भरत प्रसाद







नरेश सक्सेना हमारे समय के अत्यन्त महत्वपूर्ण कवियों में शुमार किये जाते है। मात्र दो संग्रहों के बल पर नरेश जी ने जो ख्याति अर्जित की है वह उल्लेखनीय है। नरेश जी के कवि कर्म पर एक आलोचनात्मक पड़ताल की है युवा कवि - आलोचक भारत प्रसाद ने। 
 


वैज्ञानिक भावुकता के शिल्पकार

विषयों की अपार विविधता के लिए समकालीन हिन्दी कविता अपना खास महत्व रखती है। बगावती तेवर के मूर्तिमान व्यक्तित्व धूमिल और कुमार विकल से गुजर कर कात्यायनी, एकांत श्रीवास्तव, पवन करण, सुरेशसेन निशांत, रंजना जायसवाल, केशव तिवारी, महेशचन्द्र पुनेठा, संतोष चतुर्वेदी, अनुज लुगून जैसे नवीनतम कवियों तक पहुँचती इस काव्य-धारा में हजारों बहुरुपिया, बहुरंगी, बहुढंगी, बहुअर्थी विषयों का सैलाब उमड़ता नजर आता है। समय के प्रत्यक्ष दिखते चरित्र की असलियत को न सिर्फ भाँप लेना, बल्कि अभिनव अभिव्यक्ति के शिल्प में ढाल देना समकालीन कविता की उपलब्धि कही जा सकती है! कमाल यह भी कि शिल्प और शैली के दुस्साहसिक प्रयोग का सिलसिला कुछ इस कदर चल निकला है कि अब कविता का कोई सर्वमान्य शिल्प ही नहीं रह गया है। आम पाठकों को लगातार, लगातार लगातार..... खोया, खोया और सिर्फ खोया है समकालीन कविता ने। कारण इसके अनेक हैं, किन्तु उसकी एक अनिवार्य वजह फैशनधर्मी शिल्प की अति है। आम पाठक का मानस अभी ऐसे अजनवी, अद्भुत और चैंका देने वाले शिल्प का अभ्यस्त नहीं हुआ है, और न ही अपनी रूचि के दायरे में ऐसे प्रयोगधर्मी शिल्प को स्वीकार कर पा रहा है। आम प्रबुद्ध मानस की परवाह किये बगैर मनमौजी तरीके से कहानीमय कविता गढ़ते चले जाना उसकी अलोकप्रियता का मूल कारण है।

समुद्र पर हो रही बारिश’ और ‘सुनो चारूशीला’ काव्य संग्रह के स्थापत्यकार नरेश सक्सेना जी अनुभूति और अन्तःदृष्टि का ऐसा अभिनव सन्तुलन बिठाते हैं कि कविता दार्शनिक सहजता की ऊँचाई पर चमकने लगती है किन्तु इन सभी क्षमताओं में सबसे खास है, उनकी भाव प्रवण वैज्ञानिक-दृष्टि, जो कि अखण्ड प्राणधारा की तरह कविताओं की शरीर में बही है। समकालीन कविता के इतिहास में सक्सेना जी अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने वैज्ञानिकता को कविता के केन्द्र में ला खड़ा किया है और उसके प्रति समसामयिक युवा कवियों को प्रभावित एवं प्रेरित किया है। ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ और ‘सुनो चारूशीला’ की अधिकाशं कविताएँ उनकी इसी वैज्ञानिक-दृष्टि के आलोक में बहती नजर आती हैं।

समुद्र पर हो रही बारिश’ वर्ष 2001 में प्रकाशित हो कर हिन्दी जगत के सामने आयी, जिसने सर्वत्र व्यापक सार्थकता का एहसास दिलाया। बेहतर होगा कि संग्रह पर प्रशंसा भरी उक्तियों से बचते हुए छानबीन करें कि उसमें आखिर है क्या ? उसके अर्थों का परिमाप क्या हे ? हमें स्थायी तौर पर जीत लेने की उसमें कितनी सम्भावना छिपी हुई है ?

