वन्दना वाजपेयी की कविताएँ
जन्म :२० मई वाराणसी  
शिक्षा : M.Sc (जेनेटिक्स ),B.Ed (कानपुर यूनिवर्सिटी )
अभिरुचि: लेखन, चित्रकला, अध्ययन , बागवानी 
सम्प्रति: अध्यापन, "गाथांतर" का सह संपादन 
विभिन पत्र -पत्रिकाओं में कहानियाँ, लेख, कवितायें आदि प्रकाशित हो चुकी हैं
कुछ का नेपाली में  अनुवाद हो चुका है
आत्मकथ्य :
अपने
 बारे में कुछ लिखना बड़ा ही असाध्य काम है फिर भी अगर पलट कर देखती हूँ तो 
...........यह आज भी मेरे लिए यह  एक प्रश्न ही है  कि वो कौन सी बैचैनी थी
 जिसने  ९-१० साल की उम्र् में मुझसे अपनी पहली कविता लिखवा दी,क्यों
 समाज़ की विसंगतियां मुझे कुछ लिखने को विवश कर देती थी,बहुधा यह काम निजी 
डायरियों तक ही सीमित रहा ,वस्तुत : कवि बनने के बारे में कभी मैंने सोचा 
नहीं था, कविता मेरे लिए  मात्र एक जरिया रहा  है समाज के विभिन्न वर्गों 
समुदायों और लोगों के मन को पढने का  और उस पीड़ा को अभिव्यक्त करने 
का............कभी -कभी मुझे लगता था मेरा व्यक्तित्व विरोधाभासी है 
विज्ञानं का गहन अध्यन और साहित्य से बेचैन कर देने की हद तक प्रेम ., उम्र 
बढ़ने के साथ यह दुविधा भी दूर हो गयी जब समझ आ गया........ दोनों ही 
अन्वेषण  हैं, एक प्रकृति के नियमों का दूसरा मन के नियमों का या यूँ कह 
सकते हैं विज्ञान प्रकृति का साहित्य है, और साहित्य मन का विज्ञान 
....अब तक जो कुछ लिखा है वो इसी खोज के दौरान लिखा है.   
मेरी
 दृष्टि में मेरी परिभाषा :मुझे लगता है मैं वो चिड़िया हूँ जिसने एक लम्बी 
रात भोर की प्रतीक्षा में काटी है, जो सुबह की पहली किरण के साथ अपने पंख 
फैला कर थोडा दूर आसमान में उड़ना चाहती है इस विश्वास के साथ कि जब वो सांझ
 को घर लौटेगी तो नीड पर उसका घोसला, उसके बच्चों की चहचहाहट के साथ उसका
 स्वागत करेगा  
 
वन्दना वाजपेयी की कविताएँ  
कूड़े की
संस्कृति 
चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद
बड़े
भाग मानुस तन पावा पर 
प्रश्नचिन्ह
लगाते हुए
खोली
थी उसने आँख
अस्पताल
के ठीक पीछे बने 
कूड़ा
घर में 
जहाँ
आस-पास, इधर-उधर 
बिखरा
पड़ा था 
"कूड़ा ही कूड़ा"
जबरन
खीच कर निकाले गए  कन्या भ्रूण 
कुछ
सीरिंज, प्लास्टिक की बोतलें 
पोलिथीन
बैग्स 
अपशिष्ट
पदार्थ 
जो
भींच कर ह्रदय से लगा लेना चाहते थे उसे 
छलक
आई थी ममता 
जैसे
हो वो उसकी संतान
यही
कूड़े की संस्कृति है
(२)
नन्हीं-नन्हीं
आँखें 
टुकुर-टुकुर
ताक रही थी 
अपने
चारों ओर 
नाक
पर रूमाल रख कर खड़ी 
पत्रकारों
की भीड 
जिनके
लिए थी वो एक खबर 
दिल्ली
के एक प्रसिद्ध अस्पताल के बाहर कूड़े में फेंकी गयी बच्ची 
समाज
का विद्रूप चेहरा.......... "दोषी कौन"
इस
खबर के छपने से मिले पैसों से शायद कोई लाये 
पत्नी
के लिए साडी 
बेटे
की किताबें 
या
चुकाये पंसारी का बिल 
वहीँ
बड़े-बड़े कैमरे थामे 
तमाम
चैनल वाले 
जो
दिन भर उसका चेहरा टीवी पर दिखायेंगे 
कई
छोटे-बड़े नेताओं के बीच चलेगी बहस 
वामपंथ, दक्षिण पंथ
चरमपंथ गरमपंथ के बीच 
चलेगी
गर्मागर्म बहस 
बंद
करो वैलेंटाइन डे 
लिव
इन का नतीज़ा है "कूड़े में फेंकी गयी बच्ची"
नहीं
……औरतों पर
अत्याचार, धोखा फरेब का नतीजा 
या
सामंतवादी सोच 
जिसमे
एक माँ विवश है अपनी कन्या संतान को
कूड़े
में फेंकने के लिए 
सब
एयर कंडीशन स्टूडियो में बैठ चिल्लाने वाले 
प्रतीक्षा
करेंगे, शायद .......... 
