पवन करण के संग्रह पर वेद प्रकाश भारद्वाज की समीक्षा

 



जो तथ्य इतिहास में दर्ज होने से छूट जाते हैं, उसे दर्ज कराने की जिम्मेदारी साहित्य उठाता है। कविता, कहानी, उपन्यास या नाटक की इस रूप में भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण हो जाती है। प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में ढेर सारे ऐसे वृत्तांत भरे पड़े हैं जिसे ले कर इतिहास का एक नया अध्याय रचा जा सकता है। आजादी के बाद के प्रसंगों को जानने के लिए नागार्जुन की कविताएं एक महत्त्वपूर्ण स्रोत के रूप में इस्तेमाल की जा सकती हैं। पवन करण हमारे समय के जाने माने कवि हैं। वर्ष 2023 में उनका एक संग्रह प्रकाशित हुआ 'स्त्री मुगल'। इस संग्रह को इसलिए भी पढ़ा जाना चाहिए कि यह मुगल काल में स्त्रियों के मनोभावों को जानने समझने का एक बेहतर प्रयास है। सुप्रसिद्ध कला समीक्षक वेद प्रकाश भारद्वाज ने इस संग्रह की तहकीकात करते हुए एक समीक्षा लिखी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं पवन करण के संग्रह पर वेद प्रकाश भारद्वाज की समीक्षा 'स्त्री : अनुपस्थित उपस्थिति'।



'स्त्री : अनुपस्थित उपस्थिति'


वेद प्रकाश भारद्वाज


इतिहास में समय को दर्ज करने का अपना तरीका है, और उद्देश्य भी, पर साहित्य में जब इतिहास आता है तो उसमें समय के ऐसे आयाम भी सामने आते हैं जिनके बारे में कभी सोचा नहीं गया। पवन करण हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं जो कई बार इतिहास की अभेद दीवारों को पार कर अतीत के ऐसे दृश्यों को सामने ले आते हैं जो इतिहास को एक नई दृष्टि से देखने का अवसर देते हैं। उनके कविता संग्रह 'स्त्री मुग़ल' में वह एक बार फिर से इतिहास को जीवन की जड़ता से मुक्त कर देखने और पढ़ने का आग्रह करते दिखाई देते हैं।


स्त्रियों को केंद्र मे रख कर इससे पहले भी वह 'स्त्री शतक' के दो खंडों में प्राचीन भारतीय साहित्य से दो सौ स्त्रियों का एक नया परिचय सामने रख चुके हैं। इस संग्रह की कविताओं के माध्यम से उन्होंने स्त्री को एक बार फिर ऐसे रूप में सामने रखा है जिसमें वह व्यक्त भी है और अव्यक्त भी। उसकी उपस्थिति किस तरह अनुपस्थित बनी रहती है यह इन कविताओं के माध्यम से जाना जा सकता है। 


स्त्री मुग़ल की कविताएँ महज कविताएँ नहीं हैं, वह मुग़ल इतिहास की दीवारों में दफन ऐसी स्त्रियों की आवाज है जो अनसुनी ही रही हैं। भारत में मुगलों का इतिहास कोई दो सौ साल से अधिक का रहा है। इस इतिहास में हमने रजिया सुल्तान, जोधा बाई, मुमताज़ जैसी कुछ गिनती की स्त्रियों के बारे में ही जाना है। वह जानकारी भी बहुत सतही रही है। मुग़ल बेगमों, शहजादियों और उनकी कनिजों के जीवन में क्या कुछ घटित होता रहा, अपने समय को ले कर वह क्या सोचती थीं, अपने समय और समाज में उनकी वास्तविक स्थिति क्या थी, इस बारे में इतिहासकारों ने बहुत गहराई से कभी लिखा नहीं। स्त्रियों के लिए वैसे भी साहित्य में स्थान बहुत अधिक नहीं रहा है। साहित्य में उनकी उपस्थिति अक्सर पुरुष सत्ता को पुष्ट करने की रही है, उनकी अपनी महत्ता और अस्मिता का सवाल अक्सर महत्वहीन रहा है। पवन करण साहित्य में इस कमी को पूरा करते दिखाई देते हैं।


इन कविताओं में कोमलकांत पदावली जैसा भावातिरेक और लिजलिजापन नहीं है बल्कि किलों और हरमों की दीवारों के खुरदरे पत्थरों पर पड़ी खराशों की तरह खरखरापन है। मुगल स्त्रियों में बड़ी संख्या ऐसी स्त्रियों की है जो जीती नहीं थीं बस उन्हें जीता जाता था, उन पर कब्जा किया जाता था, या उन्हें राजनीतिक सौदा करने का जरिया बनाया जाता था। वह जंग में असलहा की तरह एक जगह से दूसरी जगह मुगल सेना के साथ भटकती रहीं, शहजादों को जनती रहीं पर वह युद्ध चाहती थीं या नहीं, इसकी किसी ने परवाह नहीं की।


पवन करण इस बात को मुगल स्त्रियों के मुंह से ही कहलवाते कहे जा सकते हैं। बाबर और हुमायूं की अम्माओं और बेगमों के मनोभावों के जरिए पवन करण उनके जीवन का मानवीय पक्ष सामने लाते हैं।


