स्वाती ठाकुर का आलेख 'मैडम क्यूरी'
मैडम क्यूरी |
मैडम क्यूरी
स्वाती ठाकुर
मानव इतिहास के किसी भी
समाज में स्त्री के सामाजिक स्तर को देखने पर यह साफ़ जाहिर होता है कि उसका स्थान
सदा ही पुरुषों से दोयम रहा है। किसी भी दौर
में अपनी प्राकृतिक और सामाजिक भूमिका को निभाते हुए भी उसे वह सम्मान नहीं मिला
जिसकी वह हक़दार थी। किन्तु विपरीत
स्थितियों में जीते हुए भी इतिहास में कुछ स्त्रियों ने विरले कार्य किये जिससे आज
की स्त्री की तस्वीर मुकम्मल होती है। उदारवादी समाजों में स्त्री की बदलती और
लगातार विकसित होती गई नई तस्वीर को बनाने में कई स्त्रियों का प्रभावशाली योगदान
है जिन्होंने उस सोच को गलत साबित किया जिससे न केवल पुरुष बंधा हुआ था बल्कि अपनी
ही कैद में अकेला भी था। पुरुष के समान राष्ट्र का नागरिक बनने के इतिहास में ही
कितनी ही स्त्रियों का योगदान तो हम जानते ही हैं किन्तु उसके आगे का सफ़र जहाँ
स्त्री ने पहले-पहल पुरुषों के माने जाने वाले भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में न केवल
कदम रखा बल्कि उसे विकास और उपलब्धि के नए मायने भी दिए। ऐसे क्षेत्रों को एक
स्त्री के योगदान के नज़रिए से पढने की आवशयकता अनुभव की जा रही है। ऐसा ही एक
क्षेत्र विज्ञान जगत है जिसे लगभग एक शताब्दी पूर्व तक भी केवल पुरुषों का क्षेत्र
माना जाता था। इस क्षेत्र के लिए स्त्री को प्राकृतिक और बौद्धिक रूप से अक्षम
माना जाता था किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में एक मध्यवर्गीय स्त्री ने पूरी
दुनिया को ही अपने कार्यों से सोचने पर मजबूर कर दिया कि चिंतन और वैज्ञानिकता पुरुष
या स्त्री के खेमों में विभाजित नहीं है।
इसका परिणाम यह हुआ कि जब
भी कभी विज्ञान और स्त्री,
ये दो शब्द जेहन
में एक साथ आते हैं तो मैडम क्यूरी का नाम बरबस ही याद आ जाता है। मैडम क्यूरी न
केवल विज्ञान में अपने योगदान की परिवर्तनगामी भूमिका के लिए बल्कि विज्ञान के
सामाजिक सेवा के रूप को विकसित करने के लिए भी सदा याद की जाती रहीं हैं। यह उस स्त्री का
नाम है, जिसे पहला नोबेल
पुरस्कार प्राप्त हुआ, और जिसने विज्ञान
को पुरुषों का क्षेत्र मानने की मानसिकता को न सिर्फ चुनौती दी, वरन अपनी ज़िंदगी
से उसे गलत भी साबित कर दिया। क्यूरी को मिला
नोबेल पुरस्कार ‘आधी दुनिया’, जिसे घर चलाने की
सीख दी जाती थी, और उसी में
मददगार पढाई कराने का चलन था, को मिला पहला नोबेल पुरस्कार था। हालांकि यह पहला
नोबेल पुरस्कार उन्हें दो पुरूषों पति पियरे क्यूरी और हेनरी बैकरल के साथ संयुक्त
रूप से दिया गया। यह नोबेल उन्हें भौतिकी के क्षेत्र में प्राप्त हुआ था। लेकिन मैडम
क्यूरी ने आगे चलकर एक स्वतंत्र नोबेल पुरस्कार रसायन के क्षेत्र में पाकर पूरी
दुनिया की स्त्रियों को विज्ञान की ओर मोड़ दिया।
छोटे क़दमों के
बड़े निशान...
मारिया सेलोमिया स्क्लोदोवासका, जो कि मैडम
क्यूरी का पूरा नाम था (‘मैडम क्यूरी’ वे पियरे क्यूरी
से विवाह के बाद बनीं), का जन्म 7 नवम्बर 1867 को पोलैंड के
वर्साय में हुआ था। मध्य यूरोप में स्थित देश पोलैंड में नाम के
प्रति एक विशेष प्रचलन है। वहाँ व्यक्ति का एक अतिरिक्त नाम रखने की प्रथा है। इसलिए
यहाँ मारिया सोलोमिया स्कलोदोवस्का का एक नाम ‘मान्या’ भी रखा गया। यह वह दौर था, जब वर्साय रूसी साम्राज्य के अधीन हुआ करता था। मारिया का पूरा परिवार इस अधीनता से बाहर आ कर
पोलैंड के एक स्वतंत्र राष्ट्र बनने का ख्वाहिशमंद था। मारिया के परिवार में शिक्षा की परम्परा रही थी, उनके माता-पिता
दोनों ही पेशे से अध्यापक थे, इसलिए स्वाभाविक भी था कि मारिया का झुकाव भी इस ओर रहा। किन्तु शिक्षा की
दिशा में मारिया का रुझान अपने समय की लड़कियों के विपरीत विज्ञान के प्रति रहा, उनके इस रुझान को
उनके पिता ने सदा प्रोत्साहित किया। घर के प्रगतिशील विचारों ने भी मारिया के
व्यक्तित्व को गढ़ने में अपनी भूमिका निभाई। उन्नीसवीं सदी के एक शिक्षित परिवार में यह
उदारता का अच्छा उदाहरण है जो समाज में बने रह गए कुछ दकियानूसी विचारों को भी
अपनी भाषा में चुनौती दे रहा था।
यह यूरोप का वह दौर था जब
स्त्रियाँ भी कुछ क्षेत्रों में अपनी प्रभावशाली भूमिका निभाना चाहतीं थीं। मूल
रूप से ये समय नागरिकता प्राप्ति के संघर्ष का दौर था, यद्यपि समाज
द्वारा इसका बहुत अधिक सम्मान नहीं किया। फिर
भी 1860 तक आते-आते
यूरोप के अधिकांश भागों में स्त्रियाँ शिक्षण के अतिरिक्त अन्य कई पेशों पर अधिकार
हासिल कर चुकी थीं। मारिया जब एक वर्ष की
थीं तभी उनकी माँ की नियुक्ति एक स्कूल में उपप्रधान के रूप में हुई। उन सबकी
तंगहाल जिंदगी में यह एक राहत की बात थी। इस नौकरी के साथ उनको एक घर भी रहने को
मिला। उनकी माँ एक अति परिश्रमी महिला थीं यही संस्कार उनके बच्चों को भी मिले। उनके
व्यवहार में प्रेम के साथ शिक्षा जुड़ीं ही रहती थी। जैसे ये प्रसिद्ध है कि
उन्होंने बच्चों के लिए घर में एक बैरोमीटर लगा रखा था जो न केवल बच्चों के
मनोरंजन का साधन था बल्कि उनके मन को प्रश्नों से भर देने वाला भी था। प्रश्न
ज्ञान का पहला और अनिवार्य घटक होता है इसलिए बच्चों में प्रश्नों के जन्म के लिए
रोचकता का संचार करना आवश्यक होता है। किन्तु यह शिक्षा और प्रेम का परिवेश लम्बे
समय तक न रह सका। माँ को टी. बी. रोग हो गया था और धीरे-धीरे उनका चेहरा पीला पड़ने
लगा था साथ ही वज़न तेज़ी से घटने लगा। इस रोग का कारण भी उनकी सेवा व्यवहार की
प्रकृति ही थी। माँ एक रिश्तेदार की सेवा
में थी जिन्हें टी. बी. था। उनसे ही माँ संक्रमित हो गयीं थीं। डॉक्टर ने
उन्हें गरम और खुले स्थान पर जाने की सलाह दी। वे अपनी बड़ी बेटी के साथ आल्प्स के
पास एक स्थान पर चली गयीं किन्तु निराश माँ ने बच्चों के पास रहना ही उचित समझा। वे
वापस आ गयीं। उनकीं माँ यदि अपनी बीमारी से जूझ रहीं थीं तो दूसरी ओर पिता भी
पौलैंड की राजनीतिक स्थिति के शिकार थे। रुसी प्रशासक उन्हें शक की निगाह से देखते
थे। उन दिनों विद्रोही करार दे देना आम बात थी। ज़रा-सा शक जेल जाने के लिए काफी था।
किन्तु सबसे बड़ी समस्या उनके अपने ही चापलूस सहयोगी और प्रशासक थे जिनके कारण
उन्हें अंत में अपनी नौकरी से ही हाथ धोना पड़ा। यह घर के लिए एक बड़ी आर्थिक समस्या बन कर उभरी। इसी
समय एक और घातक बीमारी फैली जिससे जोसिया और ब्रोनिया दोनों संक्रमित हुई। जोसिया
तो इस बीमारी को सह न सकी और उसकी मृत्यु हो गयी। इस दुःख को सहते हुए उनकी माँ भी
बच्चों को छोड़ कर इस दुनिया से चली गयीं। यह मरिया के लिए दुःख की घड़ी थी। महज़ 10 वर्ष की आयु में
ही मारिया ने अपनी माँ को खो दिया था। मारिया की माँ टी.
बी. से पीड़ित थी, रोग संक्रामक
होने के कारण वे अपने बच्चों से एक निश्चित दूरी बना कर रखती थी। अपनी छोटी-सी उम्र में मारिया इसकी वज़ह न समझ
पाती कि उसकी माँ उसे गले क्यों नहीं लगाती, चूमती क्यों नहीं? बाकी बच्चों की माँ की तरह साथ खेलती क्यों नहीं?
