावेज जो अपने समय के अन्याय और क्रूरता को चुनौती देता हो। कविता ऐसी जो बुरे वक्त में काम आये, जो हिंसा को समझ और संवेदना में बदल दे। ऐसी कविता जो हमें बच्चों जैसा सरल और निश्छल बना दे, कौतूहल और प्रेम से भर दे।” फिर भी नरेश जी को परसाई जी की बात’ नहीं भूलती है-

आज से ठीक चौवन बरस पहले
जबलपुर में,
परसाई जी के पीछे लगभग भागते हुए
मैंने उन्हें सुनायी अपनी कविता
और पूछा क्या इस पर इनाम मिल सकता है?’
अच्छी कविता पर सज़ा भी मिल सकती है’
सुनकर मैं सन्न रह गया
क्योंकि उसी शाम, विद्यार्थियों की कविता प्रतियोगिता में
मैं हिस्सा लेना चाहता था
और परसाई जी उसकी अध्यक्षता करने वाले थे।
. . . . . . . . . . . . . . .
आज, जब सुन रहा हूँ, वाह, वाह
मित्र लोग ले रहे हैं हाथों हाथ
सज़ा कैसी कोई सख़्त, बात तक नहीं कहता
तो शक़ होने लगता है,
परसाईजी की बात पर, नहीं-
अपनी कविताओं पर।

     नरेश जी का अपनी कविताओं पर शक़ करना दरअसल कविता और कवि के संकट की ओर संकेत करता है। नंदकिशोर नवल अपनी पुस्तक कविता: पहचान का संकट’ में लिखते हैं- कवित्त एक गतिशील वस्तु तो है ही, दुर्ग्राह्य भी है..।प्रश्न उठता है, कविता दुर्ग्राह्य कब होती है? दुर्ग्राह्यता का यह प्रश्न रूपवाद की ओर ले जाता है। सौन्दर्य निरूपण जब-जब अतिशय आलंकारिक हुआ है, कविता कठिन हुई है और सुरसरि सम सब कहँ हित होई’ का भाव जाता रहा है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में कठिन काव्य के प्रेत हृदयहीन कवि’ भी मिलते हैं। ऐसा जब-जब हुआ है, कविता ने धारा बदली है।

     दरअस्ल कविता की गतिशीलता ही उसकी ताकत है। जो गतिशील होगा उसमें परिवर्तन भी होगा। कविता में जब-जब यह परिवर्तन ध्वनित हुआ है तब-तब नए-पुराने के द्वन्द्व में कविता पर शक किया गया है। कभी कवित्त को खेल’ मान लिया गया और सुकवियों के रीझने को कविताई।‘ ‘कभी उपमान मैले हुए’ और तमाम प्रतीकों के देवता कूच कर गए’। कभी कविता का शव लादकर’ कविता के मरने की घोषणा की गई। कविता, अकविता हो गई, लेकिन उसके एक दशक बाद ही 1980 को कविता की वापसी का वर्ष कहा गया। इन तमाम किन्तु-परन्तु और परिवर्तनों के बाद भी नरेश सक्सेना की कविता सुरसरि सम बहती रही। वे कविताएँ लिखते रहे, सुनाते रहे और पढ़ने-सुनने वाले उन्हें पढ़ते-सुनते रहे।

नरेश जी के कविता लेखन की एक अलग शैली है। मुझे लगता है कि इसे अगर निर्झर शैली कहा जाय तो बिल्कुल ठीक होगा। कभी भोर में हरसिंगार के पेड़ के नीचे खड़े होइए- आप गहरी खुशबू से भर जाएँगे और यह क्या आप तो फूलों से नहा उठे! खुशबू ही नहीं फूल भी झरते हैं वहाँ। नरेश जी की कविता भी ऐसी ही हैं झरते हुए शब्दों में एक भीनी सी सुगंध लिए हुए। गिरना’ कविता की पाठ प्रक्रिया से गुजरते हुए हमें कुछ ऐसा ही आभास होता है-

गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए
गिरो आँसू की एक बूँद की तरह
किसी के दुख में
गेंद की तरह गिरो
खेलते बच्चों के बीच
गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह
एक कोंपल के लिए जगह ख़ाली करते हुए
गाते हुए ऋतुओं का गीत
कि जहाँ पत्तियाँ नहीं झरतीं
वहाँ वसन्त नहीं आता
गिरो पहली ईंट की तरह नींव में
किसी का घर बनाते हुए।

आज कविता पर यह आरोप है कि लोग कवियों को जानते हैं, कविताओं को नहीं। यद्यपि यह बात पूरी तरह सच्ची नहीं है। अच्छी कविताएँ लोग जरूर याद रखते हैं, जैसे नरेश जी की कविताएँ। फिर भी मौजूदा दौर में ऐसा लगता है कि कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है।‘ इससे कविता को ले कर शक होना लाजिमी है। कविता के इस संदेहवाद में बाज़ारवाद और शिल्पगत एकरसता आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। हाल के वर्षों में देखें तो बाज़ार में जगह पा लेने के लिए सतही संवेदना के सहारे तमाम कविताएँ लिखी गयीं। नरेश जी को शायद इसीलिए यह पीड़ा सालती है, वे कहते हैं -

देखना जो ऐसा ही रहा तो, एक दिन
पेड़ नहीं होंगे
घोंसले नहीं होंगे
चिड़ियाँ ज़रूर होंगी, लेकिन पिंजरों में
नदियाँ नहीं होंगी
झीलें नहीं होंगी
मछलियाँ ज़रूर होंगी लेकिन टोकरियों में
जंगल नहीं होंगे
झाड़ियाँ नहीं होंगी
खरगोश और हिरन ज़रूर होंगे
लेकिन सर्कस में साइकिल चलाते हुए
. . . . . . . . . . . . . . .
बस्तियाँ नहीं होंगी,
मनुष्य नहीं होंगे,
सिर्फ़ बाज़ार होंगे, जहाँ होंगी कविताएँ
पेड़ों, नदियों, चिड़ियों, मछलियों और खरगोशों का
विज्ञापन करती हुई।

     यह परिवेश कविता के सामने कुहासा बुनता है। आज के दौर में कविता को कहानी ने पीछे छोड़ दिया है। उपन्यास, आत्मकथा और अन्य विधाएँ भी आगे निकल रही हैं। यद्यपि कविता लिखी सबसे अधिक जा रही है। लगभग हर साहित्यिक पत्र-पत्रिका में कविताएँ छप रही हैं, नये-नये संग्रह आ रहे हैं, उन पर समीक्षाएँ लिखी जा रही हैं लेकिन आज की कविता सामान्य जन से नहीं जुड़ पा रही है, इसीलिए कम पढ़ी जा रही है। यह चिन्ताजनक अवश्य है किन्तु निराशाजनक नहीं क्योंकि कविता का सबसे अधिक लिखा जाना उम्मीद जगाता है। कविता इसी रास्ते फिर वापसी करेगी क्योंकि जो रचेगा वह बचेगा। वैसे भी कविता वर्तमान समय की सबसे अधिक अव्यावसायिक विधा है और सब कुछ के बावजूद संवेदनशील कविता की पहचान का संकट संभव नहीं है क्योंकि विरेचन की संभावना कविता में ही सर्वाधिक होती है, उसका स्थान कोई नहीं ले सकता।

नलिन रंजन सिंह कवि नरेश सक्सेना

     जहाँ तक शिल्पगत एकरसता का सवाल है उसके जवाब में ढेरों उदाहरण दिए जा सकते हैं। एकरसता टिकाऊ नहीं होती है, उससे विविधता और निरंतरता दोनों बाधित होते हैं। इससे उबरने का उपाय डॉ. नामवर सिंह बताते हैं- कविता में जब कवियों को नया मार्ग नहीं सूझता, नई दिशाएँ मेघाच्छन्न दिखाई पड़ती हैं और पुरानी चहारदीवारी से निकलने का उपाय नहीं सूझता तो लोकशक्ति ही मशाल लेकर आगे बढ़ती है . . . .  अंधकार को चीरती है, कुहरे को छाँटती है, मार्ग को प्रशस्त करती है और दम घुटते कवियों की संज्ञा में प्राण-वायु का संचार करती है।

