नताशा की कविताएँ
नताशा |
परिचय
जन्म - 22 जुलाई 1982 (बिहार)
शिक्षा – एम. ए. हिन्दी साहित्य, (पटना वि.वि.) बी. एड रचनाएं
प्रकाशन -कथादेश, पाखी वागर्थ, पुनर्नवा, अलाव, गुंजन, संयोग-साहित्य, संवदिया, जनपथ, साहित्य अमृत, सृजन-लोक, हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, प्रकाशित दूरदर्शन तथा आकाशवाणी से रचनाएं प्रसारित
नताशा उम्मीद की कवयित्री हैं. वे जानती हैं कि इस उम्मीद के भविष्य को हमें न केवल प्रोत्साहित करना होगा बल्कि हमें उसे उस नकारात्मकता से भी बचाना होगा जो अन्ततः इस सृष्टि के लिए विनाशकारी है. यह काम हम सब को ही करना है. इसीलिए वे अपनी के कविता में लिखती हैं - 'मेरे बच्चे/ हम सिखाएंगे तुम्हें/ सुन्दर, कोमल और चमकदार की परिभाषा/ कभी नहीं बताएंगे तुम्हें/ बम, बारूद और अफीमों के बारे में.' नताशा की रचनाओं में अब एक सुस्पष्ट परिपक्वता दिखाई पड़ने लगी है. इन कविताओं को पढ़ते हुए हमें यह सहज ही अहसास होता है. तो आइए पहली बार पर आज पढ़ते हैं नताशा की कविताएँ.
नताशा की कविताएँ
नागफनी
प्रकृति गिरोहबंदी नहीं करती
पर अपवाद भी एक सच है
नागफनी
रोका गया जिसके हिस्से का जल
पर रोकी न जा सकी सख्ती जड़ों की
संभव है यह इतिहास के लिए दो विपरीत बातें होंगी.
उसकी जड़ें वहाँ जमी
जहाँ मिट्टी नहीं थी
पानी भी नहीं था
हवाएं भी गिरोहबंदी के पक्ष में थीं
बही भी
तो रेत की नदियां बहा गई!
भौगोलिक दीवारों की ओट से
कुछ आंखे विस्फारित हुईं
कुछ होंठ फुसफुसाए
अरे!
'यह तो रेगिस्तान का गुलाब है'
और दीवारें ऊंची कर दी गई
विद्रोह
जो कांटा बन कर उभरा था उसकी देह पर
इस शोक गीत से बाहर आना चाहता है
कि जब कभी चर्चा के केंद्र में होगी नागफनी
उसकी नोंकदार पंखुड़ियों से ज्यादा
शोध का विषय होगा
उसका हरापन!
नींद
नींद किसी रोते हुए बच्चे की आंखों में जा छुपी है
हां नींद, तुम वहीं रहो
बस देखने दो मुझे उसके गालों की सूखी हुई लकीर
और मुझे शर्मिंदा होने दो अपनी कविता पर
हम रचेंगे
खूब रचेंगे दुख
क्योंकि हमारे पास
सुख की ढेरों कहानियाँ हैं
नींद की गलियों में
जिन्न और परियां हैं
मेरे बच्चे
हम सिखाएंगे तुम्हें
सुंदर, कोमल और चमकदार की परिभाषा
कभी नहीं बताएंगे तुम्हें
बम, बारूद और अफीमों के बारे में
इस क्षमा के साथ
कि एक दिन तुम
उन्हीं के हवाले कर दिए जाओगे!
सुनो चिडिया
यह सच नहीं है
कि आसपास केवल बहेलिए हैं
इस भय को पंखों में दबाए
मत छिपी फिरो
उड़ो
किसी महासागर के उपर से
और उस वक्त
पंखों को पूरा खोल देना
उस खारे जल में कर देना विसर्जित
अपनी तमाम कुंठाएं
सुनो
एक ही सच है
कि आकाश बहुत बडा़ है!
