श्रीराम त्रिपाठी का एक आलेख 'मुर्दहिया'

तुलसी राम

बीते 13 फरवरी 2015 को हिन्दी साहित्य की एक ऐसी क्षति हुई जिसकी भरपाई हो पाना नामुमकिन हैतुलसीराम का जन्म आजमगढ़ के धरमपुर में एक जुलाई 1949 को हुआ था प्राथमिक शिक्षा गाँव से ही हुई आगे की पढाई बी एच यू और जवाहर लाल नेहरू विश्व   विद्यालय से हुई फिर ये जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में ही अध्यापन करने लगे 
तुलसीराम बौद्ध धर्म और दर्शन के गंभीर अध्‍येता थे। उनका व्यक्तित्व और दलित चिंतकों से पूरी तरह अलग था। दरअसल वे इसके मूल में था उनका फक्कड़ाना स्वभाव जो उन्हें कबीर से मिला था। बचपन से ही वे सवर्णों की अनेक प्रताड़नाओं के शिकार हुए इसीलिए वे जाति व्यवस्था के घोर विरोधी थे। लेकिन वे भारत की हकीकत को जानते थे। उन्हें पता था कि भारत नामक देश की यह जो इमारत है उसकी दीवालों से लगायत छत तक जाति, धर्म, वर्ग जैसी मकड़ी के वैसे जाले फैले हुए हैं जिससे पार पाना बहुत दुष्कर है। यहाँ के लोग जब तक अपनी कुंठित जातिवादी मानसिकता को नहीं छोड़ेंगे तब तक सच्चे मायनों में एक आधुनिक प्रगतिशील एवं वैज्ञानिक भारत का निर्माण संभव ही नहीं। वे स्वभाव में अत्यंत सहज और सरल थे इसीलिए एक प्रतिबद्ध इमानदारी उनके अन्दर थी। तभी तो जहाँ एक तरफ तुलसी राम अपने लेखन में  ब्राह्मणवाद पर प्रहार करते हैं वहीँ दूसरी तरफ शोर-शराबा करने वालों से अलग वे दलित साहित्‍य और राजनीति की सीमाएं रेखांकित करना भी नहीं भूलते। वर्ष 2010 में जब उनकी आत्मकथा का पहला भाग 'मुर्दहिया' छपा तो चारो तरफ तुलसी राम जी की ख्याति फ़ैल गयी। हालांकि वे मूलतः अंतर्राष्ट्रीय संबंधों खासकर रुसी मामलों के विशेषज्ञ थे। लेकिन मुर्दहिया के लेखन से ऐसा लगता ही नहीं कि वे मूलतः साहित्य के नहीं थे मुर्दहिया के लोकार्पण में वरिष्‍ठ आलोचक प्रोफेसर नामवर सिंह ने  इसे उपन्‍यास जैसा ही रोचक बताया अभी हाल ही में उनकी आत्‍मकथा का दूसरा भाग मणिकर्णिका’  नाम से आया है अभी इसका तीसरा भाग आने वाला था तुलसी राम जी के न होने से अब यह नामुमकिन है इसके अतिरिक्त भी उन्होंने कई महत्वपूर्ण काम किये हैं जिनमें अंगोला का मुक्ति संघर्ष’,  ‘एआईए: राजनीतिक विध्वंस का अमरीकी हथियार’, ‘ हिस्ट्री ऑफ़ कम्युनिस्ट मूवमेंट इन ईरान’, ‘पर्सिया टू ईरान’ (वन स्टेप फारवर्ड टू स्टेप्स बैक) तथा आइडियोलॉजी इन सोवियत-ईरान रिलेशन्स’ (लेनिन टू स्टालिन) आदि प्रमुख हैं। तुलसी राम जी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं मुर्दहिया पर श्रीराम त्रिपाठी का एक आलेख       

मुर्दहिया

श्रीराम त्रिपाठी

हर साहित्यकार अपने समय से रूबरू होता है, मतलब कि अपने समय को पहले अय करता है फिर वियता-व्ययता है। इसी तरह वह अपने समय के वाद को अवाद कर ही विवादता है, इस आस में कि वह सम्वाद बन जाए। मतलब कि हर कोई उसकी बात को स्वीकार ले। आज के समय का वाद भोगना न होकर उपभोगना है। भोगना कठिन और उपभोगना आसान है। जैसे कि फल खाना आसान है और फल खाने के बाद पेड़ लगाना कठिन। इस तरह केवल फल खाना उपभोग है, जबकि पेड़ लगाना और फल खाना भोग। इस तरह सर्जक ही भोक्ता होता है, बक़िया उपभोक्ता। भोक्ता के जेहन में और जिस्म पर खाने का केवल स्वाद ही नहीं होता है, बल्कि पकाने का चिह्न भी होता है। ऐसे दौर में सर्जन जैसे कठिन काम को अंजाम देना वाक़ई दुरूह है। ऐसे लोगों का सम्मान ज़रूर किया जाना चाहिए, मगर इसका ख़याल रखते हुए कि क्या लेखक ने सचमुच ही दुरूह काम किया है! कहीं ऐसा तो नहीं कि उपभोक्ता ने ही भोक्ता का रूप धर लिया। जब वस्तु और रूप की एकता ख़त्म हो जाती है, तब धोखे की गुंजाइश बढ़ जाती है। इस तरह यह छलवादी दौर है। भ्रम फैलाता है। उसने भाषा को ही भाषा के विरुद्ध कर दिया है। मतलब कि व्यक्ति को ही व्यक्ति का विरोधी बना दिया है। जब हम ख़ुद के विरोधी हो जाएँ, जब हमें ख़ुद पर ही विश्वास न रहे, ऐसे में हम कितना भयभीत होंगे! हर समाज अपनी श्रेष्ठता की कसौटियों पर कसकर ही किसी को सम्मानित करता है। इसलिए साहित्य समाज को भी अपनी श्रेष्ठता की कसौटी पर कस कर ही किसी साहित्य को सम्मानना चाहिए।

      कहा जाता है कि पूँजीवाद में उपन्यास का वही स्थान है, जो सामंतवाद में महाकाव्य का होता था। हिन्दी में ऐसे उपन्यास तो मुश्किल से दर्जन भर ही लिखे गए। यूँ तो उपन्यासों की भरमार है, मगर वे उपर्युक्त कसौटी पर खरे नहीं उतरते। इधर दृष्टि का विस्तार तो बढ़ा है, मगर गहराई कम हुई है। इस तरह दृष्टि की सम्-घनता (जिसके तीनों आयाम समान हों) बाधित हुई है। साहित्य का मापक संघन होता है सघन नहीं। परंतु आजकल तो सघनताही साहित्य की मापिया बन गयी है। अनुनासिक का लोप अकारण नहीं हुआ। गहनता अपने आप में तकलीफ़देह होने के साथ तीव्रता की बाधक है। तीव्रता तो हल्केपन से आती है। सो गहनता को लुप्त करने के लिए अनुनासिक का लोप किया गया, जिससे सघनस्थापित हो गया। चरवादी की नज़र ज़मीन के ऊपर के फल पर होती है, जबकि किसान की ज़मीन के भीतर से लेकर फल तक। वह ज़मीन और फल को गुणते हुए गहता-गहनता है, इसीलिए संघनता है, सघनता नहीं। जो जितना ही गहे-गहनेगा उसकी गति उतनी ही मंद होगी। तीव्र नहीं हो सकती है। वह तो कछुआ ही साबित होगा, खरगोश नहीं। कैसी विडंबना है कि हम बचपन में पठित कहानी के ठीक विरुद्ध गति कर रहे हैं। मानो वह बचपने को प्रकट करती हो, जबकि हम तो पोढ़ हो गए हैं। इन पोढ़ और सघन लोगों की मजबूती क्या छिपी हुई है! कैसी विडंबना है कि हल्केपन की ओर भागते हुए हम अपने को भारी समझ रहे हैं। इसी क्रम में आज उपन्यासों की बाढ़ है, मगर उनमें से कितने सचमुच के उपन्यास हैं। आकाश (अ-अकाश) में उड़तों को अवकाश कहाँ! उन्-नति श्रेष्ठ है, या अव-नति। इस तरह हम निरंतर मिट्टीहीन होकर उथले और हल्के होते जा रहे हैं। ऐसे में हमारी रचना भारी और संघन हो तो कैसे! इस प्रकार बाज़ार का हल्कावाद पूरे वातावरण में गूँज रहा है, जिसके आगे सचमुच के सर्जक की आवाज़ ग़ुम है। उसकी आवाज़ सुनने के लिए समय और श्रम चाहिए, जो किसी के पास नहीं। फिर सर्जक और सर्जन की बात करे तो कौन!

