पंकज पराशर का आलेख 'गोया एक फ़रियाद है अज़ान-सी'
वीरेन डंगवाल |
वीरेन डंगवाल हमारे समय के अनूठे और अलग मिजाज के कवि हैं। उनका यह मिजाज आप सहज ही उनकी कविताओं में देख सकते हैं। भाषा का खिलंदडापन देखना हो तो आपको वीरेन की कविताओं के पास जाना होगा। आभिजात्य शब्दों को तो जैसे वे मुँह चिढाते हुए जन-सामान्य के बीच प्रचलित उन शब्दों को अपनी कविताओं में प्रयुक्त करते हैं जो बिल्कुल आत्मीय लगते हैं। व्यंग्य भी इतने करीने से जैसे मन-मस्तिष्क झंकृत हो जाए। इस तरह के अलहदा कवि पर आलेख लिखा है हमारे कवि-आलोचक मित्र पंकज पराशर ने।
गोया एक फ़रियाद है अज़ान-सी
पंकज पराशर
“वैश्वीकरण भाषाओं, संस्कृतियों और कविता का शत्रु है। उसका
स्वप्न एक ऐसी मनुष्यता है जो उसी के गांव में बसती है, उसी तरह रहती-सोचती-पहनती,
हाव-भाव रचती और खाती-पीती है। एक रसायनिक संस्कृति बोध से लैस इस मनुष्यता का आदर्श
भी अंतरराष्ट्रीयवाद है मगर अपने मूल मानवीय अर्थ के बिल्कुल उल्टे अर्थ में। वह
वैश्विक मनुष्य तो पारंपरिक संस्कृतियों और ज्ञान को नष्ट करने वाला और
अधिनायकवादी है जो केवल बाज़ार और उपभोग को मान्यता देता है।”
-वीरेन डंगवाल (फरवरी, 2005 में साहित्य अकादेमी सम्मान समारोह में दिये गये
वक्तव्य से)
“जैसे समय का बाहर नहीं होता, वैसे ही भाषा का भी। वह ख़ुद
निरपेक्ष होती है, मगर भाषा के बरतने वाले अपनी-अपनी हैसियत और नज़रिये के अनुसार
उसे नियंत्रित करने की कोशिश करते ही रहते हैं।”
-वही
“कविता की भाषा और जीवन की भाषा को
अलग-अलग नहीं होना चाहिए।”
-नाज़िम हिकमत
“कविता मनुष्यता की मातृभाषा है। इसलिए यह कोई आश्चर्य की
बात नहीं है कि जहाँ भी मनुष्यता संकट में होती है, वहां कविता में उस संकट की
ईमानदार और प्रामाणिक अभिव्यक्ति होती है।”
-कार्ल मार्क्स
आमजन की निष्कलुष प्रसन्नता और करुणा, मनुष्यता के भीतर से
निकली गहरी आकुल पुकार और हिंदी काव्य परंपरा के साथ आत्मीय/जीवंत संवाद करती वीरेन डंगवाल की कविता मनुष्यता की खांटी
मातृभाषा में संभव होती है। जिसमें शब्द और कर्म के बीच न कोई द्वैध नज़र आता है, न
दो अर्थों का भय। शब्दार्थ तभी अस्पष्ट और उलझाऊ होते हैं, जब दृष्टि और नीयत
स्पष्ट न हो। ऐसे में भाषा और अभिव्यक्ति में चाहे जितनी सहजता लाने का प्रयास
किया जाये, कविता की संबद्धता और कवि की प्रतिबद्धता दोनों अवसर और व्याख्या के
अनुसार परिवर्तनशील प्रतीत होते हैं। किंतु-परंतु और दुविधा की भाषा में भविष्य की
सुरक्षा और लाभ की आकांक्षा का जो समीकरण सन्निहित होता है, उसका पर्यवसान वस्तुतः
संतन के सीकरी से संबंध जोड़ने से होता है, सनेह के सूधो मारग से नहीं। कहना न
होगा कि सनेह और प्रेम का घर खाला का घर नहीं होता, जहां सीस उतार कर भुंई पर धर
देना आवश्यक न हो। प्रेम के घर में तमाम जाल-जंजाल, गर्व-अहंकार, गुणा-गणित को परे
हटा कर रख देना पड़ता है। जहां सुखिया संसार तो खा कर सो जाता है, लेकिन सुखियों के
संसार में कबीरों की नियति है दुखिया दास की तोहमत झेलते हुए रात-रात भर जागना और रोना! क्यों कि जिन चीज़ों को आम आँख वाले लोग नहीं देख
पाते, वह कवि को सहज ही दिखाई दे जाता है। संसार के नक्कारख़ाने में तूती की जो आवाज़
अनुसुनी-सी रह जाती है, वह एक कवि के कान में पड़ने के बाद अनसुनी नहीं रहती।
चूंकि कवि हाशिये के लोगों, दमितों-वंचितों और परेशान-हाल
लोगों का अनिवार्य सहचर होता है, इसलिए जिस पर किसी की नज़र सहजता से नहीं जाती वह
कवि से अलक्षित नहीं रहता। तभी तो कीचड़ में लेटी हुई मादा सूअर भी मादर-ए-हिंद की
बेटी कहलाती है, नेवला जैसा जीव बेहद ख़ास हो जाता है और तोता ‘डियर तोताराम’ में रूपांतरित हो जाता है। वीरेन
डंगवाल की कान में जब रद्दी पेपर की आवाज़ आती है, तो उन्हें एक बच्चा कबाड़ी की आवाज़