शायद
किसी बड़े नेता की दृष्टि उन पर पड जाये 
या
अगले चुनाव का टिकट मिल जाए 
बीच-बीच
में विज्ञापन कम्पनियां परोस देंगी विज्ञापन 
लो
कलोरी डाईट के 
फेयरनेस क्रीम के और डिओडोरेंट के 
इन
सब से बेखबर 
कहाँ
जानती है 
माँ
के दूध के लिए बिलबिलाती 
वो
मासूम सी बच्ची 
कूड़े
में कूड़े की तरह पड़ी 
कि
वो पाल रही है "कितनों के पेट"
यही
कूड़े की संस्कृति है 
(३)
उसके जन्म को महापाप घोषित करने वाले 
पुजारी, मौलवी,
पादरी 
अपने-अपने
"ईश्वर-आलयों" में बैठ 
करेंगे
सर-फुटव्वल 
उनके
धर्म का एक सदस्य कहीं कम न हो जाये 
ओवरटाइम
का बहाना बना 
"रेड
लाइट एरिआ" में जाने वाला ननकू 
टी
वी के सामने पापड चबाते हुए 
कोसेगा पूरी
आदमजात को 
बगल
में भिन्डी काटती उसकी पत्नी 
देगी
ईश्वर को धन्यवाद कि 
उसका
पति "ऐसा नहीं है"
१०
बरस से सूनी कोख का दर्द भोगती सुधा 
कातर
दृष्टि से देखेगी सास को 
जो
न, न, ना सोचियो भी ना कहकर 
खून
के वैज्ञानिक
वर्गीकरण झुठलाते हुए 
घोषित
कर देगी उसे "गंदा खून"
सुबह
की सुर्खियाँ बनी वो बच्ची 
शाम
तक भुला दी जायेगी पुराने अखबार की तरह 
जानती
थी शायद जन्मदात्री माँ "इंसानी फितरत को"
इसीलिए
तो फेंक गयी थी कूड़े में 
की
लोग चीखेंगे-चिल्लायेंगे 
कोई
पालेगा नहीं उसे 
पर
कूड़ा .......... पाल ही लेता है कूड़े को 
यही
कूड़े की संस्कृति है 
(४)
सही है! सब फेंक देते हैं कूड़े को घर के बाहर
पर
कूड़ा कभी नहीं फेंकता किसी को 
समां
ही लेता है अपने अन्दर 
हर
कीच हर गंदगी 
हर
पाप, हर पुन्य 
मिल
ही गया था उसे एक घर 
कूड़े
के पास 
किसी
झुग्गी में
जहाँ
कूड़े को बीन-बीन कर खायी जाती थी रोटी 
गोल-गोल 
बिलकुल
आम घरों की तरह 
भर
ही जाता था पेट 
पर
अपरिचित ही रहता 
डकार
का स्वाद
शाम
को खेला जाता -मनपसंद खेल 
बजबजाते
सीवर में 
धागे
के साथ चुम्बक डाल कर खोजे जाते थे सिक्के 
जो
तथाकथित साफ़ खून वालों की 
गंदगी
के साथ समा गए थे नालियों में 
यह
चंद सिक्के ला देते मुस्कराहट
बेतरतीब
बाल और मैले-कुचैले कपड़ों में  
कूड़े
के साथ कूड़े की तरह बढ़ते इन बच्चों में 
यही
कूड़े की संस्कृति है 
(५)
एक
दिन आ ही गया उधर 
कूड़े
का व्यापारी 
गली-गली
घुमते हुए 
जिसकी
तेज पारखी निगाहें
जानती
थी 
खर-पतवार
की तरह बढ़ते हुए 
कूड़े
को भी 
बांटा
जा सकता है  
लिंग
के आधार पर 
कि
बड़े-बड़े बंगलों, महलों से ले कर 
रिक्शे
वाले, खोमचे वाले तक है 
कूड़े
के खरीदार 
हाँ!