      अगर उपन्यास-कहानी लगने-अलगने का सातत्य है, तो आत्मकथा और संस्मरण केवल लगने का। इसका मतलब है कि हम अपने में सिमट गये हैं। ये विधाएँ श्रेष्ठ विधाएँ नहीं हैं, यह जानते हुए भी हम साहित्य की गिरावट के पीछे के कारणों की छानबीन नहीं कर रहे, बल्कि इनकी स्थापना में ही लगे हुए हैं। इस पर चर्चा नहीं कर रहे कि आत्म की कथा को हम परात्म की कथा क्यों नहीं बना पा रहे। साहित्य तो आत्म और परात्म का, भुक्त और दृष्ट का गुणन होता है, जिससे पाठक में भी गुणशीलता प्रवाहित होती है। कौन नहीं जानता कि उपन्यास-कहानी की बनिस्बत आत्मकथा और संस्मरण लिखना आसान है! इस तरह आसान काम को श्रेष्ठ साहित्य के रूप में सम्मानित किया जा रहा है। क्या यह साहित्य की पतन नहीं है? उपभोक्तावाद ने हमारे सर्जक को भी जकड़ लिया है। विडंबना यह है कि यह जकड़न हमारे सर्जक को पीड़ने के बजाय आनंदित करती है। ख़ूब! बहुत ख़ूब! कविता में आत्म की मात्रा अधिक और परात्म की कम होती है। गद्य में आत्म की मात्रा कम और परात्म की ज़ियादा होती है। प्राचीन कविता की लय पाठक को वहती-वहाती थी, इसीलिए पाठक को भी आनंदित करती थी। गद्य की लय द्वंद्वात्मक होती है। वह पाठक को न वहती है, न वहाती। वह तो पाठक को ख़ुद अपने अनुसार वहने-वहाने को प्रेरित करती है। कविता के बाद दलित साहित्य, जो आत्मकथा के रूप में प्रकट हुआ, इसके मूल में वही आत्म तत्त्व की प्रधानता कारणभूत रही। अत्यंत विषम परिस्थितियों से संघर्षित जीव जब गौरवान्वित जगह पर पहुँचा, तो उसे वह गौरव नहीं मिला, जो उस जगह के दूसरे लोगों को मिलता था। एक ओर तो यह पीड़ा उसे सालती थी, तो दूसरी ओर आश्वस्त भी करती थी। आधुनिक साहित्य का सबसे बड़ा मानक संघर्ष है। जिसमें जितनी संघर्ष-क्षमता होगी, वह उतना ही महान साहित्य होगा। इसी मानक ने उनके वास्तविक संघर्ष को अतिशयी बनाया। ज़ियादातर दलित आत्मकथाएँ इन्हीं भावों के द्वंद्व की संरचनाएँ हैं। दलित लेखकों के पास आत्म-पीड़ा को परात्म-पीड़ा में रूपांतरित करने का अवकाश नहीं था। ऐसे में आवेगपूर्ण आत्मकथा ही लिखी जा सकती थी। ऐसी आत्मकथा, जो अनगढ़ होने के कारण अन्य आत्मकथाओं से भिन्न थी। इसीलिए ध्यान आकर्षित करती थी। इधर दलित साहित्यकार अपने भूतकालीन आत्म से निजात पाने की कोशिश में समकालीन हो रहा है। इसलिए वह भले ही अपनी रचना को आत्मकथा का नाम दे रहा हो, मगर वह आत्मकथा के साथ परात्म कथा भी लिख रहा है, जिसमें मैं और पर का द्वंद्व लक्षित होता है। हाँ, अभी वह प्रथम पुरुष के माध्यम से प्रकट कर रहा है, उम्मीद है कि कल वह अन्य पुरुष के माध्यम से भी प्रकट करेगा। ऐसा कहने का आधार मुर्दहियाहै, जिसका लेखक साहित्यिक न होकर दार्शनिक है। हो सकता है कि उसकी दार्शनिक प्रवृत्ति ने ही उसे अपने भूतकालीन संघर्षों से जोड़े रख कर उसका दर्शन करने को प्रेरित किया हो। इसीलिए यह कृति आत्मकथा होते हुए भी औपन्यासिक कृति का एहसास कराती है। इसमें प्रकट मैंएक चरित्र होने के साथ लेखक का मैंभी है। इसमें लेखक का आत्म सिकुड़ने के साथ विस्तरता भी है, जिसमें व्यक्तिगत पीड़ा के साथ-साथ दूसरों की पीड़ा भी नज़र आती है। वह इस व्यवस्था से संघर्ष करने को प्रेरित करता है, जो मानव जीव को उसकी क्षमता के अनुसार विकसने से रोकती है। इसीलिए यह कृति जाति जैसी रूढ़ियों (मृत) की अपेक्षा उन जीवंत जीव-विरोधियों से टकराती है, जो जीव के विकास में बाधक बनती हैं।

