कैलाश बनवासी की कहानी 'काका के जीवन की एक घटना'

 

कैलाश बनवासी


अभी तक धैर्य, अनुशासन, सहनशीलता और दूसरों का सम्मान जीवन के मूल्य माने जाते थे। समाज में लोगों से इसकी अपेक्षा की जाती थी और प्रायः इसके इर्द गिर्द ही समाज चलता रहता था। लेकिन समय बदला। सोच बदली। और इसके साथ जीवन के प्रतिमान भी बदल गए। अब किसी के पास धैर्य नहीं है। अनुशासन को ताक पर रख दिया गया है। सहनशीलता अतीत की बात हो गई और इसकी जगह हिंसा प्रतिहिंसा ने ले ली है। और सम्मान की तो पूछिए ही मत। साहित्य प्रायः अपने समय को प्रतिबिंबित करता है। कैलाश बनवासी की कहानी 'काका के जीवन की एक घटना' हमारे समय और समाज की सोच को बारीकी से उद्घाटित करती है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कैलाश बनवासी की कहानी 'काका के जीवन की एक घटना'।


     

'काका के जीवन की एक घटना'

                                             

कैलाश बनवासी 


    

खोली का माहौल अतिशय गंभीर था। उस खोली में, जहां मैं पिछले तीन साल से कॉलेज की अपनी पढाई पूरी करते रह रहा हूँ... ढाई सौ रुपया माहवार। आखिर यह एक फैलता हुआ शहर जो ठहरा...। आसपास के गांवों को अपनी लपेट में लेता हुआ, अपने कस्बाती चरित्र और माहौल को फाड़ता हुआ....। कुछ आधुनिक चमकीला होता हुआ... तो खोली में एक अव्यक्त बेचैनी ठंसी हुई थी। यह एक अजीब तनाव भरी चुप्पी थी जिसकी आँच में हम सब झुलस रहे थे। हममें से कोई भी बोल नहीं रहा था। हम सिर्फ़ सोच रहे थे। इस फेर में यदि बीड़ी भी जलायी जा रही थी तो पीने की सुध नहीं थी उन्हें। उन्हें यानी मेरे अतिथि, जिन्हें आये अभी मुश्किल से एक घंटा गुजरा होगा... शिवचरन काका, मंगलू पटेल और जागेश्वर महाराज। मंगलू पटेल और जागेश्वर महाराज—जैसे एक ही गाड़ी के जोड़ीदार बैल। इनकी दोस्ती-यारी गाँव भर में मशहूर है कि ये सिर्फ़ सोने के बेर आपने-अपने घरों में होते हैं, बाकी पूरा दिन साथ-साथ गुजरता है।

   

ये तीनों मेरे कमरे में पहली बार आये हैं।

   

बाहर जनवरी के शुरूआती दिनों की ठंडी रात है—शीत बरसाती। हालांकि इस समय आठ ही बजे होंगे, लेकिन बाहर जैसी खामोशी है, लगता था, दस बज रहे हैं। बल्ब के पीले बीमार उजाले में मैं उन्हें देखता हूँ, और सोचता हूँ, गाँव अभी भी वैसे ही हैं... थोड़े समय के हेर-फेर के बाद भी। उन्हें देखते हुए लगता था, ’गोदान’ नुमा किसी रचना से निकल कर आ रहे हैं। वही बंडी, वही धोती, वही पागा-पटका। चौड़े-चकले मेहनती बेडौल हथेलियाँ और पैर. हाँ, यह जरूर है कि मंगलू पटेल और जागेश्वर महाराज के चेहरों पर गँवई आत्मविश्वास की आभा है. शिवचरन  काका के पास तो यह भी नहीं। उनकी समय के साथ पीलियाती आँखों में वही आदिम भय और आशंका है जो अनजान जगहों में अजनबीयत से पैदा होती है...। शहर के प्रति वही पुरानी आशंका और वही भय।

    

ये तीनों मेरे लिए गाँव के सम्माननीय बुजुर्ग हैं, साथी नहीं। इसलिए हर बात को कुरेद-कुरेद कर पूछना अशिष्टता की बात होगी। यह हिचक, यह लिहाज मेरे साथ गाँव से आया है, और कुछ पुराना और काफी हद तक बेकार हो कर भी, धूल-धूसरित हो कर भी, मेरे भीतर बचा हुआ है, जीवित है, शहर की चकाचौंध से विस्मित सकुचाता-शरमाता हुआ। मैं भूल नहीं पाता कि मेरी एक ज़रा-सी गलती, एक तनिक ऊँची आवाज मुझे एक झटके से ऐसे खाने में डाल देगा जहां शहर आ कर बिगड़ जाने वाले तमाम लड़के हैं, जिन्हें अपने से छोटे-बड़े से बात करने का ज़रा भी शऊर नहीं, जो शहर में रहते हुए खुद को न जाने क्या समझते हैं—अव्वल दर्जे का घमंडी! और कल को यह पूरे गाँव में चर्चा का विषय हो जाएगा कि फलाने का लड़का गया हाथ से! हालांकि,यहाँ रहते हुए मैं यह बात जान गया हूँ कि अंततः इससे कुछ होना-जाना नहीं है।

  

