संदीप मील के कहानी संग्रह ‘दूजी मीरा’ पर अजीत प्रियदर्शी की समीक्षा


संदीप मील


आज के समय में कहानी लेखन के क्षेत्र में काम कर रहे कहानीकारों में युवा कहानीकार संदीप मील एक उम्मीद भरा नाम है। उनकी कहानियों में किस्सागोई के साथ-साथ जीवन की महीन बुनावटों को उद्घाटित करने का सफल प्रयास मिलता है। ये ऐसी बुनावटें हैं जो निरंतर हमारे इर्द-गिर्द चलती रहती हैं, और हम उन्हें भांप नहीं पाते। संदीप कल्पना की उड़ान भरते हुए भी अपने अनुभवों की जमीन पर निरंतर पाँव जमाये रहते हैं। इससे उनकी कहानियों का वितान बड़ा दिखाई पड़ता है। संदीप मील का हाल ही में एक कहानी संग्रह दूजी मीरा ज्योति-पर्व प्रकाशन, गाज़ियाबाद से प्रकशित हुआ है। इस संग्रह की एक समीक्षा लिखी है युवा आलोचक अजीत प्रियदर्शी ने। आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा ‘अन्तर्विरोधों को उद्घाटित करती क़िस्सागोई’।  

अन्तर्विरोधों को उद्घाटित करती क़िस्सागोई

अजीत प्रियदर्शी 

पिछले चार-पांच वर्षों में राजस्थान की युवा कथाकार पीढ़ी में जिन कथाकारों ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया है, उनमें संदीप मील प्रमुख हैं। उनकी पच्चीस कहानियों का संग्रह- दूजी मीरा’- ज्योति-पर्व प्रकाशन, गाज़ियाबाद से आया है। इस संग्रह की एक-मात्र लम्बी कहानी शीर्षक कहानी दूजी मीराहै, शेष कहानियाँ छोटी आकार की हैं। संग्रह में तीन लघु कथाएँ हैं। संदीप मील की ये कहानियां जीवन-पथार्थ के साथ आत्मीय रिश्ता कायम करते हुए कहानी कहने की पुरानी शैली-किस्सागोई शैली का बेहतरीन उदाहरण पेश करती हैं। शिल्प की कलाबाजियां और भाषाई कीमियागिरी से बचते हुए कहानी की पठनीयता को बचाये रखने का हुनर इन कहानियों की खासियत है।
  
संदीप मील अपनी कहानियों में अपनी ज़मीन और आम-जन की बात करते हैं। आमजन के संघर्ष और जीवट की बात करते हुए उसे व्यापक जन समुदाय से जोड़ कर वे अपनी कहानियों का खूबसूरत ताना-बाना बुनते हैं। वे गायब होती जा रही क़िस्सागोईके अंदाज़ में अपनी राजस्थानी बोली से भरी-पूरी कहानी रचते हैं। कथा-तत्त्व की मजबूत रीढ़ उनकी कहानियों की जान होती है और लोक जीवन के जीवन्त संवादों से कहानियों में अलग तरह की चमक आ जाती है। इस संग्रह की पहली कहानी खोटमें कथाकार अपने अज़ीज़ दोस्त मुनीन्द्र की शादी के प्रसंग को दिलचस्प किस्सागोई के अंदाज़ में पेश करता है और गाँव के लोगों द्वारा अनजानी लड़की में तरह-तरह से खोटनिकालने की घटिया प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य करता है। कथाकार या नैरेटर स्वयं कहानी का एक महत्वपूर्ण पात्र है। इस कारण वह कहानी के पात्रों तथा उस लड़की में खोट निकालने के लिए कही जाने वाली उनकी हास्यास्पद बातों का बड़ा ही दिलचस्प और विश्वसनीय वर्णन करता है। वह दूसरों पर असरदार व्यंग्य कर पाता है क्योंकि अपनी भी खिल्ली उड़ाने से परहेज नहीं करता।