      जो समाज सदियों से अपनी असह्य पीड़ा को वण नहीं पा रहा था, जिसकी पीड़ा को दूसरों ने वणा, अब वह इसमें समर्थ हुआ है। जिन दूसरों ने उनकी पीड़ा को वाणी दी थी, उन्होंने ही उनकी वाणी का स्वागत करते हुए हौसला बढ़ाया। द्वंद्व ही साहित्य की धड़कन है। भाव और विचारों का रूपांतरण महज़ भाषा में ही नहीं, चरित्रों में भी होता है। लेखक को ही विभिन्न चरित्रों में रूपांतरित होना होता है, न कि किसी और को पेश करना। ऐसे में लेखक के विभिन्न क्रिया-कलाप ही रचना को प्रवहते और प्रवाहशील बनाते हैं। इसे से पाठक भी संचरित होता है। पहले तो वह पाठक को वहता है, फिर पाठक उसको। कोई भी रचना जितना ही पाठक को प्रवहेगी, पाठक द्वारा उतना ही प्रवही जायेगी। आज के हिन्दी साहित्य में उपन्यास की अपेक्षा आत्मकथा और संस्मरण अधिक प्रभावशाली ढंग से लिखे जा रहे हैं। इसका यह मतलब नहीं कि अपन्यास की अपेक्षा ये विधाएँ ज़ियादा प्रभावशाली हो गयी हैं। मनुष्य का लक्ष्य है जटिल जीवन को सरल करना। उसके एक-एक रेशे को अलग करना। जिस विधि से यह सरल किया जाता है, वह भी जटिल ही कहलाता है, क्योंकि उसी के द्वारा जटिलता सरलता में तब्दील हुई। विविध जीवन की विविध जटिलताओं को सरल करना एकविध नहीं, विविध ही हो सकता है, जो नहीं हो रहा है। उपन्यास-विधि आत्मकथा और संस्मरण की अपेक्षा कठिन और जटिल होने के बावजूद आत्मकथा और संस्मरण से पिछड़ रही है। कारण कि ये विधाएँ अपनी गुणवत्ता में विकास कर रही हैं, जबकि उपन्यास में ऐसा नहीं हो रहा। स्पष्ट है कि हम जटिलता और कठिनता से भाग रहे हैं। इस प्रकार उपन्यास विधा ह्रासोन्मुख है, कहना ग़लत न होगा। हमारी चिंता उस नुक्ते पर है, जो समकालीन साहित्य को पिछले साहित्य से बेहतर नहीं बना रही। मतलब कि रचनात्मकता का उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है। क्या कविता-नाटक, क्या कहानी-उपन्यास। ऐसे में आलोचना की बात उठाना बेमानी है। तो विकासोन्मुख विधा आत्मकथा को तुलसीराम की मुर्दहियानिश्चित रूप से और विकसित करती है, क्योंकि यह आत्म की कथा होने पर भी अपने आत्म को अतिक्रमित करती है। इसका आवेग संतुलित है। जबकि ज़ियादातर आत्मकथाएँ आत्म में सिमटी आवेगपूर्ण होती हैं, जिससे आवेग का प्रस्फुटन अच्छे-बुरे सब को नष्ट कर देता है। शायद इसी कारण इस आत्मकथा को आलोचकों ने उत्तर आधुनिक कहा है। उत्तर आधुनिकता के मर्मज्ञों का कहना है कि जहाँ सारी विधाएँ एक-दूसरे में घुल-मिल जाएँ, तो उसे उत्तर आधुनिक समझ लीजिए। मतलब कि जहाँ विधागत कोई बंधन न हो। उत्तर आधुनिकता मान्य रूपों को नकारती तो है, मगर किसी अन्य रूप को स्थापित नहीं करती, जिससे नाम (संज्ञा) की ज़रूरत ही नहीं रहती। इस तरह उत्तर आधुनिकता ऐसी मानहीन दुनिया का निर्माण करता है, जिसमें अच्छा-बुरा, सही-ग़लत कुछ नहीं होता। मुर्दहियामें जो जीवन का सतत प्रवाह है, वह जो भी रूप बनाता है, सतत परिवर्तनशील है। हाँ, उसमें पिछले रूप का अक्स ज़रूर दिखता है। मुर्दहियाआत्मकथा है, या उपन्यास? इसका जवाब तो नि-संदेह आत्मकथा ही होगा। एक श्रेष्ठ आत्मकथा, जिसमें आत्म का जो रूप उभरता है, वह अपने परिवेश की त्रासदी को ख़ुद तक ही नहीं सीमित करता, अपितु उन तमाम लोगों तक विस्तृत करता है जो इसके शिकार हैं। इस तरह यह एकोऽहं द्वितीयो नास्तिसे एकदम भिन्न होने के कारण आत्मकथा के नये मापक की माँग करती है। 


      जिसे हम वातावरण कहते हैं, वह वात का आवरण भी है और बात का वरण (वर्ण) भी। आज बात के आवरण और वरण को ही भेदना है। वाल्मीकि ने इसी तरह षाद (साद-खाद) को निषाद (निसाद-निखाद) किया था। अन्यथा तो क्रौंच को मारकर खाना सिद्ध ही था, निषिद्ध तो वाल्मीकि ने किया। बात पर जब कई आवरण चढ़ा-चढ़ाकर कठोर कर दिया जाता है, तब उसे तोड़ने की ज़रूरत पड़ती है। वाल्मीकि ने उसी कठोर बात को तोड़ा था, जिससे करुणा की धार बही थी। तुलसी राम बात की कठोरता को तोड़कर जीवन की धार बहाते हैं। जातिरूपी कठोर बात के भीतर भारतीय जीवन सिसक रहा है। तुलसी राम ने उसे भोगा भी है और देखा भी है। वे दोनों को गुणते हैं, इसीलिए संतुलित होते हैं। उनकी स्थिरता में भी प्रवाह है। एक गति, जो जीवन की गति है उसमें लय भी हो जाते हैं और उसे लयित भी करते हैं। तुलसी राम ऐसा दलित है, जो सवर्णों के साथ-साथ दलितों द्वारा भी दला गया। काले चेहरे पर चेचक के दाग़ और एक आँख के चले जाने पर वह अपने सगे चाचा नग्गर द्वारा ही अपशकुन क़रार दिया गया। परायों की अपमानना उतनी नहीं पीड़ती, जितनी अपनों की। तुलसी अगर कहीं से प्रेरणा और स्नेह पाता है, तो वह माँ और दादी हैं। अगर वे न होते तो तुलसी का जीना मुहाल हो जाता। ऐसे में दादी और माँ की युगीन शृंखला, उसकी सृजन-शक्ति बन जाती है।

      तुलसी राम ने जीव और जीवन को आत्मसात किया है। वे जीवन-दृष्टि से सम्पन्न हैं, इसीलिए जाति के साथ-साथ दलित आत्मकथाओं के बाड़े को भी तोड़ते हैं। इस तरह वे वाल्मीकि की परम्परा में खड़े नज़र आते हैं। जिस तरह वाल्मीकि की रामायणम्का ब्राह्मणवादी पाठ स्वीकार कर दलितों ने रामायणम्और वाल्मीकि को ही त्याग दिया, कहीं उसी तरह मुर्दहियाऔर तुलसी राम भी त्याग न दिये जाएँ। तुलसीराम के लेखे भारतीय समाज में अज्ञान का बोल-बाला है। क्या सवर्ण और क्या अवर्ण। जिसे ज्ञानी समाज कहा जाता है, वह आधुनिक पंडोंके हवाले है। उस समाज की रूढ़ियाँ सहजता से निम्न समाज में आरोपित हो जाती हैं। निम्न समाज अत्यंत उर्वर होता है, जिसे उच्च वर्ग दबा-दबाकर कठोर बना देता है। इस तरह एक त्रसित दूसरे को त्रासकर संतुष्ट होता है। पूरी कथा में विकासशील चरित्रों की कमी इस बात का द्योतक है कि आज भी आधुनिक पंडोंका ही बोलबाला है। इस कठोर आवाज़ को तोड़ने के लिए कई तुलसी राम की ज़रूरत है।

