वसुधा डालमिया का आलेख ‘औपनिवेशिक भारत में परम्परा का संघटन : हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान; अनुवाद -संजीव कुमार
आज अलग अर्थों में ‘राष्ट्रवाद’ और
‘हिन्दू’ शब्द बड़ी चर्चा में है। इस पहचान को एक कट्टरवादी तबका
इन दिनों अपनी संकीर्णता में व्याख्यायित करने की कोशिशें कर रहा है। यह जाने बगैर कि
राष्ट्रवाद की अवधारणा बिलकुल आधुनिक यूरोपीय अवधारणा है। और हिन्दू शब्द भी उन
अर्थों में प्रयुक्त तो नहीं ही किया गया है जिन अर्थों में आज उसे समेटने की
कोशिशें की जा रही हैं। प्रख्यात लेखिका वसुधा डालमिया ने अपनी किताब के एक अध्याय में भारतेंदु के
बलिया व्याख्यान के सन्दर्भ में ‘हिन्दू’ शब्द और उससे सम्बंधित सन्दर्भों को अलग
तरह से समझने की कोशिश किया है। यह अनुवाद ‘हिन्दू परम्पराओं का राष्ट्रीयकरण :
भारतेंदु हरिश्चंद्र और उन्नीसवीं सदी का भारत’ नाम से राजकमल प्रकाशन से शीघ्र ही
प्रकाशित होने वाला है। युवा आलोचकों में संजीव कुमार अपने सुचिंतित विचार और प्रतिबद्धता
के लिए जाने जाते हैं। संजीव ने आलोचना के साथ-साथ अनुवाद में भी बेहतर काम
किया है। इधर संजीव ने वसुधा डालमिया की उपर्युक्त किताब का
अनुवाद किया है। ‘पाखी’ के अप्रैल २०१६ अंक में इस आलेख का एक हिस्सा प्रकाशित
किया गया है। हम यहाँ पर इस आलेख को उसके मूल रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइये
पढ़ते हैं यह आलेख ‘औपनिवेशिक भारत में परम्परा का संघटन : हिन्दी, हिन्दू,
हिन्दुस्तान।
औपनिवेशिक भारत में परम्परा का संघटनः हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान
वसुधा डालमिया
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : संजीव कुमार)
भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती हैः
भारतेन्दु का नज़रिया
नवम्बर 1884 में, नवगठित आर्य देशोपकारिणी सभा ने बलिया संस्थान के साथ मिल कर
उत्तर-पूर्व बनारस के एक ज़िला नगर बलिया में वार्षिक दादरी मेले के अवसर पर
संयुक्त रूप से एक बैठक आयोजित की। उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों की प्रमुख साहित्यिक शख़्सियत के तौर पर भारतेन्दु
इस जमावड़े को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किये गये। इस मौक़े पर नगर के रईस और
जाने-माने लोग मौजूद थे और इसकी सदारत ब्रिटिश कलक्टर डी. टी. रॉबर्ट्स ने की थी, जो भारतेन्दु के आने की ख़बर सुन कर इस
अवसर की गरिमा बढ़ाने को राज़ी हुए थे। भाषण का शीर्षक था – ‘भारतवर्ष की उन्नति कैसे
हो सकती है’; यहाँ उन्नति शब्द का इस्तेमाल ‘प्रगति’ के साथ-साथ ‘सुधार’ के अर्थ में भी किया गया था। खुद भारतेन्दु ने एक पक्ष पर दूसरे को
वरीयता देते हुए इसका अनुवाद ‘सुधार’ किया था।[i] यहाँ परवर्ती
उन्नीसवीं सदी का एक केन्द्रीय सरोकार दिखलाई पड़ता है। वह सरोकार था, स्वयं परम्परा के नाम पर परम्परा का
शुद्धीकरण या सुधार। उस समय इससे अधिक प्रासंगिक कोई और मुद्दा हो ही नहीं सकता
था। कुछ दिनों बाद जब इस भाषण का प्रकाशन हुआ तो इसे उचित ही ललित, गंभीर और समयोपयोगी बताया गया।
कुछ समय से आलोचनात्मक अध्ययन का विषय बनने
वाले इस भाषण पर पुनर्विचार करते हुए मैं उन सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्रों को
चिह्नित करने की आशा रखती हूँ जिनमें भारतेन्दु ने अपनी रचनात्मक ऊर्जाओं को
झोंका। साथ ही, इस अवसर को उनके कार्यों के आलोचनात्मक
मूल्यांकन का एक सर्वेक्षण पेश करना चाहती हूँ, ताकि
मौजूदा अध्ययन के प्राविधिक नज़रियों और सरोकारों में दाखि़ल हुआ जा सके।
भारतेन्दु ने अपनी प्रपत्तियों को स्पष्ट करने
के इरादे से, मोटे तौर पर, दो बड़े विषय-गुच्छों का विवेचन किया।
प्रथमतः, प्रगति को लेकर विचार किया, जहाँ यह स्पष्ट करने की कोशिश की कि
शासक वर्गों से क्या उम्मीद की जा सकती थी। शासक वर्ग का मतलब था, ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार और उसके एजेंट, यानी देसी नरेश। इस बाबत नज़रिया
स्पष्टतः उन नये बनते हुए मध्यम वर्गों वाला था जो अपने-आपको राष्ट्र का प्रवक्ता
मानते थे। चूंकि कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व संभव नहीं था, इसलिए सिर्फ़ सूचना-संपन्न जन-मत ही
समाज के इस तबके की अनौपचारिक राजनीतिक सुनवाई को संभव कर सकता था। इसके बाद, भारतेन्दु ने अवश्यंभावी रूप से
राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल को उठाते हुए देश के हित में एकजुट होकर काम करने की
बात की। इस सवाल के ज़रिये देश के मुसलमानों के साथ हिन्दुओं - धार्मिक अभिधान वाले अर्थ में - के
रिश्तों पर भी राय ज़ाहिर की। एतद्द्वारा यह स्पष्ट करना ज़रूरी था कि ‘हिन्दुस्तानी’ के व्यापक अर्थ में ‘हिन्दू’ होने के क्या मायने थे।
अभिवादन के चंद लफ़्ज़ों और कलक्टर के सम्मान में
कहे गये कुछ शब्दों के बाद भारतेन्दु ने सीधा विषय में गोंता लगाया। उन्होंने
हिंदुस्तानियों की तुलना ट्रेन के डिब्बों से की, जिन्हें गति देने के लिए एक इंजन की ज़रूरत थी। अगर कोई इस कठिन कार्य
को अंजाम देने वाला हो, तो कोई चीज़ न थी जो वे हासिल नहीं कर
सकते थे। लेकिन इसे अंजाम देने वाला था कौन? या
तो हिन्दुस्तानी राजे-महाराजे, नवाब
और रईस या फिर हाक़िम, यानी राज्य के ऊँचे अधिकारी। राजाओं और
रईसों को फुर्सत न थी, क्योंकि वे पूजा की रस्मों में, खान-पान में और झूठी गप्पों में व्यस्त
थे। औपनिवेशिक अधिकारीगण कुछ तो वाजिब तौर पर अपने प्रशासनिक कार्य में उलझे हुए
थे और कुछ अपने बॉल, थियेटर, घुड़सवारी और अख़बारों में। अगर उनके पास थोड़ा समय बच भी जाता, तो उन्हें क्या पड़ी थी कि वे हम ग़रीब
गंदे काले आदमियों के बीच समय गुज़ारते। यहाँ सिर्फ़ आर्थिक ही नहीं, नस्ली दूरी भी थी। इस तरह बदलाव ऊपर से
आना नामुमकिन था।
तो फिर ज्ञान के प्रसार के लिए और समयानुकूल
अपेक्षित बदलाव लाने के लिए कौन ज़िम्मेदार था? भारतेन्दु
यह सुझाव दे रहे थे कि मौजूदा समय में खुद जनता ही इसकी ज़िम्मेदारी ले। पुराने ज़माने
में, जब आर्य हिन्दुस्तान में आ कर बसे थे, तब ज्ञान और नीति का प्रसार करना
राजाओं और ब्राह्मणों की ज़िम्मेदारी थी। भारतेन्दु के अनुसार, यह आज भी हो सकता था, लेकिन यही लोग थे जो निकम्मेपन के जाल
में सबसे बुरी तरह उलझे हुए थे। अंग्रेज़ों की कृपा से और सामान्यतः संसार की
उन्नति के चलते कितना सारा तकनीकी ज्ञान सुलभ हो गया था। बावजूद इसके देश की जनता, जिसने पुराने ज़माने में अपने आदिम
औज़ारों के साथ आश्चर्यजनक खोजें की थीं, अब
चुंगी की कतवार फेंकने की गाड़ी से ज़्यादा कुछ न थी। मौजूदा दौर में उन्नति के लिए
एक घुड़दौड़ चल रही थी, और जापानियों को छोड़ भी दें तो अमेरिकी, अंग्रेज़ तथा फ्रांसीसी इस घुड़दौड़ में
आगे रहने का पूरा जुगाड़ लगाये हुए थे। यह ऐसा समय नहीं था जब पीछे छूटना किसी भी
तरह गवारा हो।
यह शिकायत कि ख़ाली पेट इन चीज़ों के बारे में कैसे
सोचें, अंततः क़ायल करने वाली न थी।
इंग्लैंड का पेट भी कभी यों ही खाली
था। उसने एक हाथ से अपना पेट भरा, दूसरे हाथ से उन्नति की राह के कांटे को साफ़
किया। क्या इंग्लैंड में किसान, खेत वाले, गाड़ीवान, मज़दूरे, कोचवान आदि नहीं हैं? किसी भी देश में सभी पेट भरे हुए नहीं होते।
किंतु वे लोग जहाँ खेत जोतते बोते हैं, वहीं उसके साथ यह भी सोचते हैं कि ऐसी
और कौन नई कल या मसाला बनावैं जिसमें इस खेती में आगे से दूना अन्न उपजै। विलायत
में गाड़ी के कोचवान भी अख़बार पढ़ते हैं। जब मालिक उतर कर किसी दोस्त के यहाँ गया
उसी समय कोचवान ने गाड़ी के नीचे से अख़बार निकाला। यहाँ उतनी देर कोचवान हुक्का
पीएगा या गप्प करेगा। सो गप्प भी निकम्मी। वहाँ के लोग गप्प ही में देश के प्रबंध छांटते हैं
...।
तब फिर, जनता
को ही खुद को सूचना-संपन्न बनाना और अपनी भलाई के बारे में सोचना था। उन्हें
आलोचनात्मक तरीके से राज्य की कार्यवाहियों का लेखा-जोखा करना था। इस तरह भारतेन्दु
यहाँ सूचना-संपन्न जन-मत की बात कर रहे थे, जिसके
द्वारा ही राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक बदलाव हो सकते थे। कारण, चारों तरफ़ दरिद्रता की आग लगी हुई थी।
मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट ने दिखला दिया था कि आबादी के लगातार बढ़ने के साथ-साथ
धन-संपदा लगातार घटती जा रही थी। किसी उपाय के लिए राजा-महाराजाओं या पंडितों का
मुंह जोहने का कोई फ़ायदा न था। ‘तुम
आप ही कमर कसो, आलस छोड़ो। दौड़ो,
इस
घुड़दौड़ में जो पीछे पड़े तो फिर कहीं ठिकाना नहीं है।... अबकी जो पीछे पड़े तो फिर
रसातल ही पहुंचोगे।’ इशारा आर्थिक और राजनीतिक प्रगति की ओर था।
मौक़ा चूकने (अब की जो पीछे पड़े) के मुद्दे ने
ऐसे साहचर्यों का आह्वान किया जो उतने ही विलक्षण थे जितने कि कारगर। भारतेन्दु ने
मसलों को एक साहित्यिक उपाख्यान से जोड़ा। यह उपाख्यान एक ऐसी घटना का हवाला देता
था जिसके बारे में यह मान्यता थी कि उसने हिन्दू -भारतीय इतिहास की धारा को मोड़
दिया था। उत्तर भारत के आखि़री महान हिन्दू राजा के रूप में मान्य पृथ्वीराज चौहान
के दरबारी कवि, चंदबरदाई, जेम्स टॉड के ‘अनाल्स एंड ऐन्टिक्विटीज़
ऑफ़ राजस्थान’ में बहुत ऊपर स्थान पाने के बाद से, किसी हिन्दू दरबार के आखि़री
महानतम चारण कवि माने जाते रहे थे, जिनके
वीरगाथात्मक महाकाव्य पृथ्वीराज रासो से आधुनिक हिन्दी साहित्य की शुरुआत मानी
जाती थी। भारतेन्दु ने चंद के उस दोहे को उद्धृत किया जो उन्होंने खुद का और अपने
स्वामी का सर क़लम किये जाने से पहले अपने अंधे, बंदी
स्वामी के सामने पढ़ा थाः
अब की चढ़ी कमान को जानै फिर कब चढ़ै
जिनि चुक्कै चौहान हक्कै मारय इक्क
सर।।........
