फिलस्तीनी लोकधर्मी कवि महमूद दरवेश


वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी ने 'विश्व के लोकधर्मी कवियों की परम्परा' पर पहली बार के लिए श्रृंखलाबद्ध ढंग से लिखा है। नवी कड़ी में प्रस्तुत है फिलीस्तीन के मशहूर कवि महमूद दरवेश पर यह आलेख।
   
विजेन्द्र

महमूद दरवेश की एक कविता है, ‘विरोध’। उसमें कहा है -

तुम मेरी बेडि़यो को कसो
मेरे कागज पत्तर छीन लो


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अंतःकरण का खून होती है कविता
नाखूनों से लिखी गई है यह
बेडि़यों और हथकडि़यों की हिंसा में
लाखों चिडि़याँ यु
द्ध गीत गा रही हैं
बैठ कर
मेरे हृदय की टहनियों पर


लगता है दरवेश की कविता हथकडि़यों और बेडि़यों में जकड़े किसी ऐसे कैदी की कविता है जो अपने देश, जाति, तथा अपने प्रिय जनों से जुदा कर दिया गया है। अर्थात् अंतहीन त्रासद निर्वासन। कहना न होगा पूरी फिलस्तीनी कविता ही निर्वासन  से उपजी गहन त्रासदी की कविता है। यहाँ दो बातें  लक्ष्य हैं। एक तो कवि के निर्वासन के मूल कारक सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक हैं। दूसरे दरवेश का निर्वासन अन्य क्रांतिकारी कवियों के निर्वासन से  भिन्न है। विश्व के अन्य महान लोकधर्मी कवि जैसे नेरुदा, नाजि़म हिकमत, ब्रेख्त, लोर्का तथा वोले शयिंका आदि कवियों ने भी निर्वासन की गहन त्रासदी झेली थी। पर यह अस्थाई थी। दूसरे, कवि के निर्वासन से उनके देशों की जनता निर्वासित नहीं हुई। पर दरवेश का निर्वासन अनिश्चित और अंतहीन है। साथ ही उनके देश की पूरी जनता ही निर्वासित होकर दरबदर भटक रही है। वह दरबदर ही नहीं है। बल्कि देश तथा जाति बदर भी है। लाखों फिलस्तीनी जहाँ तहाँ दरबदर भटक रहे हैं। इसका एहसास वही कर सकता है जिस से उसका देश -उसकी जातीय संस्कृति तथा संपत्ति और आत्मीय परिजनों को छीन कर उसे कभी न लौटने को कह दिया गया हो। कुछ लोगों का मानना है कि समग्र फिलस्तीनी साहित्य 1948 के बाद से अनिवार्यतः निर्वासन तथा उसके प्रति घोर प्रतिरोध का साहित्य है। दरवेश की त्रासदी ज्यादा सघन इसलिये भी है कि वह इजराइल में पैदा हुये।  पर वह न तो वहाँ रह पाये। न उन्हें वहाँ लौटने की अनुमति मिली। उनकी एक कविता है , ‘ओ पिता मेरे, यूसुफ हूँ मैं’  में कहा है -

यूसुफ हूँ मैं ओ पिता
मेरे भाई
मुझे प्यार नहीं करते
वे नहीं चाहते
मैं रहूँ उनके बीच
मुझ पर वे आक्रमण करते हैं
ओ पिता
वे मुझ पर फेंकते हैं पत्थर
गालियों की बौछारे करते हैं
मुझ पर
चाहते हैं मेरे भाई
मेरा मरना
जिस से वे मेरी
झूठी  तारीफें कर सके
वे मेरे आगे
करते हैं बंद तुम्हारे द्वार
मुझे कर दिया गया निर्वासित
खेतों से
मेरी अंगूर की बेलों में
उन्होंने ज़हर भर दिया है
अधिक कृपालु होता है भेडि़या
मेरे भाइयों से


यह है त्रासदी दरवेश की जो सारे फिलस्तीनियों की भी है। कैसी त्रासद विडम्बना है कि महमूद दरवेश पैदा हुये  13 मार्च, 1941 में - इजराइल के पश्चिमी क्षेत्र गैलिली के एक गाँव अल-बिरवा में। जून 1948 में इजराइली सेना ने उनके उपर्युक्त गाँव पर अक्रमण किया। सात साल की उम्र में ही उन्हें तथा उनके परिवार को लेबनान के लिये निर्वासित होना पड़ा था। सेना ने उनके गाँव अल- बिरवा को  पूरी तरह तहस नहस कर दिया था। जिससे गाँव के लोगों का वहाँ किसी तरह पुनर्वास न हो सके। एक वर्ष के बाद दरवेश का परिवार देरे-अल - असद में आ के वस गया। यह क्षेत्र अब इजराइल का हिस्सा बन चुका है। दरवेश इजराइल  के हो कर भी कवि कहलाये फिलस्तीन के ही। किसी भी संवेदनशील कवि की देश से बदर होने की त्रासदी कितनी हृदय विदारक तथा असह्य हो सकती है यह हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। तभी तो उनकी कविता में उस गहन पीड़ा की बार बार अभिव्यक्ति होती है -

उसके मुँह पर
उन्होंने जंजीरे कस दीं
मृतकों की चट्टान से
उसके हाथों को बाँध दिया
उसको कहा ‘हत्यारे हो तुम’
उन्होंने छीन लिये उसके वस़्त्र
उसका खाना
और पताकायें
मृतकों के कुँए में
उसे फैंका गया
कहा गया वह चोर है


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अपनी जलती आँखों को
रक्त सने अपने हाथों से कहो
यह रात भी गुज़र जायेगी
नीरो ही मरा था
रोम नहीं
लड़ा था वह
अपनी आँखों से
गेंहूँ के सूखे दाने
खेतों को बना देंगे भरपूर
हरी करोड़ो बालियों से


