अमीर चन्द वैश्य का आलेख 'सूखे में बादल और वर्षा के बिम्ब'
कवि त्रिलोचन |
प्रकृति में मानव के बढ़ते हस्तक्षेप के दुष्परिणाम अब स्पष्ट तौर पर दिखायी पड़ने लगे हैं। बारिश जब होनी चाहिए तब नहीं होती। होती भी है तो बस नाम की। किसान आसमान निहारते रह जाते हैं। जब हम उम्मीद नहीं करते तब लगातार बारिश होती है। बादल भी जैसे हमसे आँख मिचौली करते हैं। इसी बादल और बारिश को ले कर कवियों ने एक से बढ़ कर एक कविताएँ लिखी हैं। अमीर चंद वैश्य ने इसे ले कर एक महत्वपूर्ण आलेख लिखा है - 'सूखे में बादल और वर्षा के बिम्ब।' आइए पढ़ते हैं यह आलेख।
सूखे में बादल और वर्षा के बिम्ब
अमीर चन्द वैश्य
25 अगस्त,
20014, आज भादो मास की सोमवती
अमावस है। कछला में गंगा के तट पर अपार जन-समुद्र उमड़ेगा। चिलचिलाती हुई धूप में।
जेठ की धूप को परास्त करती हुई भादों की धूप। यह कैसा विपर्यय है। अभी-अभी देखा है
तारों- भरा आसमान। आँखों को चुभ रहा था।ऐसा आकाश तो शरद् ऋतु की अनुपम शोभा होता
है। प्रेमचन्द ने मनुष्य के सौन्दर्य-बोध को उपयोगिता की कसौटी पर कसा था। चैत के
बादल सुहावने नहीं लगते हैं। ऐसे बादलों की गड़गड़ाहट किसान की बेचैनी बढ़ा देती
है। उसे अपनी पकी सोनिल फसल की चिन्ता सताने लगती है। लेकिन सावन-भादों में तो
काले-कजरारे और घुमड़ते हुए बादल ही आँखों को ठंडक पहुंचाते हैं। कालिदास ने
मेघदूत में कहा है- हे मेघ, खेती का फल तुम्हारे अधीन है, इस उमंग से ग्राम -वधूटियां भौंहें चलाने में
भोले, पर प्रेम से गीले अपने नेत्रों में तुम्हें भर
लेंगीं। मालक्षेत्र के ऊपर इस प्रकार उमड़-घुमड़ कर बरसना कि हल से तत्काल खुरची
हुई भूमि गंधवती हो उठे। फिर कुछ देर बाद चटक गति से पुनः उत्तर की ओर चल पड़ना।
सावन-भादों के
बादल किसानों के प्राण हैं। लेकिन इस बार सावन तो किसी कंजूस की तरह थोड़ा सा पानी
बरसा कर विदा हो गया। लेकिन भादों आज तक नहीं बरसा है। किसान टकटकी लगाए आसमान की
ओर देख रहा है। उसकी फसल सूख रही है। धान पानी के बिना मर गया है। घोषणा की गई थी
कि अच्छे दिन आने वाले है। क्या अच्छे दिन ऐसे ही होते हैं। भाई जी, एक बार अपनी खोखली वाणी से देवराज इन्द्र को
ललकारिए तो। आपसे डर कर पानी अवश्य बरसाएगा। भाई जी, कोताही क्यों कर रहे हैं। वचने का दरिद्रता। अभद्र भाद्रपद
ने आँखों को तरसा दिया है। बिना पानी के कण-कण व्याकुल है। जन-जन बेचैन है। अरे
निष्ठुर बादलो, कहां छाए हुए हो।
सभी के चातक प्राण तरस रहे हैं। कब आओगे हमारे जनपद में। हम तो तुम्हारे रास्ते
में पलके बिछाए बैठे हैं।
बहुत कष्ट है।
गर्मी से मन बेचैन रहता है। धूप में जाने की इच्छा नहीं होती। क्या किया जाए। मुझे
महाकवि निराला याद आ रहे हैं। उन्हें बादलों का कवि कहा जाता है। आधुनिक कवियों
में बादलों पर उन्होंने अनेक कविताएं रची हैं। गीत सिरजे हैं। एक गीत में वे कहते
हैं-
‘‘पथ पर मेरा जीवन भर दो
बादल
हे अनन्त अम्बर के
बरस
सलिल
गति
उर्मिल कर दो।‘‘
आकाश में बादल तो
हैं ही नहीं बरसेगा कौन। अरे, यह क्या। बाबा नागार्जुन याद आ रहे हैं। उन्होंने भीषण
ग्रीष्म के बाद के बाद बरसने वाली पहली बारिश का गतिशील शव्द-चित्र अंकित किया है-
‘‘और आज
ऊपर-ऊपर
ही तन गये हैं
तुम्हारे
तम्बू
और
आज
छमका
रही है
पावस
रानी
बूँदों-बूँदों
बून्दियों की अपनी पायल
और
