अरुणाभ सौरभ की कविताएँ
अरुणाभ सौरभ |
किसी भी मनुष्य की अनुभूतियाँ तमाम छोटी-छोटी चीजों से बनी होती हैं. किसी भी व्यक्ति के बचपन में ननिहाल की एक बड़ी भूमिका होती है. वहाँ के रिश्ते-नाते इतने आत्मीय होते हैं कि ताजिन्दगी ताजातरीन बने रहते हैं और व्यक्ति को व्यक्ति बनाते हैं. इस तरह के संबंधों में मामी का रिश्ता अत्यन्त करीबी रिश्ता होता है. कवि के लिए इन रिश्तों का ख़ास महत्व होता है. इसी क्रम में अरुणाभ सौरभ ने 'मामी' पर एक बेहतरीन कविता लिखी है. इसी तरह के संबंधों और अनुभूतियों की कवितायें पहली बार पर आप सबके लिए प्रस्तुत है.
अरुणाभ सौरभ की कविताएँ
लौह गीत
(सीबू लुहार के निधन पर)
बीत चुकी लोहे की सदी
जब अपनी ढलान पर
बीतते साल-दर-साल में
छियानबे, सत्तानबे, अट्ठानबे
बुढ़िया कमर हड्डियों की तरह
कट-कट-कटकटाती थी
और हमने सीबू द्वारा
ट्रक स्प्रिंग से निकाले गए लोहे से बने देसी कट्टे से
भुतहा गाछी के सन्नाटे की साँझ में
जीवन की पहली गोली
आकाश में चलायी थी
उस समय में
जब मिसाइल मैन को
पोखरण परीक्षण के बाद
नहीं मिली होगी
जितनी तसल्ली
हमने अट्टाहास कर पहली गोली
आकाश में चलाई
तुम्हारे बनाए कट्टे से सीबू
तुम्हारे पिस्तौलिया रंग को
आँखों की डिम्ब पर नचा कर
फिर जब-तब गोलियाँ चलाई
तब से अब तक
कलेजे को मजबूत करने के लिए
खून करने के लिए नहीं
आज अगर कलेजा
लोहे सा हुआ है
तो उसमें लोहा तुम्हारा है-
अगर मेरी कविता में
कोई लय, कोई राग है
तो.......
उसमें तुम्हारे हथौड़े की टन-टन है
मेरे पास आज भी अपना कोई घर
कोई कमरा नहीं
जो भी है सब किराये का पर जितना जो कुछ है
सब लोहा है
जो तुम्हारा है
उस महान गुरु का
जिसके बारे इतना ही कह कहूँगा
कि, अगर नहीं चलाई होती गोली
तो कविता नहीं लिख पाता
कल रात सपने में
मैंने फिर कई गोलियाँ चलाई
उसके खाली छर्रे को समेटता रहा देर तक
कि सामने पाश खड़े हो गए
मुझसे कहा कि ये गोलियां मेरी है
मुझे वापस दे दो
ये गोलियां तुम्हें मैंने जेल जाने से पहले दी थी
मैं खाली छर्रे को
मुह से फूँकता रहा
कि वो एक किताब देकर गायब हो गए
कहते-कहते कि
लो संभालो
ये लेनिन की वो किताब है जिसका
आखिरी पन्ना मोड़ के रखा था
भगत सिंह ने फाँसी पर जाने से पहले
और गायब हो गए पाश
पाश......पाश.....मैं चीखता रहा
और सामने पड़ी है अब तुम्हारी लाश
मैं तुम्हारे पैरों पर सर रखकर
रो रहा हूँ
इस कस्बे के तिराहे पर
जहाँ बर्फ की सिल्ली पर
रखी है तुम्हारी लाश, तुम जा चुके हो सीबू
पर अंतिम बार भी
मैं तुम्हें
लोहे की दीवार को हथौड़े से तोड़ते देखना चाह रहा हूँ
सुनो सीबू,!
मुझे कुछ और हथियार चाहिए
और औज़ार चाहिए
और चाहिए गोलियाँ
पर अब तुमसे नहीं पाश से ले लूँगा
कुछ गोलियाँ और
कुछ बारूद और
कुछ आग
पिस्तौल में
किताब में
सब कुछ शब्द में,ध्वनि में
टन....टन.....टन.....टन.....
धाँय.....धाँय........कुछ......
मामी : एक कविता
मंदिर और ननिहाल
में
ननिहाल जाना
पसंद करता हूँ
कि मंदिर का
प्रपंच नहीं
पर यहाँ
वरदान में सिर्फ
प्यार बरसता है,
नानी-नाना के
अलावा मौसियाँ
और ननिहाल को
ननिहाल बनाने में
सबसे बड़ी भूमिका
होतीं हैं-मामी
मामी शब्द
उच्चारण की दृष्टि से भी
सबसे मधुर सम्बोधन
है
मधुरता इतनी की
कह दूँ कि
शहद की पूरी
शीशी होती है-मामी
मा........मी...........