अज़ान-सी फ़रियाद लगती है-
‘सुन पड़ती है सड़क से
किसी बच्चा कबाड़ी की
संगीतमय पुकार
गोया एक फ़रियाद है अज़ान-सी
एक फ़रियाद है फ़रियाद
कुछ थोड़ा और भरती मुझे
अवसाद और अकेलेपन से।’
-वीरेन डंगवाल, कवि ने कहा, पृ.111
बच्चा कबाड़ी की लयात्मक आवाज़ एक कवि के कानों में ही
अज़ान-सी पवित्र आवाज़ लग सकती है, जिसमें रोज़ी-रोटी कमाने की उम्मीद फ़रियाद के
रूप में रूपांतरित हुई-सी लगती है। यह आवाज़ और किसी के दिल में भले कोई विशेष भाव
पैदा न करती हो, लेकिन कवि को अवसाद और अकेलेपन से भर देती है। वैशाख की प्रचंड
दोपहरी में अशोक के सजीले पेड़ कुम्हला गए हैं, गर्मी अपने चरम पर है, लेकिन चार
पैसे कमाने के लिए घर से निकला एक बच्चा कबाड़ी रद्दी पेपर ख़रीदने के लिए आवाज़ें
लगाता हुआ शहर में भटक रहा है। इसलिए उस बच्चा कबाड़ी की आवाज़ कवि को गहरे अवसाद और
अकेलेपन से भर देती है। कवि-हृदय में प्रसूत यह करुणा जब कविता में अभिव्यक्त होती
है, तो व्यापक समाज के हृदय में करुणा और सहानुभूति पैदा कर पाने में सफल होती है।
इसलिए यह अकारण नहीं है कि उस बच्चा कबाड़ी की आवाज़ कवि को अज़ान-सी फ़रियाद लगती
है। जिसकी पुकार के पीछे है रोटी के लिए संघर्ष करते एक परिवार की कथा, उसकी
उम्मीद और आकांक्षाएं, जहां तक किसी और की नज़र नहीं जा पाती है।
हाशिये के लोगों की व्यथा अन्य लोगों से अलक्षित रह जाती
हैं, लेकिन कवि इस लिए देखने में सक्षम होता है, क्योंकि बकौल निराला ‘मैं कवि हूं पाया है प्रकाश’। इस प्रकाश के कारण कवि पूँजी और सत्ता के गठजोड़, दुरभिसंधियों आदि को अपनी
बारीक और मानवीय दृष्टि से देख लेता है। जनता जिन चीज़ों को, जिन दुरभिसंधियों को
अपनी भोली और सहज दृष्टि नहीं देख पाती है, उसे कवि कई बार घटित होने से भी पहले
देखने में सक्षम होता है। चिनुआ अचेबे इस बात के उदाहरण हैं, जिन्होंने अपनी
कथा-कृति ‘द थिंग्स फाल अपार्ट’ में जिस तरह से घटनाओं का चित्रण किया, बाद में सारी
घटनाएं उसी तरह नाईजीरिया में घटित हुई। वीरेन डंगवाल की काव्य-दृष्टि की यह
विशेषता लक्षित की जानी चाहिए कि उनकी भाषा में व्यंग्य की तुर्शी के साथ-साथ उन
फेनिल आवरणों को अनावृत्त करने वाला ताप है। ‘हमारा समाज’ में कहते हैं-
‘किसने आख़िर ऐसा समाज रच डाला है
जिसमें बस वही दमकता है, जो
काला है?’
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ.15
हमारे समाज में जो काली ताकतें सजी-बजी हैं, चमक-दमक रही
हैं, उसने जिस चतुराई से कालेपन के साम्राज्य का प्रसार और विस्तार किया है, कवि
के लिए वह चिंता की वज़ह है। आर्थिक उदारीकरण के बाद समाज में जिस तरह धन का
माहात्म्य बढ़ा है, उसने लोगों को येन-केन-प्रकारेण धन-संग्रह और अनंत भोग-विलास
के लिए उत्प्रेरित किया है। आलम यह है कि आज चीजों से अधिक उसकी ब्रांड की महिमा अधिक
है, जिसे पाने के लिए अधिकांश लोग एक अंधी दौड़ में शामिल हैं। काली कमाई से पैदा
होने वाला काला धन आज देश की अर्थव्यवस्था के समानांतर चलने वाली दूसरी
अर्थव्यवस्था का शक्ल अख्तियार कर चुका है और उद्योगों में अपनी घुसपैठ से छोटी
पूँजी निगल चुका है। इस काला-धन ने समाज की मानसिकता में जबर्दस्त परिवर्तन किया
है। नतीजतन अब लोग धनिकों का धन देखते हैं, धनागम का स्रोत देखने और उसके उचित-अनुचित
होने को ले कर जिरह नहीं करते। लेकिन कवि न केवल इन ताकतों को अनावृत्त करता है,
बल्कि उसकी दुरभिसंधियों की ओर इशारा करते हुए आमजन से इन शक्तियों के विरोध का आह्वान
भी करता है-
‘कालेपन की वे संतानें
हैं बिछा रही जिन काली
इच्छाओं की बिसात
वे अपने कालेपन से हमको घेर
रहीं
अपना काला जादू हैं हम पर
फेर रहीं
बोलो तो, कुछ करना भी है
या काला शरबत पीते-पीते मरना
है?’
