रोहिणी अग्रवाल की किताब 'हिन्दी कहानी : वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग' की भालचन्द्र जोशी द्वारा की गयी समीक्षा
रोहिणी अग्रवाल हमारे समय की चर्चित एवं मुखर आलोचक हैं। उनकी आलोचना में स्पष्ट तौर पर एक वैचारिक प्रतिबद्धता देखी जा सकती है। हाल ही में रोहिणी जी की आलोचना की एक महत्वपूर्ण पुस्तक 'हिन्दी कहानी : वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग' वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। इस किताब की समीक्षा की है हमारे समय के चर्चित कहानीकार भालचन्द्र जोशी ने। तो आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा 'कहानी और आलोचना:
अपेक्षाओं के द्वन्द्व'
कहानी और आलोचना:
अपेक्षाओं के द्वन्द्व
भालचन्द्र जोशी
हिन्दी कहानी की
आलोचना में अभी तक प्रायः यही होता आया कि रचना से पहले उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता
की पड़ताल की जाती रही है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो ‘पार्टनर, तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’ फिर इसका इतना
प्रचलन बढ़ा कि वह अपने मूल अर्थ को छोड़ कर, वैचारिकता को छोड़ कर
विचार के सामान्यीकरण तक बढ़ गया। इस मूढ़ सामान्यीकरण के चलते विचार को इस हद तक
केन्द्र में रखा गया कि वह जिद पर जा कर ठहर गया और संवेदना की अदेखी ही नहीं की
गई, बल्कि उसकी अनुपस्थिति को
गंभीर शून्यता नहीं माना गया, बल्कि
प्रतिबद्धता को नारे में तब्दील करने के कौशल को रचना की ‘प्रभावी उपस्थिति’ का स्वीकार प्रदान किया गया।
कविता में इस जिद
और आग्रह के कारण जो नुकसान होने थे वे तो हुए ही लेकिन कहानी में यह दुराग्रह आते
ही अधिकांश कहानियों से बल्कि अधिकांश महत्वपूर्ण मानवीय मार्मिकता तक पहुँच रखने
वाली कहानियों का धैर्य और विश्वास दरकने लगा। कहानी के लिए हाथ में कलम उठाते ही
उसके सामने एक भय पहले सामने खड़ा हो जाता था कि कहानी में संभावना नहीं है
हालाँकि रचना फिर भी अपनी संवेदनात्मक सम्प्रेषणीयता गुम नहीं होने देगी फिर भी वह
उसमें प्रतिबद्धता के लिए जगह खाली कराने के लिए कहानी की कथावस्तु से
धक्का-मुक्की करके संवेदना को कम करके रचनाकार वह जगह तैयार करके उसमें
प्रतिबद्धता को स्थापित करता था। इस तरह के भक्तिभाव से रचना में प्रतिबद्धता की ‘मूर्ति स्थापना‘ से वह इस तरह से संतुष्ट हो जाता था कि चलो, रचना में ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ चाहे न हो लेकिन ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ तो है। यह संतुष्टि कभी
सप्रयास हासिल की जाती थी तो कभी स्वतः आ जाती थी। मकान मालिक के निर्मम और धमकी
भरी शैली में जरूरी संवेदना की जगह खाली कराकर वह इस उपलब्धि पर अपनी भीतर के लेखक
और संगठन को संतुष्ट कर देता था कि मेरी प्राथमिकता में ‘प्रतिबद्धता’ है और एक ‘प्रतिबद्ध लेखक’ का प्रमाण पत्र हासिल करके खुश हो जाता था।
वैचारिक दबाव और आग्रह में ‘मुक्तिबोध की
जटिलता’ और ‘विचार’ की
अनिवार्य उपस्थिति को जंग लगी तलवार की तरह इस्तेमाल करते रहे। ऐसी रचनाओं की पीठ
थपथपाने के उत्साह में आलोचना प्रायः इस बात को विस्मृत करती रही या उनकी ज्ञान की
परिधि से बाहर रही कि ज्ञान और संवेदना के जिस अंतर्द्वन्द की बात मुक्तिबोध करते
थे उसमें संवेदना की मार्मिक उपस्थिति की उपेक्षा नहीं करते थे। मुक्तिबोध ने अपनी
कहानियों में भी अनुभव और यथार्थ की अदेखी नहीं कि बावजूद एक जटिल फैंटेसी में
रचना की निर्मिति की प्रक्रिया को, वैचारिकता को
उसकी मुनासिब, सहज और उसकी
तयशुदा जगह पर रख कर। यही कारण है कि ‘‘साहित्य में भी मुक्तिबोध जैसी प्रतिबद्धताएँ आत्मघाती ईमानदारी के साथ फिर
कहाँ देखने को मिलीं।‘‘ (आईने
प्रतिबिम्बित अक्स से सवाल कि ‘पार्टनर तुम्हारी
पालिटिक्स क्या है?’ (पृष्ठ-8) रोहिणी अग्रवाल
जब इस ‘प्रतिबद्धता और आत्मघाती
ईमानदारी’ की बात करती हैं तो वह भी अपने समय की रचनात्मकता के अक्स को उसकी
पक्षधरता की अपेक्षा उसकी उपस्थिति की प्रासंगिकता के सन्दर्भ में देखती हैं।
दरअस्ल संवेदना
और ज्ञान रेल की पटरियों पर दौड़ रहे दो समान्तर पहियों की भाँति हैं। यह ऐसा कुछ
है रचनात्मकता संवेदना और ज्ञान को सहयात्री की तरह साथ रखकर अपनी यात्रा पूरी
करे। इसमें ध्येय से भटकने का खतरा भी नहीं है और किसी एक ही सीट पर आधिपत्य जमाने
या धकेल कर सीट सौंपने की संभावना का खतरा भी नहीं है। मार्क्स के चिंतन को अब इस
नए सन्दर्भ में भी देखें जो कि किसानों, मजदूरों और प्रतिबद्ध बुद्धिजीवियों की सत्ता में बड़े बदलाव की सकारात्मकता
देख रहे थे। जाहिर है कि इसके पीछे उनकी मंशा सामाजिक अन्याय और श्रमिकों के शोषण
के समाप्त होने का स्वप्न था। इस स्वप्न से उपजे सन् 1857 के गदर से लेकर राष्ट्रीय एकता के लिए किए जा रहे आज के संघर्षों
तक (जिसमें कि अब काफी बिखराव और भ्रम की
गुंजाइश बन गई है) मुक्तिबोध राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं के सन्दर्भ में ही सारी
चीजों और स्थितियों को देख रहे थे। रोहिणी अग्रवाल मुक्तिबोध की ‘वैचारिकता’, ‘दार्शनिकता’ और रोमानी आदर्शवाद के साथ जीवन के जटिल,
गूढ़, गहन, संश्लिष्ट रहस्यों की
बेतरह उलझी महीन परतों की सतत् जाँच की हठपूर्ण, अपराजेय संकल्प को देखती है। इसमें रोहिणी जी एक नया पद
सम्मुख रखती हैं -‘रोमानी आदर्शवाद’
दरअस्ल रोमानी आदर्शवाद को मुक्तिबोध ने नेहरू के भविष्य के स्वप्नों में दाखिल हो
कर निकाला था और उस पर भरोसा भी था। जाहिर है कि जहाँ नेहरू का स्वप्न भंग हुआ
वहीं मुक्तिबोध भी स्तब्ध और अकेले हो गए। वह स्वप्न भंग एक राजनेता का नहीं,
समूचे राष्ट्र का स्वप्न भंग था जो नेहरू की
आँख से देख रहा था। ठीक इसी समय मुक्तिबोध वैचारिकता से अधिक दार्शनिकता के करीब
आए और ‘अभिव्यक्ति के खतरे’ उठा कर
वैचारिकता और दार्शनिकता के सघन तल में जटिल और गूढ़ रहस्यों की परतों को सैकड़ों
साल पहले डूबे सर्जनात्मकता के पक्ष में किसी जहाज के मलबे को उलट-पलट कर देख रहे