खैर, इस वक्त मेरे कमरे में योजना बनाई जा रही है--शत्रु पर कूटनीति से विजय पाने की। यहाँ वही रहस्यमयता, वैसी ही चमकीली खामोशी है जैसा कि किसी कमांडर के खेमे में लड़ाई के दौरान रहती होगी—बहुत गोपन, किंतु उत्तेजन भरा। हम वही उत्तेजना महसूस कर रहे हैं।

   

हमारे कमांडर हैं मंगलू पटेल। भरे-भरे शारीर के मालिक,गाँव के सबसे तेज-तर्रार आदमी। गाँव की सभा में जब बोलते हैं तब मजाल है कोई उनकी बात काट सके! ये बोलते हैं, बाकी सब सुनते हैं, हाँ में हाँ मिलाते हैं। इनका हर दूसरे-तीसरे दिन शहर आना होता है। गाँव के लिए शहरी मामलों में विशेषज्ञ। ठान, कचहरी, अस्पताल, बाजार से ले कर सरकारी कार्यालयों तक—जहां किसी बाबू-भइया को खर्चा-पानी  दे कर पटाना है, या किसी मंत्री-नेता से सिफारिश करानी है—ऐसे सब कामों में मंगलू पटेल माहिर हैं। उनके हर कदम का साथी जागेश्वर महाराज है, उनसे उम्र में पंद्रह बरस छोटा, जाने कैसे आवारागर्दी करते-करते उनका साथी हो गया।

   

हाँ, इनके खाने-पीने का इंतजाम होना चाहिए, बस।

  

मुझे पता है, शिवचरन काका ने इन्हें कभी मन से पसंद नहीं किया। उनके अनुसार दोनों बड़े दंदी-फंदी आदमी हैं। लेकिन क्या करें, वक्त आने पर गदहे को भी बाप बनाना पड़ता है। मजबूरी है।

   

पटेल का चंदवा सर सोचने की मुद्रा में झुका हुआ है। खल्वाट चिकनी खोपड़ी रौशनी में चमकती हुई। जागेश्वर महाराज की दाढ़ी सदा के सामान बढ़ी हुई। वे बीड़ी फूंक रहे हैं।

    

ये एक दुर्घटना के कारण यहाँ पहुंचे हैं। दुर्घटना काकी के साथ हो गयी—आज दोपहर।

   

काकी—शिवचरन काका की पत्नी। खूब-खूब परिश्रमी काकी। वह हर रोज गाँव से शहर आती है दूध बेचने। कभी-कभी लकडियाँ और छेना (कंडे) बेचने भी। शहर गाँव से पच्चीस किलोमीटर दूर है। पहले तो चार किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है, नदी पार करना होता है, जहां सामान्य दिनों में जांघ भर-भर पानी रहता है। तब शहर जाने की मुख्य सडक तक पहुँचते हैं। वहाँ से बस, ट्रक या टेम्पो जो मिल जाए। सिर्फ काकी ही क्यों, गाँव की चार-पांच और ग्वालिनें शहर आती हैं इसी काम से। जबकि काका गाँव के बरदी (पशुधन) को नदी किनारे के मैदान पर चराते हैं अपनी लाठी और खुम्हरी (बांस का बना बड़ा गोल टोप - धूप-बारिश से बचाने वाला) सम्हाले। इसके अलावा घर में कुछ गाय-भैंस हैं। बस यही है काका के परिवार के गुजर-बसर का सहारा।

    

सुबह की चढ़ती धूप से ले कर ऐन सिर पर खड़ी दोपहर तक काकी अपने टुकना में रखे दूध, दही, मही, घी इत्यादि बेचती हैं। यह अच्छा है कि शहर में कुछ निश्चित ग्राहक बन गए हैं जहां उनका सामान खप जाता है। इसके बाद भी उनका काम बचा है। बाजार से घर के लिए सौदा-सुलुफ खरीदने का। इस खरीदारी के बाद वापसी। वे कार्यमुक्त होकर हँसती-एक-दूसरे को ताना मारतीं, प्रेम से गोठियातीं-बतियातीं। जैसे सब दुःख,काम-काज का बोझ इस हँसी के साथ बह जाता है और भीतर मन साफ़ हो जाता है... साफ जैसे नदी का निर्मल पानी जहां तली का एक-एक कण देखा जा सकता है...।

   

लेकिन आज दोपहर काकी की वापसी नहीं हो सकी. यह अनहोनी घट गयी उनके साथ बाजार में। इनके बताने के अनुसार घटना यों घटी। एक किराने दुकान से काकी तेल खरीद रही थी, एक किलो। काकी ने देखा, लड़का, जो शायद दुकान मालिक का बेटा था, कम तौल रहा है। काकी ने उसे टोका—ए बाबू,ठीक से तौल ना!

   

--ठीक से ही तौल रहा हूँ! लडके ने अपनी दुकानदारी की अकड़ में इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।

   

—कहाँ ठीक से तौल रहा है! देख, ये एक किलो का डब्बा है,पूरा भर जाता है!