आज चालू हो गई है
झींगुरों
की शहनाई अविराम
और
आज जोरों से कूक पड़े
नाचते-थिरकते
मोर
और
आज
आ
गई वापस जान
दूब
की झुलसी शिराओं के अन्दर
और
आज
विदा
हुआ चुपचाप ग्रीष्म
समेटकर
अपने लाव-लश्कर।‘‘
लेकिन हाय, इस साल तो भीषण ग्रीष्म भादों में पुनः लौट आया
है। अपने लाव-लश्कर के साथं। अब क्या किया जाए। बादलों को धमकाया जाए? भाजपाइयों की तरह, जो आजकल 'लव जेहाद' का प्रखर विरोध कर रहे हैं। धमकियां दे
रहे हैं। लेकिन बादलों पर उनकी धमकी का कोई असर नहीं होगा। और वे बादलों को क्यों
धमकाएंगे। इस सूखे के मौसम में उनकी तो चांदी ही चांदी है। पांचों उंगलियाँ घी में
हैं। सिर कड़ाही में। आप पूछ रहे हैं क्यों? तो सुनो सूखे से मंहगाई बढ़ेगी।
खाद्यान्न की कृत्रिम कमी होगी। भाजपाई व्यापारी मनमाने भाव पर माल बेचेंगे। ग्राहकों
की गांठ काटेंगे। अपना घर भरेंगे। जमाखोरी करेंगे। लेकिन सरकार जनता से कहेगी कि
सूखे से निबटने के लिए सभी प्रबंध कर लिए हैं। इस घोषणा से अधिकारी और कर्मचारी
खुश हो जाऐंगे। वें सूखा राहत का इंतजार करेंगे। और उसमें से आधा भाग अपने पेट में
भरेंगे।
भादों में वर्षा
न होने से हम वे सब गीत और कविताएं भूलते जा रहे हैं जिनमें बादलों के अनेक रूप
हैं। रिमझिम की ध्वनियां हैं। आजकल वर्षाकालीन ऐसे दृश्य नहीं दिखाई पड़ रहे हैं-
घेरइं हेरइं गरजइं बरसइं जाइं,
बदर भुइं कर ताप
ताकि अफनाइं।
गम्हिरानेन बादर भुइं
ले नियराइ,
ऊपर घटा हरिअरी
तरे लहराइ।
बहइ बतास, मेघ झूमइ बंसवारि,
जइसे परछन करइ
उआरि उआरि। (अमोला, पृष्ठ-11)
त्रिलोचन जी, अमोला के
उपुर्युक्त गतिशील वर्षा बिम्ब आजकल दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं। आप ही समझाओ कि
धरती की प्यास कैसे बुझेगी। आप शायद यह कहेंगे-
‘‘आए न बहुत दिन
बादल
बरसा न बहुत दिन
पानी
मिलकर वे दोनों
प्रानी
दे रहे खेत में
पानी।‘‘
लेकिन आजकल तो
धरती का जलस्तर निरंतर कम होता जा रहा है। भू-जल से धरती का पेट नहीं भरा जा सकता।
बिन पानी सब कुछ सूना-सूना हो गया है। लोक संत्रस्त है। तंत्र मस्त है। अच्छे दिन
किसानों के लिए तो नहीं आए हैं। आए हैं तो केवल भाजपाइयों के लिए।
मालूम नहीं कि आज
के वरिष्ठ-कनिष्ठ एवं युवा कवियों में कितने ऐसे हैं, जो ऋण के बोझ से दबे किसान की दुर्दशा का वर्णन कर रहे हैं।
बाढ़ और सूखे की दुधारी मार से घायल किसान को कौन कवि अपना नायक बना रहा है। एक
मात्र वरिष्ठ कवि विेजेन्द्र ऐसा कर रहे हैं। उनकी कविता का लोकनायक किसान है। चर्चित
कविता इस प्रकार है-
‘‘अन्न ही में है
बल, वीर्य
सूर्य के ताप का
हवा के वेग का
जल की लहर का
कृषक के प्राण क
अन्न ही ईश्वर है
कण-प्रतिकण में
बसी है गति
जो उगाता है खेत को कमाकर
वही है नायक लोक का।‘‘ (बनते मिटते पांव रेत में, पृष्ठ-16)
इस लयात्मक लघु
कविता में छह वाक्य हैं। कवि ने निपुणता से पृथ्वी-जल-अग्नि-वायू-आकाश का समावेश
किया है। इन पंच तत्वों के बिना न तो हमारा जीवन सम्भव है, न ही दैनिक जीवन के कामकाज। एक तत्व की कमी से ही जीवन का
संतुलन बिगड़ जाता है। इसीलिए रहीम ने कहा है-
रहिमन पानी राखिए
बिन पानी सब सून।
लेकिन आज की युवा
कविता में इन पंच तत्वों के गतिशील चित्र लगभग नहीं हैं। लेकिन विजेन्द्र की कविता
में हैं। उन्होंने क्रियाशील किसान को उसके प्राकृतिक परिवेश के मध्य उपस्थित करके