दरवेश की कविता चाहे जितनी ही भयानक त्रासदी को व्यक्त करे पर उसमें विकल्प और उम्मीद की दिशा जरूर बनी रहती है। दरअसल दरवेश अपनी जनता की धड़कने व्यक्त करते हैं। वह फिलस्तीन के जातीय कवि हैं। उनकी कविता में फिलस्तीन एक  रूपक बनकर बार बार उभरता है। एक ऐसा रूपक जो खोये हुये स्वर्ग का पर्याय  है। उसके जन्म और उसके पुनर्जन्म का भी। यही नही बल्कि उनकी कविता किसी की अति प्रिय चीज से उसके हक को छीन कर उसे निर्वासित करने की गहन पीड़ा को भी व्यंजित करती है। दरवेश को इस्लामी जगत में  परंपरित राजनीतिक कविता का ‘अवतार’ कहा गया है।

उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘असाफिर  बिला अजनिहा’ अर्थात ‘पंख विहीन पक्षी’ जब प्रकाशित हुआ तब कवि सिर्फ 19 वर्ष के थे। शुरू में उनकी कवितायें इजराइल की कम्युनिस्ट पार्टी की साहित्यिक पत्रिका ‘अल- जदीद’ में प्रकाशित होती रहीं। बाद में वह स्वयं इस पत्रिका के संपादक हो गये। वह इजराइल की श्रमिक पार्टी (मैपाम) की साहित्यिक पत्रिका के सह संपादक भी बने। कहा जाता है कि दरवेश पर अरबी कवियो का असर है ।


दरवेश  1970 के आस पास सोवियत रूस में अपनी तालीम के लिये चले गये। वहाँ उन्होंने एक साल तक मास्को विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। उसके बाद वह पहले मिस्र  फिर में लैबनान आ गये। 1973 में जब वह पी0एल0ओ0 से जुड़े तभी उन्हें इजराइल मे प्रवेश करने से रोक दिया गया था। 1995 में अपने साथी एमिले हबीबी की अंत्येष्ठि में शरीक होने के लिये उन्हें हायफा( इजराइल) में सिर्फ चार दिन रुकने की अनुमति दी गई थी। उसी वर्ष उन्हें रामाल्लहा में वसने की अनुमति मिल गई थी। पर वह अपने को निर्वासित ही महसूस करते रहे। उन्होंने वैस्टबैंक को अपनी मातृ भूमि कभी नहीं माना। कहते हैं उनकी दो शादियाँ हुई। पर दोनों से ही तलाक हो गया। उनकी पहली पत्नी राना कब्बानी एक लेखिका थी। दूसरी पत्नी मिस्र की थी। वह अनुवादक थी। दरवेश के कोई बच्चा न था। दरवेश प्राय हृदय रोग से पीडि़त रहते थे। 1984 में उनको हृदयाघात हुआ। दो बार उनके हृदय की शल्य चिकित्सा भी हुई। इजराइल में उनका अंतिम आगमन 15 जुलाई, 2007 में हुआ था। उन्होंने एक काव्य गोष्ठी में शिरकत की थी। इस अवसर पर उन्होंने उस समय हो रही हिंसा की आलोचना भी की है। कवि ने आत्मघाती हमलों का विरोध भी किया है।

दरवेश के तकरीबन 30 कविता संग्रह छपे हैं। आठ किताबे गद्य की भी हैं। वह कई एक पत्रिकाओं के संपादक भी रहे। 1965 के युवा कवि दरवेश ने बहुत बड़े जनसमुदाय के सामने अपनी प्रसिद्ध कविता ‘पहचान पत्र’ का पाठ किया था। इस काव्य पाठ ने भारी  शोर शरावा और विवाद खड़ा कर दिया। देखते देखते इस कविता की अनुगूँजें पूरे इजराइल तथा अरब दुनिया में पसर गई। यह कविता दरवेश के दूसरे कविता संग्रह, ‘जैतून की पत्तियाँ’ में संग्रहीत है। इस कविता की खूबी है एक ऐसी दर्दनाक चीख जो बार बार कहती है, ‘लिखो, ‘अरब हूँ  मैं’। शायद इस कविता के कथ्य ने ही नया विवाद खड़ा किया होगा -

लिखो -
अरब हूँ मैं
पचास हज़ार है
मेरे पहचान पत्र की संख्या
बच्चे आठ हैं मेरे
गर्मियों के बाद
आने वाला है नवाँ बच्चा
आप नाराज़ तो नही?
लिखो, अरब हूँ मैं
अपने रोज़गार में लगा हुआ
एक खदान के साथी के संग
बच्चे आठ है मेरे
उन सबके लिये
रोटी, कपड़ा, किताबों का प्रबंध
चट्टानों से ही करता हूँ
पर तुम्हारे दरवाज़े पर
कभी भीख नहीं माँगता
न अपने को तुच्छ समझता हूँ
तुम्हारे दरबार की सीढि़यों पर
तो फिर नाराज़ हैं क्या आप
लिखो, अरब हूँ मैं 
एक नाम हैं
मेरे पास बिना किसी उपाधि के
धैर्यशाली अपने देश में
जिसका हर आदमी
बेहद नाराज़ है
मेरी जड़े
तय हो चुकी थी
समय के जन्म से पहले ही
बल्कि सदियों के शुरू होने से पहले ही
जैतून और चीड़ के वृक्षों से
पहले ही
घास के फूटने से बहुत पहले
हल चलाते किसान परिवार के थे मेरे पिता
किसी कुलीन खास अधिकार प्राप्त
वर्ग से नहीं
दादा मेरे किसान थे
उनका पालन- पोषण और जन्म
खास ढंग से नहीं हुआ
अक्षर ज्ञान से पहले
उन्होने बताया गर्व करना सूर्य पर
किसी मामूली चौकीदार की झौंपड़ी सा
मेरा घर था
उसे बनाया गया
बाँस और टहनियों से
तो क्या आपको संतोष है
मेरी इस माली हालत पर
बिना किसी उपाधि के
मेरे पास सिर्फ एक नाम है
लिखो, अरब हूँ मैं
चुरा लिये तुमने बगीचे
मेरे पूर्वजों की धरोहर
वह जमीन भी
जिसे बनाया था उर्वर
अपने बच्चों की मदद से
कुछ भी तो नहीं छोड़ा
हमारे लिये तुमने
इन कठोर चट्टानों के सिवा
उस पर भी
सत्ता का कब्जा होगा
ऐसी अफवाहें हैं
अतः -
प्रथम पृष्ठ के
सबसे शुरू में ही लिखो
नफरत नहीं करता मैं आदमियों से
दूसरों के जनपदों में भी
मैं कभी नहीं घुसता
फिर भी यदि भूखा रहूँगा  मैं
मेरा अधिकार छीनने वालों का माँस
भोजन बनेगा मेरा
सजग रहो
सजग रहो
मेरे गुस्से और मेरी भूख से।