संदीप मील की कहानियों में राजस्थान का भौगोलिक, सामाजिक परिवेश, बोली-बानी के साथ ही वहाँ के समुदाय की विसंगतियां व अन्तविरोध भी मौजूद हैं। बाकी मसलेकहानी में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच की सियासी रंजिशों के चलते बार्डर पर मौजूद सैनिकों व आम लोगों की ज़िन्दगी में गहराते ज़ख्मों की तरफ मार्मिक इशारा किया गया है। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की ज़मीं को बाँटने वाली सरहद पर मौजूद नरम दिल सैनिकों-रणजीत सिंह और आफ़ाक-के बीच वॉच-टावरों की लोहे की दीवारों पर चॉक से पहले गालियों, फिर सूचनात्मक संवादों और अन्ततः आत्मीय वार्तालाप के द्वारा कहानी अपने मार्मिक अन्त की तरफ बढ़ती है। अन्त में कहानीकार यह मार्मिक मानवीय संदेश देता है कि बंदूक की नोक पर सरहदों के मसले हल नहीं होते।इस कहानी में सरहद पर तैनात सैनिकों के ऊपर मौजूद मनोवैज्ञानिक दबावों तथा देश-काल-वातावरण का सजीव चित्रण हुआ है।

संदीप मील की ये कहानियाँ लोक जीवन के व्यापक भाव-क्षेत्र से नाभिनालबद्ध हैं। उनकी कहानियों में राजस्थान के लोक जीवन व जन-समुदाय के अन्तर्विरोध, जातिवादी सामाजिक बनावट, सामंती तथा पुरूषवादी मानसिकता आदि रूपों में मौजूद आज के सामाजिक यथार्थ से हम रूबरू होते हैं। इस संग्रह की शीर्षक कहानी दूजी मीराराजस्थान के सामंती, जातिवादी, पुरूषवादी जकड़बंदी में कैद स्त्री को आजादी की राह दिखाती है। यह कहानी राजस्थान में जाति और जेंडर के आपसी तालमेल को समझने के लिए एक आवश्यक और दिलचस्प पाठ है। इस कहानी में हमें राजस्थान के सामंती, जातिवादी, पुरूषवादी समाज के समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र का व्यवहारिक पाठ मिलता है। कहानी में कथाकार ने समाज में उठने वाली ध्वनियों, जातिवादी पूर्वग्रहों व पुरूषवादी मानसिकता को गहराई से उकेरा है। कथाकार ने मीरा को आधुनिक, तर्कशील और स्वाधीन स्त्री के रूप में चित्रित किया है। वह विद्रोहिणी है और पुरूषवादी तथा जातिवादी सामाजिक बंधनों के खिलाफ़ है। कहानी में इस मीरा के साथ उस मीरा का संदर्भ भी आता है, जिसने आध्यात्मिक आवरण में राणा और सामंती घुटन से आज़ादी के लिए संघर्ष किया था। कहानी में यह कड़वा सच भी सामने आता है कि कुल-कलंक मानने के कारण अब भी राजस्थान के राजपूत जातियों में लड़कियों का नाम मीरानहीं रखा जाता। एक जैसी सामंती मानसिकता में जी रहे राजपूतों व जाटों के बीच वर्चस्व के लिए संघर्ष को भी यहाँ देखा जा सकता है। मीरा की आज़ाद ज़िन्दगी के साथ कहानी का अंत स्त्री-स्वाधीनता के इस लोक स्वर के साथ होता है:

‘‘साँझी सजना प्रीत है।/तू ना थाणेदार।।’’
 
संदीप मील की कहानियों में जिज्ञासा व कुतूहल की आदिम वृत्तियों का सृजनात्मक उपयोग होता है। किश्तों की मौतकहानी में राजस्थान के एक गांव में विधवा स्त्री रूकमाके बेटों द्वारा उसके जीते-जी उसकी मूर्ति बनवाकर उसके सामने रख देने और पति की मौत की तारीख को ही उसके मौत की तारीख लिख कर खेत में उसके नाम का खाली चबूतरा छोड़ देने की जानकारी होने पर कथाकार को उसकी जिन्दगी में दिलचस्पी पैदा होती है। निरन्तर जिज्ञासा और कुतूहल जगाती यह कहानी एक विधवा स्त्री के रोज़ किश्तों में मरती जिन्दगी की कहानी का मार्मिक बयान है। यह कहानी वृद्धावस्था में बिल्कुल उपेक्षित विधवाओं की जिन्दगी का भयावह सच सामने लाती है। यहाँ कहानीकार ने बिल्कुल कम शब्दों में रूकमा के आन्तरिक चित्कार और मानसिक हलचलों को उकेरने में सफलता पायी है। नया धंधाकहानी में नेताओं द्वारा रोबोटो को संबोधित करना आज की विडम्बनापूर्ण स्थिति पर करारा व्यंग्य है। राजस्थान के मारबाड़ी बनिया के अहंग्रस्त इस कथन द्वारा कथाकार आज चुनावों में धन के बढ़ते प्रभाव पर करारा व्यंग्य करता है: ‘‘एक पार्टी बना कर इस रोबॉटों को चुनाव लड़वाऊंगा। पैसों की कमी नहीं है और बनिया आदमी हूँ, सरकार बना लूँगा। रोबॉट संसद में रहेंगे और रिमोट मेरी जेब में।’’ 

