दूधनाथ सिंह का आलेख 'महादेवी और फ़ैज़'
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| फ़ैज़ |
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ क्रांतिकारी ही नहीं एक लोकप्रिय शायर थे। उनकी क्रांतिकारी रचनाओं में इंक़लाबी और रूमानी भाव के मेल के लिए उनको दुनिया भर में जाना जाता है। सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने उर्दू शायरी में आधुनिक तरक्कीपसंद रचनाओं को सबल करने का काम किया। जेल के दौरान लिखी गई उनकी कविता 'ज़िन्दान-नामा' को बहुत पसंद किया गया। उनके द्वारा लिखी गई पंक्ति 'और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा' भारत-पाकिस्तान की जनता के लिए आज लोकप्रिय मुहावरा बन चुकी है। 1951 से 1955 के बीच क़ैद के दौरान लिखी गई उनकी कविताएँ बाद में बहुत लोकप्रिय हुईं और उन्हें "दस्त-ए-सबा (हवा का हाथ)" तथा "ज़िन्दान नामा (कारावास का ब्यौरा)" नाम से प्रकाशित किया गया। इस रचना में उस वक़्त के शासक के ख़िलाफ़ साहसिक लेकिन प्रेम रस में लिखी गई शायरी आज भी याद की जाती है। राजनीतिज्ञों से इतर शायरों की अपनी एक दुनिया होती है। भले ही फ़ैज़ पाकिस्तान में रहते रहे हों, उनकी लोकप्रियता हिन्दुस्तान में भी अच्छी खासी थी। वे 1982 में हिन्दुस्तान पहुंचे और इस क्रम में वे इलाहाबाद भी आए। इसी दौरान इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक सभा आयोजित की गई जिसकी सदारत महादेवी वर्मा ने की थी। फ़ैज़ की इलाहाबाद की इस यात्रा के गवाह थे दूधनाथ सिंह। अपनी किताब 'महादेवी' में उन्होंने विस्तार से फ़ैज़ के इलाहाबाद की इस यात्रा का जिक्र किया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं दूधनाथ सिंह का आलेख 'महादेवी और फ़ैज़' जिसे हमने उनकी किताब 'महादेवी' से साभार लिया है।
'महादेवी और फ़ैज़'
(22.06.2007)
दूधनाथ सिंह
सन् 1982 के जाड़ों में फ़ैज़ अहमद फैज़ इलाहाबाद आये। इलाहाबाद किसके बुलावे पर आये यह तो याद नहीं लेकिन फ़ैज़ दिल्ली आये थे और दिल्ली में फ़िज़ की धूम थी। अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में फ़ैज़ के दिल्ली-आगमन और उनके कार्यक्रमों की ख़बरें अक्सर छप रही थीं। बहरहाल, फ़ैज़ दो-तीन दिनों के लिए यहाँ आये। उनके साथ यहाँ पाँच कार्यक्रम हुए जिसमें एक को छोड़ कर मैं सभी में उपस्थित रहा। पहला कार्यक्रम सम्भवतः अंजुमन में हुआ। दूसरा श्री विभूति नारायण राय के निवास स्थान साउथ रोड पर शाम (रात) को। श्री राय उन दिनों यहाँ सिटी एस. पी. थे। उसके अगले रोज शाम को यूनिवर्सिटी के विशाल मैदान में फैज के स्वागत में तीसरा आयोजन हुआ। उसके अगले दिन सुबह दस बजे हिन्दुस्तानी