इस कविता में दरवेश एक सच्चे लोकधर्मी कवि की तरह उस संघर्षशील  सर्वहारा की बात कर रहे हैं जो पूरी दुनियाँ में शोषण का शिकार है। उसे सब कुछ से बेदखल कर अपनी तरह मरने- जीने को छोड़ दिया गया है प्रभु वर्ग की कृपा पर। पर उसकी शक्ति का एहसास शायद उसके शोषकों नहीं है। जब उसके अभाव असह्य हो जाते हैं तो उसके विद्रोही तेवर धरती फोड़ लावा की शक्ल ले लेते हैं। ऐसे में कितना किसका विनाश होगा नहीं कहा जा सकता? इसीलिये कवि कविता के अंत में सावधान करता है। समय रहते ही यदि व्यवस्था सुधर जाये तो इस विनाशकारी ध्वंस से बचा जा सकता है।  पूरी कविता में निर्वासन की गहरी आंतरिक पीड़ा है। संघर्षधर्मी प्रतिरोध है। अपनी जातीयता पर गर्व भी। कोई कह सकता है कि एक क्रांतिकारी कवि को अपने लिये ‘अरब’ बताने का इतना उन्माद क्यों ? दरअसल यह उन्माद नहीं है। बल्कि अपने शत्रु के लिये अपनी पूरी कौम को संगठित बताने की चुनोती भी है ! दूसरे, संकेत है कि शत्रु चाहे जितना विनाश करे हम अपनी जातीयता को नहीं खोयेंगे। अतः कविता में पीड़ा, चुनौती, प्रतिरोध तथा जातीय गौरव की ध्वनियाँ जीवंत हुई हैं।


दरवेश फिलस्तीन के प्रतिबध्द तथा प्रतिरोध के  जाने माने कवि हैं। पर 1967 के युद्ध के बाद से उनकी कविता में कुछ पराजय, हताशा तथा ध्वंस की अनुगूँजें भी सूनाई देने लगी थी! ऐसा क्यो हुआ यह हमारी खोज का विषय होना चाहिये। वैसे फिलस्तीनी कविता बराबर प्रतिरोध की कविता ही रही है। 1982 में इजराइल ने लेबनान पर आक्रमण किया। 1987 में वैस्ट बैंक तथा गाज़ा पट्टी में विद्रोह फूट पड़ा। दरवेश ने इस इंतिफादा (विद्रोह) को अपनी दो कविताओं में व्यक्त किया है। ‘गुलाब के कुछ फूल’ तथा ’आयेंगे दूसरे बर्बर भी’। दूसरी कविता में क्रूर शासकों तथा ध्वंसकारी शत्रुओं पर गहरा व्यंग्य है। संकेत है कि कुछ अन्य प्रकार के भी बर्बर हो सकते हैं जो शोषकों तथा ध्वंसकारियों के विनाश का सबब बनेंगे। ये वे बर्बर होंगे जिन्हें अब तक सत्ता बंदूक की नौक पर रौंदती रही है । दूब के तिनकों की तरह जिसे फौज अपने बूटों से कुचलती आई है। जब विद्रेाही बर्बरों का समय आयेगा तो तस्वीर बदली हुई होगी। उस समय सम्राट और उनकी सम्राज्ञी उनके अधीन होंगे। ये बर्बर शहर के रिक्त को भर देंगे। ढोल बजेंगे। घेाड़े कूदते फाँदते दिखाई देंगे। राजा के दरवार और शयन कक्ष को ध्वस्त कर दिया जायेगा। ऐसा पागलपन तलवार से भी ज़्यादा ताकतवर होता है। संकेत है जब सर्वहारा  क्रांति होती है तो सारी चीज़ें उलट पलट जाती हैं। सारे जीवन मूल्यों में बदल सट्ट होने लगती है। जिसे हम असभ्य तथा बर्बर कहते हैं वह अपने खुले रूप में सामने आ कर सत्ता उलट देता है। रूसी वोल्शिविक क्रांति को साम्राज्यवादी देशों ने ‘बर्बरों का उत्पात‘ ही कहा था। हमारे स्वतंत्रता संग्राम को भी उपनिवेशवादी अंग्रेज़ -‘असभ्यों की अराजकता’ समझ रहे थे। क्रूर प्रशासक जब तक सँभले तब तक बहुत देर हो चुकी होती है -

आयेंगे दूसरे बर्बर भी
कर लिया जायेगा
सम्राट की पत्नी का अपहरण
बहुत जोर से
ढोल बजाये जायेंगे
हम क्यों करें चिंता
हमारी बीबियों को
ऐसी घुड़दौड़ से क्या है सरोकार
सम्राट की बीबी को
अपहृत किया जायेगा
ढोल बजाये जायेंगे
आयेंगे दूसरे बर्बर भी
सम्राट की पत्नी को
महल के शयन कक्ष से
उठा लिया जायेगा
इस क्षुद्र विवाह से
मारे गये हज़ारों हजार का क्या रिश्ता
क्या होमर
हमारे बाद पैदा होगा
जो खोल सके
इन मिथको का रहस्य।


इस कविता से दरवेश उस बुनियादी परिवर्तन की समूची प्रक्रिया तथा उसके बाद के हालात से हमें अवगत करा रहे हैं। सर्वहारा क्रांतियों का इतिहास कुछ कुछ ऐसा ही रहा है। इससे लगता है दरवेश अपने वतन के लिये सब कुछ सहने करने को तैयार हैं। उन्हें अपनी धरती से अगाध प्यार है-

अपनी धरती के लिये
जो बहुत करीब है
ईश्वर की वाणी के
अपनी धरती के लिये
जो विशेषणों और संज्ञाओं से दूर है
वह नहीं है
तिल के बीज भर
एक सुंदर क्षितिज
एक छिपी हुई गुफा अपनी धरती के लिये
कितनी असहाय है
बटेर के परों की तरह
पावन कृतियाँ
अपने चिन्ह का एक घाव
अपनी धरती के लिये


