नीरज की कविताएं
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नीरज |
परिचय
नीरज
आजमगढ़, उत्तर प्रदेश
पेशे से फार्मासिस्ट
कुछ कविताएं इन्द्रधनुष वेब, समकालीन जनमत, पोयम्स इंडिया, समकालीन सूत्र, वागर्थ, कृति बहुमत, अन्वेषा, सदानीरा में प्रकाशित
'जो जीता वही सिकंदर' मुहावरे से भला कौन परिचित नहीं होगा। जीत के लिए कल बल छल कुछ भी अपनाया जा सकता है। जीत के लिए अपनाए गए रास्ते अनैतिक न मानने की एक लम्बी परम्परा भी रही है। लेकिन यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि ये जीते हुए लोग ही प्रतिमान गढ़ते हैं। विजेताओं के द्वारा पराजितों का इतिहास ही नहीं उनकी संस्कृति तक नष्ट कर दी जाती है। इतिहास विजेताओं की तमाम बर्बरताओं से भरा हुआ है। और कमाल की बात तो यह कि ये तथाकथित विजेता अपनी बर्बरता को भी उचित ठहराने के तर्क गढ़ लेते हैं। युवा कवि नीरज के पास अपनी अलग भाषा है। कविताएं बताती हैं कि यह कवि हमारे समय का एक अलग ढब का कवि है, जिसमें तमाम संभावनाएं हैं। अपनी एक कविता में नीरज लिखते हैं : 'बर्बरता भूलने पर दुख नहीं ग्लानि है मुझे/ जो आवाज़ पीछे से आ रही है उसके/ पलटने-भागने के बजाय/ और भी कई परिणाम हो सकते हैं/जितनी गिनतियॉं चुक गईं हारे हुए लोगों पर/ जितनी सवाल दगे औंधे मुॅंह/ जिस तरह का हिंसक था झूठ, उसके बाद/ जीते हुए लोगों को होना चाहिए पश्चाताप'। कवि का पहली बार पर हम स्वागत करते हैं।। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं नीरज की कविताएं।
नीरज की कविताएं
उपर्युक्त सभी
धीरे-धीरे तिरती जा रही हैं स्थितियां
लगभग रसारिक्त हो चुके हैं सारे संवाद
क्या तुम्हारे पास बचे हैं कोई मानक?
कोई सिद्ध गुंजाइश, जिसका आश्रय हम सभी को बचा ले
हम सारे वाद से बढ़ कर अब जहॉं मौजूद हैं:
इसे किसी तरह का प्रतिष्ठित नाम तो कतई नहीं दिया जा सकता
और यह प्रवेश कोई नूतन नहीं!
हम जीने को स्वतंत्र थे
हम चुनने की स्वेच्छाचारी भी थे
विकल्प सुखात्मक हो सकते थे
विकल्प दुखात्मक भी;
हमें हर हाल में चुनना था
और इस हड़बड़ी में
जहॉं हमें उद्देशित रहना था
हम निर्देशित हो के केवल एक विकल्प चुन बैठे
जबकि हमारे पास उपर्युक्त सभी विकल्प मौजूद थे
अब हम नाटक के अन्त में नहीं हैं
हम इसके उद्देशिका को जानते हैं
हम इसके उपसंहार को तरसेंगे
कोई ख़बरी हमारे पास नहीं है
हमारे सारे लक्षित नेपथ्य अपने मौके की ताक में मारे जाएंगे
इस प्रक्रिया से कोई निष्कर्ष नहीं निकलेंगे
फिसलन
भारी चिंताओं का गुच्छा है
जिसमें मैं कई बार क्रूर होता
इतना याद करने लगता हूॅं
उन सामान्य घटनाओं को
कि वे दुर्घटनाएं लगने लगतीं
इस बीच कभी-कभी
कोई अच्छी स्मृति झॉंक जाए
यह पीड़ा-बोध कमतर हो
यह डटाधार मजबूत बने
सो मैं उसके पीछे-पीछे चित्रित हो चलूं
जा गिरूं
उस गोद में
जहॉं वे स्मृतियॉं लौट गयीं
जहॉं अभी भी आस्थाएं शेष हैं
जहॉं अभी भी मृत्यु से ज़्यादा गरिमामय है जीवन
जहॉं अभी भी दशाऍं, दुर्दशाग्रस्त नहीं हैं
मैं लौट रहा हूॅं एकाएक
पानी के तरह, पानी के संग अपने तराई की तरफ
ढ़ेर सारा आभार प्रकट करते हुए।
थाप
यह निशान केवल चोट के होने के बजाय
और भी हो सकते हैं बहुत कुछ
बर्बरता भूलने पर दुख नहीं ग्लानि है मुझे
जो आवाज़ पीछे से आ रही है उसके
पलटने-भागने के बजाय
और भी कई परिणाम हो सकते हैं
जितनी गिनतियॉं चुक गईं हारे हुए लोगों पर
जितनी सवाल दगे औंधे मुॅंह
जिस तरह का हिंसक था झूठ, उसके बाद
जीते हुए लोगों को होना चाहिए पश्चाताप
कोई उद्घोषणा नहीं
चुप्पी में रहे हैं मजबूत स्वर हमेशा
प्रेम सबसे ज़्यादा किया गया
साथ विरह के गीत भी सबसे ज़्यादा गाए गये
पोर-पोर इतना विस्तृत है
कि दोबारा छोटा इसे समझना होगा नहीं
जड़ों से उग रहीं फुनगियों पर ये पैर जाने-पहचाने हैं
जिन्हें तुम जानते हो और चौंक जाओगे सच सुन कर
फिर तुम किसे आवाज़ दोगे?