-वही
सज्जनता, ईमानदारी, नैतिकता, वफादारी इत्यादि जैसे मूल्यों
के प्रति वर्तमान समाज की आग्रहशीलता में कमी में आई है और बेईमानों, हत्यारों, आवारा
और अनैतिक पूँजी के अलंबरदारों का दबाव और प्रभाव समाज में बढ़ा है। तो क्या कवि
भी इन चीजों के प्रति आग्रहशीलता में नरमी ले आए? कवि, जो कि इन ताकतों का अनिवार्य प्रतिपक्षी होता है, वह भी जब इन ताकतों के
प्रसारित किये हुए भ्रम का शिकार हो जाएगा तो जनता को भला रोशनी कौन दिखाएगा? इस बाजारोन्मुख राजनीतिक व्यवस्था में ‘मसला’ मनुष्य का है, जो मसले जाने
के लिए नहीं बना है। वीरेन डंगवाल कहते हैं-
‘बेईमान सजे-बजे हैं
तो क्या हम मान लें कि
बेईमानी भी एक सजावट है?
क़ातिल मज़े में है
तो क्या हम मान लें कि क़त्ल
करना मज़ेदार काम है?
मसला मनुष्य का है
इसलिए हम तो हरगिज़ नहीं
मानेंगे
कि मसले जाने के लिए ही
बना है मनुष्य।’
-वीरेन डंगवाल, कवि ने कहा, पृ.125
सत्य का मुख म्लान है, झूठ का प्रफुल्लित, तो इसका मतलब
क्या यह है कि सचाई का प्रतिदान है मलिनता और झूठ का प्रतिफल है प्रफुल्लता? लेकिन समाज में आमजन को दिखता है कि बेईमान सजे-बजे हैं और क़ातिल में बेहद
मज़े में हैं, तो इसका यह मतलब कतई नहीं है कि उनके कर्म नैतिक, न्यायोचित और
अनुकरणीय हैं! इस लिए कवि बल देकर कहता है
कि मसला मनुष्य का है जो इन ताकतों के आगे झुकने और मसले जाने के लिए नहीं बना है
और न इसका मतलब यह है कि इन ताकतों की कारकर्दगी ठीक है। इसलिए वीरेन डंगवाल दमकने
वाले चेहरे की हकीकत को अनावृत्त करते हैं, ‘पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है / इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है।’
समकालीन राजनीतिक और सामाजिक चिंताओं में साहित्य की चिंता भले
प्रमुखता से शामिल न हो, लेकिन सार्थक साहित्य का चिंतन इन्हीं चिंताओं से शुरू
होता है और सत्ता के प्रतिपक्ष में खड़े होकर अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करता है। अनुभवहीनता
और जीवन की अल्प समझ के कारण जो साहित्य कृत्रिम कलात्मक उपादानों के जरिये अपनी
महत्ता और अर्थवत्ता सिद्ध करने की कोशिश करता है, वह समय के साथ अप्रासंगिक होकर
इतिहास के गर्त में खो जाता है। लेकिन जिस रचना की बुनियाद में जनता के प्रश्नों,
आकुलताओं, आकांक्षाओं और स्वप्नों को जगह मिलती है, वह रचना ‘नयो-नयो लागत ज्यों-ज्यों निहारिये’ की तरह हमेशा अपनी अर्थवत्ता और महत्ता बनाये रखती है। ऐसी रचनाएं ही
मनुष्यता की सच्ची आवाज बन कर जन-सरोकारों से आबद्ध रहती है। वीरेन डंगवाल हाशिये
के उन आवाज़ों से शक्ति और प्रेरणा ग्रहण करते हैं, जो भय, अवसरवादिता और लाभ-लोभ
की संक्रामक मानसिकता के भयानक प्रसार के बावजूद अपने आदर्शों को मजबूती से थामे
रहती हैं,
‘कई लोग हैं अभी भी
जो भूले नहीं करना
साफ़ और मज़बूत
इनकार’
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ.15
यह साफ और मज़बूत इनकार जहां कवि के भीतर आशा का संचार करता
है, वहीं मनुष्यता के प्रति सच्ची आस्था भी पैदा करता है। भौतिकतावादी संस्कृति के
चमक-दमक में साफ़ और मज़बूत इनकार करने वाले लोगों की संख्या भले कम हुई हो, लेकिन
उनकी उपस्थिति और मजबूती कवि के भीतर उत्साह और आशा का संचार करती है। वीरेन की कविता
में अनुभव और संवेदना के अनेक स्तर हैं। उनके काव्य-संसार में मनुष्य से ले कर
मनुष्येतर प्राणी तक सहज उपस्थिति देखी जा सकती है। स्रष्टा भले दुश्चक्र में फँसा
हो, लेकिन उसकी दृष्टि, ग्राह्य क्षमता, चीज़ों की समझ प्रकृति ठप कारोबार से शुरू
हो कर मनुष्य के बर्बर कारोबारों को अनावृत्त करती है-
‘नहीं निकली नदी कोई पिछले चार-पाँच सौ साल से
जहां तक मैं जानता हूं
न बना कोई पहाड़ अथवा समुद्र
एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते
दिखाई दे जाते हैं
कभी-कभार।’
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ. 24
धरती की संरचना और विकास से परिचिति रखने वाले लोग जानते
हैं कि भौगोलिक विकास की प्रक्रिया वाकई पिछले चार-पांच सौ सालों में ठहरी हुई-सी
है। इस कविता में यह बात तथ्यात्मक रूप से सच है, इसलिए इस कविता का यह अंश प्रथम
प्रभाव में चमत्कृत और बाद में चिंतित करता है। लेकिन यह कविता जैसे-जैसे आगे
बढ़ती है, वैसे-वैसे व्यंजना शब्द-शक्ति की मारकता बढ़ती चली जाती है। बाद के
काव्यांश में प्राकृतिक बदलावों के ठहर जाने की चिंता प्राकृतिक आपदाओं और
मनुष्य-निर्मित समस्याओं/अत्याचारों की चिंता के साथ मिल कर एक विराट् मानवीय चिंतन में रूपांतरित हो
जाता है-
‘बाढ़ें तो आयीं खैर भरपूर,
काफी भूकंप, तूफान
ख़ून से लबालब हत्याकांड
अलबत्ता हुए ख़ूब
ख़ूब अकाल, युद्ध एक से एक
तकनीकी चमत्कार
रह गयी सिर्फ एक सी भूख,
लगभग एक सी वर्दियां जैसे
मनुष्य मात्र की एकता
प्रमाणित करने के लिए
एक जैसी हुंकार, हाहाकार।’
-वही
पिछले चार-पांच सौ सालों में धरती पर कोई नई नदी नहीं
निकली, न कोई नया पहाड़ बना, लेकिन विनाश और विध्वंस में क्रमशः बढ़ोतरी होती जा
रही है-कहीं ज्वालामुखी फूटती है, बाढ़ आती है, भूकंप आता है, चट्टानें खिसकती
हैं, सूनामी और समुद्री तूफान आता है, मगर कोई नई नदी नहीं निकलती, नया पहाड़ नहीं
बनता! इसलिए
कवि ईश्वर से यह सवाल पूछता है (जिस ईश्वर में उनकी कोई आस्था नहीं है, लेकिन वे
सवाल उस अधिसंख्य जनता की ओर से पूछते हैं जिसकी ईश्वर में आस्था है) कि क्या कुछ
नया रचने का काम अब पूरा हो गया भगवान? क्या अब सिर्फ
विनाश और विध्वंस ही होगा? हर चीज़ को स्याह और सफेद में समझने के आदी
सादा-दिमाग लोगों को वीरेन का यह काव्य-प्रश्न थोड़ा प्रश्नाकुल कर सकता है कि एक प्रतिबद्ध
वामपंथी कवि किस ईश्वर से संवाद करने की कोशिश कर रहा, जिसमें न उसकी कोई आस्था
है, न कोई कोई विश्वास? इस प्रश्न के झन्नाटेदार
उत्तर के साथ कवि इसी कविता के अंत में उपस्थित होता है, जब वे दुश्चक्रों के
स्रष्टा ईश्वर को अबे-तबे करके अपने भीतर की उस वास्तविक तस्वीर को उजागर करता है,
जो वाकई कवि के भीतर है-
‘अपना कारखाना बंद कर के
किस घोंसले में जा छिपे हो
भगवान?
कौन-सा है आखिर, वह सातवां
आसमान?
हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!!’
-वही, पृ.25
वीरेन कहते हैं कि भाषा कवि का बसेरा है और नाज़िम हिक़मत का
विचार है कि कविता की भाषा और जीवन की भाषा को अलग-अलग नहीं होना चाहिए। इसलिए महज
कुछ शब्दों ‘हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!!’ के संबोधन से वे ईश्वर की वास्तविकता के बारे में अपने विचारों को प्रकट कर
देते हैं। वीरेन विशेष रूप से धर्म उस
संस्थागत स्वरूप और उससे जुड़े पाखंड को अपना निशाना बनाते हैं, जिसके प्रति
संवेदनशीलता का ग्राफ समाज में निरंतर गिरता जा रहा है। अपने योगक्षेम,
स्वर्गाकांक्षा, मुक्ति आदि के लिए जिस पवित्र नदी गंगा की आराधना की जाती है, वह
गंगा आज विश्व की सर्वाधिक गंदी नदियों में शुमार हो गई है। लोगों के पाप धोने की
क्षमता कब की खो चुकी यह नदी महोत्सवों, धार्मिक उत्सवों में तो पूजी जाती है,
लेकिन पूजकों के दिल में वह स्थान नहीं अक्षुण्ण रख पाती कि अपनी मरणासन्न हालत से
उबर सके। चार्ली चैप्लिन के शब्दों में कहें तो चूंकि व्यंग्य का जन्म ही घोर
करुणा की कोख से होता है, इसलिए वीरेन डंगवाल की व्यंग्य की मारकता में उपहास
नहीं, घोर करुणा सन्निहित होती है। परंपरागत शब्दावली ‘स्तवन’ का प्रयोग करते हुए वीरेन ‘गंगा स्तवन’ में लोगों के
दमन-उत्पीड़न और प्रताड़ना से आहत-प्रतिहत गंगा को बेटी के रूप में संबोधित करते