दरवेश अपने देश की धरती को -उसके भूदृश्यों तथा वहाँ की प्रकृति को उसी बेचैनी से याद करते हैं जैसे नाजि़म अपनी तुर्की तथा वहाँ के भूदृश्यों  को। नेरुदा अपनी चीले तथा वहाँ की समृद्ध प्रकृति को। वोले शयिंका अपनी नाइजीरिया को और लोर्का स्पेन के अपने जनपद को। यह बात हमें इन बड़े कवियों से सीखनी चाहिये। दरवेश अपनी धरती का भूगोल बताते हुये कहते हैं -

वह कटी पिटी मगरियों से
घिरी हुई है


उस की सीमा पर छिपे छिपे हमले होते हैं। उसने युद्ध झेले हैं। वह खून से सनी है। उस पर रहने वालों को मरने की आज़ादी है। उसका सौंदर्य उन्हें एक नगीने की तरह झिलमिलाता लगता है -
बहुत दूर से झिलमिलाता एक नगीना है


यह नगीना बाहर से तो चमकता है। पर इसमें रहने वालों का दम घुट रहा है। वे लाचार हैं  उनके सारे हक छीन लिये हैं। उनके घर तबाह कर दिये गये हैं। फिर भी अपनी धरती से उन्हें बेहद प्यार है। यही वह  जातीयता का गहरा बोध है जो दरवेश की कविता को बडा और प्रेरक बनाता है। उनके सरोकार  समाज तथा राजनीति निरपेक्ष नहीं हैं।  दरवेश को उजड़े गाँव, युद्ध की विभीषिका, भविष्य के गर्भ में छिपी उम्मीद -सब कुछ याद आता है अपनी धरती के प्रसंग में -

भीतर उसके
बहुत दम घुटता है हमारा
ध्वस्त किये जा चुके गाँव में
एक बे-जान शाम
अधझपी सी आँखें 

रता हूँ याद मैं
तीस साल
उनमें घटित पाँच युद्ध
यकीन है मुझे पूरा
भविष्य के गर्भ में छिपा है
मेरा भुट्टा


यह सब होते हुये भी कविता और गान नहीं रुकते।  कोई यदि पूछे तुम क्यों और क्या गाते हो। उसका जवाब है सिर्फ

मैं गाता हूँ
क्यों कि मैं गाता हूँ


शत्रु के गुरगे फिलस्तीनियों को जलील करने के लिये उनकी तलाशी लेते हैं। उनकी हर समय जासूसी होती है। उनके कनसुये लिये जाते हैं। उस पर तीखा प्रहार करते हुये दरवेश कहते हैं -

उसके सीने की तलाशी ली उन्होंने
उसका हृदय मिला सिर्फ उनको
आवाज़ की तलाशी ली उन्होंने
दुख मिला सिर्फ उनको
तलाशी उन्होंने दुख की भी ली
मिला उन्हें सिर्फ कैद खाना
जब कैद खाने को टटोला
वहाँ  पाया बेडि़यों में खुद को


दरवेश की कविता को यदि ऐतिहासिक क्रम में ध्यान से पढ़ा जाये तो लगता है कि उनकी प्रारंभिक लेखन शैली अरब क्लैसिक्स के असर में है। उन्होंने एक तुकीय छंद अपनाया है । इसका गहरा सम्बंध अरबी के क्लैसिक्स से है। पर 1970 से उन्होंने अपनी इस परम्परित छंद परम्परा को तोड़ा है। उसके स्थान पर उन्होने मुक्त छंद अपनाया। यह क्लैसिकल परम्परा से बिल्कुल हट कर है। जिस तरह हमारे यहाँ निराला ने छंद के बंधन को त्याग मुक्त छंद अपनाया था। दरवेश की प्रारंभिक कविता का लगभग रोमेंटिक मुहावरा अब बदलने लगा था। इस में निजता अधिक थी।  भाषा अधिक लोचमय। नम्य और सहज।  दरवेश की कविता में सपाट बयानी के स्तर पर कहीं कहीं नारा भी लग सकता है। यह सिर्फ बुर्जुआ आँखों का धोखा है। जब हम राजनीतिक और सामाजिक सरोकारों की बड़ी कविता की ओर बढ़ते हैं तो यथास्थितिवादी जड़ बुर्जुआ समीक्षक ऐसी कविता को ‘नारा’ कह कर उसे हेय करार देते हैं। पर वह श्रेठ कविता होती है। अपनी जनता को समर्पित कविता के लिये हम बुर्जुआ काव्य प्रतिमनों से नहीं परख सकते। उत्कृष्ट कविता भी एक संदेशगर्भित रचनाशील नारा ही है। हिंदी में जाने कितने ही ऐसे कवि और समीक्षक हैं जो जन सामान्य को सम्बोधित कविता को राजनीतिक कविता कह कर उसे झुठलाते हैं। उसे हेय समझते हैं। जैसे नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल की अनेक राजनीतिक कवितायें। अगर हम अपनी संघर्षशील जनता की नियति से अपनी नियति को जोड़ के रखेंगे तो हमें बुर्जुआ प्रतिमानों का तिरस्कार करना ही पड़ेगा। लोकधर्मी कविता के  उचित मूल्यांकन के लिये लोकधर्मी काव्य प्रतिमान हमें विकसित करने की पहल करनी होगी। दरवेश खुले रूप में जनता के समर्थक एक लोकधर्मी प्रतिबद्ध कवि हैं । जहाँ तहाँ उनकी कविता पर इराकी कवियों का भी असर है। एक समय ऐसा भी आया जब दरवेश ने फ्रांस के प्रतीकवादी कवि रिम्बो तथा अमरीकी पतनशील कवि गिन्सबर्ग में भी रुचि ली थी। पर उनकी कविता पर उनका असर बोलता नहीं दिखता। दरवेश हैब्रू कवियों से भी प्रभावित थे। लेकिन इसे उन्होंने एक चुनौती की तरह स्वीकार किया है। क्योंकि दोनों ही एक ही स्थान के बारे में लिख रहे थे। दरवेश ने अपने देश के भूदृश्य तथा इतिहास अपने काव्य सृजन के लिये बहुत अंदर तक  पचाया है। क्योंकि उनकी पहचान को बराबर ध्वस्त किया जा रहा था। इस प्रकार एक तरह की होड़ थी कि इस देश की भाषा का अधिकारी कौन  है? इसे कौन ज़्यादा प्यार करता है? इस में कौन उत्कृष्ट कविता लिख सकता है?