आवाज़ों के परिणाम पिछली पंक्तियों में दम तोड़ चुके हैं
तुम्हारी ऑंखों का आकाश
अब सीमित होते-होते ख़त्म होने को है..
कहो सब अनिर्णीत छूट रहा है ना!
अस्तित्व है नंगा
खिड़की से भौंहें फैलाए तब से देख रहा है
जबसे अपनी देह छिपाने की कला सीखी मैंने
चिल्लाती हैं दरारें और कान का कमजोर मैं
कि अनिश्चित है शर्म
सीमित है स्वतंत्रता, दो हाथ हैं
अपने जननांगों को छिपाऊं या मुॅंह को
हालांकि रोज़ जन्म लेती हैं
ख़त्म भी होती बिस्तर पर रोज़
अब तो छप चुके हैं अख़बार
काश खिड़की बंद करने का ख़्याल आ जाता समय पर;
लेकिन और भी तो हैं
हैं नंगों की संख्याऍं और भी दरवाजों पर
हैं मुर्दों के भूख की इच्छाऍं और मेरा अकेलापन
लेकिन अफ़सोस नहीं है
गुबरैले के जीवन में ढोने को विवशता नही कहते
सुंदर जैसा कुछ नहीं
जो कुछ भी लगा सुंदर
थकने के बाद नींद रही
कोई ऊब रुचिकर नहीं होती
कोई कविता ज़रूरी नहीं।
जीवनावर्त
जैसे-जैसे मैं उसके क़रीब जा रहा था
एक नवीन प्राण
मेरे अंदर फूट रहा था
अनुभवी स्वर की बहुत लंबी और कड़वी बातचीत थी
मुझे शुरू से लगता रहा:
मिट्टी की देह यह हिलोर संभवतः झेल न पाएगी
फिर भी विकल्पहीन
ना जाने कैसे मैं उस तक पहुॅंचा
वह एक दीर्घ कोलाहल भरे घेरे में था
और उनमें मौजूद और चीखते-चिल्लाते शब्द
मुर्दे को भी कान बंद करने पर मजबूर कर दें
वो उसमें खड़ा मुस्कुरा रहा था
और उसके सैकड़ों-हजारों हाथ
हजारों-लाखों चप्पुओं से लाखों-करोड़ों संशयों को काटते हुए
जीवन की ओर बढ़ते चले जा रहे थे।
'कुत्ते'
(एक)
उनकी सीधी पूॅंछ पर
मौजूद निशान
उनकी मौजूदगी
पर ही सवाल उठाते हैं.. ये उन्हें नहीं पता
बीच-बीच में बारहा लोग आते-जाते हैं..
कुलबुलाती पूॅंछ पर बेकार से सवाल लिए
(दो)
जाओ, अस्थिर समाज में
उन्हीं में घुल-मिल कर जियो!
जाओ, उग जाना
हिलती-उखड़ती जड़ों के चारो ओर।
(तीन)
खुरच-खुरच कर
अपने लायक जगह बनाते
उनका संसार
उनके नाखूनों के टूटने पर ढहता रहा
वे मारे-मारे फिरते हैं
जब तक उनके नाखून पुनः नहीं उग आते
(चार)
वे कहते तो
बिल्लियों को भी बिल्लियॉं ही कहते
उस तरह नहीं
जैसे हम कुत्तों को कुत्ते कहते हैं..
