प्रचण्ड प्रवीर की कहानी 'आप शिक्षक को क्या समझते हैं?'


प्रचण्ड प्रवीर



शिक्षक समाज को दिशा देने वाला व्यक्ति होता है। ऐसे में उसकी स्थिति महत्त्वपूर्ण होती है। लेकिन हमारे यहां शिक्षक को कोई अहमियत नहीं दी जाती। उसे समाज का सबसे निरीह प्राणी समझा जाता है। सरकार भी इस शिक्षक को स्टेपनी की तरह इस्तेमाल करने से नहीं चूकती। कभी इस शिक्षक को निर्वाचन कार्य कराना होता है, कभी इसे जनगणना और पशुगणना में लगा दिया जाता है, कभी मंत्री जी की सभा में संख्या बढ़ाने के लिए बुला लिया जाता है तो कभी मेले ठेले में उसकी ड्यूटी लगा दी जाती है। पढ़ाने के अलावा उस पर इतने काम थोप दिए जाते हैं कि वह अपने मूल दायित्व को ही निभाने में असमर्थ हो जाता है। लेकिन एक मनुष्य होने के नाते उसका भी अपना स्वाभिमान होता है। प्रचण्ड प्रवीर ने अपनी कहानी 'आप शिक्षक को क्या समझते हैं?' के जरिए इसे बेहतरीन तरीके से उद्घाटित करने का प्रयास किया है। प्रवीर ये कहानियां कल की बात शृंखला के अन्तर्गत लिख रहे हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रचण्ड प्रवीर की कहानी 'आप शिक्षक को क्या समझते हैं?' 



कल की बात – २६०


'आप शिक्षक को क्या समझते हैं?'


प्रचण्ड प्रवीर


कल की बात है। जैसे ही मैंने मन्दिर से बाहर कदम रखा, अन्दर आ रहा बृजेश टकरा गया। वह मुझे देख कर बड़ा हैरान हुआ और खुशी से गले मिला। “बहुत दिनों के बाद दशहरे की छुट्टी में आए हो?” उसने पूछा। मैंने हामी भरते हुए उसकी खैरियत पूछी। बृजेश स्कूल में साथ पढ़ता था। उसके पिता की एक दुकान हुआ करती थी। ग्रेजुएशन के बाद उसे शहर में ही एक एड-हॉक सरकारी नौकरी भी मिली, जहाँ आशा थी कि वह पक्की हो जाएगी। लेकिन कुछ ऐसे हालात हुए कि वह नौकरी रद्द हो गयी और दो साल के वेतन के लिए अभी भी कोर्ट मेँ केस चल रहा था। घर छोड़ कर जाना नहीं चाहता था इसलिए एक प्राइवेट प्राइमरी स्कूल मेँ अङ्ग्रेजी का शिक्षक बन गया था। अपना हाल बताते हुए उसने बिना किसी शर्म के कहा, “दिहाड़ी मजदूर भी दस-बारह हजार कमा लेते हैं। मुझे तेरह हजार रुपए मिलते हैं। ऐसे मेँ ट्यूशन करता हूँ। खैर, वो सब छोड़ो। एक बात बताओ। किसी आदमी को पैसे लौटाने हों और वह ले नहीं रहा हो तो क्या करना चाहिए?”

                

मैंने कहा, “आज के ज़माने में यह कौन सा मुश्किल काम है। फोन नम्बर होगा ना? उस पर यूपीआई से भेज दो।" बृजेश अपने पॉकेट से पाँच सौ के चार नोट निकाल कर बोला, “इसको तुम रखो। हम तुम्हें एक आदमी का नम्बर देते हैं। उसको तुम दो हज़ार रुपया भेज दो।" उसके दिए नम्बर को मैंने पैसे भेजने की कोशिश की पर पता चला कि यह नम्बर यूपीआइ पर रजिस्टर्ड नहीँ था। मैंने बताया, “भाई, पैसे तुम अपने पास ही रखो। चाहो तो मनीऑर्डर कर देना। बताओ क्या बात है? कौन ऐसा आदमी है जो अपना पैसा नहीं लेना चाहता।"

                