बन कर पहली पसंद 
चल
दी थी उस व्यापारी के साथ 
अबोध
तरह वर्ष पुराने 
कूड़े
की बिटिया 
अनभिज्ञ, अनजान सी 
कि
कूड़े की भी लगती हैं बोलियाँ 
कुछ
ज्यामिति आकारों के
आधार
पर 
कूड़े
के दामों में भी आता है 
उतार-चढाव 
सफ़ेद
और काले रंग से 
कच्ची
और पक्की उम्र से 
यही
 कूड़े की संस्कृति है 
(६)
अब
हो गयी थी उसकी उन्नति 
कूड़े
से बन गयी थी कूड़ा घर 
जो
निगलती थी रोज 
अपशिष्ट
पदार्थ
जलती
थी हर रात 
अपनी
चिता में 
दफ़न
करती थी 
अपने
मानवीय अधिकारों को, अरमानों को  
हर
सुबह सूर्य की लालिमा में 
जानती
थी 
दफनाया
या जलाया जाना ही 
कूड़े
का प्रारब्ध है 
अक्सर
इस कूड़े को खाकर 
बढ़
जाता था उसका उदर 
आने
लगती थी डकार 
मिचलाता
था जी 
और
बढ़ जाता था थोडा सा कूड़ा 
किसी
मंदिर मस्जिद के प्रांगण में 
किसी
गटर के पास 
किसी
निर्जन स्थान में 
या
किसी अस्पताल के पीछे 
चाहे
कुछ भी कर लो 
कूड़ा
कूड़े को जन्म देता ही है 
यही
कूड़े की संस्कृति है 
(७)
कब
समझेंगे यह सफ़ेद पोश 
जो
बड़े-बड़े बंगलों में 
आलीशान
मकानों में बैठे हैं 
जरा
रुके, ठहरे 
अब
भी चेत जाये 
की
उनका क्षणिक उन्माद 
जन्म
देता रहा है 
जन्म
देता रहेगा 
कूड़े
को 
और
कूड़ा कभी घटता नहीं है 
वह
बढ़ता जाता  है 
दिन
दूना-रात चौगुना 
इतना
इस कदर 
लीलने
लगता है सुख-शांति को
चबा
डालता है सभ्यताओं को 
इसके
नीचे दब कर मर जाते है मानवीय अधिकार   
आने
लगती है सडांध 
मरे
हुए जिस्मों की जिन्दा रूहों से  
२.कुछ तो
टूटा होगा मेरे अन्दर 
कुछ तो टूटा होगा मेरे अंदर
कुछ तो टूटा होगा मेरे अंदर
कम  या
ज्यादा
जब
सिकुड़ गयी थी मैं
माँ
के गर्भ में
सुनकर
सबके ताने,
और
माँ की सिसकियाँ
यह
जान कर
कि
नहीं है कोई परिवार में उत्सुक
कन्या
ऊपर कन्या की
आगवानी
को
जब
मेरे जन्म पर
छाया
रहा मातम
नहीं
पीटी गयी थालियाँ
न
गाये गए सोहर गीत
न
बधाईयाँ न मिठाइयां
जोत
दी गयी थी माँ
घर
के काम में
ठीक
पंद्रह दिन बाद
जब
दादी भाई की थाली में
मुझसे
छुपा कर 
घी
का लड्डू रख कहती
तू
खा ले
तुझे
वंश चलना है
छुटकी
को न देना
उसे
तो पराये घर जाना है