     नामवर जी के इस उपाय को लेकर नरेश जी ने कविता में लोक-संस्कृति और जातीय पहचान को विशेष महत्व दिया है। लोक-संस्कृति के शब्द लेकर लोक-संवेदना से जुड़कर नरेश जी अपनी अलग पहचान बनाते हैं। नरेश जी का मानना है कि कविता को लोकगीत की तरह सरल और आत्मीय होना चाहिए।” वे इसका निर्वाह अपनी कविताओं में करते भी हैं। इस बारिश में’,नीम की पत्तियाँ, पत्तियाँ यह चीड़ की’ जैसी कविताएँ इस दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं।

आसान लिखना कठिन होता है। सहज भाषा में अपनी संवेदना को रखते हुए कविता को देखना हो तो नरेश जी की धूप’ कविता देखिए –

सर्दियों की सुबह, उठ कर देखता हूँ
धूप गोया शहर के सारे घरों को
जोड़ देती है
ग़ौर से देखें अगरचे
धूप ऊँचे घरों के साये तले
उत्तर दिशा में बसे कुछ छोटे घरों को
छोड़ देती है।
पूछ ले कोई
कि किनकी छतों पर भोजन पकाती
गर्म करती लॉन,
बिजली जलाती धूप आखि़र
नदी नालों के किनारे बसे इतने ग़रीबों से क्यों भला
मुँह मोड़ लेती है।

     समकालीन कविता के पहचान को लेकर हो-हल्ला मचाने वाले कविता की संरचना में उस तुक या कटाव पर बार-बार सवाल खड़ा करते हैं जो कविता को गद्य से अलग करता है। यह प्रश्न भी कमजोर कविताओं को लेकर अधिक है। कोई यूँ ही महत्वपूर्ण नहीं होता। नरेश सक्सेना यूँ ही महत्वपूर्ण कवि नहीं हैं। विनोद कुमार शुक्ल के शब्दों में कहें तो- नरेश के स्वभाव में सरलता है। यही इनकी कविता का स्वभाव भी।.... गीत न होने के बाद भी नरेश की कविताओं के शब्द ऑर्केस्ट्रा के लोग लगते हैं। पढ़ते हैं तो अर्थों का वाद्य सुनायी देता है। उनसे कविता को सुनना, जीवन के कार्यक्रम को सुनना है।

दरअसल नरेश सक्सेना एक नाटककार भी हैं। इन्होंने बुन्देली नाटक और नुक्कड़ नाटक समेत कुल पाँच नाटक लिखे हैं। फ़िल्म और संगीत से इनका गहरा नाता रहा है। नरेश जी संगीत और कविता की आंतरिक संगति को जानते हैं। इसीलिए उनके शिल्प में पाठ’ की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। सस्यूर’ के भाषा चिंतन और संरचनावादी सार्वभौमिकता एवं पूर्णता के दर्शन उनकी छंदबद्ध रचनाओं में भरपूर होते हैं। वे सामान्यतः बोल कर लिखते हैं, इसलिए बोली की लय अनायास ही उसमें आ जाती है। कविता को लय कैसे दी जाती है, इसे नरेश जी की कविताओं का पाठ करके समझा जा सकता है। इस संग्रह की घास’,  एक घायल दृश्य’, जिला भिंड, गोहद तहसील’, शिशु’ आदि कविताएँ महत्वपूर्ण है। राजेश जोशी के शब्दो में कहें तो ये कविताएँ लय की कुदाल’ से उत्खनित हैं।

     आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है- प्रच्छन्नता का उद्घाटन कवि-कर्म का मुख्य अंग है। ज्यों-ज्यों सभ्यता बढ़ती जाएगी त्यों-त्यों कवियों के लिए यह काम बढ़ता जाएगा। मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधा संबंध रखने वाले रूपों और व्यापारों को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से पर्दों को हटाना पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट है कि ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जाएगा।