संग्रह की पहली कविता है - ‘हिस्सा’। सर्वप्रथम उसकी कुछ पंक्तियों का साक्षात्कार करें -

बह रहे पसीने में जो पानी है वह सूख जाएगा
लेकिन उसमें कुछ नमक भी है
जो बच रहगा


टपक रहे खून में जो पानी है वह सूख जाएगा
लेकिन उसमें कुछ लोहा भी है
जो बच रहेगा।


यह सच है कि सक्सेना जी सदैव विज्ञान को डोर थामें रहते हैं, वे एक भक्त की तरह विज्ञान से प्रेम करते हैं। उनकी कविता में शायद ही ऐसे प्रसंग आएँ, जो वैज्ञानिक भावना से मुक्त होकर लिखे गये हों, लेकिन वे इस वैज्ञानिक एवं तर्कनिष्ठ दृष्टि को अपने संवेदना पर ज्यादा हावी नहीं होने देते। कांटे की तौल वाली विज्ञान-बुद्धि शुष्क, औपचारिक और प्राणहीन साहित्य को जन्म देती है वह आतंकित करने वाला विचार दे सकती है, स्तम्भित कर देने वाला उक्ति-चमत्कार प्रकट कर सकती है, परन्तु हृदय को पानी-पानी कर देने वाली मार्मिकता पैदा नहीं कर सकती।

कवि ने भौतिक पदार्थों की निर्माण-प्रक्रिया को समझने में बुद्धि के साथ कल्पना शक्ति का भी भरपूर प्रयोग किया है। इस क्रम में उन्हें इसका पूरा ख्याल है कि उसे अनुभूति-प्रवण और भावनात्मक रूप देना है इस उद्देश्य के प्रति सजगता के चलते वे बीच-बीच में ऐसी मौलिक सच्चाइयाँ प्रकाशित करने में कामयाब हो जाते हैं, जो बेहद महत्वपूर्ण होते हुए भी अज्ञात और अपरिचित हैं। हमारे मनो-मस्तिष्क को बहुत दूर तक तरंगित कर देने वाली कवि की दृष्टि बहुत कल्पनाशील है। अर्थों को बड़ा फलक प्रदान करने की क्षमता मुक्तिबोध में विस्फोटक थी। वे रहते-रहते चिंगारी की तरह ऐसा असीम अर्थ-विस्फोट कर देते थे, कि उनकी पिछली सारी अमूर्तता, उलझाऊपन और जटिलता की दिक्कत समाप्त हो जाती थी। सक्सेना जी की कविताओं में असीम अर्थों का वैसा बलखाता आवेग तो नहीं है मगर एक संकल्पी आकुलता जरूर है। इस आकुलता को वे बड़े धैर्य और आत्मविश्वास के साथ प्रकट करते हैं। लगभग यह घोषणा करते हुए कि देखा सको तो देखो, मेरे पास दृश्य के उस पार देखने वाली अन्तर्दृष्टि है, जिसमें कोई चतुराई, कलाकारी या रहस्यमयता नहीं।