हुए कहते हैं-
‘जा बेटी, जा वहीं अब तेरा घर होना है
मरने तक
चमड़े का रस मिले उसको भी पी
लेना
गाद-कीच-तेल-तेज़ाबी रंग सभी
पी लेना
ढो लेना जो लाशें मिलें
सड़ती हुईं
देखना वे ढोंग के महोत्सव
सरल मन जिन्हें आबाद करते
हैं अपने प्यार से।’
- कवि ने कहा, पृ.140
ढोंग के महोत्सवों में गंगा की पूजा और महिमा का गायन अवश्य
किया जाता है, उसकी सेवा और महात्म्य के लिए ‘भक्ति-भाव’ का प्रदर्शन अवश्य किया
जाता है, लेकिन उसी में तमाम चीज़ें उत्सर्जित भी की जाती हैं। नदियां मैली हो चुकी
हैं, शहरों के साथ-साथ देहातों में भी पानी की किल्लत होने लगी है। पानी की कमी की
भयावहता को बताने के लिए अक्सर यह कहा जाता है कि अब तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए
ही होगा, लेकिन हमारी आस्था और अक्लमंदी का आलम यह है कि जिस नदी को हम धार्मिक
रूप से भी जीवनदायिनी मानते हैं, उसे बचाने और संरक्षित रखने के लिए हमारे दिल में
कोई भाव, कोई दर्द नहीं बचा है। महोत्सवों और पूजा-पाठों को ले कर समाज की
प्रदर्शनप्रियता ने प्रकृति के हर वरदान को अभिशाप में तब्दील कर दिया है। संस्कृत
साहित्य के क्लैसिक्स में पर्यावरण को लेकर जो सजगता, सौंदर्यप्रियता और
संवेदनशीलता दिखती है, यहां तक कि छायावाद और प्रगतिवाद के दौर में भी जैसी सुंदर
और मार्मिक कविताएं प्रकृति को लेकर लिखी गई हैं, वह समकालीन कविता में सिरे से
नदारद दिखती है।
वीरेन डंगवाल धार्मिक और मिथकीय चरित्रों के बहाने भी जब
कोई कविता संभव करते हैं तो उसके मूल में यथार्थ की चिंताएं ही कारुणिक रूप में
प्रकट होती हैं। देश को बांटने वाली और ग़रीबों-मज़लूमों का शोषण करने वाली सत्ता
के विरोध में अपनी आवाज़ को ईमानदारी से बुलंद रखने की कोशिशों में मुब्तिला कवि
अपनी भूमिका के प्रति हमेशा साकांक्ष दिखाई देता है- ‘एक कवि और कर ही क्या सकता है/ सही बने रहने की
कोशिश के सिवा।’ वीरेन के भीतर का कवि सही
बने रहने के लिए निरंतर आत्मसंघर्ष करता रहता है। ‘इंद्र’ शीर्षक कविता में वे जिस
प्रकार इंद्र की शक्ति के बहाने समकालीन यथार्थ को अनावृत्त करते हैं वह बेहद
मानीख़ेज है-
‘वह समुद्रों को बजाता है सितार की तरह
मंद्र गर्जन से भरा वह
दिगंतव्यापी स्वर
उफ़, वहां पानी है
सातों समुद्रों और निखिल
नदियों का पानी है वहां
और यहां हमारे कंठ स्वरहीन
और सूखे हैं।’
-वही, पृ.47
कवि कंठ पानी के अभाव में सूखे ही नहीं, स्वरहीन भी
हैं- जिसकी पुकार धार्मिक सत्ता अनसुनी कर देती है। पिछले दशकों से देश में धार्मिक
कार्यक्रमों, टेलीविजन चैनलों, प्रवचनी बाबाओं और उत्सवों की भरमार हो गई है। आम
लोगों को इन बाबाओं से अपने जीवन की समस्याओं का कितना निदान मिलता है यह शायद ही
किसी को मालूम हो, लेकिन लोगों से इन बाबाओं पर्याप्त धन मिल जाता है। उत्सप्रियता
और धर्मभीरुता की वज़ह से लोगों का कल्याण होता हो या न होता हो, लेकिन देश की
नदियों, विशेष रूप से गंगा का लगातार अकल्याण होता रहता है। जिस अनुपात में देश में
छोटी-छोटी नदियां मरती जा रही हैं, उसी अनुपात में समाज में उत्सवप्रियता और
धर्मभीरुता बढ़ती जा रही है। ‘फ़ैजाबाद-अयोध्या’ की घटनाओं ने सामासिक संस्कृति को दोफाड़ कर दिया है, लेकिन पंडों और मंगतों
का कारोबार और फैला है। आर्थिक उदारीकरण के बाद से आए धार्मिक टी.वी. चैनलों और
मनोरंजन चैनलों के धारावाहिकों ने समाज में धार्मिकता को धर्मांधता में तब्दील
करने में एक बड़ी भूमिका है। ‘फ़ैजाबाद-अयोध्या’ के दृश्यों को अंकित करते हुए वीरेन कहते हैं-
‘घाटों पर तख़्त ही तख़्त
कंघी, जूते और झंडे सरयू का
पानी
देह को दबाता हल्की रजाई का
सुखद बोझ
चारों ओर स्नानार्थी मंगते
और पंडे।’
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ.32