बृजेश ने कहना शुरू किया, “बड़ी लम्बी कहानी है। इस साल जेठ मेँ मेरे ससुर जी बीमार पड़ गए। यहीँ एक प्राइवेट हस्पताल मेँ दाखिला किया था। कुछ पचास हजार का कुल खर्चा बता दिया। मेरे बाबू जी पैसा को दाँत से पकड़ते हैं। वे अपने समधी के लिए एक नया पैसा न खर्चें। यहाँ पत्नी रोने लगी। तुम्हें याद होगा अपने साथ पढ़ा करता था ‘राज बहादुर’। हाँ ठीक पहचान रहे हो, नेता बन गया है। हम उसके पास गए। वो हमको पहचान लिया। आमतौर पर लोग नहीँ पहचानते हैं। हम बताए कि ऐसी-ऐसी बात है। वो हस्पताल वाले को फोन किया और बीस हजार कम करा दिया। अब बचा तीस हज़ार, वो बोला कि ये तुम्हें देना होगा। हम बोले कि भाई ये उधार दे दो। राज बहादुर बोला कि हम उधार नहीं देते हेँ लेकिन तुम माँगने आए हो तो मदद करवाते हैं पैसा जुटाने में। अपने साथ बड़ा जीप में बिठाया। साथ मेँ चार गनर भी बैठा। गाड़ी उड़ा के ले गया, मेन रोड पर एक घर में। घर के बाहर नेम प्लेट मेँ लिखा था ‘अमरेन्द्र प्रधान’। हमको बाद में मालूम हुआ कि प्रधान जी दुनिया को दिखाने के लिए कंस्ट्रक्शन का बिजनेस करते हैं पर असल मेँ शराब-गाँजा का तस्करी से अरबो रूपया कमाए हैं। राज बहादुर का स्वागत हुआ और हमको बाहर आँगन में बिठाया गया। दरअसल राज बहादुर अपने ही काम से कुछ गया था। बातचीत के अन्त में हमें बुला के राज बहादुर ने प्रधान से कहा कि इसको तीस हजार रुपया दे दीजिए। शिक्षक है। ईमान का पक्का है। लौटा देगा। जरूरतमन्द की मदद करनी चाहिए। उसकी बात से हमें तीस हजार रूपया कैश मिल गया। हम ले कर चले आए और ससुर जी का इलाज हुआ।

                

फेरा यहाँ से शुरू होता है कि एक दिन हम ट्यूशन पढ़ा रहे थे कि हमेँ फोन आया। अमरेन्द्र प्रधान का फोन था। वो हमें मिलने के लिए बुलाया। हमने सोचा था कि दो हजार कर के पन्द्रह महीना में उसका पैसा लौटा देंगे। मेरे मन में यही बात थी। यही सोच के हम गए उसके यहाँ बोलने के लिए। प्रधान हमको देख के प्रेमभाव से बोला, “मास्टर जी, हमारे बड़े लड़के का बियाह है। हम दिल्ली-गुड़गाँव से शादी करने का विचार किए हैं। लेकिन हम चाहते हैं कि हमारे गाँव से पाँच सौ आदमी वहाँ विवाहोत्सव मेँ सम्मिलित हों।" हमने उत्तर दिया, “यह तो बहुत शुभ समाचार है। हम किस तरह आपकी सेवा करें।" प्रधान जी बोले, “देखिए, हमारे पास अपने आदमियों की कुछ कमी है। हम चाहते हैं कि आप घर के आदमी की तरह पाँच सौ आदमी का रेल से दिल्ली जाने का, वहाँ रहने का, वहाँ से वापस आने प्रबन्ध देखिए। बेटा अमरीका से आएगा। आजकल सब बाबू साहब है। घर का कोई आदमी काम ही नहीं करता है। लेकिन क्या इसके लिए हम अपना संस्कार भूल जाएँ? इसका काम में राम नरेश आपके साथ रहेगा। पैसा का इन्तजाम वो करेगा। आपको केवल वहाँ का इन्तजाम देखना है। गाँव का आदमी दिल्ली में मेरा नाक नहीँ कटा दे और उन लोग के देखभाल के लिए भी तो घर का आदमी चाहिए।" पूरा प्रोग्राम समझ कर हम बोले कि इसके लिए हमको पाँच दिन का छुट्टी लेना पड़ेगा। हम मन में विचारे कि ये आदमी हमारा मदद किया है तो हमें भी इस घड़ी में मदद करना चाहिए। यही सोच कर हम तैयार हो गए।"




                