थे और समझ रहे थे। यह पड़ताल विचार के बेहद गहरे और अँधेरे जल में थी इसलिए यह एक
किस्म की जटिलता को भी स्वतः सामने रखती है।
रोहिणी अग्रवाल
अपने लेखन में नए तथ्यों के साथ मुक्तिबोध की रचनात्म्कता के लिए बहुत खूबसूरत
विशेषण इस्तेमाल करती हैं जो एक सार्थक सुख भी देता है। जैसे कि - ‘आत्मघाती ईमानदारी’ और वह भी ‘प्रतिबद्धताओं’ के साथ। यह साहस
सिर्फ मुक्तिबोध में ही था जो अचरज है कि अपने समय की गहरी हताशा से उपजा था। वह
जटिल समय आज भी स्वस्थ साँसें ले रहा है। यही कारण है कि मुक्तिबोध आज भी उतने ही
जरूरी लगते है अपने हर पाठ में क्योंकि वे देख रहे थे कि ‘‘गरीबी आज भी आम आदमी के ललाट पर श्मशान की निर्जनता और भयावहता
की लिपि लिख रही थी।” (लेख-वही, पृष्ठ-9) मुक्तिबोध जिस भयावह भविष्य को देख रहे थे आज बाजार ने
मुक्तिबोध की आकुल स्वप्नदृष्टि से ज्यादा भयावह और अपराजेय स्थिति में खुद
स्थापित कर रहा है।
हिन्दी में
ज्ञानरंजन एक मात्र ऐसे लेखक हैं जो भीतर से बेहद उत्तेजित और उदग्र रहने वाले और
वैचारिक चिंगारी को लावा में तब्दील कर देने की प्रभावी क्षमता स्पष्ट कर चुके
हैं। बहुत जल्दी वे कहानी में अभिव्यक्ति और भाषा की नवीन प्रस्तुति में शिखर पर
पहुँच गए। फिर वे वहीं ठहर गए क्योंकि आगे से नीचे जाने का रास्ता शुरु हो जाता है।
लिखते रहने के बाद एकाएक उनका लेखन छूट गया लेकिन फिर भी वे अकेले नहीं रहे और न
कभी अपने ‘न लिखने के कारण’ गिनाए।
उनके पास जितना लिखा हुआ है, उससे ज्यादा
अधूरा लेखन उनके पास धरा है। उनके स्वभाव की फक्कड़ता और भीतर की उदग्र उत्तेजना
को कोई ठौर नहीं मिलने का लाभ उनके आलस्य ने उठाया। हालाँकि ठीक इसी बात के लिए वे
दूसरों को डाँटते फटकारते हैं। खासकर मुझे उनके गुस्से का अधिक शिकार होना पड़ा
क्योंकि मेरा आलस्य उनके आलस्य से बड़ा हो रहा था इसलिए हर बार मिलने पर या फोन पर
झुँझलाते रहे कि, - ‘‘उपन्यास जल्दी पूरा करो। तुम हिन्दी में दूसरे ज्ञानरंजन मत
बन जाना।” यानी वे अपनी रचनात्मकता पर मानसिक उदासी और दैहिक आलस्य को पहचान चुके
थे। अब सम्भवतः वे अपने आलस्य को एंजाय करते हैं। कई बार ऐसा होता है कि मन के
भीतर बैठी कोई नकारात्मकता या निष्क्रिय ग्रंथि व्यक्ति को खुशी देने लगती है।
रोहिणी अग्रवाल
भी कहती हैं कि - ‘‘सादगी ज्ञानरंजन की कहानियों की अप्रतिम विशेषता है।”
(ठहरे हुए जीवन का विराट चित्र, पृष्ठ-26) दरअस्ल ज्ञानरंजन की सादगी चेखव और प्रेमचंद की सादगी से
बेहद भिन्न है। ज्ञानरंजन सादगी को कहानी का अंतिम निर्णायक बिन्दु स्थापित नहीं
करते और न प्रेमचंद की भाँति सादगी से किसी आदर्श की अपेक्षा रचते हैं।
ज्ञानरंजन अपनी
सादगी में मानवीय गरिमा अपने उस अनुभव संसार के सामने खड़ा करते हैं, जहाँ किसी ‘लिरिकलनेस‘ या बौद्धिक आतंक
के नाटकीय रूपान्तरण की जरूरत भी नहीं है और जगह वे बनने भी नहीं देते हैं।
ज्ञानरंजन की तो प्रेम कहानियों के नायक भी परम्परागत प्रेमी की तरह व्यवहार नहीं
करते, बल्कि हमेशा एक ठण्डी
उदासी या फिर हालात को ले कर एक आक्रोश की लपट लेती हुई उद्विग्नता है। यही कारण
है कि ऊपर से न लगते हुए भी ज्ञानरंजन की रचनात्मकता मार्मिक मानवीयता की पक्षधरता
को कहानी के रचाव का अदृश्य हिस्सा बनाती है। ज्ञानरंजन की कहानियों में निर्मल
वर्मा की कहानियों जैसी अकेलेपन की मोहक और ठण्डी उदासी नहीं है, बल्कि निरन्तर जटिल और अपराजेय होते जा रहे समय
को लेकर एक क्रूर ठण्डी उदासी है जो विवशता से नहीं बल्कि समूह की निष्क्रियता से
पैदा हुई है। इसलिए ज्ञानरंजन की कहानियों में अपने समय की क्रूरता और आक्रामकता
के प्रति एक ध्येययुक्त उद्दण्ड अवहेलना भी है। साथ ही हर कहानी की संरचना का
रूपायन है। ज्ञानरंजन के साथ दिक्कत यह है कि वे अपनी अपेक्षाओं के लिए जिम्मेदार
के पास एक उपेक्षा भाव से जाते हैं। यही वह अंतर्द्वन्द है जो कहानी के मौन में
मुखर का रचाव करती है। इसी से उनका विजन साफ नजर आता है। कहानी के साथ ज्ञानरंजन
कितनी भी निर्ममता से पेश आए लेकिन कहानी में अपने विजन की उपस्थिति को ले कर वे
बेहद सजग बल्कि अति सतर्क लेखक हैं। यही कारण है कि रोहिणी अग्रवाल ज्ञानरंजन की
कहानियों में सादगी देखती हैं सपाट बयानगी नहीं। रोहिणी जी स्थितियों के
द्वन्द्वात्मक टकराव को भी अस्वीकार करती हैं, लेकिन मुझे लगता है कि ज्ञानरंजन की कहानियों की स्थितियों
की द्वन्द्वात्मकता उनकी कहानी के अण्डरटोन में है। उनकी किसी भी कहानी में
सीधे-सीधे उग्र और आक्रमकता नहीं है। इसलिए ये कहानियाँ ‘‘गतिहीन शैथिल्य के बीच से गुजर कर देखे हुए जीवन को देखने
का नाट्य करती हैं।” (ठहरे हुए जीवन का
विराट चित्र, पृष्ठ-26) इसलिए ज्ञानरंजन
की कहानियों में भाषा और शिल्प की जगलरी नहीं है, बल्कि रचाव की अनिवार्यता में ‘विजन’ की तीव्रता और उपस्थिति को सार्थक प्रमाणित करके ही
दम लेने का साहस और प्रतीज्ञा है। ज्ञानरंजन की आक्रमकता अन्य कहानीकारों की तरह
भाषा से पैदा होकर भाषा में नहीं मर जाती, बल्कि एक धीमी गति की कहानी के विजन के रचाव में अपना आक्रोश प्रकट करते हैं।
बहुत पहले शिव प्रसाद
सिंह ने निर्मल वर्मा को लेकर कहा था कि ‘‘मुखौटा मार्क्सवादी और चेहरा एक रूमानी आउट साइडर का” इसके साथ ही
उन्होंने लिखा कि ‘‘इसे वस्तुस्थिति
का सही अवरोध ही माना जाए लेखक के प्रति उपेक्षा भाव नहीं, क्योंकि मुखौटा के भीतर जो चेहरा है वही सच्चा है, इसलिए प्रीतिकर भी।”
निर्मल वर्मा की
कहानियों में अकेलेपन का एक उजाड़ और विखण्डित परिवार की पीड़ा पूरी मार्मिकता से
प्रकट होती है लेकिन ज्ञानरंजन के यहाँ सामूहिक परिवार में भी आंतरिक विघटन की
पीड़ा एक डरावने आतंक में ज्यादा मार्मिकता से उद्घाटित होती है। ज्ञानरंजन की
कहानियों में चीजों और स्थितियों को लेकर उपेक्षा का सीधे-सीधे व्यंग्य में
रूपान्तरण नहीं है, बल्कि व्यंग्य को
वे एक आक्रोश के उपकरण और नैतिक हस्तक्षेप का हथियार बनाते हैं। ज्ञानरंजन की
कहानियाँ कथन की सघनता के बावजूद शिल्प के प्रति सजग रहती हैं और उसकी अनावश्यक