‘सर’ में श्लेष था। इसके दो अर्थ थे, ‘तीर’ और ‘मस्तक’। बंदी राजा को तीरंदाज़ के रूप में अपने कौशल का प्रदर्शन करने के
लिए कहा गया था। चारण कवि ने उनका आह्वान किया कि वे लक्ष्य भेदने के बजाय बंदी
बनाने वाले बादशाह के सिर को भेद डालें। हालांकि वह प्रतीकात्मक भंगिमा ही थी, क्योंकि उससे अपना राजपाट वापस पाया
नहीं जा सकता था, लेकिन अब के दौर में इन शब्दों को
सामने रखने का आभासी अर्थ हिन्दू इतिहास को वहाँ से उठाना था जहाँ से वह पीछे छूट
गया था, बल्कि काट दिया गया था। ग़ौर करने लायक
है कि जब भारतेन्दु ने हर जाति के, सभी
इलाक़ों और परिस्थितियों में रहने वाले भारतीय अवाम का आह्वान किया कि वे देश की उन्नति
के लिए कार्य करें, तो उन्होंने हिन्दुस्तान का नाम न लेकर
सिर्फ़ भारतवर्ष का नाम लिया।
भारतेन्दु के अनुसार, आसन्न कार्यभार था जनता की बदहाली के
कारणों को चिह्नित करना। जो लोग धर्म या प्रचलन की आड़ में या अपने सुख की आड़ में
जा छिपे थे, उन चोरों को वहाँ से पकड़ कर लाना और
बांध कर कैद करना था। प्रगति की राह रोकने वाली सभी चीज़ों को निर्ममतापूर्वक उखाड़
फेंकना था, चाहे उसके चलते लोग निकम्मा कहें या
नंगा कहें, क्रिस्तान कहें या भ्रष्ट कहें। जब तक
सौ-दो सौ लोग बदनाम न हों,
जात बाहर न किये जाएं, यहाँ तक कि मारे न जाएं, तब तक देश-दशा में सुधार नहीं होना था।
संक्षेप में, भारतेन्दु साफ़-साफ़ यह कह रहे थे कि
उन्नति के हक़ में कुछ निश्चित सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन ज़रूरी था। इस तरह वे
सामाजिक प्रगति की धारणा का आग़ाज़ कर रहे थे।
उन्नति, प्रगति
और सुधार से क्या अभिप्रेत था? क्या
स्वीकार्य था और क्या कुछ था जिसे छोड़ दिया जाना था? यहाँ अनकहे तौर पर ‘परम्परा’ की अवधारणा मौजूद थी, एक ऐसा शब्द जिसे भारतेन्दु इस भाषण
में तो इस्तेमाल नहीं करते,
लेकिन उनकी कृतियों में अन्यत्र जिसकी केन्द्रीय
उपस्थिति देखी जा सकती है। जो कुछ दाय के
रूप में हासिल हुआ है, उसमें से सारभूत अंश के तौर पर महफ़ूज़
रखने लायक क्या है और क्या है जिसे फ़ालतू मान कर ख़ारिज किया जाना चाहिए। ग़ौरतलब
है कि भारतेन्दु ने यहाँ सुधार और प्रगति में अंतर किया है। वह ऐसे कि उन्होंने
सुधार का निरूपण उसे प्रगति में अंतर्भुक्त मानते हुए नहीं किया, बल्कि अलग से किया।
भारतेन्दु के अनुसार, ‘सब उन्नतियों का मूल धर्म है’। देश के राजनीतिक कल्याण को धार्मिक
मामलों से अलग करके नहीं देखा जा सकता। अंग्रेज़ों ने जो ज़बर्दस्त उन्नति की है, वह इसलिए कि उनकी धर्मनीति और राजनीति
मिली हुई हैं। निस्संदेह,
भारत के लिए भी इसी की ज़रूरत है। लेकिन
यह तभी संभव है जब धर्म के कुछ पक्षों में बदलाव किया जाए। भारतेन्दु ने धर्म शब्द
का इस्तेमाल उसके आधुनिक अर्थ में किया, यानी
ईश्वर मीमांसा, आस्थाओं के सिद्धांत के अर्थ में, लेकिन जैसा कि हमेशा होता है, इस शब्द में ‘न्यायसंगत’ या ‘उपयुक्त आचार’
का अर्थ भी अंतर्भुक्त था। अलबत्ता, उन्होंने दोनों के बीच फ़र्क़ भी किया, ताकि धर्म को अलग से ‘रिलीजन’ के अर्थ में बरता जा सके, क्योंकि
‘वास्तविक धर्म तो परमेश्वर के चरण-कमलों
का भजन है’ और इसे, स्पष्टतः, अक्षुण्ण रहने दिया जाना चाहिए। जहाँ तक
शेष का सवाल है, सभी रीति-रिवाजों में अपना कोई छुपा
हुआ मक़सद है, जो कि सामाजिक, घरेलू या शुचिता संबंधी हो सकता है।
लेकिन पुराने ऋषि-मुनियों ने धर्मनीति और समाजनीति को मिला दिया था। उन
ऋषि-मुनियों के वारिसों ने शास्त्रों में नये नियम और विधान भर दिये। अब यह हम पर
है कि हम इन दो तरह की नियमावलियों में फ़र्क़ करें, क्योंकि समाज-धर्म देश-काल के साथ सुधारे और बदले जा सकते हैं।
सामाजिक नियम उस रूप में क्यों बनाये गये थे, यह
समझना और फिर सिर्फ़ उन तत्वों को अंगीकार करना जो देशकाल की आवश्यकताओं के अनुरूप
हैं, यह हमारा काम है। लिहाज़ा विधवा-विवाह, स्त्री-शिक्षा, विदेश-यात्रा, इन सबकी इजाज़त मिलनी चाहिए। इस तरह, भारतेन्दु ने जिस रूप में उन्नति शब्द
का इस्तेमाल किया, उसमें, निस्संदेह, सुधार का आशय सबल रूप में मौजूद था और
यह शब्द सामाजिक आचार में समयानुकूल बदलाव की ओर संकेत कर रहा था।
मत-मतांतर को प्रगति की राह में नहीं आना था। ‘मत’ को यहाँ
सम्प्रदाय के अर्थ में इस्तेमाल किया गया।[ii] यह समय
दुश्मनियां निभाने का न था। वैष्णव, शाक्त
और दूसरे मुख़्तलिफ़ मतों के लोगों को अपने भेद-भावों को दफ़्न करना था। एक बार
विभिन्न हिन्दू मत एक हो जाएं, उसके
बाद हिन्दुओं , जैनों और मुसलमानों को भी उसी तरह
एकताबद्ध होना था। जातिगत ऊंच-नीच के अंतर को भुलाना था। इस चरण में मुस्लिम
भाइयों के लिए यह उचित था कि अब जब कि वे हिन्दुस्तान में बस गये थे, हिन्दुओं को नीची निगाहों के देखना बंद
करें और भाई की तरह उनसे बरताव करें। मुसलमानों को ऐसा कुछ भी करने से अपने को
रोकना था जो उनके हिन्दू बिरादरों को कष्ट
पहुंचाए। ऐसी चीज़ें जो हिन्दुओं के लिए संभव नहीं थीं, मुसलमानों को अपने धर्म की वजह से
आसानी से हासिल थीं। उनके यहाँ कोई जाति न थी, खान-पान
के छुआछूत का कोई नियम नहीं था, न
ही विदेश-यात्रा को लेकर प्रतिबंध थे। यह दुख का विषय था कि इन सारी सहूलियतों के
बावजूद मुसलमान लोग अपने हालात में कोई वास्तविक बेहतरी नहीं ला पाये। कई अभी भी
यही मानते थे कि उनके बादशाह दिल्ली और लखनऊ में राज कर रहे हैं। लेकिन वे दिन बीत
चुके थे। मुसलमानों को भी हिन्दुओं के साथ कंधे में कंधा मिला कर ही इस दौड़ में
शामिल होना था।
लेकिन हिन्दू लोग और कुछ हों, आपस में एकताबद्ध तो नहीं ही थे। इसीलिए
यह आह्वान ज़रूरी था कि हिन्दू बिरादर अपने विश्वासों के भेद-भाव पर बल देना बंद
करें। इस महामंत्र का जाप किया जाना था कि ‘जो हिन्दुस्तान
में रहे, चाहे किसी रंग किसी जाति का क्यों न हो, वह हिन्दू’। यह भी याद रखना अहम था कि वह हिन्दू था
जिसकी मदद की जानी थी, चाहे वह साथ में बंगाली, मराठा, मद्रासी, वैदिक, ब्राह्मो या मुसलमान भी हो; हर
किसी को दूसरे की ओर अपना हाथ बढ़ाना था। इस तरह देशभक्ति के अपने जोश में भारतेन्दु
न सिर्फ़ हिन्दुओं की मुख़्तलिफ़ इलाक़ाई विविधताओं (बंगाली, मराठा, मद्रासी) को और स्मार्त (वैदिक) तथा अपेक्षाकृत नये मूर्तिभंजकों
(ब्राह्मो) जैसी भिन्न मान्यता वाली निष्ठाओं को एक साथ लाने की हद तक गये, बल्कि मुल्क के बाशिंदों के रूप में
मुसलमान भी उसी लपेटे में शामिल कर लिये गये। आत्म का निरूपण करने की अनेक विधियां, जो कि उस दौर की लाक्षणिकता है, यहाँ ‘हिन्दू’ में अंतर्भुक्त की जा रही थीं। कारण यह
कि प्रसंग देश की आर्थिक तरक़्क़ी का थाः
कारीगरी जिसमें तुम्हारे यहाँ बढ़ै, तुम्हारा रूपया तुम्हारे ही देश में
रहै, वह करो। देखो, जैसे हजार धारा होकर गंगा समुद्र में
मिली हैं, वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हजार तरह से
इंग्लैंड, फरार्सीस, जर्मनी, अमेरीका को जाती है। दीआसलाई ऐसी तुच्छ
वस्तु भी वहीं से आती है। जरा अपने ही को देखो। तुम जिस मारकीन की धोती पहने हो वह
अमेरीका की बनी है। जिस लंकिलाट का तुम्हारा अंगा है वह इंग्लैंड का है। फरासीस की
बनी कंघी से तुम सिर झारते हो और जर्मनी की बनी चरबी की बत्ती तुम्हारे सामने बल
रही है।.................
आर्थिक और राजनीतिक तरक़्क़ी सामाजिक सुधार से
जुड़ी थी, जिसमें सामाजिक आचार के उन तत्वों का
सुधार भी शामिल था जिन्हें ग़लती से धर्म का सारभूत अंग मान लिया गया था। सामाजिक
तत्वों को धार्मिक से अलग करके ही पूरा मुल्क तरक़्क़ी कर सकता था। विदेशी वस्तुओं
और भाषाओं पर भरोसा नहीं करना था। अपने देश में अपनी भाषा को ही फलने-फूलने देना
था। हालांकि भारतेन्दु ने यहाँ किसी ख़ास भाषा का नाम नहीं लिया, लेकिन वे निश्चय ही हिन्दी की ओर इशारा
कर रहे थे। हिन्दी का सवाल एक ऐसा मर्कज़ी मुद्दा था जिसे वे बार-बार अपने लेखन में
उठाते थे।
इस तरह बलिया का भाषण अपने समय के राजनीतिक और
सामाजिक मुद्दों के प्रति,
सूचनासंपन्न जन-मत और हिन्दू /भारतीय
राष्ट्रीय पहचान के प्रति भारतेन्दु के सरोकार को बहुत साफ़-साफ़ सामने लाता है।
भाषा, साहित्य, धर्म, इलाक़ाई निष्ठा - सभी हिन्दू होने के ही विभिन्न पहलू थे। जो लोग परम्परा को परिभाषित करने के संघर्ष में लगे हुए थे, उनके लिए ये अवधारणाएं एक लड़ी में
पिरोयी हुई थीं - यह बात भारतेन्दु के साथी लेखक और पत्रकार प्रताप नारायण मिश्र
(1856-94) के शब्दों में सबसे साफ़गोई के साथ व्यक्त हुई है। जब उन्होंने साधनों और
आश्रयदाताओं की कमी के चलते बहुत दुख के साथ अपनी पत्रिका ‘ब्राह्मण’ को बंद किया, तब उस मक़सद को रेखांकित किया जिसके लिए
वे काम कर रहे थे, ताकि दूसरे लोग उस काम को जारी रख
सकें। विदाई पर कहे जाने वाले उनके विषादपूर्ण शब्द थेः
चहहु जु सांचहु निज कल्यान। तौ सब मिली भारत
संतान।।
जपौ निरंतर एक जबान। हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान
।।1।।
रीझै अथवा खिझै जहान। मान होय चाहे अपमान।।
पै न तजो रटिबे की बान। हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान
।।2।।
जिन्हें नहीं निजता को ज्ञान। वे जन जीवन मृतक
समान।।
याते गहु यह मंत्र महान। हिन्दी हिन्दू
हिन्दुस्तान ।।3।।
भाषा भोजन भेष विधान। तजै न अपनी सोइ मतिमान।।
बसि समझौ सौभाग प्रमान। हिन्दी हिन्दू
हिन्दुस्तान।।4।।
एक स्वदेशी सांस्कृतिक पहचान की स्थापना और उसका
निर्वाह, वह चाहे खाने के मामले में हो, चाहे कपड़े या भाषा के मामले में, उस समय का ज्वलंत मुद्दा था। हिन्दी हिन्दुओं
की भाषा थी, और यह एक ऐसी अवधारणा थी जिसे उसके पुराने इलाक़ाई जुड़ावों से जुदा
नहीं किया जा सकता था जब हिंदवी, हिंदुई
या हिन्दी, देश की, यानी हिन्दुस्तान की भाषा के लिए इस्तेमाल होने वाले पद थे। इसके
बावजूद ये तीनों - हिन्दी,
हिन्दू, हिन्दुस्तानी - उन्नीसवीं सदी के आखि़री दशकों में जिस रूप में
प्रस्तुत किये जाने वाले थे, उस
रूप में, प्राचीनता के अपने तमाम दावों के बीच
भी, तीसरे मुहावरे द्वारा ढाले गये सिक्कों
से अलग कुछ नहीं थे।
इससे पहले कि मैं भारतेन्दु की कृतियों के
आलोचनात्मक अभिग्रहण का मूल्यांकन शुरू करूं, उस
व्यापक राजनीतिक और सांस्कृतिक ढांचे का निरूपण ज़रूरी है जिसके भीतर यह
विचार-विमर्श चल रहा था।
औपनिवेशिक सरकार और जन-मत का निर्माण
अंग्रेज़ों के साथ संबंध पहले-पहल अंग्रेज
प्रशासनिक अधिकारियों के रवैये के द्वारा तय हुआ। यहाँ नस्ली नकचढ़ेपन की समस्या
बहुत वास्तविक रूप में सामने आती थी। यह विलक्षण बात है कि भारतेन्दु ने कलक्टर
डी. टी. रॉबर्ट्स की मौजूदगी में इन भावनाओं का इज़हार करने से खुद को रोका नहीं।
सदी की साठ और सत्तर की दहाई में आरंभिक राष्ट्रवादी आकांक्षाएं अंग्रेज़ों के उस
रवैये के विरोध में एक साफ़ रुख़ अख़्तियार कर रही थीं जो सदी की तीसरी चौथाई में
बहुत ज़ाहिरा तौर पर पहले से ज़्यादा सख़्त हो चला था। ग़दर-पूर्व के उदारवाद की जगह
उस पितृसत्तावाद ने ले ली थी जो किसानी तबके के साथ सदी की पहली चौथाई की
दक़ियानूस-रूमानी आसक्ति को पसंद नहीं करता था। वह मध्यवर्ग को शिक्षित करने की
उदारवादी आकांक्षा को भी पसंद नहीं करता था, उसी
मध्यवर्ग को जिसे पहले वह कुछ हद तक सत्ता में साझीदार बनाने को तैयार था। तीस के
दशक की सुधारवादी भावना ने 1857 के बाद सख़्त और नंगी नस्लवादी रंगत अख़्तियार कर
ली। फ़िट्ज़्जेम्स स्टीफ़ेन की बात यहाँ उद्धृत की जा सकती है, जो मात्र ढाई सालों के लिए वायसराय की
काउंसिल के लॉ मेम्बर रहे,
लेकिन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के
ब्रिटिश भारत में जिनकी उपस्थिति बहुत अहम थी। स्टीफ़ेन के शब्दों में, ग़दर के नतीजे के तौर पर ‘पुरानी व्यवस्था बिखर गयी; क़ानूनी, सैन्य और प्रशासनिक चीज़ों के बारे में एशियाई और यूरोपीय नज़रियों के
बीच एक नामुमकिन समझौता कराने की कोशिशों को तिलांजलि दे दी गयी। संविधि-संग्रह
(क़ानून की क़िताब) पर ग़दर का असर बहुत साफ़ दिखता है।’[iii] इसके परिणामस्वरूप साठ और शुरुआती सत्तर के दशक में कठोर कानून बने।
देश के प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त किया गया, भू-राजस्व व्यवस्था की अच्छी तरह
मरम्मत की गयी जिससे संशोधित बंदोबस्त अधिकांश प्रान्तों में प्रभावित हुए। इसके अलावा, टेलीग्राफ़ और रेलवे ने नियंत्रण और