     इस पूरे संदर्भ में अगर अन्तिम वाक्य पर ध्यान दें तो कविता की आवश्यकता और कवि-कर्म की कठिनता पर शुक्ल जी आज भी प्रासंगिक लगते हैं। कविता करना भाषा की सायास या अनायास कोशिश नहीं है। दोनों के मिश्रण की क्रीड़ा भी नहीं है। बिना संवेदना के कविता अधूरी है। संवेदनहीन होते जा रहे वर्तमान समाज में संवेदनशील कविता की आवश्यकता बढ़ती जा रही है, ऐसे में संवेदन शून्य सायास रचनाकारों के बस की बात नहीं है कि वे इस आवश्यकता को पूरा कर सकें। स्पष्ट है कि सभ्यता के मौजूदा दबाव में कवि-कर्म कठिन हो चला है। फिर भी जहाँ संवेदना है वहाँ कविता पूरी ताकत से खड़ी है। करती होगी कहानी छोटे मुँह बड़ी बात, पर जो असर छोटे मुँह कविता करती है, वह कोई विधा नहीं कर सकती। नरेश जी की एक अत्यन्त छोटी कविता देखिए। शीर्षक है-

“सीढ़ियाँ कभी खत्म नहीं होतीं”।

सीढ़ियाँ चढ़ते हुए
जो उतरना भूल जाते हैं
वे घर नहीं लौट पाते।

     कवि एवं समालोचक अशोक वाजपेयी कहते हैं- अगर कवि ने अपने को विचारों से, ख़ासकर राजनीतिक विचारों से, जो आज की दुनिया में इतने प्रभावशाली हैं, अपने को काट लिया है या अलग रखा है तो फिर नये कवि का यह दावा कि समकालीन सच्चाई का साक्षात्कार करने की कोशिश कर रहा है, व्यर्थ हो जाएगा। राजनीति को दरकिनार रखकर समकालीन सच्चाई का कोई साक्षात्कार और प्रासंगिक नहीं हो सकता।‘ इस दृष्टिकोण से देखें तो नरेश जी राजनैतिक चेतना से लैस कवि हैं। वे अपने आस-पास के समाज और उसमें घटने वाली हर महत्वपूर्ण घटना से प्रभावित हैं।

नरेश सक्सेना
दरअसल नरेश सक्सेना अपने समय के सजग कवि हैं। वे बाज़ारवाद साम्प्रदायिकता और ऊँच-नीच की खाई को ठीक से पहचानते हैं। इन सारे संदर्भों में उनकी प्रगतिशील पक्ष धरता देखी जा सकती है। ईश्वर’, गुजरात-1’, गुजरात-2’, ईश्वर की औकात’, देखना जो ऐसा ही रहा’, धूप’, ईंट-2’ आदि कविताएँ इसी दायरे में आती हैं। गुजरात-2’ कविता में सपाट संवादों के सहारे वे सब कुछ सीधे-सीधे कह देते हैं और अपना निर्भीक पक्ष प्रस्तुत करते हैं-

कैसे हैं अज़ीज़ भाई’, फोन पर मैंने पूछा
खैरियत से हूँ और आप?
मज़े में...’ मुँह से निकलते ही घड़ों पानी पड़ गया
अच्छा ज़रा होश्यार रहिएगा’
किससे?
हिन्दुओं से’, कहते-कहते रोक लिया ख़ुद को
हकलाते हुए बोला-
बस, ऐसे ही एहतियातन कह दिया’।
रख दिया फोन
सोचते हुए
कि उन्हें तो पता ही है
कि किससे। 

यह पक्षधरता उन्हें समाज के हाशिए पर स्थित लोगों के पास ले जाती है। उनकी तमाम कविताएँ वंचितों के पक्ष में खड़ी होकर बोलती हैं। उन्हें धूप’, घास’, चीटियाँ’ और नीम की पत्तियाँ’ इसीलिए प्रिय हैं। नीम की पत्तियाँ’ तो इतनी कि उसकी सुन्दरता बताने में वे कविता को असमर्थ समझते हैं। उनके सौन्दर्य बोध में घुला हुआ यथार्थबोध धूमिल की कविता लोहे का स्वाद.....’ की स्मृति को ताजा कर देता है –

कितनी सुन्दर होती हैं पत्तियाँ नीम की 
ये कोई कविता क्या बताएगी
जो उन्हें मीठे दूध में बदल देती है
उस बकरी से पूछो
पूछो उस माँ से
जिसने अपने शिशु को किया है निरोग उन पत्तियों से
जिसके छप्पर पर उनका धुआँ
ध्वजा की तरह लहराता है
और जिसके आँगन में पत्तियाँ
आशीषों की तरह झरती हैं।