उसके क्रियाशील रूप का वर्णन किया है। उनका किसान सूखे की मार से निराश तो होता है
लेकिन हताश नही। वह बार-बार खेत कमाता है। फसल उगाता है। विजेन्द्र ने जनपद का वृक्ष
कविता में किसान का आत्मविश्वास वृक्ष के द्वारा व्यक्त करवाया है। जनपद का वृक्ष
कहता है-
‘‘नहीं सुखा पाओगे मुझको
ओ
सप्त अश्वधारी भगवान भास्कर
$$$ जब चाहो
तब
आना जनपद मेरे
अगले
बसन्त में
तुमको
दूंगा पत्ते अपने
तन
ढकने को
भरी
बालियां फसलों की
मीठा
रस गन्ने का
हरी
मटर की फलियां।‘‘
जीवन के प्रति
ऐसी आस्था और आशा किसान और कवि को निष्क्रिय नहीं करती है। दोनों सतत् परिश्रम
करते रहते हैं। वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने 'अकाल में सारस' की चर्चा की है। काल
में दूब की भी। लेकिन अकाल की मार से पीडि़त किसान के दुख-दर्द का चित्र अंकित
नहीं किया है। इसका क्या कारण है। ऐसा अभास होता है कि किसान के प्रति उनकी वैसी
गहरी संवेदना नहीं है जैसी विजेन्द्र की कविता में लक्षित होती है। जागरूक कवि
विजेन्द्र ने उनकी इस संवेदनक्षीणता का प्रमाण उनकी एक कविता में देखा है। शीर्षक
है 'फसल' जो वागर्थ के नवंवर 2008 के अंक में छपी
थी। इस कविता में डॉ0 सिंह कहते हैं
‘‘मैं उसे वर्षों से पहचानता हूं
अब इस पर विजेन्द्र की टिप्पणी पढि़ए- ‘‘ यहां अभावग्रस्त किसान की दैनिक पीड़ाएं न बता कर गुरूत्वाकर्षण शव्द से सिर्फ चमत्कार पैदा किया गया है। लाखों किसानों ने आत्महत्याएं कीं। क्योंकि वे गुरूत्वाकर्षण के बोझ से दबे हुए थे। यदि कोई किसान इस कविता को पढ़ेगा तो कवि पर थूकेगा और कविता पर भी। अपने खेत में रात-दिन वो अपना खून पसीना बहाकर जो श्रम करता है उसका मार्मिक चित्र चमत्कार से ढक दिया गया है। यही है कुत्सित सौन्दर्यशास्त्र जो, हमें जीवन की कठिन स्थितियों से परिचित नहीं होने देता।‘‘ (विजेन्द्र जी की फेस बुक वाल से) लेकिन डा0 हरीश निगम ने अपने गीत में किसान के दर्द का चित्र इस प्रकार प्रस्तुत किया है-
‘‘मैं उसे वर्षों से पहचानता हूं
एक अधेडं
किसान
थोड़ा झुका
किसी बोझ से नहीं
सिर्फ धरती के गुरूत्वाकर्षण से
जिसे वो
इतना प्यार करता है।‘‘
अब इस पर विजेन्द्र की टिप्पणी पढि़ए- ‘‘ यहां अभावग्रस्त किसान की दैनिक पीड़ाएं न बता कर गुरूत्वाकर्षण शव्द से सिर्फ चमत्कार पैदा किया गया है। लाखों किसानों ने आत्महत्याएं कीं। क्योंकि वे गुरूत्वाकर्षण के बोझ से दबे हुए थे। यदि कोई किसान इस कविता को पढ़ेगा तो कवि पर थूकेगा और कविता पर भी। अपने खेत में रात-दिन वो अपना खून पसीना बहाकर जो श्रम करता है उसका मार्मिक चित्र चमत्कार से ढक दिया गया है। यही है कुत्सित सौन्दर्यशास्त्र जो, हमें जीवन की कठिन स्थितियों से परिचित नहीं होने देता।‘‘ (विजेन्द्र जी की फेस बुक वाल से) लेकिन डा0 हरीश निगम ने अपने गीत में किसान के दर्द का चित्र इस प्रकार प्रस्तुत किया है-
‘‘घाटों पर कर लेना गौर
नदिया री
चढ़ना न और।
सूखे ने
फेर
दिया पानी
पहले ही
डूब गए
खेत-वेत धानी
हाथों से छिनते हैं कौर।
चिथड़े दिन
ओढ़ते-बिछाते
कमर झुकी
घुन खाए धूप -छांव नाते
ढूंढेंगे
और कहां ठौर।‘‘
(दैनिक जागरण, 25 अगस्त 2014)
इस गीत में बाढ़
और सूखे दोनों की मार की ओर संकेत किया गया है। ऐसे भीषण और त्रासद सूखे ने वर्षाकालीन अनेक दृश्यो-परिदृश्यों-उल्लासों-मुसकानों-क्रियाओं-परेशानियों को आंख-ओट