माँ और पिता के जीवन के
घटनाक्रम के परिणाम स्वरुप ही मारिया का जीवन भी अभावों के इर्द-गिर्द ही
बनता-टूटता रहा। परिवार के आर्थिक दबाव और
अपने शर्मीले स्वभाव से लड़ते हुए उन्होंने 15 वर्ष की आयु में हाईस्कूल स्वर्णपदक के साथ पास किया। यह
उनकी माँ की ही शिक्षा-दीक्षा थी कि परिश्रम से उन्होंने अभावों पर विजय प्राप्त
की। लेकिन स्कूल में स्वर्ण पदक मिलने के बाद भी उनकी मुश्किलों में कोई अन्तर
नहीं आया बल्कि अधिक मानसिक दबाव के चलते मारिया अवसादग्रस्त हो गयी थीं। उनके
सामने पढाई का संकट आ गया था। इससे उनका मन टूट गया था। इसी समय पिता ने उनके इस
अवस्था के हल के लिए उन्हें अपने रिश्तेदारों के पास भेज दिया। ग्रामीण परिवेश और
खुले वातावरण ने असर किया और वे जल्द ही स्वस्थ होने लगीं। यहीं उन्होंने नृत्य की
कला में खुद को लगाया जिसने उनके जीवन में अवसाद से निकलने की ऊर्जा भरी थी। घर
वापसी के साथ ही उन्होंने पुनः अपने घर में ही रह कर भौतिकी, रसायन, गणित आदि विषयों
में पढाई आरंभ करने की योजना को अमल में लाना आरंभ कर दिया। साथ ही उसी समय रुसी साहित्यकारों को भी पढना
शुरू किया जिससे उनकों प्रेरणा मिलती रही। इस समय अपनी राजनीतिक-आर्थिक समस्याओं
से पौलैंड जूझ रहा था और उसके नागरिक भी। वहाँ शिक्षा भी मुक्त नहीं थी उस पर भी
रूस का अंकुश था। पोलैंडवासियों ने इसका भी एक हल निकला-गोपनीय विश्वविद्यालय का।
उन दिनों सरकार की नज़र से बच कर चल रहे शिक्षा के क्षेत्र में गोपनीय
विश्वविद्यालय खूब प्रचलित हुए। यह छुप कर कार्य करते थे ताकि रूस की नज़र में न
आयें। मारिया ने इसका लाभ उठाया साथ ही उनकी बहन ब्रोंया ने भी अपनी पढाई इसी
व्यवस्था से की।
बूंदों से भरता
सागर...
मारिया के सामने इस वक़्त
दो समस्याएँ थी। घर की कमजोर आर्थिक स्थिति, क्योंकि विज्ञान की पढाई काफी खर्चीली थी तथा दूसरी
समस्या पोलैंड में किसी ऐसी संस्था या कॉलेज का न होना था, जहां लड़कियां
विज्ञान की पढाई कर सकें। वर्साय विश्वविद्यालय में स्त्रियों की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। मतलब
साफ़ था कि इन विषयों से लड़कियों को दूर रखा जाता था, क्योंकि वहां भी लड़कियों के लिए घरेलू जीवन से
जुड़े रहना ज़रूरी समझा गया। इन दोनों ही
समस्याओं से मारिया की बहन ब्रोन्या भी जूझ रही थी वह मेडिकल के क्षेत्र में काम
करना चाहती थी। इन परिस्थितियों ने दोनों बहनों के व्यक्तित्व और ज्ञान के विकास
में अंकुश ही लगा दिया था। किन्तु आगे पढ़ने की लगन मारिया में कुछ इस कदर थी, कि ये बाधाएं
उनका रास्ता न रोक सकीं। इन समस्याओं के समाधान की दिशा में मारिया ने
बच्चों को ट्यूशन देना शुरू किया, साथ ही बच्चों की देखभाल करने वाली सेविका का काम भी
स्वीकार किया। ये काम तत्युगीन समाज में बिलकुल भी सम्मानजनक नहीं माना जाता था। पर मारिया के सपने बड़े थे, और उतना ही बड़ा
था, उसे सच करने का
जुनून। इसी वातावरण में
दोनों बहनों ने एक आपसी निर्णय लिया कि ब्रोंया पहले पेरिस जाकर पढाई करेगी फिर
व्यवस्था बनते ही मारिया को भी बुला लेगी। इस दौरान मारिया ने आर्थिक मदद के लिए उस समाज
में अच्छे न समझे वाले काम किये। उन्होंने कई घरों में गवर्नेंस के रूप में कार्य
किया। मारिया एक लम्बे समय तक वर्साय में रहकर ब्रोन्या को आर्थिक मदद देती रहीं। इसी दौरान एक परिवार के लड़के से उनका प्रेम हो
गया। उस लड़के ने शादी का प्रस्ताव अपने परिवार को दिया जिसे अस्वीकार कर दिया गया।
इससे खिन्न हो कर वो लड़का तो अपनी पढाई में लौट गया किन्तु मजबूर मारिया को उसी घर
में काम करते रहना पड़ा। इस घटना ने एक बार
फिर उनकों अंदर तक तोड़ दिया किन्तु कोई चारा भी नहीं था। बहन को आर्थिक मदद का
वादा अधिक जरुरी था। काफी समय बाद उन्होंने वो नौकरी छोड़ी और एक अन्य जगह काम करने
लगीं। इसी वक़्त परिवार में एक ख़ुशी का पल
भी आया जब पिता को एक नौकरी मिल गयी जिसका वेतन काफी अच्छा था। इस सुविधा से पिता ने ब्रोंया को धन देना आरंभ
कर दिया जिससे मारिया को काफी सुविधा मिली। यह उनके लिये राहत की बात थी। इस अवसर
के साथ-साथ इन्हीं दिनों एक भाई की प्रयोगशाला में काम करने का मौका मिला। इसका
लाभ ये हुआ कि उनको वैज्ञानिक उपकरणों के उपयोग और शुद्धता के प्रति विशेष आग्रह
की प्रवृत्ति से काफी कुछ सीखने को मिला। यह उनका प्रयोगशाला का पहला अनुभव था। उन्हें
वहां का शांत और संभावनायुक्त परिवेश बहुत आकर्षक लगा। अपने जीवन के अनुभव को
देखते हुए उन्होंने कहा भी कि ‘जिंदगी किसी के लिए भी आसान नहीं होती, पर उससे क्या
फर्क पड़ता है? हममें साहस और
अपने पर भरोसा होना चाहिए’।
नए रास्तों पर
बढ़ते कदम...
इसी बीच ब्रोंया ने अपनी
मेडिकल की पढाई पूरी कर ली और वादे के अनुसार उन्होंने मारिया को एक सुखद सन्देश
लिखा कि पेरिस आ जाओ और पढाई करो। ये मारिया के लिए किसी सपने से कम न था क्योंकि
पेरिस हर पौलेंडवासी का सपना था। वो उस समय कला, दर्शन और विज्ञान की नगरी थी। नवम्बर 1891 में मारिया अपनी
बहन ब्रोन्या के पास पेरिस आ गईं। इसी समय ब्रोंया
ने शादी भी कर ली थी किन्तु उसने वादा किया था इसलिए मारिया को उनके ही साथ घर पर
रहना था। ब्रोंया ने फीस की व्यवस्था भी
कर दी थी। पेरिस पहुँच कर मारिया ने सोरबोन यूनिवर्सिटी में भौतिकी पाठ्यक्रम में
अध्ययन आरंभ किया। यहीं आ कर उन्हें ‘मैरी’ नाम से जाना जाने लगा। किन्तु धीरे-धीरे अपनी बहन के घर में
रहते हुए वे कुछ समस्या अनुभव करने लगीं। जैसे, बहन के पति राष्ट्रवादी थे जिसके कारण आये दिन घर पर
चर्चाओं का दौर चलता। घर का माहौल राजनैतिक बहसों से अक्सर गर्म रहता था इसी कारण
एक एकांत को खोजती हुई मारिया ने जल्द ही अपने बहन का घर छोड़ दिया। पैसे की तंगी
के कारण वो छोटे सीलन भरे कमरे में रहने को विवश थीं। फ्रांस की सर्दियों के हिसाब
से यहाँ रहना काफी मुश्किल था। पर यह विज्ञान के भविष्य में ख्यातिप्राप्त
वैज्ञानिक के संघर्ष के कठिन दिन थे। किन्तु इन
समस्याओं के इतर उन्हें यह सुकून था कि वे भलीं भांति पढ़ पा रहीं हैं। इस जगह पर
भी वो कम से कम संसाधनों में गुज़ारा करतीं थीं। यह उनके संघर्ष के दिन थे। इस
संघर्षों से जूझते हुए मारिया ने अपना ध्यान उच्च स्थापित ज्ञान और नवीन शोधों पर
केन्द्रित रखा। उनका जीवन उद्देश्य ही था कि लोगों के प्रति कम
और विचारों के प्रति अधिक जिज्ञासु बनें।
लेकिन जल्द ही समय के साथ
इन अभावों और कटौतियों में जीने का असर उनके शरीर पर पड़ने लगा। वे अनीमिया की
शिकार हो गयीं। अक्सर बेहोश हो जातीं थीं।
एक बार वे बहन के घर पर भी बेहोश हो गयीं। जाँच के बाद डॉक्टर ने बताया कि
उन्होंने अपने ऊपर अधिक दबाव डाल रखा है। बहन और उनके पति ने उनका न केवल इलाज
कराया बल्कि कुछ दिन अपने घर पर ही रोक लिया। इस सेवा का असर भी हुआ। बेहतर खाने
और आराम से वे जल्द ही ठीक हो गयीं। किन्तु उनका मन इससे बंध नहीं सका। वे अपने
अध्ययन पर फिर से लौटना चाहती थीं यहीं उनकी ज्ञान के प्रति हठयोग की साधना थी। वे
वापस आ गयी और लगातार काम करने लगीं। वे अब तक हुए सभी अनुसन्धान और खोजो को पढ़
लेना चाहतीं थीं। उन्होंने विभिन्न विषयों की कक्षाएं लेना भी आरंभ कर दिया था। वैज्ञानिक
उपकरणों के प्रति उनकी विशेष रूचि थी। उन्हें प्रयोगशाला का शांत और आत्मकेन्द्रित