  

---हमारे यहाँ कभी गलत नहीं तुला जाता, समझे! जितना तौल है उतना ही दे रहा हूँ।

    

---नहीं-नहीं। हमको नहीं लेना है तुम्हारे पास से। किसी दूसरे दुकान से ले लेंगे! बजार में कितनों ही दुकान है! लाओ, हमारा डब्बा वापस करो!

     

बस इतनी सी बात। तब किसी ने सोचा नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है, या हो जाएगा! लड़का कम उमर का बेअकल सनकी छोकरा! उसे जाने किस बात पर इतना पागलपन सवार हो गया कि वहीं रखे गुड़ की चट्टी फोड़ने की छड़ से काकी के सिर पर दे मारा..।

     

सर फूट गया। लहू बुरी कदर बहने लगा। बताते हैं कि पल भर में काकी की साड़ी खून से तर। अत्यधिक पीड़ा और भय से रोटी-चीखती काकी बेहोश हो गयीं।

   

लड़का दुकान छोड़ कर ना जाने कहाँ भाग गया।दूकान के पीछे उसका घर था। इधर कोहराम सुनकर लडके का बड़ा भाई आया भीतर से।उसने स्थिति सम्हाली। यह एक मुसलमान परिवार था। बड़े भाई ने तुरंत रिक्शा कर के काकी को ‘भाटिया नर्सिंग होम’ लाया। सुनते हैं, पहले तो डाक्टर ने भरती करने से इंकार कर दिया था- पुलिस केस है कर के, लेकिन बाद में फीस के स्तर पर उनके बीच समझौता हो गया।

    

काकी अभी वहीं हैं, थोड़ी देर पहले ग्लूकोज का दूसरा बाटल चढ़ाया गया था।



   

काकी के साथ एक महिला साथी –- रुकमनी की माँ —रुकी है। आखिर औरत जात। पानी-पेशाब कराना कोई औरत ही कर सकती है। फिर भला काकी के घर में और कौन है? बेटी तो ब्याह कर ससुराल वाली हो गयी है, और छोटू—वो तो अभी सातवीं पढ़ रहा है। रुकमनी की माँ के रहते सेवा-टहल की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं।

   

ये लोग नर्सिंग होम से सीधे मेरे यहाँ आ गए।

   

--अब? आगे क्या करना है?

  

--क्या करना है जी सिवचरन?

  

-- अब में का बताओं पटेल! अपढ़-गँवार आदमी! जौन करना है आपे मन करो। मोर तो बुध काम नइ करत हे।

  

--वही तो..। आगे क्या करना है, सोचना पड़ेगा धीर लगा के। 

     

वे इसी सवाल में उलझे हुए हैं जिसके कई-कई सिरे हैं। और कोई भी सिरा पकड़ते हुए डर लगता है—कहीं कुछ गलत न हो जाय। सवाल हमें मथ रहा है। कितना मुश्किल होता है कभी-कभी सोचना और सोच कर किसी निश्चित बिंदु पर पहुंचना... जिस पर सबकी सहमति हो... जिसमें नुकसान न हो। एक अजीब भंवर है, जितना इससे मुक्त होने की कोशिश करो, उतना ही और फंसते जाते हो। फिर यह क्षण बहुत सावधानी का है। ऐसा नहीं कि जोश में आ कर अर्रस-भर्रस में कुछ भी निर्णय ले लें जिसके लिए बाद में पछताना पड़े। फिर जिन्दगी भर गाते रहो—बिना बिचारे जो करे सो पाछे पछताय... या, अब पछ्ताये होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत...।

    

नहीं, फैसले की जल्दी नहीं है। मगर बहुत सोच-समझ कर फैसला करना है।

    

मंगलू पटेल की बुद्धि सक्रिय है। वे सोच रहे हैं।

    

लेकिन जागेश्वर महाराज और शिवचरन काका? वे शायद कुछ भी नहीं सोच रहे। सिर्फ चुप बैठे हैं। अपने पतंग की डोर मंगलू पटेल को सौंप कर वे निश्चिंत से हैं—ये जो करेंगे, अच्छा करेंगे।

   

“असल में बात ही ऐसी है कि...”आखिर उस लम्बी, कसमसाहट भरी बोझिल चुप्पी को मंगलू पटेल ने तोड़ा। लेकिन फिर कुछ देर रुक गए। महत्वपूर्ण क्षण में अपनी बात को और महत्वपूर्ण बनाने के लिए। जेब से बीड़ी का बंडल निकाला, उसमें से एक बीड़ी निकाल।कर इत्मीनान से सुलगाई, फिर एक गहरा कश ले कर बोले, “ये तो तै है कि हमको पुलिस रपोट नहीं करना है। इसके लिए मैंने सब तरफ से सोच-विचार कर डाला है। रपोट करने का कोई फायदा नहीं। फायदा क्या, वहां तो सब जानो पेट उघारे खाने बैठे हैं साले! इनको खिलाने-पिलाने में ही हमारा रुपया घुस जाएगा। इसलिए रपोट नहीं करते। कैसे भई?”