एक कविता की पंक्तियाँ देखिए - 


जंग के मैदान में अपनी-अपनी 

फतह और शिकस्त समेट कर दोनों अपने खेमों में

लौट जाते हैं मगर हारे हुए खेमे की 

औरत के पास जीते हुए खेमे में

जिंदगी भर हारने के अलावा कुछ नहीं बचता।


यह सिर्फ़ मुग़ल स्त्रियों का बयान नहीं है, सभी समाजों में कुछ घोषित और अनेक अघोषित ज़ंग हमेशा चलती रहती है जिनमें एक पक्ष जीतता है पर स्त्री हमेशा हारती है, क्योंकि उसे कभी पक्ष बनने का अवसर ही नहीं मिलता।



पवन करण 



इसी प्रकार की एक कविता की पंक्तियाँ हैं -


तुम आपस की ज़ंग में कूद पड़ते हो और हम मांओं को 

ख्वाबों में तुम्हारे जनाजे नज़र आने लगते हैं 


यह ज़ंग का एक दूसरा पक्ष है जो अक्सर ओझल ही रहता है। यह बेगमों का ही नहीं रानियों का भी डर रहा है। मुगलों के यहाँ हरम थे तो रजवाड़ों में रनिवास और जनानी डयोढ़ी हुआ करते थे। और उनमें जो स्त्रियाँ रहती थीं वस्तुतः वह रहती नहीं थीं, रखी जाती थीं। रहने और रखने में बड़ा अंतर है जिसे पवन करण की इन कविताओं में कई तरह से व्यक्त किया गया है। इस रखने में जीने का कोई सपना नहीं है, पर एक डर हमेशा रहता है कि - 


हाँ, बादशाह जरुर किसी और के लिए कभी भी

हम दोनों को अपनी ख्वाबगाह से बाहर कर सकते हैं


यह डर स्त्री के जीवन में हमेशा बना रहता है, चाहे वह हरम की हो या साधारण घर की। दो सौ साल पहले के जीवन पर लिखी गई कविताओं में यह बात आती है तो स्पष्ट है कि स्त्री चाहे शाही खानदान में हो या साधारण परिवार में सैकड़ों साल भी उसकी स्थिति में बड़ा अंतर नहीं आया है। और इसका कारण शायद यही है कि पुरुषों के फैसलों में, उनकी सत्ता में स्त्रियों की भागीदारी कभी रही ही नहीं। इसीलिए अकबर की बेटियाँ खानम सुल्तान, आराम बानू और शकरून्निसा के बीच संवाद होता है - 


आरामबानू, अब्बा हुज़ूर की दीन-ए-इलाही मजलिस में

एक भी औरत नहीं, क्या ये मजहब 

और उसकी मजलिस बस मर्दों के लिए है


यह सवाल अकबर की बेटियों का ही नहीं था, हर उस बेटी यानी स्त्री का है जिसे किसी भी तरह की हिस्सेदारी नहीं मिलती है। आज स्थिति बदली है पर कई जगह आज भी स्त्रियों का मंदिर में प्रवेश वर्जित है। यह अलग बात है कि वह चाहे समाज की सत्ता हो या धर्म की सत्ता, या कि राजनीतिक सत्ता, उसपर जब भी संकट आता है तब उसकी रक्षा के लिए स्त्री से सबसे पहले बलिदान माँगा जाता है। 


मर्द होना गुनाह का हकदार होना नहीं जैसी पंक्तियां सहज ही इस बात की तरफ संकेत कर देती हैं कि स्त्रियाँ मजबूत भले ही न मानी जाएं पर उनके पास भी अपनी बात कहने का साहस है। 


कहा जाता है जहान की सभी नदियों में

औरतों के आँसू बहते हैं, दरियाओं के

बहने की आवाज़ औरतों की सिसकियाँ हैं


इस तरह की पंक्तियों से संग्रह की अनेक कविताएँ भरी हुई हैं। इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए लगातार यह अहसास बना रहता है कि हम ऐसे समय में खड़े हैं जिसमें इतिहास और वर्तमान में मनुष्य होने के स्तर पर कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया है, भले ही बाजार में हमने बहुत तरक्की कर ली हो। वैसे इस संदर्भ में एक बात यह भी गौर करने वाली है कि जैसे मुगलिया सल्तनत में स्त्री जंग में जीते तोहफे की तरह प्रदर्शन की वस्तु थी उसी प्रकार आज के सुल्तान बाजार की सल्तनत में भी स्त्री की लगभग वही हैसियत है। इस बाजार ने बड़ी चतुराई से स्त्री की मुक्ति के नाम पर उसे गुलाम बना रखा है और उससे वह सब करवाने में सफल रहा है जो स्त्री की अस्मिता को तार-तार करता है। इस तरह इन कविताओं को, जिनका समय सैकड़ों साल पहले का है, वर्तमान के संदर्भ में भी पढ़ा जाना चाहिए। 


पुस्तकः स्त्री मुगल

कविः पवन करण

प्रकाशकः राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली

संस्करणः 2023


वेद प्रकाश भारद्वाज 



 (वेद प्रकाश भारद्वाज जी सुप्रसिद्ध कला-समीक्षक हैं।)


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