माहौल विशेष पसंद था। उस समय के पुरषों के लिए ये बिलकुल नयी बात थी। एक स्त्री जो
उनके बीच अकेले मौजूद थी बल्कि बेहतर प्रदर्शन भी कर रही थी। वे लगातार खड़ी रह कर
सभी प्रयोगों और परिणामों को देखती और विश्लेषित करती थीं। इस वर्ष के परीक्षा
परिणाम में उन्होंने कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया। अपने फ्रांस आने के दो वर्षों बाद ही 1893 ई. की गर्मियों
में मारिया ने भौतिकी में मास्टर्स की डिग्री उच्च श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की। दूसरी ओर यही वह
दौर भी था जिसमें भविष्य में होने वाले पति पियरे क्यूरी ने मात्र सोलह वर्ष में
स्नातक और अट्ठारह वर्ष में परा-स्नातक की उपाधि प्राप्त की। उसके पश्चात् वो
विज्ञान फैकल्टी में सहायक भी हुए। लगभग पांच वर्ष तक काम करने के बाद अपने भाई के
साथ उन्होंने पीजोइलेक्ट्रिसिटी नामक नई प्रक्रिया को दुनिया के सामने रखा। इसी
तरह स्वतंत्र रूप से क्यूरी ने चुम्बकत्व पर अनुसन्धान किया और कई नए विचार
प्रतिपादित किये। इन्हें ‘क्यूरी के नियम’ के नाम से जाना
गया। पियरे ने तापमान के बदलाव के कारण आने वाले बदलाव को चुम्बकीय व्यवहार में
देखा था इसलिए उन्हें चुम्बकीय जगत के प्रमुख वैज्ञानिकों में गिना जाता था।
भौतिकी में मास्टर्स की
डिग्री के बाद आगे चलकर फ्रेंच अकादमी की परियोजना के रूप में मारिया को आर्थिक
मदद मिली। इस आर्थिक मदद मिलने पर मारिया ने स्टील की संरचना में चुम्बकीय
प्रवृत्ति में आए बदलावों के अध्ययन से सम्बंधित विषय पर शोध किया। इन सफलताओं के
बरक्स उनका व्यक्तित्व एक अंदरूनी भावनात्मक समस्या से भी जूझ रहा था। वे होमसिकनेस से जूझ रही थी और अपने देश पोलैंड
वापस लौटना चाह रही थी। चुम्बकीय प्रवृत्ति विषयक अपने शोध के मध्य ही वे पोलैंड चली गयी इस उम्मीद
में कि वे अपने देश में अपनी क्षमताओं के अनुरूप कोई नौकरी प्राप्त कर लेंगी और
फिर अपने देश में ही रहकर मानवता के लिए विज्ञान की दिशा में अपना शोध जारी रखेंगी। पर उनके देश
पोलैंड में लड़कियों को लेकर मानसिकता में कोई बदलाव अब तक न आया था। उन्हें कोई नौकरी
नहीं मिली। सिर्फ एक लड़की होने की वज़ह से वे अपने देश में
अपने मनोनुकूल क्षेत्र में उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर सकी थीं और इस लिए उन्हें बाहर
जाना पडा था। एक बार फिर उन्हें उसी वज़ह से अपने ही देश में नौकरी नहीं मिल पाई थी। इन सब बातों का उन पर भावनात्मक असर पड़ा। किन्तु घर के गर्मजोशीयुक्त आवभगत से यह टीस
कुछ कम ही असर कर सकी। एक बार फिर देश से
बाहर आ कर उन्होंने एक छात्रवृति प्राप्त की और पुनः गणित में डिग्री लेने
के लिए वापस आ गयीं। उन्होंने 1894 की गर्मियों में
गणित में भी डिग्री प्राप्त की। इस बार छात्रवृत्ति के धन से उन्होंने अच्छा घर
किराये पर लिया जो पिछले वाले की तुलना में गर्म और आरामदेह था। इससे वास्तविक
सुविधा उनके शरीर से अधिक ज्ञान की निरंतरता को मिली जो पिछली बार बीमारी के कारण
टूटती रही थी। उनका अनुभव ज्ञान की निरंतरता को बनाये रखने में सफल रहा।
सादगी से प्रेम
का आना...
लगातार मिल रही आर्थिक
मदद से उनके सामने धन की समस्या तो कुछ कम हुई थी किन्तु प्रयोगशाला की समस्या
सामने आ गयी। उनके एक मित्र ने इसका समाधान निकला और समाधान पियरे क्यूरी की
प्रयोगशाला के विकल्प के रूप में सामने आया। यह जीवन का एक नया मोड़ साबित होने
वाला था। पियरे ने न केवल मारिया के अनुसन्धान की व्यवस्था की बल्कि उनकी
वैज्ञानिक प्रयोग में भी सहायता की। इस
तरह दोनों में कुछ समानताओं ने उनकों नज़दीक ला दिया। वह एक दूसरे से काम के बहाने
मिलने लगे। मारिया के घर आ कर वैज्ञानिक चर्चाओं के मध्य बात आगे बढ़ी। थीसिस लेखन में भी पियरे ने मारिया की सहायता की।
पियरे मन ही मन इस सरल, कर्मठ और सुन्दर
स्त्री को चाहने लगे थे इसीलिए कई बार वो मारिया के घर की भी बात करते थे। यह
अनोखा प्रेम था जिसमें स्त्री-पुरुष सामान थे यहाँ प्रेम कर्म से उपजा था सौंदर्य
से नहीं। इसी कारण मारिया जब परीक्षाओं के पश्चात् पौलेंड गयी थीं तो पियरे उनके
वापस लौटने पर जोर देते रहे। इन्हीं सबके
बीच पियरे ने विवाह का प्रस्ताव भी रख दिया था किन्तु मारिया कुछ निर्णय नहीं ले
सकीं। इसका कारण यह था कि मारिया पौलैंड निवासी और राष्ट्रभक्त थीं जबकि पियरे
फ़्रांस के थे। किन्तु मारिया ने मित्रता बनाये रखने का वादा जरुर कर दिया। इससे साफ़ जाहिर होता है कि मारिया मित्रता को
संबंध का मूल आधार बना रहीं थीं। ये उस समय के लिए एक बड़ी बात थी। मारिया जब घर आ
गयीं थीं तब पियरे के पत्र आते रहे थे। पत्र से जुड़ा एक रोचक तथ्य यह है कि पत्रों
में लिखावट की भूलें अधिक होती थी। मारिया
उनके व्याकरण की भूलों को अक्सर ध्यान से देखतीं थीं। इसका कारण यह था कि पियरे डिस्लेक्सिया के शिकार
थे। वे उनके पत्रों को बहुत ध्यान से पढ़तीं थीं।
मारिया ने एक बार फिर
पेरिस में वापसी की किन्तु इस बार वे ब्रोंया के ऑफिस के बगल वाले कमरे में रहने
लगीं। पियरे फिर करीब थे यह कार्यक्षेत्र का संबंध था जो आगे चल कर विवाह में बदल
गया। जुलाई, 26 1895 को पियरे और
मारिया ने शादी कर ली। सदी के दो महान वैज्ञानिकों की शादी बहुत शांतिमय और
सादगीयुक्त वातावरण में हुई। दरअसल पियरे को धार्मिक रीति-रिवाज़ पसंद नहीं थे और न
ही मारिया की इन सबमें कोई विशेष रूचि थी। इसीलिए इस शादी में न इसाई परंपरा के अनुसार
सफ़ेद-काले वस्त्र थे न ही अंगूठी थी। शादी में गिनेचुने लोग ही शामिल थे। लेकिन एक
रोचक बात यह थी कि उपहार स्वरुप मिली साइकिलों को पियरे ने स्वीकार किया था। इन्हीं
साइकिलों से उन्होंने अपने हनीमून की न केवल यात्रा की बल्कि ये उनके व्यक्तिगत
जीवन को शहर से बाहर ले जाने का जरिया भी बन गयीं थीं। अक्सर वे चर्चा करते हुए या फुर्सत के पलों को
जीते हुए साइकिल से दूर निकल जाते और वहीँ कहीं शाम गुज़ारते थे। यह बात सर्वमान्य
है कि अनुसन्धान और चिंतन के जीवन में एकांत का विशेष महत्व होता है। इस अवसर को
साईकिल ही पूरा कर रहीं थीं। यह उनके सादगी भरे दैनिक जीवन ने सिद्ध कर दिया था।
विवाह के बाद वे नए घर
में आ गए। यह मकान अधिक खुला और हवादार था। एक कमरे के बीचों बीच बड़ी मेज़ पर
दम्पति अपनी किताबों के साथ मौजूद रहते थे। बाकी किसी ओर उनका ध्यान नहीं जाता था। पियरे और मारिया के जीवन का उद्देश्य केवल
नए शोध थे। किन्तु पुरुष के समान स्त्री घर से उतना मुक्त नहीं हो सकती जितना
पुरुष हो पाता है इसलिए मारिया का काम पियरे से अधिक था। उन्हें घर भी संभालना
पड़ता था। वह ये काम भी प्रयोगशाला की किसी योजना की तरह ही करती थीं। उन्होंने एक
छोटी-सी हिसाब की डायरी बनायीं थी ताकि कुछ भी काम या कोई वस्तु न छूटे। किन्तु
भोज़न के लिए उनको अधिक और विशेष ध्यान देना ही होता था। अध्ययन के मध्य प्रेम
स्वरुप मारिया ने पियरे के लिए कई फ़्रांसिसी व्यंजन बनाना सीखे। वैज्ञानिक सोच इधर
भी काम कर रही थी उन्होंने रसोई को भी रसायन प्रयोगशाला की तरह ही देखा और कई नए
व्यंजन को पैदा किया। इन्ही सबके बीच रसोई गैस की लो को भी उन्होंने सुधारा। इन
शोध और पारिवारिक कर्तव्यों को निभाते हुए 1897 में उन्होंने बेटी आइरीन को जन्म दिया। उसके बाद जहाँ जीवन
में नई चहक आ गयी थी वहीँ काम और भी बढ़ गया था।
विकिरण के वक्त
की बुनावट..