     

मंगलू पटेल अब हम सबसे मुखातिब हैं। पूछ रहे हैं।

    

उन दोनों ने इस पर कहा—हौ। सही बात है।

      

मंगलू पटेल आगे बोले, ”ठीक! मगर हमको उस पठान के सामने ये जताना नहीं है। हाँ, कैसे करना है, क्या-क्या करना है, सब यहीं सोच लो! वो पठान (लड़के का बाप) बहुत डर्राया हुआ है। देखा नहीं, कैसे हम सब जहाँ-जहाँ जाते थे, वो बछरू के समान हमारे पीछू-पीछू आता था। देख जगेसर, अभी हम सब जाएंगे अस्पताल। वो पठान तो वहाँ रहेगा ही! तुम गुस्सा के पठान को सुनाते हुए कहना, जोर से, चल गा फलाना! रपोट लिखाने के लिए चलो! पहले विधायक के पास चलते हैं, फिर वहां से थाना। तब मैं कहोंगा, अरे छोड़ो भइया, कहाँ थाना-कछेरी के चक्कर में फंसते हो! यहीं मान-मनौव्वल हो जाओ। तब सिवचरन, तुम कहना—वाह! कैसी बात करते हो तुम? एक आदमी का जीव जा रहा है और तुम कहते हो मान-मनौव्वल हो जाओ! नहीं होना हमको मान-मनौव्वल! मैं उसको जेल भेजवाऊंगा तभी मेरे को चैन पड़ेगा!”

   

जैसे किसी भावी नाटक का रिहर्सल चल रहा हो और निर्देशक अपने पात्रों को उनकी भूमिका समझा रहा हो।

  

मंगलू पटेल आगे बोले, “तब मैं पठान से कहूँगा, ये लोग तो मान नहीं रहे हैं भाई। अब तुम जानो तुम्हारा काम जाने। और पठान तो जैसे इसी का रास्ता देख रहा होगा। झट आ कर बिनती करेगा। तब जगेसर, ध्यान से सुन। तेरे को अड़ जाना है—अरे छोटा-मोटा केस होता तो हम भूल भी जाते। ये तो सीधा 307 का मामला है। हम तभी छोड़ेंगे जब तुम भौजी के ईलाज-पानी का पूरा खरचा दोगे! हरजाना अलग!”

   

जागेश्वर महाराज ने अपनी होशियारी जताई, “ठीक! और कहूँगा, देखो, भौजी रोज सिर पर वजन उठा कर शहर आती है, और तुम्हारे लड़के ने उसके मूड़ पर मारा है। अब कैसे चलेगा उसके घर का खरचा? इसलिए तुमको इसके एक महीने का रोजी देना होगा—एडवांस!”

 

जागेश्वर महाराज अपने ‘एडवांस’ शब्द पर खुद ही प्रसन्न हुए।

   

हाँ-हाँ! एकदम ठीक! मंगलू पटेल की प्रसन्नता भी छिपी नहीं। वे अपनी ‘प्लानिंग’ की सफलता के प्रति आश्वस्त भी हुए।

   

उनकी योजना अर्थात नाटक तैयार। वे अब पहले से प्रसन्न थे। मुख पर ताजगी, निश्चिंतता और एक गर्व का भाव आ गया था। नाटक में उतरने से पहले किसी नए अभिनेता के चेहरे पर जैसी उत्तेजना, रोमांच और आभा होती है वह यहाँ देखी जा सकती थी।

  

इस नाटक में मेरी भूमिका निर्धारित नहीं थी.वह अलिखित और अघोषित थी। मुझे शायद अपने पक्ष का माहौल तैयार करना था—बार-बार उस पठान पर बमकाना था, कुछ इस भाव से कि ये मत समझो कि हम देहाती हैं। हमें भी दुनिया के दाँव-पेंच आते हैं। कि दुनिया में अकेले तुम्हीं होशियारचंद नहीं हो!

   

हम नर्सिंग होम के लिए घर से निकले। गली सुनसान थी। आखिरी छोर पर बिजली का खम्भा खड़ा था जिसकी नीली रोशनी घने कोहरे को छाँटने की कोशिश कर रही थी। लोग अपने घरों में दरवाजे-खिड़की बंद किए दुबके थे। शायद टेलीविजन देख रहे हों। आज बुधवार है। माने चित्रहार। रात के साथ-साथ गहराती ठंडी हवा हमें सिहरा रही थी। मैंने ध्यान दिया, इन लोगों के कानों पर गमछे के अलावा कोई गरम कपड़ा नहीं है, इसके बावजूद इन्हें ठण्ड का वैसा अहसास नहीं था। जबकि मैं पूरे बाहों वाली स्वेटर पहने था। फिर भी लगा, ठण्ड मुझी पर भारी पड़ रही है। इसका मतलब है, मैं भी यहाँ के लोगों की तरह मौसम को लेने लगा हूँ। आक्रमण से पहले बचाव की आदत।

    

कुछ देर की पैदल यात्रा के बाद नर्सिंग होम हमारे सामने था। काफी बड़ा और नीली रोशनियों से जगमगाता हुआ।

   

वह पठान बाहर ही खड़ा था। जैसे हमारे आने की प्रतीक्षा करता हुआ।

   

हमें देखते ही वह हमारी तरफ गजब का उत्साह लिए हुलस कर आगे बढ़ा—अरे आओ भाई, आओ! मानो हम उसकी बेटी की शादी में बाराती हों।

   

उसकी सफेद दाढ़ी कटी-संवरी हुई थी। उम्र पचास के आसपास। उसे देखते हुए मैंने सोचा, हाँ बेटा, अभी तो सौ जतन करोगे! बन्दर के समान हमारे इशारे पर नाचोगे!

