चैतन्य नागर का आलेख '...बुरा न मिलिया कोय'
चैतन्य नागर |
पिछले दिनों सहिष्णुता-असहिष्णुता के सवाल पर काफी बातें-बहसें होतीं रहीं। इस मुद्दे पर सबका अपना-अपना पक्ष था। युवा विचारक चैतन्य नागर ने इस सहिष्णुता-असहिष्णुता के मुद्दे पर एक गंभीर एवं चिंतनपरक आलेख लिखा है। इसके माध्यम से उन्होंने इसे एक नए दृष्टिकोण से सोचने का प्रयास किया है। तो आइए पढ़ते हैं चैतन्य नागर का यह आलेख 'बुरा न मिलिया कोय'
...बुरा न मिलिया कोय
चैतन्य नागर
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का यह वक्तव्य कि
गन्दगी हमारी सड़कों और गलियों में नहीं हमारे दिलो-दिमाग में है, वास्तव
में असहिष्णुता और हिंसा के मनोवैज्ञानिक धरातल को खंगालने का प्रयास है। किसी समस्या के वाह्य कारणों को ढूँढने
में हताश हुए मन की यह एक स्वाभाविक गति है कि वह अंतर्मुखी होता है और समस्या की
आन्तरिकता की पड़ताल करने का प्रयास करता है। राष्ट्रपति के कथन और इस तरह की सोच
की जड़ें प्राच्य संस्कृति में बहुत गहराई तक जमी हुई हैं। जापान में विकसित हुए
ज़ेन बौद्ध धर्म में एक वृद्ध भिक्खु अपने अनुभव सुनाते हुए कहता है कि युवावस्था
में जब वह बड़ा उत्साही था, तब उसने दुनिया को बदलने की सोची थी, पर
जैसे-जैसे समय बीतता गया, वह अपने देश, राज्य, शहर, मोहल्ले और आखिर
में इर्द गिर्द के माहौल को ही बदलने की फ़िक्र करने लगा। जब उसे यह महसूस हुआ कि
वह दुनिया में कुछ बदल ही नहीं सकता तब उसने खुद को बदलने की सोची और कहा कि यदि
यही समझ मुझे युवावस्था में आ जाती तो मेरे भीतर होने वाले बदलाव के कारण मेरे
मोहल्ले, शहर, राज्य, देश और दुनिया में बदलाव आसान हो जाता। राष्ट्रपति ने महात्मा गांधी के
दर्शन की प्रासंगिकता पर भी जोर दिया जो अक्सर कहा करते थे कि जैसा परिवर्तन आप
समाज में देखना चाहते हैं, उसका उदाहरण आप स्वयं में बनें।
ब्रिटेन के फेबियन समाजवाद के प्रमुख सदस्य और नोबेल विजेता नाटककार बर्नर्ड शॉ ने
भी अपने लम्बे अनुभव के बाद यही कहा था कि अच्छे कानून लोगों को अच्छा नहीं बनाते,
बल्कि अच्छे लोग ही अच्छे कानून ला सकते हैं। भारत में समाजवादी
आन्दोलन के पुरोधा अच्युत पटवर्धन तो 1950 में ही सामूहिक आन्दोलन के जरिये
सामाजिक बदलाव की धारणा से ऐसे विमुख और उदासीन हुए कि उन्होंने इस विषय में लोगों
के पत्रों का जवाब देना भी बंद कर दिया, दार्शनिक जे.