यह वो दौर था जब रुसी
रसायन वैज्ञानिक मेंडलीफ ने आवर्त सारणी बना कर दुनिया भर के रसायनों/तत्वों को एक
नियम में निवेशित कर दिया था और जिन नए तत्वों की खोज हो रही थी वो भी सारणी में
अपना स्थान पा रहे थे, वहीँ हेनरी बैकरल
युरेनियम का अध्यन करते हुए अज्ञात विकिरण को अनुभव कर रहे थे। यह चर्चा का विषय
बन गया था कि बिना प्रकाश डाले ये विकिरण कागज़ को पार कर जाती है। इसी दौरान
मारिया एक नवीन विषय की तलाश कर रहीं थीं ताकि डॉक्टरेट में पंजीकरण करा सकें। क्यूरी
दम्पत्ति को इस नवीन विकिरण जगत ने आकर्षित किया और उन्होंने इस अनछुए जगत में
प्रवेश करने को अपना लक्ष्य बना लिया। यह
मारिया के थीसिस का मूल विषय बन गया।
इस शोध-विषय से जुड़ी एक
समस्या भी सामने आई। इस शोध कार्य के लिए पियरे की प्रयोगशाला बहुत अनुकूल नहीं थी।
वह बहुत ठंडी थी साथ ही उपकरणों पर ठण्ड और खुलेपन का विपरीत प्रभाव पड़ रहा था। वे
इस समस्या से जूझते हुए अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने यूरेनियम विकिरण के आयनीकरण की शक्ति
को मापने के लिए एक आयनीकरण कक्ष को बनाया। धीरे-धीरे यह शोध आगे बढ़ता गया। अब वे प्रश्न करने लगे कि क्या केवल दुनिया में
युरेनियम ही विकिरण स्रोत है या अन्य तत्त्व भी मौजूद हैं? इस प्रश्न ने
उनको थोरियम के निकट ला दिया जो युरेनियम की ही भांति विकिरण पैदा करता है। मारिया
ने इसे ‘रेडियो एक्टिविटी’ नाम दिया। मारिया रेडियो एक्टिविटी की खोज में डूब गयीं।
वे न केवल ज्ञात बल्कि अज्ञात तत्वों में भी एक्टिविटी तलाशने लगीं। पियरे ने इस
कार्य के लिए कई उपकरण बनाये जो इस घातक कार्य को सुरक्षित बनाते थे। इसी शोध में
एक अज्ञात तत्त्व पिचब्लेंड मिला जो युरेनियम से 10 गुना अधिक सक्रिय था। इससे एक नया तत्त्व
संज्ञान में आया। यह मारिया की बड़ी उपलब्धि थी। आगे चल कर पिचब्लेंड में भी दो तत्त्व खोजे गए। जिसमे से एक का नाम मारिया ने अपने देश को
समर्पित करते हुए ‘पोलोनियम’ रखा। 1898 में यह खोज
फ़्रांस अकादमी के द्वारा प्रकाशित हुई। इसी क्रम में दूसरे तत्त्व को भी जल्द ही
प्राप्त किया गया। रेडियम शब्द को लैटिन
भाषा के ‘रे’ शब्द से बनाया
गया जिसका अर्थ ‘किरणें’ है। इस खोज ने
दम्पत्ति को बहुत उत्साहित कर दिया।
इस सफलता के पश्चात मैडम
व पियरे ने दो नए तत्वों को मेंदीलीव की सारणी में स्थापित किया जिसमें पहला तत्व
पोलोनियम था। यह तत्व यूरेनियम से लगभग 300 गुना रेडियो
एक्टिव था। दूसरा तत्व रेडियम था जिसकी खोज मैडम क्यूरी
द्वारा की गयी। रेडियम तो कई गुना रेडियो एक्टिव तत्व होता है
और सदैव अपने परिवेश से अधिक गर्म होता है। इस तरह क्यूरी
दंपत्ति ने कहीं न कहीं रेडियोएक्टिव युग को पैदा कर दिया जो विज्ञान को एक बिलकुल
नए समय में ले गया। यूरेनियम, पोलोनियम और रेडियम साथ ही थोरियम के ज्ञान ने रेडियोएक्टिव
शोधों को बहुत अधिक बढ़ावा दिया। इन खोजों के बाद दुनिया में पियरे दम्पत्ति को
एक बड़ी पहचान मिली किन्तु उनका जीवन नहीं बदला। बिना किसी सुविधा के लगातार घर, शोध और रिश्ते को
संभालती हुई मारिया कठिन जीवन जी रहीं थीं। जो सुख था वो था पति का साथ और बच्ची। दोनों बच्ची को साथ लेकर साइकिल से सैर करने
निकल जाते थे। लगभग चार साल तक बिना किसी
प्रयोगशाला के और न ही उचित उपकरणों व सहायकों के क्यूरी दम्पत्ति शोध में लगे रहे।
एक ओर रेडियम था तो दूसरी ओर रेडियम के लवणों को प्राप्त करने की रासायनिक विधि का
बार-बार दोहराया जाना था। मारिया अक्सर
रासायनिक प्राप्ति के लिए अम्लीय धुएं का सामना करते हुए भट्टी के पास ही रहती थी।
वहाँ उबालने और छानने की प्रक्रिया लगातार चलती रहती थी। ये बहुत ही कठिन और जोखिम भरा काम था। वहीँ दूसरी ओर यहीं प्रयोगशाला में ही बातचीत का
भी दौर चलता रहता। कोई पत्रकार, जिज्ञासु या
मित्र जब आ जाता तो यहीं चर्चाएँ भी होती रहती ताकि समय व्यर्थ न हो। इस जोखिम भरे
काम में बहुत समय बीतता गया, फिर भी पोलोनियम और रेडियम पृथक नहीं हो रहे थे। प्रयोगशाला में अक्सर छोटी-मोटी दुर्घटनाएं होती
ही रहतीं थीं। इस लम्बे वक़्त में पियरे कई
बार हार मानते दिखाई दे जाते थे किन्तु मारिया अडिग रहीं। वे शोध जारी रखना चाहती थीं। वास्तव में पियरे यह मान रहे थे कि शायद हमारे
उपकरण शोध के अनुकूल नहीं है इसलिए वे इस शोध को अधिक बेहतर सुविधाओं में बाद में
करना चाह रहे थे। किन्तु मारिया की अथक परिश्रम ने रंग दिखाया और 1902 में रेडियम का
शुद्ध रूप प्राप्त हुआ। इस चमकते हुए तत्त्व को देख कर दोनों को जो सुख की अनुभूति
हुई होगी उसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता। अपने प्रयासों को उन्होंने लगभग 30 से अधिक
शोधपत्रों में प्रकाशित किया। ये विज्ञान के इतिहास में युग परिवर्तन था।
धीरे-धीरे शोध का असर
दूर-दूर तक पंहुचा। उन्हें जेनेवा से नौकरी का प्रस्ताव मिला किन्तु धन का अभाव
झेल रहे दम्पत्ति ने न ही उच्च वेतन को देखा और न ही मुफ्त घर की सुविधा को। उन्होंने अपने शोध को अधिक महत्व दिया और पद को
अस्वीकार कर दिया। लेकिन जल्द ही इस त्याग ने नए विकल्प भी दिए। पेरिस में ही उन
दोनों को नए पदों का अवसर प्राप्त हुआ। इससे उन्हें काफी मदद मिली। उनका आर्थिक जीवन
कुछ सुगम हुआ। 1902 में ही मारिया
को अपने बीमार पिता को देखने के लिए पौलैंड जाना पड़ा किन्तु वे जब तक पहुँचती पिता
जा चुके थे। उनके अंतिम संस्कार में वो
पहुँच न सकीं किन्तु उन्होंने निवेदन किया कि उन्हें पिता को अंतिम बार देखना है। उनके
अधिक अनुरोध पर कोफीन को तोडा गया। ये पिता पुत्री के जीवन संघर्ष का प्रेम था जो
उन्हें सदा उत्साह भरता रहा। पिता सदैव पुत्री के शोध को पत्रिकाओं और अख़बारों में
पढ़ा करते और अपनी बेटी पर नाज़ करते। ये उनकी ही बेटी थीं जो आगे चल कर दुनिया को
एक विकिरण युग में ले जाने वालीं थीं। इसी सबके बीच सोरबोन विश्विद्यालय से
उन्होंने अपनी डॉक्टरेट की उपाधि ग्रहण की। इस शोध कार्य की सफलता से मैडम और
पियरे दोनों ही काफी खुश थे। पियरे ने शोध निष्कर्षों को ढूँढने में मैडम क्यूरी की काफी
मदद की। यह एक संयुक्त प्रयास ही कहा जाएगा। मैडम क्यूरी ने
स्वयं इस कार्य को ‘संयुक्त उद्यम’ घोषित किया। यह उनकी उदारता
का ही उदाहरण है। वास्तव में उन्होंने अपने जीवन में जो सोचा उसे सबसे पहले खुद पर लागू किया
इसीलिए वे कहतीं हैं कि ‘आप व्यक्तियों को
सुधारे बिना एक बेहतर दुनिया बनाने की उम्मीद नहीं कर सकते और इसलिए हम सभी को
अपने को बेहतर बनाने की दिशा में काम करना होगा और साथ ही मानवता के लिए भी एक
सामाजिक दायित्व का वहन करना होगा’।
पियरे और मारिया इस शोध
में इतना डूबे हुए थे कि इस शोध के खतरे को नज़रंदाज़ कर रहे थे। इस तत्त्व का स्वतः
ही विखंडन होता रहता है जो न केवल सजीव बल्कि निर्जीव वस्तुओं को भी नुकसान
पहुचांता है। पियरे और मारिया दोनों ही इसके प्रभाव से न बच सके दोनों की त्वचा
जली और लम्बे समय तक लाल रही। इसका प्रभाव यह हुआ कि धीरे-धीरे इस शोध के अन्य
प्रयोगधर्मी पक्षों पर पियरे का ध्यान जाने लगा। वे रेडियम का प्रभाव प्राणियों पर
पड़ने वाले प्रभाव को देखने में करने लगे। पियरे ने इस ओर शोध के लिए चिकित्सा जगत
से अनुबंध किया। पियरे की परिकल्पना यह थी कि कैंसर में अनियंत्रित बढती कोशिकाओं
को रेडियम द्वारा नष्ट किया जा सकता है। इससे यह परिणाम भी आ सकता है कि स्वस्थ
कोशिकाएं पुनः काम करने लगें। इसे ‘क्यूरी थेरपी’ का नाम दिया गया था।
विकिरण को मानव
जीवन में लाना...