मैंने पूछा, “तुम दिल्ली आए? और आए तो हमेँ फोन क्यों नहीं किए? नम्बर था ना तुम्हारे पास?” बृजेश कहने लगा, “अरे हम क्या बताएँ। आषाढ़ में शादी था। मन में आया कि एक बार तुम्हें फोन करें पर ऐसा व्यस्त हुए कि क्या बताएँ। राम नरेश और हम दौड़-धूप गाँव से दिल्ली जाने का प्रबन्ध किए। उस काम में मेरा समय ज्यादा लगा नहीँ। पैसे के मामले के लिए राम नरेश ही भरोसेमंद था। हम रेल में सबके साथ गए। गुडगाँव में एक जगह है मानेसर। तुम नाम जानते होगे शायद। वहाँ पर एक बड़ा कॉटेज बुक किया गया। पाँच सौ आदमी को ठहराया गया। जानते हो, लोग को लगता है कि शिक्षक है तो वो हर काम कर लेगा। सरकारी स्कूल का मास्टर जनगणना, मतगणना, टीकाकरण और पता नहीं क्या-क्या करता है। हमें भी हर आदमी का हिसाब रखना था कि कहीं कोई खो न जाए। गाँव का लोग अब वैसा थोड़ी रहा कि सब धोती में रहेगा। कुछ बूढ़े धोती में थे। आजकल सबको सब पता होता है। हमसे पूछा गया कि पतुरिया का क्या व्यवस्था है? नाच-वाच होगा कि नहीं? हम क्या जवाब देते। प्रधान जी हमको फोन पर बोले कि ना पतुरिया का नाच होगा ना ही दारू मिलेगा। क्योंकि उससे हँगामा होने का खतरा है। बाकी प्रबन्ध हमको करना है। वहाँ एक बड़ा बस का इन्तजाम था। हम लोग से पूछे कि दिल्ली आए हो, लाल किला, कुतुब मीनार, इण्डिया गेट देखने चलोगे? हम इसलिए पूछे कि हम खुद कभी नहीं गए हैं। एक बार दिल्ली जाना हुआ था दीदी जब एम्स हस्पताल में भर्ती थी, अब वो रही नहीं। खैर, जब हम पूछे तो गाँव वाला लोग बोला कि मॉल घूमना है। बड़ा बस था ही। उसमें लोग भर गया। हम कहते रहे कि दूसरा ट्रिप करेंगे, पर सुनता कौन है। करीब सौ आदमी ठूँस कर हम गुड़गाँव के एक मॉल पहुँचे। इतना आदमी देख कर वहाँ का गार्ड हड़क गया। बोला अन्दर नहीं जाने देंगे। हम बगल में दूसरा मॉल गए। वहाँ भी घुसने नहीँ दिया। हम सबको समझा-बुझा के बहला-फुसला के वापस बस में बिठाए और दिल्ली-गुड़गाँव का सड़क घुमाते रहे। फिर हम सबसे बोले कि प्रधान जी का फोन आ गया कि रस्म शुरू होने वाला है।

                  

प्रधान जी इतना गाँव वाला को बियाह में आया देख कर बहुत खुश हुए। बोले, खाओ साला तुम लोग। कितना खाओगे। तुमको पता होगा कि मिनरल वाटर अलग चीज है और बोतलबंद पानी अलग चीज है। पीने के लिए मिनरल वाटर के बोतल का भरमार। हम आज तक इतना बड़ा शादी कभी देखे ही नहीं थे। प्रधान जी की खुशी का ठिकाना नहीँ। बोलते रहे, खाओ साला तुम लोग। गाँव वाला सब खूब छक के खाया। रात में ग्यारह बजे हमसे आ के कुछ गाँव वाला बोला कि यहाँ का कमोड बैठने वाला है। इससे काम कैसे चलेगा? हम बोले कि काम चलाओ। हो जाएगा। फिर हम सो गए।

                

सुबह-सवेरे जब विदाई हो रहा था उस समय कॉटेज का चौकीदार प्रधान जी और उनके समधी के पास आ के बोला कि आपके जो मेहमान थे, वो मैदान की दीवार के किनारे मिनरल वाटर बोतल ले-ले कर दिशा-मैदान कर दिए हैं। वहाँ जगह-जगह गन्दगी फैली है और खाली बोतल लुढ़का पड़ा है। प्रधान जी आगबबूला। हमको सोते से उठाया गया, बुलाया गया और हमसे सवाल करने लगे। हमने समझाया, “प्रधान जी, हमसे इन लोग ने कल रात पूछा था। हमने कहा था कि कोशिश करोगे तो हो जाएगा। अब देखिए, वे लोग अपने हिसाब से ठीक ही किए। अगर वही रूम में गन्दा कर देते तो और ज्यादा खराब होता।"

                

प्रधान जी अपने समधी के सामने अपनी बेइज्जती से एकदम हत्थे से उखड़े हुए थे। हमको कुछ न कुछ बोलने लगे। हम गरम हो के बोले, “आप शिक्षक को क्या समझते हैं? हमारा काम है बताना-सिखाना। सबको पास कराने का गारण्टी हम नहीं लेते।“

                

उसके बाद हम सब गाँव वाले के साथ घर चले आए। हम प्रधान जी के घर गए दो बार पैसा लौटाने। लेकिन हर बार यही जवाब मिला कि घर पर नहीं हैं।  

                

मैंने समझाया, “यार तुम वहाँ चार-पाँच दिन खटे। उसका क्या? पैसा लौटाने का क्या सोच रहे हो? अरबपति को तुम्हारे दो हजार प्रति महीने की क्या फिक्र होगी?” बृजेश तमतमा गया, “तुम शिक्षक को क्या समझते हो? हम भिखमंगे हैं? हम हर महीने दो हजार का मनीऑर्डर भेज-भेज कर उसका पाई-पाई चुका देंगे।"

                

ये थी कल की बात!



दिनाङ्क : ३०/०९/२०२४


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग कवि विजेन्द्र जी की cहै।)



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