प्रेम और घृणा
तुम भेजना प्रेम
बार-बार भेजना
भले ही मैं वापस कर दूं
लौटेगा प्रेम ही तुम्हारे पास
पर मत भेजना कभी घृणा
घृणा बंद कर देती है दरवाजे
अंधेरे में कैद कर लेती है
हम प्रेम संजो नहीं पाते
और घृणा पाल बैठते हैं
हम प्रेम के बदले
न भी लौटा पाए प्रेम
तो लौटा सकते हैं
इन्कार
चुप्पी
बेबसी
लेकिन घृणा के बदले
लौटेगी केवल घृणा
प्रेम अपरिभाषित ही सही
लेकिन घृणा
परिभाषा से भी ज्यादा कट्टर होती है!
जो है यही है
हम तय कर रहे थे प्रेम का अंतहीन सफर
एक एक सीढ़ियां चढ रहे थे
वहाँ तक के लिए
जिसकी अंतिम कोई सीढ़ी नहीं थी
सुना है प्रेम उंचाईयों में ही विस्तार पाता है
प्रेम में बहुत कुछ टूटता भी है
छूट भी जाता है हाथों में आते-आते
मुझे टूटे और छूटे हुए में से
उस खुरचन को रख लेना है
जो सीढियों की सतहों से खुरच कर
मेरे विस्तार का आकाश बन रहा है.
मैं आकर्षण की अंतिम तह तक जाना चाहती हूं
देखना चाहती हूं उसके प्रस्थान बिंदु को
नक्काशियों के पीछे का खुरदुरापन होगा वहीं कहीं
ध्वंस का वर्जित इलाका भी
प्रकारांतर रास्तों से हो कर भी
प्रेमी प्रेम तक ही पहुंचते हैं
मैं जानती हूँ
वहीं किसी के मलबे की कोख में
हमारे प्रेम का भ्रूण लेगा आकार
जब धसेंगे शब्द मेरे भीतर तुम्हारे
निकलोगे वहीं से तुम नया अर्थ
ले कर!
प्रकृति गिरोहबंदी नहीं करती
पर अपवाद भी एक सच है
नागफनी
रोका गया जिसके हिस्से का जल
पर रोकी न जा सकी सख्ती जड़ों की
संभव है यह इतिहास के लिए दो विपरीत बातें होंगी.
उसकी जड़ें वहाँ जमी
जहाँ मिट्टी नहीं थी
पानी भी नहीं था
हवाएं भी गिरोहबंदी के पक्ष में थीं
बही भी
तो रेत की नदियां बहा गई!
भौगोलिक दीवारों की ओट से
कुछ आंखे विस्फारित हुईं
कुछ होंठ फुसफुसाए
अरे!
'यह तो रेगिस्तान का गुलाब है'
और दीवारें ऊंची कर दी गई
विद्रोह
जो कांटा बन कर उभरा था उसकी देह पर
इस शोक गीत से बाहर आना चाहता है
कि जब कभी चर्चा के केंद्र में होगी नागफनी
उसकी नोंकदार पंखुड़ियों से ज्यादा
शोध का विषय होगा
उसका हरापन!
नींद
नींद किसी रोते हुए बच्चे की आंखों में जा छुपी है
हां नींद, तुम वहीं रहो
बस देखने दो मुझे उसके गालों की सूखी हुई लकीर
और मुझे शर्मिंदा होने दो अपनी कविता पर
हम रचेंगे
खूब रचेंगे दुख
क्योंकि हमारे पास
सुख की ढेरों कहानियाँ हैं
नींद की गलियों में
जिन्न और परियां हैं
मेरे बच्चे
हम सिखाएंगे तुम्हें
सुंदर, कोमल और चमकदार की परिभाषा
कभी नहीं बताएंगे तुम्हें
बम, बारूद और अफीमों के बारे में
इस क्षमा के साथ
कि एक दिन तुम
उन्हीं के हवाले कर दिए जाओगे!
सुनो चिडिया
यह सच नहीं है
कि आसपास केवल बहेलिए हैं
इस भय को पंखों में दबाए
मत छिपी फिरो
उड़ो
किसी महासागर के उपर से
और उस वक्त
पंखों को पूरा खोल देना
उस खारे जल में कर देना विसर्जित
अपनी तमाम कुंठाएं
सुनो
एक ही सच है
कि आकाश बहुत बडा़ है!