1902 उनके जीवन में एक परिवर्तन के रूप में आया। इसी वर्ष
विज्ञान अकादमी ने एक बड़ी धनराशि रेडियोधर्मी पदार्थों को अलग करने के लिए दी। इसी
तरह एक अवसर तब प्राप्त हुआ जब 1904 में एक उद्योगपति ने रेडियम बनाने की फेक्ट्री खोलने का मन
बना लिया जिससे वह चिकित्सा जगत की रेडियम सम्बन्धी मांग को पूरा कर मुनाफा कमा
सके। उस उद्योगपति ने अपनी फैक्ट्री के बगल में ही एक प्रयोगशाला का निर्माण कराया
और क्यूरी दम्पत्ति को शोध के लिए आमंत्रित किया। इससे एक गठबंधन करने की परंपरा
ही चल निकली। अब क्यूरी दम्पत्ति के पास काफी निवेदन आने लगे। यह रेडियम के
व्यापार में मुनाफे का सौदा था। किन्तु
क्यूरी दंपत्ति ने इस मुनाफे से दूरी ही बना रखी थी। यहाँ तक कि उन्होंने रेडियम
को पेटेंट करने के निवेदन को भी ठुकरा दिया जिससे उन्हें भारी मुनाफा हो सकता था। यह
उनके मानव-सेवा से भरे निर्णयों में से एक था। यद्यपि उस दौर में औद्योगिक क्रांति के कारण
नई-नई खोजों और आविष्कारों का पेटेंट करने की प्रवृति काफी आम हो गयी थी। लगातार
पेटेंट कराये जा रहे थे ऐसे समय में भी दोनों अडिग रहे। क्यूरी दम्पत्ति रेडियम
शोधन की प्रक्रिया के पेटेंट से अपने लिए बहुत सारा धन प्राप्त कर सकते थे किन्तु
दोनों ही पियरे और मारिया ने साथ मिल कर मानव जाति के हित में फैसला करते हुए माना
कि रोगियों का उपचार होना चाहिए न कि हमें व्यावसायिक लाभ उठाना चाहिए। यह सच्चे
अर्थों में मानव सेवा थी। एक सच्चे वैज्ञानिक का धर्म यही होता है अपने शोधों को
बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के सार्वजनिक करना। रोचक बात है कि वैज्ञानिक एकांत
में अनुसन्धान करतें हैं किन्तु ये अनुसन्धान समाज के लिए होता है। इस बात को
ध्यान में रखते हुए क्यूरी दम्पत्ति ने अपने कठिन जीवन को इस निर्णय में कभी-भी
हावी नहीं होने दिया बल्कि उन्होंने फ़्रांस ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए इसे
मुक्त कर दिया। उस शोधन विधि का प्रयोग आज भी मुफ्त और मुक्त रूप से हो रहा है।
1903 में लन्दन के रॉयल अकादमी ने पियरे क्यूरी को व्याख्यान के
लिए आमंत्रित किया। यह व्याख्यान रेडियम पर आधारित था। क्यूरी दम्पत्ति साथ-साथ
पहली बार लन्दन गए। उन विज्ञान सेवियों का बहुत गर्मजोशी से वहाँ स्वागत किया गया। रॉयल अकादमी में यह पहला अवसर था कि किसी
स्त्री ने भाग लिया था। यह सम्पूर्ण स्त्री-जगत के लिए एक बड़ी सफलता थी। बचपन से
स्वभाव से शर्मीली मैडम क्यूरी ने सधी हुई धीमी आवाज़ में अपना व्याख्यान आरंभ किया।
पूरा हॉल शांत और एकाग्र था किसी प्रयोगशाला की तरह। वहां मौजूद सभा एक नवीन
उत्साह के साथ उस महिला को सुन रही थी जो विज्ञान जगत में एक नए युग की शुरुआत कर
चुकी थी। उन्होंने न केवल व्याख्यान दिया बल्कि प्रयोग द्वारा कुछ रेडियम के गुणों
को प्रदर्शित कर हॉल को चकित भी कर दिया। दोनों ही लन्दन में मेहमान थे इस कारण पत्रकार, विज्ञान-प्रेमी
और राजनीतिज्ञ सभी के बीच वे आकर्षण के केंद्र बने हुए थे। लेकिन एक बात ध्यान
देने योग्य है कि इस अवसर पर भी मैडम क्यूरी बेहद सादे वस्त्रों में थीं। बिना
किसी आभूषण के उनका कार्य ही उनके चेहरे की चमक को बनाये हुए थे। एक साधारण-सी
दिखने वाली स्त्री ने चिंतन और अनुसन्धान के क्षेत्र में जो बीज बोया था उससे
परिचित होने और प्रसिद्धि का हिस्सा बनाने के लिए हर व्यक्ति उन्हें अपने घर
आमंत्रित करने को आतुर था।
इस भव्य यात्रा के बाद
दम्पत्ति पुनः अपने काम में खो गए। लन्दन की यात्रा के पश्चात् उनके पास दिनों-दिन
अनुबंध के प्रस्ताव बढ़ने लगे। रॉयल अकादमी द्वारा मिले ‘डेवी चिन्ह’ को उन्होंने अपनी
पुत्री के खिलौनों के बीच पाया। यह स्वर्ण पदक था किन्तु किसी साधारण खिलौने की
तरह बेटी उससे खेलती थी। इसी वर्ष 1903 में ही नोबेल पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई। इस पुरस्कार को संयुक्त रूप ने हेनरी बैकरल और
क्यूरी दम्पत्ति ने स्वीकार किया। यह घटना उस समय काफी चर्चा में रही कि नोबेल
कमेटी पहले यह पुरस्कार सिर्फ हेनरी और पियरे को देना चाहती थी किन्तु बाद में
पियरे के कहने पर इस क्षेत्र में मारिया के योगदान को स्वीकार करते और सराहते हुए
उन्हें यह नोबेल पुरस्कार दिया गया। लेकिन अपने काम
के दबाव और सर्द मौसम के कारण वे इस समारोह में जा न सके। उनके स्थान पर फ़्रांस के
एक मंत्री ने पुरस्कार ग्रहण किया। वे
नोबेल पुरस्कार को लेने तो न जा सके थे किन्तु उनके व्याख्यान को एक वर्ष के लिए
स्थगित करने का निवेदन मंज़ूर हो गया था। किन्तु व्यस्तता के कारण 1905 में ही वे
नोबेल पुरस्कार विजेता के रूप में स्टॉकहोम जा सके। जहाँ उन्होंने रेडियम के गुणों
और उसके प्रयोग के विभिन्न आयामों पर व्याख्यान दिया। सबसे अधिक तो कैंसर की
कोशिका के इलाज ने सभी को चकित कर दिया। पूरी दुनिया का ध्यान इस ओर खिंच गया फिर
भी उन्होंने अपना उत्तरदायित्त्व मानते हुए उपलब्धि के बरक्स रेडियम और विकिरण के
गलत प्रयोगों के प्रति आगाह भी किया क्योंकि यह वही दौर था जब राष्ट्रवाद और
जातिवादी विचार प्रबल हो रहे थे। क्यूरी दम्पत्ति एक वैज्ञानिक के तौर पर न केवल
उपलब्धियों से उत्साहित थे बल्कि उनके नकारात्मक पक्षों की ओर भी लगातार ध्यान दे
रहे थे क्योंकि इस दौर में हथियारों के बनाने की होड़ मची हुई थी। एक बड़ा वैज्ञानिक
समूह नरसंहार के नए-नए हथियार बना रहा था। ये व्याख्यान बहुत सफल रहा और विश्व भर
में क्यूरी दम्पत्ति प्रसिद्ध हो गए। अब वे विश्व नागरिक थे।
नोबेल पुरस्कार की धनराशि
उन्हें प्राप्त हुई तो पति-पत्नी के सुख का ठिकाना न रहा किन्तु सेवाभाव के चलते
उन्होंने इस बड़ी राशि को भी गरीब बच्चों की पढाई, शोध और आवश्यक खर्चों में ही जाने दिया। ये
उनके अभावग्रस्त जीवन का अनुभव था जिसे वे दूसरों के जीवन में कम करने की कोशिश
करते रहे। सामाजिक सेवा के लिए ही मारिया ने अपनी बहन ब्रोंया को भी कुछ राशि दी
ताकि वे मेडिकल कार्यों को सुविधाजनक बना सके। वे जीवन भर सच्चे अर्थों में
मानवसेवी रहे। इस पुरस्कार की राशि से पियरे को पढ़ाने की सेवा से मुक्ति मिल गयी
जबकि मैडम क्यूरी लगातार कक्षाएं लेतीं रहीं। उन्हें पढाना और विद्यार्थियों से
चर्चाएँ करना विशेष प्रिय था। नोबेल पुरस्कार प्राप्ति के बाद तो वे अति विशिष्ट
हो गए। आये दिन विज्ञान प्रेमियों और पत्रकारों की भीड़ लगी रहती। ढेर सारे पत्र, अख़बार और
टेलीग्राम से घिरे दम्पत्ति अपनी ही दुनिया में डूबे रहते। इस धनराशि से एक सुविधा
यह भी हुई कि उन्होंने एक लैब असिस्टेंट रख लिया। किन्तु घरेलू कार्यों में पत्नी, माँ और स्त्री के
रूप में मैडम क्यूरी सदा ही अकेले ही कार्य करतीं रहीं।
इन उत्साह और सफलता भरे
समय, 1904 में मैडम क्यूरी
ने दूसरी बेटी ईव को जन्म दिया। इस अवसर
पर उनकी बहन ब्रोंया भी साथ थी। इस सुविधा से उनके शरीर को काफी आराम मिला जो जीवन
में आने वाली बड़ी घटना से पहले का सुखी पल था। इसी दौर में पियरे को काफी बड़े अवसर
प्राप्त हुए किन्तु उस विज्ञान सेवी ने बड़ी और सुविधाज़नक प्रयोगशाला को ही अपनी
कसौटी का आधार माना। इस कसौटी पर एक कार्य मिला जहाँ कई सहायक और बड़ी लैब प्राप्त
हुई। इस तरह कभी पियरे शोध के आगे की परिकल्पनाओं में लगातार काम करते तो कभी
दोनों बेटियों को साथ ले कर फुर्सत के कुछ सुखद लम्हें गुजारते। जीवन अब बदल गया
था। उसने लगातार हो रही कठिन मेहनत के
प्रभाव में गति पकड़ ली थी। एक सुखद स्थायी प्रवाह बनने लगा था किन्तु यह सुखद समय
अधिक लम्बा नहीं हो सका। एक घटना पूरा दृश्य बदलने को उपस्थित थी।
पियरे का जाना...