समकालीन कविता के बहुतेरे कवियों के विपरीत सक्सेना जी अपने विचारों में बेहद स्पष्ट हैं वे बहुत सफाई और साहस के साथ अपने विचारों का दावा प्रस्तुत करते हैं, जिसमें एक विनम्र निर्भीकता है, और है - परिपक्व चिंतन का आत्मविश्वास। स्तरीय कविता के लिए सिर्फ विचारों की स्पष्टता पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसमें रूचि की भूख शान्त करने और मन को दूर तक खींच ले जाने की क्षमता भी होनी चाहिएं। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि सक्सेना जी की कविताएँ इन दोनों शर्तों पर लगभग खरी उतरने वाली कविताएँ हैं। उनके शब्द गेहूँ के ताजा-ताजा दाने की तरह हैं - पुष्ट, चमकदार, साफ और भूख शान्त करने में समर्थ। वे दिखने में जरूर छोटे-छोटे हैं, परन्तु उनमें कवि की पदार्थ-भेदी दृष्टि कस-कसकर भरी हुई है। वे यूँ ही किसी शब्द को इस्तेमाल नहीं करते। बहुत जाँच-परख, परीक्षण और शोध के बाद ही किसी शब्द की अपनी अभिव्यक्ति का हकदार बनाते हैं। इसलिए कविता लिखना उनकी आदत नहीं, बल्कि अन्तःप्रेरित विवेक है, एक नैतिक दबाव है- जिसके चलते वे  कविता लिखने को तत्पर  होते  हैं । उनके  लिए यह  नितान्त व्यक्तिगत जिम्मेदारी है, आत्मनिष्ठ प्रतिबद्धता है। वे हमारा हाथ पकड़कर स्नेहपूर्वक खींचते हुए वहाँ ले जा कर खड़ा कर देते हैं - जहाँ अदृश्य स्तर पर विचार जन्म ले रहे हैं, अर्थ विकसित हो रहे हैं और व्यापक दर्शन निर्मित हो रहा है।

सक्सेना जी की कविताओं का महत्व रेखांकित करते हुए सियाराम शर्मा लिखते हैं - ‘‘नरेश सक्सेना में बहुत ही कम शब्दों में दृश्यों को रचने की अद्भुत क्षमता है। ऐसे दृश्यों के बारे में कवि अपनी ओर से कुछ भी नहीं कहता। दृश्य खुद ही बोलते और अपना अर्थ खोलते हैं।’’

इस वक्तव्य से साफ है कि सक्सेना जी की एक खासियत दृश्य-कविता रचना है, लेकिन वे कविता को मात्र दृश्य बनाकर ही नहीं छोड़ देते बल्कि उसमें अकाट्य विचारों की झंकार भी पैदा करते हैं। इससे एक ओर जहाँ रूचि में तीव्रता आती है - वहीं दूसरी ओर बुद्धि का स्तर भी उन्नत होता है। शुरू से अन्त तक ऐसी एक भी कविता नजर नहीं आएगी, जो पाठक के भीतर कोई नया भाव, नया सत्य, नया तथ्य जोड़े बिना रह जाय। यह काम कवि ने बड़ी सफलता के साथ किया है। फूलों का रोना, कुत्तों का हँसना, अच्छे बच्चों का जि़द न करना इत्यादि पद सीधे-सीधे, बेधड़क स्मृति की गहराई में प्रवेश कर जाते हैं। बड़े कवि अपनी कविताओं के द्वारा जीवन-सत्य का मुहावरा रचते हैं - ये मुहावरे कई बार एक वाक्य में होते हैं - दो वाक्यों में होते हैं या एक-दो शब्दों में। ये मुहावरे जो कि हमें बेहद आकर्षक और स्मरणीय लगते हैं - जुबान पर अनायास ही बैठ जाते हैं और प्रसंगों के अनुसार कई सारे अर्थ देते रहते हैं। कई बार ऐसा होता है कि वह कवि अपनी लम्बी-चैड़ी कविताओं के बल पर नहीं - इन बहुअर्थी मुहावरों के बल पर पाठकों के हृदय में अमिट हो जाता है।

सक्सेना जी में भावना का व्यापक और विविध स्तर तो है ही उनमें अर्थों की चमक पैदा करने की ताजा क्षमता भी है। प्रायः वे एक खोजी बंजारा की तरह हथियार लेकर घूमते रहते हैं, टोह लेते रहते हैं - निगाह जमाए रहते हैं और जैसे ही उन्हें कोई काम की चीज, मूल्यवान वस्तु नजर आयी - तपाक से उसकी खुदाई शुरू कर देते हैं। वे एकनिष्ठ भाव से अपने काम में डूबकर अर्थों की तहों का पता लगाते रहते हैं। इस काम में उनकी अन्तश्चेतना को अग्रसर करने का काम उनकी तीक्ष्ण कल्पना करती है - इसी कल्पना के माध्यम से वे विषय के आदि-अंत तक पहुँच जाने की दृढ़ महत्वाकांक्षा रखते हैं। वैसे प्राकृतिक रूप से विषय कुछ चीज ही ऐसी है - जिसके अर्थों का कोई ओर-छोर नहीं। एक ही युग में उसके सम्पूर्ण अर्थों को निकाल बाहर करना असम्भव है।