प्रेम और घृणा
तुम भेजना प्रेम
बार-बार भेजना
भले ही मैं वापस कर दूं
लौटेगा प्रेम ही तुम्हारे पास
पर मत भेजना कभी घृणा
घृणा बंद कर देती है दरवाजे
अंधेरे में कैद कर लेती है
हम प्रेम संजो नहीं पाते
और घृणा पाल बैठते हैं
हम प्रेम के बदले
न भी लौटा पाए प्रेम
तो लौटा सकते हैं
इन्कार
चुप्पी
बेबसी
लेकिन घृणा के बदले
लौटेगी केवल घृणा
प्रेम अपरिभाषित ही सही
लेकिन घृणा
परिभाषा से भी ज्यादा कट्टर होती है!
जो है यही है
हम तय कर रहे थे प्रेम का अंतहीन सफर
एक एक सीढ़ियां चढ रहे थे
वहाँ तक के लिए
जिसकी अंतिम कोई सीढ़ी नहीं थी
सुना है प्रेम उंचाईयों में ही विस्तार पाता है
प्रेम में बहुत कुछ टूटता भी है
छूट भी जाता है हाथों में आते-आते
मुझे टूटे और छूटे हुए में से
उस खुरचन को रख लेना है
जो सीढियों की सतहों से खुरच कर
मेरे विस्तार का आकाश बन रहा है.
मैं आकर्षण की अंतिम तह तक जाना चाहती हूं
देखना चाहती हूं उसके प्रस्थान बिंदु को
नक्काशियों के पीछे का खुरदुरापन होगा वहीं कहीं
ध्वंस का वर्जित इलाका भी
प्रकारांतर रास्तों से हो कर भी
प्रेमी प्रेम तक ही पहुंचते हैं
मैं जानती हूँ
वहीं किसी के मलबे की कोख में
हमारे प्रेम का भ्रूण लेगा आकार
जब धसेंगे शब्द मेरे भीतर तुम्हारे
निकलोगे वहीं से तुम नया अर्थ
ले कर!
एकांत के सहचर -1
एकांत के सहचर भीड़ में गुम जाते हैं
नहीं होती उन्हें जरूरत
धूप हवा पानी की
द्रुत उच्छवास में
रेत की किरकिरी सी
झरने लगती हैं मृत जुगनुएं
फिर रह जाता है विलंबित अंतराल
अंधेरे के उत्सव के बाद
यूँ दम तोड़ता है देह - राग!
7.एकांत के सहचर -2
मृत जुगनुओं के गिरने के बाद
रात अपने अंगूठे के सिरे से
नींद को खींच माथे लगाती है
किसी टूट चुके वादे की मानिंद
शर्मिंदा सी रात मुँह ढांप लेती है
स्मृतियों के लंबे हाथों का
उढ़की हुई अतीत की किवाड़ तक पहुंचना
राख में दबी हुई चिंगारी से उलझना है
गैर जरूरी दराजों की बहुत पुरानी आवाज़ से
काँपता है कोई सिरा
जैसे गांठ बांधनी रह गई हो
विस्मृत हुई हो
बहुत पुरानी कोई पगडंडी
जिसकी देह पर
वर्षों से कोई धुन नहीं रची गई
और भटकी हुई
किसी रेल के मृत शवों का
इल्ज़ाम ढो रही हो!
गुजा़रिश
प्रेम मत करना नये कपडे़ की तरह
कि घिरा रहे हर वक्त गंदगी के भय से
जिस चौकन्नेपन से वह देह को घेरे रहता है
और घर की देहरी में लौटते ही
हाथ बेचैनी से बटन तक पहुंच जाते हैं
करना
घरेलू कपडे़ के सूत की मानिंद
जो देह को अच्छी तरह पहचानता हो
घर्षण की लय में
रोमावलियों को लपेट लेता हो
प्रेम में छप्पन व्यंजनों वाले भोग के
स्वाद से बचना
कि उंगलियां रहें तब भी उधेड़बुन में
जब वह दुनिया का सबसे जरूरी
काम कर रही हों
करना वैसे
कि मान से मिले जगह
थाल में हर प्रकार को
और व्यंजन यह भांप ले
किस कौर में पहुंचेगी वह जिह्वा तक
प्रेम करना वैसे
जैसे गले से उतरती है गर्म घूंट
सर्दियों में
पहुंचती हो उसकी भांप देह के हर पोर तक
प्रेम में आंच थोड़ी कम हो
तो बढ़ता ही है ताप
प्रेम ज्यादा चढे़ परवान
तो उतरना ही शेष रह जाता है.