वीरेन डंगवाल भारतीय काव्यशास्त्र और हिंदी काव्य-परंपरा से
जीवंत संवाद करने वाले कवि हैं, इसलिए उनकी कविता से गुजरते हुए अनेक प्रसिद्ध और
लोकप्रिय पुरानी कविताओं, पुराने लोकप्रिय छंदों की याद आती है। निश्छलता,
मासूमियत और सरलता उनके भीतर के कवि का स्थायी भाव है। लेकिन दुर्भाग्य से यह चीज़
वीरेन के समकालीन अधिकांश दूसरे कवियों के यहां कम दृष्टिगोचर होती है। उनके
अधिकांश समकालीन कवियों की कविता में भाषिक चमत्कार, अनुभूति की गहराई, पॉलिश्ड
शिल्प और प्रस्तुति की नवता तो लक्षित की जा सकती है, लेकिन किसी तरह का कोई ‘लोकेल’, काव्य-परंपरा से संवाद
आदि की कोशिशें कम दिखाई पड़ती है। इसके उलट वीरेन के यहां ये सारी चीज़ें स्पष्ट
और सशक्त रूप से नज़र आती हैं। मसलन वीरेन की कविता ‘पत्रकार महोदय’ पढ़ते हुए अनायास ही
रघुवीर सहाय याद आते हैं, जिन्होंने ख़बर की भाषा में कविताएं रच कर एक अलग ‘ख़बरधर्मी सौंदर्यशास्त्र’ की रचना की है। इस कविता
में वीरेन कहते हैं-
‘इतने मरे’
यह थी सबसे आम, ख़ास ख़बर
छापी भी जाती थी
सबसे चाव से
जितना ख़ून सोखता था
उतना ही भारी होता था
अख़बार।
-कवि ने कहा, पृ. 98
हर बड़ा कवि अपने पूर्ववर्ती महान कवियों की कविता और
प्रतिभा के प्रति नमनीय होता है। तुलसीदास कहते हैं- ‘जे प्राकृत कबि परम सयाने।
भाषा जिन्ह हरि चरित बखाने।।’ तो मिर्ज़ा ग़ालिब भी अपने अग्रज कवि को नहीं भूलते- ‘रेख़्ते के तुम ही उस्ताद
नहीं हो ग़ालिब/ कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था।’ बतर्ज़ तुलसीदास और ग़ालिब, वीरेन डंगवाल अपनी
कविताओं में अनेक पूर्ववर्ती कवियों को याद करते हैं, उन्हें अपनी कविता समर्पित
करते हैं। शमशेर को शमशेर की ही भाषा और अंदाज़ में याद करते हुए वीरेन अपनी ‘शमशेर’ शीर्षक कविता में कहते
हैं- ‘मैंने
प्रेम किया/ इसलिए भोगने पड़े/
मुझे इतने प्रतिशोध’ वहीं ‘बांदा’ कविता के अख़ीर में सहज
ही उन्हें प्रमुख प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल याद आते हैं- ‘मैं जामा मस्जिद की शाही
संगेमरमर मीनार/ मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढ़ा केदार’।
शमशेर और केदार को याद करने वाले
कवि वीरेन, निराला को याद न करें यह असंभव है। इसलिए जब वे ‘अयोध्या-फैजाबाद’ पर लिखते हैं, तो उन्हें
इस कविता के बेहद मार्मिक अंत के साथ ही महाकवि याद आते हैं, ‘इसीलिए रौंदी जाकर भी/ मरी नहीं हमारी अयोध्या/
इसलिए हे महाकवि, टोहता फिरता हूं मैं इस/ अंधेरे में/ तेरे पगचिह्न।’ कवियों के साथ-साथ वीरेन
ने अनेक शहरों पर भी कविताएं लिखी हैं। शहरों की विशेषता, गतिशीलता और ऐतिहासिकता
को अपना काव्य-विषय बनाया है। ‘मार्च की एक शाम में आई आई टी कानपुर’ में वे देखते हैं- ‘मृत्यु का अभेद्य प्रसार/ इस उजाड़ झुटपुटे में कोई
नहीं/ रास्ता बताने वाला’ क्योंकि ‘कानपूर’
में ‘आदमी
से ज्यादा बेकाम नहीं यहां कुछ/ऩ उससे ज्यादा काम का।’ ‘उधो, मोहि ब्रज’ में जब वे इलाहाबाद के वर्तमान को देखते हैं, तो
बेहद निराश होते हैं- ‘अब बगुले हैं या पंडे हैं या कउए हैं या हैं वकील/ या नर्सिंग होम, नए युग की बेहूदा पर मुश्किल
दलील।’
भाषिक चमत्कार और कवि-कौशल का
नमूना दिखाने के लिए कभी निराला ने यह कविता लिखी थी, ‘ताक कमसिनवारि/ ताक कम सिनवारि/ ताक कम सिन वारी/ सिनवारी सिनवारी’ इस कविता में ध्वन्यात्मकता
और शब्द-चातुर्य का अद्भुत प्रदर्शन है। वीरेन ने ‘डीज़ल इंजन’ पर कविता लिखते हुए भारतीय रेल के अलग-अलग क्षेत्रों
के संक्षिप्तीकृत रूप को लेकर इस कविता में अद्भुत प्रभाव पैदा किया है-
‘आओ, आओ चोखे लाल
आओ,
आओ चिकने बाल
आओ,
आओ दुलकी चाल
पीली
पट्टी, लाल रुमाल
आओ
रे, अरे, उपूरे, परे, दरे, पूरे, दपूरे
के रे, केरे?’