जब
किशोरावस्था में
समाज
की
अंदर तक बेध जाने वाली नज़रों से
छींटाकसी
और फब्तियों से
हर
रोज़ जूझते हुए
जारी
रखी थी यात्रा
अज्ञान
के अंधेरों के खिलाफ 
जब
मेरे आंसुओं और  मिन्नतों
को
दरकिनार
कर
रोक
दिया गया था मेरी शिक्षा का विजय–रथ
क्योकि
मुझे
बोझ मानने वाले पिता के लिए
ज्यादा
जरूरी था
मुझे
परगोत्री कर  
मुझसे उऋण हो
गंगा
नहाना
जब
ससुराल के प्रथम दिवस
मेरी
शिक्षा संस्कार विनम्रता को
नज़रअंदाज़
कर
कदम-कदम पर
तौली
जा रही थी मेरी औकात
मेरे
पिता द्वारा दिए गए
दहेज
के तराज़ू पर
जब
अपने अरमानों की भस्म से
सजाया
था तुम्हारा घर
घूँघट
में कैद दो आँखें
सीमित
कर दी गयी थी
आँगन
की तुलसी तक
मंदिर
के दीपक तक
आटे
की लोइयों तक
जब
जबरन
मेरी
कोख की कन्या को
टुकड़े-टुकड़े कर
निंकला
गया होगा खींच कर
मेरी
ममता को, मेरी
चीखों को
परिवार
की
वंश
की इच्छा के आगे
नज़र
अंदाज करके
जब
मेरी मृत्यु के बाद
मेरे
दाह-संस्कार में
मुझे
इन्सान माने बिना
सुहागन
या विधवा के हिसाब से
मिल
रहा होगा सम्मान
या
अपमान
जन्म
के पहले से
मृत्यु
के बाद तक
हर
दिन हर पल
न
जाने कितनी सलीबों पर चढ़ती रही है
न
जाने कितनी चितायों में जलती रही है
न
जाने कितनी बार टूटती जुडती रही है
यह
आधी आबादी
जो
दलित से भी ज्यादा दलित है
समाज
के रहनुमाओं
स्त्री-विमर्श करो न करो
अब
तो बदलनी ही चाहिए
हम
मरे हुए लोगों की जिन्दगी
३.... बस यू हीं मन कर गया
पता नहीं क्यों 
बस यूँ हीं
मन कर गया 
कि सुबह-सुबह की
जल्दी 
घर-बाहर की भाग-दौड़ के बीच 
देखूँ खुद को आईने
में एक बार 
जरा ठहर कर 
ठीक वैसे ही 
जैसे 
उम्र के सोलहवे
वसंत में 
देखती थी खुद को 
आत्ममुग्ध सी 
आँखों में सैकड़ों 
इन्द्रधनुषी
स्वप्न भरे हुए 
ढूँढ कर निकाल ली
वो पीली साडी 
जो विवाह के बाद
दी थी तुमने 
यह कहते हुए 
खूब फबेगा 
कंचन पर कंचन
लगा ली बड़ी सी लाल
बिंदी 
वो मेहंदी, वो आलता 
वो नारगी रंग का
सिन्दूर 
पूरी मांग भर, आगे से पीछे तक 
और खड़ी हो गयी
आईने के ठीक सामने  
करने लगी  
देखने की कोशिश 
खुद को एक बार 
अपनी नजर से 
पर यह क्या?