(पॉंच)
वे हमारे
मुहावरों से
कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते।
ध्रुवतारे
कितना जायज़ फ़र्क पड़ेगा
जब मैं आपको बताऊॅं
कि मैं यूपी से आया या बिहार से
या किसी और ग़ैर प्रदेश से जिससे अब तक आपका कोई काम नहीं रहा
कितने प्रतिशत संभावनाऍं हैं,
आपकी ऑंखों में वेदना की कोई तह लौट आए
जो मैं कहूॅं मेरा गॉंव बाढ़ में डूब गया
मेरे संगी-संघाती मेरी तरह ही
किसी ट्रेन के जनरल डिब्बे में मशक्कत से शहर आए होंगे!
और मेरी तरह ही इस बड़े और विशाल से जगह की मिट्टी में अपने नाख़ून गड़ाने की कोशिश में लग चुके होंगे!
सोचो अब तक दसवीं पास कर चुका होता
और अगली बार आता ऐसे काम के लिए
साढ़े नौ हजार से ज़्यादा कमाता
बारह घंटे के बजाय हो सकता कि आठ घंटे का काम हो पाता
नींद के घंटों में इज़ाफ़ा कर पाता
पर कर पाता... चुका होता जैसे शब्द अब आते तो सपने लगते हैं
लगता... ऑंखें बेदम ही इन्हीं सपनों के लिए हुईं
यहॉं तरक्की-बख़्श लोग
स्टील-लोहे में फ़र्क भी जानते, क़ीमत जानते
चमक और रंग के नीचे की पतली परत भी
इसीलिए यह शहर उन्नत, व्यापारिक है
हम उनके लिए लोहा, स्टील
और गुपचुप तरीके से सोना-चॉंदी भी
शायद हम हमारे शक्लों से पहचान लिए जाते
पढ़े लिखे लोग, समझते रहे
या फिर यहॉं पढ़ाई जाने वाली कोई किताब में,
किसी फिलॉस्फी में
हमारी पहचान का कोई अच्छा तरीका सिखाया गया..
शहर के प्रगतिशील लोग
पूरा नाम नहीं पूछते?
वे पूछते हैं- कहॉं से हो?
ठीक भी है... ज़्यादा समय देंगे तो
हम पूरी दिहाड़ी में कामचोर लगेंगे
कौन झेले, अपनी शासत करे
एक नगरीय दोस्त ने, जिसको मुझसे काम था (कम दाम में)
उसने कहा- कि मेरी शिकायत उनसे होनी चाहिए
जो मेरे प्रदेश के सियासती हैं!!
मैं उनसे क्या कहूं जो हुजुम लिए चार-पॉंच सालों के लिए घूमते हैं
उसी शहर में पॉंच सितारा होटलों में खाते-पीते हैं
जिसमें हम दो वक्त का रोटी जुगाड़ते रहे
उन्हें कौन समझाए कि आप भी उसी शहर से आए
जिससे हम आए
आपकी भी उतनी ही इज्ज़त,
जितनी हमारी है..
आप चाहे यूपी, एमपी, बिहार, छत्तीसगढ़, असम, राजस्थान, कश्मीर आदि कहीं से भी आइए
सब कुछ मिलेगा, जो हमें मिला
बल्कि उन सफ़ेदपोश जिन्नों से बेहतर है हमारी इज्जत हरेक शहर में
कम से हमसे लोगों से पूछते हैं कि कहॉं से हो?
आर्टबुक से
वही कुछ पेड़
खो गये मेरे
जो नदियों के
दोनों किनारों पर रहते थे
वही जिससे सटे
नदी उतरती थी
वही जहॉं
पहाड़ के बीचोंबीच से
निकलता था सूरज।
स्मृति
किसे नहीं परछाइयों से डर?
डरे हैं लोग हमदर्दों से..
सबके साथ अकस्मात्
खुली ऑंखों के बाद भी दिखाई देना बंद हुआ है
सब किसी न किसी
मुर्दे की याद में जीते हैं
आख़िरी तक
अनौपचारिक गप्प
(एक)
यह किस कालक्रम की घटना है? मत कहिए!
जहॉं सियार तक नहीं बचे
किसी अशुभ संकेतों के लिए
पूछने के लिए क्या बचा है!
कपड़े टंगने की जगह
नीचे, ठीक वहीं गिरे हैं..
जो इन्हें पहनते रहे कभी
वो टंगे हैं... लगातार टंगते ही जा रहे हैं
यह किस कालक्रम की घटना है? मत कहिए!