एकता की अभूतपूर्व असरअंदाज़ी मुहैया करायी। सांख्यिकीय सूचनाएं इकट्ठा करने के लिए
एक केन्द्रीय सचिवालय स्थापित किया गया। इसी जगह से 1872 की पहली मर्दुमशुमारी के
लिए दिशा-निर्देश मिला था। डब्ल्यू. डब्ल्यू. हंटर की देख-रेख में हुए इस काम से
ही इम्पीरियल गज़ेटियर ऑफ़ इंडिया जैसे प्रामाणिक दस्तावेज़ को निकल कर आना था।
यह मान्यता बहुत मज़बूत जड़ें जमा चुकी थी कि सभी
तरह की तरक़्क़ी अंग्रेज़ों द्वारा क़ायम की गयी कानून और व्यवस्था के चलते संभव हो
पायी है, चाहे वह वाणिज्य के क्षेत्र में दिखने
वाली तरक़्क़ी हो, चाहे शहरों, सड़कों और रेल की बढ़ोत्तरी में, या शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और
एक नये शिक्षित वर्ग के अभ्युदय में। यह एक ऐसा सबक था जिसे रटंत विद्या की तरह
शुरुआती राष्ट्रवादियों ने भी दुहराया। रेलवे, शिक्षा, क़ानून और व्यवस्था की स्थापना के लिए
अंग्रेज़ों के प्रति अपना आभार प्रकट करते हुए तो उन्होंने इसे दुहराया ही, उस समय भी दुहराया जब वे थोड़ा ज़्यादा
कुछ मांगने, यानी सरकार में भागीदारी मांगने की ओर
बढ़े। लेकिन अंग्रेजों के उदारवाद ने
स्व-शासन में अपना विश्वास व्यक्त नहीं किया। 1874 में उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों के लेफ़्टिनेंट गवर्नर और 1876 में वायसराय की
काउंसिल के वित-सदस्य, सर जॉन स्ट्रैचे के सदय किंतु
संरक्षकीय सख़्ती से भरे शब्दों में, नस्ली
फ़र्क़ों की अनदेखी नहीं की जा सकती थी। अंग्रेज़ मुट्ठी भर थे और इस मुल्क पर उन्हें
अपनी सत्ता बनाए रखनी थी,
न सिर्फ़ अपने हित में, बल्कि सार्वभौमिक स्तर पर अराजकता और
विनाश को रोकने के लिए भी। तब उनके लिए असली सत्ता को अपने हाथों में रखने के
अलावा किसी और विकल्प पर विचार करने का कोई सवाल ही नहीं था। देसी लोगों को केवल
उपयुक्त स्तर पर प्रशासन में अधिकतम संभव हिस्सेदारी दी जा सकती थीः
...लेकिन इस इरादे को ले कर हमारे भीतर कोई आडम्बर नहीं होना
चाहिए कि हम उन कार्यकारी पदों को - और उनकी संख्या ज़्यादा नहीं है - अपने लोगों
के हाथों में रखेंगे, जिन पर, तथा हमारी राजनीतिक और सामरिक शक्ति पर, इस देश के ऊपर हमारी पकड़ निर्भर है। प्रान्तों
के हमारे गवर्नर, हमारी
सेना के मुख्य अधिकारी, ज़िलों के मजिस्ट्रेट और उनके अधीनस्थ प्रधान कार्यकारी कर्मचारी हर
अनुमानित परिस्थिति में अंग्रेज़ होने चाहिए।[iv]
ऐसे में देश पर शासन कर रहे ब्रिटिश प्रशासनिक
अधिकारियों से किसी तरह की राजनीतिक रुझान की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। वे देश
के सामाजिक और धार्मिक ढांचे के बाहर खड़े थे। उनके, गुहा (1989; 274) के शब्दों में, ‘चरम
बाहरीपन’ ने व्यवस्था में धंसे हुए उन लोगों के
वाजिब प्राधिकार को प्रतिबंधित कर दिया जो उसके भीतर से किसी बदलाव की शुरुआत कर
सकते थे। भारतेन्दु के अनुसार, अंग्रेज़
अपने मुल्क में जिस तरह की सरकार चला रहे थे, उसके
लिए उनकी तारीफ़ हो सकती थी;
उन्होंने जो तकनीकी तरक़्क़ी की और नये
विज्ञानों में उनकी जो दक्षता थी, उस
सबके लिए उनकी तारीफ़ हो सकती थी। लेकिन जहाँ तक हिन्दुस्तान में उनकी मौजूदगी का
सवाल था, इस बात में किसी तरह की दुविधा की
गुंजाइश बहुत कम थी; इस मुल्क के साथ उनका बरताव स्पष्टतः
वणिक और शोषक प्रकृति का था। पर, इस
मुक़ाम पर, अंग्रेज़ी राज से पूरी तरह छुटकारा पाने
की बात कल्पनातीत थी। ज़्यादा अहम था इस बात को समझना कि यह क्योंकर संभव हो पाया
था, कि क्यों हम, भारतीय लोग, ग़ुलाम थे और वे राजा (‘हम गुलाम ये भूप’), जैसा कि भारतेन्दु ने एक दूसरे मौक़े पर
ज़ोर दे कर कहा था। ज़्यादा अहम था[v] सांस्कृतिक
और राजनीतिक रूप से, उन हालात के भीतर ही सही, अपनी चीज़ों पर क़ायम रहना।[vi]
देसी राजाओं के प्रति अंग्रेज़ों के रवैये में
अपनी तरह का दुचित्तापन था। बतौर वायसराय (1876-80) लॉर्ड लिटन ने, ब्रिटिश राज के लिए सक्रिय समर्थन
जुटाने की अपनी कोशिश में,
एक अनुदारवादी के तौर पर भारतीय नरेशों
को क्राउन के साथ व्यक्तिगत राजभक्ति के बंधन में बांधने का प्रयास किया। यह उसकी
सुचिंतित राय थी कि जनता अपने स्वाभाविक शासकों, देसी राजाओं की ही सुनेगी। परंतु देसी राजाओं के प्रति आधिकारिक
ब्रिटिश रवैये में एक निश्चित अंतर्विरोध बना रहा। महारानी के 8 नवम्बर 1858 के
ऐलान में एक ओर यह कहा गया था कि ‘उनके
अधिकार, उनकी गरिमा और प्रतिष्ठा’, साथ ही, अपनी रियासत की सीमाओं के भीतर उनके नियंत्रण का सम्मान किया जायेगा, लेकिन दूसरी ओर महारानी ‘हमारी भारतीय सीमाओं में रहने वाले
बाशिंदों के प्रति उसी दायित्व बोध से बंधी थीं जो हमें हमारी दूसरी प्रजाओं के
साथ बांधे हुए है’। उनकी समस्त भारतीय प्रजा को ‘क़ानून का समान और पक्षपातविहीन संरक्षण’ हासिल होना था और इस क़ानून के निर्धारण
तथा अमल में ‘भारत के प्राचीन अधिकारों, प्रचलनों और रिवाजों को समुचित सम्मान’ दिया जाना था।[vii] जैसा कि
बर्नार्ड कोह्न ने बताया है, यह
वक्तव्य शासन के दो भिन्न,
यहाँ तक कि अंतर्विरोधी, सिद्धांतों को अपने अंदर समेटे थाः एक
वह जो हिन्दुस्तान को एक सामंती व्यवस्था के रूप में क़ायम रखना चाहता था, और दूसरा वह जो न्याय के मामले में
समतावाद का वायदा करता था जो कि इस सामंती व्यवस्था के ख़ात्मे का ही सबब बनता।
इसी समतावाद का पालन करने के लिए भारतीय प्रेस लगातार शोर मचा रहा था।
इस तरह स्थानीय नरेशों के संबंध में जन-मत का, जैसा कि वह देशी प्रेस में व्यक्त हो
रहा था, अंग्रेज़ों के साथ उनके गंठजोड़ के प्रति
तीव्र जागरूकता के साथ जुड़ाव था। वे अंग्रेज़ों के द्वारा संरक्षित थे, किसी भी रूप में जनता के प्रति
सीधे-सीधे जवाबदेह नहीं थे,
और इसीलिए चरम भोग-विलास में लिप्त रह
सकते थे। उनके नेतृत्व को स्पष्टतः एक स्वांग के रूप में ही देखा जा सकता था।
अलबत्ता, जब किसी अवसर पर ब्रिटिश प्रेस उन पर
हमले करता था, तब देशी प्रेस उनकी हिफ़ाज़त के लिए भी
सामने आता था।
अगर ऊपर से कोई नेतृत्व न था, तो परिवर्तन का वाहक कौन बनता? स्थानीय नरेशों के अलावा ‘देशी मत’ के दूसरे संभावित राजनीतिक प्रतिनिधि, शिक्षित मध्य वर्ग, को
लिटन ने बाबूओं के रूप में चिह्नित किया था, जो ‘देशी प्रेस में अर्द्ध-राजद्रोही लेख’ लिखने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते थे, ‘और जो खुद अपनी स्थिति की सामाजिक
विसंगति से अलग किसी और चीज़ को प्रस्तुत नहीं करते’ थे।[viii] हालांकि इस मध्य वर्ग को कोई राजनीतिक
प्रतिनिधित्व हासिल न था,
पर संघटित होने की प्रक्रिया में फंसा
हुआ यह मध्य वर्ग ही था जिसे एक सार्वजनिक वृत्त क़ायम करना था। उस सार्वजनिक वृत्त
में ही इसका राजनीतिक मत खुद को तैयार और प्रस्तुत कर सकता था। इसी मध्य वर्ग को
अब परम्परा के संघटन की, साथ ही साथ, न्यायोचित बदलाव की ज़िम्मेदारी लेने के
लिए सामने आना था। लेकिन इसके धर्म को - हमारे प्रसंग में, इसके ‘हिन्दूपन’ को - जो अस्मिता का अंकन करने वाली एक
अनिवार्य शै के रूप में उभर रहा था, राष्ट्र
की नव-विकसनशील अवधारणा के रिश्ते में अभी परिभाषित होना बाक़ी था।
हिन्दू समुदाय किस तरह संघटित हो रहा था? स्पष्टतः, समाजनीति समय-समय पर बदलती रही थी, और अनाज से भूसी को अलग करने की ज़रूरत
थी। यह अनाज क्या था और असली धर्म को बनाने वाली चीज़ क्या थी? आधुनिक हिन्दू धर्म को बनाने में जो बहुतेरी चीज़ें शामिल थीं, उन्हें जमाने के लिए साझा ज़मीन का
प्रबंध होना अभी भी बाक़ी था। इस मक़सद के लिए अपनायी जाने वाली रणनीतियां क्या हो
सकती थीं? ब्राह्मो और आर्य समाज जैसे नये
मूर्तिभंजकों से भिन्न, भारतेन्दु ने किसी भी चरण में यह नहीं
माना कि परम्परा में कभी कोई क्रमभंग हुआ था, पर
चूंकि हिन्दू परम्परा को समकालीन शक़्ल हासिल करनी थी, इसलिए इसकी रूपरेखा का अभी अंकन होना
बाक़ी था। इसलिए समुदाय और परम्परा, दोनों
को एक बार फिर, नये सिरे से ढाला जा रहा था। और इन
दोनों ने पश्चिमी विचार और संस्थाओं के साथ तथा ईसाइयत के साथ होने वाली लेन-देन
में ही खुद को व्यक्त तथा परिभाषित किया, भले
ही उसमें स्वदेशी तत्वों पर कितना भी ज़ोर दिया गया हो, क्योंकि, जैसा कि भारतेन्दु ने रेखांकित किया था, देश और काल ही अंततः यह तय करता है कि
कौन-सी चीज़ मुनासिब है।
ये सवाल उस देशी प्रेस के भीतर बहस-मुबाहिसों
के बीच हल होने वाले थे, जो जन-मत का प्रधान मंच बनने जा रहा
था। भारतेन्दु की दो पत्रिकाओं, ‘कविवचनसुधा’ और ‘हरिश्चंद्रचंद्रिका’, ने इस प्रक्रिया में बहुत बड़ा योगदान
किया, मुद्दों को चिह्नित करके। जैसे कि खुद
जन-मत को इन्होंने मुद्दा बनाया; उस
मध्य वर्ग के संघटन को मुद्दा बनाया, जो
कि अब तक खुद को परिभाषित न कर पाने वाला एक बेडौल गठन था, लेकिन जिसने अय्याश देशी नरेशों और
घमंडी औपनिवेशिक अफ़सरशाही,
दोनों से अपने अलगाव की बहुत साफ़ तौर
पर निशानदेही की।[ix]
भारतेंदु हरिश्चन्द्र |
हिन्दू और मुसलमान, हिन्दुस्तान और भारतवर्ष
भारतेन्दु के भाषण को उस विराट् उद्यम का
हिस्सा मानना चाहिए जिसे हम आज भारतीय राष्ट्र को परिभाषा देने के प्रयास के रूप
में पहचान सकते हैं। जैसा कि ज्ञान पांडे ने रेखांकित किया है, उपमहाद्वीप के आकार और वैविध्य के
मद्देनज़र, अभिजन राजनीतिक दायरों में भारतीय
राष्ट्र की कल्पना, उसकी निर्मिति के शुरुआती चरण में, कई मुख़्तलिफ़ समुदायों के एक मिले-जुले
निकाय के तौर पर की गयी, जिनमें से हरेक का अपना इतिहास और अपनी
संस्कृति थी। ये हिन्दुओं ,
मुसलमानों, ईसाइयों, सिक्खों, पारसियों के समुदाय थे (1990; 209-10)।
दरअसल, मामला इससे कहीं ज़्यादा जटिल था। अगर
राष्ट्र अलग-अलग समुदायों के संग्रह के रूप में कल्पित हो रहा था, तो खुद ये समुदाय, जो स्वयं एकरूप नहीं थे, आपस में सटने और दूसरों के सामने एक
संयुक्त मोर्चा पेश करने के प्रयास में लगे हुए थे। मामला इस वजह से और जटिल हो
जाता है कि ‘हिन्दू’, अपने विविध अर्थों में, राजनीतिक
और सांस्कृतिक जगह पर प्रभुत्व और दख़ल क़ायम करने लगा था, पर इसका इस्तेमाल कई मायनों में हो रहा
था। इसे समझने के लिए इस लफ़्ज़ की भिन्न-भिन्न प्रयुक्तियों को सुलझाना होगा, जो उन्नीसवीं सदी के आखि़री दशकों में
किसी हद तक आपस में मिल-उलझ गयी थीं और जो आज भी भ्रम पैदा करती हैं।
अव्वल ये कि ईस्ट इंडिया कंपनी के समय तक भी ‘हिन्दू’ एक ऐसा पद था जो फ़ारसी या तुर्की वग़ैरह के बरखि़लाफ़ देसी भारतीयों का
हवाला देता था; हिन्दू शब्द हिन्दुस्तान के सभी
बाशिदों के लिए इस्तेमाल हो सकता था। लिहाज़ा हिंदवी, हिंदुई या हिन्दी भी ऐसे पद थे जो हिन्दुओं द्वारा बोली जाने वाली भाषा के लिए प्रयुक्त पद
के रूप में इस्तेमाल हो सकते थे। हिन्दुस्तान शब्द मुख़्तलिफ़ दौरों में अलग-अलग तरीकों से
इस्तेमाल होता रहा था।[x] अल-बरूनी ने
इसे जिस मुल्क के एक भाग का संकेत करने वाला पद समझा था, वह पूरा मुल्क उसकी निगाह में ‘भारतवर्ष’ नाम से अभिहित होता था। बाद की
प्रयुक्ति में, यह पूरे उपमहाद्वीप से लेकर विन्ध्य के
उत्तर में स्थित भूभाग तक,
किसी भी चीज़ का द्योतन कर सकता था।
कभी-कभी यह उपमहाद्वीप के दक्षिण-पूर्व में स्थित देशों को भी शामिल कर लेता था, लेकिन अकबर तक आते-आते, मुग़ल साम्राज्य के चरमोत्कर्ष के दिनों
में, यह उस राजनीतिक और प्रशासनिक इकाई का
समानार्थी समझा जाने लगा जो कि अकबर का साम्राज्य था। अंग्रेज़ आए, तो उन्होंने इसे कभी उपहाद्वीप के लिए
इस्तेमाल किया, कभी दकन के उत्तर वाले भूभाग के लिए।
लेकिन, 1820 तक एक संकीर्ण परिभाषा भी वजूद
में आ चुकी थी, जैसा कि विलियम हैमिल्टन ने अपनी कृति ‘ए
ज्योग्रेफ़िकल, स्टैटिस्टिकल ऐंड हिस्टॉरिकल
डेस्क्रिप्शन ऑफ़ हिंदोस्तान’ में नोट किया था:
आधुनिक समय में यूरोपीय भूगोलविदों
द्वारा हिन्दुस्तान की सीमाएं प्रायः हिन्दू धर्म की सीमाओं के साथ सहवर्ती के तौर
पर मानी जाती रही हैं। इस चित्रण को... यह लाभ भी हासिल है कि यह तीनतरफ़ा
शक्तिशाली प्राकृतिक अवरोधों द्वारा पूरी तरह से सुनिर्धारित है...।[xi]
इस तरह हिन्दुस्तान धार्मिक और इलाक़ाई, दोनों रूपों में सुपरिभाषित हो गया था।
क्या जो हिन्दू धर्म को मानते थे, उन्हें
विशेष (इलाक़ाई) सहूलियतें मिली हुई थीं? इस
भूमि की ग़ैर-हिन्दू आबादी के हुक़ूक और
सहूलियतें क्या होनी चाहिए थीं?