दरअसल विचारधारा और नियमों को लेकर मतैक्य नहीं है। आज विधाओं में तोड़-फोड़ का सिलसिला चल पड़ा है। काशीनाथ सिंह का संतों, असंतों और घोंघा बसन्तों का अस्सी’ जब कथादेश में छपा तो एक संत वाणी से उसकी शुरूआत हुई थी, नियम विज्ञान के होते हैं, जिन्दगी के नहीं।' यह नियम भंग का अनिवार्य हिस्सा है। यही उसकी निराला’ शैली है। मुक्ति, सारे बंधनों से मुक्ति। एक नियम नरेश सक्सेना भी बताते हैं-

चीजों के गिरने के नियम होते हैं!
मनुष्यों के गिरने के
कोई नियम नहीं होते।‘

और फिर नरेश जी गिरना’ कविता के माध्यम से कविता विधा को ऊँचा उठा देते हैं। नरेश जी का शिल्प छंदबद्ध रचनाओं में भले ही संरचनावाद की याद दिलाता हो लेकिन उनकी रचनाओं की वस्तु उत्तर संरचनावादी विमर्श से पूरी तरह जुड़ती है। इससे उनके लम्बे रचनाकाल के विकास को समझा जा सकता है। दरअसल नरेश जी की काव्य संवेदना में समाज का अंतिम आदमी मौजूद है। वे उस अंतिम आदमी के हक़ में खड़े हैं। इसीलिए ईश्वर की औकात’ बताते हैं और चींटियों’ और घास’ पर भी कविता लिखते हैं। नरेश जी की कविताओं में शिशु हैं, बच्चे हैं और औरतें भी हैं- वह भी फेंटा कसे और दराती लिए हुए।

  
नरेश सक्सेना की कविता में प्रकृति का रूप भी विलक्षण है। वे जिस तरह से बारिश, फूल, पत्तियाँ, पेड़, घोंसले, धूप, सूर्य, पहाड़, बर्फ, पानी, घास, चाँद, पक्षी, मिट्टी और आकाश को देखते हैं वह उनके सौन्दर्य बोध की अलग दुनिया है। आकाश, धरती, बारिश और रंगों से मिलकर रंग’ जैसी कविता भी हो सकती है, सहसा विश्वास नहीं होता -

सुबह उठ कर देखा तो आकाश
लाल, पीले, सिन्दूरी और गेरुए रंगों से रंग गया था
मजा आ गया आकाश हिन्दू हो गया है’
पड़ोसी ने चिल्ला कर कहा
अभी तो और मज़ा आएगा’ मैंने कहा
बारिश आने दीजिए
सारी धरती मुसलमान हो जाएगी।
 
नरेश सक्सेना की ऐसी कविता पढ़ने के बाद यह विश्वास करना बेहद कठिन है कि पढ़ाई में दसवीं के बाद हिन्दी भाषा उनका विषय नहीं रहा। उन्होंने एम.ई. तक इंजीनियरिंग पढ़ी और पैंतालीस वर्ष तक इंजीनियरिंग ही की। ईंट, गिट्टी, सीमेण्ट, लोहा, नदी, पुल- उनकी रोज़ी-रोटी के साधन रहे और उनकी सोच के केन्द्र में भी। इसीलिए ये सब उनकी कविता में शामिल हैं। नरेश जी के पहले किसी कवि की कविता में ये शब्द नहीं मिलते। विज्ञान का विद्यार्थी होने के कारण उसकी सैद्धान्तिकी को आधार बनाकर जिस तरह की कविताएँ नरेश जी ने लिखी हैं उस तरह की कविताएँ हिन्दी में मिलना मुश्किल हैं। गिरना’,  सेतु’,  पानी क्या कर रहा है’, प्रवासी पक्षी’, अंतरिक्ष से देखने पर’ आदि कविताएँ एकदम अलग भाव-बोध की कविताएँ हैं। लेकिन कवि का हुनर ऐसा है कि वह विज्ञान और संवेदना के मेल से इन कविताओं को विशिष्ट बना देता है। प्रवासी पक्षी’ कविता की अंतिम पंक्तियाँ कुछ ऐसी ही हैं –