पहला प्रेम
उम्र की महसूस होने वाली
वह पहली हवा थी
उस हवा की नरमाई
झाड़ झंखारों के लिए नहीं थी
पेड़ों की जड़ों
और टहनियों के लिए भी नहीं
न थी वह हवा
किसी बूढे पीपल की ज़मीन छूती
अड़ी हुई लटों के लिए
वह हवा चली
केवल उस पत्ती के लिए
जिसने कोंपलों के बीच जगह बना लिया था
जो अपनी अंगड़ाईयों के नये अर्थ गढ़ रही थी
किसी देश पर बम गिरने की खबर जैसा
गिरा था आंगन में प्रेम - पत्र
और अंगारों की जगह बरसने लगे थे फूल
अप्रत्याशित गंध से उमग उठी थी
श्वास
वह प्रेम कर रही थी
जैसे युग बदल रहा था!
एकांत के सहचर भीड़ में गुम जाते हैं
नहीं होती उन्हें जरूरत
धूप हवा पानी की
द्रुत उच्छवास में
रेत की किरकिरी सी
झरने लगती हैं मृत जुगनुएं
फिर रह जाता है विलंबित अंतराल
अंधेरे के उत्सव के बाद
यूँ दम तोड़ता है देह - राग!
7.एकांत के सहचर -2
मृत जुगनुओं के गिरने के बाद
रात अपने अंगूठे के सिरे से
नींद को खींच माथे लगाती है
किसी टूट चुके वादे की मानिंद
शर्मिंदा सी रात मुँह ढांप लेती है
स्मृतियों के लंबे हाथों का
उढ़की हुई अतीत की किवाड़ तक पहुंचना
राख में दबी हुई चिंगारी से उलझना है
गैर जरूरी दराजों की बहुत पुरानी आवाज़ से
काँपता है कोई सिरा
जैसे गांठ बांधनी रह गई हो
विस्मृत हुई हो
बहुत पुरानी कोई पगडंडी
जिसकी देह पर
वर्षों से कोई धुन नहीं रची गई
और भटकी हुई
किसी रेल के मृत शवों का
इल्ज़ाम ढो रही हो!
गुजा़रिश
प्रेम मत करना नये कपडे़ की तरह
कि घिरा रहे हर वक्त गंदगी के भय से
जिस चौकन्नेपन से वह देह को घेरे रहता है
और घर की देहरी में लौटते ही
हाथ बेचैनी से बटन तक पहुंच जाते हैं
करना
घरेलू कपडे़ के सूत की मानिंद
जो देह को अच्छी तरह पहचानता हो
घर्षण की लय में
रोमावलियों को लपेट लेता हो
प्रेम में छप्पन व्यंजनों वाले भोग के
स्वाद से बचना
कि उंगलियां रहें तब भी उधेड़बुन में
जब वह दुनिया का सबसे जरूरी
काम कर रही हों
करना वैसे
कि मान से मिले जगह
थाल में हर प्रकार को
और व्यंजन यह भांप ले
किस कौर में पहुंचेगी वह जिह्वा तक
प्रेम करना वैसे
जैसे गले से उतरती है गर्म घूंट
सर्दियों में
पहुंचती हो उसकी भांप देह के हर पोर तक
प्रेम में आंच थोड़ी कम हो
तो बढ़ता ही है ताप
प्रेम ज्यादा चढे़ परवान
तो उतरना ही शेष रह जाता है.
पहला प्रेम
उम्र की महसूस होने वाली
वह पहली हवा थी
उस हवा की नरमाई
झाड़ झंखारों के लिए नहीं थी
पेड़ों की जड़ों
और टहनियों के लिए भी नहीं
न थी वह हवा
किसी बूढे पीपल की ज़मीन छूती
अड़ी हुई लटों के लिए
वह हवा चली
केवल उस पत्ती के लिए
जिसने कोंपलों के बीच जगह बना लिया था
जो अपनी अंगड़ाईयों के नये अर्थ गढ़ रही थी
किसी देश पर बम गिरने की खबर जैसा
गिरा था आंगन में प्रेम - पत्र
और अंगारों की जगह बरसने लगे थे फूल
अप्रत्याशित गंध से उमग उठी थी
श्वास
वह प्रेम कर रही थी
जैसे युग बदल रहा था!