एकेडमी के सभागार में। फ़ैज़ के साथ अन्तिम बैठकें उसके अगले रोज सुबह होटल तॉओसी के छोटे-से हरे-भरे लॉन पर खुशनुमा, हल्की धूप में हुई। यह कोई गोष्ठी या जन-सभा या रात्रि-भोज जैसी चीज नहीं थी। उसी दिन फ़ैज़ दिल्ली लौटने वाले थे। सुबह-सुबह उनके कुछ हिन्दी-उर्दू के चाहने वाले लोग होटल तॉओसी फ़ैज़ की वापसी के पहले अपने प्रिय शाएर को भर-नजर देखने के लिए पहुंचे थे। फ़ैज़ को बताया गया तो वे अपने उसी लिबास, पैंट और आधी बाँह की कमीज में लॉन पर आये। उन्होंने हल्की मुस्कान के साथ सबके अभिवादन का जवाब दिया। तभी हमने उनसे कुछ गजलें और नज़्में सुनाने का इसरार किया। मैंने अब, उस वक्त हल्की धूप की उजास में अपने उस प्रिय कवि को, जो गालिब के बाद उर्दू का मेरा सबसे प्रिय कवि था, ठीक से और निकट से देखा। अच्छा-खासा भरा-भरा बदन, चेचकरू चेहरा, चौड़ी पेशानी, क्लीन शेव्ड। फ़ैज़ को शायद दमे की शिकायत थी। या यह शराब और सिग्रेट पीने का असर था। या यह भी हो सकता है कि वे सीढ़ियाँ उतर कर आये थे वे हल्के-हल्के हाँफ़ रहे थे। उनकी साँस थोड़ी-थोड़ी फूल रही थी। फिर भी वे फ्रेश लग रहे थे। अपनी कुर्सी पर बैठते हुए उन्होंने हम सबको ऐसे देखा जैसे शरमा रहे हों। बहुत हल्की मुस्कान। उस उम्र में भी कसे हुए खूबसूरत होंठ। मुझे याद आया, फ़ैज़ कभी सेना में थे। मैंने एक फ़ौजी अफसर के ड्रेस में उनकी कल्पना की। नहीं, शायद पाकिस्तान में उनके जेल काटने और फाँसी पर लगभग लगभग चढ़ने से बचने और छूटने के बारे में मैं सोच रहा था। या शायद इस बात के बारे में जो रशीद जहाँ ने सज्जाद जहीर से कही थी कि अमृतसर में एक लड़का है जो अंग्रेजी पढ़ाता है और बहुत कम बोलता है। फ़ैज़ उस वक्त होटल तॉओसी के लॉन पर भी उसी तरह की चुप्पी में गुम थे जो कठिन जिन्दगी और साहित्य-साधना के भीतर से पैदा होती है। फ़ैज़ ने शायद किसी किताब में से अपनी कुछ गजलें और नज़्में वहाँ बैठे लोगों की फर्माइश पर सुनायीं। वह कुछ बहुत मजेदार पाठ नहीं था। जैसे एक उम्रदराज शाएर पढ़ते हुए ऊब रहा हो। उसे आश्चर्य हो रहा हो कि अपनी शाएरी से उसने जो कुछ भी करना या पाना या बदलना चाहा, उन सबकी असफलताओं के बावजूद लोग उसे और उसकी शाएरी को इतने घने रूप में प्यार करते हैं। उसने क्रान्ति, समाज-परिवर्तन, प्रेम के गीत गाये। उसने तानाशाहों और बर्बरों का विरोध किया। उसने अकेलेपन, ऊब, अवसाद, जो कि बौद्धिक नहीं, जेहनी नहीं, वास्तविक थे, उनकी कठिन यातना को चुपचाप झेला और जिया और रचा। वही फ़ैज़ जो अपनी आख़िरी गजल में 'शाएरी' और 'चश्मे नम' दोनों का मक्सद ढूँढ़ते हैं :
करे न जग में अलाव तो शे'र किस मक्सद
करे न शहर में जल-थल तो चश्मे नम क्या है!