पियरे अपने अनुसन्धान के
कार्यों में व्यस्त थे किन्तु अचानक एक दुर्घटना घट गई। 18 अप्रैल 1906 को अपनी चर्चाओं
के दौर से बाहर खुली हवा में सैर करते हुए उस विज्ञान सेवी की सड़क हादसे में
मृत्यु हो गयी। वे किसी सोच में डूबे हुए थे कि अचानक एक गाड़ीवान का संतुलन बिगड़ा
और भारी सामान उन पर जा गिरा। उनके सर पर काफी चोट आई जो उनके असमय मौत का कारण
बनी। मैडम क्यूरी इस घटना से टूट गयी। पूरा फ़्रांस इस घटना से प्रभावित हुआ। लोगों में गाड़ीवान के खिलाफ एक गुस्सा उमड़ रहा
था किन्तु मैडम क्यूरी ने फिर भी किसी न्यायिक जाँच से साफ़ इनकार कर दिया। उन्हें
ये पसंद नहीं था कि कोई भी अदालती कार्यवाही हो। पियरे काफी शांत और सादगी पसंद
करने वाले शख्स थे इसलिए मैडम क्यूरी ने उसका खास ध्यान रखा। किसी भी प्रकार की
अंतिम-संस्कार की परंपरावादी रीति को न अपनाने को कहा। न जुलुस और न ही भाषण की व्यवस्था की गयी बल्कि
राजनीतिक सदस्यों को भी इससे दूर रखा गया। किन्तु फिर भी मंत्री और पत्रकारों के
साथ विज्ञान-प्रेमियों का एक बड़ा समूह उनके साथ रहा। पियरे से खास लगाव रखने वाले
वैज्ञानिक लार्ड केल्विन भी जल्द ही पेरिस पहुच गए थे। पियरे को शांत माहौल और सादगी के साथ उनकी माँ
के पास दफना दिया गया। लम्बें समय तक फ़्रांस सहित पूरी दुनिया में पियरे को याद
करते हुए कई सभाएं हुईं। विज्ञान जगत ने
एक सच्चे सेवी को अचानक ही खो दिया था।
पियरे के जाने के बाद
मैडम क्यूरी को पेंशन की पेशकश की गयी जिसे उन्होंने ठुकरा दिया। इस कठिन समय में भी वे स्वाभिमानी स्त्री के रूप
में अडिग थीं। फ़्रांस और विश्वविद्यालय ने अपना दायित्व मानते हुए आपसी सहमति के
साथ पियरे के पद को मैडम क्यूरी को देने का प्रस्ताव रखा। यह इस लिए भी हुआ
क्योंकि मैडम क्यूरी ही उन शोध कार्यों को आगे बढ़ा सकतीं थीं जिनमें वे सहभागी भी
थीं। इस प्रस्ताव को उन्होंने मंज़ूर कर
लिया। इसमें उनके ससुर का भी अनुरोध शामिल था जिसे वे अस्वीकार न कर सकीं। इस पद
पर भी वे बैठने वालीं प्रथम महिला थीं। विश्व का स्त्री-इतिहास करवट ले रहा था। स्त्री
समाज में मैडम क्यूरी एक मिसाल बन कर उभर रहीं थीं। इसके साथ ही उनके जीवन का एक नया अध्याय आरंभ
हुआ। जहाँ पति के नोट्स थे, घर पर दो बेटियां
और बूढ़े ससुर थे। इन दायित्वों के मध्य मैडम क्यूरी लगातार संतुलन बनाने में लगीं
रहीं। बूढ़े ससुर ने बच्चियों का दायित्व संभाल कर उनकी काफी मदद की। मारिया अब
मैडम क्यूरी के रूप में विख्यात थीं। उनके
व्याख्यानों के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी। उनके कार्यों और नए विचारों को सभा हो या
कक्षा वहां मौजूद लोग बड़े ध्यान से सुना करते थे।
किन्तु परिवार में सदा ही
समस्याएं उभरने लगीं थी। सबसे अधिक बड़ा झटका उन्हें तब लगा जब ससुर फेफड़ों के
संक्रमण के कारण चल बसे। बच्चियों का ध्यान रखना जरुरी था। ससुर एक अच्छे संरक्षक
थे। उनके होने पर कोई चिंता नहीं थी किन्तु अब समस्या बढ़ गयी थी। कोई भी गवर्नेंस अधिक समय तक न टिक पाती थीं। इससे
घर के प्रति दायित्व बढता ही रहा। वे
बच्चियों के साथ घूमना, खेलना और साइकिल
चलाना आदि कार्यों के द्वारा उनके शिक्षा और मानसिक विकास का विशेष ध्यान रखती थीं। माँ के कर्मठ व्यक्तिव का असर बेटियों पर भी पड़ा। वे भी अकेले घुमने-खेलने निकल
जातीं और आत्मविश्वास को बढ़ातीं। उन्होंने बच्चियों को न केवल पौलैंड की पर्याप्त
जानकारी दी बल्कि पोलिश भाषा भी सिखाई। फ़्रांस में रहते हुए भी उन्होंने अपने
देशप्रेम से किनारा नहीं किया। वे भावुक नहीं बल्कि गंभीर स्त्री थीं। उन्हें
धार्मिक कर्म-कांडों से अधिक व्यक्तिगत अध्यात्म पसंद था। आत्मविश्वास, स्वाभिमान और
संयम इसी विचार के परिणाम थे। उन्होंने विलासिता और गरीबी दोनों की दशाओं के मध्य
एक संतुलित जीवनशैली में बच्चों की परवरिश की। उन्होंने पेटेंट के निर्णय पर कभी
पुनर्विचार नहीं किया बल्कि बेटियों को आत्मनिर्भर होने की शिक्षा दी। फिर भी
सामाजिक जीवन के नियंत्रण के कारण बच्चियों को स्कूल के नए माहौल में कुछ दिक्कत
तो अवश्य हुई किन्तु एक जागरूक माँ के रूप में उन्होंने स्कूल प्रशासन और अपनी ओर
से किये गए प्रयासों के माध्यम से इसे सफलतापूर्वक हल कर दिया। विज्ञान के
छोटे-छोटे प्रयोगों के द्वारा मैडम क्यूरी बच्चों को विज्ञान के नियम सिखातीं और
बाल मन को उर्वर बनातीं इन अवसरों पर अक्सर उनके विद्यार्थी भी भाग लेते जो आगे चल
कर बड़े वैज्ञानिक बने। शिक्षा के साथ ही खानपान पर भी उनका विशेष ध्यान रहता था। यह
माँ और शिक्षक के गठजोड़ का ही परिणाम था कि शिक्षा और प्रेममयी संरक्षण साथ-साथ था।
इससे बच्चियों का व्यक्तित्व काफी निखर जिसमें माँ के अथक प्रयासों की छाप थी।
1910 तक आते-आते मैडम क्यूरी ने रेडियोएक्टिविटी और अपने रेडियम
के प्रयोगों को लिपिबद्ध किया। उन्होंने
अपने कार्य को अपने पति पियरे को समर्पित किया। किन्तु वे यहीं पर नहीं रुकी। उन्होंने शुद्ध रेडियम की खोज लगातार जारी रखी
साथ ही उसके परमाणु भार और उसके तौल के लिए भी कार्य किया। उनके कई रिश्तेदार इस अनुसन्धान में सहायक बने। रेडियम को तौलने की प्रक्रिया इतनी शुद्ध थी कि
वैज्ञानिकों और डॉक्टरों की लाइन लग गयी। इसके लिए उन्होंने प्रयोगशाला में ही एक विशेष
प्रबंध कर दिया और एक प्रमाण-पत्र भी देने लगीं। इससे काफी सामाजिक लाभ हुआ। लेकिन काम की अधिकता के कारण उनका स्वास्थ्य
लड़खड़ाने लगा। वास्तव में पियरे की मृत्यु
के बाद उन्होंने काले कपडे अपना लिये थे और अपना ध्यान भी रखना बंद कर दिया था। उन्होंने शोध और घर में खुद को पूरी तरह खपा
दिया था। इसका सीधा प्रभाव उनके स्वास्थ्य
पर पड़ना स्वाभाविक ही था।
तीखी नज़रों के
सामने...