लोक-जीवन के जीवन्त, चुस्त और तीखे प्रश्नोत्तर शैली के संवाद उनकी कहानियों को दिलचस्प बना देते हैं। एक प्रजाति हुआ करती थी-जाटकहानी दिलचस्प, तीखे प्रश्नोत्तर शैली के संवादों के रूप में है। यहाँ जाटों और उनकी खाप पंचायतों के तुगलकी फरमानों की जम कर खिल्ली उड़ाई गई है। प्रेम, प्रेम-विवाह और अन्तर्जातीय विवाह पर प्रतिबंध लगाने पर अमादा उन खाप पंचायतों की सबसे बड़ी चिन्ता है कि ‘‘कुछ भी करो, हमारी जात पवित्र रहनी चाहिए।’’ बड़े नाटकीय और तीखे संवादों के जरिए इस कहानी में जाट बिरादरी के अन्तर्विरोधों व आन्तरिक संकटों की पहचान की गई है। यह कहानी पूर्णतः नाटकीय संवादों में रची गई है। मुरारी कहूँ कि शकीलकहानी में कथाकार ने पूँजीपतियों, नव सामंतों, सवर्ण हिन्दुओं के हाथ में कैद मीडिया की पोल खोली है। अखबार से सच्ची खबर को गायब कर देने के लिए धक्के मार कर निकाले गए और अब विक्षिप्त हो चुके पत्रकार के मार्फ़त कहानीकार ने अखबार को पूँजीपतियों का दलाल साबित किया है, जो सच है। दलाल मीडिया की पोलपट्टी खोलती यह कहानी आम लोगों की तकलीफों को मार्मिक ढंग से उकेरती है।

संदीप मील की कहानियों में आज का जटिल यथार्थ मौजूद रहता है। किन्तु उसे व्यक्त करने के लिए कथाकार ने जो कथा रूप या शिल्प अपनाया है, वह अपेक्षाकृत सहज, सरल है। जुस्तजूकहानी भारत में फैलते नव साम्राज्यवाद, भाषाई साम्राज्यवाद, बाजार-केन्द्रित समाज को तथा उर्दू भाषा को मज़हबी रंग देने वाली साम्प्रदायिक मनोवृत्ति को बड़े मार्मिक व दिलचस्प ढंग से सामने लाती है। अंग्रेजी-परस्त भूमण्डलीकरण के दौर में ग्राहक द्वारा उर्दू शब्दकोश माँगने पर दुकानदार का यह जवाब कि ‘पचास साल बाद हिन्दी शब्द कोश भी नहीं मिलेगा’ -देशी भाषाओं के क्रमशः मरते जाने के भयावह सच की तरफ मार्मिक इशारा है। अंत में कहानी का केन्द्रीय पात्र हिम्मत, जो हिन्दू है, उर्दू शब्दकोश और उर्दू बोलचाल के कारण हिन्दू दंगाइयों के हाथों मारा जाता है। यह वृतान्त एक हिन्दुस्तानी ज़बान (उर्दू) को क्रमशः मज़हबी करार दिए जाने की साज़िश की तरफ इशारा करती है। यह अत्यन्त दुखद स्थिति है। सार्थक उर्फ संतूकहानी जातिवादी, वर्णाश्रमी सोच रखने वाले प्राथमिक शिक्षकों को बेनकाब करती है। वर्णाश्रमी सोच वाला एक पण्डित शिक्षक होने के बावजूद अपनी मानसिकता नहीं बदल पाता और भेदकारी मानसिकता से सार्थक रजक का नाम बदल कर संतुकर देता है। थूकहानी सवर्णों की सामंती मानसिकता के विरूद्ध एक दलित स्त्री के स्वाभिमानपूर्ण प्रतिकार की कहानी है। पण्डित नानकचंद की घूरती निगाहों से निडर दलित स्त्री द्वारा उसकी आँखों में सूजे भोंक देना वस्तुतः उस सामंती मानसिकता का प्रतिकार है जो यह सोचती है कि दलित स्त्री की इज्जत के साथ बेफिक्र हो कर खेला जा सकता है। 