      इस प्रकार मुर्दहियामौजूदा चलन का विचलन है। तुलसी राम दार्शनिक हैं, साहित्यकार नहीं। हाँ, दर्शन के लिए उन्हें साहित्य के पास ही जाना पड़ता होगा, क्योंकि भारत का वास्तविक इतिहास तो साहित्य ही है। महाभारतअथवा रामायणमें जो हमें ऊपर-ऊपर दिखता है, हम उसे ही सत्य मान लेते हैं। औजारों से लैश एक-दूसरे से लड़ते लोगों को देखते और ताली पीटते हैं। उन औजारों के निर्माता को खोजते ही नहीं। निर्माताओं ने उन औजारों को क्या मनुष्यों से लड़ने के लिए बनाया था- ऐसे सवाल ही नहीं करते। औजारों से लैश तथाकथित उन ताक़तवर योद्धाओं के भीतर अन्न-जल, दूध-घी पहुँचाने वालों को खोजते ही नहीं। कहाँ हैं वे, किस हाल में हैं? तुलसी राम मुर्दहियानामक ऊसर टीले को गुणते-गोड़ते हैं। मतलब कि उपजाऊ बनाते हैं, जिसमें जीवन लहलहाता है। बाहर से जीवहीन लगती मुर्दहिया के भीतर तरह-तरह के लोग एक-दूसरे के साथ-साथ अपने बाहरी वातावरण से संघर्ष करते हैं। मेरे मन में एक सवाल कुलबुलाता है कि एक सम्मानित दार्शनिक अपना प्रिय विषय छोड़कर साहित्य में क्यों और कैसे कूद पड़ा? क्या उसका मन दर्शन से ऊब चुका था, या साहित्य में भी हाथ आजमाने की इच्छा जगी? साठ के आस-पास की उम्र में ऐसा होना मुमकिन नहीं। कम से कम तुलसी राम जैसे दार्शनिक से तो नहीं ही। एक दार्शनिक मूलतः अपने समय को दर्शता है। इसी प्रक्रिया में तुलसी राम ने देखा (दर्शा) कि उनके जैसे जीवन जीने वालों ने अपनी आत्मकथा लिखी है, जिसमें आक्रोश ही आक्रोश है। ध्यातव्य है कि उन आत्मकथाओं के लेखक उन समस्याओं से उबरने के बाद अपना आक्रोश व्यक्त कर रहे थे। उनके आक्रोश न विखंडनात्मक थे, न सृजनात्मक। तुलसी राम भी उसी समाज की उपज हैं। ज़ियादातर दलित आत्मकथाएँ युवाओं द्वारा लिखी गयीं, पोढ़ों (प्रौढ़ों) द्वारा नहीं। कोई पोढ़ व्यक्ति ही अपने समुदाय की ग़लतियों को सुधारता है। वह जानता है कि हमें जो स्थितियाँ मिली हैं, उन्हीं के अंतर्गत रहते हुए उन स्थितियों को बदलना है। इतना जटिल और कठिन काम आक्रोश के बूते मुमकिन नहीं। इसलिए मानो वे दलितों के आक्रोश को संतुलित करते हैं। मतलब कि उसमें अपने दर्शन को शामिल करते हैं। वे साफ़ तौर पर देखते हैं कि समस्या की जड़ अज्ञान है। इसीलिए वे मुर्दहियाका आगाज़ इस तरह करते हैं, “मानव जाति का वह पहला व्यक्ति जो जैविक रूप से मेरा खानदानी पूर्वज था, उसके और मेरे बीच न जाने कितने पैदा हुए, किन्तु उनमें से कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं था। लगभग तेईस सौ वर्ष पूर्व यूनान देश से भारत आए मिनांदर ने कहा कि आम भारतीयों को लिपि का ज्ञान नहीं है, इसलिए वे पढ़-लिख नहीं सकते। उसके समकालीनों ने तो कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, किन्तु आधुनिक भारतीय पंडों ने मिनांदर का खूब खंडन-मंडन किया। हकीकत तो यह है कि आज भी करोड़ों भारतीय मिनांदर की कसौटी पर खरा उतरते हैं। सदियों पुरानी इस अशिक्षा का परिणाम यह हुआ कि मूर्खता और मूर्खता के चलते अंधविश्वासों का बोझ मेरे पूर्वजों के सिर से कभी नहीं उतरा...।” ‘जैविक रूप से मेरा खानदानी पूर्वज था, उसके और मेरे बीच’ ‘कोई पढ़ा-लिखा नहीं था।यहाँ व्यक्त मेरामें एकवचन की नहीं, बहुवचन की ताक़त है। भारत के तल की हक़ीक़त है यह। मिनांदर बाहरी व्यक्ति था। प्रवासी। प्रवासी का सरोकार स्ववासी की तरह न होने के बावजूद मिनांदर ने जो कहा वह तत्कालीन भारतीय समाज के तल का सत्य था, जिसे तत्कालीनों ने खंडित नहीं किया। तो क्यों? इसलिए कि यह हाथ-कंगन था। इसका मतलब है कि लिपि का ज्ञान चंद लोगों को ही था। बहुत लोग इससे वंचित थे। इसीलिए तत्कालीन विद्वानों ने इसका विरोध नहीं किया। विद्वान तो कड़वी से कड़वी सचाई को भी स्वीकारता है। यहाँ तत्कालीन विद्वानों के प्रति अवमानना का लेश मात्र भी नहीं है, जो तुलसी राम की गहनता और संतुलन का परिचायक है। साहित्य का लक्ष्य तो चंदों-बहुतों का भेद ख़त्म करके सभी (सभ्इअ, सभ्य) तक है। अगर एक व्यक्ति भी ज्ञान से वंचित रहता है, तो साहित्य इसका विरोध करेगा। वह सभी का हित चाहता है, चंदों-बहुतों का नहीं। यहाँ तो बहुत लोग वंचित थे। आधुनिक भारतीय पंडोंमें तीनों शब्द क़रारे व्यंग्य हैं। पुराने मिनांदर के कथन का खंडन-मंडन पुरानों द्वारा न होकर आधुनिकों द्वारा हो रहा है। मतलब कि ये आधुनिक जामे में पुराने लोग हैं। ये भारतीय (राष्ट्रीय) नहीं, पुराने भारत उप महाद्वीपीय हैं, जिसमें कई देश हुआ करते थे। सचाई को नकारने वाले सम्मान के हक़दार कैसे हो सकते हैं! इसीलिए उन्हें आधुनिक पंडोंसे अपमाना गया है। पंड का मतलब तालाब भी होता है और पाड़ा भी। भैंस और पाड़े को पानी बहुत प्यारा होता है। कहते हैं न कि गइलि भँइसिया पानी में।अब उसका निकलना मुश्किल है और अगर निकलेगी तो कीचड़ में लिथड़ी। तो ये पंडे कीचड़ को मंडते हैं, तभी तो कूप मंडूककहकर कूप की खिल्ली उड़ाते हैं, जब कि पानी पीने के लिए उसी के पास जाते हैं। ये स्वच्छ को उपभोगते और गंदगी को प्रसारते हैं। इसीलिए सम्मान के नहीं, अपमान के पात्र हैं। आत्म का आलोचक ही स्वच्छ होता है। तुलसी राम की मुर्दहियाआत्म का आलोचन करती है, इसीलिए सामान्य आत्मकथाओं से अलग और विशेष है। इस प्रकार मुर्दहियाका प्रारम्भ ही लेखक के सरोकार, भाषा-कौशल और गहन तथा विराट दृष्टि को कितनी साफ़गोई से प्रकट देता है। सुरसरि सम सब कर हित होईके कथन में नहीं, उसकी प्रक्रिया में तुलसी राम का विश्वास है। जब तक ज्ञान सभी तक नहीं पहुँचता, तब तक हम सभ्य नहीं हैं। ज्ञान से बहुतों को वंचित करके हमने भारत को ज्ञान से वंचित कर दिया। किस तरह तुलसी राम के ज्ञान-प्राप्ति में अज्ञान बाधक बनता है, इसी का जीवंत दस्तावेज़ है मुर्दहिया। कितने अज्ञानी थे हमारे पूर्वज, जिन्होंने प्रसारित की जानेवाली चीज़ पर पाबंदी लग दी थी। ज्ञान-प्राप्ति में लगे शम्बूक को दण्डित किया था। 