जरूरत को कई बार खारिज भी कर देती है क्योंकि धीरे-धीरे कहानी खुद अपना शिल्प
तैयार करने लगती है। इसी के भीतर कहानी अपने होने की सार्थकता भी रख देती है।
रोहिणी अग्रवाल भी इस बात को रेखांकित करती हैं। जब कहानी में भाई के प्रति कथन
दोहराती है कि - ‘‘वह आत्महत्या कर ले और बहुत ही घिसटती हुई निर्मम समस्या का
समाधान हो जाए।” (ठहरे हुए जीवन का
विराट चित्र, पृष्ठ-27) इस वाक्य ही नहीं,
इस कहानी में लेखक को अमानवीय, क्रूर, संवेदनहीनता आदि से बचाने के कोई स्पष्ट प्रयास नहीं है, बल्कि कहानी के सहज बहाव में ही व्यवस्था के
बर्बर चेहरे का उद्घाटन है। रोहिणी जी इसलिए इस बात को मार्क करती हैं कि ‘घर‘ के नाम से बिदकने वाला नैरेटर का बार-बार दावा करना कि उसे अपने शहर से ‘घातक लगाव‘ है (अनुभव) या आत्महत्या की पैरवी करते नैरेटर (आत्महत्या)
का ‘एक सार्थक आत्महत्या‘
करने का प्रयास ताकि युगों-युगों तक वह अमर
रहे। ज्ञानरंजन एक चौकन्नी सादगी के साथ इस युक्तियों को कहानी में धर देते हैं,
क्योंकि इन्हीं के जरिए वे सतह पर दिखते-दिखते
अर्थ को धकिया कर उसके गहरे व्यंग्यार्थ की निष्पत्ति और आत्मसार्थकता की तलाश की
कहानी बन जाती है।'
रोहिणी जी ने
ज्ञानरंजन के बारे में एक बात बहुत महत्वपूर्ण कही है कि ‘उनका नायक चहल-कदमी करते हुए इस कहानी से उस कहानी की जमीन
पर आराम से चला आता है।‘ (लेख - वही,
पृष्ठ-27) लेकिन मुझे लगता है कि इस चहल-कदमी में पिछली कहानी या कहें
पिछले रास्तों के मोह का दुहराव नहीं है। ज्ञानरंजन की कहानियाँ क्रूर और
संवेदनहीन होते समाज को लेकर एक पारम्परिक और औपचारिक विरोध दर्ज नहीं करती,
बल्कि एक उदग्र विवेक के साथ भाषा की संयम सीमा
पर जाकर मुठभेड़ का एक मार्मिक और जीवंत दृश्य प्रस्तुत करती हैं।
संजीव एक ऐसे
कथाकार हैं जो अनुसंधान के श्रम को कथा-कौशल में तब्दील करने की कोशिश निरन्तर
करते रहते हैं। संजीव खुद अपनी रचनात्मकता को लेकर कहते हैं कि ‘‘मेरे लिए साहित्य कोई निष्क्रिय उत्पाद नहीं है।
मनुष्य की ऊर्जा को मनुष्य के लिए इस्तेमाल करते हुए उसे मनुष्य बनाए रखना है।” इसके आगे रोहिणी जी
जोड़ती हैं कि ‘‘जनधर्मी साहित्य
एवं आन्दोलन पर अगाध आस्था के साथ वे अमेरिकी साम्राज्यवाद और बाजारवाद के मायावी
दैत्य को पछाड़ देना चाहते हैं, लेकिन कब और कैसे,
नहीं जानते।” इसे रोहिणी जी विफलता चाहे न माने लेकिन एक
भ्रमित ‘प्रतिबद्ध‘ लेखक के लिए यह कोई सुखद सूचना भी नहीं है।
कथ्य की जानकारियों से सम्पन्न ‘सूचना-समूह’ रचना
में विश्वसनीयता तो पैदा कर देगा लेकिन उस प्रतिबद्धता उसकी मूल्यवत्ता का संघर्ष ‘सूचना समूह’ के दखल से रचनात्मकता में मानवीय
मार्मिकता की उपस्थिति के लिए जगह तंग नहीं करेगा?
जिस मूल्यवत्ता
और उसकी यथार्थ के साथ अर्थपूर्ण सम्बद्धता को केन्द्र में रख कर ‘नई कहानी‘ की पीढ़ी ने पूर्ववर्ती पीढ़ी के प्रति नकार भाव पैदा किया
जो लगभग पक्ष रखने के लिए भी किसी अन्य लेखक को अवसर और जगह नहीं दी गई। संजीव के
पास कहानी के रचाव और फैलाव की गति के संतुलन का अद्भुत कौशल है। जाहिर है कि वे
उपलब्ध सूचनाओं को कहानी के रचाव में इस्तेमाल करते हैं। अब कहानी खुद अपने आपको
जब संतुष्ट मानेगी जब उन सूचनाओं में संवेदना का एक महीन तार भी जुड़ा हो। किसी भी
व्यक्ति या समाज की कितनी भी प्रामाणिक सूचनाएँ, जानकारियाँ जुटा कर एक कथ्य का हिस्सा बना लें लेकिन उसकी
प्रभावी कथ्यात्मक उपस्थिति तब बनेगी जब उस व्यक्ति या समाज से आपका जुड़ाव कितनी
देर और कितनी दूर तक का था। ऐसी रचनाओं के लिए एक लम्बे और गहरे लगाव के साथ उस
समाज का लम्बे समय तक अंतरंग हिस्सा बन कर रहने पर ही उस रचना में उस समाज,
उस समय और उसके सुख-दुख सम्पूर्ण संवेदन-आवेग
के साथ प्रकट होते हैं। सम्भवतः इसी बात के संकेत दूसरे सन्दर्भ में रोहिणी जी के
इस कथन में मिलते हैं कि, - ‘‘जंगली बहू (‘प्रेरणा स्त्रोत’
कहानी की नायिका) मुझे उबार लेती है। बताती है कि तिलिस्म और कुछ नहीं, अपने ही अज्ञान और रोमान की मानसिक रचना है,
कि तिलिस्म तोड़ना कठिन नहीं होता, कठिन होता है तिलिस्म की मायावी दुनिया छोड़कर
खुरदरी जमीन पर खड़े होना।” (प्रतिबद्धता का
सर्जनात्मक गान, पृष्ठ-36)
संजीव की
कहानियों में यथार्थ नहीं अति-यथार्थ है। वे देश के किसी भी हिस्से, समाज या व्यक्तियों के बीच उनकी जीवन पद्धति को
समझने की कोशिश करते हैं। यही कारण है कि उनकी कहानियों में जीवन यथार्थ उतना सतही
नहीं लगता है जैसा और लोग किसी दूरस्थ जंगली इलाके या किसी समाज विशेष में
पर्यटकों की-सी उत्सुकता और अनुभव का इस्तेमाल करके अपनी शहरी भद्रता को उनसे एक
निश्चित दूरी बनाकर उस समाज को रचना का हिस्सा बनाते हैं उसे समूचे भारतीय परिवेश
की स्थितियों और व्यक्तियों के सन्दर्भ में कथा का हिस्सा बनाते हैं।
संजीव जानकारी और
सूचनाओं को आरोपित नहीं करते हैं, बल्कि अपनी तरफ
से पूरी कोशिश करते हैं कि वे सूचना समूह से निथरा हुआ यथार्थ जीवन यथार्थ की
छायाप्रति लगे। कई बार उनकी रचना में यह श्रम ही प्रमुख ध्येय हो जाता है।
संजीव के साथ एक
और विशेष बात यह है कि उनकी रचनाएँ ज्यादा यथार्थवादी लगती हैं कि वे अदेखे समाज
में जा कर, उनकी पीड़ा और सुख-दुख की,
उन अनुभूतियों को अपने समाज या परिवेश में
देखते-समझते हैं। इसी से उनका जीवन और अपने समय के प्रति अंतरंगता और लगाव-अलगाव
यथार्थ की जमीन पर प्रकट होता है। उपन्यासों में ‘सावधान नीचे आग है’ तथा कहानियों में ‘अपराध’ तथा ‘मैं चोर हूँ मुझ पर थूको’ जैसी अनेक रचनाएँ हैं जो अपने
कथ्य को प्रस्तुति की सफलता की अंतिम सीढ़ी पर पहुँचाकर दम लेती है। रोहिणी जी खुद
लिखती हैं कि ‘‘संजीव पुरुषों की
दुनिया में वर्ग-वर्ण की लड़ाई के बीच अपने फुल फार्म में हैं।” रोहिणी जी यह भी
मानती हैं कि, ‘‘वास्तविक
अपराधियों की शिनाख्त में असफल रह जाने की पीड़ा के जरिए उभरा व्यंग्य, ‘प्रेतमुक्ति’ में तमाम दीनता के बावजूद विद्रोह
की चिंगारियाँ ढूँढने की लालसा हो या ‘कदर’ में अपनी खोई अस्मिता और आत्मभिमान पाने का संकल्प -‘संजीव की बारीक नजर से समस्या का कोई भी कोण और