एक साथ कई सारे अर्थों के अमिट प्रभाव पैदा करने के कारण ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ संग्रह की प्रतिनिधि कविता ‘उसे ले गये’ है। अन्य कविताओं की तरह यह कविता भी आकार-प्रकार में छोटी और भाषा में मितव्ययिता बरतती हुई कविता है। इस कविता पर विस्तारपूर्वक कुछ लिखा जाय, इसके पहले उसकी कुछ पंक्तियों का उल्लेख आवश्यक है -

देखो कैसे कटी उसकी छाल
उसकी छाल में धंसी कुल्हाड़ी की धार
मेरे गीतों में धंसी, मनौती में धंसी
मेरे घावों में धंसी
कुल्हाड़ी की धार।


इस कविता में कवि ने हृदयस्पर्शी भावातिरेक की क्षमता दिखाई है। नीम का पेड़ वैसे तो एक मामूली, बेखास सी वस्तु है। ऐसा भी नहीं कि वह कोई दुर्लभ चीज हो। मध्य भारत से लेकर उत्तरी भारत के सम्पूर्ण मैदानी इलाकों में यह हर कहीं, हर तरफ पाया जा सकता है। उत्तरी भारत की ग्रामीण संस्कृति में नीम को बहुत शुभ माना गया है। घर के आस-पास, सामने, पिछवाड़े या आँगन में नीम का एक पेड़ जरूर होना चाहिए। उसकी उपस्थिति मात्र से वातावरण शुद्ध रहता है, रोग-बीमारी फटकने नहीं पाती यह पेड़ कवि के लिए भी मात्र पेड़ नहीं है - उसके लिए वह जीवित संस्कार है। वह जैसे सिर से लेकर पाँव तक, अंग-प्रत्यंग में अपनी शाखाओं, डालियों एवं पत्तियों के साथ फैला हुआ है और कवि के भीतर फलता-फूलता, महकता रहता है। शरीर का जैसे मामूली सा अंग कट जाने, या छिल जाने से असह्य पीड़ा होती है - वैसे ही मनो-मस्तिष्क से लेकर नस-नस में फैले इस वृक्ष का जरा भी नुकसान होने पर कवि को मर्मांतक पीड़ा होती है, और हो भी क्यों न ? उस वृक्ष ने क्या कुछ नहीं दिया है। झूला का अवर्णनीय आनन्द, मादक छाया, जलावन लकड़ी, औषधीय छाल-पत्तियाँ, सब कुछ। मात्र इसी कविता के दम पर सक्सेना जी ने सिद्ध कर दिया है कि विज्ञान की डोर पकड़ कर कविताएँ लिखने के बावजूद उनके पास अत्यन्त भावप्रवण कविताओं की फसल देने वाला हृदय मौजूद है।