सामाजिक यथार्थ, तंत्र या व्यवस्था और सामंती मानसिकता की विसंगति, विडम्बना और अन्तर्विरोधों को उघाड़ने के लिए कथाकार ने व्यंग्य का भरपूर इस्तेमाल किया है। लेकिन व्यंग्य प्रायः तकलीफ़देह विसंगतियों से ही उपजता दिखाई देता है और अन्ततः करूणा उपजाता है। सिस्टमकहानी में शहर के कॉलेज में पढ़ने वाला पोता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रह चुके अपने दादा से सिस्टम के ख़राब होने की बात करता है और दादा ठण्डे दिमाग से अपने पोते की बात सुनता रहता है। लेकिन पोते की बेमेल शादी से व्यथित हो कर वह अपने ही बेटे के खिलाफ थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने पहुँच जाता है। कहानीकार दिलचस्प ढंग से यह संदेश देने में सफल होता है कि सिस्टम तभी सफल हो सकता है जब हम अपने नुकसान की फिक्र न करें। नुक्ताकहानी में जातिवाद, ब्राह्मणवाद के साथ-साथ आज के राजनेताओं के चारित्रिक व नैतिक पतन को दिलचस्प ढंग से उठाया गया है। एक का तीनकहानी में धर्म के धंधेबाजों और आम जनता के अन्दर छिपे लालच पर करारा व्यंग्य किया गया है। कथाकार दिलचस्प ढंग से इस सच्चाई को दिखाता है कि धर्म के नाम पर पैसे ऐठने वालो का धंधा वस्तुतः आम आदमी के अन्दर छिपे लालच के कारण ही फल-फूल रहा है। क़िस्सागोई के शिल्प में इस कहानी में यह उजागर होता है कि एक का तीनके चक्कर में गाँव वाले अपना सब कुछ गवां देते हैं।

इस संग्रह में तीन-चार कमजोर और अधबनी कहानियाँ भी हैं। लेकिन इन कहानियों में भी कथाकार की संवेदनशीलता, सरोकार और दिलचस्प कल्पनाशीलता का पता चलता है। उनकी कहानियों में बारीक पर्यवेक्षण और विश्वसनीय ब्यौरों से युक्त दिलचस्प और सहज वृतान्त अन्ततः विडम्बना की चमक के साथ प्रायः अपना कथा-मर्म उपस्थित करता है। कई कहानियों में सरपट भागती घटनात्मकता के कारण मार्मिक क्षण में भी कथाकार खास दिलचस्पी लेता नहीं दिखता। तब वह वृत्तान्त कथा-मर्म को उद्घाटित करने से चूक जाता है। कथाकार अक्सर आकस्मिक या नाटकीय अंत को कथायुक्ति के तौर पर इस्तेमाल करता है और पाठक के ऊपर स्पष्ट छाप छोड़ पाता है। संदीप मील की कहानियों में बहुत से नए-पुराने, खूबसूरत कथा-तत्त्व मौजूद हैं जो उसकी कहानियों को जीवन्तता प्रदान करते हैं। मुझें उम्मीद है कि इस कथाकार की लेखनी से कहानी की खूबसूरती और मार्मिकता भविष्य में और भी फलित होगी।





सम्पर्क - 

असिस्टेण्ट प्रोफ़ेसर
हिन्दी विभाग,
डी. ए. वी. पी. जी कालेज,
लखनऊ
मोबाईल - 8687916800

टिप्पणियाँ

  1. अजीत भाई साहब ने दूजी मीरा की उस वैचारिकता को जो कथ्य कहन भंगिमा में छिपा था उदघाटित करके रख दिया है...बेहतरीन कथाकार की बेहतरीन समीक्षा

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'