पक्ष नहीं छूटता।” (प्रतिबद्धता का
सर्जनात्मक गान, पृष्ठ-39)
संजीव हमारे समय
के बहुत महत्वपूर्ण और संवेदनशील लेखक हैं। इधर उनके भीतर एक अजीब-सी ग्रंथि बढ़
गई है कि सूचनाओं के समूह का यथार्थ ही रचनाओं का यथार्थ होता है। बहुत हद तक यह
सच भी है। संजीव को इस कार्य और श्रम मे महारत हासिल है, लेकिन अभ्यास रचना में यथार्थ की अनिवार्य उपस्थिति को
विकल्प की भाँति प्रस्तुत करने की लत घातक होती है। रोहिणी जी का मानना है कि ‘‘स्त्री को लेकर दुविधाग्रस्त हैं संजीव। वे उसे
स्त्री से इतर मनुष्य रूप में नहीं देख पाते। बेहद संजीदगी के साथ देखना चाहते हैं,
लेकिन चेतना पर कुण्डली मार कर बैठे संस्कार
आड़े आ जाते हैं।” (प्रतिबद्धता का
सर्जनात्मक गान, पृष्ठ-38)
अब इस जगह दिक्कत यह है कि ऐसी रचनाओं में या
ऐसे समय में संजीव का पाला रोहिणी अग्रवाल जैसी स्त्री स्वतन्त्रता की घनघोर
पक्षधर आलोचक से पड़ गया है। रोहिणी अग्रवाल स्त्री स्वतन्त्रता को लेकर इतनी सजग,
सतर्क और बेहद आक्रामक आलोचक हैं कि पति-पत्नी
या महिला-पुरुष की गाढ़ी दोस्ती के बीच स्त्री को लेकर सामान्य से परिहास से भी
इतनी आहत और उत्तेजित हो जाती हैं कि उनकी स्त्री-पक्षधरता जिद से आगे जा कर
असहमति बल्कि उससे भी आगे जाकर भर्त्सना भाव पर ठहरती है।
रोहिणी जी ‘मानपत्र’
कहानी के सन्दर्भ में लिखती हैं कि, - ‘‘बाहरी स्थिति में हेर-फेर भले ही दिखाई दे,
नियति में फर्क नहीं आता। रो-रो कर तिल-तिल
मरती इस पत्नी के प्रति सबकी मुखर सहानुभूति है क्योंकि उसके आँसुओं में रिरियाहट
नहीं है, परिवर्तन की ज्वाला नहीं
है। कहानी में वह पति दीपंकर को उसकी ज्यादतियों का चित्र उकेर कर ‘मानपत्र‘ दे रही है। विडम्बना! यथास्थितिवाद के पोषण का स्त्री-पक्ष”
(प्रतिबद्धता का सर्जनात्मक गान, पृष्ठ-38-39)
संजीव की
कहानियों में मध्य वर्ग की स्त्री पात्र प्रमुख या केन्द्र में होते हुए भी वह उस
जटिल संरचना से स्त्री की मुक्ति की राह नहीं खोज पाते या उसकी गढ़ी गई नियति पर
ऊँगली उठाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि संजीव की कहानियों में स्त्री पात्र कोई विशेष
मंशा से ऐसी स्थिति में बरामद होती है जो आत्मकेन्द्रित हो एक अर्थहीन गर्व से भरी
हों। संजीव कथ्य के यथार्थ-रचाव में इतने संलग्न हो जाते हैं कि उस भ्रम की निष्ठा
में एक अबोध चूक हो जाती है कि वे न चाहते हुए भी स्त्री मात्र या एक स्त्री की
समूची दुनिया के दुख-दर्द की ओर पीठ करके बैठ जाते हैं। यही कारण है संजीव की
कहानियाँ विशेषकर महिला केन्द्रित कहानियों में अंतर्वस्तु के समान्तर विस्तार का
एक मासूम अभाव नजर आता है। संभवतः इसी कारण मनुष्यता के प्रबल पक्षधरता के बावजूद
उनकी कहानियों में स्त्री-संसार इतना व्यापक और विस्तारित नहीं है। संजीव के पास
मनुष्यता के लिए बहुत समर्पित, सजग और बहुत
अर्थपूर्ण बनावट एवं बुनावट की कहानियाँ हैं, लेकिन श्रम से हासिल अपनी सूचनाओं के कथ्यात्मक रूपान्तरण
में वे इतने तल्लीन हो जाते हैं कि स्त्री की उपस्थिति अजान, अदेखी रह जाती है। कई बार तो वह परम्परा से
हासिल नैतिकता और दार्शनिकता के साथ स्त्री सन्दर्भ में किसी पक्षधरता के
अन्तद्र्वन्द्व में भी नहीं पड़ते हैं। संजीव के यहाँ चीजें या तो हैं या नहीं
हैं। यही कारण है कि इस असावधानी या चूक का संकेत रोहिणी अग्रवाल भी करती हैं,
-‘‘एकाएक ‘आरोहण’ कहानी की एक पंक्ति मेरी स्मृति में अटक
जाती है शैला (भूप की पत्नी और नौ वर्षीय महीप की माँ) को ‘‘जाणे क्या सूझा कि एक दिन हयांई से कूद गई सूपिण (नदी) माँ।”
यह वही शैला है जिसके साथ भाई के प्रेम के किस्से बेहद नास्टेल्जिक अंदाज से याद
करता है नैरेटर रूप। यह वही शैला है जिसके साथ गृहस्थी करते हुए भूप ने खेतों का
घेरा ही नहीं फैलाया, बल्कि उसे सींचने
के लिए झरने का मुँह भी मोड़ दिया। प्रेम और श्रम के ताने-बाने से सिरजी शैला ‘जाणे क्या सूझा‘ के पागलपन से रची स्त्री नहीं थी कि नदी में कूद कर
आत्महत्या कर लेती। शैला ने आत्महत्या की, यह एक तथ्य है, लेकिन शैला ने
आत्महत्या क्यों की? इसकी तहकीकात
नहीं करता लेखक। (प्रतिबद्धता का सर्जनात्म्कता का गान, पृष्ठ-39) रोहिणी जी का
प्रिय कथन यहाँ भी है कि ‘‘कहानी (लिखना और
पढ़ना दोनों) वक्त काटने के लिए खाली बैठे व्यक्ति का शगल नहीं है। साहित्यिक विधा
के रूप में कहानी यथार्थ की कितनी ही अचिन्ही और गूढ़ परतों को खोलते हुए जिस सघन
संश्लिष्ट अर्थ की व्यन्जना करती है, वह टी.वी. सीरियलों के जरिए उभरते कथा-संसार का विलोम रचती है।” (जड़ता का गुरुत्वाकर्षण और उड़ान की तैयारी के
बीच कहानी तंत्र पर बात, पृष्ठ-47)
रोहिणी जी
कथावस्तु की अनिवार्यता को लेकर जितनी सजग है उतनी ही शिल्प की उपयोगिता के प्रति
लेखक के स्पष्टीकरण की दरकार रखती हैं, जो कथा का हिस्सा बन कर ही आए। वे इस बात पर जोर देती हैं कि कहानी सिर्फ
ब्यौरों का संग्रह भर नहीं होती। मेरे विचार से इस बात से कोई भी असहमत नहीं होगा।
उनकी इस बात से भी शायद ही कोई असहमत हो कि ‘‘साहित्यिक विधा कहानी पल और पलायन को जीवन मूल्य बनाए जाने
वाली हर ताकत का विरोध करती है ताकि जीवन की निरन्तरता के बीच मनुष्य के अन्तर्मन
में पलते शाश्वत सत्यों का साक्षात्कार कर सके जो एक ओर अमूर्त मनोवृत्तियों और
मनोवेगों के रूप में अभिव्यक्ति पाते हैं तो दूसरी ओर स्थूल तिकड़मों और उष्म
सम्बन्धों के संजाल में अपने को बचाए रखते हैं।" (जड़ता का गुरुत्वाकर्षण और उड़ान की तैयारी के बीच कहानी के
तंत्र पर बात, पृष्ठ-45)
दरअस्ल इस कहानी
(भालचन्द्र जोशी की कहानी 'पालवा') का नायक (रोहिणी जी के कथनानुसार नैरेटर) अपनी
अबोध जिज्ञासाओं में ही वर्ग भेद, स्त्री
स्वतन्त्रता और मानवीय अस्मिता के सवालों से टकराता है लेकिन वह कहानी में कहीं भी
हताश नहीं है। दूसरी बात कि ‘‘अलबत्ता इस
छोटी-सी वय में भी इतना जरूर जानता है कि ताकत और दमन में गहरा अन्तर्सम्बन्ध है।
साथ ही अपनी भीतर पैदा होती इस लालसा को भी स्वाद ले कर भोग लेना चाहता है कि वह भी
बड़ा होकर सभी पर हुक्म चलाएगा।” (लेख - वही,