बस गर्दन घुमाइए...
(दो)
सिर्फ़ दो बूॅंद..
कम से कम एक मच्छर की इच्छाऍं तो सीमित हैं
आंकी जा सकती हैं
इस तरह तुलना में
हम मच्छरों से भी हार खाए हुए हैं
(तीन)
यह जलने का दृश्य है..
यह बचाने का मौका भी है
आप बचा भी सकते हैं
आप देख भी सकते हैं
पर क्या इस बीच
आपको मिट्टी के जलने की याद आती है?
(चार)
एक निश्चित आयु के बाद
सिर्फ़ उॅंगली उठाने की कोशिश मात्र से
चिटक जाती हैं हड्डियॉं
करवट बदलते समय अकड़ सकती है गर्दन
वो कोई दुख भरा
भर-भर के पीड़ा लिए बुढ़ापा होगा
होगा कोई बुढ़ापा
होगी कोई आयु
इन हड्डियों की निश्चित ही..
लेकिन लंबे जीवनकाल में
सही और निश्चित समय में गतिहीनता
बूढ़ा ज़रूर कर देती है
विदा रीति
(गत)
यही कोई दूसरा दिन था
दीदी के ब्याह के बाद
बादल बहुत चढ़ आए थे..
अम्मा दिन में कई-कई बार
छत पर जाती थीं
एक बार पूछा तो
कहती है- चावल फटकारते हुए
कोई तिनका ऑंख में लग गया
फिर उसी शाम
छिटपुट गिरती बूंदों में भी पूरा चेहरा गिला हो गया
ऐसा बताया उस रोज़।
ऐसे ही कितने बहाने वो आकाश को देख कर सोचतीं
छत पर जाती रहती थीं
हमें नहीं समझ आया कभी
कौन उन दोनों में
उस समय ज़्यादा भारी था!
(विगत)
कोई सामान तो नहीं छूटा है?
कह कह कर
दिन में कई-कई बार
लगा लेता था कॉल,
दोस्त थे!
वही दोहराते थे—
नहीं! कुछ छूटा नहीं है!
अगर वो सवाल समझ जाते
तो मैं रो पड़ता।
(प्रीति)
कभी इस नैराश्य से बाहर निकल पाऊंगा
कभी इस डूब से सिर निकाल सॉंस ले पाऊंगा
या अभी भिन्न हुए रास्तों को
किसी काल तक भिन्न मान पाऊॅंगा...
इस निराश मनोदशा को
कविता में बदलने के बाद भी
इसका उत्तर 'नहीं' ही आएगा
जबकि तुम जानती थी
कि कविता मेरे लिए सबसे प्रिय है
लेकिन अब समय आ गया है
और मैं तुम्हें बताऊं
कि कविता मुझे प्रिय है
लेकिन मेरी कविताओं के लिए
तुम प्रियतम विषय हो
और तुम्हारे जाने से
सारे वाक्य विकलांग और सारे बोध उलट-पुलट हो गये हैं...
(इति)
आ ही गयी हो तो बैठो!
एक आख़िरी प्रणाम भी क्यों छोड़ना
एक आख़िरी वसंत की इच्छा तो छोड़ ही चुका हूं
सजग, आरामदायक नहीं हो पाऊंगा
कोई सभ्य आदर्श नहीं दिखा पाऊंगा
बैठो! पालथी मार के बैठो!
पैदा होने के साथ ही
स्वीकार लिया तुमको अमिथ्या
हरेक ऋतु में
कभी कभी बहुत तीव्र याद आती थी तुम्हारी
तुम मुझसे पहले
मेरे गले मिलने वाली जगहों पर पहुंची
और उन्हें साथ ले गयी
फिर तो यूं था कि
जैसे चाहे जी रहा था
इस अवसंत भरे उमस में
ख़ैर,
मुझे पूछना था
कि मेरे जो इंद्रधनुष थे
वो अब कहॉं खिल रहे हैं?
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सम्पर्क
मोबाइल : 9119820081
मेल : kumneeraj005@gmail.com
बहुत अच्छी कविताएं है। नीरज की कविताओं में मनुष्य, पशु-पक्षी सभी के संवेदनाओं को अभिव्यक्त किया गया है। कवि ने जीवन के विभिन्न पहलूओं पर प्रकाश डालते हुए यथार्थ को चित्रित किया है। नैराश्य के बीच संभवानाओं के द्वार खूले रखें हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएं नीरज भाई ❤️~हिमांशु
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