आज दरवेश एक प्रकार से फिलस्तीनी कविता के प्रतिनिधि कवि का प्रतीक बन चुके हैं । साथ ही अरब दुनिया का इजराइल के विरुद्ध प्रतिरोध के वह प्रवक्ता भी माने गये हैं। पर दरवेश ने कहा है कि वह यहूदियों को घृणा नही करते। वह इजराइल को भी प्यार करते हैं।  इसमें संदेह नहीं कि दरवेश ने अरबी भाषा में काव्य रचना की है। पर वह अंग्रेजी, हैब्रू तथा फ्रेंच बेहतरीन बोलते थे। उनका हैब्रू भाषा पर अधिकार था। उनकी कविता का विरोध इजराइल में ही नहीं बल्कि कठमुल्ला अरब की दुनिया में भी था। दरवेश में हैब्रू भाषा को ‘प्यार की भाषा’ तक कहा है ।

दरवेश कवि होने के साथ साथ नेरुदा की तरह राजनीति में भी सकिय थे। पी0एल0ओ0 से जुड़ने से पहले  वह इजराइल की कम्युनिस्ट पार्टी ‘राखा’ के सक्रिय सदस्य थे। उन्होंने सदा इजराइल से सख्त और नरम रुख अपना कर संधिवार्ता करने की कोशश की थी। उन्होंने इजराइल तथा फिलस्तीन दोनों की गलत बातों की आलोचना भी की है। उनकी धारणा थी कि शांति से दोनों देश स्वतंत्र रूप से रह सकते हैं। वह निराश नहीं थे। उनमें बेहद धैर्य था। उनका मानना था कि उन्हें पूरा भरोसा है कि एक न एक दिन इजराइलियों का मन बदलेगा।  उनके मन में गहरी क्रांति होगी। अरब एक शक्तिशाली इजराइल को स्वीकार करने के लिये तैयार हैं। बस हमें शांति वार्ता के द्वार सदा खुले रखने चाहिये।

महमूद दरवेश की मृत्यु 9 अगस्त, 2008 को हुई। वह 67 वर्ष के थे। उन्हें विश्व के बड़े बड़े पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। 1970 में  अॅफ्रो-एशियाई लेखक सम्मेलन  दिल्ली में आयोजित था। महमूद दरवेश को इस विराट सम्मेलन में ‘लोटस पुरस्कार’ से अलंकृत भी किया गया था।

उनके विचार से इजराइल और फिलस्तीन के बीच उलझी समस्या के समाधान खोजे जा सकते हैं । प्रारंभ में युवा कवि दरवेश सोचते थे कि कविता सब कुछ बदल सकती है। इतिहास को बदल कर उसको अधिक मानवीय बना सकती है। वह ‘संभ्रम’ को कवि में जरूरी मानते हैं। संभ्रम कवि को प्रेरित करता है। उसे आगे बढ़ाता है। पर बाद में उन्होंने माना कि ‘कविता सिर्फ कवि’ को ही बदल सकती है। यह निराशा इसलिये पैदा हुई क्योंकि दरवेश कविता से सब कुछ बदल देना संभव समझते थे। कविता से मनुष्य का हृदय, संवेदना, विश्वदृष्टि तथा अभिरुचि तो बदली जा सकती हैं। पर सब कुछ नहीं। हमें कविता से उतनी ही अपेक्षा करनी चाहिये जितना उसका क्षेत्र है। अन्यथा हमें ऐसी ही निराशा हाथ लगेगी। दरवेश एक प्रौढ़ विचारक की तरह अनावश्यक हिंसा तथा बचकाने उग्रवाद के विरोधी थे। mआत्मघाती बमों का उन्होंने विरोध किया है। पर यह जानना चाहिये कि इन नव युवकों को कौन से कारक आत्मघाती बम बनने को प्ररित करते हैं? यह बात हमारे यहाँ नक्सली हिंसा के बारे में भी कही जा सकती है। क्यों आखिर नौजवान अपने को समाप्त कर लेते हैं? यह कोई प्रौढ़ विचारधारा नहीं है। बल्कि भीतर बैठी हमारी निराशा का ही दुष्परिणाम  है। फिलस्तीन की जनता जीवन को प्यार करती है। यदि हम उन्हें उम्मीद बँधायें - उन्हें एक राजनीतिक हल दें- तो वे अपने आप को आत्मघाती बम बनना त्याग सकते हैं। दरवेश में जहाँ तहाँ व्यंग्य मुद्रायें भी हैं -

हमारे बेटों ने
निर्वासित शहजादियों से
ब्याह रचा लिये हैं
जो बदल चुकी है अपने नाम
हम छोड़ आये हैं अपनी किस्मतें
उनके पास
जिन्हें फिल्मों में पराजय देखना
अच्छा लगता है
अपने रेत पर
हमने अपने रास्तों को पढ़ा है
भोर के जमुहाई लेते
चित्र की तरह
न तो हम साफ हैं
न पोशीदा


दरवेश का मानना है कि व्यंग्य उन्हें जीवन की उस कठोरता से बचाता है जिसे हम जीवन में झेलते रहते हैं। हमारे घावों को राहत देता है। जीवन में लोग मुस्करा भी लेते हैं। व्यंग्य आज के जीवन  यथार्थ से ही नहीं जुड़ा है बल्कि वह इतिहास से भी नालबद्ध है। व्यंग्य इतिहास में रौंदने वालों तथा रौंदे गये लोगों- दोनों का ही मज़ाक उड़ाता है। दरवेश अपने शत्रु को भी मानवीय बनाने की बात करते हैं। इसीलिये वह इजरालियों को घृणा नहीं करते।  उनके पहले शिक्षक जिन्होंने उन्हें हैब्रू पढ़ाई वह एक यहूदी ही थे। बल्कि जिस लड़की से पहली बार उन्होंने प्रेम किया वह भी एक यहूदी थी। जिस स्त्री न्यायाधीश ने उन्हें जेल भेजा वह भी यहूदी ही थी। अतः शुरू से वह यहूदियों को न तो दानव समझते हैं। न देवदूत। उनके लिये वे सिर्फ मनुष्य ही हैं। जैसे हम तथा और हमारे साथी। उनकी अनेक कवितायें यहूदी प्रेमियों- प्रेमिकाओं  को सम्बोधित हैं। इन कविताओं में प्रेम का संदेश है। युद्ध या आतंक का नहीं।