पृष्ठ-51)
रोहिणी जी स्त्री
स्वतन्त्रता की बहुत सजग और गहरी समझ से भरी जिद्दी लेखक हैं। उनके भीतर
स्त्री-स्वतन्त्रता की पक्षधरता इतने आक्रोश और गहरी आसक्ति के साथ मौजूद है कि कई
बार वे कहानी की सहज गति में शामिल यथार्थ को लेखकीय टिप्पणी मान लेती हैं। इस
कहानी में बिन्नू का चरित्र और उसकी बड़ों को मुश्किल में डाल देने वाली
जिज्ञासाएँ एक अबोध मन का सहज प्रकटन है। ‘वह भी बड़ा होकर हुक्म चलाएगा’ की इच्छा खुद की अवहेलना से पैदा हुई क्षण भर
की इच्छा है इसमें किसी ‘लालसा को भी
स्वाद लेकर भोग लेना चाहता है’ जैसी कोई स्थायी धारणा या ग्रन्थि नहीं है। वह क्षण
का सच है। एक अबोध बच्चे के मन में पैदा हुआ क्षण का सच। वह भविष्य में निर्धारित
करता समय का निर्णायक सच नहीं है। एक अबोध मन की सहज प्रतिक्रिया जो अपने बचपन की
मासूमियत के चलते, खासकर गाँव के
सामंती माहौल में अपने प्रतिकार का हिस्सा है।
इसी प्रसंग में
मैं रोहिणी जी के इस कथन का उल्लेख करना चाहूँगा कि ‘‘समाज में जो हो रहा है उसे यथावत दिखा देना ही क्या साहित्य
है?” के प्रश्न के जवाब में यही कहा जा सकता है कि दरअस्ल वह यथार्थ का छायाचित्र
नहीं, बच्चे की जिज्ञासाओं और
इन्हीं के बीच गाँव में शोषण का गहरा शिकार बनी स्त्री का गद्यात्मक रूपान्तरण
नहीं है, बल्कि उसे कथा की तीव्र
जरूरत और पुरुष की दमनकारी मानसिकता को कथ्यात्मक हिस्सा बनाकर प्रस्तुत करने की
अनिवार्यता थी (चाहे तो कौशल भी कह लें) यह अनिवार्यता उस नास्टेल्जिया से जन्मी
है जिससे कथ्य और भाषा के अन्तद्र्वन्द्व में शिल्प नास्टेल्जिया से पाठकीय सजगता
का नाता भी नहीं टूटने देता है। सम्भवतः यही वजह है कि रोहिणी जी कहती हैं,
- ‘‘मैं सोचती हूँ
भालचन्द्र जोशी के कहानी संग्रह ‘पालवा‘ के सन्दर्भ में मुझे कहानी के तंत्र की ये तमाम
बारीकियाँ क्यों याद आ रही है? क्या इसलिए कि
कोई भी समर्थ रचना जिस अनायास भाव से जीवन की संश्लिष्टता का अवगाहन करती हैं,
उसी अनायास भाव से और किंचित अधिकार पूर्वक भी,
अपने पारम्परिक फाॅर्म में हस्तक्षेप करते हुए
उसे समृद्ध भी करती चलती है ? लेकिन फिलहाल मैं
‘पालवा‘ कहानी के रेशे-रेशे में बुने नास्टेल्जिया से
अभिभूत हूँ जो मुझे दूर कहीं दृष्टि ओझल होती पगडंडियों में छूटे बचपन की
स्मृतियों में ले जा रहा है।” (जड़ता का
गुरुत्वाकर्षण और उड़ान की तैयारी के बीच कहानी तंत्र पर बात, पृष्ठ-49)
मैं सोचता हूँ, दरअस्ल ऐसी
कहानियों का एक अपना खतरा भी है कि मामूली-सी बहक या पात्रों से निजी मोह इतने जतन
से सँवारी और कठिन बुनावट से तैयार कहानी की आंतरिक संरचना, जिस पर कहानी के कहे को छिपाने और अनकहे को उद्घाटित करने
की जरूरी जिम्मेदारी है, को खण्डित कर
देगा। इसलिए इस कहानी में ऊपर से सब कुछ ढँका हुआ लगता है और भीतर से उघड़ा हुआ।
बच्चे बिन्नू की निर्भिकता में उसे अबोध मन की शक्ति का साथ है। रोहिणी जी इसे
दूसरी तरह से स्वीकार करती हैं कि, - ‘‘पालवा कहानी की ताकत यही है कि वह विलुप्त होती
ईमानदारी और निर्भीकता दोनों को धारदार औजार की तरह इस्तेमाल कर विघटनकारी मौजूदा
समाज व्यवस्था की खुर्दबीनी जाँच करने लगती है। न किसी भी तरह का रोमान नहीं। न ही
पूर्वग्रह कि पुराना सब अच्छा, नया सब गर्हित। यथार्थ की खुरदरी जमीन पर खड़े होकर वह
बिन्नू की मासूमियत से उपजे नोकदार सवालों को हवा में उछाल देती है कि, -‘‘अरे! इनका (बड़ों का) ऐसा करना बुरा है या मेरा
पूछना? जब इनकी कोई बात बुरी
होगी, तभी तो मेरा पूछना बुरा
होगा।” (जड़ता का गुरुत्वाकर्षण
और उड़ान की तैयारी के बीच कहानी तंत्र पर बात, पृष्ठ-50)
रोहिणी जी की इस
बात से आसान सहमति बनती है कि ‘भालचन्द्र जोशी
बिन्नू को नैरेटर बनाते हैं क्योंकि जिस सिस्टम के दोगले और अमानवीय तंत्र को वे
कहानी में उद्घाटित करना चाहते हैं, बिन्नू अपनी अबोधता के कारण उस सिस्टम का हिस्सा नहीं है, और इस प्रकार बेहद वस्तुगत ढँग से वह उस पर टिप्पणी
करता है। दूसरे बच्चे की आब्जर्वेशन पावर वयस्क के मुकाबले कुछ अधिक प्रखर होती है
जो नजरअन्दाज कर देने वाली दैनंदिन सच्चाइयों को पूरी भयावहता और परिप्रेक्ष्य के
साथ उजागर करती है।” (लेख-वही, पृष्ठ-50)
इस कहानी की
पड़ताल में रोहिणीजी की उस आलोचना दक्षता का बड़ा दृश्य निकल कर आता है जो इस तरह
की रचनाओं की अपेक्षा में रहता है। ऊपर से सरल लगने वाले वाक्य भीतर कहीं बहुत
गहरे अर्थों की पोटली लिए प्रकट होते हैं। फिर उनकी कहानी की जरूरत में उसकी जगह
की नाप कर उसकी व्याख्या करती हैं। जिसमें वह किसी प्रकार का लिहाज नहीं पालती
हैं। जब वह कहती हैं कि ‘भालचन्द्र जोशी
ज्ञानरंजन की परम्परा के समर्थ कहानीकार जान पड़ते हैं।” (लेख-वही, पृष्ठ-58)
मेरे लिए यह एक बड़ा काम्पलिमेंट है। किसी भी
लेखक को अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के महत्वपूर्ण, चर्चित, गम्भीर और बड़े
कद के रचनाकार की कड़ी में देखा जाता है तो यह उसके लिए निश्चित रूप से खुशी की
बात होगी, क्योंकि रोहिणी जी ऐसा
कहती हैं तो यह वाक्य एक गहरे विश्लेषण और दक्ष आलोचना दृष्टि से गुजर कर आया है।
फिर वह एक ‘लेकिन‘ की स्थिति निर्मित करती हैं जो ‘समय के संकट और अन्वेषण के द्वन्द्व‘ को खँगालती है।
इस लेकिन में
रोहिणी जी इस बात का उल्लेख करना भूल जाती हैं कि ज्ञानरंजन और भाल चन्द्र जोशी की
मनुष्यता के पक्ष में वैचारिकी समान है। दोनों की सर्जनात्मकता में मनुष्यता के
प्रति गहरी आस्था है और विचार के प्रति निष्ठा भी एक है। यह बात दीगर है कि भाषा
के स्तर पर दोनों जुदा हैं जो कि स्वाभाविक भी है और जरूरी भी। रोहिणी जी जिस ‘स्वस्थ-समग्र जंग की तत्परता के अन्वेषण‘
की बात करती हैं, उसका प्रकटन प्रत्येक रचनाकार के पास भिन्न रहेगा और होना
भी चाहिए। महत्वपूर्ण वह विजन है जिसमें यह संघर्ष एक भिन्न जटिलता के साथ समाहित
होता है तो वह दोनों की रचनाओं में मौजूद है। ज्ञानरंजन जी को समझ में आ रहा था कि
परिवार या समाज आने वाले समय की टूटन की विभाजन रेखा पर खड़ा है। इसी से उनकी