कर दिया है। जायसी ने अपने बारहमासा में कहा है-
तपन मृगशिरा जे सहैं थे अद्रा
पलुहन्त।
लेकिन एसा दृश्य
आजकल नहीं दिखाई पड़ रहा है। सब कुछ सूख रहा है। इस बार बादल का उल्लास से भरा रूप
नहीं देखा गया-
‘‘बादल अभिनव बरस
रहा है
बीजा भीतर तड़क रहा है
भीज गए सब
पेड़ रूख
घर अंगनारे
कुछ बैठे
हैं
बौछारों में
कुछ फिरते हैं
मारे-मारे
इतनी नदियां
इतने निर्झर
इतने बाँगर
पांव
पसारे
जो लगते थे
भीषण योद्धा
लगते हैं
अब हारे-हारे
चलती हवा झकोरा लेती
डर
भारी है
बिछे न खेती
गिरते देखे
आंसू खारे
बस छिपा लिया है
दुख को हमने
हिला
लिया है
हमने उसको
फिर भी
नेहा, तुमने देखा
पाग
लिये जस सक्करपारे।‘‘ (बनते-मिटते पांव
रेत मे, पृष्ठ-7, 8)
विजेन्द्र की यह
बादल कविता आदि से अन्त तक लयात्मक है। इसमें किसान की ओर से कवि स्वयं बोल रहा
है। उत्तम पुरूष के रूप में। लोकधर्मी होने के नाते कवि ने भाषा का रचाव लोक की
शव्दावली से किया है। इसके भाषिक रचाव में लोच है। वर्ण-संगीत है। हर्ष-उल्लास है।
खेती की चिंता है। प्रसन्नता का भाव है। वर्षा जल के वेग की प्रबलता है। बीज का
बीजा रूप और आंगन का अंगनारे रूप कवि की भाषा के लोच के सबूत हैं। गीत न होते
हुए भी संपूर्ण कविता लोकगीत के निकट है। प्रसाद गुण इसका प्राणतत्व है।
ऐसी लयात्मक
कविताएं न तो केदारनाथ सिंह ने रची हैं। न विनोद कुमार शुक्ल ने। न राजेश जोशी और
अरूण कमल ने। न उदय प्रकाश और मंगलेश डबराल ने। न वीरेन्द्र डंगवाल ने। इन कवियों
ने न तो निराला के मुक्त छन्द से कुछ सीखा। न ही शमशेर और मुक्तिबोध के शिल्प
विधान से। न काव्य-मर्मज्ञ त्रिलोचन शास्त्री से। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि
मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता 'अॅंधेरे में' का संपूर्ण रचना-विधान कवित्त छन्द की
लय पर आधारित है। अपने मुक्त रूप में। उनकी 'ब्रह्मराक्षस' कविता का आधार है तुलसी
का प्रिय छन्द हरिगीतिका। मुक्तिबोध ने इसे मुक्त छन्द के रूप ढाला है। त्रिलोचन
की प्रसिद्ध कविता 'चम्पा काले अच्छर नहीं चीन्हती' रोला छन्द में रची गई है। मुक्त
रूप में। वस्तुतः समकालीन कविता में लय का तिरस्कार कविता के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है। उसके पाठक कम हो रहे हैं। यदि गद्य रूप में कविता रचनी है तो शमशेर की
उत्कृष्ट कविता अम्न का राग बार-बार पढ़नी चाहिए। सुननी चाहिए। और गुननी चाहिए।
लेकिन यह ध्यान रखना अनिवार्य है कि बड़े कवियों की नकल नहीं की जा सकती।
निराला |
ऊपर लोकगीत की
चर्चा हुई है। मुझे लोकगीत की भाव-भूमि पर रचा हुआ महाकवि निराला का वर्षा गीत याद
आ रहा है। अलि, घिर आए घन पावस
के। यह उत्तम गीत है, जिसमें निराला ने
वियोगिनी की वेदना यथार्थ के धरातल पर वर्णित की है। पावस के संपूर्ण वैभव का
चित्रांकन करते हुए। इस गीत का ध्वनि-सौन्दर्य पाठक अथवा श्रोता को अनायास अपनी
ओर खींच लेता है। खेद की बात तो यह है कि ऐसा उत्कृष्ट गीत न तो किसी गायक ने गाया
है। और न किसी नामवर आलोचक ने इसकी आस्वादपरक व्याख्या की है। निराला काव्य के
मर्मज्ञ आलोचक डॉ0 रामविलास शर्मा
ने इस गीत की प्रशंसा तो की है, लेकिन व्याख्या
नही। आपकी उत्सुकता बढ़ रही होगी। अतः संपूर्ण गीत आपके पाठ के लिए प्रस्तुत है और