‘हिन्दू’ की दूसरी प्रयुक्ति, जिसमें यह निकट अंतस्संबंध वाली विविध
आस्थाओं के लिए दिया गया एक धार्मिक अभिधान था, दिल्ली
सल्तनत के एकदम शुरुआती ऐतिहासिक वृत्तांतों के समय से व्यवहार में थी। इसका
प्रयोग ग़ैर-इस्लामी धर्मों के सभी अनुयायियों को एक साथ निर्दिष्ट करने के लिए
होता थी। जैसा कि रोमिला थापर ने बताया है, हिन्दू
समुदाय के प्रत्यय की जड़ों को ग़ैर-इस्लामी
स्रोतों में पंद्रहवीं सदी से पहले नहीं ढूंढ़ा जा सकता। यही वह समय था जब लोग अपना
उल्लेख हिन्दू के तौर पर करने लगे (1989; 224)। हालांकि यह ‘तुर्क’ के बरखि़लाफ़ प्रचलन में आया, जो
कि उस समय मुसलमानों के लिए सामान्यतः इस्तेमाल होने वाला शब्द था, पर उस समय किसी उपमहाद्वीपीय हिन्दू समुदाय
की कोई धारणा नहीं थी, और इतना ही नहीं, किसी स्पष्टतया धर्मशास्त्रीय आयाम के
बनिस्पत इस पद का दायरा सामाजिक-राजनीतिक अधिक था।[xii] इसी
धर्मशास्त्रीय आयाम को उपमहाद्वीप के धर्म की पश्चिमी समझ के नतीजे के तौर पर
स्थापित होना था।[xiii]
ईसाई मिशनरियों ने, और ब्रिटिश इतिहास लेखन ने भी, हिन्दुओं और मुसलमानों को बिल्कुल
अलहदा मानते हुए उनमें फ़र्क़ किया। उनकी निग़ाह में ये दो ऐसे जुदा लोग थे, जिनके पास न सिर्फ़ अपना-अपना विशिष्ट
धर्म था (जिन्हें मिशनरियों और ब्रिटिश इतिहासकारों ने एकाश्मक ही माना), बल्कि पृथक इतिहास भी थे। अगर ब्रिटिश
राज के शुरुआती दौर में मुग़ल इतिहास को ही इस देश का इतिहास समझा जाता था, तो एक भारोपीय भाषा के रूप में संस्कृत
की प्राच्यवादी खोज और नतीजतन प्राचीन हिन्दू अतीत के गौरव के प्रति पैदा हुए
उत्साह के परिणामस्वरूप[xiv] न सिर्फ़
अंग्रेज़ों की ऐतिहासिक दिलचस्पी मुस्लिम भारत से हिन्दू भारत की ओर स्थानांतरित
हुई, बल्कि इसके बाद से भारत की पहचान हिन्दू
भारत के रूप में ही होने लगी।[xv] हिन्दू सभ्यता
के पतन का मुख्य कारण भारत पर मुसलमानों के क़ब्ज़े को माना गया। जेम्स मिल की ‘हिस्ट्री
ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया’ (1817) ने भारतीय इतिहास के हिन्दू, मुस्लिम और ब्रिटिश युगों के रूप में
किये गये विभाजन पर अंतिम मुहर लगा दी और इसके बाद से भारतीय इतिहास को इसी विभाजन
में देखा जाने लगा। हालांकि भारतीय इतिहास का यह विराट युग-विभाजन मुख्यतः
राजनीतिक आधार पर किया गया था, पर
भारत के आरंभिक ब्रिटिश इतिहास लेखन ने यह मान लिया कि भारत में अरबों और तुर्कों
के आने के साथ शासकों और शासितों, यानी
बिल्कुल पृथक और सांस्कृतिक एवं सामाजिक रूप से अपने-आप में सजातीय समूहों के रूप
में देखे जाने वाले मुसलमानों और हिन्दुओं, के
बीच एक अंतर किया जा सकता है। यह मान्यता आने वाली शताब्दियों में वैध बनी रही और
इसे एक असंदिग्ध तथ्य की तरह ग्रहण किया गया कि पूरे ‘मुस्लिम’ दौर में दो पृथक सामाजिक वजूदों की मौजूदगी बनी हुई थी। लेकिन यह मान
लेना एक सरलीकरण होगा कि हिन्दू-मुस्लिम विभाजन पूरी तरह से ब्रिटिश इतिहास लेखन
का ही सृजन था। हालांकि ब्रिटिश संकल्पना ने विकास के एक ख़ास पैटर्न को बढ़ावा
दिया, जिसकी मिसाल हिन्दी-उर्दू भाषाई
बंटवारे में देख सकते हैं,
पर दरअसल इससे संबद्ध, मुसलमान से मराठा और मराठा से अंग्रेज़
तक के, राजनीतिक सत्ता के हस्तांतरण और
सहूलियतों के बंटवारे को भी शासित आबादी ने स्वाभाविक रूप से अपने जे़हन में दर्ज
किया। अगर औपनिवेशिक शासन के अधीन मुसलमान नेता पिछली राजनीतिक सत्ता की स्मृतियों
की ओर मुड़े, तो हिन्दू नेता भी एक व्यापक हिन्दू एकता
के निर्माण के लिए मुस्लिम उत्पीड़न की स्मृतियों का इस्तेमाल करने में पीछे नहीं
रहे। वे सभी हिन्दुओं को इस उत्पीड़न का
समान रूप से शिकार मानते हुए उन स्मृतियों का आह्वान कर रहे थे। जैसा कि अर्नस्ट
रेनान ने पिछली सदी में बताया थाः
... ‘साथ-साथ दुःख भोगना’ - और, निस्संदेह, साझा दुःख भोगना साझा आनंद के मुक़ाबले
अधिक एकताबद्ध करता है। जहाँ राष्ट्रीय स्मृतियों का सवाल हो, वहाँ व्यथा जीतों से अधिक मूल्यवान
होती है, क्योंकि वह दायित्वों का निर्धारण करती
है, और एक साझा प्रयास की मांग करती है
(1982, 1990; 19)।
सभी हिन्दुओं के द्वारा साझा रूप से भोगी गयी
यातना का उल्लेख उन्नीसवीं सदी के दौरान खुद हिन्दुओं ने तो लगातार किया ही, भांति-भांति के प्राच्यवादियों ने भी
कियाः इस तरह अपने-अपने धर्म और इतिहास वाले दो बिल्कुल जुदा लोगों की, हिन्दुओं और मुसलमानों की धारणा
निर्मित और स्थापित हुई।[xvi]
‘हिन्दू’ की तीसरी प्रयुक्ति राष्ट्रवादी थी और
यह एकदम नयी थी। उस समय एक व्यापकतर एकता की ज़रूरत महसूस की जा रही थी और यह अकारण
नहीं था। अगर भारतेन्दु ने मौजूदा आर्थिक शोषण के रू-ब-रू सभी हिन्दुओं के एकजुट
होने का आह्वान किया, तो वह इसलिए भी कि यह पूरी तरह स्पष्ट
था कि यूरोपीय उत्पादकों ने देसी उद्योग को विस्थापित कर दिया था। कराधान और भारी
आबकारी शुल्क, अंग्रेज़ों के सैन्य अभियानों का
वित्तपोषण, ये ऐसे आर्थिक बोझ थे जिनसे देशी
अख़बारों के पाठक भली-भांति परिचित हो चले थे। दादा भाई नौरोजी के काम से बड़े
पैमाने पर लोग अवगत थे। उनके विचार अख़बारों में प्रकाशित हुए और आगे चल कर ‘पोवर्टी
एंड द अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ (1901) जैसे ग्रन्थों में संकलित हुए। ये विचार हिन्दी
में अनुदित होकर अस्सी के दशक के मध्य में ‘कविवचनसुधा’ में धारावाहिक रूप से छपे।
लिहाज़ा, आर्थिक राष्ट्रवाद ने और ब्रिटिश
प्रशासन तथा गोरों के हाथों साझा तौर पर झेली जाने वाली यातना ने इस महामंत्र में
प्राण फूंकने का काम किया कि ‘जो हिन्दुस्तान
में रहे, वह हिन्दू’।[xvii] यह ‘हिन्दू’ का एक तीसरा अर्थ था, नये
राष्ट्रवादी निहितार्थ के साथ एक प्राक्-औपनिवेशिक प्रयुक्ति, जिसने शासित आबादी की साझा सांस्कृतिक
और ऐतिहासिक धरोहर का आह्वान किया। इसके बावजूद, दूसरा अनुप्रयोग, जिसमें
‘हिन्दू’ एक धार्मिक अभिधान था, इतने
बड़े पैमाने पर हावी था कि इस शब्द की किसी लौकिक (सेक्यूलर) प्रयुक्ति से उसे पूरी
तरह निकाल बाहर करना नामुमकिन हो जा रहा था।
पर साथ-के-साथ, ‘हिन्दू’ के प्रथम या प्राक्-औपनिवेशिक अर्थ ने
- जिसमें हिन्दुस्तान का हर बाशिंदा शामिल था - ‘हिन्दू’ के उस दूसरे अर्थ को अपने रंग में रंगा
और उसमें मिलावट की, जो इसे महज़ धार्मिक अभिधान के तौर पर
इस्तेमाल होने तक महदूद कर देता। दोनों पदों का संपात या मेल हो जाने से दूसरे
अर्थ को यह दावा करने की छूट मिल गयी कि वस्तुतः हिन्दू धर्म का पालन करने वाले लोग हिन्दुस्तान के
प्रत्येक और समस्त निवासियों का प्रतिनिधित्व करते हैं क्योंकि वे इस देश के मूल
निवासी हैं और इसीलिए देश के साथ सांस्कृतिक रूप से अधिक अंतरंगता के साथ संबद्ध
भी हैं। इस दावे में यह निहित था कि राष्ट्र महज़ समुदायों के कुल योग से नहीं बना
है, कुछ समुदाय उन दूसरे समुदायों के
बनिस्पत अधिक मुकम्मल तरीके से इसका प्रतिनिधित्व करने का दावा कर सकते हैं जो या
तो बाद में आये हैं, जैसे मुसलमान, या जो यथेष्ट विकसित नहीं (समझे जाते)
हैं, जैसे और भी पहले के बाशिंदे, जिसमें द्रविड़ या नाना प्रकार के
आदिवासी समुदाय शामिल हैं। तीसरा अर्थ, या
राष्ट्रवादी अर्थ, कभी भी अपने धार्मिक संकेतार्थों से
पूरी तरह छुटकारा न पा सका। इस पद की प्रयुक्ति उन्नीसवीं सदी में अस्थिर बनी रही
और इसके मुख़्तलिफ़ मायनों में आपसी जुड़ाव क़ायम रहा। बावजूद इसके, किसी प्रदत्त संदर्भ में ‘हिन्दू’ के प्राथमिक अर्थ को निर्धारित करना संभव है, यदि एक बार यह तय हो जाये कि इलाक़ाई, धार्मिक, राष्ट्रीय में से किस आधार पर यह पद प्रयोग में आ रहा है, और ‘अन्य’ की भूमिका में किसे रखा जा रहा है; चाहे वह अन्य, जैसा कि पुरानी इलाक़ाई प्रयुक्ति में
दिखता है, फ़ारसी या तुर्क हो, या मुसलमान (जिसे उस समय कई बार समूह
के हवाले में तुर्क ही कहा जाता है), या
फिर अंततः औपनिवेशिक स्वामी। लेकिन यह बात दिमाग़ में रखना ज़रूरी है कि धार्मिक
समुदाय को निर्दिष्ट करने वाली दूसरी प्रयुक्ति अत्यंत प्रभावी संदर्भ-बिंदु बनी
रहती है।
यहाँ दो और महत्वपूर्ण गुत्थियों पर ग़ौर करने
की ज़रूरत है। भारतेन्दु ने अपने छपे हुए भाषण के शीर्षक में भारतवर्ष शब्द का
प्रयोग किया है, हिन्दुस्तान का नहीं। परंतु खुद भाषण
में यह शब्द सिर्फ़ एक बार इस्तेमाल किया गया है, एक उद्बोधनपरक अंश में। इस अंश में, भले ही मात्र अतीत के संदर्भ में, बाहरी
हमलों से देश की हिफ़ाज़त करने के लिए लोगों से आगे आने का आह्वान किया गया है और
देश का मतलब वहाँ निहित रूप में आर्य-हिन्दू प्रदेश है। एक इलाक़ाई और सांस्कृतिक
इकाई के तौर पर भारतवर्ष तथा अस्मिता को स्थापित एवं चिह्नित करने वाले के तौर पर
आर्य, दोनों ही उस देसी परम्परा के हिस्से थे
जिसे सदियों से जीवित रखा गया था और पुराणों तथा धर्मशास्त्रों में जिसका बारंबार
स्मरण किया गया था। हिन्दुस्तान महज़ आंशिक
रूप से ही उस भारतवर्ष की धारणा के साथ मेल खाता था, जिसका अपना सांस्कृतिक और धार्मिक इतिहास था। वैसे ही जैसे हिन्दू यद्यपि
आर्य के साथ घुल-मिल गया था, पर
वह आर्य की तरह की उद्बोधनकारी शक्ति कभी हासिल नहीं कर पाया। आर्य का प्रयोग आर्य
और मलेच्छ के युगों पुराने भेदभाव की यादें ताज़ा कर देता था।
भारतवर्ष किस तरह की एकता की ओर इशारा करता था?[xviii] ऐसा नहीं कि यह पूरी सहस्राब्दी के दौरान अपरिवर्तनशील बना रहा। इस
मुद्दे पर विस्तृत अध्ययन होना अभी बाक़ी है, पर
अठारह महापुराणों में से मार्कण्डेय और भागवत पुराण, जिनके बारे में हम जानते हैं कि उनसे भारतेन्दु भली-भांति परिचित थे
और लगातार उन्हें उद्धृत करते थे, के
बीच सरसरी तौर पर की गयी तुलना भी इस अवधारणा के विचारधारात्मक संविधान में आये
हुए विराट बदलावों को चिह्नित करने के लिए काफ़ी है। भारतवर्ष के राजनीतिक इकाई
होने का कोई दावा पेश न करते हुए भी मार्कण्डेय पुराण इसकी सरहदों को बहुत स्पष्ट
रूप से चिह्नित करता है; इसकी चौहद्दियों का जो बिंब रचा गया है, वह काव्यात्मक और रक्षात्मक, दोनों है। बिंब इस प्रकार है कि पूर्व, दक्षिण और पश्चिम से इसे घेरने वाला
समुद्र एक धुनष के आकार में है, इस
धुनष की प्रत्यंचा को पर्वत श्रृंखला ने खींच रखा है जो उत्तर में दुर्ग की दीवार
की तरह स्थित है।[xix]
फिर इस देश से हो कर बहने वाली नदियों और इसके आर-पार फैली पर्वत श्रृंखलाओं की
गणना करने के बाद यहाँ बसी हुई जनजातियों
की सूची आती है - इस जगह आर्य और मलेच्छ, दोनों
गुंथे हुए मौजूद हैं; देश किसी भांति आर्यों का विशिष्ट
अधिकार-क्षेत्र नहीं है। लेकिन वे इसके केन्द्रीय भाग, मध्यदेश, में विशेषाधिकार-प्राप्त स्थिति में
हैं। सिर्फ़ यही जगह है जहाँ चारों वर्ण शास्त्रोक्त कर्तव्यों का पालन करते हैं।
कारण, भारतवर्ष भूलोक के अन्य वर्षों, यानी धरती के दूसरे भागों, से इसी रूप में अपने को अलग करता है कि
कर्मभूमि एकमात्र यही है,
जहाँ प्रत्येक कार्य, प्रत्येक यज्ञ का उचित प्रतिफल मिलता
है, और स्वर्ग में अपना समय पूरा कर लेने
के बाद जहाँ देवता भी जन्म लेना चाहते हैं। सिर्फ़ इसी जगह पर वैदिक यज्ञ-याग किये