रचनात्मकता उदासी से उद्विगनता तक का सफर तय करती है। यही वजह है कि ज्ञानरंजन की
भविष्य की पहचान-दृष्टि की परिणति बाद की पीढ़ी ने देखी और भुगती है। ज्ञानरंजन की
पीढ़ी का समय, परिवार और समाज
की टूटन इतनी गहरी और पृथक्करण इतना उतावला और जटिल नहीं था। एक ही देश, समाज और समय में कारक तत्व भी अलग थे। आज बाजार
समय ने सब कुछ एक सार कर दिया है। एक ही समय, देश और समाज में पीड़ा, दुख और संघर्ष के कारक तत्वों को एक कठोर और जटिल ‘समय-केन्द्र‘ पर खड़ा कर दिया है। इसी ‘समय-केन्द्र’ पर दोनों लेखकों के तेवर और उद्विगनता एक है।
बहरहाल एक अच्छे
आलोचक के पास पढ़ने और फिर सुनने का कितना धैर्य है और फिर विश्लेषण के लिए कितनी
सतर्कता है यह कोई रोहिणी अग्रवाल की आलोचना पढ़ कर समझ सकता है। बहुत महीन-सी
लगभग अलक्षित रह जाने वाली बारीक-सी चीजों को भी वे उसकी पूरी सारगर्भिता में
पकड़ती हैं और प्रकट करती हैं। ‘‘बेशक व्यंग्य
भालचन्द्र जोशी की कहानियों में आंतरिक लय की तहर मौजूद है और इसका टारगेट अपनी
क्षुद्रताओं में लथपथ आम आदमी ही है जो अपनी तमाम अकर्मण्यता के बीच इस भ्रांति का
शिकार भी है कि पालवा खोदने की जिम्मेदारी भरा काम वह अकेले अपने दम पर कर रहा है।”
(लेख-वही, पृष्ठ-57)
रोहिणी अग्रवाल की
आलोचकीय दृष्टि बहुत पैनी और साफ है जिससे रचना की अँतडि़यों को टटोल कर रचना का
छिपा आशय बाहर निकाल लेने में दक्ष है। बस, दिक्कत तब आती है जब रचना के भीतर एक से अधिक आशय छिपे या
दबे हों तब उनकी दक्षता सशंकित होकर अपनी ताकत पर भरोसे का हाथ छोड़ देती है या फिर
जो भी आशय उनके हाथ लगता है, उसे वे आलोचकीय
कौशल से कुबूलवा लेती हैं। इस कार्य में वे इसलिए निष्णात नहीं हैं कि वे रचना का
अर्थ बदल दें, बल्कि इसलिए
निष्णात हैं कि अनेक अर्थों में से एक भी अर्थ हाथ लगा तो उससे वे शेष अर्थों तक
पहुँच जाती हैं।
इसलिए किंचित भी
अचरज नहीं कि एक पाठक की हैसियत से कि ‘क्षुद्र के भीतर घिरते विराट को न देख सकने की अन्तर्दृष्टि‘ की बात वे ‘कहानी‘ के सन्दर्भ में
कह रही हैं या समग्रता में। ‘पालवा’ से ले कर ‘जंगल’ तक जो धैर्य लेखक के पास है उसकी अदेखी
आलोचना में क्यों कर हुई? लेखक का काम
लिखना है प्राध्यापक की भूमिका में आने का नहीं। जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है कि
इन कहानियों में जितना उजागर है उससे कहीं ज्यादा छिपा हुआ है जो उस पाठकीय श्रम
की माँग करता है। जो कहानी में ‘रसवाद’ की उम्मीद
रखकर नहीं पढ़ते हैं। पाठक का कान पकड़ कर उसे रचना का ध्येय बताने की अपेक्षा
पाठक पर भरोसा करना ज्यादा उचित है क्योंकि पाठक की समझ पर सन्देह करना यानी रचना
की निरर्थक जटिलता या नाकामी से उपजी सपाटगी का पक्षधर होना है। पाठकीय भरोसे की
पीठ से टिककर लेखक अपने भीतर के तमाम कथ्यात्मक हिडन विश्लेषण में झाँकने और परखने
का आमंत्रण भी देता है। रोहिणी अग्रवाल हमारे समय की सबसे महत्वपूर्ण और आलोचना की
निर्भिक समझ से भरी बेहद गम्भीर और गहन ज्ञान से भरी खतरनाक आलोचक हैं। जिनके पास
आलोचना के नए उपकरण हैं। वह तार्किक ज्ञान भी है जो सिर्फ अध्ययन से नहीं वरन्
आलोचना की नवीन जिज्ञासाओं से भरी होने के कारण उन विश्लेषणों से हासिल किया है
जेा श्रम इधर के समय में कम ही लोग कर पा रहे हैं।
रोहिणी जी कंटेंट
की अपेक्षा फार्म को तरजीह देने की बात करती हैं। वह इस कारण कि उनका मत है कि ‘‘वह फार्म जो रचयिता के रूप में लेखक की घटनाओं
और ब्यौरों के दलदल में लिथड़े पत्रकार से अलगाता है और एक दार्शनिक चिंतक के रूप
में उसकी भूमिका और महत्ता को सुनिश्चित करता है।” (वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग, पृष्ठ-59) इस बात से किसी
को भी इंकार नहीं होगा कि रोहिणी जी ने आलोचना की पृथक भाषा निर्मित की है। जो
शास्त्राभ्यासी आत्ममुग्ध जड़ता और महाविद्यालयीन कथित शोध के प्रश्रय में पलने
वाली परम्परागत रूढ़ आलोचना भाषा का प्रतिकार रचती है। साथ ही आलोचना-रचना का
तृप्ति सुख भी जुटाती है। रोहिणीजी का आलोचना संस्कार उस जटिलता में प्रकट होता है
जो सामान्य पाठक या विद्यार्थी को भयभीत कर सकता है लेकिन रचना की जटिलता को
तोड़ने के लिए एक दूसरी जटिलता में दाखिल हो कर ही यह सम्भव है। कई बार इससे उलट
भी हो जाता है कि रचना का अतिसरलीकरण को व्याख्यायित करने के लिए आलोचना को इसी
भाषा की अनिवार्यता सौंपनी पड़ती है।
इस पुस्तक का उल्लेखनीय
पक्ष यही है कि यह कहानी पर ही नहीं, वरन् उस पूरी सर्जनात्मक प्रक्रिया की भी पड़ताल करती है जो परोक्ष में रचना
का आधार स्थल है। यही कारण है कि रोहिणी जी इस निष्कर्ष पर आसानी से पहुँच जाती है
कि ‘‘सन्दर्भों से जुड़ते ही
क्रन्दन और हताशा अपने-आप जिजीविषा और संघर्ष का रूप ले लेते हैं। हर देश काल का
मनुष्य मूलतः एक ही है। वह कष्ट से मुक्ति चाहता है। मुक्तिकामी संघर्ष यदि मुक्ति
की ओर खुलता है तो भी भय क्या क्योंकि मृत्यु से अंतरंग सन्निकटता ही जिजीविषा को
गहराती है। यही जीवन का राग है - सृजनात्मकता से भरपूर।” (वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग, पृष्ठ-70)
रोहिणी जी के पास
फैंटेसी को लेकर कोई भ्रम नहीं है और न भ्रम फैलाने की आलोचकीय चतुराई। ‘‘यथार्थ के घुटन भरे माहौल से मुक्ति पाने का
मार्ग है कल्पना, अपनी अतृप्त
कामनाओं की पूर्ति का माध्यम। भौतिक जगत में वायुमण्डल के अधीन है कल्पना का व्योम
- उसके गुरुत्वाकर्षण से बँधा जहाँ परित्राण की इच्छा में जमीन से ऊपर उठने की
लालसा भरी दिलेरी तो है, लेकिन
गुरुत्वाकर्षण के नियम और दबाव से मुक्त होने की सामर्थ्य नहीं, लेकिन फैंटेसी सबसे पहले वायुमण्डल को चीर कर
किसी दूसरे ही ग्रह में जा निकलती है, जहाँ न नियम वर्जनाएँ हैं, न अब तक के
पढ़े-सुने तर्क और कार्य-कारण श्रंखला के
दबाव, न ही अपनी भौतिक इयत्ता
में अलग-अलग स्पेस और पहचान के लिए चराचर जगत है।” (फैंटेसी कपोल कल्पना नहीं,
सृजन का औदात्य है, पृष्ठ-72)
इस पूरी कवायद