उसकी आस्वादपरक व्याख्या भी।
अलि, घिर आये घन पावस के।
लख ये काले-काले
बादल, नील सिन्धु में खुले कमल-दल
हरित ज्योति, चपला अति
चंचल, सौरभ के रस के
अलि, घिर आये घन पावस के।
द्रुत समीर-कंपित
थर थर थर, झरतीं धाराएं झर
झर झर
जगती के प्राणों में स्मर-शर वेध गए, कसके
अलि, घिर आये घन पावस के।
हरियाली ने, अलि, हर ली श्री, अखिल विश्व के नव यौवन की
मन्द- गन्ध
कुसुमों में लिख दी, लिपि जय की
हंस के
अलि, घिर आये घन पावस के।
छोड़ गये
गृह जब से प्रियतम, बीते अपलक दृश्य मनोरम
क्या मैं
हूं ऐसी ही अक्षम, क्यों न
रहे बस के
अलि, घिर आये घन पावस के।
यह गीत 4 मई 1929 में प्रकाशित हुआ। मतवाला, साप्ताहिक, कलकत्ता में।
परिमल में संकलित है। निराला रचनावली के पहले खण्ड पृष्ठ-186-87 पर पढ़ा जा सकता है।
ऐसा संगीतमय
उत्कृष्ट गीत अन्य किसी छायावादी कवि ने नहीं रचा। न ही किसी छायावादोत्तर कवि ने।
और न ही किसी साठोत्तरी कवि ने। यह गीत लोकधर्मी कविता के निकट है। इसमें उस
ग्रामीण वियोगिनी की वेदना व्यक्त है जिसका, पति परदेस चला गया है। लौट कर घर नहीं आया है। एक ग्रामीण
महिला कहती है कि जो तुम आम का पौधा रोप कर गए थे, वह अब पेड़ बन गया है। लेकिन तुम अभी तक नहीं लौटे हो। यह
बात ग्रामीण महिला कहती नहीं है। अवधि की अभिव्यक्ति आम का पेड़ कर रहा है।
इस गीत में चार
बन्ध हैं। प्रारम्भिक पंक्ति है- अलि, घिर आये घन पावस के। यह टेक वाली पंक्ति हर बन्ध के बाद दुहराई जाती है। भाव
को सघनता प्रदान करने के लिए। वियोग की बात किसी अंतरंग व्यक्ति से ही कही जाती
है। सभी से नहीं। यहां वियोगिनी की अंतरंग है उसकी सखी। सूर और मीरा के पदों में
सखी को संवोधित अनेक पद हैं। जैसे-सखी, इन नैनन ते घन हारे। प्रारम्भिक पंक्ति यह भाव व्यक्त कर रही है कि पावस की
ऋतु फिर आ गई है लेकिन प्रियतम परदेस से आज तक नहीं आए। वर्षा प्रेमियों के आकर्षण
की ऋतु है। कालिदास ने 'ऋतुसंहार' और 'मेघदूत' में यही भाव व्यक्त किया है। घन आए
घनश्याम न आए में भी यही भाव है। घन घमंड गरजत नभ घेरा/प्रियाहीन दरपत मन मोरा।
वियोगी राम के इस कथन में भी उपरोक्त भाव है।
गीत के पहले बन्ध
में वर्षा ऋतु के काले-काले बादलों के विराट बिम्ब की रचना की गई है। ऐसे बादल
देखकर लगता है कि नील वर्णी समुद्र में असंख्य कमलों के दल अर्थात पंखुरियां खुल
गईं हैं। यह कल्पना बहुत सार्थक है और बादलों का विराट् रूप प्रस्तुत कर रही है।
वर्षा जल के कारण चारों ओर हरियाली ही हरियाली छा गई है। अर्थात् हरित ज्योति
चतुर्दिक चमक रही है। आकाश में काले बादल हैं और उनमें रह-रह कर अत्यन्त चचंल चपला
चमक रही है। बादलों को देख कर ऐसा लगता है कि वे जल से भरे हुए है और सुगन्ध से
परिपूर्ण हैं। तात्पर्य यह है कि हवा के झकोरों के साथ पानी की बौछारें गिर रही
हैं। उनमें धरती की सुगन्ध घुलमिल गई है। साथ ही साथ अनेक फूलों की गन्ध भी।
इस बन्ध की भाषिक
संरचना लगभग समास-रहित है। केवल दो लघु समास हैं। काले-काले और कमल-दल। भाषिक
संरचना में तद्भव और तत्सम पदों का सुन्दर मेल है। अर्थ-वोध की दृष्टि से प्रसाद
गुण है। भ, क, ल, ग, घ, र, त, च, स - व्यंजन वर्णों
की आवृत्ति से कोमलकान्त पदावली का संयोजन किया गया है।
दूसरे बन्ध में