वही फ़ैज़ उस खुशनुमा सुबह जैसे ऊबते हुए अपनी कुछ पुरानी गजलें और नज्में पढ़ रहे थे, जिनके लोग दीवाने थे और जो हर चाहने वाले की जुबान पर थीं। लेकिन फ़ैज़ एक विशाल पाठक-वर्ग के लाड़ले शाएर होने के बावजूद शाएरी से सिर्फ इतना ही तो नहीं चाहते थे। फ़ैज़ के पाठकों ने सिर्फ 'एन्ज्वाय' करने के लिए अपने शाएर को याद रखा है, लेकिन फ़ैज़ इतना ही तो नहीं चाहते थे। वह चाहते थे कि उनकी शाएरी जुल्म और बर्बरता और अन्याय और दुःख को हमेशा के लिए खत्म कर दे। फ़ैज़ की शाएरी सिर्फ मनोरंजन नहीं है, समाज को बदलना उसका मुख्य उद्देश्य है। वह कहाँ हुआ? एक बेहतर और लोकप्रिय शाएर बनना ही फ़ैज़ के होने का मक्सद नहीं था। उतने तो वह हैं, लेकिन उतने से खुश नहीं हैं क्योंकि फ़ैज़ की शाएरी एक सुलगती हुई राजनीति है, एक क्रान्तिकारी रोमान... एक जीवित दर्शन, एक निपट उद्देश्यगत आदर्शवादी विचार जिसे फ़ैज़ सिर्फ अपनी शाएरी में ही नहीं, अपने और दुनिया भर के मजलूमों की जिन्दगी में भी उतरते हुए देखना चाहते हैं। अकेली लोकप्रियता से क्या बना? फ़ैज़ ने अपनी शाएरी में जितना कुछ और जिस तेवर में कहा है, उतना अगर जनता में उतर जाय तो दुनिया बेहतरी की ओर पलट जायेगी। लेकिन शाएरी या कला या कला में प्रयुक्त विचार और तेवर और कवि की सदिच्छाओं के अनुरूप क्या दुनिया या उसका अपना समाज कभी बदलता या पलटता है? शायद कहीं नहीं। शाएरी और कलाएँ शायद धीरे-धीरे मनुष्य के अन्तरतम का संस्कार करती हैं, या इंसान उसे चुभलाने और उसका आस्वाद लेने से आगे नहीं बढ़ता। कविता जुल्म और बर्बरता के ख़िलाफ़ एक आबाज उठाती है, जुल्म और बर्बरता चुपचाप उसके ऊपर पाँव रखते हुए आगे बढ़ जाते हैं। तभी तो फ़ैज़ ने अपनी एक नज्म में कहा है:
गड़ी हैं कितनी सलीबें मिरे दरीचे में
हरेक अपने मसीहा के ख़ू का रंग लिये
हरेक बस्ले-ख़ुदाबंद की उमंग लिये
किसी पे करते हैं अब्रे-बहार को कुर्बा
किसी पे क़त्ल महे ताबनाक करते हैं
किसी पे होती है सरमस्त शाखसार दो-नीम
किसी पे बादे सबा को हलाक करते हैं
हर आये दिन ये ख़ुदावन्दगाने मेहरो-जमाल
लहू में गर्क मिरे गमकदे में आते हैं
और आये दिन मिरी नज़रों के सामने उनके
शहीद जिस्म सलामत उठाये जाते हैं।
विभूति नारायण राय के घर पर वह शाम एक यादगार शाम थी जिसमें बहुत सारे नये पुराने हिन्दी-उर्दू के लेखक मौजूद थे। उसमें भी फ़ैज़ ज्यादातर चुप और मुस्कुराते रहे। उन्होंने कुछ पढ़ा या नहीं, ठीक से याद नहीं, लेकिन एक सज्जन ने, जिनका हिन्दी-उर्दू दोनों से कोई वास्ता नहीं था, पीने के बाद कुछ ऐसा मस्ताये कि फैज के पाँवों के पास घुटनों के बल बैठ कर, कान पर एक हाथ रखे किसी लोकगीत का सुर छेड़ दिया। ऐसा नहीं कि फैज अपनी जिन्दगी में इस तरह की खरमस्तियों से परिचित न रहे हों। अहमद नदीम कासमी ने फैज वाले अपने संस्मरण में लिखा है कि रात-भर मौज-मस्ती करने के बाद भोर में फैज और उनके दोस्तों ने उनके दरवाजे पर दस्तक दी। जब कासमी ने दरवाजा खोल कर अन्दर आने को कहा तो फैज ने कहा कि नहीं, हम तो तुम्हें जगाने आये थे, जगा दिया, अब चलते हैं। और इस पर उस भोर में एक शामिल ठहाका। तो फ़ैज़ हमेशा तो ऐसे चुप नहीं थे। 