   

पहले मैं काकी के पास गया। वह नीचे के ही एक कमरे में थीं। बिस्तर पर। सिर पर पट्टियाँ बंधी थीं। वह जाग रही थीं।

   

मुझे देखते ही एकदम रोने लगीं। आँसू पीले पड़ आए निस्तेज गालों पर चुपचाप ढुलकने लगे, ओस की बूँद जैसे पत्तों पर ढुलकती हैं।

   

“बेटा...” उनके गले से बहुत कमज़ोर स्वर फूटा।

   

सुन कर मुझे उनके घर-आँगन में बिताए दिन याद आ गए...। एक-के बाद एक... कई दृश्य... कई बरस का साथ। स्वाभाविक था कि अंतर्मन में क्रोध और हिंसा की लहरें उठने लगीं।

   

वे रोते-रोते कमजोर स्वर में बताने लगीं, “मैंने कुछ नहीं कहा था, बेटा। बस इतना ही कहा था कि तेल कमती क्यों दे रहा है... और बस... आज तो मैं जैसे मर ही गयी थी, बेटा...।”

   

उस लडके के प्रति भयंकर गुस्सा और नफरत पैदा हो गयी। अकारण हमला! वह भी एक स्त्री पर!... काकी जैसी सरल और हंसमुख औरत पर! मैं सोच रहा था पुलिस में रिपोर्ट करनी चाहिए। पुलिस जब डंडा पलेगी तो बात समझ में आएगी। पिटाई से उसे समझ आएगा किसी को मारना, चोट पहुंचाना क्या होता है!



 

तभी वह पठान आ गया—लड़के का पिता। वह पास रखे लोहे की गोल स्टूल पर बैठ गया।

  

“बहन, अब कैसा लग रहा है ?” वह पूछ रहा था।

   

मेरे मन में इसके लिए खूब गुस्सा था। वह बिलकुल नहीं सुहा रहा था। मैंने सोचा, ये भी कोई कम स्याणा नहीं है! पूरा नाटकबाज है! देखो साले की एक्टिंग!

  

“मत रो बहन...मत रो!” वह-–हमारा शत्रु-–इस समय काकी के आँसुओं को अपने मटमैले मफलर से पोंछ रहा था। फिर मुझसे कहने लगा, “क्या बताऊँsss बेटा! जाने किस जनम का पाप किया था जो आज ये दिन देखना पड़ रहा है। उस नामुराद को मेरे ही घर में पैदा होना था! अरे, इतनी सीधी गऊ जैसी औरत को मार दिया!अल्ला उसे माफ़ कर दे तो कर दे, मैं कमीने को ज़िंदगी भर माफ़ नहीं कर सकता! मैं क्या बताऊँ, उस वक्त मैं घर में नहीं था, सेठ बालचंद की दुकान गया था सामान-वमान लाने! मेरे रहते ऐसा हरगिज़ नहीं होता। या अल्लाह...! मैं तुम लोगों की तकलीफ़ समझ रहा हूँ। इसका मुझे कितना दुःख है, मैं बता नहीं सकता...।” मियाँ की आवाज रोने-रोने को हो आई थी।

  

लेकिन मैं अपने कान खड़े किए था और अनसुना करने की कोशिश कर रहा था। शत्रु के प्रति दया नहीं करनी चाहिए। वर्ना वह हावी हो जाएगा तुम पर।

   

हम बाहर आ गए।

   

नर्सिंग होम के बरामदे के एक कोने में वे तीनों बैठे थे। यहाँ रोशनी की वह चौंधियाहट नहीं थी, अपेक्षाकृत हल्का उजाला था, नर्म और राहत देने वाला।

  

वह यहाँ आ कर शुरू हो गया, “भइया, मुझे गलत मत समझना। मैं भी आप लोगों के समान धरम-करम को मानने वाला गरीब आदमी हूँ। ऐसा हादसा हमारी दुकान में पहली मर्तबा हुआ है। वरना आज तक हमारे किसी ग्राहक को कभी कोई शिक़ायत नहीं हुई है। पूरे बाजार में आप पूछ लीजिए। ग्राहक ही तो हमारे भगवान् हैं. अपना दाना-पानी उन्हीं की बदौलत चल रहा है। इस नालायक ने तो हमारी नाक ही कटवा दी!भाईजान, अब कल को पुलिस उसको पूछते दुकान में आएगी तो पूरे बाजार में हमारी क्या इज्ज़त रह जाएगी! कौन ग्राहक आएगा? मैं तो जीते-जी मर गया उसके कारण...।” 

  

उन्हें अपनी योजना के लिए कोई उपयुक्त मौका ही नहीं मिल पा रहा था। उसकी अर्ज पर किसी का ध्यान नहीं था, वे अपने लिए कसमसा रहे थे। मौका मिलते ही जागेश्वर महाराज ने तोप दाग दी,” “...अब चाहे जो हो, हम तो उसको सजा दिलाए बगैर नहीं मानने वाले!”