जाते हैं और यही जगह है जहाँ अनेक पारलौकिक अवस्थाओं को भी हासिल करना संभव है। इस
प्रकार वर्णव्यवस्था तथा उससे जुड़े सभी विधि-निषेधों का प्रचलन ही इस इकाई में एक
सुसंगति लाता है।
भागवत पुराण में भारतवर्ष की प्रशस्ति में एक
स्तुति है, जो हरि को संबोधित है और जिसका गायन
देश के जनसाधारण के साथ नारद करते हैं।[xx] इस
जनसाधारण का अंकन वर्ण व्यवस्था का अनुपालन करने वाले के तौर पर किया गया है।
लेकिन स्तुति में ज़ोर वर्णव्यवस्था से हट कर है। कहा गया है, इस देश में सभी लोग - जनजातियों का, आर्य या मलेच्छ का कोई ज़िक्र नहीं किया
गया है - विविध योनियों, जन्म और मोक्ष से गुज़रते हैं। मोक्ष
जन्मों के चक्र से छुटकारा पाना है, यद्यपि
यहाँ आ कर इसे भक्ति की स्थिति से अभिन्न रूप में देखा जाने लगा है। कर्मभूमि की
धारणा के साथ-साथ स्वयं वैदिक यज्ञ का भी महत्व घटा है; इसे मात्र सांसारिक सुखों की प्राप्ति
के साधन के तौर पर देखा गया है। इंद्र आदि विविध नामों के साथ हरि यज्ञ के दान
यानी हवि को स्वीकार करने वाले के तौर पर क़ायम हैं, लेकिन भारतवर्ष यहाँ भूलोक के अन्य भागों से इस मायने में विशिष्ट है
कि सिर्फ़ यहीं भक्ति को प्राप्त करना संभव है, और
यही वह स्थिति है जिसे देवता भी प्राप्त करना चाहते हैं जब वे यहाँ जन्म लेने की
इच्छा व्यक्त करते हैं।
इस तरह भारतवर्ष सदियों तक सांस्कृतिक रूप से
अत्यंत आविष्ट धारणा बना रहा है, जिसने, राजनीतिक हक़ीक़त से मरहूम होने बावजूद, एक कर्मकांडी, सामाजिक, धार्मिक, समर्पणमूलक, विषमरूपता में समरूपता की खोज करती
व्यवस्था - ब्राह्मणवादी व्यवस्था - के विज़न के तौर पर अपना सामर्थ्य बनाये रखा है;
हालांकि
जिन शक्तियों को इस समरूपता के साधन के तौर पर देखा गया था, वे स्वयं समय के साथ बदल गयीं। लेकिन
पवित्र नदियों और पर्वतों से आच्छादित भूभाग के साथ जुड़ी यह व्यवस्था ही थी जो
उपमहाद्वीपीय स्तर की वैधता को हासिल करने के सबसे पास तक पहुंच पायी।[xxi] इस
अवधारणा के उन्नीसवीं सदी के पुनरुज्जीवन एवं राजनैतिकीकरण को इसी नैरंतर्य के
संदर्भ में रख कर देखना होगा। भारतेन्दु पुराणों से सुपरिचित थे, जैसा कि ‘हरिश्चंद्रचंद्रिका’ के कई
अंकों में अठारह मुख्य पुराणों के उनके द्वारा प्रस्तुत सार-संक्षेप से भली-भांति
स्पष्ट है।[xxii]
हालांकि वे भारतवर्ष और हिन्दुस्तान के बीच कोई सोचा-समझा अंतर नहीं करते हैं, लेकिन असलियत यही है कि उनके द्वारा
भारतवर्ष का इस्तेमाल स्पष्टतः हिन्दू धार्मिक एवं सांस्कृतिक संदर्भ तक महदूद है।
यहाँ जिस भाषण का विश्लेषण किया गया है, वह चूंकि एक जनसभा में दिया गया भाषण
था, जहाँ श्रोताओं में हिन्दू, मुसलमान और यहाँ तक कि अंग्रेज़ भी
मौजूद थे, इसलिए उन्होंने जिस पद का उपयोग किया, वह था ‘हिन्दुस्तान’। ‘हिन्दुस्तान’ हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों का निवास-स्थान हो सकता था, क्योंकि एक समय में इस देश के सभी
बाशिंदे हिन्दू कहे जाते थे, हालांकि
आधुनिक युग का हिन्दू (एक धार्मिक अभिधान वाले अर्थ में) देश के मूल निवासी होने
की अपनी दावेदारी के बल पर इसके भीतर एक विशेषाधिकारयुक्त ओहदे पर क़ाबिज़ था। ‘भारतवर्ष’ का इस्तेमाल भारतेन्दु ने सिर्फ़ एक बार, और वह भी लगभग अनजाने में, पृथ्वीराज-मोहम्मद गोरी की लड़ाई के
उल्लेख के बाद किया, जो इस बीच सर्वोत्कृष्ट हिन्दू -मुस्लिम
टकराव का प्रतीक बन चुका था। इसके विपरीत, ‘वैष्णवता
और भारतवर्ष’[xxiii] जैसे लेख में,
जहाँ संदर्भ स्पष्ट रूप से हिन्दू और धार्मिक था, भारतेन्दु ने एक बार भी ‘हिन्दुस्तान’ की चर्चा नहीं की। यहाँ उन्होंने खुद
को सीधे-सीधे भागवत पुराण वाले आदर्शीकरण की परम्परा में रखा और वैष्णव भक्ति को हिन्दू धर्म की एकता और निरंतरता के निमित्त के रूप में
देखा, लेकिन उनकी दृष्टि ज़ाहिरा तौर पर
राष्ट्र एवं राष्ट्रीय धर्म की उन्नीसवीं सदी की समझ से भी प्रभावित थी। उस समय का
राजनीतिक यथार्थ, विडंबनापूर्ण तरीके से, मात्र ब्रिटिश इंडिया था। अलबत्ता, इसकी भौगोलिक और प्रशासनिक चौहद्दियां ‘भारतवर्ष’ और ‘हिन्दुस्तान’ की धारणा से ढंकी जा रही थीं। इस तरह भारतवर्ष, हिन्दुस्तान और ब्रिटिश इंडिया की
मानचित्र-रेखाएं एक-दूसरे को फलांगती, काटती
और अतिछादित (ओवरलैप) करती थीं, लेकिन
धारणाओं के रूप में इन्होंने अपने विशिष्ट संकेतार्थों को बरक़रार रखा और भारतवर्ष
का राजनैतिकीकरण इस भूभाग के सच्चे हक़दार और कमतर हक़दार के बीच अंतर की अपनी समझ
को अपने साथ ले कर आया।
इसी पृष्ठभूमि में आर्य-मलेच्छ द्विभाजन को भी
समझने की ज़रूरत है।[xxiv] हालांकि
बहिरागत आर्य स्थानीय लोगों की अशुद्ध भाषा, साथ
ही, आनुष्ठानिक अशुद्धता की ओर संकेत करने
के लिए उन्हें मलेच्छ कहते थे, मूलतः
यह पद आर्यों और उन जनजातियों के बीच की आंतरिक भिन्नताओं को स्थापित करने के लिए
इस्तेमाल होता था जो कि आर्यदेश कहे जाने वाले इलाक़े पर एक समय क़ाबिज़ थे। जिन
इलाक़ों में मलेच्छ निवास करते थे, यानी
वे पहाड़ और जंगल जिनकी ओर वे खदेड़ दिये गये थे, उन्हें
उस आर्यदेश की परिधि के बाहर माना जाता था, जिसकी
पहचान थी, वर्ण-नियमों का पालन एवं वैदिक
अनुष्ठानों का निष्पादन। वर्ण-व्यवस्था में नीच से नीच को भी, मिसाल के लिए, शूद्र के रूप में दाखि़ला मिला था, लेकिन उन्हें मलेच्छ बताना जारी रहा।[xxv] अलबत्ता, अपने में मिलाने के बाद, अनार्यों में से अधिक शक्तिशाली लोगों
को वर्ण-योजना में एक उच्चतर दर्जे से नवाज़ा गया। नौवीं सदी से मलेच्छ के रूप में
देसी लोगों की बड़ी तादाद का हवाला मिलना बंद हो गया। स्वयं ब्राह्मणवादी धर्म का
तब विस्तार हुआ जब भागवत जैसे संप्रदायों ने अनार्यों को अपने दायरे में स्वीकार
कर लिया। तब फिर मलेच्छों के रूप में मुख्यतः अरबों का ज़िक्र होने लगा। यहाँ जिस
तरह के बहिष्करण की शुरुआत हुई, वह
पारस्परिक था, यद्यपि उसका निर्धारण अलग तरीके से हुआ
था, क्योंकि बहिरागत मुसलमानों के लिए, जिन्होंने वर्ण-व्यवस्था का हिस्सा
बनने की कोशिश नहीं की, आनुष्ठानिक शुद्धता कोई विचारणीय पहलू
नहीं था। आने वाली शताब्दियों में मुख्यतः निचले दर्जे की जो जातियां इस्लाम में
धर्मांतरित हुईं, उन्होंने अपनी वंशानुगत जाति, पेशे और आनुष्ठानिक तौर-तरीकों को
बरक़रार रखा और इस तरह, एक मायने में, मलेच्छ वाली अपनी पिछली हैसियत को और
पक्का किया। इसके अलावा, इस्लामी इतिहासलेखन अपना अत्यंत विकसित
अतीत-बोध अपने साथ लेकर आया, जिसने, स्वयं भारतीय परम्परा का एक हिस्सा बन
जाने के बावजूद, ब्राह्मण परम्परा के बरक्स अपनी विशिष्टता क़ायम रखी।
उन्नीसवीं सदी के मध्य से आर्य वाले पक्ष को
विचारधारात्मक स्तर पर और सृदृढ़ किया गया। इसने प्राचीनता की, मुस्लिमपूर्व भारतीय अतीत के साथ
प्रत्यक्ष जुड़ाव की, और लिहाज़ा वर्तमान में जायज़ सांस्कृतिक
प्रभुत्व की ‘हिन्दू’ (दूसरी प्रयुक्ति के संकरे, धार्मिक
अर्थ में) दावेदारी को और मज़बूती प्रदान की। 1850 से 1870 के बीच यूरोप के
तुलनात्मक भाषाशास्त्र के विद्वान इस बात पर एकमत थे कि मानवजाति की विभिन्न
नस्लों के वर्गीकरण को नियत करने के लिए भाषाई आधार सबसे भरोसेमंद आधार है।
सामान्य भाषा का मतलब सामान्य मानसिकता भी है, जिसके
संबंध-सूत्र भाषा के माध्यम के बज़रिये अतीत में ढूंढ़े जा सकते हैं।[xxvi] अगर
वैदिक संस्कृत भारोपीय भाषा-परिवार के पुरखों में से एक है तो - जैसा कि इस
सिद्धांत के सबसे मुखर प्रवक्ताओं का दृढ़ विश्वास था - ई.पू. 2000 से लेकर वर्तमान
काल तक भारोपीय भाषाओं और संस्कृति की निरंतरता मानी जा सकती है, और इस भाषा के आधुनिक भाषियों को
प्राचीन आर्यों के प्रत्यक्ष वंशज के तौर पर देखा जा सकता है। उन्नीसवीं सदी के
मध्य के इंग्लैंड में आर्य-मिथ की कुलीनता के प्रचारकों में सबसे मुखर और वाग्मी, साथ ही, सर्वाधिक विश्वासोत्पादक एवं प्रभावशाली नाम थे - सी. जे. बुनसेन
(1791-1860) और फ्रेडरिख़ मैक्स मुलर (1823-1900)।[xxvii] भारत में जो अंग्रेज़ थे, उन्होंने आर्य वाले इस विचार के प्रति
और आर्य अतीत के गौरव में तथाकथित भारतीय योगदान तथा भागीदारी के प्रति इंग्लैंड
में बैठे अपने कुछ समकालीनों के मुक़ाबले कम उत्साह प्रदर्शित किया, लेकिन भारतीयों के खि़लाफ़ ब्रिटिश और
ऐंग्लो-इंडियन नस्ली पूर्वग्रह का मुक़ाबला करने के लिए अलग-अलग मिशनरियों तथा
नागरिकों द्वारा इसका इस्तेमाल किया गया। ऐसा नहीं था कि वे कमोबेश, और 1857 के उपद्रव के तुरंत बाद, ख़ास तौर से हिन्दुओं के पक्षपाती थे, लेकिन उन्होंने नस्ली भेदभाव की बहुत
ज़ाहिरा ज़्यादतियों का मुक़ाबला करने के कुछ प्रयास अवश्य किये। अलबत्ता, भारतीय इतिहास से और भारतीय जलवायु के
प्रभावों से संबंधित पूर्वगृहीत फ़ैसले आर्य सिद्धांत के चलते पूरी तरह से ख़त्म
नहीं होने थे। बाद के इंडो-आर्यों की नस्ली और, एवंप्रकारेण, सांस्कृतिक अशुद्धता को इंगित करना
संभव था, क्योंकि वे देश के आर्यपूर्व निवासियों
के साथ मिश्रित हो गये थे। इस तरह हिन्दुस्तान के लोग ऐतिहासिक रूप से कमतर बने रहे और उनकी
उपलब्धियां, अंतिम निष्कर्ष में, यूरोपीय आर्यों के साथ तुलनीय नहीं
समझी गयीं, ख़ास तौर से ग्रेट ब्रिटेन के आर्यों
के साथ, जो सबसे तरक़्क़ीपसंद और सबसे गौरवशाली
साम्राज्यवादी होने के नाते विश्व इतिहास के शिखर पर स्थित माने जाते थे।[xxviii]
साठ के दशक से अपनी आवाज़ को सुनवाने में कामयाब
होने वाली हिन्दू /हिन्दुस्तानी प्रतिक्रिया अपने अभिप्राय में बिल्कुल अलहदा
थी। यहाँ यूरोपीय परिवार के साथ आर्य-एकता
पर बहुत बल नहीं दिया गया था। बल्कि ये लोग जिस चीज़ को लपके थे, वह थी आर्य परम्परा द्वारा सुझायी गयी राष्ट्रीय एकजुटता की
संभावना। हालांकि आर्यों की शारीरिक शक्ति, शरीर-रचना
और सैन्य पराक्रम पर पश्चिम का जो बल था, उसे
हिन्दुस्तानी राष्ट्रवादियों ने भी अपनाया, लेकिन
उन्होंने मुख्यतः आर्यों के आध्यात्मिक बल और अंतर्दृष्टि पर ज़ोर दिया।[xxix] और भारतेन्दु
ने हर उस मौक़े पर आर्य वाले विचार को तलब किया जब हिन्दू राष्ट्रीय अतीत के गौरव
को प्रदर्शित करने की ज़रूरत आन पड़ी। इस अतीत से मलेच्छ-मुसलमान बहिष्कृत तो नहीं
किये जा सके थे, लेकिन निहित तौर पर यह भी संभव था।
भारतेन्दु के विचारों का आकलनः
द्विभाजन, दुचित्तापन और तीसरा मुहावरा
ऊपर जिस राजनीतिक और सांस्कृतिक ढांचे का ख़ाका
खींचा गया है, उसी के भीतर भारतेन्दु और उनके
समकालीनों ने अपने ब्रांड के राष्ट्रवादी विचार और लेखन को सिरजा और विकसित किया। भारतेन्दु
कितने तरक़्क़ीपसंद थे? परम्परा के साथ उनका क्या रिश्ता था? उस आधुनिकीकरण के हक़ में, जो एक राजनीतिक ज़रूरत भी बन गया था, वे किस हद तक और किस तरह के बदलाव के
लिए तैयार थे? क्या एक उभरते हुए मध्यवर्ग के
महत्वपूर्ण प्रवक्ता के तौर पर अंग्रेज़ों और देसी नरेशों के प्रति उनके रवैये में
दुचित्तापन था? और ‘हिन्दू’ शब्द के उनके द्वारा किये गये इस्तेमाल
के बदलते संकेतार्थों का क्या मतलब है? मुसलमानों
के प्रति उनके रवैये की परिवर्तनशीलता के क्या माने हैं?