पर्वतों, जंगलों और रेगिस्तानों को पार करती हुई
वे जहाँ जा रही हैं, ऊष्मा की तालाश में
वहाँ पिंजरे और छुरियाँ लिये
बहेलिये उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

सुनो चारुशीला’ कविता दिवंगत पत्नी विजय को समर्पित है। उन्हीं को श्रद्धांजलि स्वरूप कविता संग्रह का नाम भी सुनो चारुशीला’ रखा है। कविता में एक ओर दाम्पत्य प्रेम का रस उद्वेलित है तो दूसरी ओर उस प्रेम को खोने का आभ्यांतरिक विलाप भी है। चींटियाँकविता में भी विजय जी का जिक्र है। दाम्पत्य प्रेम का यह दर्शन उन्हें प्रकृति के करीब ले जाता है। उनके यहाँ पत्तियाँ हैं, फूल हैं, ऋतुएँ हैं, बारिश है, मिट्टी है, पहाड़ है, बर्फ है, पानी है, पेड़ हैं, पक्षी हैं। इन्सान इन जगहों से जुड़ा है- अपने अलग-अलग रूपों में।


संग्रह में विनोद कुमार शुक्ल के लिए लिखी गई कविता दरवाजा’ भी शामिल है। हालाँकि नरेश सक्सेना ने दीवारें’,  क़िले में बच्चे’ और घड़ियाँ’ जैसी कविताएँ भी संग्रह में शामिल की हैं लेकिन कुछ और कविताएँ भी हैं जिनकी अलग से चर्चा की जा सकती है। इनमें मछलियाँ’,दाग़ धब्बे’, ‘तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो’,एक घायल दृश्य’,फूल कुछ नहीं बताएँगें’, इतिहास’, कविता की तासीर’,  घड़ियाँ’,संख्याएँ’,आधा चाँद माँगता है पूरी रात’,पहले बच्चे के जन्म से पहले’, सीढ़ियाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं’,मुर्दे’,पीछे छूटी हुई चीजें’, ‘अजीब बात’,प्रेम मुक्ति’,मुझे मेरे भीतर छुपी रोशनी दिखाओ’ और एक चेहरा समूचा’ महत्वपूर्ण हैं। 


नरेश सक्सेना की कविताओं की सबसे बड़ी खूबी यह है कि ये कविताएँ पाठकों और श्रोताओं से अपना बार-बार पाठ कराती हैं फिर भी आकर्षण नहीं खोतीं। स्पष्ट है कि नरेश जी की भाषा की ताकत कविताओं के पाठ में निहित है। इस पाठ की अंतर्ध्वनियाँ नरेश जी के काव्य पाठ की भंगिमा से मिलकर लय लहरियाँ उठाती हैं। कुल मिलाकर इस संग्रह की सभी 49 कविताएँ बेहद पठनीय हैं। इसीलिए यह संग्रह अत्यन्त संग्रहणीय है। सेतु’ कविता के अंतिम हिस्से का पाठ नरेश सक्सेना की प्रतिभा को नमन करने के लिए किया जा सकता है-

लय से उन्मत्त
सेतु की काया करती है नृत्त
लेफ़्ट राइट, लेफ़्ट राइट, ऊपर नीचे, ऊपर नीचे
अचानक सतह पर उभरती है हल्की-सी रेख
और वह भी शुरू करती है मार्च
लगातार होती हुई गहरी और केन्द्रोन्मुख
रेत नहीं रेत। लोहा, लोहा अब नहीं
और चूना और मिट्टी हो रहे मुक्त
शिल्प और तकनीकी के बन्धन से
पंचतत्त्व लौट रहे घर अपने
धम्म... धम्म... धम्म... धम्म... धम्... धड़ाम
लय की इस ताक़त को मेरे शत-शत प्रणाम।


* सुनो चारुशीला: नरेश सक्सेना, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, पहला संस्करण: 2012, पृष्ठ-82, मूल्य- रु. 100/-

नलिन रंजन सिंह




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