एक स्त्री होने के नाते
उनको उपलब्धियों के साथ सामाजिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ा। ऐसा संभव ही नहीं था कि वैज्ञानिक मैडम क्यूरी
का नाम विवादों से बचा रहे। स्त्री पर सबसे पहला सामाजिक हमला उसकी भावनात्मकता, उसके चरित्र पर
होता था, जो कि दुर्भाग्य
से आज भी सच ही बना हुआ है। उस समय के एक अन्य वैज्ञानिक लांगेविन के साथ उनका नाम
जोड़ा गया। वे उनके साथ जुडी थीं। किन्तु सामाजिक अपमान के लिए लांगेविन की पत्नी
ने कुछ प्रेम पत्रों को अख़बार में छपवा दिया और इस रिश्ते के प्रति काफी आक्रामक
तेवर दिखाए। उनके व्यक्तित्व पर ये काफी
बड़ा हमला था। बात यहीं तक नहीं थमीं। इसी समय उनके गैर-मुल्क के होने की चर्चा भी
गर्म रही तो धार्मिक मामले को भी हवा दी गयी साथ ही मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े
होने का अरोप भी लगा। उनके विरोधियों के द्वारा उन्हें चारों ओर से घेरा जा रहा था।
लेकिन मैडम क्यूरी ने इसका सरल और शांत हल ही चुना। वे अशांत नहीं हुईं और न ही
उन्होंने कोई सफाई दी बल्कि इन समस्याओं से किनारा करते हुए उन्होंने अपने को नए
शोधों में व्यस्त कर दिया और प्रेम को त्याग दिया। यही वह समय भी था जब स्वतंत्र
रूप से उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने ही वाला था।
एक अन्य विवाद तब उभरा जब
अकादमी की सदस्यता को उन्होंने फ़्रांस द्वारा दिए गए सम्मान के रूप में स्वीकार कर
लिया। यहाँ अकादमी चुनाव में उनके विरोध में एक कैथोलिक वैज्ञानिक ने मोर्चा खोल
दिया साथ ही स्त्री के इतने ऊँचे पद पर बैठने का भी विरोध किया। यहाँ देखने योग्य यह बात है कि यूरोपीय विज्ञान
समाज भी स्त्री के प्रति न्याय दृष्टि नहीं रखता था। तार्किकता की अवधारणा के
विपरीत यहाँ पोलिश और यहूदी मूल का विषय बार-बार उठाया गया। कुल मिला कर उन्हें
हरा दिया गया किन्तु इस सशक्त महिला ने उस दिन भी प्रयोगशाला में रोज़ की तरह ही
काम किया। इस अपमान पर उन्होंने कोई ध्यान नही दिया किन्तु समीप ही स्टॉकहोम में
उन्हें पुनः स्वतंत्र रूप से नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा कर दी। इस बार उन्हें रसायनशास्त्र के लिए पुरस्कार
मिला। 1910 ई में उन्होंने
शुद्ध रेडियम को प्राप्त किया जिसे उन्होंने 12 वर्ष पहले एक तत्व के रूप में खोजा था। वर्ष 1911 में उन्हें
स्वतंत्र नोबेल पुरस्कार मिला। लेकिन गर्म विवादों के मध्य उन्हें आयोजन में
शामिल होने का आमंत्रण नहीं दिया गया। इस अपमान को वे सह न सकीं और सख्ती के साथ
वैज्ञानिक और व्यक्तिगत जीवन को अलग-अलग रखने की तीखी बात कहने स्वीडन चलीं गयीं।
उन्होंने वहाँ पियरे को याद किया किन्तु उन्हें तीखी आलोचना ही झेलनी पड़ी। इससे
आहत हुई मैडम क्यूरी टूट गयी बल्कि आत्महत्या के कगार तक पहुँच गयीं। इस समय उनके
विद्यार्थियों और रिश्तेदारों ने खास सहयोग किया जिससे वो इस बुरे समय से तो बाहर
आ गयीं। किन्तु अन्दर से शरीर टूट चुका था।
इसी समय उनके गुर्दे ख़राब होने का भी पता
चला। उनका इलाज हुआ लेकिन वो एक अंतिम घड़ी की ओर जाने लगीं थीं।
जीवन का नया
संस्करण लिखते हुए...
इस अवस्था में देशप्रेम
ने ही उनमें एक नई जान फूंकी। पौलैंड एक बार फिर खड़ा हो रहा था। उसके नागरिकों ने मैडम क्यूरी को याद किया और
क्यूरी ने अपने देश की संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान के विकास के लिए हर संभव प्रयास
के लिए कमर कस ली। उन्होंने पेरिस में ही रहते हुए वर्साय के अकादमी का पद संभाला
और दैनिक गतिविधियों के लिए अपने दो शिष्यों को वहाँ भेज दिया। 1913 में प्रयोगशाला
बन कर तैयार हो गयी। वे इस अवसर पर वर्साय गयीं जहाँ उनके देशवासियों ने उनका भव्य
स्वागत किया। इस आत्मीय यात्रा से मानसिक
रूप ने उन्हें काफी लाभ हुआ। उन्होंने बाद में अन्य कई यात्रायें कीं।
अगले वर्ष सोरबोन
विश्वविद्यालय और लुई पाश्चर संस्थान ने एक अनुबंध के माध्यम से रेडियम संस्थान की
स्थापना की जिसमे एक स्थान पर रेडियोएक्टिविटी और दूसरे स्थान पर जैविक अध्ययन
करने की व्यवस्था की गयी। इसमें से प्रथम संस्थान के निदेशक के रूप में उन्होंने
कार्यभार संभाला। यही मानव इतिहास का वह
वर्ष भी था जब प्रथम विश्व युद्ध आरंभ हुआ। इसका प्रभाव सीधे फ़्रांस पर पड़ा। अपने
अपमान को भूल कर मैडम क्यूरी ने फ़्रांस के लिए अपने जीवन और ज्ञान को समर्पित कर
दिया। युद्ध के सख्त हालात में लगभग तीन वर्ष पश्चात उन्होंने अपने शोध का
व्यावहारिक पक्ष सामने रखा। उन्होंने सैनिकों के इलाज के लिए एक्सरे मशीनों को
बनाया और अस्पतालों में कार्य किये। साथ ही एक्सरे वाहन भी बनाया ताकि वह अपनी
सेवाएँ भिन्न-भिन्न स्थनों पर देते रहें। इस मशीन को मोटर कार के इंजन से बिजली
देने की व्यवस्था भी की गयी। उन्होंने युद्ध के विस्तार को देखते हुए एक्सरे
मशीनों के निर्माण को जरुरी समझा और उसके लिए काफी कार्य किये। वे स्वयं गाड़ी के
साथ भी जातीं थीं। कहीं भी किसी भी समय जब
खबर मिलती फिर वह जितना भी दुर्गम स्थान हो, वो अपने को तैयार कर निकल पड़तीं थीं। ड्राइवर और अस्पताल की
सहायता से तुरंत डार्करूम तैयार करतीं और टेस्ट के बाद अगले स्थान के लिए निकल
पड़तीं। उन्होंने करीब 20 वाहन और 200 से अधिक केंद्र
स्थापित किये। कई बार वे अकेले ही सेवा के लिए निकल जातीं थीं। उन्होंने एक सैनिक-सा जीवन जीना शुरू कर दिया था। युद्ध के समय में ये फ़्रांस की बहुत बड़ी
सेवा थी। इस कर्त्तव्य को निभाते हुए कई
छोटी-बड़ी घटनाएँ हो जातीं थी किन्तु उन्होंने अपने लक्ष्य पर ही ध्यान केन्द्रित
रखा। बेटी आइरीन भी उनकी मदद को आ गयी थी वो भी साथ में कार्य करती और आवश्यकता
होने पर अस्पतालों का दौरा कर आती थी। उन्होंने एक बड़ी संख्या को प्रशिक्षित करने
के लिए रेडियोलोजी पाठ्यक्रम ही आरंभ कर दिया जिसने आगे चल कर बहुत अधिक सेवा की।
इस युद्ध ने फ़्रांस को आर्थिक
तंगी में धकेल दिया। फ़्रांस सरकार
नागरिकों से दान के लिए अपील कर रही थी ऐसे समय में भी मैडम क्यूरी पीछे न रहीं और
बैंक में आभूषण और अपने नोबेल के स्वर्ण मेडल ले कर उपस्थित हो गयीं। किन्तु इस राष्ट्र-गौरव को गलाने के लिए बैंक
तैयार न हुआ। यह मैडम क्यूरी के सशक्त व्यक्तिव को ही दर्शाता है कि वे विश्व के
सबसे बड़े सम्मान को भी राष्ट्र को देने से बिलकुल भी पीछे न हटी। वे कई स्थानों पर
जा–जा कर प्रशिक्षण
कार्य करने लगीं। वे इसके लिए इटली और
बेल्जियम भी गयीं। एक देश के कठिन समय में
एक वैज्ञानिक और शिक्षक क्या कर सकता है? मैडम क्यूरी इसका उदाहरण हैं। फ़्रांस ने पुनः युद्ध में उनके योगदान को देखते
हुए सम्मान ग्रहण करने का निवेदन किया जिसे उन्होंने सहजता से ठुकरा दिया। युद्ध
के पश्चात् उन्होंने संस्थान का कार्य फिर से संभाल लिया। इस बार संस्थान का ध्यान मानव कल्याण के
अनुसन्धान की ओर झुका हुआ अधिक था। उनकी
बड़ी बेटी ने रेडियम के भौतिक पक्ष पर अपना ध्यान केन्द्रित करना आरंभ कर दिया था
जबकि छोटी बेटी संगीत की ओर मुड़ गई थी किन्तु उनके व्यवहार में कभी-भी तुलना का