में प्रश्न बार-बार उठता है कि क्या फैंटैसी कहानी-लेखन की सुविधा गली है? या फिर अंतरिक्ष में, पूरे ब्रह्माण्ड में घूमते-फिरते, यथार्थ और कल्पना का घालमेल करने की स्वतन्त्रत हासिल करने
की सुविधाजनक युक्ति।
मुझे इस बात का
सुखद अचरज है कि रोहिणी जी ने हिन्दी कहानी में फैंटेसी की न सिर्फ पक्षधरता रखी
बल्कि उसे प्रमाणित भी किया। मेरी तो खुद यह मान्यता है कि फैंटेसी दो धारी तलवार
पर चलने जैसा काम है क्योंकि रचना में यह एक या दो वाक्यों से रचना को सहारा देना
पर्याप्त नहीं है। पूरी रचना का भार आसानी से, धैर्यपूर्वक और उसकी अनिवार्य उपस्थिति को प्रमाणित करते
हुए चलती है तो वह रचना को एक संभाव्य-सफलता तक पहुँचाती है, बल्कि उसके अभीष्ट को सुपूर्द करके आती है। यही
कारण है कि यह प्रायः लेखकों-आलोचकों के इस भ्रम और जिद को तोड़ती है कि फैंटेसी
कहानी रचाव की सुविधा है। ‘‘यह पागलखाने की
पागल हरकतों का कोलाज नहीं” (फैंटेसी कपोल
कल्पना नहीं, सृजन का औदात्य
है, पृष्ठ-72) ‘‘गहराई में यह यथार्थ की अदृश्य कुटिलता का
भयावह विस्तार करती है ताकि आतंक और त्रास की सृष्टि करती व्यवस्था को कई-कई कोणों
से देख कर वह उसका और उसके साथ अपने अन्तःसम्बन्धों का रेशा-रेशा विश्लेषण कर सके।”
(फैंटेसी कपोल कल्पना नहीं,
सृजन का औदात्य है, पृष्ठ-72)
हिन्दी कथा
आलोचना में कम ही या लगभग ऊँगलियों पर गिने जा सकते वाले ऐसे आलोचक हैं जिन्होंने
फैंटेसी की पक्षधरता में इतनी दृढ़ता से अपना तार्किक बयान लिखित में दिया हो।
दरअस्ल यह पुस्तक
सिर्फ कथाकारों, उपन्यासकारों के
लिखे को विश्लेषित ही नहीं करती, बल्कि एक आलोचक
की सबसे बड़ी कठिनाई को आसान करती है। उसके सुरक्षित आलोचना दुर्ग से बाहर आती है
और विश्लेषण को आलोचकीय विचार में भी तब्दील करती है। क्या रक्तरंजित खेल खेलकर ही
संस्कृति जनमानस में अपनी जड़ें दूर तक जमा पाती हैं ? यह सवाल ही एक विचार की शक्ल में आया है। सभी को निरुत्तर
करने के भरोसे के साथ। फैंटेसी को प्रायः एक जटिल रूपक की तरह देखा जाता है। कहानी
को लेकर उसकी जटिलता जो जाहिर है फैंटेसी ने पैदा की है उसकी तह में जा कर अर्थ
टटोलने के श्रम की अपेक्षा उसे एक ‘जटिल और अर्थहीन‘
कहन में रिड्यूज किया जाता रहा है। क्या
कहानीकार का सारा श्रम एक अर्थहीन की रचना में व्यय किए जाने की नासमझ कोशिश है ?
फैंटेसी के रचाव की जटिलता में सार्थकता की तह
पर पाठक या आलोचक का हाथ (दृष्टि) नहीं टिक पाता है ? निश्चित रूप से जब एक कहानीकार एक लम्बे धैर्य और श्रम के
साथ फैंटेसी को कथारूप के लिए चयन करता है तो वह पृथक से कोई विचार उसमें समाहित
नहीं करता है। वह कहानी की आंतरिक संरचना की इसी बनावट की अनिवार्यता की माँग और
उसमें रचनात्मक संघर्ष की अभिव्यक्ति के माध्यम का चयन है।
इसी के चलते
रोहिणी जी ‘छिन्नमस्ता‘ के सन्दर्भ में ‘‘वक्त के भीतर मानीखेज हस्तक्षेप करने की ताकत रखती हैं,
इसलिए एक दूसरे के तालमेल में अपना उल्लू सीधा
करते विकास और संस्कृति के मूल मंतव्यों को जानना भी बेहद जरूरी हो जाता है।” के
संकेत हो स्पष्ट रूप से पकड़ लेती है। (सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और पत्थरों का खेत,
पृष्ठ-86)
रोहिणी अग्रवाल
की यह पुस्तक इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण है कि इसमें विविधता है। विविधता से मेरा
आशय विषय विविधता से नहीं है, बल्कि भिन्न मूड,
मिजाज और भाषा-शिल्प के रचनाकारों को उनकी
रचनाओं के सन्दर्भ में ही देख कर एक निर्भय पड़ताल की है। मेरे लिए यह बहुत सुखद
अनुभव है कि मैत्रेयी पुष्पा जो कहानी या उपन्यास भूमि पर उतरते ही एक गहरे उद्घोष
के साथ ‘स्त्री-स्वतन्त्रता‘
का झण्डा गाड़ती हैं। ऐसा नहीं कि यह बुरी बात
है लेकिन कुछ समय बाद लेखक अनचाहे भी यह गैरजरूरी उत्साह रचना के रचाव में दुहाराव
की स्थिति पैदा कर देता है।
अर्चना वर्मा
स्त्री-स्वतन्त्रता की बहुत सजग और स्पष्ट पक्षधर हैं, लेकिन वह अपनी पक्षधरता को कहानी में नारा या परचम नहीं
बनाती हैं। उनका कथा-कौशल उनकी निबन्ध-रचनाओं से बिल्कुल भिन्न है वर्ना प्रायः यह
होता है कि लेखक की कोई एक पक्षधरता इस हद तक रचना में हस्तक्षेप करती है कि वह
कहानी के मूलार्थ को खण्डित करके भिन्न आशय को भी जगह देती है और कहानी प्रायः
निबन्धात्मक हो जाती है। ऐसा घालमेल न हो, अर्चना वर्मा इन अर्थों में बेहद सजग लेखिका
हैं। अर्चना जी अपने निबन्धों की जटिल भाषा की आक्रमकता (जैसा कि उन पर आरोप लगता
रहता है) को कहानी में अपने पात्रों से पहले ही छीन कर अलग धर देती हैं या पात्रों
के पास न हो तो अपने पास रचना-सुविधा के लिए सौंपती नहीं हैं। वह कहानी में अपने
पात्रों को उनके सहज और वास्तविक माहौल और भाषा के साथ रचना का हिस्सा बनाती है और
अपने भीतर बैठे विचारक को चुप्पी का जामा पहना कर कहानी में दाखिल होती हैं जब
रोहिणी जी कहती हैं कि ‘‘अर्चना वर्मा की
कहानियाँ एक तल्लीन दायित्व-बोध के साथ स्त्री-विमर्श की सैद्धान्तिकी को भारतीय
सन्दर्भों में गढ़ती हैं तो दूसरी ओर उतनी ही दृढ़ आतुरता के साथ स्त्री-विमर्श के
संग जोड़ दी गई कुछ भ्रामक संरचनाओं को भी निरस्त करती हैं।” (अँधेरे तहखाने में छिपे आलोम वृत्त उर्फ सह
सर्जक पाठक संग संलाप, पृष्ठ-96)
इसी कारण अर्चना वर्मा की कहानियों में जो
थोड़ी बहुत जटिलता नजर आती है वह कहानीकार की जिद या ललक नहीं है, बल्कि एक जटिल समय की बहुअर्थी और अर्थगर्भित
परतों तक पहुँचने का श्रम है, जिसका रास्ता इसी
भाषा की जटिलता से जाता है। ऐसे में रोहिणीजी जो खुद भी जिद की हद तक स्त्री स्वतन्त्रता
की पक्षधर हैं जो कि कभी-कभी अपनी जिद और भाषा-सामथ्र्य के जरिए असंभाव्य को भी
प्रमाणित करने का प्रण ले लेती हैं।
नई पीढ़ी के
लेखकों में रोहिणीजी ने अल्पना मिश्र, कैलाश वानखेड़े, सत्यनारायण पटेल, कुणाल सिंह, रवि बुले,
चंदन पाण्डेय, तरुण भटनागर, प्रभात रंजन, मोहम्मद आरिफ,
वन्दना राग, मनीषा कुलश्रेष्ठ, शर्मिला वोहरा आदि की कहानियों की पड़ताल के साथ उनके लिए पीठ थपथपाने की
उदारता के बाद वह यह लिखना भी नहीं भूलती हैं कि ‘‘बेहद सजगता के साथ कहानी-दर-कहानी अपने पात्रों के साथ