भारतेन्दु के कामों को जिस रूप में लिया गया, आगे
मैं उसी की समीक्षा और आलोचनात्मक आकलन करूंगी। मेरा विशेष फ़ोकस बलिया वाले
व्याख्यान से प्रेरित टिप्पणियों पर रहेगा। इस व्याख्यान ने केवल भारतेन्दु के
समकालीनों की टिप्पणियों को ही न्यौता नहीं दिया, बल्कि बीसवीं सदी में भी यह प्रक्रिया जारी रही, क्योंकि ज़ाहिरन इसे एक केन्द्रीय वक्तव्य
माना गया। हालांकि भारतेन्दु एक सुपरिभाषित सांस्कृतिक परिवेश के भीतर से बोल रहे
थे - वे निश्चित रूप से काशी के एक रईस या व्यापारिक अभिजात वर्ग के प्रतिनिधि भी
थे - फिर भी उनके यहाँ नयी स्थापनाओं का
प्रस्ताव और पक्षपोषण हो रहा था। जो विवेचनाएं और व्याख्याएं सामने आयीं, वे संभावित आकलन के एक स्पेक्ट्रम को
उद्घाटित करती हैं, जो एक ऐसी शख़्सियत से प्रेरित है जिसे
आसानी से पारंपरिक या आधुनिक, सांप्रदायिक
या राष्ट्रवादी, राजभक्त या अंग्रेज़विरोधी के रूप में
वर्गीकृत नहीं किया जा सकता, यद्यपि
आलोचकों ने प्रायः ऐसा ही किया। लेकिन, चूंकि
वे आधुनिक और प्राक्-आधुनिक के मिलन-बिंदु पर टिके थे, उनके कामों में साथ-साथ मौजूद पूर्णतः
द्विभाजित रवैयों को पहचान लेना संभव था; इस
तरह वे महज़ दुचित्ते के रूप में भी देखे जा सकते थे। उनके व्याख्यान को ले कर आम
आकलन और प्रतिक्रियाओं का सरसरी तौर पर किया गया सर्वेक्षण हमें मौजूदा अध्ययन के
सरोकारों और उपागमों में दाखि़ल होने का एक बिंदु मुहैया कराता है।
व्याख्यान की भाषा भारतेन्दु की परवर्ती
गद्य-शैली का प्रतिनिधि नमूना हैः सुमधुर, जीवंत, लतीफ़ों और हल्के-फुल्के मज़ाकों से
बिंधी हुई, नाना प्रकार के स्रोतों से आये हुए
उद्धरणों से भरपूर, जिनमें परम्परागत कहावतें, संस्कृत के पाठ और ब्रजभाषा काव्य तो
हैं ही, उसी धड़ल्ले से उर्दू शायरी भी शामिल
है। इनमें से ज़्यादातर उद्धरण किसी स्थापना के समर्थक साक्ष्य के तौर पर आने की
बजाय सहचर के तौर पर आते हैं। निबंध के कई साहित्यिक संकेतों और उनकी अहमियत को
आर. एस. मैक्ग्रेगर ने, उस दौर के साहित्य के अपने पिछले
प्रांजल विश्लेषण (1974) को आगे बढ़ाते हुए, सुलझाया
है और संवेदनशीलता के साथ विश्लेषित किया है (1991)।[xxx] व्याख्यान
में छवियों और विचारों की जिस संपदा का जादुई तरीके से आह्वान किया गया है, उसे अगर सावधानीपूर्वक संसाधित करें, तो वह समकालीन मत-निर्माण के संबंध में
पर्याप्त अंतर्दृष्टि देता है, अगर
हम लापरवाही से उद्धृत छंद को सीधे-सीधे अभिधा में पढ़ने की बजाय ऐहतियात के साथ
संदर्भ में रख कर देखें।
भारतेन्दु के समकालीनों और उत्तराधिकारियों -
सहाय (1905), राधाकृष्ण दास (1905), और कुछ समय बाद, ब्रजरत्न दास (1935)[xxxi] - ने
उनकी देशभक्ति की तारीफ़ की,
लेकिन अपने मित्र और पथप्रदर्शक की
राजभक्ति का बचाव करते हुए अंग्रेज़ों के प्रति उनकी अंतःस्थ निष्ठा पर बल दिया। भारतेन्दु
की गुस्ताख़ क़लम उनके ऊपर ग़ैरनिष्ठावान होने के जो आरोप लगवा रही थी, उससे मजबूर होकर उन्होंने ऐसा किया। ये
लोग खुद ब्रिटिश राज की प्रजा थे और इन्हें शासकों के प्रति निष्ठा या राजभक्ति
तथा प्रबल देशभक्ति, दोनों के सहअस्तित्व में कोई
अंतर्विरोध नहीं दिखता था। भारतेन्दु के करिश्माई व्यक्तित्व के सम्मोहन में बंधे, लेकिन आवश्यक आलोचनात्मक दूरी के बग़ैर, उन्होंने भारतेन्दु के जीवन और कार्यों
के ब्यौरे पेश किये। ये पांडित्यपूर्ण, किंतु
प्रशस्तिमूलक कृतियां थीं। यद्यपि इन जीवनियों और आरंभिक आकलनों के मूल्य को कम
करके नहीं देखना चाहिए, क्योंकि इनमें सूचनाओं की वह संपदा है
जो अन्यथा गुम हो जाती। लेकिन, जहाँ
तक भारतेन्दु की कृतियों के साहित्यिक मूल्यांकन का सवाल है, जिन सौंदर्यशास्त्रीय श्रेणियों का
इस्तेमाल किया गया, वे मुख्यतः संस्कृत के शास्त्रीय
रंगपटल से ली गयी थीं। इसका सीधा मतलब ये था कि कृतियों का मूल्यांकन ‘पारंपरिक’ के साथ बंधा रहा। भारतेन्दु के
राजनीतिक विचार, प्रदत्त स्थितियों में, ‘राजभक्त’ के अलावा किसी और श्रेणी में अंतर्भुक्त नहीं हो सकते थे।
यूरोपीय आलोचकों में जॉर्ज ग्रियर्सन उन
शुरुआती लोगों में से थे जिन्होंने भारतेन्दु की तारीफ़ की। अपनी किताब ‘द मॉडर्न
वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ़ हिन्दुस्तान’ (1989) में उन्होंने हिन्दी के सबसे महत्वपूर्ण
आधुनिक कवियों और नाटककारों में भारतेन्दु का ज़िक्र किया है। अलबत्ता, वैष्णव प्रभुत्व वाले हिन्दू धर्म की
अपनी विशिष्ट व्याख्या का निर्वाह करते हुए ग्रियर्सन का मुख्य सरोकार एक परम्परा वादी
वैष्णव कवि और भक्त के रूप में भारतेन्दु की छवि को सामने लाना था।
लगभग एक शताब्दी बाद जुर्गन ल्युट ने, उत्तर प्रदेश के हिन्दू राष्ट्रवादियों के अपने अध्ययन (1970) में, हिन्दू राष्ट्रवाद की रचना में भारतेन्दु
की भूमिका का विस्तृत चित्रण करने का पहला प्रयास किया। उन्होंने राम विलास शर्मा
के काम से, जिसकी आगे चर्चा होगी, काफ़ी मदद ली, पर इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी, लंदन की अभिलेखीय सामग्री का मूल्यांकन
पेश करते हुए अपने अध्ययन को ख़ासा समृद्ध किया। लेकिन अपने विश्लेषण में ल्युट
ब्रिटिश इतिहास लेखन की परम्परा में ही आगे बढ़े, यानी इस मूल धारणा के साथ अग्रसर हुए कि हिन्दू धर्म और इस्लाम दरअसल दो एकाश्मक धर्म हैं, जिनकी इस उपमहाद्वीप में हमेशा से
अलग-अलग संस्कृतियां रही हैं और जुदा इतिहास रहे हैं, और इस तरह उन्होंने इस तथ्य की अनदेखी
की कि इस चरण में हिन्दू धर्म का एकत्व खुद गढ़े जाने की प्रक्रिया में था। ल्युट
ने भारतेन्दु को सुधारवादी परम्परा में रख
कर देखा, यानी एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसने
अपनी ही भक्ति परम्परा और भक्ति समुदाय से अच्छी-ख़ासी दूरी बना ली थी (1970; 84)।
इसके अलावा, उस समय चल रहे प्यूरिटनवादी सफ़ाई
अभियान की शक़्ल में जो मिशनरी प्रभाव दिख रहा था, उसके प्रति सजगता दिखाते हुए ल्युट ने उस प्रभाव का मूल्य बढ़ा-चढ़ा कर
आंका (157)। इसीलिए न तो धर्म की नयी परिकल्पना में मौजूद निरंतरताओं को ठीक से
समझा गया, न ही भारतेन्दु के परवर्ती गद्य की
साहचर्यमूलक, उद्बोधनपरक साहित्यिक शैली को। इस तरह, हम पाते हैं कि अगर ग्रियर्सन ने एक परम्परावादी
के रूप में भारतेन्दु का आकलन किया, तो
ल्युट उसके बरखि़लाफ़ एक सुधारवादी चिंतक के रूप में।
बीसवीं सदी के चालीस और पचास के दशक में ही भारतेन्दु
का विस्तृत साहित्यिक और राजनीतिक पुनर्मूल्यांकन सामने आ पाया। इस समय से उनके
तरक़्क़ीपसंद रुझानों पर बल दिया जाने लगा और ऐसा अक्सर उनके उस पहलू की क़ीमत पर
हुआ जो ‘परम्परा’ से बहुत निकट जुड़ाव रखता हुआ नज़र आता
था। लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय का अध्ययन (1948, 1974)
भारतेन्दु के कामों का एक शुरुआती व्यवस्थित और संतुलित मूल्यांकन था। उस दौर के
साहित्य के अपने व्यापक अध्ययन और ज्ञान के साथ वार्ष्णेय न सिर्फ़ भारतेन्दु के
योगदान का, उनके समकालीनों और निकट उत्तरवर्तियों
की अतिशयोक्तियों से रहित,
आलोचनात्मक मूल्यांकन कर पाये, बल्कि एक साहित्यिक भाषा के रूप में
आधुनिक हिन्दी के निर्माण में और आधुनिक साहित्यिक विधाओं के प्रयोग में उनके
योगदान की अहमियत को चिह्नित और व्याख्यायित भी कर पाये। अलबत्ता, बलिया व्याख्यान का उनका आकलन उनके
अपने उपागम की शक्तियों और पक्षपातों को भी उजागर करता है। भारतेन्दु पर परम्परा का
जो ऋण था, उसकी अनदेखी करते हुए वे उन्हें
मुख्यतः आधुनिकता का अग्रदूत (148) मानते हैं, और
उनके व्याख्यान के बुनियादी संदेश को वयस्क शिक्षा, परिशोधित धर्म और परिष्कृत अनुष्ठान जैसे आमूल सुधारों की सिफ़ारिश के
तौर पर देखते हैं, जो मुल्क में अधिक एकता और एकरूपता की
राह हमवार करता। इसके अलावा, अंग्रेज़ों
की मध्यस्थता द्वारा पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति जिस रूप में यहाँ आई, उसके
गुणों के प्रशंसक के रूप में भी वे भारतेन्दु को देखते हैं (191)। लेकिन भारतेन्दु
के यहाँ मिलने वाली औपनिवेशिक शासन की
तीखी आलोचना और उसके प्रति मूलगामी प्रतिरोध के महत्व को वार्ष्णेय कम करके आंकते
हैं, क्योंकि अंग्रेज़ों की उपलब्धियों की
प्रशंसा भारत में अंग्रेज़ी राज की आलोचना के साथ असंगत जान पड़ती है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र |
राम विलास शर्मा के अध्ययनों (1942,1975, 1953,1984) में कवि के परम्परावादी
आकलनों से और अधिक आमूल क़िस्म का प्रस्थान दिखलाई पड़ा। शर्मा पहले व्यक्ति थे
जिन्होंने भारतेन्दु और उनके समकालीनों की सरल, बोलचाल
वाली और जीवंत गद्य शैली की सराहना की, जिसे
रामविलास शर्मा स्वयं अपने समकालीनों द्वारा प्रयुक्त होता हुआ देखना चाहते थे; ऐसे समकालीन, जो बाद के भारी-भरकम, अधिक संस्कृतनिष्ठ, और बोलचाल के मुहावरे से अपना संपर्क
गंवा चुके गद्य के शिकार हो गये थे। उन्होंने इस भाषा को भारतेन्दु के पत्रकारीय
कार्य के जनवादी पक्ष के बतौर देखा। उन्होंने पत्रिकाओं को विस्मृति के गर्त से
निकालने की ज़रूरत पर बल दिया और अपनी पहली क़िताब के निबंधों में उन लेखों, संपादकीयों तथा टिप्पणियों से बहुतेरे
उद्धरण दिये जिन्हें भारतेन्दु की ग्रन्थावलियों में जगह नहीं मिल पायी थी।
विवेचित सामग्री के अधिक विस्तृत दायरे ने लेखक और उसके समय के बारे में एक अलग
दृष्टि को उभरने का मौक़ा दिया। शर्मा इस तथ्य को भी रेखांकित करने वाले पहले
व्यक्ति थे कि भारतेन्दु के संबोध्य पुराने दौर के अभिजन नहीं रह गये थे, क्योंकि पत्रिकाओं में जिन मुद्दों पर
चर्चा की गयी थी वे व्यापक जनता के साथ सरोकार रखने वाले मुद्दे थे। भारतेन्दु के
राजनीतिक रैडिकलिज़्म की सराहना करने वाले पहले व्यक्ति भी शर्मा ही थे। ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के वर्ष 1942 में, मुल्क में ज़बर्दस्त लोकप्रिय
राजनैतिकीकरण के परिणामस्वरूप, रामविलास
शर्मा अपने पाठकों से उम्मीद कर सकते थे कि वे ब्रिटिश राज की स्पष्ट शब्दों में
की गयी इस आरंभिक किंतु तीखी आलोचना की उनकी खोज को तवज्ज़ह दें और उसकी सराहना
करें। शर्मा ने भारतेन्दु की राष्ट्रीय आकांक्षाओं - ‘एक सम्मिलित राष्ट्र की कल्पना’ - पर बल दिया (1942, 1975; 43)। संक्षेप में, उन्होंने भारतेन्दु में एक मुकम्मल
राष्ट्रवाद के सुराग़ पाये और इसे, दरअसल, संपूर्ण आज़ादी की मांग के बतौर समझना
चाहा।
बलिया व्याख्यान का रामविलास जी द्वारा किया
गया विश्लेषण उनके अपने विचार-लोक तक पहुंचने का साधन मुहैया कराता है। वे भारतेन्दु
के राजनीतिक विचारों की परिपक्वता पर बल देते हैं और उन्हें अपने समय से काफ़ी आगे
का मानते हैं। परंतु इस रूप में उनके राष्ट्रवाद की पेशबंदी करते हुए शर्मा इस
तथ्य की अहमियत को दरकिनार कर देते हैं कि वह राष्ट्रवाद अभी भी बिल्कुल बनती हुई
स्थिति में था, कि कई मुद्दे सुलझाये जाने की
प्रक्रिया में ही थे। इसके अलावा, अपने
पठन के प्रबल राष्ट्रवादी अभिप्रायों का निर्वाह करते हुए, वे व्याख्यान में हिन्दू -मुस्लिम एकता
की अपील और ‘हिन्दू ’ को अधिक समावेशी तरीके से इस्तेमाल करने के निवेदन पर ही ग़ौर फ़रमाते
हैं। इस तरह वे तेज़ी से अलग होते दो समुदायों के बीच के उन तनावों और वैर-भाव की
अनदेखी करते हैं जो उस व्याख्यान में भी दर्ज हैं। उस दौर को हिन्दू पुनरुत्थानवाद का दौर बताये जाने की कोशिशों को
अगर रामविलास शर्मा असंगत बता कर ख़ारिज करते हैं,[xxxii] तो साथ में धार्मिक मुद्दों को भी दरकिनार कर देते हैं और इस तरह भारतेन्दु
के काम का यह ख़ासा विचारणीय पहलू हाशिये पर चला जाता है।
लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय और रामविलास शर्मा ने
क्रमशः भारतेन्दु की साहित्यिक शैली की आधुनिकता और उनके काम के रैडिकल राजनीतिक
आयाम पर बल देना पसंद किया। तरक़्क़ी पसंद रवैयों के साथ पारंपरिक रवैयों के
सहअस्तित्व में जो अंतर्विरोध निहित था, उसे