'सज्जाद जहीर के नाम' वाली नज्म में वे क्या कहते हैं:
ब-नामे-शाहिदे-नाज़ुकाखयालॉ व-यादे-मस्तिए-चश्मे-गिज़ालाँ च-नामे-इम्बिसाते-बज्मे-रिन्दाँ
फैज अपनी शाएरी में अभिव्यक्ति की पूर्णता के कायल हैं लेकिन अति-मुखर कहीं नहीं। न कविता में न जीवन में। जितनी जरूरत हो उतना ही बोलना या कहना है, फ़ैज़ यही करते हैं। उनका मौन और उनकी हल्की मुस्कान जितना कहती है वह बोलने से कहीं बहुत अधिक और सम्पूर्ण है।
यूनिवर्सिटी कैम्पस में उस ऐतिहासिक बरगद वाले मैदान में जो जन-सभा (छात्रों के बीच) हुई वह तो बेमिसाल है। यूनिवर्सिटी में छात्रों की हड़ताल चल रही थी। कक्षाओं का बहिष्कार था। उन्हीं छात्रों के हुजूम से वह मैदान खचाखच भरा था। उसके बाहर बायीं-दायीं तरफ, सामने और पीछे चारों ओर तिल रखने की जगह नहीं थी। हम लोग आगे छात्रों की उस अनियंत्रित भीड़ में जा नहीं सकते थे। अतः मैं पीछे वाले कुएँ की जगत पर खड़ा था और माइक के सहारे था। ऐसी भीड़ उसके पहले मैंने सिर्फ एक बार देखी थी, जब नेहरू सिनेट हॉल में छात्रों के बीच आये थे। फिराक साहब उस वक्त काफी कमजोर और चलने-फिरने से मजबूर थे। मैंने देखा कि मंच पर उन्हें उठा कर ले जाया गया। अब मंच पर तीन महान हस्तियां थीं - महादेवी, फ़ैज़ और फिराक। शायद मुहम्मद हसन भी थे। उस नीम उजाले में जो सभा हुई वह यादगार है। फ़िराक़ ने जो भाषण फैज के कवित्व और व्यक्तित्व पर दिया, अगर वह 'टेप' होता तो आज यह फ़ैज़ की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या होती। महादेवी उस सभा में शायद कुछ नहीं बोलीं। मुहम्मद हसन थोड़ा-बहुत कुछ भावुक अन्दाज में बोले। फ़ैज़ जब बोलने के लिए खड़े हुए तो पहले तो जबर्दस्त शोर हुआ, फिर एकदम सन्नाटा छा गया। फ़ैज़ ने अपनी उसी हल्की-फुल्की आवाज में कहा, 'मैं एक ही बात कहता हूँ, इसके बाद फ़ैज़ जरा-सा रुके, 'इश्क करो'। इस पर तालियों की गड़गड़ाहट और आसमान सिर पर उठाने वाला शोर, फिर एकाएक शान्ति। यह सुनने के लिए कि देखें फ़ैज़ आगे क्या कहते हैं। फ़ैज़ ने अपना एक हाथ हवा में उठाया और बोले, 'सारी दुनिया से इश्क करो।' और फ़ैज़ अपनी कुर्सी पर बैठ गये। इस महान संदेश पर फ़ैज़ ने जीवन भर अमल किया। इसी संदेश पर उनकी शायरी निछावर है। इसी संदेश को लिये लिये फ़ैज़ पूरे ग्लोब पर मंडराते रहे। अफ़्रीका, लेबनान, फिलीस्तीन, लंदन, मास्को, अल्मा-अता कहाँ-कहाँ!