असंलग्नता शायद इसीलिए पुष्ट करता जा रहा है कि - कथाशैली के रूप में कम, अपने बचाव की युक्ति के रूप में अधिक। जब आप
किसी के साथ इन्वाल्व ही नहीं तो आप ‘वह’ कैसे हो सकते हैं? आप लेखक हैं,
‘कैरीकेचर‘ बना कर युगीन विकृतियों पर ठठाकर हँसते हुए। शायद यह प्रश्न
लेखक को मथता भी हो कि ‘‘कहानी आगे है कि
यथार्थ?” लेकिन यथार्थ की असंलग्न शिनाख्त करने के बाद कहानी रचने की
आत्मपरक तरलता कमोबेश उसमें नहीं” (जगमगाहटों में छिपी अँधेरी दुनिया, पृष्ठ-167)
नई पीढ़ी के
कहानीकारों में जो सृजन से ज्यादा स्व के प्रकटन की आतुरता का उल्लेख हमेशा होता
आया है। ‘मैं‘ से कहानी को आगे न जाने देने की भूल अंततः
कहानी को और फिर लेखक को भुगतनी पड़ती है। रोहिणी जी इसीलिए कहती हैं कि ‘‘अखबार में छपी खबर पढ़ कर अचानक खबर बन गए किसी
परिचित की याद आती है उसे और सतह पर डालती घटनाओं के जरिए जिसे कहानी में लगता है,
वह जमाने भर की विकृतियों और विडम्बनाओं का
लुंजपुंज रूप जरूर होता है, लेकिन अपनी हस्ती
को बचाने और पाने के लिए अपनी ही हदों को तोड़ता-बनाता मनुष्य नहीं बन पाता।” (लेख-वही, पृष्ठ-163)
नई पीढ़ी के
अधिकांश लेखकों के साथ हुआ यह है कि जिस हार्दिक उतावली से उनका (रचनाओं) का स्वागत
हुआ, उसी उत्साह से बाद में
उनकी समर्थ रचनाएँ सामने नहीं आ पाईं। बाजार की गिरफ्त में उनकी इच्छाओं को निजी
लोकप्रियता की गैर जरूरी सर्जनात्मक लालसाओं ने लेखन के अतिरिक्त ‘चर्चा में बने रहने‘ की लोभी युक्तियों में फँसा दिया।
अलबत्ता एक बात
जरूर रही कि इसी पीढ़ी से या इसके आसपास की पीढ़ी से बहुत सजग, समर्थ और अध्ययन के रास्ते आलोचना-विवेक तक
पहुँचे उल्लेखनीय आलोचक सामने आए।
रोहिणी जी को
तमाम विश्लेषणों और प्रशंसा-उपाधियों के साथ यह भी स्मरण रहा कि ‘साहित्य आत्मान्वेषण (एक्सप्लोरेशन) की समुन्नत
यात्रा है, अनावरण (एक्सपोज) की
क्षणिक मरिचिका नहीं। (लेख-वही, पृष्ठ-162)
नई पीढ़ी के लिए यह एक महत्वपूर्ण संकेत-संदेश
है, लेकिन प्रायः कुछेक
लेखकों के साथ यह हो रहा है कि वे बाजार के खिलाफ लिखने की कोशिश में बाजार की
जगमगाहट में ‘दृष्टि‘ चुंधियाने लगती है और कहानी अंततः बाजार की
पक्षधर बन जाती है। फिर एक ऐसी किशोर चेतना नजर आती है जो अति उत्साह में रचना को
यथार्थ के एक्सप्लोरेशन की अपेक्षा एक्सपोज करने की भ्रामक संतुष्टि हासिल कर लेती
है।
रोहिणी जी के पास
आलोचना की एक सजग-सतर्क और तीक्ष्ण दृष्टि है तो लेखक की चूक को रेखांकित करने की
निर्मम-सी प्रतीत होने वाला विश्लेषण भी है। वे मूल्यांकन और विश्लेषण की महीन-सी
विभाजन रेखा पर चहल कदमी करती हैं और सुविधा अनुसार दोनों का लाभ उठाती हैं।
आलोच्य रचना के पक्ष-विपक्ष में ईमानदार इस्तेमाल को प्रमाणित भी करती है। यही
कारण है कि रोहिणी जी की भाषा फतवा देने की अपेक्षा चुनौती और चेतावनी देती प्रतीत
होती है। इसीलिए उनके आलोचना-समीकरण अधिक दूर तक जा कर एक सार्थक आलोचना-भूमि की
तलाश में सफल होते हैं जो समीक्षा को न्याय के पक्ष में सर्वमान्य प्रमाणित करती
हैं। वे बहुत निर्भय होकर यह भी स्पष्ट करती हैं कि इस बाजार-समय के दमन और शोषण
की निर्भिक वाचाल सक्रियता के खिलाफ किसी भी लेखक को खासकर नई पीढ़ी के पास एक
स्पष्ट चेतना होनी चाहिए जो आगे जाकर एक निर्भीक प्रतिरोध रचने में सहायक हो तथा
बाजार का हिस्सा हो चुके लेखकों की अश्लील स्वीकृति और सहमति के साथ शामिल-उत्सव
की एक चुनौतीपूर्ण प्रतिपक्ष रचे।
सबसे उल्लेखनीय
इस पुस्तक में मुझे यही बात लगी कि प्रत्येक आलोचना-लेख में एक भिन्न भाषा और
पड़ताल की तरीका है। जरूरी होने के बावजूद दुहराव नहीं हैं। वे उस दुहराव की
अनिवार्यता के लिए एक भिन्न भाषा में नए मुहावरे के साथ रचना में दाखिल होती हैं।
यह एक कठिन कार्य है। जो इस जटिलता को सुलझा लेता है अपनी आलोचना-रचना में पारंगत
हो जाता है। महज इसीलिए नहीं कि वह भिन्न रचना के लिए भाषा का भिन्न मुहावरा गढ़ा
है, बल्कि साथ ही उस भाषा के
भिन्न मुहावरे से परम्परागत प्राध्यापकीय आलोचना से खुद को पृथक भी किया और आलोचना
भाषा को समृद्ध भी किया है।
रोहिणी अग्रवाल
की यह पुस्तक आलोचना दुर्गम बीहड़ और उजाड़ में पूरे हासिल की उम्मीद के साथ उतरती
है और सर्जनात्मक सार्थकता की खोज के साथ लौटती है। इस पुस्तक में इतिहास-बोध की
गम्भीर उपस्थिति और फतवे जारी करने की गैर जरूरी उत्तेजक वाचालता नहीं है। यह
पुस्तक एक तरह से आलोचना का भी प्रतिपक्ष रचती है, क्योंकि इसमें परम्परागत आलोचना उपकरणों की अरूचि स्पष्ट
दिखाई देती है। इतिहास बोध से जिस आलोचना दृष्टि को विकसित किया है, वह हिन्दी कहानी के विकास के जाने पहचाने
रास्ते के अलावा नए रास्तों के खोज की आतुर उम्मीद भी पैदा करती हैं। इसी कारण
विरासत से मिली आलोचना दृष्टि को विकसित करने और एक नए आलोचना-व्याकरण के साथ आज
की सर्जनात्मकता को देखती-परखती ही नहीं हैं, बल्कि कहानीकारों द्वारा नए शिल्प और भाषा के नाम अलक्षित
रखे जा रहे सृजनात्मक प्रमाद को बहुत सहजता से चुनकर अलग कर देती हैं। इसी के
सहारे वे नई सर्जनात्मकता की कमियों को उजागर करके उन्हें भविष्य के लिए सचेत भी
करती हैं और सप्रयास आ रही लेखकीय चालाकी को पकड़ कर रचना की चालाकी के कपड़े ही
नहीं उतारती, बल्कि उसकी देह
से उसकी भरमाने वाले चतुराई की त्वचा तक को खींच कर पृथक कर देती हैं। ऐसी
निपूर्णता और साहस आज की पीठ थपथपाने वाली आलोचना क्षेत्र में एक बड़ी उम्मीद है।
इस पुस्तक में
आलोचना रूचि और चयन की भिन्नता है, लेकिन आलोचना की
आस्था असंदिग्ध है।
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समीक्ष्य पुस्तक -
हिन्दी कहानी : वक्त की शिनाख्त
और सृजन का राग - (लेखक) रोहिणी अग्रवाल
प्रकाशक -
वाणी प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य - 395/-
सम्पर्क -
भालचन्द्र जोशी
‘एनी‘ 13, एच.आई.जी., ओल्ड हाउसिंग
बोर्ड कालोनी
जेतापुर, खरगोन 451001 (म.प्र.)
मोबाइल नम्बर - 08989432087
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