इनकार
तब कितना भयानक होगा
जब एक अंगुली
दूसरी की पहचान कर दे खारिज
और मुट्ठी बांधने के मुद्दे से हो जाए लापरवाह
उससे भी भयानक शायद तब
जब एक आंख
तय करे अपनी अलग दिशा
और छो़ड दे साथ दूसरे का
आपको क्या नहीं लगता
कि यह भी एक भयानक स्थिति होगी
कि जीभ के चारों तरफ के दांत
चबाना समझ लें फिज़ूल काम
और उदर की पूर्ति के लिए
निगल जाना ही बेहतर समझे
क्या कहा आपने
एक हाथ दूसरे से अलग भी रहे
तो फर्क नहीं पड़ता
पर सोचा जा सकता है
कि सबसे जरूरी वक्त में सुख को समेटना
और दुख में थामना
अपनों को क्या संभव हो पाएगा
चलिए यह सब होना भयानक तो होगा
लेकिन मुझे लगता है तब शायद
उससे भी भयानक होगा यह
जब पीठ से टिकी रहे पीठ
और ओंठ से लिपटे रहें ओंठ
दूसरी तरफ आंखे सुदूर
अलग अलग दिशाओं में
टंगी रहे तृष्णा में,
फिर शायद नहीं रह जाए जरूरत
उंगलियों को उंगलियों की
न बाहों को बांहों की
तब जीभ भी भूल चुके होंगे स्वाद
और हो सकता है
दांतों का प्रहार बढ जाए इतना
कि लहूलुहान हो जाए
इस बावत बचानी है हर पहचान
यह जरूरी है
उतना ही जरूरी
जितना हमारा अस्तित्व!
तब कितना भयानक होगा
जब एक अंगुली
दूसरी की पहचान कर दे खारिज
और मुट्ठी बांधने के मुद्दे से हो जाए लापरवाह
उससे भी भयानक शायद तब
जब एक आंख
तय करे अपनी अलग दिशा
और छो़ड दे साथ दूसरे का
आपको क्या नहीं लगता
कि यह भी एक भयानक स्थिति होगी
कि जीभ के चारों तरफ के दांत
चबाना समझ लें फिज़ूल काम
और उदर की पूर्ति के लिए
निगल जाना ही बेहतर समझे
क्या कहा आपने
एक हाथ दूसरे से अलग भी रहे
तो फर्क नहीं पड़ता
पर सोचा जा सकता है
कि सबसे जरूरी वक्त में सुख को समेटना
और दुख में थामना
अपनों को क्या संभव हो पाएगा
चलिए यह सब होना भयानक तो होगा
लेकिन मुझे लगता है तब शायद
उससे भी भयानक होगा यह
जब पीठ से टिकी रहे पीठ
और ओंठ से लिपटे रहें ओंठ
दूसरी तरफ आंखे सुदूर
अलग अलग दिशाओं में
टंगी रहे तृष्णा में,
फिर शायद नहीं रह जाए जरूरत
उंगलियों को उंगलियों की
न बाहों को बांहों की
तब जीभ भी भूल चुके होंगे स्वाद
और हो सकता है
दांतों का प्रहार बढ जाए इतना
कि लहूलुहान हो जाए
इस बावत बचानी है हर पहचान
यह जरूरी है
उतना ही जरूरी
जितना हमारा अस्तित्व!
संप्रति -
अध्यापिका एवं पटना दूरदर्शन के साहित्यिकी कार्यक्रम में संचालिका
मोबाईल - 09955140065
ई - मेल - vatsasnehal@gmail.co
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)
अद्भुत !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविताएँ।कविताओं में जीवन की सुक्ष्म संवेदनाएँ बहुत खूबसूरती के साथ उभर आई हैं।नताशा जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंNataasha ji ko pahli baar padha. Bahut achchha likhti hain. Sabhi kavitain pasnd aayi. Bhaav , Vichaar aur Shilp Ka achchha sangam hai .... Badhai va Shubhkaamnayen!! Aabhaar Bhai Santosh ji .
जवाब देंहटाएं- Kamal Jeet Choudhary
बहुत दिनों के बाद इतनी प्रभावशाली कविताएँ पढ़ने को मिली.....
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों के बाद इतनी प्रभावशाली कविताएँ पढ़ने को मिली.....
जवाब देंहटाएं