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ. 63
‘डीज़ल इंजन’ शीर्षक कविता जर्मनी के गायक यान्नी के लिए लिखी गई
है, जो भारत में ताज़महल के साये में एक बार अपनी अपनी प्रस्तुति दे चुके हैं। वीरेन
ने रेलवे के अनेक प्रकार के इंजनों को अपनी कविता का विषय बनाया है। रेलगाड़ी, ‘डीज़ल इंजन’, ‘भाप इंजन’, ‘रेल का विकट खेल’, ‘रात-गाड़ी’ इत्यादि को लेकर वीरेन के
भीतर बाल/ कवि
सुलभ जिज्ञासा देखते ही बनती है! ‘भाप इंजन’ को लेकर वे कहते हैं-
‘बहुत दिनों में दीखे भाई
कहां
गए थे?
पेरांबूर?
शनैः
शनैः होती जाती है अब जीवन से दूर
आशिक
जैसी बिकट उसांसें वह सीटी भरपूर।’
-कवि ने कहा, पृ. 31
कवि भाप इंजन से इस तरह संवाद कर रहा है, जैसे वह परिचित से
आगे कुछ हो-दोस्त या सखा-जैसा कुछ। इस कविता के अंत की दो पंक्तियों में ‘जीवन से दूर’ शब्द-युग्म भाप इंजन की जीवन से शनैः शनैः बढ़ती
दूरी का यथार्थ जहां पाठक के भीतर एक उदासी को रचने में कामयाब होता है, वहीं
अंतिम पंक्ति में ‘सीटी भरपूर’ की तुक इसे स्मृति
का स्थायी हिस्सा बनाते हुए अतीत की अनेक अविस्मरणीय स्मृतियों से भी जोड़ता है।
वीरेन डंगवाल को यदि उनके समकालीन कवियों के साथ रख कर पढ़ें तो उनकी कविता की एक
प्रवृत्ति विशेष रूप से रेखांकित की जानी चाहिए कि उनकी अनेक कविताओं में भाषा,
शिल्प और अंदाज़-ए-बयां के स्तर पर जो खिलंदड़ापन मिलता है, संवाद और अंदाज़ दोनों
में जैसी अनौपचारिकता दिखाई देती है; वह उनके अन्य समकालीनों के यहां बमुश्किल दिखाई देता है। भाषा में जितनी
अनेकरूपता, स्थानीयता और मनमौजीपने का वे मस्त-मलंग की तरह इस्तेमाल करते हैं,
उससे उनकी कविता की ख़ासियत ही नहीं, ख़ास कहन और नये ढब को भी देखा जा सकता है। ब्रज,
अवधी, पहाड़ी, खड़ी बोली आदि तमाम भाषाओं शब्द उनके यहां जिस सहजता से आते हैं,
उससे उनकी भाषिक क्षमता और जन संवाद-क्षमता का भी पता चलता है। ‘गप्प-सबद’ में वे कहते हैं-
‘देस बिराना हुआ मगर इसमें ही रहना है
कहीं न छोड़ के जाना है इसे
वापस भी पाना है
बस न तू आँधी में उड़ियो।
मती ना आँधी में उड़ियो।’
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ. 109
नव पूँजीवादी व्यवस्था में सत्ता और पूँजी के गठजोड़ के
कारण जिस तरह आम आदमी बिल्कुल हाशिये पर चला गया है उसके कारण यह अकारण नहीं है कि
अपना ही ‘देस’ उसे अब बिराना लगने लगा है। लेकिन इस वज़ह से उदास और निराश होकर कवि पलायन की
बात करते हुए ‘संधा-भाषा’ में कविता रचते हुए किसी रहस्यलोक की ओर नहीं जाता। बल्कि
दृढ़ता के साथ यह कहता है कि बिराने देस से पलायन करके कहीं नहीं जाना है, बल्कि
इसे वापस भी पाना है- जिसके लिए आवश्यक है कि आदमी स्थिर-चित्त रहे, समय और
परिस्थितयों की आंधी में मति उड़े नहीं। ‘कुछ नयी कसमें’ जब वीरेन डंगवाल खाते हैं; तो उनके खिलंदड़ और मस्तमौला अंदाज़ में छिपे
व्यंग्य-बाण की तुर्शी देखते ही बनती है-
‘हल्दीराम भुजिया की कसम
रिलायंस के तेल की कसम
प्रमोद महाजन की कसम
आज दिन काँच के गिलास की तरह
बिल्कुल साफ़ है और मेरी आत्मा निष्पाप।
मैंने घर में झाड़ू भी लगायी
है खुशी-खुशी।’
-वही, पृ.110
सुप्रसिद्ध कथाकार और हिंदी के सफलतम सोप ओपेरा लेखक
मनोहर श्याम जोशी ने एक स्थान पर लिखा है कि कई लोग बहुत गंभीरता से बहुत फूहड़ और
हास्यास्पद बात करते हैं, जबकि कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो सहज और अनौपचारिक तरीके
से से काफी गंभीर बातें कह जाते हैं। जिसके कारण गंभीर बातों की ग्राह्यता आसान हो