मिश्री की डली,
बताशे की डब्बी
दूध में मिली
चीनी
रसगुल्ले का रस
होती है-मामी
महासागर की तरह
स्त्री जीवन
यंत्रणाओं में
परिवार की गाड़ी खींचती
कभी रोती-कभी
सुबकती
कभी रूठती
जाने क्यों
कभी-कभी पिट जाती मामी ??
और शरीर पर पड़े
काले निशान को साड़ी के पल्लू से
फटी ब्लाउज को
सफाई से काहे
छिपाती थी-मामी
तब जबकि मेरी
उम्र दस साल थी.........
पति का सारा दुख
अपने ऊपर लेकर
इन सबके बीच
जीने के सलीके
और
तमीज़ के पाठ
जबरिया पढ़ती रही-मामी
सुस्वादु पकवान
की गंध
दाल के फोरन की
छौंके की झांस
गरमागरम भात पर
घी होती है-मामी
अचार की खटाई
सूरन की कब-कब
बूटनी मिर्च की
रिब-रिब
रूप की सुंदरता,समूचा-स्वाद,समूची-गंध,समूचा-स्पर्श
स्त्री कलाओं की
सम्पूर्ण सुंदरता
का समूचा कोलाज
भागती हुई
दुनिया में छूटे सम्बन्धों को जोड़ने वाली पुल होती है-मामी
कभी प्यार करती,इतराती,इठलाती,गरजती,बरसती
और अपनी पहचान
के लिए हमेशा तरसती है………..मा......मी.........
चाय बगान की औरत
उसे ये तो मालूम है
उसके नाज़ुक हाथों से तोड़ी गयी पत्तियों से
जागता है पूरा देश
तब जबकि हरियाली से भरपूर
असम के किसी भी चाय बगान में
आलस्य अपने उफ़ान पे होता है
और आलसी हवा से मुठभेड़ कर
झुंड-की-झुंड असमिया औरतें
निकल जाती है अलसुबह
पहले पहुंचना चाहती है
बंगालिन,बिहारिन और बंगलादेशी औरतों के
कि असम के हर काम-काज में
बाहरी लोगों ने आकार कब्ज़ा जमा लिया है
‘मोय `की खाबो...?’
भूख से ज्यादा चिंता उसे भतार के देशी दारू, माछ-भात की है
जिसके नहीं होने पर गालियाँ और लात-घूसे
उसे इनाम में मिलेंगे
पर वो कहती है-
‘’मुर लोरा सुआलिहोत स्कूलोलोय जाबो लागे’’1
पर कमाकर लाती है वो और
घर और मरद साला तो बैठ कर खाता है,
अनवरत पत्तियाँ तोड़ती रहती है वो चाय की
उसे ये नहीं मालूम कि चाय का पैकेट बनकर
कैसे टाटा-बिरला के और देशी-विदेशियों के
लगते हैं मुहर
उसे कितना प्यार मिला है
ये तो कोई नहीं बता सकता
कितनी रातें वो भूख से काटी है
कितनी अंगड़ाइयों में
इसका हिसाब-किताब उसका मरद भी नहीं जानता
चाय बागान ही उसका सब कुछ है
जिसमें पत्तियाँ तोड़ना
उसकी दिनचर्या है
असम की चाय से जागता है देश
जिसकी पत्तियों को तैयार करना
देश के संविधान लिखने जैसा है
तब जबकी चाय को राष्ट्रीय पेय
बनाया जा रहा है
और चाय बागान में उसके तरह की सारी औरतें
अपने सारे दुख बिसराकर
मशगूल अपने कामों में
मधुर कंठ से गा लेतीं है
कोई असमिया प्रेमगीत
जिस प्रेमगीत पर
हमेशा वज्रपात होता है
दिल्ली से
फिर भी गाती है
गाती ही रहती है
पत्तियाँ तोड़ते वक़्त
उसे हरियाली बचाने की पूरी तमीज़ है
उसे रंगाली बीहू आते ही अंग-अंग में थिरकन होती है
उसे मेखला पहन घूमने की बड़ी इच्छा होती है
उसे अपने असम से बहुत प्यार है........................