दिखने लगा आईने
में साफ़-साफ़ 
सासु माँ की दवाई
का समय 
बाबूजी की शाम की
चाय 
बिटिया की किताबे 
बेटे की
गणित की चिंता 
पंसारी का बिल 
सिंक के बर्तन 
और तुम्हारा ऑफिस
से आते ही चिल्लाना 
मेरे कागज़
कहाँ रख देती हो 
इन सब के बीच दिखी 
पीली साडी में 
एक अजनबी सी औरत 
जाने कितने रंगों
में रंगी 
जाने कितने सांचों
में ढली 
पहने दुसरे के
जूते 
जो काटते तो हैं 
पर बढती ही जाती
है 
बिना रुके बिना
थके 
अरे! कहाँ हूँ मैं 
फालतू में 
खामखाँ 
बस यूँ ही मन कर
गया
   
४. फेस बुक पर महिलाएं
जरा गौर से देखिये
फेस बुक पर अपने विचारों की
अभिव्यक्ति की तलाश में आई
ये महिलाएं
आप की ही माँ, बहन बेटियाँ हैं
जो थक गयी है
खिडकियों से झांकते -झांकते
देखना चाहती है
दरवाज़ों के बाहर
देना चाहती है अपने पंखों को
थोडा सा विस्तार
आँचल में समेटना चाहती है
थोडा सा आकाश
कोई हल्दी और तेल सने आँचल से
पोंछते हुए पसीना
चलाती है माउस
कोई घूंघट के नीचे से
थिरकाती है अंगुलियाँ की बोर्ड पर
कोई जीवन के स्वर्णिम वर्ष
कर्तव्यों में होम कर
देना चाहती है कुछ अपने को पहचान
कहीं आप का यह असंयत व्यव्हार
यह नाहक वाद-प्रतिवाद
जबरन उठाई गयी अंगुलियाँ
अभद्र मेसेज
बेवजह की चैटिंग
रोक न दे इनकी परवाज़
रोक दी जाये एक बहू
कंप्यूटर पर बैठने से
रोक दी जाये बेटी
कोई गीत लिखने से
और किसी सीता के समक्ष
फिर आ जाये अग्नि परीक्षा का प्रस्ताव
और फिर ...........
कहीं डूब न जाये
यह कागज़ यह कलम यह स्याही
सिसकियों में
अटक कर रह जाये शब्द
यह भावनाएं, यह सुरीले गीत
गले की नसों में
रुकिए
जरा तो सोचिये ........
आह!!!
कि यह हलाहल अब पिया नहीं जाता
पिया नहीं जाता ...............
४. फेस बुक पर महिलाएं
जरा गौर से देखिये
फेस बुक पर अपने विचारों की
अभिव्यक्ति की तलाश में आई
ये महिलाएं
आप की ही माँ, बहन बेटियाँ हैं
जो थक गयी है
खिडकियों से झांकते -झांकते
देखना चाहती है
दरवाज़ों के बाहर
देना चाहती है अपने पंखों को
थोडा सा विस्तार
आँचल में समेटना चाहती है
थोडा सा आकाश
कोई हल्दी और तेल सने आँचल से
पोंछते हुए पसीना
चलाती है माउस
कोई घूंघट के नीचे से
थिरकाती है अंगुलियाँ की बोर्ड पर
कोई जीवन के स्वर्णिम वर्ष
कर्तव्यों में होम कर
देना चाहती है कुछ अपने को पहचान
कहीं आप का यह असंयत व्यव्हार
यह नाहक वाद-प्रतिवाद
जबरन उठाई गयी अंगुलियाँ
अभद्र मेसेज
बेवजह की चैटिंग
रोक न दे इनकी परवाज़
रोक दी जाये एक बहू
कंप्यूटर पर बैठने से
रोक दी जाये बेटी
कोई गीत लिखने से
और किसी सीता के समक्ष
फिर आ जाये अग्नि परीक्षा का प्रस्ताव
और फिर ...........
कहीं डूब न जाये
यह कागज़ यह कलम यह स्याही
सिसकियों में
अटक कर रह जाये शब्द
यह भावनाएं, यह सुरीले गीत
गले की नसों में
रुकिए
जरा तो सोचिये ........
आह!!!
कि यह हलाहल अब पिया नहीं जाता
पिया नहीं जाता ...............
५.भूकंप
अम्मा
सही कहती थी तुम
धरती सी होती है नारी
प्रेम दीवानी सी
काटती रहती है सूर्य के चारों ओर चक्कर
बिना रुके बिना थके
और अपने अक्ष पर थोडा झुक कर
नाचती ही रहती है दिन रात
कर्तव्य की धुरी पर
पूरे परिवार को
देने को हवा-पानी ,धूप
सह जाती है असंख्य पदचाप
दे कर अपना रक्त खिलाती है
फूल-फल
हां अम्मा!!!
सही कह रही हो तुम
पर .........