भाव नहीं आया। उन्होंने सहज रूप से बेटी के फैसले को स्वीकार किया।
इन सबके बाद जीवन के
अंतिम पड़ाव पर मैडम क्यूरी ने ग्रामीण इलाके में एक घर लिया और वहीँ बस गयी। उसी
इलाके में कई वैज्ञानिक और प्रोफेसर भी बस गए। नाविकों और किसानों का छोटा-सा नगर
आकर्षण का केंद्र बन गया। यह समुद्र का किनारा था। खुली हवा और समुद्र की लहरें। मैडम
क्यूरी को प्रकृति से विशेष लगाव था ये उनके यहाँ बसने और बगीचे से जाहिर होता है।
यहाँ नावों की मौजूदगी उन्हें खास आकर्षित करती थी। तट पर वक्त गुज़ारना और समुद्र
में जाना उन्हें पसंद था। फिर भी वे खाली नहीं रहती थीं। किसी विषय को बुनती रहतीं
थीं।
एक अमेरिकी महिला पत्रकार
ने जब उनसे मुलाकात की तो उन्होंने जाना कि अमेरिका में शुद्ध रेडियम की अधिक
मात्रा को प्राप्त किया जा चुका है जबकि वे अभी तक केवल एक ग्राम ही प्राप्त कर
सकीं हैं। उन्हें अपने शोध के लिए एक और ग्राम की आवश्यकता थी। इस आवश्यकता को
अपने साथ ले कर पत्रकार अमेरिका वापस लौट गयी और उसने वहाँ एक कोश की स्थापना करवा
दी जिसने इतना धन एकत्र हो गया जो एक ग्राम के लिए काफी था। किन्तु अमेरिकावासियों
ने मैडम क्यूरी से निवेदन किया कि वह उस एक ग्राम रेडियम को ग्रहण करने अमेरिका
आयें। बेटियों को साथ लाने और कम से कम
भीड़ को एकत्र करने की शर्त को पूरा किया गया। इस तरह वे जीवन में पहली बार किसी औपचारिक
यात्रा पर गयीं। वहाँ उनका भव्य स्वागत
हुआ उनके प्रिय गुलाब के फूल सबके हाथों में उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। हर तरफ अमेरिका, फ़्रांस और पौलैंड के झंडे लहरा रहे थे। उन्हें
व्हाईट हॉउस में राष्ट्रपति द्वारा रेडियम सौपा गया। इस अवसर पर भी वो साधारण
लिबास में ही थीं। उन्हें वहाँ अख़बारों की सुर्ख़ियों में ‘मानव जाति की
सेविका’ के रूप में
संज्ञापित किया गया। इसी तरह काफी समय बाद पौलैंड के रेडियम संस्थान के लिए भी
उन्होंने अमेरिका से ही एक ग्राम रेडियम प्राप्त किया इस समय चल रही मंदी का असर
भी उनकी मांग पर नहीं पड़ा। ये मानव जाति की सामूहिकता और मैडम क्यूरी के प्रति
प्रेम का ही प्रतीक था। अपनी पहली अमेरिकी यात्रा के बाद उन्होंने कई देशों की
यात्रा की। अब उनके व्यवहार में मिलनसार गुण की अधिकता देखी जाने लगी। कई देशों और घरानों से उनके अच्छे सम्बन्ध बन गए।
उन्होंने अपने जीवन में
आर्थिक कष्ट सहा था इसलिए उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छात्रवृति देने की
व्यवस्था की। उन्होंने विज्ञान में आर्थिक महत्व को समझते हुए कॉपीराइट की वकालत
भी की। यह मैडम क्यूरी के जीवन में आये बदलावों का ही नमूना था। उनकी बेटी आइरिन की विज्ञान में विशेष रूचि थी
और वे माँ के साथ रेडियम पर काम भी कर चुकी थी। इसलिए रेडियम संस्थान में उसने
कार्य करना आरंभ कर दिया था। उसी संस्थान में एक जोशीला सहायक जोलियट भी काम करता
था। आइरीन से उसका प्रेम सम्बन्ध हो गया। जब माँ से बात की तो वे सहर्ष सहमत हुईं। एक
सादे समारोह में दोनों का विवाह संपन्न हुआ। वे कुछ दिन साथ रहे फिर अपने नए घर
में चले गए किन्तु वे हमेशा घर आते जाते रहे। उन्होंने एक बेटी को जन्म दिया तो
मैडम क्यूरी को बहुत ख़ुशी हुई। उनका बचपन फिर लौट आया। कहते हैं कि वे कभी लेट
नहीं होती थी किन्तु बच्ची के बाद अक्सर वे लेट हो जातीं थीं, ये उनके जीवन का
सुखद और सुन्दर समय था।
विकिरण से परे
जाना...
जीवन के अंतिम पड़ाव में
मोतियाबिंद ने उन्हें काफी परेशान किया। उन्हें बड़े अक्षरों में लिखना पड़ता था फिर
भी ये योजना लम्बे समय तक न चल सकी। उन्हें काम करने में दिक्कत आने लगी। उनका
ऑपरेशन हुआ किन्तु असफल रहा बल्कि रक्तस्राव के कारण स्थिति और भी ख़राब हो गयी। कई
और भी इलाज हुए पर लाभ न हुआ। किन्तु उनके अंदर मौजूद जिजीविषा ने जीवन के अंत में
भी अधिक से अधिक कार्य करने के लिए उन्हें शक्ति प्रदान की। एक एक्सरे टेस्ट से
पता चला कि पुराने गुर्दे की परेशानी बढ़ गयी है और पथरी भी पड़ गयी है। इसके बाद उन्होंने अपने जीवन को जैसे समेटना
शुरू कर दिया। कुछ व्यक्तिगत सपने भी पूरे करने में जुट गयीं। लेकिन उन्हें एक
यात्रा में ठण्ड लगने के बाद यह माना जाने लगा कि अब उनका अंत समय निकट है किन्तु
अपनी बहन के साथ होने की वजह से वो अचानक ठीक हो गयीं। इसके बाद जब ब्रोंया ने वापसी की तो दोनों बहनों
ने मन ही मन यह मान लिया था कि शायद फिर मुलाकात न हो।
बहन के जाने के बाद वे
फिर प्रयोगशाला जाने लगीं। इससे उनका स्वास्थ्य गिरने लगा जल्द ही असर इतना बढ़ गया
कि बिस्तर से उठना भी मुश्किल हो गया। टी. बी. होने की आशंका ने पहाड़ी की खुली हवा
में जाने का मन बना दिया। वे वहाँ पहुँच गयीं
लेकिन बुखार आ गया। वे अनीमिया की शिकार
थीं। सुबह 4 जुलाई 1934 को पहाड़ों की
तेज़ धूप ने दस्तक तो दी किन्तु मैडम क्यूरी जा चुकीं थी। उनके शरीर को पेरिस लाया
गया जहाँ पति पियरे की कब्र में उन्हें एक सादगी से संपन्न हुए समारोह में दफना
दिया गया। उनके भाई और बहन ने प्रतीक स्वरुप पौलैंड की मिट्टी भी उनकी कब्र में
डाली किन्तु पियरे की ही भांति मैडम क्यूरी के भी अंतिम संस्कार में न तो
राजनीतिज्ञ आये न अधिकारी। न ही कोई व्याख्यान हुआ।
शून्य, जो शुरुआत थी...
मैडम क्यूरी ने न केवल
सेवा और ज्ञान से युक्त जीवन जिया बल्कि उन्होंने एक ऐसी नई पीढ़ी भी खड़ी कर दी
जिसने आगामी रेडियोएक्टिविटी के अनुसंधानों को आगे बढाया। उनकी बेटी आइरीन ने अपने
पति के साथ मिल कर कृत्रिम रेडियोएक्टिविटी से युक्त तत्वों को बनाने में सफलता
हासिल की। अगले ही वर्ष 1935 में उन्हें
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। आइरिन ने अपने माता-पिता का कार्य आगे बढाया। 1991 में इसी संस्था
के एक और सदस्य को भी नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। मैडम क्यूरी
द्वारा स्थापित संस्थान आज भी सफलतापूर्वक कार्य कर रहे हैं।
मैडम क्यूरी न केवल
प्रयोगशाला की सफल वैज्ञानिक थी अपितु आवश्यकता पड़ने पर अपनी योग्यता का उन्होंने
मानव कल्याण की दिशा में प्रयोग करते हुए राष्ट्र व मानव विकास संबंधी अपनी
जिम्मेदारियों का भी कुशलता से निर्वहन किया। वे उन कुछ वैज्ञानिकों में से थी, जिनकी मृत्यु का
प्रमुख कारण उनका शोध ही रहा। फिर भी इसकी
परवाह न करते हुए उन्होंने विज्ञान में महत्वपूर्ण कार्य किये। हजारों स्त्रियों
की प्रेरणा बन कर उन्होंने अब तक सिर्फ पुरुषों के समझे जाने वाले क्षेत्रों को न
केवल सफलतापूर्वक विजित किया बल्कि उसे स्त्री समाज के लिए पूरी तरह से खोल दिया। उन्होंने
विकिरण युग को जन्म दिया। ये उनके ही प्रयासों का फल है कि आज हम रेडियोथेरेपी में
कोबाल्ट तक का सफ़र तय कर चुके हैं। उन्हें मानव-ज्ञान का इतिहास सदा स्मरण करता
रहेगा।
[साभार: मैडम क्यूरी, पुस्तक लेखक- विनोद कुमार मिश्र, प्रकाशन- प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली]
स्वाती ठाकुर |
सम्पर्क -
मोबाईल - 09958501193
(मैडम क्यूरी के सभी चित्र गूगल के सौजन्य से.)
बेहतरीन आलेख
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