‘सुनो चारूशीला’ की पहली कविता ‘रंग’ है। इसमें साम्प्रदायिक मानसिकता की खिल्ली उड़ायी गयी है, जो कि प्रकृति को भी नहीं बख्शती और उसका साम्प्रदायीकरण कर ही डालती है। कवि का प्रतिरोध साफ है कि अपनी जहरीली दृष्टि से प्रकृति को दूषित कर डालने से बाज आओ। ठीक दूसरी कविता है ‘मछलियाँ’।  इस कविता का मकसद इस वाक्य से समझा जाय - ‘जिसे हम बना नहीं सकते, उसे बर्बाद करने का हमारा क्या हक ?’ मछली  हाँ, मछली। लाखों वर्षों से प्राणदान के लिए तरसती एक असहाय जीव। हम मछली मार कर खा तो डालते हैं, किन्तु उसे पैदा कभी नहीं कर सकते। ठीक इसी तरह हम पानी को जहरीला तो कर सकते हैं, किन्तु उसे ज्यों का त्यों शुद्ध नहीं कर सकते। फिर प्रकृति की अनमोल धरोहरों को विकृत करने का हमें क्या हक ? मुहावरा वही पुनर्जीवित हो उठता है - जिसे हम बना नहीं सकते, उसे खत्म कर देने का हमें क्या हक ? अपनी एक कविता ‘दाग़ धब्बे’ में कवि ने अतिशय प्रतीकधर्मी कल्पनाशीलता का कौशल दिखाया है। जहाँ कर्म है, गति है, श्रम है और कदम-दर-कदम जीवन्तता चमक रही है - वहाँ तो दाग धब्बे पड़ेंगे ही। संघर्ष की निशानी है - ये। साफ-सुथरी जगह पर दाग-धब्बे सबसे पहले अपना निशान छोड़ते हैं। संकेत यह भी कि यदि प्रयास मचल रहा है, परिवर्तन कसमसा रहा है, बेहतरी की कोशिश चल रही है तो कुछ न कुछ भूल-चूक होगी ही। प्यार करो इस भूल-चुक से, क्योंकि यही सफलताएँ और सिद्धियाँ हासिल करने की सीढ़ी बनती हैं। जिसे अपने गिरने की ग्लानि नहीं होती, वह उठने का आत्मगौरव क्या समझेगा ? प्रकृति में, जीवन में, घटना और गतिविधि में तत्व, रहस्य और दर्शन की खोज करना कुछ नयी बात नहीं, किन्तु अदृश्य में, अमूर्त  सत्ता में, अप्रत्यक्ष अस्तित्व में छिपे दर्शन का पता लगाना विरले सत्यान्वेषी सृजनधर्मियों के वश की बात है, क्योंकि इसमें अचूक कल्पनाशीलता के साथ-साथ अभिव्यक्ति की सधी हुई कला की जरूरत पड़ती है। कहना जरूरी है कि सक्सेना जी को ये दोनों क्षमताएँ स्वाभाविक रूप से हासिल हैं। प्रकृति, सृष्टि और ब्रह्माण्ड में पराजय, मृत्यु और विनाश का तांडव क्षण-प्रतिक्षण कहीं न कहीं जारी है। आश्चर्य यह कि हमें चतुर्दिक मची हुई मृत्यु-लीला का एहसास तक नहीं होता। कवि का प्रश्न है कि कानों में बहता हुआ सन्नाटा कहीं विनाश के बाद की भयानक नीरवता तो नहीं ? सक्सेना जी सन्नाटे के भीतर छिपे मृत्यु के अन्तर्नाद को जिद्दी सजगता के साथ सुनना चाहते हैं - वो भी अन्तश्चेतना के कानों से। दो-चार तत्वपूर्ण पंक्तियाँ -

टूटते तारों की आवाजें सुनाई नहीं देतीं
वे इतनी दूर होते हैं
कि उनकी आवाजें कहीं
राह में भटक कर रह जाती हैं
हम तक पहुँच ही नहीं पातीं। (पृ. सं. - 18)


सृजन की वैज्ञानिक दृष्टि:

वैज्ञानिक दृष्टि विकसित करने में विज्ञान की भूमिका अवश्य होती है, किन्तु अकेले विज्ञान वैज्ञानिक दृष्टि का विकास नहीं कर सकता। यहाँ तक कि विज्ञान के बग़ैर भी वैज्ञानिक अन्तर्दृष्टि प्रस्फुटित हो सकी है और होती है। कहना पड़ेगा कि विज्ञान से वैज्ञानिक दृष्टि का अनिवार्य संबंध नहीं है। फिर सवाल यह हे कि वैज्ञानिक दृष्टि का निर्माण करने वाले मूलतत्व क्या हैं ? दरअसल ये तत्व हैं - यथार्थ के प्रति उत्कट प्रेम, निरपेक्ष तर्क की क्षमता, तथ्य और सत्य के स्तरों में डूबने का साहस, प्रमाणों की रोशनी में निष्कर्ष तक पहुँचाने का हौसला और जादुई, चमत्कारिक परिणामों के प्रति घोर शत्रुता का भाव। यह वैज्ञानिक दृष्टि न सिर्फ दृश्य, यथार्थ, भौतिकता के प्रति प्रेम, बल्कि अनुभूति, भावना, चेतना और एहसासों की क्षमता में विश्वास करने का भी नाम है। वैज्ञानिक दृष्टि की कसौटी दृश्य और स्थूल जगत नहीं, बल्कि सूक्ष्म और अदृश्य अन्तः जगत है। वह अन्तःजगत चाहे मनुष्य का हो, प्रकृति का हो, समाज और संस्कृति का हो, पशु-पक्षी या प्राणी समूह का हो या फिर किसी भी ब्रह्माण्डीय अस्तित्व का। विज्ञान की पहुँच भले ही सार्वभौम न हो सके, किन्तु वैज्ञानिक दृष्टि सार्वभौम बन सकती है। यदि इस दृष्टि की पहुँच पर यकीन करें तो परमात्मा, ब्रह्म, जीव, माया, देवी, देवता, जादू, चमत्कार सबकी असलियत का तार-तार विश्लेषण कर सकती है और इनकी सदियों पुरानी सत्ता
को बेनकाब कर सकती है।

सृजन के क्षेत्र में  वैज्ञानिक  दृष्टि अनिवार्य शर्त की तरह है । सर्जक में यह अनमोल क्षमता निर्जीव या सजीव के आचरण, स्वभाव, व्यवहार पर लगातार-लगातार चिंतन-मनन और मंथन करने से आती  है, प्रत्यक्ष दिखते हुए सत्य का भावप्रवण मूल्यांकन करने से विकसित होती है, और अपनी चेतना की दिशाओं को सूक्ष्म-स्थूल, दृश्य-अदृश्य सत्ता में सफलतापूर्वक विस्तृत करने से पैदा होती है। सृजन की वैज्ञानिक दृष्टि कलाकार की सिर्फ तर्कक्षमता का परिणाम नहीं, बल्कि अनुभूतियों का अधिकारी होने का भी परिणाम है। जब महत् सत्य और परम तथ्य का विश्लेषण करने से तर्क चुकने लगता है, असफल होने लगता है, तब अभिनव अनुभूतियों की रश्मियाँ सर्जक को सत्य तक पहुँचने में कामयाब करती हैं। वस्तु, घटना, व्यक्ति या सत्ता के रहस्यों से पर्दा उठाने में यही वैज्ञानिक दृष्टि ही कामयाब होती है। यही दृष्टि संसार से सचेत प्रेम का पाठ भी सिखाती है और मनुष्य में कसी-ठसी हुई अन्धी श्रद्धा, सड़े विश्वास और मृत विचारों की जमकर धुलाई एवं सफाई करती है। वैज्ञानिक दृष्टि के लिए सर्जक का माक्र्सवादी होना जरूरी नहीं, हाँ उसका सत्य भक्त होना, यथार्थवादी और अनुभूति-साधक होना अनिवार्य है। वैज्ञानिक दृष्टि सर्जक का स्वाभाविक गुण नहीं है, इसे साहसिक प्रयास के साथ अर्जित करना होता है। इतना ही नहीं, अपने भीतर इस दुर्लभ शक्ति को निरन्तर बनाये रखने के लिए चित्त को, चेतना को, हृदय और मस्तिष्क को असाधारण सजगतापूर्वक तैयार रखना होता है।