कभी तो विचलित होता होगा मन
चाहती होगी छण भर विश्राम
कुछ हिस्सेदारी सूरज की भी
किरने देने के अतिरिक्त
नियमों, परम्पराओं से जरा सी मुक्ति
बांटना चाहती होगी जरा सा दर्द
जरा सी घुटन
भावनाओं का अतिरेक
हां शायद तभी ... तभी
हिल जाती है सूत भर
और दरक जाती है चट्टानें
बिखर जाते हैं.-, वन-उपवन, नगर के नगर
क्या तभी आते हैं भूकंप?
बताओ ना ...........
पर यह क्या अम्मा?
मेरे इस प्रतिप्रश्न पर तुम मौन
आँखों में समेटे
कुछ ........अलिखित सा
शायद!!!
नहीं -नहीं ,अवश्य
तुम भी कर रही हो चेष्टा
कब से
रोकने की एक भूकंप
अन्दर ही अन्दर
६.आँचल
अक्सर
उलट-पलट
कर
देखती हूँ
अपना आँचल
जिसके
सर पर आते ही
मुझे हो जाता है
कर्तव्य बोध
याद आ जाती है
अनगिनत जिम्मेदारियाँ
और बदल जाती है
मेरी चाल
सोंच,
दृष्टिकोण
यहाँ तक कि
मेरा संपूर्ण
व्यक्तित्व।
अम्मा
सही कहती थी तुम
धरती सी होती है नारी
प्रेम दीवानी सी
काटती रहती है सूर्य के चारों ओर चक्कर
बिना रुके बिना थके
और अपने अक्ष पर थोडा झुक कर
नाचती ही रहती है दिन रात
कर्तव्य की धुरी पर
पूरे परिवार को
देने को हवा-पानी ,धूप
सह जाती है असंख्य पदचाप
दे कर अपना रक्त खिलाती है
फूल-फल
हां अम्मा!!!
सही कह रही हो तुम
पर .........
कभी तो विचलित होता होगा मन
चाहती होगी छण भर विश्राम
कुछ हिस्सेदारी सूरज की भी
किरने देने के अतिरिक्त
नियमों, परम्पराओं से जरा सी मुक्ति
बांटना चाहती होगी जरा सा दर्द
जरा सी घुटन
भावनाओं का अतिरेक
हां शायद तभी ... तभी
हिल जाती है सूत भर
और दरक जाती है चट्टानें
बिखर जाते हैं.-, वन-उपवन, नगर के नगर
क्या तभी आते हैं भूकंप?
बताओ ना ...........
पर यह क्या अम्मा?
मेरे इस प्रतिप्रश्न पर तुम मौन
आँखों में समेटे
कुछ ........अलिखित सा
शायद!!!
नहीं -नहीं ,अवश्य
तुम भी कर रही हो चेष्टा
कब से
रोकने की एक भूकंप
अन्दर ही अन्दर
६.आँचल
अक्सर
उलट-पलट
कर
देखती हूँ
अपना आँचल
जिसके
सर पर आते ही
मुझे हो जाता है
कर्तव्य बोध
याद आ जाती है
अनगिनत जिम्मेदारियाँ
और बदल जाती है
मेरी चाल
सोंच,
दृष्टिकोण
यहाँ तक कि
मेरा संपूर्ण
व्यक्तित्व।
7...प्रश्न
-उत्तर 
मेरी हर बात पर
उठ जाती थी तुम्हारी अंगुली
एक नया प्रश्न लेकर
मैं डरी सहमी सी
खोजती रह जाती थी उत्तर
चाहते न चाहते
एक वर्गीकरण हो ही गया हमारे बीच
मुझे कभी प्रश्न पूछना नहीं आया
और तुम्हे कभी उत्तर देना
मेरी हर बात पर
उठ जाती थी तुम्हारी अंगुली
एक नया प्रश्न लेकर
मैं डरी सहमी सी
खोजती रह जाती थी उत्तर
चाहते न चाहते
एक वर्गीकरण हो ही गया हमारे बीच
मुझे कभी प्रश्न पूछना नहीं आया
और तुम्हे कभी उत्तर देना
8. अग्नि- परीक्षा 
सीखा है मैंने इतिहास से
इसलिए
स्वयं ही खीचती हूँ
अपने चारों ओर
लक्ष्मण रेखाएं