      अक्सर हम बाहर (रूप) को ही सच मान लेते हैं, जबकि जीव तो भीतर होता है। नारियल का फल बाहर से जैसा होता है, उससे एकदम अलग भीतर से। उसका मूल (मुलायम) रुक्ष रूप के भीतर है। हमें रूप से ज़ियादा मूल की ज़रूरत होती है। उसके रूप के रुक्ष होने का कारण बाहरी वातावरण है। उस मूल ने बाहरी वातावरण से संघर्ष करते हुए ख़ुद को संकोचा नहीं, बल्कि गहना और विस्तृत किया। संघर्ष के कारण उसका बाहरी आवरण जितना रुक्ष और कठोर हुआ उसके भीतर का जल उतना ही सुरक्षित और गतिशील रहा। उसकी जिजीविषा ने ही उसके रूप को रुक्ष और कठोर बनाया है। वृक्ष से अलगने पर अन्य फलों की तरह वह कुछ ही दिनों में सड़ (मर) नहीं जाता, बल्कि जीवित रहता है। तुलसी राम की मुर्दहियाऐसी ही रचना है। मुर्दहियाशब्द फ़ारसी के मुर्दः और भोजपुरी के इया प्रत्यय के मेल से बना है। भोजपुरी में खुरपी, फावड़ा, चाकू आदि में धार न होने पर वह मुरदार का विशेषण पाती है। इस तरह मुर्दहिया नाम का मान हुआ, जिसमें धार (जीवन) न हो। जहाँ मरे हुए लोग रहते हों। मगर मुर्दहियाके भीतर तो जीवन ही जीवन है। अत्यंत संघर्षरत गतिशील जीवन। देखने की बात यह है कि इसमें मनुष्य ही नहीं, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी-तालाब; सभी जीवन की गतिमयता से ओत-प्रोत हैं। इस जटिल और गतिशील प्रवाह के अंतर्गत उत्पन्न एक दलित अबोध बच्चे का इस प्रवाह को ही अपने अंतर्गत कर लेने का संघर्ष है। लघु की संतान है लाघव, जो अत्यंत प्रेरक और सुन्दर है। हर लघु अपने लाघव द्वारा ही दीर्घ बनता है। किसी के अंतर्गत रहने वाला जब उस किसी को अपने अंतर्गत कर लेता है, तब उस किसी से दीर्घ हो जाता है। दीर्घ होना ही बड़ा होना है। बच्चे का बड़ा होना उसके बड़प्पन से जाना जाता है। ऊपर नारियल का ज़िक्र आया है। उसका मूल भीतर है। वह भीतर से बाहर की ओर विस्तरता है। मुर्दहियाका दलित अबोध बच्चा भी भीतर से बाहर को विस्तरते हुए अपने परिवेश को ख़ुद के अंतर्गत कर लेता है, तब ही तो उसे साफ़-साफ़ देख पाता है। तल की चीज़ को साफ़-साफ़ देखने के लिए पानी के भीतर की हलचल को शांत करना पड़ता है, जो आसान काम नहीं। तुलसी राम अपने अर्जे परिवेश को त्रासक रूप में प्रकट न करके सहचार के रूप में प्रकट करते हैं। उन्होंने जीवन से जो कुछ अर्जित किया, उसे अपने तल में सँजो लिया। रचने के पहले उसको आलोचा। मतलब कि साफ़ किया। उसके बाद सिरजा। इसीलिए मुर्दहियाउस प्रेरक के रूप में हमारे तल में उतरती है, जिससे कि हमारा भीतर तल तक उद्वेलित हो उठता है। जिस तरह दूध में दही (खट्टा) का कुछ अंश पड़ने पर पूरा दूध उद्वेलित होकर दही में रूपांतरित हो जाता है, उसी तरह मुर्दहियाहमारे रूप-गुण, दोनों में परिवर्तन ला देती है। इसीलिए इस कृति की संरचना में उतरना ज़रूरी हो जाता है। ऐसा करने से ख़ुद का भी रचनाकार में रूपांतरण की गुंजाइश बढ़ जाती है।