सक्सेना जी प्रकृति और सृष्टि के वैज्ञानिक शिल्पकार तो हैं ही, साथ ही विज्ञान जहाँ चूकने लगता है - वे उससे एक कदम आगे आत्मानुभूति की आभा में सृष्टि के अदृश्य सत्य को छूने की भी साधना करते हैं। वे मात्र वैज्ञानिक सर्जनात्मकता के कलाकार नहीं, बल्कि स्वयंभू अन्तश्चेतना के भी शिल्पी हैं। प्रमाण हैं - पंक्तियाँ -

जगहें खत्म हो जाती हैं
जब हमारी वहाँ जाने की इच्छाएँ
खत्म हो जाती हैं।    (अजीब बात: पृ. सं. - 19)


‘गिरना’ शीर्षक कविता सक्सेना जी का असली परिचय बताने वाली कविताओं में से एक है। चिंतन की अन्तर्मुखी दिशा में चलते-चलते यह कविता खुलकर बहिर्मुखी हो जाती है। सोच से ओज की यह यात्रा अर्थपूर्ण हैं मनुष्य हर तरह से, अनुकूल या प्रतिकूल दशा में गिर रहा है, पतित हो रहा है, अपने पतन को चूमने को अभिशप्त है। यह कविता मनुष्य के पतन के खिलाफ उसके गिरने का मूल्य निश्चित करती है। जब गिरना ही है तो ऐसा क्यों न गिरो कि तुम्हारे गिरने से किसी का जीवन बच जाय, किसी में प्राण लौट आयें, कहीं नवजीवन की धारा फूट जाय, कहीं परिवर्तन की क्रांति अंकुरित होने लगे। यह कविता मनुष्य के गिरने का संस्कार तय करती है और उसका गौरवपूर्ण सलीका सिखाती है।

जहाँ विज्ञान के नियम, तर्क, सिद्धांत और सूत्र समाप्त होने लगते हैं, वहाँ से आत्मा के विज्ञान की यात्रा आरम्भ होती है, जिसे प्रदीप्त अन्तःप्रज्ञा की यात्रा कहा जाता है। इस यात्रा का सिद्धांत कार्य-कारण के तर्क से परे, परम अनुभूति का सिद्धांत है, विज्ञान के उस पार मनोजगत का शास्त्र है  और नियमों की हदें  तोड़ता हुआ चेतना के  नियम का आकाश है ।

सक्सेना जी की कुछ कविताएँ ऐसी ही सूक्ष्म, अदृश्य, मनःआकाश की यात्रा पर चल निकले तीर नजर आती हैं। साधक-भावना की ऐसी अदृश्य यात्रा का परिणाम हैं ये पंक्तियाँ -

जिसके पास चली गयी मेरी जमीन
उसी के पास अब मेरी
बारिश भी चली गयी (इस बारिश में: पृ. सं. - 25)


अक्सर, नहीं-नहीं हमेशा मनुष्य के प्रेतमुक्ति की बात उठती है, मगर ‘प्रेत मुक्ति’ कविता में प्रेत को मनुष्य से मुक्त होने की चेतावनी दी गयी है। अर्थ क्या निकला ? आज का मानव अपनी सोच, कर्म-कुकर्म, चाल-कुचाल, ताल-तिकड़म, नीचता, भ्रष्टता में प्रेत से कई गुना भयानक है। पतन की पराकाष्ठा इस कदर कि पिस्सु, गोंजर, बिच्छू, धुन, मच्छर और गोबड़ौरा (गोबर का सुपुत्र) सबको अपने आचरण-व्यवहार से पीछे छोड़ चुका है। जरा मिलान कीजिए इन पंक्तियों को, अपने आसपास या दूर के अनेक मुखौटों वाले बेमिसाल व्यक्तित्वों से-

सच्चाई यह है कि अक्सर
बिलों, नाबदानों और सीवरों में घुसे
मुझे मनुष्य दिखाई देते हैं
और जहाँ औरों को दिखते हैं मनुष्य
मुझे दिखते हैं चूहे, तिलचट्टे और सुअर। (प्रेत मुक्ति: पृ. सं. - 27)