कैद करती हूँ खुद को
वर्जनाओं के कठोर कवच में
क्योकि
यह ध्रुव सत्य है
कि तब भी
और अब भी
अग्नि परीक्षाएं
सिर्फ सीता के लिए हैं
सुपर्णनखाएं
इससे
सदा से आज़ाद हैं
सीखा है मैंने इतिहास से
इसलिए
स्वयं ही खीचती हूँ
अपने चारों ओर
लक्ष्मण रेखाएं
कैद करती हूँ खुद को
वर्जनाओं के कठोर कवच में
क्योकि
यह ध्रुव सत्य है
कि तब भी
और अब भी
अग्नि परीक्षाएं
सिर्फ सीता के लिए हैं
सुपर्णनखाएं
इससे
सदा से आज़ाद हैं
9.बोझ 
पार्क में अक्सर
देखती हूँ
हमारे घर की
कामवालियाँ
बैठ जाती है
झुरमुट बनाकर
सुनाने लगती है
किस्से
शराब पी कर आये
पति द्वारा पिटाई के,
पति की बेवफाई के,
बच्चों के दर्द,
आटे दाल का भाव
और आँसू पोंछ कर
चली जाती है
हलकी होकर
और हम बड़े लोग
अधरो पर बनावटी
मुस्कान चिपकाये
कई दर्द दिल में दबाये
झूठी शान का टनो बोझ
सर पर लिए
पार्क में
चक्कर पर चक्कर
लगाते रहते है
वजन
घटाने के लिए
पार्क में अक्सर
देखती हूँ
हमारे घर की
कामवालियाँ
बैठ जाती है
झुरमुट बनाकर
सुनाने लगती है
किस्से
शराब पी कर आये
पति द्वारा पिटाई के,
पति की बेवफाई के,
बच्चों के दर्द,
आटे दाल का भाव
और आँसू पोंछ कर
चली जाती है
हलकी होकर
और हम बड़े लोग
अधरो पर बनावटी
मुस्कान चिपकाये
कई दर्द दिल में दबाये
झूठी शान का टनो बोझ
सर पर लिए
पार्क में
चक्कर पर चक्कर
लगाते रहते है
वजन
घटाने के लिए





 
 
 
अद्भुत रचनायें| मन छू लेने वाली इन कविताओं के लिए निश्चित रूप से आप बधाई की पात्र हैं |
जवाब देंहटाएंजीवन की सच्चाई को सरल शब्दों में पिरो देना आसान काम नहीं है | कवितायेँ पढ़ने के बाद आँखें कुछ नम सी हो जाती हैं | साथ ही साथ ये आश्चर्य भी होता है की कोई इतनी सरलता से इतनी बड़ी बात इतने अच्छे ढंग से व्यक्त कर सकता है | मैं आपके सार्थक प्रयास एवं कविताओं के लिए आपको बधाई देता हूँ |
जवाब देंहटाएंअभी तो ऐसे अनंत अवसर आयेंगे... जो आपको इसी तरह भावुक कर जायेंगे... आप बस कलम चलाती रहें... पढने वाले मिलते जायेंगे... आपकी ये सभी कवितायेँ पहले भी पढ़ी हैं मगर जब भी पढूं नई अनुभूति होती हैं... बधाइयाँ और शुभकामनाएं स्वर्णिम भविष्य के लिये... :) :) :) !!!
जवाब देंहटाएंbeautiful work !
जवाब देंहटाएंexcellent poetry.
जवाब देंहटाएंHaardik badhai! Pahli kavita behad pasand aayi... Aabhaar bhai Santosh ji! - Kamal Jeet Choudhary
जवाब देंहटाएंइन मर्मस्पर्शी कविताओं के लिए आप को धन्यवाद है| लेखन शैली में नवीनता है | इसके लिए आप बधाई की पात्र हैं | मैं आप के उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ |
जवाब देंहटाएंकवि के ह्रदय से निकली विषयों की अभिव्यक्ति को विज्ञान कहते हैं.आप की कवितायेँ हृदयस्पर्शी हैं .बधाई हो
जवाब देंहटाएं