महाकवि निराला ने अपने स्वभाव के अनुसार ध्वनि -सौन्दर्य की सृष्टि की है। वर्षा
हो रही है। तेज समीर से सभी वनस्पतियां और पेड़-पौधे थर थर थर कांप रहे हैं।
अर्थात् पवन इतना तीव्र गतिवाला है कि पेड़-पौधे, घास के मैदान आदि सभी आंदोलित हो रहे हैं। और जल-धाराएं
झर झर झर करके निरंतर झड़ रही हैं। अर्थात् वर्षा की झड़ी लगी हुई है। ऐसे सुखद
वातावरण में संसार के सभी प्राणियों के प्राण कामदेव के वाणों से कसकर बिंध गए
हैं। अर्थात् प्रेमी जनों और अन्य प्राणियों में मिलन की उत्कंठा जाग उठी है।
कालिदास ने 'मेघदूत' के पहले भाग पूर्व मेघ के श्लोक में यही भाव व्यक्त किया है।
यक्ष बादलों से कहता है कि मेघ को देख कर प्रिया के पास सुखी जन का चित्त भी और तरह
का हो जाता है। कंठालिंगन के लिए भटकते हुए विरही जन का तो कहना ही क्या?
कवि विजेन्द्र |
जितना वास्तविक
कथन कालिदास का है, उतना ही वास्तविक
भाव निराला का है। उन्होंने कालिदास की नकल नहीं की है। लेकिन प्रेमी जनों की
प्रबल उत्कंठा का संकेत अवश्य किया है। थर थर थर और झर झर झर की आवृत्ति से
वर्षाकालीन दृश्यों और ध्वनियों को प्रत्यक्ष और कर्णगोचर कर दिया है। इस बन्ध में
भी दो समास हैं और शेष वाक्य समास रहित। भाषा का रचाव अंतर्वस्तु के अनुरूप है
अर्थात् वस्तु और रूप दोनों में चारूता की कान्त मैत्री है।
तीसरे बन्ध में
वियोगिनी अपनी सखी को संबोधित करती हुई कहती है- देखो, चारो ओर कितनी मनोहर हरियाली छाई हुई है। उसने अपनी सुन्दरता
से संपूर्ण विश्व के नवीन यौवन की श्री एवं शोभा का हरण कर लिया है। अर्थात्
हरियाली के सामने सुन्दर नव यौवन भी कम सुन्दर लगता है। मुझे तो ऐसा लगता है कि
सौन्दर्य की प्रतियोगिता में हरियाली ने अपनी अभूतपूर्व शोभा से संपूर्ण विश्व पर
विजय प्राप्त कर ली है। और अपनी विजय की बात हंसकर मन्द गन्ध से युक्त कुसुमों की
पंखुरियों पर लिख दी है। कहने का आशय यह है कि वर्षा काल में मन्द मन्द गन्ध से
युक्त फूल वर्षा जल की बूंदों से झिलमिलाते रहते हैं। ऐसे फूल देख कर आभास होता है
कि मानो हरियाली ने अपनी विजय की लिपि जल-विन्दुओं के रूप में अंकित कर दी है।
इस बन्ध में
निराला जी ने हरियाली को मानवीकरण रूप में प्रस्तुत किया है। कल्पना के संस्पर्श
से उसकी अभूतपूर्व शोभा की व्यंजना की है। इस बन्ध में भी मात्र एक सामासिक पद है।
मन्द-गन्ध शेष वाक्य समासरहित हैं। ग, र, क, व, द, ध, स, म, क, ल -व्यंजनों की
आवृति से कोमलकान्त पदावली सिरजी गई है।
चैथे बन्ध में
वियोगिनी की वेदना-अभिव्यक्ति है। यह संपूर्ण गीत को भावोत्कर्ष से युक्त कर रही
है। अपनी चिरकालिक वेदना की बात कहती हुई वियोगिनी कहती है- हे सखी, जब से मेरे प्रियतम घर छोड़ कर गए हैं, तब से लौट कर नहीं आए हैं। उनकी अनुपस्थित में
मैंने सभी ऋतुओं के मनोरम दृश्य अपलक देखते हुए अपने दिन बिताए हैं। मैंने दृश्यों
के साथ साथ अपने प्रियतम की बाट भी अपलक भाव से हमेशा देखी है। लेकिन सफलता कभी
नहीं मिली। निराशा ही हाथ लगी है। सोचती हूं कि क्या मैं ही इतनी अक्षम हूं जो
अपने प्रियतम को प्रेम की डोर से नहीं बांध सकी। मेरे मन में बार-बार यह सवाल
उठता है कि मेरे प्रियतम मेरे बस में क्यों नहीं रहे। क्या मुझमें ही कुछ कमी है।
क्या मैं असुन्दर हूं। लगता तो ऐसा ही है। यदि ऐसा न होता तो मेरे प्रियतम लौट कर