      हर व्यक्ति को अपने समय को अनुसरते-अनुसारते वर्तन करना पड़ता है। इसी प्रक्रिया में वह अपने और अपने समय को नवसारता भी है। मुझे सुखद आश्चर्य होता है कि दर्शन जैसे शुष्क क्षेत्र में रमनेवाला व्यक्ति साहित्य जैसे रसिक क्षेत्र में कैसे आ गया! शुष्क क्षेत्र में बबूल ही उगते हैं, केले और पपीते नहीं। मुर्दहियाका रूप बबूल है, मगर भीतर केले और पपीते। जिस तरह किसान गन्ने के खेत को चारों ओर से काँटों के बाड़ से सुरक्षित करता है, उसी तरह मानो मुर्दहियानामक बाड़ से तुलसी राम ने इसके भीतर के संघर्ष-रस को सुरक्षित कर दिया है, क्योंकि यह उपभोक्तावाद है। रस के चाहक सभी (सभ्इइ, सभ्इअ उ सभ्य) हैं, रस के सर्जक बहुत कम (असभ्य)। इस तथाकथित रसिक क्षेत्र के लिए तो वे नौसिखुवे हैं। उन्हें डर है कि कहीं उनके रस को चोर-उचक्के न लूट ले जाएँ, शायद इसीलिए उन्होंने मुर्दहियानामक बबूल से सुरक्षित किया है। जिस जीवन को अन्य दलित लेखकों ने प्रकाशित किया, उसी जीवन को तुलसी राम ने अधिक गहरे और परिष्कृत रूप में प्रकाशित किया है। ध्यातव्य है कि अधिकतर दलित आत्मकथाएँ युवा लेखकों द्वारा लिखी गयी हैं, पोढ़ों द्वारा नहीं। शायद इसी कारण उनमें आक्रोश ज़ियादा है। गौरतलब यह भी है कि वे जिस जीवन से बाहर निकल आये थे, उसी के प्रति आक्रोश प्रकट कर रहे थे। भूतकालीन जीवन पर आक्रोश प्रकट करने से वर्तमान को नहीं बदला जा सकता। अतीत के प्रति प्रकट आक्रोश वर्तमान के प्रति आगाह ज़रूर करता है, मगर ठोस परिवर्तन लाने में सहायक नहीं होता। ठोस परिवर्तन तो अतीत के मूल में चलने वाली प्रक्रियाओं को आत्मसात करने से होता है। इस तरह जीवन के मूल (गहराई) में उतरना ज़रूरी है। गहरे उतरने में समय और श्रम, दोनों लगते हैं। ये दोनों आक्रोश को संतुलित करते हैं। अधिकतर दलित आत्मकथाओं में उस जीवन से जूझने की प्रक्रिया कम और ख़ुद के दुख के विरुद्ध आक्रोश ज़ियादा है। उस कठिन जीवन से उबरते ही उन लेखकों ने उन स्थूल व्यक्तिओं और स्थितियों पर ही अपना ग़ुस्सा उतारा, उन प्रक्रियाओं को गहना कम, जिसे स्वाभाविक तो कह जा सकता है, मगर रचनात्मक नहीं। तुलसी राम अपनी स्वाभाविकता पर अंकुश लगाकर गहन रचनात्मकता को प्रश्रय देते हैं। वे उन व्यक्तियों और स्थितियों को गहरे देखते-परखते हैं। मतलब कि पहले दर्शते हैं उसके बाद रचते। अन्य दलित लेखकों की तरह वे भोक्ता से रचना की तरफ़ अग्रसरित न होकर दर्शन से रचना की तरफ़ अग्रसरित हुए हैं। भोग के समय तो हम सभी ऐक्टर होते हैं। भवते-भावते हैं। इसीलिए अपने क्रियारूप की गुणवत्ता और प्रभाव को नहीं जान पाते। क्रियारूप की गुणवत्ता और प्रभाव को तो दर्शक ही जान पाता है। ख़ुद के स्पष्ट दर्शन के लिए ख़ुद से उचित दूरी बनानी पड़ती है। भाव से दूर जाना पड़ता है। भाव ही तो रस है। इसीलिए तुलसी राम भाव (रस) से दूर दर्शन (अभाव, शुष्क) में गये। जहाँ से उन्होंने अपने अतीत को साफ़-साफ़, मतलब कि तल तक देखा। अपने दलित समाज और अन्य समाजों के क्रिया-कलापों को तल की गहराई तक देखा। जिससे उनकी व्यक्तिगत पीड़ा का स्वरूप विस्तर गया। व्यक्तिगत पीड़ा का शमन तो समाज पर आक्रोश व्यक्त करके हो सकता है, परंतु समाजगत पीड़ा का शमन हो, तो कैसे! तुलसी राम द्वारा समाजगत पीड़ा के शमन के उपचार की कोशिश का नाम ही मुर्दहिया है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि व्यक्तिगत तुलसी राम के समाजगत तुलसी राम में रूपांतरण का नाम हीमुर्दहिया है। ऐसे में तुलसी राम आक्रोश प्रकट करे, तो किस पर! तत्कालीन तुलसी राम का आक्रोश तत्काल में प्रकट भी हुआ होगा और नहीं भी। हम जो-जो, जैसे-जैसे, जब-जब करते हैं; अगर उन्हें ज्यों का त्यों दर्ज़ दें, तो वह किसी को भी प्रभावित नहीं करेगा। रचना भोक्ता और द्रष्टा का गुणन होती है, न कि भोक्ता का वर्ग अथवा द्रष्टा का वर्ग। इससे तो महज उसका आकार (क्षेत्रफल, वर्ग) बढ़ता है, संघनत्व नहीं। साहित्य न वर्गीय होता है, न सघन, वह तो संघन होता है। संघन के तीनों आयाम समान होते हैं। अय-अय (आय) तो सभी करते हैं, मगर व्ययते कम ही। अये अथवा आये को किस तरह व्यया जाये, कि समय हो जाये, कम ही लोग जानते हैं। तुलसी राम इसे जानते हैं। उन्होंने समय को भोगन और दर्शन के बिल्कुल मध्य और बराबर रखा है। इन्हीं तीनों का गुणफल है मुर्दहिया। यह सघन नहीं, संघन है। पहले यह आत्म का परिष्कार करती है, फिर समाज का। अगर भारतीय समाज के तल में उतरना हो, तो मुर्दहियाको न केवल पढ़ना चाहिए, बल्कि रुक-रुक कर पढ़ना चाहिए। तल के गहन मंथन से प्राप्त ज्ञान हमेशा हाथ-कंगन की तरह होता है।

      सर्जक पहले अपने भीतर अर्जित कच्चे माल का परिष्कार करता है। बाहर से अच्छा-बुरा जो भी मिलता है, वह हमारे भीतर सुरक्षित हो जाता है। बाहर प्रकट करने के लिए उसका परिष्कार किया जाना ज़रूरी है। परिष्कार लोचना करने से होता है, जिसे दर्शना भी कहते हैं। लोचना-दर्शना में समय लगता है। तुलसी राम पहले अपने घर को दर्शते हैं, जिसमें एक दादी है और एक चाचा भी। दादी स्नेहिल है, जबकि चाचा कठोर। चेचक से आँख चली जाने पर सबसे पहले चाचा ही उसे अपशकुन मानता है। जगह-जगह उसका तिरस्कार और अपमान करता है। अन्य समाज के लोग तो बाद में करते हैं। इसके मूल में अज्ञान है। अज्ञान किस प्रकार अपने-पराये के भेद को भी मिटा देता है, देखना हो तो मुर्दहियापढ़ना चाहिए। गाँव में तुलसी राम के अलावा एक सवर्ण व्यक्ति और एक महिला भी है, जो पूरे गाँव को अपशकुन लगती है। मेरे घर के पास एक आम के पेड़ में खूब बौर आए थे। अचानक जंगू पांडे आकर आम के बौरों को देखने लगे क्योंकि बौर बहुत अच्छे लग रहे थे। मेरे घर वालों ने कहना शुरू कर दिया कि जंगू पांडे की नजर लग गई। अब फल नहीं आएंगे। जबकि बाद में खूब फल आए। इसी तरह गांव की एक अन्य बुढ़िया ब्राह्मणी थी, जिसका नाम किसी को मालूम नहीं था। वह सिर्फ पंडिताइनके रूप में जानी जाती थी। पंडिताइन निर्वंश विधवा थी। उन्हें भी लोग देखना पसंद नहीं करते थे।” (12-13) “वैसे सच्चाई तो यह थी कि हमारे गांव में निर्वंश जंगू पांडे, विधवा पंडिताइन, पोखरे वाला उल्लू, खो-खो करने वाली मरखउकी चिड़िया और मैं स्वयं, हम पांचों असली अपशकुन थे जिन्हें देख-सुनकर लोगों की रूह कांप जाती थी।”(49) इसमें जाति-पाँति का कोई भेद नहीं है। अधिकतर दलित आत्मकथाएँ सवर्ण और अवर्ण पर आधारित हैं, जिसके कारण अवर्ण की भूल-ग़लतियाँ लेखकों को दिखलाई नहीं देतीं, या देखने की कोशिश ही नहीं की जाती। तुलसी राम इसके भीतर उतरते हैं, तो अभेद पाते हैं। उनके हिसाब से यह भेद अज्ञान की उपज है, जिसे ज्ञान के द्वारा ही ख़त्म किया जा सकता है। असंख्य विपरीत परिस्थितियों में मनुष्य अपने मूल में उतरता है। मूल ही वह ऊर्जा मुहैया कराता है, जिससे परिस्थितियों का सामना किया जाता है। तुलसी राम का मूल दादी है, इतनी गहरी कि आदिम दादी में परिवर्तित हो जाती है। इस दादी को तुलसी राम ने इतना गहा है कि हर वक़्त जैसे अपने साथ लिए हों। दादा से प्राप्त सिक्कों को दादी तुलसी राम से ही गिनवाती है, मगर देती एक भी नहीं। जिस भाव से दादी उसे सुरक्षित रखती है, तुलसी लाख कंगाली में भी उससे माँगता नहीं, यह जानता हुए कि दादी उसे दे देगी। इसके बाद स्नेहिल माँ है, जो इसके दुख में अपना पेट काटती है। अज्ञानी पिता की पढ़ाने की रुचि भी उत्साहित करती है। पिता भोला-भाला पुराने ख़यालों वाला इनसान है, परंतु यही भोला-भाला पिता माँ के चरित्र पर शक करके मारता-पीटता है, तो इसके मूल में उसका पुरुष होना प्रकट होता है। यह विचार उसे उच्च समाज से मिला है। तुलसी राम जैसे दिखला रहे हों कि अज्ञान दलित को भी दलक बना देता है। इसी कारण वह दूसरे समाजों से अकसर उनकी बुराइयाँ ही ग्रहण करता है, अच्छाइयाँ बहुत कम। 