यूनिवर्सिटी वाली सभा के अगले दिन सुबह 'हिन्दुस्तानी एकेडमी' के सभागार में एक मिलन-गोष्ठी हुई - फ़ैज़ और महादेवी मंच पर अगल-बगल। एक विनम्र मुस्कान से फ़ैज़ ने महादेवी का खैरमक़दम किया और महादेवी ने कुछ कहते हुए अपनी उसी निर्झरिणी हँसी से। हॉल पूरी तरह भरा था। फ़ैज़ ने हॉल में लगी तस्वीरों पर एक उड़ती-सी नज़र डाली। दो महान कवि। हुंकार और चीत्कार अगल-बगल। राजनीति और क्रांति और मदमस्त प्रेम का गायक और समस्त स्त्री जाति के अन्तः रुदन और वेकली का 'मिथिहास'। अवसाद और अवसाद, दुख और दुक्ख, पराजय और पराजय, जेल और अन्तः कारागार, स्वप्न और स्वप्न, थकन और थकन, चुप और मौन, निर्जन और निर्जन एक साथ। एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत दिशाओं के दो कवि, एक ही संस्कृति की दो फाँके, दो आवाहन, दो 'चश्मे नम', हँसी के दो कगार, कवित्व के जुड़वाँ इतिहास, दो अंत और अनंत कुछ अजीब सा माहौल था। वही फ़ैज़ जो 'तख्त गिराये जाने और ताज उछाले जाने' की बात करते हैं, उन्हीं का सारी दुनिया में दर-दर भटकना
सरे-कू-ए-नाशनायाँ
हमें दिन से रात करना
कभी इससे बात करना
कभी उससे बात करना
या जो इतने महान सपने देखता है उसी का कहना है:
जब से बेनूर हुई हैं शम्एँ
ख़ाक में ढूंढ़ता फिरता हूँ न जाने किस जा
खो गयी हैं मेरी दोनों आँखें
तुम जो वाकिफ हो बताओ कोई पहचान मेरी
इस तरह की बहुत सारी कविताएँ और गीत और असफलताएँ और अँधेरे-उजाले के मिले-जुले रंग मुझे उस वक्त याद आ रहे थे।
किसी ने फ़ैज़ और महादेवी के बारे में कुछ कहा और उसके बाद महादेवी बोली। महादेवी को फ़ैज़ की कविता के बारे में शायद कुछ भी मालूम नहीं था। बचपन में जो उर्दू पढ़ाने की कोशिश उनके पिता ने की, वह चली नहीं। हिन्दी, संगीत, चित्रकला और आगे चल कर संस्कृत भाषा और साहित्य उनके प्रिय विषय रहे। उर्दू से उनकी छुआई भी नहीं थी। नरसिंहगढ़ के राजमहल में जहाँ रानी शिव कुँवर उनकी हम-उम्र और रनिवास में अपनी दबंग सास के बीच अकेली थीं, तो वे महादेवी को अपने साथ खेलने और बातचीत के लिए बुलाया करती थीं। दोनों की उम्र 12-13 के आसपास थी। महल में हिन्दी की अच्छी-खासी लाइब्रेरी थी। महादेवी ने तुक जोड़ना इंदौर में अपने हिन्दी के पंडित जी से सीखा ही था। यहाँ महल के पुस्तकालय में महादेवी घंटों रानी शिव कुँवर के साथ बितातीं। इस तरह वहाँ भी महादेवी की हिन्दी ही पुष्ट हुई। क्रॉथवेस्ट कॉलेज, इलाहाबाद में जब वह पढ़ने आयीं तो वहाँ भी प्रथम भाषा हिन्दी ही थी। आगे महादेवी का जैसा और जिस तरह का विकास हुआ उसमें स्वभावतः और संस्कारतः वे हिन्दी और संस्कृत और तथाकथित भारतीय संस्कृति (जिसमें से इस्लाम का लगभग निष्कासन था) के रंग में रंग गयीं। उनके सोच-विचार का दायरा संकुचित होता गया। माता हेमरानी देवी, महात्मा गाँधी, पुरुषोत्तम दास टण्डन, आर्य समाज और वेदांत इन सबके सांस्कारिक प्रभाव और हिन्दी कविता पर पहले मैथिली शरण गुप्त और फिर सन् 1920-30 के दौरान सुमित्रा नंदन पंत के एकछत्र प्रभाव ने उनको एक ऐसे कोने में ले जा कर सँकेल