अवश्य आते। क्योंकि वर्षा ऋतु में सभी प्रवासी अपने-अपने घर पहुंचने का प्रयास
करते हैं। कुशल-क्षेम के लिए।
वर्षा ऋतु में गरीवों के छप्पर या कच्चे मकान टपकते जरूर हैं। तो ऐसे मौसम में मैं
अकेली घर की देखभाल कैसे कर सकती हूं। यही बात जायसी की नागमती भी कहती है कि
पुष्य नक्षत्र सिर पर आ गया। मैं घर में बिना पति के हूं। मेरा मंदिर कौन
छाएगा। वियोगिनी को यह भी लगता है कि उसका प्रवासी पति अब किसी और का हो गया है।
किसी अन्या ने उसे अपने बस में कर लिया है। तभी तो उसे मेरी याद नहीं आती है।
प्रसंगवश यहां उल्लेखनीय है कि प्रवासी जनों की पत्नियां प्रायः अशिक्षित होती
थीं। वे किसी शिक्षित से अपने प्रियतम के नाम पाती लिखवाती थीं। जिस युवती का पति
परदेस चला जाता है, उसकी दशा दयनीय
हो जाती है। ससुराल वाले भी उसका तिरस्कार करने लगते हैं।\
इस प्रकार यह
वियोग प्रधान गीत लोक-जीवन से अनायास जुड़ जाता है। इस गीत में प्रकृति के दोनों
रूप हैं। आलम्बन रूप और उद्दीपन रूप। आज के संदर्भ में देखें तो इस गीत की एक और
व्यंजना भी है। आजकल अनेक युवक ऐसे हैं जो अपनी व्याहता पत्नी को घर छोड़कर दिल्ली
की ओर दौड़ पड़ते हैं। सुख-सुविधाओं की तलाश में। पढ़ने-लिखने के बाद नौकरी भी पा
जाते हैं। संयोग से किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हो जाते हैं और किसी आधुनिक
एवं सुशिक्षित युवती से व्याह रचाकर दिल्ली के हो कर ही रह जाते हैं। जायसी ने ठीक
ही लिखा है कि दिल्ली ऐसा देश है, जो वहां जाता है,
वहीं का होकर रह जाता है। अपने देश लौट कर नहीं
जाता। और उधर उसकी जन्म-भूमि अर्थात गांव में रहने वाली उसकी परित्यक्ता पहली
पत्नी उसका रास्ता ही देखती रहती है। यह बड़ी विकट समस्या है। आज का शिक्षित मध्य
वर्ग इस समस्या से ग्रस्त है। इस प्रकार यह गीत हमारी समकालीन सामाजिक गतिकी से
अनायास जुड़ जाता है। और हमारी सामाजिक विसंगति की ओर संकेत करता है। यह भी बताता
है कि नारी आज भी पराधीन है। इक्कीसवीं सदी के प्रथम चरण में।
इस बन्ध में कोई
सामासिक पद नहीं है। छोड़ना क्रिया का बहुत ही सार्थक प्रयोग किया गया है।
त्रिलोचन शास्त्री कहा करते थे कि छोड़ना सबसे अधिक खतरनाक क्रिया है। इसका प्रयोग
सोच समझ कर करना चाहिए। रिश्तेदार छोड़े नहीं जाते हैं। विदा किए जाते हैं। सांप
छोड़े जाते हैं। सांड़ छोड़े जाते हैं। निष्ठुर पति अपनी पत्नी छोड़ देता है।
प्रेमी प्रेमिका को छोड़ देता है। ऐसा आचरण समाज के लिए अमंगलकारी है। हां,
शराब छोड़ना ठीक है। चोरी छोड़ना ठीक है।
अंत में इतना ही
कहना पर्याप्त है कि अर्थ-गौरव से पूर्ण यह गीत निराला की श्रेष्ठ रचना है।
संगीतकारों और गायकों को इसे संगीतबद्व करके शास्त्रीय ढंग से गाना चाहिए। यह
निराला के प्रति सबसे बड़ी श्रद्धा होगी। जब वांग्ला भाषा में रवीन्द्र संगीत है
तब हिन्दी में भी निराला संगीत होना चाहिए। इस अभाव का कारण यह है कि बंगालियों के
समान हिन्दी भाषी लोगों में अपने बड़े कवियों के प्रति श्रद्धा और समादर की भावना
नहीं है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं हिन्दी जाति के साहित्य के प्रति उनका लगाव
बहुत कम है। हिन्दी भाषी लोग केवल कवियों और नेताओं की प्रतिमा स्थापित करना जानते
हैं। उन्हें न तो ठीक ढ़ंग से पढ़ते हैं। न समझते हैं। न गुनते हैं। इस सदी में तो
