हरीश चन्द्र पांडे



हरीश चन्द्र पाण्डे









अनुभव और पक्षधरता





समकालीन  कविता  में ऐसे  रचनाकारों  की अच्छी तादाद है जिनकी कविताये बोलती हैं कि उनकी
जड़ें गाँवो में है या फिर शहर में रहते हुए भी गाँव उन्हें बुलाता रहता है. निपट स्मृतियों के गाँव नास्टेलजिक  हो सकते हैं. पर गाँव से सतत जुड़ाव रखने वाले रचनाकार के लेखन में विकास और विकृतियों
की अद्यतनता दिखाई देती है. ऐसे रचनाकार की रचनाएं लेखक की सहयात्रा या सहद्रष्टा होती है और इसीलिए विश्वसनीय भी. संतोष कुमार चतुर्वेदी एक ऐसे ही रचनाकार है. कहा जा सकता है की वे गाँव और शहर, दोनों को एक साथ जीने वाले कवि हैं. उनका पहला कविता संग्रह 'पहली बार' इसका प्रमाण है. अगर गाँव में 'गाँव की औरतें' हैं, 'धूप में पथरा जाने की चिंता किये बगैर पिता' हैं, बरगद का कटता हुआ पेड़ हैं. और गाँव की चुनावी राजनीति है तो शहर में बाजार है, साम्प्रदायिकता है, प्रतिस्पर्धा और जीवन-यापन के संघर्ष हैं. साथ ही गाँव में होती वह शहरी घुसपैठ है जो विशाल बरगद को काट कर बंगले में बरगद का बोनसाई उगाती है.



यूँ तो यथार्थ के नाम पर निरी अभिधात्मकता अक्सर देखने को मिलती है लेकिन कविता में सांकेतिकता और विम्बधर्मिता का अपना स्थान है. आज जब कविता के नाम पर अतिशय गद्यात्मकता के आरोप लग रहे हैं तो यह बात और विचारणीय हो जाती है. संतोष चतुर्वेदी ने अपनी कुछ कविताओं में सांकेतिकता का अच्छा प्रयोग किया है. ऐसी ही एक कविता है- 'अकेले कहीं नहीं'. पिता की सामाजिकता को यह कविता बहुत सुन्दर ढंग से चित्रित करती है. कवि को अपने दिवंगत पिता की एक ऐसी तस्वीर की दरकार है जिसे टांग कर माला चढ़ाई जा सके, फूल अर्पित किये जा सकें. लेकिन जितनी तस्वीरें हैं सब में पिता किसी न किसी के साथ हैं- 'अजीब सी उलझन है/ कि  इतने सालों के बाद भी/ अकेले कहीं नहीं.... अकेली ऐसी कोई तस्वीर नहीं/ जिस पर चढ़ा सकें हम फूल- मालाएं.'



एक लम्बी कविता है- 'बरगद'.  इसका पूर्वार्ध वर्णनात्मक और परिचयात्मक है जिसमें बरगद के अपने इतिहास से ले कर गाँव के इतिहास और पारस्परिकता की झलकियाँ हैं. अपने मिथकीय सन्दर्भों से ले कर गाँव के लोकविश्वास, परम्पराएं इस बरगद से जुड़तीं हैं. यही बरगद गिलहरियों, चमगादड़ों, मधुमखियों, जोगियों, सपेरों के लिए आश्रय स्थल भी है और आल्हा, बिरहा, चैती, कजरी, भजन, वीडियो, नौटन्की -मंडलियों और ताश की गड्डियों के खुलने का सहज प्लेटफॉर्म भी.



कविता का उतरार्ध कवि के अपने प्रतिपाद्य को सिद्ध करता हुआ है- 'एक दिन कहीं से आये रघुबर प्रसाद/ खरीदी वह जमीन जिसमें खडा था बरगद/ कुछ नहीं बोला वह/ न बेचने वाले से/ न रघुबर प्रसाद से/ खडा-खडा देखता-सुनता रहा/अपना मोल-भाव.'  रघुबर प्रसाद ने शुरू में नहीं काटा उसे, बल्कि पास ही में एक आलीशान हवेली बनायी.  बरगद कटा शुभ- अशुभ के चक्कर में (शुभ नहीं होता/ घर के पश्चिम में बरगद) वह कटा पत्नी के बुरे सपनों में आ कर... यानी वह अंधविश्वासों की भेंट चढ़ा.  कवि बरगद के कटने को पेड़ का कटना नहीं,  'खूनी वारदात'  का होना कहता है. (इस खूनी वारदात पर/ चुप्पी साध ली दुनिया की सारी अदालतों ने.)



संतोष चतुर्वेदी का यह संग्रह काव्य विषयों की वैविध्यता लिए हुए है. 'अयोध्या-2003' और 'गुजरात' जैसे विषय हैं, राजनीति है और प्रेम पगी कवितायेँ हैं. 'रोशनी वाले मजदूर' और 'चित्र में दुःख' कवि की एक उल्लेखनीय कविता है- 'प्रतियोगिता में अव्वल चुना गया वह चित्र/ जिसमें एक बूढ़ा माथे पर हाथ टिकाये/ भारी हड्डियों के साथ बैठा था चुक्का मुक्का.'  'आकर्षक लग रहा है दुःख चित्र में' कहते हुए कवि ने एक विडम्बना को उकेरा है और उसे बाजार की नियति से जोड़ दिया है.



कवि की कल्पना में यह सुन्दर दुःख चित्र में प्रवेश करता है और प्रशंसा बटोरता है. (लेकिन उदास का उदास रहा बूढ़ा). यहाँ तक की सिद्दार्थ इसी बूढ़े को देख कर बुद्ध हो गए. और अवतार हो गए. लेकिन यह बूढ़ा अपने दुःख और उदासी के साथ वैसा ही बैठा रहा. कवि ने इसे अनुवादहीन कहा है. इन कविताओं के कवि का धैर्य में विश्वास है, वही उससे कहलवाता है-  'बार-बार होता हूँ पंक्तिबद्ध/कई बार पीछे किये जाने के बावजूद' और उसकी पक्षधरता उससे कहलवाती है -'भूख का इतिहास बहुत पुराना है मगर आज भी जब लगती है/ बिलकुल ताजा नजर आती है.'  संग्रह में और भी कई ऐसी कविताएं हैं जो कवि के सामर्थ्य की ओर इंगित करती हैं. 
 


पहली बार: संतोष कुमार चतुर्वेदी
भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली




 
(द पब्लिक एजेंडा, ३० सितम्बर २०११ के अंक से साभार)


          

टिप्पणियाँ

  1. बहुत गहन भाव बोध से लैस एक युवा कवि /संपादक की पुस्तक और काव्य कर्म पर पांडे जी की स्तरीय समीक्षा पढ़कर सुखद लगा |

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'