कृष्णमूर्ति के सानिध्य में उनके फाउंडेशन के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया
और लगातार प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर मन मस्तिष्क में मूलभूत परिवर्तन की
आवश्यकता पर जोर देते रहे।
असहिष्णुता और हिंसा के विशाल वृक्ष को देख कर अचंभित होने और हाय-हाय करने से बेहतर है इनके बीजों की प्रकृति को समझा जाए। इसके लिए अपने अंतरतम में, आपसी रिश्तों में व्यक्त होती असहिष्णुता और हिंसा की अभिव्यक्तियों पर गौर करना चाहिए। सूक्ष्म और स्थूल दोनों तरह की अभिव्यक्तियों पर। हिंसा और असहिष्णुता की सार्वजानिक अभिव्यक्ति तो बहुत बाद में होती है; इससे बहुत पहले वे मन की कई तहों में अपनी जगह बना चुकी होती हैं। हो सके तो अपने रोज़मर्रा के जीवन में हमे इनकी विषाक्तता को व्यक्त होते देखना चाहिए। देखना चाहिए कि जब हमारे परिवार में, या मित्र-परिचितों के बीच कोई ऐसी बात कहता है, या ऐसा कुछ करता है जो हमारे मतों के बिलकुल विपरीत होता है, तो हमारी क्या प्रतिक्रिया होती है? जब ज्यादा ‘मजबूत’ कोई व्यक्ति हमसे असहमत होता है, तब हम क्या करते हैं? क्या हम क्रोध करते हैं, असहमति को दबाने को कोशिश करते हैं, बौखला जाते हैं, और यदि वह बहुत ही ‘कमज़ोर’ है, मेरा कर्मचारी है, बच्चा है, छात्र है या जीवन-साथी, जिस पर हम आदतन हावी रहते आये हैं, तो हम उनकी बातें सुनने से भी इनकार नहीं कर देते? असहिष्णुता के बीज इन करीबी और दूर के संबंधों में ही दिखते हैं। समाज आखिर आपके और मेरे बीच के संबंधों का संजाल ही तो है। मैं खुद का सात अरब लोगों के साथ गुणा कर दूँ, तो यही दुनिया तो बनेगी हमारी। धरती पर सात अरब ‘मैं’ हैं। जो फर्क हैं, वे अलग अलग सांस्कृतिक-सामाजिक प्रभावों की वजह से हैं। अपने मतों के साथ तादात्म्य, ‘सत्य-सिर्फ-मेरे-ही-पास-है’, यह भाव इतना कैसे मजबूत हो गया है? इस दुर्भाग्यपूर्ण आदत पर प्रश्न उठाने चाहिए। मतों और विचारधारा के नाम पर होने वाली हिंसा सूक्ष्म भी है, और कई गुना ज्यादा नृशंस भी। यह सवाल पूछना जरुरी है कि हमे मत ज्यादा प्रिय है, चाहे वह कितना ‘उदार’ और ‘सर्वसमावेशी’, क्यों न हो? क्या वह उस इंसानियत से भी ज्यादा कीमती है जिसकी रक्षा के नाम पर हम उसे अपनाते हैं?
सहिष्णुता में एक तरह का अहंकार का भाव है। इसमें यह निहित है कि मैं जो हूँ वह
बना रहूँगा, हिन्दू, मुस्लिम, ब्राह्मण
वगैरह, पर मैं इतना ‘उदार’
हूँ कि मैं तुम्हे दूसरों को बर्दाश्त कर लूँगा। सहिष्णुता का
प्रश्न अपने पूर्वग्रहों के साथ हमारे लगाव के साथ भी जुड़ा हुआ है। इसका यह भी
अर्थ है कि मुझे आपकी त्वचा का रंग, आपके धार्मिक, सामाजिक रीति रिवाज़ और आपके व्यक्तिगत तौर तरीके पसंद तो नहीं, पर चूंकि आपके साथ रहना मेरी मजबूरी है इसलिए मैं आपको बर्दाश्त करूँगा।
अक्सर मैं स्वयं के पूर्वाग्रहों पर विचार नहीं करता।
यह भी बहुत जरुरी है कि जो लोग आज असहिष्णुता के खिलाफ आवाज़
उठा रहे हैं वे साथ ही साथ सहिष्णुता, उदारता और सर्वसमावेशिता की वैकल्पिक
संस्कृति का आधार भी ढूंढें। बात सिर्फ सहिष्णुता की नहीं, समानता और सम्मान की भी होनी चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि राष्ट्रपति का
वक्तव्य हमारी वास्तविक सामाजिक दुनिया ही नहीं बल्कि हमारी आभासी दुनिया के
चरित्र को भी दिखाता है, जहाँ बाहर से साफ़ सुथरी, चमकती हुई एक वॉल दिखती है और इनबॉक्स कई तरह का मैल दिखाई पड़ता है।
सहिष्णुता और असहिष्णुता पर बात करते समय हमे प्राथमिक
शिक्षा पर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए। विशेष तौर पर इतिहास जैसे विषय पढ़ाते समय एक
ख़ास किस्म की जागरूकता की जरुरत है। साथ ही धार्मिक समुदायों द्वारा चलाये जाने
वाले स्कूलों में नैतिक शिक्षा की पुस्तकों में क्या पढाया जाता है, उस पर विशेष ध्यान
दिया जाना चाहिए। यदि सरकार ईमानदार है तो उसे प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर गंभीर
काम करना चाहिए। पूर्वग्रह वहीँ से निर्मित होते हैं और आगे चलकर असहिष्णुता का
बवंडर खड़ा कर देते हैं। इसके लिए शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए भी विशेष तरह के
कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए। व्यक्तिगत परिवर्तन के जरिये सामजिक परिवर्तन का
रास्ता लोगों को धीमा और तुरंत परिणाम न देने वाला लग सकता है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि संगठनात्मक, संस्थानगत और
सामूहिक एक्शन के जरिये परिवर्तन की बात ही नहीं होनी चाहिए। अभी तो वाह्य
परिवर्तन की सीमित प्रकृति को समझने की और परिवर्तन के आतंरिक आयामों के प्रति
आँखें खुली रखने की आवश्यकता है।
सम्पर्क -
ई-मेल : chaitanyanagar@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)
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