उल्टी गंगा बह रही है। बीसवीं सदी में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द, प्रसाद, निराला, पन्त सभी हिन्दी और उसके साहित्य को अग्रसर करने में लगे थे। लेकिन आजकल भारत
अमरीकी साम्रराज्यवाद के दबाव के कारण अपनी जड़ों से कट रहा है। भारतीय भाषाओं का
तिरस्कार किया जा रहा है। अंग्रेजी का बोलबाला सर्वत्र है। इसलिए आज की नई पौध
अपनी भाषा और संस्कृति से निरंतर दूर हो रही है। धीरे-धीरे मानसिक गुलामी की ओर
बढ़ रही है। यह प्रवृत्ति भारत जैसे बहुजातीय राष्ट्र के लिए खतरनाक है। निराला जी
बहुत अच्छे गायक थे। अतः उनके गीतों का मर्म समझने के लिए आलोचनात्मक प्रयास होते
रहने चाहिए। और संगीतात्मक प्रस्तुति भी।
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बहुत खूब
जवाब देंहटाएंनिसंदेह अमीरचंद जी ने बहुत ही खूबसूरती से बात कही है। उनकी भाषा में माधुर्य है। पढने में ललित निबंध सा आनंद आता है बावज़ूद इसके कि वे जीवन की और खासतौर से ग्रामीण समाज की कठोर सच्चाइयों को लिख रहे हैं। मैं यहाँ आग्रह करना चाहता हूँ कि आकाशवाणी इलाहाबाद पर श्री केशव चन्द्र वर्मा ने निराला जी की बादल सम्बन्धी कविताओं पर एक संगीतमक रूपक तैयार था -"बादल राग"। इसका संगीत पंडित रघुनाथ सेठ ने तैयार किया था। इसके संगीत को तैयार करने में पंडित जी ने बहुत मेहनत की थी। करीब एक महीने तक उन्होंने पहले वर्मा जी से निराला जी की बादल सम्बन्धी कविताओं का अर्थ समझा था और उसके बाद उसका संगीत तैयार किया। बहुत ही शानदार कार्यक्रम बन पड़ा था। सुनकर महादेवी वर्मा जी जी ने केशव जी से कहा था कि उनकी कविताओं पर भी वे ऐसा कार्यक्रम बनाएं।
जवाब देंहटाएंVijendra Kriti Oar
जवाब देंहटाएंपहली बार में वरिष्ठ समीक्षक अमीरचंद वैश्य का आलेख, "'सूखे में बादल और वर्षा के बिम्ब"' दिशसूचक, जातीय पहचान कराने तथा अपनी जड़ों से जोड़ने वाला है। ऐसी गंभीर समीक्षा हिन्दी में विरल होती जा रही है। वर्षा, सूखा, बादल हमारे जातीय बिम्ब है। इस आलेख के सबसे अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है भारतीय लघु किसानन के दुख-दर्द को समझने के लिए नई प्रेरणा। कोई समीक्षक आज लघु किसान और श्रमिक की बात तक करना पसंद नहीं करता। जबकि वह भारत की जन शक्ति है। आत्मा भी। कोई भी मूल परिवर्तन इस देश तब तक मुमकिन नहीं जब तक लघु किसान की मुक्ति नहीं। लोकतंत्र में हमारी कविता का वही नायक हो सकता है-श्रमिकों के साथ। यह बात यह लेख संकेत देता है। इस सार्थक हस्तक्षेप के लिए मै अमीर चंद जी को हार्दिक बधाई देता हूँ। एक और बात। अमीर चंद ने अपने गद्य को एक दम समान्य बात-चीत के करीब ला दिया है। उनका अपना निजी मुहावरा है। एक एसा गद्य जो धारदार होकर भी कविता की बारीकियों को पकड़ता है। अमीर चंद वाग्विलासी समीक्षक नहीं है। वह कविता की भावबोधपरक व्याख्या भी करते है। जो कविता में होता है वह स्फटिक की तरह पारदर्शी होकर आलोकित होता है। उनकी समीक्षा हमें उस कवि के बारे में इतना बता देती है मानो हमने उसे करीब से जाना हो। वह कवि को उसके ऐतिहासिक संदर्भ में देख कर उसकी लोक धर्मी खूबियों को बताते है। उनकी समीक्षा academic और उबाऊ कतई नहीं होती। बल्कि हमें रचना पढ़ने जैसा आस्वाद आता है