इस से लगता है दरवेश के सरोकार बहुत व्यापक तथा मानवीय हैं। वह लोकधर्मी क्रांतिकारी कवि होकर भी प्रेम, सौंदर्य, प्रकृति, करुणा मैत्री तथा गहरे मानवीय सम्बंधों के एक अनौखे युग द्रष्टा कवि हैं। लोकधर्मी कवि को ऐसा ही समग्र कवि होना चाहिये।


दरवेश की एक अत्यंत महत्वपूर्ण  लम्बी कविता है, ‘सैनिकों के घेरे में’। यहाँ दिलचस्प भूदृश्य है। सैनिकों  के  बीच घिरे होने की आंतरिक बेचैनी। फिर भी अपने देश के लिये भारी उम्मीदें हैं। इस कविता में दरवेश अपने शत्रु के कारनामों, उसकी ताकत तथा अपने भविष्य की बात भी सोचते हैं। संरचना, प्रभावी बिंबविधान, मुक्त आवेगमयी लय, द्वंद्वमय नाटकीयता तथा नितांत बोल चाल की भाषा की दृष्टि से यह कविता एक मील का पत्थर है-

यहाँ पर्वत ढलानों में
धुँधलके और समय की तोप का
सामना करते हुये
टूटी बिखरी परछाइयों के
उद्यान के पास
कैदियों  के से कामों में नधे
निठल्लों की तरह कर्महीन
हम उम्मीद जगाये हैं


इतनी विकट परिस्थियों में भी दरवेश अपने देश के उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद कभी नहीं छोड़ते। आशा और विश्वास का यही स्वर हमें नाजि़म, ब्रेख्त वोले शयिंका तथा नेरुदा में भी मुखर दिखता है। हमारे यहाँ नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार बाबू, कुमाल विकल  कुमारेंद्र तथा मानबहादुर सिंह की कविता भी हमें कभी नाउम्मीद नहीं होने देती। लोकधर्मी कविता की यही  खूबी होती है। पराजय और हताशा के बावजूद उम्मीद जगाये रखना। निराला में भी आशा का शतदल सदा खिला रहता है। दरवेश कहते हैं -

एक देश प्रभात के लिये तैयार है
हम कुछ अधिक बुद्धिमान होते जा रहे हैं
क्योंकि हम विजय क्षण की प्रतीक्षा में
तत्पर हैं


उन्हे पता है रात दिन गोलियों तथा तोपों का सामना करना पड़ रहा है। उनका शत्रु ताकतवर ही नहीं बहुत सजग भी है। नाजिम की तरह दरवेश में मृत्यु जैसे सामने खड़ी रहती है। उसकी उपस्थिति से भी उनके मन में कोई भय नहीं उपजता। बल्कि कवि को अपनी मुक्ति का बराबर एहसास बना रहता है। दरवेश एक सर्वहारा की तरह जानते हैं उनके पास खोने को कुछ भी नहीं है। यहाँ तक कि भविष्य पर भी उनका जैसे काबू हो चुका है -

हमारी रातों में कोई रात
तोप के गोलों से भी
नही चमक उठती
हमारे शत्रु सजग हैं
हमारी अंध कोठरियों में
हमारे लिये
रोशनी किये रहते हैं
यहाँ कोई  ‘मैं’ नहीं है
यहाँ आदमी सिर्फ
दिन की धुंध याद रखता है
मृत्यु के क्षण
वह कहता है
मैं ने खोने को कोई आँक तक
नहीं छोड़ा
मैं मुक्त हूँ
बिल्कुल अपनी मुक्ति के करीब
मेरा भविष्य मेरी मुठ्ठी में है