      सवर्ण और अवर्ण का मूल तो अज्ञान है ही, उसका शासक भी अज्ञान है। अज्ञान ने ही एक-दूसरे पर निर्भर लोगों को बाँट दिया है। जीवन का यथार्थ इसे भुलाकर साथ रहने को मजबूर करता है। ज्ञान-अज्ञान में चोली-दामन का साथ है। चाहे स्कूल का हेड-मास्टर परशुराम सिंह हो, चाहे स्कूल के अबोध बच्चे। परशुराम सिंह व्यक्ति होने के साथ एक अध्यापक भी है। मतलब कि अज्ञान और ज्ञान से संचालित व्यक्ति। हेडमास्टर साहब प्राय: सवर्ण छात्रों से कहते: ठीक से सवाल पढ़िके ना अइबा त येही चमरै से रोज पिटवाइब।”(59) उनके इस कथन से तत्कालीन तुलसी राम पर जो प्रभाव पड़ता था, उसे भी देख लीजिये, “यह सुनकर मैं बहुत खुश होता और इससे मुझे गहन अध्ययन की बहुत प्रेरणा मिलती। पढ़ाई के दृष्टिकोण से हेडमास्टर परशुराम सिंह मेरे सबसे बड़े प्रेरणास्रोत थे।”(59) अगर हेडमास्टर के कथन की व्याख्या करें, तो उनकी संवेदना सवर्ण छात्रों के प्रति मिलेगी। वे एक छात्र से उन्हें नहीं पिटवाते थे, बल्कि एक चमारसे पिटवाते थे। मतलब कि चमार से पिटने का दर्द उस बच्चे के अंतस्तल को बेधता, जिससे वे जी-जान से अपना मन पढ़ाई में लगाते। परंतु अबोध तुलसी राम अगर उपर्युक्त अर्थ लेता, तो शायद आज का ज्ञानी तुलसी राम नहीं बन पाता। वे हमेशा कक्षा में मेरी प्रशंसा करते और जब ज्यादा खुश होते तो कहते : ई चमरा एक दिन हमरे स्कूले क इज्जत बढ़ाई।”(59) यह कथन अत्यंत जटिल भावबोध से निर्मित है, जिसमें टीस के उपरांत ख़ुशी भी है। ऐसे जटिल भावबोध ही किसी रचना को दीर्घजीवी बनाते हैं। अब अबोध बच्चों का हाल देखें। मैं हमेशा उत्तर सबसे पहले बता देता था। इसके बाद अध्यापक मुझे आदेश देते कि जिन छात्रों ने उत्तर नहीं दिया है, उन्हें मैं एक-एक झापड़ या मुक्का मारूँ। मैं अक्सर रोज ही इस प्रक्रिया में अनेक छात्रों की पिटाई कर देता, जिसके कारण छात्र, खास करके सवर्ण जातियों के बच्चे, मुझसे बहुत घृणा करने लगे थे, जिसका प्रमुख कारण था मेरा अछूत होना तथा ऊपर से चेचक वाला चेहरा तथा एक आंख का खराब होना। ऐसे छात्र लेजर के दौरान मुझे इंगित करके बाजार में सामान बेचन वालों की बोली की नकल पर कहते: ले अमरूद ए काना ए काना। यानी एक आना का बिगड़ा हुआ रूप ए काना।...किंतु मैंने स्कूल में इससे निपटने का एक उपाय ढूंढ लिया था। जो छात्र वैसा कह कर मुझे चिढ़ाते थे, उन्हें मेंटल के दौरान अध्यापक द्वारा झापड़ मारे जाने के लिए कहने पर मैं बहुत जोर से मारता था जिससे वे तिलमिलाकर रह जाते थे किंतु वे अध्यापक के डर से कुछ कर नहीं पाते थे। बाद में कई छात्र मेंटल वाला घंटा आने से पहले मुझसे गिड़गिड़ाते हुए कहते: आज जोर से मत मरिहा।यह लघु के लाघव का परिणाम है, जो दीर्घों को भी हँसाने में समर्थ है। एक आना का बिगड़ा हुआ रूप ए कानापर क्या आपने गौर किया। अगड़ा हुआ रूपनहीं, ‘बिगड़ा हुआ रूप। भोजपुरी में ध्वनि में रूपांतरित हो जाती है। इस तरह ए कानातुलसी राम के भीतर विशेष रूप से गड़ गया। सवर्ण बच्चों ने यह विशेष तरीक़ा क्यों अपनाया? इसलिए कि उन्हें एक ओर तो तुसली राम को चोट पहुँचानी थी, तो दूसरी ओर अपनी रक्षा भी करनी थी। इस आसान तरीक़े ने उन बच्चों के तत्कालीन दुख को कम करने की बजाय और बढ़ा दिया, जबकि तुलसी राम का दुख कम हुआ। अगर वे बच्चे कठिन रास्ता चुनते और अगर तुलसी राम को झापड़ न भी मार पाते, तो उससे मार खाने से तो बच ही जाते। आज वे न जाने किन-किन की झापड़ खाते, ‘जोर से मत मरिहाकहते-रिरियाते जीवन गुजार रहे होंगे। यहाँ एक चीज़ गौर करने लायक है कि तथाकथित विकसित आज से हमारा पिछड़ा कल कितना सहिष्णु था। एक क्षत्रिय अध्यापक दलित छात्र से सवर्ण छात्रों को पिटवाता है, परंतु कोई भी अभिभावक इसकी शिकायत नहीं करता, जबकि आज तो बात-बात में शिकायत पहुँच जाती है। इसी क्रम में हमारी शिक्षा व्यवस्था पर व्यंग्य भी दिखता है। अभाव ही सृजन की जननी है। तुलसी राम ने इसे गहा है। थपुआ पर लिखना, जानवरों को चराते समय ज़मीन पर ही सवाल हल करना, इत्यादि-इत्यादि अभाव के ही प्रमाण हैं। आज न जाने कितने कागज़-कलम-पेंसिल बरबाद हो रहे हैं, परंतु गहन शिक्षा कहीं दिख ही नहीं रही। स्कूल-कॉलेज, मशीन तैयार कर रहे हैं। शिक्षा मनुष्य के रूप में जीवन जीने का सलीका सिखाती है। आज की शिक्षा-पद्धति का इससे दूर-दूर का भी नाता नहीं, वह तो मनुष्य को संसाधन में तब्दील कर रही है। संसाधन की अपनी कोई इच्छा-सोच नहीं होती। वह तो उपयोगकर्ता की इच्छा-सोच के अनुसार वर्तती है।    
     