1. मेरे बच्चे को स्कूल जाना चाहिए
कहीं चले गए हैं पेड़ की डाल से पंछी
उदास हो-होकर
नहीं है बसेरा गिद्ध का ताड़ पर
बिज्जू आम की डाल से
टूट कर गायब हो चुका है
बिज्जू आम की डाल से
मधुमक्खी का छत्ता
और धूल भरे आसमान में
दोनों पाँव थोड़ा उचक गया है-गाँव
ऐसे बे-मौसम कैसे गायी जाए ठुमरी-कजरी
जब गाँव के किस्से-कहानी का
परान ले जाये कोई जमदूत
कि लोकगीत गानेवाली औरतों के सुर,लय,तान
कंठ में छाले पड़ने से नहीं
अपने शरीर के क्षत-विक्षत होने के डर से
गुम हो चुके हैं
अब जब कि
मुखिया जी की मूछ में लगे घी से
और बाबूसाहेब के स्कार्पियो के टायर से
नापी जा रही है औकात गाँव की
सरपंच के घूसखोर, मुंहदेखुवा फैसले पर
टिका है गाँव का न्याय
तो क्या पंडित जी के ठोप-त्रिपुंड से
चीन्हा जाय गाँव का सूदखोर संस्कार
ऐसे समय में
जब हममें कोई संवाद लेने-देने का ढब नहीं बचा
तो मोबाइल पर अनवरत झूठ बोलकर
ले लेते हैं जायजा गाँव का
वही गाँव
जहां छल-छद्म-पाखंड और भेदभाव के बीच भी
पड़ोसी सिर्फ़ लड़ते ही नहीं थे
पड़ोसी के घर और अपने घर में अंतर
सिर्फ़ लोगों के चेहरे से था
पड़ोसी के घर के बननेवाले पकवान की गंध से ही
बरमब्रूहि-कह उठता था पेट
अपने थाली में जिस समय
सब्जी के बदले रोटी पर सिर्फ़ एक टुकड़ा अंचार था
पड़ोसी दादी दे जाती थी गरमागरम माँछ-भात
अब तो पड़ोस में सड़ रही
लाश की गंध तक हमें नहीं आती
पड़ोसी की उदासी तो हमारे लिए आनन्द हैं
सिर्फ़ पड़ोस ही नहीं/समूचा गाँव उदास है
गाँव की उदासी का गीत
कोई कलाकार नहीं
पाकड़,नीम,बरगद और पीपल गाते हैं
या गाते हैं वो सूखे तालाब
जिसके आस-पास नहीं मँडराते हैं-गिद्ध
या वो कुआँ जिसमें अब कछुवा नहीं तैरता
महीनों से सड़ रहा
आवारा कुत्ता गंधा रहा है
दुल्हिन नहीं गाती मंगलचार
अपने खून और किडनी बेचकर
सियाराम भरतार परदेस से
पैसे भेजते हैं गाँव
जो गाँव बच्चे-बूढ़े और विधवाओं की
रखवारी में है,जहाँ
हर मजूरिन उदास है खेत में;कि
धान की सीस में
बहुत कम है धान
खलिहान का जो हो
भूसखाड़ में सिर्फ़ भूसा बचेगा
उदास समय में
सिर्फ़ गाँव में उदासी है,कि
पेड़ उदास है
या मधुमक्खी का छत्ता उदास है
लोककथाओं में उदासी है
या रो-रोकर मिट गया है लोकगीत
खलिहान में उदासी है
कि समूचा खेत उदास है
बिन पानी नहर उदास है
हार्वेस्टर-ट्रेक्टर उदास है
कि थ्रेसर की धुकधुकी उदासी का गीत गा रही है
और आटाचक्की ऐसे ही बकबका रही है
उदासी माँ की बूढ़ी आँखों में
छायी हुई दुख भरी नमी है
या आंसू की बूंद
या कच्चे जलावन से चूल्हे जलाने के बाद
आँख में लगे धूएँ का असर
इन सबका
हिसाब-किताब
मैं एक कविता लिखकर
कैसे लगा सकता हूँ....................??????
सम्पर्क
कविताएँ अच्छी लगीं | गाँव की उदासी का गीत ,चाय बगान की औरत ,मामी :एक कविता की चिंताएं लोक मन की चिंताएं हैं | लौह गीत इस सम्यक पीड़ा से दो - दो हाथ करने की तैयारी |अरुणाभ को बघाई !
जवाब देंहटाएंसीधी और संवाद करती शानदार कविताएं... दूसरी और तीसरी कविता खासतौर पर पसंद आई... बधाई के साथ शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंअरुणाभ भाई को शानदार कविताओं के लिए बहुत बहुत बधाई ! अरुणाभ हिन्दी कविता में अपनी अलग पहचान बनाने में सफल रचनाकर हैं । उनकी कवितायें अपने लोक की धार लिए हुये हैं । वह मूलतः लोकवादी कवि हैं । बड़े भाई संतोष जी को भी महत्वपूर्ण कवितायें प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद !
जवाब देंहटाएं