यही नहीं बल्कि वह इतनी प्रतिकूल हालत में भी अपने जीवन की गहराई कविता के माध्यम से समझने को व्याकुल हैं। वह स्वतंत्र जन्म लेने के लिये आश्वस्त हैं। और बिना माता पिता के भी। यहाँ संकेत है जातीय संघर्ष को सतत आगे बढ़ाने का। यह संघर्ष संगठित जनशक्ति के बल ही पर लड़ा जा सकता है। अतः जनता से एकात्म होना कवि की प्राथमिकता है। इसी लिये कवि उन सब लोगों को संगठित होने का आह्वान करते हैं जो अभी बिखरे हैं। किसी तरह संगठित नहीं हो पाये हैं। संगठन का ऐसा परिपक्व बोध हमारे यहाँ मुक्तिबोध में नहीं है। उनका जोर सिर्फ ‘आत्मसंघर्ष’ पर है। भले ही वह जहाँ तहाँ सर्वहारा का पक्ष लेते दिखते। पर उनके पास उनको संगठित करने की कोई प्रविधि नहीं है। न वैसा दमदार आह्वान। उनकी कविता पढ़ कर लगता है  वह अपने आत्मसंघर्ष में इतने अधिक डूबे हैं कि शेष सारी बातें गौण हो जाती है। नेरुदा हमें बार बार जनता को संगठित करने का बोध कराते हैं। नागार्जुन तथा केदार बाबू भी। मुक्तिबोध में इक्का- दुक्का लोग ‘पोस्टर चिपका कर’ भागते तो महसूस होते हैं। पर न तो वहाँ किसान संगठित दिखते हैं। न सर्वहारा। बिना सुविचारित राजनीतिक संगठन के बुनियादी परविर्तन कैसे मुमकिन होगा? मुझे लगता है मुक्तिबोध की बेहद आत्मग्रस्तता उन्हें संगठित किसानों तथा श्रमिकों के पास नहीं जाने देती। दरवेश, नेरुदा, ब्रेख्त, माइकोवस्की तथा नाजि़म हिकमत में ऐसा नहीं है। आत्मसंघर्ष इन कवियों में भी है। पर वह जनता के बड़े तथा अति व्यापक सामाजिक राजनीतिक संघर्ष- प्रक्रिया का एक आंतरिक हिस्सा ही है। मेरे खयाल से आत्मसंघर्ष अलग से कोई कविता का प्रतिमान नहीं हो सकता। जब तक हम उसे सर्वहारा के संघर्ष का अनिवार्य हिस्सा न बना लें तब तक यह आत्मग्रस्तता ही मानी जायेगी। आत्मसंघर्ष तो कोई भी कवि कर सकता है। इसमें कोई जोखिम भी नहीं है। यह उसकी अपनी आंतरिक जटिल समस्याओं के सुलझाने की एक प्रक्रिया या प्रविधि हो सकती है । जरूरी नही हम आत्मसंघर्ष करके जनसंघर्ष में भी हिस्सेदारी कर सकें! जनसंघर्ष से उछट कर जो कवि आत्मसंघर्ष की शरण जाते हैं उनकी कविता दुरूह होने के लिये बाध्य होती है। आत्मसंघर्ष हमें जीवन के भयावह यथार्थ से  दूर भी ले जा सकता है। मुक्तिबोध जब  भयावह यथार्थ के सामने आते हैं तो फैन्टसी में राहत पाने को ऊँजी उड़ाने भरने लगते हैं। जो मध्यवर्गीय मिजाज़ के  लोग उनकी कविता के फैन्टसी निर्मित रहस्य लोक में  गहराई देखते हैं वे मुक्तिबोध को ठीक से समझने में भूल करते हैं। आखिर मुक्तिबोध या कोई कवि फैन्टसी का कविता में उपयोग क्यों करे? जब हम यथार्थ जीवन में अपनी प्रबल समस्याओं का समाधान नहीं कर पाते तो उनके विकृत रूप को फैन्टसी में देख कर तृप्त हो लेते हैं। यह एक प्रकार का पलायन ही है! मुक्तिबोध स्वयं ने फैन्टसी से यथार्थ के अत्यधिक विकृत होने के खतरे की ओर संकेत किया है। दरवेश के सामने भयावह मृत्यु जैसे खड़ी हो - तब भी वह उस यथार्थ को विकृत नहीं करते। कविता में उनकी सहजता अति वरेण्य है। इस दृष्टि से वह नाजि़म, वाइ जुई तथा ब्रेख्त के करीब हैं। सहज सरल भाषा में बड़ी कविता का निर्वाह एक अति कठिन कर्म है जिसे दरवेश पूरा करते हैं। कविता में गहराई भी संघर्षशील लोक के साथ एकात्म होने पर ही आती है -

अपने जीवन को गहराई से समझूँगा
मैं बिना माता पिता के
स्वतंत्र जन्म लूँगा
मैं अपने अनुसार ही
नील - नभ अक्षर चुनूँगा
तुम जो दहलीज़ पर खड़े हो
अन्दर आओ
हमारे साथ अरबी काफी का
लुत्फ लो
तुम्हें लगेगा
तुम हमारी ही तरह हो
तुम जो खड़े हो घरों के दहलीज पर
हमारे प्रभात समय के बाहर आओ
हमें भरोसा होगा
तुम हम्हारी तरह ही हो


यहाँ अपनी जनता से एकात्म होने की प्रक्रिया साफ है। वे ‘हम जैसे’ लगना। या ‘हम उन’ जैसे लगना एकदम एकात्म होने की स्थिति है। ऐसा मुक्तिबोध चाह कर भी नहीं कर पाते उनका मध्यवर्गीय आभिजात्य उन्हें यह नहीं करने देता! अज्ञेय, केदारनाथ सिंह, कुँवरनारायण तथा विनोद कुमार शुक्ल  भी कौसो दूर है अपनी जनता से। बल्कि कहें वह तथा उसका संघर्ष - उसकी पीड़ा - तो उन्हें  दिखाई ही नहीं देती ! न  उसकी कठिनाइयाँ। न उसका शोषण। न उसकी अपराजेय शक्ति। एक लोकधर्मी कवि को यह बताना ही पड़ता है कि वह किसके साथ खड़ा है? जो कहते हैं कि वे तटस्थ हैं । प्रकारांतर से वे सत्ता के साथ ही होकर अवसरों को भुनाते रहते हैं। साहित्य में तटस्थता की माँग करना ही अवसरवाद को जन्म देता है। कवि को एक नागरिग होने के नाते भी अपने सामाजिक दायित्व बताने होते हैं।

दरवेश की यह कविता बहुत ही संश्लिष्ट है। बार बार नये नये भूदृश्य, दृश्य, परिदृश्य उभरते हैं। प्रत्येक का प्रसंग कविता के केंद्रीय कथ्य से संग्रथित है। केंद्रीय काव्य तर्क हैं सैनिकों से घिरे रहकर भी जीवन को उसकी सार्थक विविधता में जीना। किसी भी तरह अपनी जातीयता के महत्व को न भूल कर एक बेहतर भविष्य की उम्मीद बनाये रखना -

हवाई जहाज़ अदृश्य होते हैं
सफेद सफेद पिण्डुकें उड़ती हुई
अंतरिक्ष के गालों को
धोती हैं
बिना पंख सिकोड़े
अपनी चमक को
दोबारा दिखाती हैं
वे फिर से अपनी उड़ान
और ईथर को पा लेती हैं
ऊँची ऊँची और ऊँची सफेद पिण्डुकें
बहुत दूर उड़ती हैं
ओह ... जैसे आकाश ही सच है


कवि को फिर सैनिकों से धिरे हालात का बोध होता है। वहाँ टैक हैं। स्टील की झाडि़याँ हैं। यह कठिन समय प्रतीक्षा का समय है। अनेक लोग शहीद हो रहे हैं। हमसब नीचे बैठी तलछट की तरह अकेले किये जा रहे हैं। बहुत से लोग जख्मी हैं। कपड़े रक्त में भीगे हैं । कोई ऐसा वस्त्र नहीं जिससे आदमी के शव को ढका जा सके। स्त्रियाँ अपने पति खो चुकी हैं। पिता पु़त्र खो चुके हैं। प्रेमी अपनी प्रेमिकायें को। प्रेमिकायें अपने प्रेमियों को। कैसा समय है? सब कुछ जैसे नष्ट होने को है-