दिया, जहाँ से फ़ैज़ जैसे कवियों की वैचारिक धूप में निकलना या उर्दू भाषा की प्रकृति और स्वभाव से परिचित होने का प्रयत्न भी उन्होंने छोड़ दिया। प्रेमचंद और महादेवी के गद्य की (भाषा सम्बन्धी) प्रकृति में जो फ़र्क है, उसका कारण यही है। इसीलिए महादेवी उस मंच से फ़ैज़ की कविता के बारे में कुछ भी नहीं बोल सकती थीं। गंगा, त्रिवेणी और हिमालय जिनके वाचिकों के घुमा-फिरा कर मुख्य विषय थे, वहाँ फ़ैज़ की कविताएँ जो समाज परिवर्तन और प्रेम को ले कर एक धूम-धड़ाके की तरह हैं, महादेवी क्या बोल सकती थीं। लेकिन हिन्दी में उस वक्त महादेवी के पाये का कोई दूसरा कवि भी नहीं था जो फ़ैज़ का स्वागत करता। उस वक्त अपने सारे बदलावों के बावजूद इस नगर में हिन्दी कविता को श्रेष्ठता और महत्ता की प्रतीक महादेवी ही थीं। अतः इस स्वागत की वही अधिकारिणी भी थीं।
महादेवी ने ज्यादा कुछ नहीं कहा, बोली फ़ैज़ मेरे भाई हैं और यह देश उनका अपना है। ये जब तक चाहें यहाँ रहें या जब चाहें आ जाये। एक बहन उनके स्वागत को सदा तैयार है। बिल्कुल यही शब्द तो नहीं थे भाव यही था। 'फ़ैज़ मेरे भाई हैं' इतना भर मुझे याद है। महादेवी और भी बहुत कुछ बोलीं। प्रकारान्तर से विभाजन के दो-फाड़ होने पर। जनसंख्याओं का इधर से उधर जाना। अपनी मातृभूमि की चर्चा उन्होंने की। उन्होंने शायद कहा कि माँ को कैसे बाँटा जा सकता है। इस पर उन्होंने फ़ैज़ की ओर देखा तो फ़ैज़ अपनी उसी मोहक मुस्कान-शैली में मुस्कुराये।
फ़ैज़ ने भी ज्यादा कुछ नहीं कहा। उनका सिर्फ़ एक वाक्य याद है, 'हिन्दोस्तान मेरी महबूबा है।' फिर उनसे कविताएँ सुनने का इसरार किया गया। कई लोग खड़े हो हो कर अपनी पसंद बताने लगे। फ़ैज़ इस इसरार पर बिल्कुल होंठ कसे रहे। धर्म-संकट था और उसको उन्होंने निभाया। फ़ैज़ ने 'फिलिस्तीनी बच्चे के लिये लोरी' वाली अपनी ट्रेजिक नज्म सुनाई। बच्चे को बहलाने का यह तरीका उस नज़्म में एक हादसे जैसा है। वह उस तरह की नज़्म नहीं है जैसी अपनी बेटी 'मुनीजा की सालगिरह पर लिखी हुई प्यारी-सी नज़्म है।
जहाँ रोशनी की जितनी बेकली है, इसका मतलब कि वहाँ अँधेरा काटे नहीं कटता। महादेवी तो दीप-शिखा की कवयित्री ही हैं। सारे चीत्कार में वही वही बेकसी है-उसी की खोज, उसी को पाना, उसी को प्रिय पथ पर सजा कर रखना। दीपक का जितना प्रसाधन महादेवी में है उतना शायद कहीं नहीं। यह समस्त स्त्री-जाति के अन्तःकरण का अँधेरा है, जिससे प्रेम के निहाल कर देने वाले उजाले में निकलने का प्रयास है- महादेवी की कविताएँ। फ़ैज़ भी अपने अन्तिम दिनों में यहीं पहुँचते हैं:
बुझ गया चंदा लुट गया घरवा, बाती बुझ गई रे,
दैया राह दिखाओ
मोरी बाती बुझ गई रे, कोई दीप जलाओ
रोने से कब रात कटेगी, हठ न करो, मान जाओ
मनवा कोई दीप जलाओ
काली रात से ज्योती लाओ
अपने दुख का दीप बनाओ
हठ न करो, मन जाओ
मनवा कोई दीप जलाओ।

सुंदर
जवाब देंहटाएंडीपीटी यानी त्रिपाठीजी फ़ैज़ साहब को इलाहाबाद ट्रेन से ले गए थे, ऐसा उन्हीं से मालूम हुआ।
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