  

“मैं कब कहता हूँ उसको सजा नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन क्या करूँ! बाप हूँ आखिर। मैंने बहन के इलाज में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखा है। आपको यकीन नहीं होगा, जब से सुना है, मुँह में एक दाना नहीं डाला है। मेरा बड़ा बेटा दिन भर यहीं रहा। अभी-अभी गया है। मेरी बीवी भी दुफेर में आई थी। मैंने तो घर में कह दिया है... उसे बिलकुल अपने घर का समझो! यहाँ के नर्स–डॉक्टर सबको खबरदार कर दिया है—इलाज में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। अल्लाह बहन को जल्द अच्छा करे, हम यही दुआ कर रहे हैं...।” 

  

हमारे लाख चाहने के बावजूद सहानुभूति के कई कतरे हमारे तपते तवे पर छन्न-छन्न आ गिरे। हम सोचने लगे, गलती तो लड़के की है। इसके बाप पर गुस्सा निकालने का क्या तुक है। यह एकदम असहाय है।  

  

लेकिन मंगलू पटेल ने फिर से कमर कस लिया। बोले, “...ठीक है। पर हम सिवचरन का क्या करें? इसकी रोजी-रोटी कैसे चलेगी? कमाने वाली तो भौजी ही थी। बात साफ है कि भौजी को अभी चलने-फिरने में टैम लगेगा। तब? तुम उनको दो हजार रुपया हरजाना दो। अब्भी!वरना हम रपोट कर देंगे। फिर कोर्ट-कछेरी भुगतते रहना!”

  

“अरेsss, इतना रुपया मैं कहाँ से लाऊंगा भाई! गरीब आदमी हूँ। मुझ पर रहम करो। हजार रुपया तो यहाँ एडवांस दिया है...।”

  

“वो अलग है। इलाज तो आपको ही करवाना है।” मैंने जोड़ा।

  

“मगर इतना ज्यादा रुपया...? आप समझ नहीं रहे...।”

  

“वो हमको कुछ नहीं समझना।” जागेश्वर महाराज ने अपने गँवाई अंदाज में धमकाया, “आपको रुपया देना पड़ेगा। नहीं तो कल आपका बेटा जेल में होगा। आप सोच-समझ लीजिए।” 

    

वह आदमी रोने लगा। यों ही नहीं, बुक्का फाड़ कर... ‘मैं लुट गया... बर्बाद हो गया! भेज दो हरामजादे को जेल। अब मैं और क्या कर सकता हूँ....।’

   

यह अप्रत्याशित था हमारी योजना से बिलकुल अलग। उसे रोता देख हम सभी कुछ पिघल गए। अब क्या करें? ये साला तो रो रहा है! फिर लड़के को जेल भेजना हमारे उद्देश्य में नहीं था। लिहाजा मंगलू पटेल ने बात बनाने की कोशिश की—“अच्छा छोड़ो! भई, हमको भी तुम्हारे लड़के को जेल भेज कर ख़ुशी नहीं होगी। चलो, आप पंदरा सौ दे देना। हम कुछ नहीं करेंगे. आखिर सिवचरन के भी बाल-बच्चे हैं। है कि नहीं ?”

   

वह बोला, --ठीक है। कैसे भी हो मैं इंतजाम करता हूँ।

   

--मगर पैसा हमको अब्भी चाहिए।

  

--अभी कहाँ, कल शाम तक की मोहलत दीजिए।

  

--अच्छा चलो। यह भी मान लिया। लेकिन पैसा कल जरूर मिल जाना चाहिए।


   --आप बेफिक्र रहें।कल कुछ तो भी करके पैसा दे दूंगा... कल शाम को मैं ले आता हूँ रुपया...  आप लोग थाना-वाना नहीं जाएंगे...।

   

--नहीं जाएंगे। देखो भाई, आपकी तरफ से धोखा नहीं होना चाहिए!

   

--नहीं होगा भई। ईमान की कसम खा के कहता हूँ। खुदा कसम!

    

हम सब निश्चिन्त हुए। चलो सौदा बुरा नहीं रहा।

    

भले लोगो! शायद आपने भी मेरी तरह सोच लिया होगा कि दूसरे दिन शाम को शिवचरन  काका को उससे रुपये मिल गए होंगे। फिर सोचा होगा, चलो अच्छा हुआ। उस गरीब बिचारे को कुछ तो मिला। और कहानी खतम हुई। लेकिन जमाना इतना भला कहाँ है? दुर्भाग्य से कहानी समाप्त नहीं होती, बल्कि थोडा और आगे बढ़ जाती है।

   

दूसरी शाम मैं नर्सिंग होम पहुंचा। काकी से मिलने के बाद काका की तरफ आया जो बाहर चबूतरे पर अकेले बैठे थे। पता चला, मंगलू पटेल और जागेश्वर महाराज आज सुबह चले गए। काका ने ‘खर्चा-पानी’ का रुपया उन्हें दे दिया। इतना साथ जो दिया।

   

कुछ समय बाद मैंने पूछा, “वो रुपये मिल गए आपको?”

   

“हाँ...आं..अ...दिया तो, मगर...।”

   

“मगर क्या?”