      उपभोक्तावाद मनुष्य और मनुष्यता से अधिक संसाधन पर ज़ोर देता है, जबकि मुर्दहियाइस पर ज़ोर देती है कि विकास संसाधनों के आधिक्य का मोहताज नहीं होता। संसाधनों का आधिक्य तो साधक को साध्य से ही दूर कर देता है। हम संसाधनों का अधिक उपभोग करने के कारण निरंतर क्षरित हो रहे हैं। तुलसी राम ने ख़ुद को विशेष नहीं, सामान्य दलित के रूप में पेश किया है, इसीलिए आत्ममोह और आत्मप्रशंसा से बचने में सफल हुए हैं, अन्यथा आत्मकथाएँ ख़ुद को विशेष करने के प्रयास में अपने संघर्ष को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करती हैं, जिससे रचना का प्रभाव घनीभूत न होकर बिखर जाता है। व्यक्ति के रूप में हम सभी उपभोक्तावाद से बुरी तरह परेशान हैं। अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए बेतरह साधनों को इकट्ठा करने में ही खप रहे हैं। बच्चों को सब कुछ बाज़ार ही उपलब्ध करा रहा है, उसे तो कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं। ऐसे में उनमें कुछ करने-बनने की साध पैदा हो तो कैसे? शिक्षा-क्षेत्र तुलसी राम के जीवन से बहुत कुछ सीख सकता है, जिसका जीवन गतिविधियों से भरपूर है। पढ़ने के लिए उसे समय की किल्लत है, फिर भी वह उसे चुरा ही लेता है। वह इस चुराए हुए समय का सदुपयोग प्रेमियों की तरह करता है। ऐसा इसलिए होता है कि वह अपने परिवेश और व्यवस्था की शिकायत न करके उसे बदलने की कोशिश करता है, जिससे ख़ुद भी बदलता जाता है। इस तरह यह पूरी आत्मकथा एक गतिशील द्वंद्व बन जाती है, अपने अतीत की ख़ामी-ख़ूबियों को द्वंद्वती-गुणती-संयोजती। इसीलिए अत्यंत गतिशील और संघन है। शिक्षा कहीं भी किसी भी समय और स्थिति में अर्जित की जा सकती है। नटिनिया और तुलसी का पढ़ना-पढ़ाना क़ाबिले ग़ौर है, “मैंने शुरू में उसे चिकनी जमीन पर खपड़े से लिखकर कुछ अक्षर सिखाने की कोशिश की, किंतु उसके पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता था। एक दिन वह एक आँवाँ से निकला हुआ नया थपुआ लेकर आई।...वह कहने लगी कि मैं दुधिया से थपुआ पर लिखकर पढ़ाऊँ। मैं वैसा ही करने लगा।शहरी लोग इसे पढ़ाई का मजाक कहेंगे और नटिनिया की पढ़ाई के हश्र से इसकी पुष्टि भी कर देंगे। कहेंगे कि देखा न ऐसी पढ़ाई का नतीजा। सवाल नतीजे का नहीं, उस ललक का है, जो पढ़ाई के प्रति दिखती है। साधनहीन ग्रामीणों के लिए जमीन ही ओढ़ना-बिछौना भी है और स्लेट-पटरी भी। वह उसी पर लिखता-मिटाता आगे बढ़ता जाता है। विषम परिस्थितियाँ हुनरमंद बनाती हैं। भैंस चराता तुलसी साधन और समय के अभाव में जिस तरह जमीन पर सवाल हल करता था, कुछ उसी तरह बाबा नागार्जुन भी लिफ़ाफों और बस की टिकटों पर कविता लिखा करते थे। ये प्रसंग साधन-हीनता का रोना रोनेवालों के गाल पर चपत हैं। यहाँ तुलसी का जमीन पर सवाल हल करना, जमीनी सवाल हल करने का प्रतीक भी बन जाता है। परंतु हम लोग तो जमीनी सवाल को कागज पर हल करते हैं। क्या यह क़रारा व्यंग्य नहीं है। हम सभी जानते हैं कि हर क्रिया दो विरुद्धों का सामंजस्य होती है, इसलिए स्थिर होकर देखने पर उसका दो विरोधी प्रभाव पड़ता है। मसलन, कमज़ोर को मदद की जानी चाहिए। मदद क्यों की जानी चाहिए? इसलिए कि वह भी मजबूत बन सके। यह इसका मर्म है, मगर अगर मदद के बावजूद भी वह मजबूत नहीं बना, जिस तरह नटिनिया लिखना सिखाने के बाद भी लिखने में समर्थ नहीं हुई, तो क्या सिखाने वाले को उसे सिखाते ही रहना चाहिए! स्पष्ट है कि नहीं। जीना किसी न किसी देश-काल में होता है। इसलिए अपने देश-काल में एक पैर जमाने के उपरांत ही दूसरा पैर उससे बाहर किया जा सकता है। मतलब कि कोई भी इनसान अपने देश-काल से एक क़दम ही आगे बढ़ सकता है, इससे अधिक नहीं। ऊपर जमीन और थपुए पर लिखने का जो जिक्र हुआ है उसी से मिलता एक विदेशी प्रसंग है, जिसे आप भी देखे, मलालई किसी मध्ययुगीन अफगानी राजा की बेटी थी, जिसका लगाव उसके ही एक गुलाम से हो गया था। घबराकर राजा ने मलालई को जेल में बंद कर दिया। जेल की कोठरी में उसके पास न कागज था न कलम। अत: वह उंगलियों को घायल कर निकलते हुए खून से दीवारों पर लंड़इयाँ लिखने लगी। ये रचनाएँ बाद में चलकर पश्तो साहित्य की अमूल्य निधि सिद्ध हुईं।इस तरह यह स्पष्ट है कि साधन-हीनता ही हुनर की जननी है। आज की शिक्षा-पद्धति ने तो जैसे लघु और लाघव को देश-निकाला दे दिया है। तुलसी राम मनुष्य के लाघव की ओर ध्यान खींचते हैं, तभी तो इसे विदेशी प्रसंग के द्वारा पुष्ट करते हैं। उन्हें अपनी साधन-हीनता पर कोई दुख नहीं, दुख है तो हमारे सामाजिक ताने-बाने से, जिसमें कोई अछूत है तो कोई सवर्ण। देखने की बात यह है कि वे इस सामाजिक व्यवस्था से गहन प्रेम करते हैं, परंतु उसकी बुराइयों को गले नहीं लगाते। वे जिस सामाजिक व्यवस्था की उपज हैं, उसके प्रति उनमें गहन ममत्व है। वे उसके प्रति श्रद्धानत भी हैं और उसकी बुराइयों को दूर करने भी लगे हैं। हम जिसे जितना चाहते हैं, उसके दुर्गुणों को उतना ही दूर करना चाहते हैं। मुर्दहिया में भिन्न-भिन्न समाजों की भरमार है, बावजूद इसके वह एक समाज की कथा होने का एहसास कराती है। ऐसा इसलिए हुआ है कि वे एक-दूसरे से अलग-थलग न होकर एक-दूसरे में आवन-जावन करते हैं। मतलब कि तुलसी राम ने भिन्न-भिन्न समाजों को ऐसे अभिन्न किया है कि मुर्दहिया एक संकुल नज़र आती है। ऐसा समाज जिसमें भिन्नताओं की भरमार है बावजूद इसके वे अभिन्न हैं। मुझे अचरज होता है कि तुलसी राम ने किस तरह भिन्न-भिन्न समाजों को कई भिन्नों में तब्दील किया होगा। फिर उन्हें अपनी संवेदना से गुणा होगा। इतनी बारीक़ भिन्नता तो कम ही देखने को मिलती है। इस प्रकार कह सकते हैं कि विविध भिन्नों का विविध प्रकार से अभिन्न रूप ही मुर्दहिया है, जिससे विविध और विभिन्न स्वर निकलते हैं, जो मर्म को छूने के साथ गतिविधि करने को प्रेरित भी करते हैं।

श्री राम त्रिपाठी




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