जाती है। ऐसे लोग महानता और गंभीरता को अपने व्यक्तित्व पर ओढ़ने-बिछाने की चीज़
नहीं समझते, सहजता से जीवन जीने में यकीन करते हैं। वीरेन की पूरी काव्य-यात्रा इस
बात की ताईद करती है कि मनुष्य की स्वभावगत सहजता, अनौपचारिकता और खिलंदड़पने को
उन्होंने अपने व्यक्तित्व और कविता दोनों पर हावी नहीं होने दिया। जबकि उनके अनेक
समकालीन कवि इस चीज़ से स्वयं को नहीं बचा पाए। उनकी निराली ‘फ़रमाइशें’ तो देखिये कि हर
जानवर से उसका स्वभावगत गुण अपने लिए चाहते हैं, लेकिन सियार से उसका स्वभावगत गुण
कवि को नहीं चाहिए। आख़िर शायरी इश्क से मुमकिन होती है, ‘अक्ल’ से नहीं, सो कवि सियार को
दूर से ही नमस्कार करके कहता है कि अपनी अक्ल अपने पास ही रखो, मुझे बख़्शो-
‘कुत्ते मुझे थोड़ा-सा अपना स्नेह दे
गाय ममता भालू मुझे दे दे
यार,
शहद के लिए थोड़ा अपना
मर्दाना प्यार
भैंस दे थोड़ा बैरागीपन बंदर
फुर्ती
अपनी अक्ल से मुझे बख़्शे
रखना यार सियार।’
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ. 85
कार्ल मार्क्स ने कविता की संजीदगी और संवेदना को लेकर कहा था
कि जहां भी मनुष्यता संकट में होती है, वहां कविता में उस संकट की ईमानदार और
प्रामाणिक अभिव्यक्ति होती है। मार्क्स के इस प्रतिमान पर देखें तो वीरेन की कविता
मनुष्यता के संकट की ईमानदार और प्रामाणिक अभिव्यक्ति को संभव बनाने वाली कविताओं
का सफल उदाहरण कही जा सकती हैं। जहां आम जन की तकलीफों, दुश्वारियों, सत्ता की
दुरभिसंधियों, धर्म की अमानवीय कार्य-शैली के साथ-साथ रागात्मक अनुभूतियों की सहज
अभिव्यक्ति पूरी सफलता से अभिव्यक्त हुई है। ‘दुःख’ के बारे में वीरेन कहते हैं-
‘अंधेरे में भी पहचानी जा सकती है
दुखी
आदमी की आवाज़
नकली
दुखी आदमी की आवाज़ में
टीन
का पत्तर बजता है
मसलन
मारे गए लोगों पर
राजपुरुष
का रुंधा हुआ गला।’
-कवि ने कहा, पृ. 28
भाषा कवि का बसेरा होती है, जिसकी विविधवर्णी छवि, पूरी
शक्ति और सौंदर्य का दोहन करते हुए वीरेन डंगवाल ने जैसी कविता संभव की है उससे
गुज़रते हुए स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि उनके शब्द और कर्म के बीच कोई फांक नहीं
है। उनकी सहजता, अनौपचारिकता और अकुंठ भाषा उनकी बड़ी विशिष्टता के रूप में सामने
आती है, जबकि उनके अनेक समकालीनों के यहां काव्य-भाषा, अंदाज़-ए-बयां आदि के स्तर
पर एक अज़ीब-सी संश्लिष्टता, असहज गंभीरता दिखती है। इस वज़ह से कविता की
ग्राह्यता और अभिव्यक्ति की सहजता दोनों प्रभावित होती है। किसी भी रचना की
संवाद-क्षमता उसकी सहज अभिव्यक्ति से संभव होती है और संवाद क्षमता से रहित रचना
और चाहे जो दावे कर ले, पठनीयता के मामले में पिछड़ जाती है। इसका यह अर्थ नहीं है
कि रचना की पठनीयता उसकी उत्कृष्टता की कुंजी है, बल्कि यह है कि उत्कृष्ट रचना
यदि अपने आगोश में पाठकों को बांध भी न सके तो उसकी प्राथमिक गुणवत्ता ही संदिग्ध
होने लगती है। वीरेन डंगवाल ने अपने आत्मसंघर्ष से इस मोर्चे पर फ़तह हासिल की है।
उन्होंने अपने लिए ऐसी भाषा चुनी है, जिससे गुजरते हुए पाठकों को अपनेपन के
साथ-साथ सहज संवादप्रियता का भी अहसास होता है। दूसरी ओर उनकी जन-आबद्धता का आलम
यह है कि जहां भी मनुष्यता संकटग्रस्त दिखी है, वहां उनकी कविता ने सार्थक और
कारगर हस्तक्षेप किया है।
(बनास जन से साभार)
***
पंकज पराशर |
सम्पर्क-
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय,
अलीगढ़-202 002 (उत्तर प्रदेश)
फोन-+91-96342-82886.
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