   

“सिर्फ चार सौ दिया है।”

   

“सिर्फ चार सौ?” मैंने हैरानी से पूछा।

   

“हाँ, वो आया था, बोला, अभी इतना ही हो सका है। बाकी पैसा कल लाऊँगा। तू चिंता मत करना।”

   

कुछ पल चुप रहा मैं। फिर वही सवाल पूछ लिया जो काका के ऐन सामने था, जिससे काका बचना चाह रहे थे, कतरा रहे थे, “आपको विश्वास है, कल वो रुपया ले कर आ जाएगा?”

  

काका चुप हो गए। निरुत्तर। संशय में न जाने कहाँ देख रहे थे। कहीं वह आदमी धोखा तो नहीं  दे देगा? नहीं-नहीं। ऐसे कैसे नहीं देगा! सबके सामने बात हुई है। बातचीत में वह कितना भला है! मगर, जिसने आज नहीं दिया, उसके कल का क्या ठिकाना? वो मुझको ठग रहा है? नहीं-नहीं...हाँ—हाँ- ...नहीं नहीं...।

  

काका ने तीसरे दिन, दिन भर उसका इन्तजार किया। लेकिन वह नहीं आया।

   

मैंने काका से कहा, “चलो उसके घर चलते हैं। ऐसे-कैसे नहीं देगा!”

   

“अरे रहने दो, छोड़ो। कहाँ उसके पीछे–पीछे घूमोगे भीख मांगते! अरे देना होगा तो देगा, नहीं तो मरे। भगवन सब देखता है। छोड़ो, जाने दो।”

  

काका ने एकदम मना कर दिया।

  

इधर मैं भी अधर में था। अब भला क्या देगा वो? सारा मामला ठंडा गया है। उसे देने की अब कोई मजबूरी या जरूरत क्या है? इधर काका का इंकार। ठीक है  मैंने सोचा, जब तुम्हें जरूरत नहीं तो मुझे क्या?

  

चौथा दिन। वह नहीं आया। इसी दिन डॉक्टर ने काका को बताया, उस व्यक्ति ने जितना दिया था, वह रुपया समाप्त हो गया। अगर आगे ईलाज कराना है तो खर्चा आपको देना पड़ेगा!

  

शिवचरन काका क्या कहते। घाव अभी भरा नहीं है। चलना-फिरना भी मना है। इलाज बीच में तो रोका नहीं जा सकता।

 

वे ठग लिए गए। एक बार फिर। जैसे हर बार ठग लिए जाते हैं। लेकिन ये ठगना नहीं है। बल्कि उससे भी बड़ी कोई बात है। धोखा! कपट! छल! लेकिन अब क्या? चिड़िया जाल से निकल कर उड़ गयी है...फुर्रsss। अब कुछ नही हो सकता।




  

इसके आगे की कहानी यों है कि आठवें दिन काकी को अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी। नर्सिंग होम का बिल भरने के लिए काका को काकी की करधन बेचनी पड़ी—सात लड़ियों वाली चांदी की करधन, सत्तर तोले की। शिवचरन काका ने यह सोच कर संतोष कर लिया की आखिर गहने बुरे दिनों में काम आने के लिए ही तो रखे जाते हैं।

  

उसी दिन वे काकी को लेकर गाँव चले गए।

  

वे चले गए। मैं यहाँ से अनुमान लगाते हुए देखता हूँ कि काका को यहाँ से जाना अच्छा लग रहा है। इससे भी अच्छा लग रहा है उन्हें अपने गाँव अरमरी पहुंचना। जैसे महीनों की यात्रा के बाद वापस अपने गाँव लौटे हों। वे प्रसन्न हैं और बिलकुल मुक्त। और बिलकुल हल्के किसी फूल के समान।

  

अपने गाँव के तालाब, शिवमंदिर और हरहराते कोमल सुआपाँखी पत्तियों वाले पीपल और गाँव के छप्पर-छानी, और फिर अपना घर देख कर, मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ कि उनकी आत्मा जुड़ा गयी होगी, मन में जमी हुई मलीनता और तकलीफ एकदम धुल गयी होगी, और भीतर वैसी ही हरियाली खिल गयी होगी जैसे अषाढ़-सावन में पूरी धरती खिल जाती है...।

  

वे भूल गए होंगे कि शहर में उनके साथ क्या हुआ था।

  

और एक दिन काका वह सब भूल जायेंगे और अपनी दुनिया में व्यस्त हो जायेंगे। फिर उन्हें कुछ भी याद नहीं रहेगा। यहाँ तक की उन्हें लगेगा जैसे यह सब उनके साथ किसी सपने में घटा है... या यह किसी और के साथ हुआ है। वे सोचेंगे, इसमें कौन-सी बड़ी बात है! शहर में तो प्रायः ऐसा होता रहता है। काका इसे किसी सपने की तरह भूल जायेंगे। अधिक से अधिक जब उनके बचपन के दोस्त बिसराम के साथ उनकी ‘शेर छाप’ वाली बैठक होगी तो नशे में कुछ देर के लिए ...शायद... इस घटना को याद कर लेंगे। नशे में बोलेंगे कि वो सरऊ पठान एकदम डामर आदमी था। एकदम्म ‘थड्ड-किलास!’ सिरिफ पैसे का लोभी। भाई, दुनिया में पैसा ही थोड़ी सब कुछ है! धरम-करम भी कोई चीज है। फिर उस नाती और मोती नर्स को कोसेंगे जो उनके परिवार को वहां फर्श पर सोने से मना करती थी, नहाने-धोने पर चिल्लाती थी और दिन भर चिड़चिड़ करती थी। कहेंगे, उस औरत के पास दिल नहीं, पत्थर है पत्थर! इसी रौ में शायद उस डॉक्टर को याद करेंगे जो उनको डॉक्टर कम और लुटेरा ज्यादा लगता था...।