उजागर होने के लिए परवर्ती आलोचकों का इंतज़ार करना पड़ा।
इस पुनर्मूल्यांकन को समाज सुधार और
संप्रदायवाद के विषय-गुच्छों के आलोचनात्मक विवेचन के बीच सामने आना था। उन्नति का
संदर्भ, जिसने बलिया व्याख्यान में प्रस्तुत
चिंतन का ढांचा तैयार किया,
सुधार या सामाजिक बदलाव के मुद्दे से
अच्छा-ख़ासा ताल्लुक़ रखता था। शर्मा के अनुसार, भारतेन्दु
बहुत स्पष्ट रूप से सामाजिक बदलाव का समर्थन कर रहे थे। निस्संदेह, भारतेन्दु ने अपने व्याख्यान में साफ़
तौर पर यह रेखांकित किया था कि वर्तमान संदर्भ में धर्मनीति को समाजनीति से अलहदा
रूप में समझना होगा। इसके बावजूद, अगर
एक ओर भारतेन्दु और उनके समकालीन सामाजिक बदलाव के मुखर समर्थक थे, जैसा कि उनके द्वारा रचित साहित्य से
बार-बार साबित होता है, तो दूसरी ओर रोज़मर्रा की ज़िंदगी में
उनका रवैया अक्सर उनके घोषित विश्वासों के खि़लाफ़ जाता था और यह भी उसी साहित्य से
पता चलता है। सामाजिक वास्तविकता के ऐतिहासिक पुनर्निर्माण के लिए इस शुरुआती हिन्दी
साहित्य के मूल्य को पहचानने वाले पहले विचारक सुधीर चंद्र थे। उन्होंने ‘समकालीन साहित्य के विश्लेषण के ज़रिये
औपनिवेशिक चेतना की छानबीन’
की (1984; 145)। अपने निबंधों में, जो सत्तर के दशक के मध्य से छपने शुरू
हुए, उन्होंने गहन विश्लेषण के लिए तीन
सूचकों का चुनाव कियाः समाज सुधार, मुस्लिम
प्रश्न और औपनिवेशिक जुड़ाव। इन मुद्दों को जिन अंतर्विरोधपूर्ण तरीकों से हल करने
की कोशिश की गयी थी, उनके सुधीर चंद्र द्वारा किये गये
संवेदनशील अध्ययन ने उस पद्धति की बुनियाद रखी जिससे सामाजिक इतिहास लेखन के लिए
शुरुआती हिन्दी साहित्य का मूल्यांकनपरक उपयोग किया जा सकता है। इसके बाद से
संबंधित लेखक के कामों को किसी एक या दूसरे रवैये में न्यूनीकृत करके देखना आसान
नहीं रह गया। यानी अब आराम से उस पर सांप्रदायिक या राष्ट्रवादी, परम्परावादी या आधुनिक, औपनिवेशिक सत्ता का चापलूस या मुख़ालिफ़
की चिप्पी चस्पां नहीं की जा सकती। इसी बिंदु से आगे बढ़ना और इन दुचित्तेपनों, प्रधानतः हिन्दू-मुस्लिम अलगाव तथा
औपनिवेशिक प्रश्न के दायरे में मौजूद दुचित्तेपनों से सरोकार रखना वर्तमान अध्ययन
का लक्ष्य है। यह देखना भी इसका लक्ष्य है कि क्या यह बता पाना मुमकिन है कि कब
अर्थ के स्तर बदलते हैं या एक दूसरे को काटते हुए प्रकटतः प्रतीत होते हैं।
इस तरह, मिसाल
के लिए, निम्नोक्त क़िस्म के एक विश्लेषण को, जो इस मायने में अनमोल है कि वह अर्थ
के फ़र्क़ों की चीड़-फाड़ करता है, दो
अवधारणाओं की ओर संकेत करने वाले समान पद के सहअस्तित्व की और अधिक पड़ताल के लिए
दुबारा लिया जा सकता है। तनाव ‘हिन्दू’ अवधारणा में निहित अंतर्विरोध के
इर्द-गिर्द घूमता है। बलिया व्याख्यान के इस विश्लेषण में सुधीर चंद्र ‘हिन्दू ’ पद को अपनी उत्पत्ति में सांप्रदायिक मानते हैं। इसके अर्थ का जो
विस्तार इसे राष्ट्रीय क्षेत्र को दख़ल और हस्तगत करने की ओर ले गया, उसे वे एक बाद की चीज़ के तौर पर देखते
हैं (1984b
11-12)।
भारतेन्दु की पीढ़ी के लिए, शायद उचित ही, उभरती हुई राष्ट्रीय चेतना और जारी
रहने वाली सांप्रदायिक पहचानों के बीच कोई बुनियादी अंतर्विरोध न था। वे
राष्ट्रवाद की परिकल्पना एक उच्चतम बिंदु और निष्ठाओं के एक पुंज के रूप में करते
थे (15)।
यहाँ यह मान लिया गया है कि जारी रहने वाली
सांप्रदायिक पहचानें पारंपरिक थीं। पर इस पद की कम-से-कम तीन प्रयुक्तियां मिलती
हैं और, जैसा कि मैं पीछे दिखला पायी हूँ, पहली, प्राक्-औपनिवेशिक, इलाक़ाई
प्रयुक्ति तीसरी या राष्ट्रवादी प्रयुक्ति के साथ सबसे नज़दीकी समानता रखती है।
लेकिन, राष्ट्रवादी अनुप्रयोग में इस पद का
राजनैतिकीकरण हुआ है, साथ ही, उसमें सांस्कृतिक और ऐतिहासिक एकता निर्मित करने की एक सचेत कोशिश भी
है। यह साफ़ है कि इस राजनैतिक पहलू और सचेत कोशिश को पहली प्रयुक्ति में
अंतर्निहित मानना असंगत होगा। हालांकि उन्नीसवीं सदी के आखि़री दशकों में देश के
लिए, समस्त उपमहाद्वीप के लिए, और अनुमानतः अंग्रेज़ी अधीनता वाले पूरे
हिन्दुस्तान के लिए, एक अभिधान के रूप में ‘भारतवर्ष’ प्रयुक्त होता दिखता है, पर हिन्दुस्तान के लोगों के लिए ‘भारतीय’ शब्द इस समय तक प्रचलन में नहीं आया है। ‘हिन्दू’ से ही हिन्दुस्तान के लागों का भी बोध कराया जाता है। आगे मुस्लिम
भाइयों के साथ जिस गठबंधन की कोशिशें हुईं, उसे
बहुरंगी प्रकृति इसी चीज़ ने सौंपी। इससे समझा जा सकता है कि आज की तारीख़ में वह
क्यों संभ्रमित करने की स्थिति में है। इन तीन प्रयुक्तियों को हम तब अलगा सकते
हैं जब यह स्पष्ट हो जाये कि उनका प्रयोग किस संदर्भ में हो रहा है। मुसलमानों के
साथ अपनी-अपनी नज़दीकी या दूरी संबोध्यों पर निर्भर रहती है। जब हिन्दुओं को आंतरिक
एकजुटता बनाने के लिए कहा जाता है, तब
प्रायः मुसलमानों को अन्य की भूमिका सौंप दी जाती है। यानी, दूसरी प्रयुक्ति, धार्मिक अभिधान वाली, सबसे अधिक हावी है। अपने समकालीन
पुनर्प्रचलन में, जहाँ उपमहाद्वीप के हिन्दुओं को एक एकाश्मक धड़े के तौर पर देखा जाता है, तो यह कोई पारंपरिक प्रयुक्ति नहीं है, बल्कि आधुनिक है। जब मुद्दा आर्थिक
राष्ट्रवाद का हो और औपनिवेशिक स्वामियों को संबोधित किया जा रहा हो, तब हिन्दू तीसरे या राष्ट्रवादी अर्थ
में प्रयुक्त होता है, और इसमें मुसलमान भी शामिल होते हैं।
अगर उस दौर का राष्ट्रवाद शुरुआती है, तो
सांप्रदायिकता भी शुरुआती है, क्योंकि
सांप्रदायिकता राष्ट्रवाद के विकास के साथ असंदिग्ध रूप से नत्थी है। क्रमशः हिन्दुओं
का और मुसलमानों का देशव्यापी समुदाय, जो
सांप्रदायिक सोच का आधार तैयार करता है, राष्ट्र
की अवधारणा के वजूद में आने के बाद ही मुमकिन और मानीखे़ज़ हो सकता था। इस तरह हिन्दू
की दूसरी और तीसरी, दोनों प्रयुक्तियां, जो आपस में घुल-मिलने और ओवरलैप करने
को तत्पर रहती हैं, तीसरे या आधुनिकतावादी मुहावरे का एक
हिस्सा हैं।
अंग्रेज़ों के साथ रिश्ते में दुचित्तापन भी इसी
वजह से है। बलिया व्याख्यान में तकनीकी उपलब्धियों तथा पश्चिमी शिक्षा द्वारा लाये
गये लोकतांत्रिक विचारों के लिए अंग्रेज़ों की तारीफ़ तो की गयी थी, पर साथ-साथ उपनिवेश क़ायम करने वालों के
रूप में उनकी भूमिका को ले कर तनाव भी वहाँ बहुत स्पष्ट और मुखर थे। एक ओर, आर्थिक शोषण की लगातार चर्चा है, जो उस समय तक काफ़ी स्पष्ट हो चला था, और दूसरी ओर, अंग्रेज़ों के नस्ली नकचढ़ेपन से पैदा
हुआ विद्वेष है - जिसके चलते ‘हम
ग़रीब गंदे काले आदमी’ जैसी अभिव्यक्तियां दिखलाई पड़ती हैं।
उनकी उपलब्धियों के लिए की गयी तारीफ़ को, औपनिवेशिक
शक्ति के खि़लाफ़ जो राष्ट्रवादी नाराज़गी है, उससे
अलग रखने की ज़रूरत है। ज्ञान पांडे ने, अंग्रेज़ों
पर ‘असाधारण प्रशस्तियों’ और ‘प्रशंसा के स्तोत्रों’ की
बारिश के आधार पर, अंग्रेज़ों के साथ भारतेन्दु के रिश्ते
का उनकी ‘असंदिग्ध राजभक्ति’ के रूप में जो आकलन किया है, वह वृत्त को पूरा करने जैसा है (1990;
217)। शुरुआती जीवनीकारों ने अंग्रेज़ों के प्रति भारतेन्दु की राजभक्ति पर ज़ोर
दिया था, और उनके मूल्यांकन के हिसाब से यह
राजभक्ति उपयुक्त और दुरुस्त थी। रामविलास शर्मा का अनुगमन करते हुए ऐसे
आलोचनात्मक अध्ययनों की एक बाढ़-सी आई जिन्होंने भारतेन्दु में ब्रिटिश राज की
सिर्फ़ आमूलचूल आलोचना देखी। पांडे एक बार फिर उन्हें राजभक्त के रूप में प्रस्तुत
करते हैं, हालांकि उनका आकलन स्पष्टतः नकारात्मक
स्वर में है और इस रूप में शुरुआती जीवनीकारों के मूल्यांकन से मतभेद रखता है। भारतेन्दु
को ‘अधिक-से-अधिक एक ढुलमुल राष्ट्रवादी...’ (218) की श्रेणी में रखना उतना ही
जल्दबाज़ी भरा लगता है। यह एक तथ्य है कि उस चरण में स्वराज का कोई विज़न नहीं था, इसलिए उस पूरे दौर का ही राष्ट्रवाद
ढुलमुल था।[xxxiii]
भारतेन्दु और उनके कामों का आलोचनात्मक
मूल्यांकन एक छोर से दूसरे छोर की ओर जाता रहा है; उन पर पुनरुत्थानवादी होने का आरोप लगाने से लेकर उन्हें आधुनिकता के
पुरोधा के रूप में सराहने तक, राजभक्त
बताने से लेकर आमूल-परिवर्तनवादी बताने तक, हालांकि
रामविलास शर्मा के बाद से आधुनिकता के अग्रदूत की भूमिका में उन्हें स्थिर करने की
ओर एक निश्चित झुकाव रहा है। यह भूमिका साहित्यिक उत्पादन में भी देखी गयी है और
उस राजनीतिक हैसियत में भी जो उन्हें प्राप्त थी।[xxxiv] उनके
काम के पारंपरिक पहलुओं पर विचार करने का कोई ढांचा प्रकटतः उपलब्ध नहीं है, सिवाय उस ढांचे के जो पुनरुत्थानवादी
के नकारात्मक अभिप्राय वाले ‘टैग’ ने मुहैया कराया है।
यहाँ एक बार फिर गुहा द्वारा प्रस्तावित वह राजनीतिक
ढांचा एक विभेदमूलक विश्लेषण की संभावना उपलब्ध कराता प्रतीत होता है, जो अंग्रेज़ों की मौजूदगी और उनके मुहावरे
के प्रति सहमति तथा सहकार के साथ-साथ प्रतिरोध और उच्छेदन (सबवर्श़न) को भी देखने
का अवसर देता है। अलबत्ता,
आगे के विश्लेषण में मैं तीन मुहावरों
से आच्छादित इस क्षेत्र को राजनीतिक/राष्ट्रवादी तक सीमित नहीं रखूंगी, जैसा कि मूल रूप में गुहा का विचार है।
इसकी बजाय, मेरी प्रयुक्तियां सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक को शामिल करेंगी, क्योंकि, जैसा कि मैं आगे दिखला पाने की उम्मीद करती हूँ, कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था जो अंग्रेज़ों
के साथ की लेन-देन से अछूता रहा हो। इस मुठभेड़ से निकलने वाले तीसरे मुहावरे की
सबसे अधिक समानता आधुनिकतावादी के साथ दिखती है, जिसका एक प्रभावी पक्ष राष्ट्रवादी ने निर्मित किया, लेकिन उसे पूरी तरह परिव्याप्त न करते
हुए। इसके अलावा, यहाँ दूसरे मुहावरे, इस दौर में ठोस आकार लेने वाले क्लासिकी भारतीय मुहावरे, को किसी प्रदत्त के रूप में नहीं देखा जायेगा, बल्कि इस अध्ययन का एक लक्ष्य यह भी
होगा, जहाँ मुमकिन हो, वहाँ
इस बात का विश्लेषण करना और इस पर ज़ोर
देना कि कैसे यह मुहावरा खुद उन परम्परा ओं और पाठों से गृहीत था जो भारतेन्दु और
उनके साथियों को विरासत में मिले थे।
हिन्दी और हिन्दू जिस रूप में उन्नीसवीं सदी में संघटित हुए, उसकी पूर्व-परम्परा को, प्राक्-औपनिवेशिक परम्परा ओं के साथ
उनकी निरंतरता की प्रकृति को, साथ
ही नव्यतर अवधारणाओं के साथ उनके संबंध-सूत्र को तलाशने से पहले मैं उस प्राधिकार
- सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक - के मुद्दे पर विचार
करूंगी जिसने इस तीसरे मुहावरे के सृजन और वैधीकरण को मुमकिन किया। आने वाले
अध्यायों में मैं प्रभुत्व की नयी संरचनाओं के साथ पुरानी संरचनाओं के उस सघन
अंतर्गुम्फन और कार्यप्रणाली की समीक्षा करूंगी, जो काशी की प्राचीन नगरी, उसके
महाराजाओं, पुरोहितों और व्यापारियों की महिमा और
सांस्कृतिक प्रभाव को नए ढंग से उभारने में संलग्न थी।
सन्दर्भ
[i]
. नवोदित हरिश्चंद्रचंद्रिका (11. 3 दिसम्बर
1884) में यह हिंदी का पाठ इस अंग्रेज़ी शीर्षक के साथ प्रकाशित हुआ थाः ‘हाउ कैन इंडिया बी रिफ़ॉर्म्ड’। यह भारतेंदु की पत्रिका थी, जिसे सात वर्षों के अंतराल के बाद
उन्होंने हाल ही में अपने प्रबंधन में वापस लेते हुए दुबारा खड़ा किया था। इस भाषण
का पाठ कई बार छपा है, लेकिन
सबसे सहूलियत के साथ इसे ग्रंथावली के खंड 3 में (889-903) में पाया जा सकता है।
भारतेंदु
की कृतियां सबसे पहले रामदीन सिंह द्वारा संकलित और प्रकाशित की गयी थीं,
हरिश्चंद्रकला, 6
खंड, बांकीपुर,
1888। यह लंबे समय
तक छापे में उपलब्ध नहीं रही। मानक संस्करण ब्रजरत्नदास और शिवप्रसाद मिश्र के
संपादन में निकलाः भारतेंदु ग्रंथावली, 3 खंड, बनारस। बाद में, उन तीन खंडों की सामग्री के साथ-साथ
कुछ अतिरिक्त सामग्री को मिला कर एक ज़िल्द में निकाला गयाः भारतेंदु समग्र,
संपादक - हेमंत
शर्मा, बनारस,
1987। तीनों
रचनावलियां कमोबेश चुनी हुई रचनाओं की तरह हैं: पत्रिकाओं में प्रकाशित चीज़ों का
एक बड़ा हिस्सा अभी भी अनुपलब्ध है।
इस