एक आदमी ने मुझे
दो बमों के बीच से गुज़रने की बात कही
साइप्रस के लोग
जवानों के पीछे खड़े हैं
मीनारें आकाश को
ढहने से बचाती हैं
स्टील की झाडी के पीछे
टैंक की चौकन्नी आँखों से बच कर
लोग पेशाब करते हैं
पतझरी दिन अपनी सुनहरी आभा
सड़कों पर बिखेरता है
एक हत्यारे के लिये
यदि तुम
एक मृतक का चेहरा पहचानते हो
और उसके बारे में लगातार सोचते हो
तो तुम्हें गैस चैम्बर में बंद
अपनी माँ याद आयेगी
यदि तुम बंदूक से बच गये होगे


$      $     $


यह प्रतीक्षा करने का समय है
हम नीचे बैठी तलछट की तरह
अकेले किये जा रहे हैं


$      $  $


ओह ...यह क्या सैनिकों का घेरा है
वे अपना वाक्य भी नहीं कह पाते
हमारा अहित
बहुत से हो जाते हैं शहीद
कुछ जख्मी
कुछ दरबदर
खो देते हैं जैतून के कुछ वृक्ष


यह त्रासदी कवि की कविता केा भी प्रभावित करती है। उसकी संरचना लडखड़ाती है। नाटक अधूरे रह जाते हैं। कैनवस पर चित्र नहीं पूरे होते। कितनी गहरी त्रासदी है कि-

एक स्त्री ने बादल से कहा
अपने मृत प्रिय को ढकने के लिये
क्योंकि उसके कपड़े
प्रेमी के खून से तर थे


कैसी त्रासद विडम्बना है! जाने कितने यहूदियों को नाजि़यों ने गैस चैम्बर में बंद करके मार डाला था। इस महान त्रासदी के प्रति हम आज भी नाजि़यों की भर्त्सना करते हैं। पर उन्ही यहूदियों ने इतिहास की इस महान त्रासदी को भुला कर फिलस्तीनियों को बर्बरता से कुचला और रौंदा है। कितना उत्पीड़न! कितना जनसंहार हुआ है! दुनिया जानती है अमरीकी साम्राज्यवाद का एक चेहरा है जो यहूदियों को उकसा कर फिलस्तीनियों का कत्लेआम कराता है। दूसरा छद्मवेशी चेहरा है जो बार बार शांति वार्ता की बात करके उन्हें धोखो में रखता है। पड़ोसी अरब देश अपने तुच्छ हितों को साधने के लिये अमरीका का छिपे छिपे साथ देते हैं। दरवेश की कविता में अपना देश, अपनी जाति अपनी धरती छोड़ने की गहन वेदना है। सबसे बड़ा प्रश्न है फिलस्तीनी जनता अपना जातीय अस्तित्व कैसे बचायें? दरवेश की कविता की हर पंक्ति में ध्वनि है कि वह अपनी धरती के कण कण में अपनी जनता की संघर्षशील तस्वीर देखते हैं। ‘शोक गीत’ कविता में कहा है -

हमारे देश में
लोग दुखों की कहानी सुनाते हैं
मेरे दोस्त की

जो चला गया
और फिर कभी लौटा नहीं 


$      $    $      $


अरी ओ रात, ओ सिता
रो, ओ गलियों, ओ बादल
कोई उन्हें बताये
जवाब नहीं है हमारे पास
यह घाव बहुत बड़ा है
गहन यातना से, दुखों से, आँसुओं से
तुम नहीं सह पाओगी
सच्चाई
क्यों कि तुम ने खो दिया है
अपना बच्चा
माँ तुम मत बहाओ आँसू
उनके स्रोतों को बचा के रखो
शाम के लिये
मौत ही मौत होगी
जब सड़कों पर
ये जब भर जायेंगी
तुम्हारे बेटे जैसे यात्री बेटों  से


$    $     $     $


हमारे देश में
मेरे दोस्त के बारे में
लोग बातें करते हैं
वह गया कैसे
कैसे फिर नहीं लौटा
उसने खो दिया अपना भरा यौवन
गोलियों की बौछारों  से
छलनी हो गये
उसके छाती और चेहरा
घाव देखा है मैं ने उसका
मत पूछो दोस्तो
कब आयेगा वह
सिर्फ यही पूछो
कि लोग कब उठेंगे।

   --0--


(विजेन्द्र जी वरिष्ठ कवि हैं। आज कल पेंटिंग्स बना रहे हैं और गंभीर लेखन में जुटे हुए हैं। 'कृति ओर' पत्रिका के संस्थापक संपादक हैं।)   

सम्पर्क
ई-मेल:
kritioar@gmail.com 
मोबाईल  09928242515 







टिप्पणियाँ

  1. कैसी त्रासद विडम्बना है! जानेव कितने यहूदियों को नाज़ियों ने गैस चैम्बर में बन्द करके मार डाला था। इस विशाल त्रासदी के लिए हम आज भीनाजियों की भर्त्सना करते हैं। पर उन्हीं यहूदियों ने इतिहास की उस बड़ी त्रासदी को भुलाकर फ़िलस्तीनियों को बर्बरता से कुचला और रौंदा है। एकदम ठीक बात कही है।

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  2. लोकधर्मी कवियों की पूरी श्रृंखला ही अदभुत है ...यहाँ कवि महमूद दरवेश को नए रूप में उनकी कविताओं के माध्यम से फिर से जानने और पढ़ने का सुअवसर मिला | आदरणीय कविवर विजेन्द्र जी इसी तरह सृजन करते रहें और हम युवा पीड़ी उनसे सीखते रहें यही हमारी कामना है |

    -नित्यानंद

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  3. कवि दरवेश को अपनी ज़मीन से जुदा कर दिया गया ! यह त्रासदी उनकी कविताओं में नज़र आती हैं !!कविता लिखो अरब हूँ में .... में जातीयता का बोध है !.एक उम्मीद भी मिलती है उन्ही की एक कविता मैं गाता हूँ ...कवि दरवेश से परिचय आपने खूबसुरत अंदाज़ से करवाया है ...बहुत बढ़िया और सार्थक लेख है ! उम्मीद है आगे भी आप लोकधर्मी कवियों की कविताओं को पढ़ने का म़ोका देते रहेंगे ! आप लिखते रहें यही आश है ! धन्यवाद ....! शाहनाज़

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