  

जैसे-जैसे नशा बढ़ता जाएगा, वे भूलते जाएंगे। 

   

फिर एक दिन काका सब कुछ पूरी तरह भूल जायेंगे। और भूल कर सुखी हो जायेंगे।

    

लेकिन यहीं से मेरी तकलीफ और बेचैनी शुरू होती है जो मुझे लगातार मथ रही है। या, यह शायद मेरे दिमाग का फितूर है जो गले में अटके मंछ्ली के कांटे की तरह परेशान कर रहा है। जाने क्यों, उस घटना को ले कर मेरे भीतर काफी आक्रामक और हिंसक कल्पनाएँ सिर उठाती हैं। लगता है कि काका को भी उस आदमी का या उसके बेटे का सिर फोड़ देना चाहिए। और वैसा ही घाव... बल्कि उससे भी गहरा हो तो कोई हर्ज नहीं...कर देना चाहिए। कि ऐसा करके...भले इसमें खुली और घातक हिंसा है जो नितांत असंवैधानिक है... वे उसकी और उस जैसे तमाम लोगों की धारणाओं को ध्वस्त कर दे और चीखे—सालो, हम तुम्हारे अत्याचार सहने के लिए नहीं बने हैं!

 

यह कल्पना है। और शायद बहुत लचर। और बहुत-बहुत चालू। मेरी इस असम्भव मगर शानदार  ‘सुपरहिट’ कल्पनाशीलता पर आपको हँसी आ रही होगी, जिस पर व्यक्तिगत हिंसा पर आधारित बम्बइया फिल्मों का गहरा दुष्प्रभाव नजर आता है। शायद आपके विचार से ऐसी कल्पना मेरी घटिया सोच, कुंठा और हताशा की उपज है—नकारात्मक दृष्टिकोण! एक अराजक किन्तु नपुंसक प्रतिक्रिया। मुझे इससे इनकार नहीं है कि यह एक ‘स्वस्थ’ प्रतिक्रिया नहीं है। लेकिन मैं सोचता हूँ, मेरे दिमाग में ऐसी कल्पनाएँ क्यों कर आ रही है? और क्या यह केवल उन फिल्मों का असर है? हमारे माहौल का नहीं है? यहाँ जो घट रहा है, दिखाया जा रहा है, जिस वातावरण में हम सांस ले रहे हैं, कहीं यह उसी आबो-हवा से दूषित हो चली हमारी प्रवृत्ति तो नहीं है, जहां हम तेज और तत्क्षण परिणाम या समाधान चाहते हैं,।जहां असफलता और हताशा की ऊबा देने वाली प्रक्रिया के बाद हार कर हिंसा को ही आखिरी विकल्प के रूप में बचा हुआ पाते हैं...हर बार! धीरज,।आशा, विश्वास—क्या इनकी गुंजाइश बची रहती है? मैं स्वीकार करता हूँ कि ऐसी हिंसा से न सामाजिक बदलाव संभव है ना स्वस्थ समाज की रचना. सही है कि यह सरासर बचकानी, मूर्खतापूर्ण और व्यर्थ की कल्पना है। यह असम्भव है।

   

लेकिन यह घटना किसी जोंक के समान मुझसे चिपटी पड़ी है। मैं भूल नहीं पाता कि काका भूल रहे हैं सब कुछ। और वे एक बार भी इसके बारे में सोच नहीं रहे हैं.... या शायद इस पर सोचना व्यर्थ समझते हैं।

  

फिर सोचता हूँ, छोड़ो। वे तो भूल कर सुखी हो जाएंगे, मैं क्यों महानता की दम अपने पीछे लटकाने पर तुला हूँ, जो फ़ोकट में खुद परेशान हूँ और आपको भी परेशान कर रहा हूँ। क्यों बार-बार अन्याय, अत्याचार या शोषण वगैरह करके आपका जायका खराब कर रहा हूँ। मुमकिन है आप मेरी इस बकवास से तंग आ कर मुझसे बिदक जाएं। और भड़क कर कहें, ये क्या हो रहा है? कहानी या कहानी का सत्यानाश? इससे तो अच्छा है जा कर कहीं भाषण दो। पर हमारा टैम बर्बाद मत करो।

   

खैर। अब आप जो चाहें कहें।

  

अंत में इतना और कि मैं काका से प्रेम करता हूँ. बहुत। लेकिन इसका क्या किया जाय कि अब यह एक चिढ़ में बदलने लगी है। फिर सोचता हूँ, इस चिढ़ का कोई मतलब है, अथवा होगा? 



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


          

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