अध्ययन में मैंने ग्रंथावली से ही उद्धरण दिये हैं। समग्र की मदद सिर्फ़ वहीं ली
है जहां संबद्ध सामग्री ग्रन्थावली में नहीं है।
[ii]
. मत शब्द का इस्तेमाल भारतेंदु ने थोड़े
ढीले-ढाले अर्थों में किया है। वे इसे सम्प्रदाय के अर्थ में भी इस्तेमाल करते हैं,
जिसमें छिटके
हुए समूह वाला आशय निहित है, और वे हिंदूमत की भी बात करते हैं (जैसे
ग्रंथावली 3 में ‘वैष्णवता
और भारतवर्ष’ में;
पृ. 801) जिसमें
हिंदू धर्म को एकरूप समष्टि मानने वाला आशय निहित है। मत, वाद, दर्शन, मार्ग, धर्म आदि पद उपमहाद्वीप की
प्राक्-आधुनिक परंपराओं में जिन रूपों में इस्तेमाल किये गये, उनके लिए देखें, स्टीएटेनक्रॉन (1993: 125.F)।
[iii]
. स्टोक्स द्वारा उद्धृत
(1959, 1982: 269)। उन्नीसवीं सदी में अंग्रेज़ों के
राजनीतिक रवैये और प्रशासनिक तौर-तरीकों पर स्टोक्स आज भी अधिकारी विद्वान हैं।
आगे के विवरणों में उनकी कृति से मदद ली गयी है।
[v]
. हिंदी की उन्नति
पर व्याख्यान (1877) में।
यह समग्र (228-30) में
उपलब्ध है। अध्याय चार में इस पर विस्तार से विचार हुआ है।
...ये
लेखक इन सीमाओं के भीतर इसलिए नहीं बने रहते कि वे अंग्रेज़ी राज को पसंद करते हैं।
कुछ मायनों में, उपनिवेश
क़ायम करने वाली एक पश्चिमी बुद्धिवादी सभ्यता को लेकर उनकी नामंजूरी बाद के
राष्ट्रवादियों के मुक़ाबले प्रायः ज़्यादा गहरी और बुनियादी है; लेकिन वे औपनिवेशिक पराधीनता के
ख़ात्मे को ऐतिहासिक रूप से एक संभव परियोजना के रूप में देखते ही नहीं। उनके लिए
अपने युग का ऐतिहासिक प्रश्न, जिसके गिर्द समस्त सामाजिक चिंतन चक्कर काटता
था, यह
था कि किस तरह इतने वैविध्यपूर्ण संसाधनों से संपन्न एक सभ्यता उपनिवेशवाद के अधीन
हो गयी? लेकिन
यह प्रश्न इस प्रश्न से अलग था कि किस तरह इस अधीनता को राजनीतिक तौर पर ख़त्म
किया जा सकता है। पद्धतिगत रूप से, यह याद रखना ज़रूरी है कि वे इस दूसरे सवाल का
नकारात्मक उत्तर नहीं दे रहे; यह सवाल उनके विमर्श के भीतर पूछा ही नहीं गया
है (1992कः 6)।
दरअसल, इस मुक़ाम पर शुरुआती राष्ट्रवादी और
अंग्रेज़ साम्राज्यवादी, दोनों
अंग्रेज़ी राज के स्थायित्व में यक़ीन करते थे। ब्रिटिश रवैये के एक संवेदनशील
अध्ययन के लिए, जिसमें
उस दौर के पत्रों, डायरियों
और उपन्यासों का विस्तृत विश्लेषण है, देखें, हचिन्सन्स, द इल्यूज़न्स ऑफ़ परमनेंसः ब्रिटिश
इम्पीरियलिज़्म इन इंडिया (1967)।
[ix]
. देशी प्रेस द्वारा तैयार किया गया सार्वजनिक
वृत्त और भारतेंदु की दो पत्रिकाओं की भूमिका पर आगे विस्तार से विचार किया
जायेगा।
[x]. इस पद के भूराजनीतिक अर्थ के बारे में आगे की
सूचनाएं मुखर्जी (1976) के लेख पर आधारित हैं। अल-बरूनी का हवाला ई. सचाऊ के
अलबरूनी’ज़
इंडिया (1: 198) में पाया जा सकता है; अकबर के शासन-काल पर सूचनाएं एच. एम. इलियट और
जे. डाउसन के द हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया ऐज़ टोल्ड बाइ इट्स ओन हिस्टोरियंस (5: 186) में,
निज़ामुद्दीन
अहमद बख़्शी के तबाक़त-ई-अकबरी में मिलती हैं। मुखर्जी (1976: 186, 190) में उद्धृत।
[xii]
. मिसाल के लिए, मराठी कवि एकनाथ (1533-99) द्वारा
लिखित भारुद (छंदों में संवाद वाली एक विधा), हिंदू तुर्क संवाद में इस पद का
इस्तेमाल; देखें,
ज़ेलिओट (1982)।
या प्रायः एक सदी बाद हिंदू राजा के रूप में अपना राज्याभिषेक कराने का शिवाजी का
फ़ैसला। गॉर्डन (1993: 87) के अुनसार, इस काम का कोई परा-प्रादेशिक महत्व उतना नहीं
था जितना कि आंतरिक राजनीतिक महत्व। यह स्थानीय जागीदारों के ऊपर अपनी सत्ता
स्थापित करने का उपक्रम था। शिवाजी के राजकवि भूषण के काव्य में, विशेष कर उनके संकलन शिवराज भूषण में
(जो कि 1667-73 के बीच लिखा गया था और भूषण ग्रंथावली में उपलब्ध है), इस बात के पर्याप्त संकेत मौजूद हैं कि
हिंदू-तुर्क के विरोध को राजनीतिक रूप में भी देखा जाता था, क्योंकि शिवाजी इनमें स्पष्टतः हिंदुओं
के रक्षक के रूप में चित्रित किये गये हैं।
ओ’
कॉनेल ने पुरातन
बंगाली गौड़ीय पाठों का जो सर्वेक्षण किया है, उसके अनुसार, ‘हिंदू’ पद वहीं इस्तेमाल होता था जहां यह
आवश्यक जान पड़ता था कि जो इस समूह के अंदर माने जाते हैं और जो साफ़-साफ़ बाहरी हैं
(मुसलमान), उनके
बीच एक सीमा-रेखा खींची जाये। आम तौर पर ऐसा करने का अवसर अनुष्ठानों के प्रसंग
में ही उपस्थित होता था। ओ’ कॉनेल के अनुसार, हिंदू धर्म ‘रस्मी या आनुष्ठानिक क़िस्म की कुछ
क्रियाओं की ओर संकेत करता प्रतीत होता है जिन्हें करने का अधिकार हिंदुओं और
सिर्फ़ हिंदुओं को है। लेकिन सर्वेक्षण में आए हुए किसी भी पाठ में इस बात पर कोई
स्पष्ट विचार-विमर्श नहीं मिलता कि ‘‘हिंदू’’ या ‘‘हिंदू धर्म’’ के मायने क्या हैं’ (1973: 340)।
लेकिन
इस तथ्य के बावजूद, कि ‘हिंदू’ एक धार्मिक नाम के रूप में इस्तेमाल
होता था, उपलब्ध
साक्ष्यों से ऐसा साफ़ प्रतीत होता है कि यह सामूहिक आत्म-प्रेक्षण या किसी
उपमहाद्वीपीय स्तर के निरूपण के लिए इस्तेमाल होने वाला पद नहीं था।
[xiii]
. ‘हिंदू’ पद के संबंध में यूरोपीय ग़लतफ़हमियों पर
देखें, स्टीटेनक्रॉन
(1989), उसके
पहले के निबंधों (1988: 130ff) को भी देखें।
[xiv]
. कॉप्फ़ (1969)
की किताब भारत
के आधुनिकीकरण में ब्रिटिश प्राच्यवादियों की भूमिका पर सबसे शुरुआती विनिबंध है,
हालांकि अपने
आकलन में यह ग़ैर-आलोचनात्मक रूप से उत्साही है। केजरीवाल (1988) की किताब भारतीय अतीत की खोज में
एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल के योगदान का अधिक संतुलित, यद्यपि उतना ही ग़ैर-आलोचनात्मक,
लेखा-जोखा है।
इस
तरह के प्रशंसात्मक मूल्यांकन की विपरीत धुरी सईद के ओरिएंटलिज़्म (1978,
1985) के
प्रकाशन के द्वारा निर्मित होनी थी। उसने मध्यपूर्वी/अरबी प्रसंग में प्राच्यवादी
उद्यम की थोक भाव से जो भर्त्सना की, उसका ही अनुपालन इंडेन (1986, 1990) ने किया है। उसने हिंदुस्तान में
इंडोलोजी और ऐंथ्रोपॉलोजी के अकादमिक अनुशासनों के लिए वही कार्यभार अपने हाथ में
लिया, यानी
ज्ञानमीमांसात्मक बुनियादों के गोपन का कार्यभार। सईद के अनैतिहासिक और अभेदपरक
उपागम के लिए देखें डालमिया-लुडरिट्ज़ (1993) जिसमें सईद के अभिग्रहण पर और सामग्री
है, सईद
और इंडेन, जो
कि अपने प्राविधिक उपकरणों के चुनाव में अधिक सर्वसंचयवादी है, की संयुक्त आलोचना के लिए देखें,
अहमद (1991b)।
प्राच्यवादी
प्रयास का एक संतुलित आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन होना अभी भी बाकी है। उसे आगामी
विद्वज्जनों के उद्यम का इंतज़ार है।
[xv]
. भारत में
मुस्लिम शासन संबंधी ब्रिटिश इतिहास लेखन के विषय का अब तक का जो सबसे
विस्तृत और प्रांजल अध्ययन है, उसके लिए देखें, ग्रेवाल (1970)।
[xvi]
. अलबत्ता,
‘हिंदू’ पद को उन्नीसवीं सदी में बिला शर्त स्वीकृति नहीं मिली। सनातनता के
बिल्कुल आरंभिक पक्षधरों में से एक, विष्णुबावा ब्रह्मचारी (1825-71) ने अपने मराठी लेखन में मलेच्छ स्रोतों
से आने की बिना पर इस पद के इस्तेमाल से इंकार किया। अपने ‘वेदोक्तधर्मप्रकाश’ (1859) में उन्होंने हिंदू धर्म के बजाय
वेदोक्त धर्म की बात की। इसी तरह दयानंद
सरस्वती ने भी हिंदू धर्म की जगह आर्यधर्म को तवज्जह दी। सदी का अंत आते-आते इन
रूपभेदों को ख़त्म हो जाना था, साथ ही उन समुदायों के बीच की तकरारों और
मुख़ालफ़तों को भी, जो
एक हिंदू समुदाय का संघटन करने के लिए आगे आ रहे थे। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी
में मराठा लुटेरों के हाथों जो यातनाएं मिली थीं, उन्हें सफलतापूर्वक दमित किया जाना था,
ताकि सिर्फ़
हिंदू-मुसलमान के विरोध-भाव की पेशबंदी हो सके। इस प्रक्रिया की ओर मेरा ध्यान
खींचने के लिए मैं सुधीर चंद्र की आभारी हूं।
[xviii]
. पुराणों में
भारतवर्ष के भूगोल और विश्वरचना के सारगर्भित संक्षिप्त विवरण के लिए देखें,
रोसर (1986: 130-1)। जिस तरह यह विवाद का विषय है कि इसकी
स्थलाकृति ठीक-ठीक क्या थी, उसी तरह यह भी कि इसके नाम की उत्पत्ति कैसे
हुई, क्योंकि
क्रमशः वेदों, ब्राह्मणों,
महाकाव्यों और
पुराणों में अलग-अलग जनों को भरत बताया गया है। इसके लिए देखें, मोहनचंद (1990: 195-205)। इस पर ज़ोर देना ज़रूरी है, क्योंकि भारतवर्ष की धारणा के ताक़तवर
बने रहने के बावजूद उसके सुनिश्चित संदर्भ-बिंदु शताब्दियों के दौरान ख़ासे बदलते
रहे हैं।
[xxii]
. हरिश्चंद्रचंद्रिका
(2/8, 1875) में
लंबी किस्तों में प्रकाशित ‘अष्टादश पुराण की उपक्रमणिका’। ग्रन्थावली 3 में भी उपलब्ध (713-51)।
[xxv]
. जैसा कि थापर ने दर्ज किया है (1978: 157),
इसके
परिणामस्वरूप जो मिश्रण सामने आया, उसमें सामान्यतः संकर जाति के तौर पर जाने गये
सभी सामाजिक समूहों को निश्चित वर्ण का दर्जा नहीं दिया जा सका। हालांकि उन्हें
शूद्र के पद पर रखा गया, पर
उनमें से कई, जैसे
अम्बष्ठ, उग्र
और निषाद, मलेच्छ
के रूप में बाद में भी वर्णित होते रहे।
[xxvii]
. जर्मनी में इस विचार के विकास के ब्यौरों और
भाषाई मानवशास्त्र के इस क्षेत्र में मैक्समुलर के विशेष योगदान के लिए देखें,
डालमिया-लुड्रिट्ज़
(1987)।
[xxviii]
. इसीलिए हेनरी मेन, मैक्समुलर को प्रतिध्वनित करते हुए,
कलकत्ता
विश्वविद्यालय में 1866 में दिये गये अपने भाषण में हिंदुस्तानियों को यह सलाह दे
सकते थे कि वे ‘उस
शानदार नियति को उसके सभी नतीजों के साथ स्वीकार करें, जिसने धरती के दूसरे छोर से मानवजाति
के महानतम परिवार की युवतम शाखाओं में से एक को इस काम के लिए यहां ला पहुंचाया है
कि वह वृद्धतम का पुनरुद्धार करे और उसे शिक्षित करे’। लियोपोल्ड (1974: 600) से उद्धृत।
[xxix]
. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी की
शुरुआत में आर्य-विचार को लेकर राष्ट्रवादी प्रतिक्रिया क्या थी, इसके विस्तृत विश्लेषण के लिए देखें,
लियोपोल्ड
(1970)।
[xxx]
. अलबत्ता, व्याख्यान में आये हुए कुछ रूखे
वक्तव्य पाठक को इस दिशा में बहका सकते हैं कि वह उन्हें भारतेंदु के रवैये का कुल
जमा मान ले। ‘अगर
हिंदुस्तानियों को अपने देश में तरक़्क़ी लाने के लिए काम करना चाहिए तो, जैसा कि भारतेंदु कहते हैं, उन्हें उसी तर्क से अपनी भाषा में
तरक़्क़ी लाने के लिए भी काम करना चाहिए। आश्चर्यजनक तरीके से इस शब्द - ‘भाषा’ - पर ज़ोर नहीं दिया गया है; शायद वे ऐसा महसूस करते हैं कि उनके
अपने उत्तर भारतीय लोग अभी तक भाषाविषयक उनके संदेश को सुनने के लिए तैयार नहीं
हैं’ (मैक्ग्रेगर,
1991: 100)।
परंतु, निज
भाषा का समर्थन करने का परामर्श कोई अचानक आया हुआ विचार नहीं है, बल्कि यह हिंदी के लिए ताज़िंदगी चलाये
गये अभियान का चरम बिंदु उपस्थित करता वक्तव्य है।
[xxxi]
. मदन गोपाल द्वारा अंग्रेज़ी में लिखी गयी जीवनी
(1985), जिसमें
पहले के एक काम (1972) की सामग्री को भी ले लिया गया है, मुख्यतः इन तीन जीवनियों पर आधारित है,
हालांकि उसमें
स्रोतों का हवाल नहीं दिया गया है।
[xxxii]
. राम विलास शर्मा के कामों के नये संस्करण
संशोधित और अद्यतन हैं। हिंदू पुनरुत्थानवाद की बहस एक स्वातंत्र्योत्तर परिघटना
है, और
यह स्पष्टतः पहले के आकलन के साथ बाद में जोड़ी गयी चीज़ है। लेकिन, रामविलास शर्मा के उपागम को
स्वतं़त्रता-पूर्व और -उत्तर में बांट कर देखने की बजाय संपूर्णता में ही उस पर
विचार करना व्यावहारिक है, क्योंकि उसमें एक दृष्टिगत निरंतरता बनी रही
है।
[xxxiii]
. हम सिर्फ़ बलिया
व्याख्यान से ‘भारतेंदु
के काम की संपूर्णता’ निकाल
नहीं सकते; हरिश्चंद्र
के विचारों, और
उनके सहकर्मियों तथा समकालीनों के विचारों में हुए विकासों को उस दौर की पत्रिकाओं
और पुस्तिकाओं में संरक्षित साक्ष्यों की नये सिरे से छानबीन करते हुए मूल्यांकित
करना होगा।
[xxxiv]
. मिसाल के लिए, शंभुनाथ और अशोक जोशी (1986) द्वारा संपादित पुस्तक के ज़्यादातर
लेखों का आशय ऐसा ही है।
सम्पर्क –
मोबाईल - 09818577833
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