‘प्रेत-मुक्ति’ के ही समानान्तर चीटियाँ’ कविता सक्सेना जी की पारगामी दृष्टि की मिसाल पेश करती है। छोटी, बेखास, नन्हीं जान सी दिखती चीटियों को मामूली, अबला समझना भूल है। ठीक चीटियों की तरह साधारण, सीधा सा दिखता मनुष्य क्या आज विश्वास के काबिल रह गया है ? वाह रे उसकी मुस्कान, वाह रे उसकी आत्मीयता। और तो छोडि़ए, उसके टपकते आँसुओं से भी घातक मक्कारी की दुर्गन्ध उड़ती है। आग, उर्जा, रोशनी सृष्टि के सर्वव्यापी तत्व हैं। रहस्य मात्र इतना कि वह कहीं प्रकट हो जाती है और कहीं तो चुपचाप छिपी रहती है। जब बुद्ध ने मनुष्य के लिए कहा - ‘अप्प दीपो भव’ तो उसका कुछ तो कारण रहा होगा ? उन्होंने दूरदर्शी विवेक के बल पर बूझ लिया कि मनुष्य धधकने के लिए तैयार पड़ी हुई मशाल का प्रतिरूप है। सक्सेना जी ने प्रस्तुत कविता के बहाने जिस तरह पानी में छिपी रोशनी के जादू को उजागर किया है, उसी तरह उन्होंने आपके, हमारे अन्तस्थल में स्थित दीपक के रहस्य को प्रकट किया है। कविता है - ‘मुझे मेरे भीतर छुपी रोशनी दिखाओ’।

दूसरों के लिए काम आए आपके व्यक्तित्व और गुणों की उपयोगिता से ही आपके असली सौन्दर्य का निर्धारण होता है, न कि, आपकी उस चमक-दमक से जो कि किसी के दुखदर्द में, हारे-गाढ़े रŸाी भर भी काम नहीं आ सकता। हाथों में परहित नहीं, पाँवों में दिशा नहीं, आँखों में सृष्टि नहीं, दिल में धरती नहीं - क्या होगा ऐसे मनुष्य का ? जिस निगाह से अथाह कृतज्ञतावश सृष्टि के प्रति अनुराग न छलक पड़े, वह सौ गुना मरी हुई निगाह नहीं तो और क्या है ? हमने पेड़, नदियाँ, वन, प्रान्तर, खेत आदि को न जाने कैसी निगाहों से देखा वे पल-प्रतिपल मर रही हैं। हमारे वजूद को जन्म देने वाली और सांसारिक अमरत्व की ओर प्रेरित करने वाली प्रकृति को यदि ऐसी ही घनघोर अन्धी निगाहों से देखते रहे तो एक न एक दिन इनका बेतरह मिट जाना तय है। बदल डालो ऐसी जहरीली दृष्टि को, इसके पहले कि वह तुम्हें ही मिटा डाले। ‘देखना जो ऐसा ही रहा’ शीर्षक कविता अनिवार्यतः अपनी घातक निगाहों के प्रति ऐसे ही आत्म धिक्कार का भाव पैदा करती है।

सक्सेना जी निस्संदेह वैज्ञानिक भावुकता के प्रतिबद्ध शिल्पकार हैं, उनकी भावुकता बेहद मंजी हुई, संतुलित, व्यवस्थित और तथ्यदर्शी है। वे अपनी संवेदनशीलता का बेजा इस्तेमाल नहीं करते, बिना किसी मतलब के छितराते, छींटते नहीं चलते, बल्कि वैज्ञानिक अन्तर्दृष्टि से उस भावुकता को मांजते हैं, काटते-छांटते हैं, परिष्कृत और परिपक्व करते हैं, उसमें दर्शन की सुगन्ध मिलाते हैं, तब जाकर सन्तुष्ट होते हैं। चिर-परिचित विषयों, घटनाओं, स्थितियों, दृश्यों और चरित्रों को विलक्षण संवेदनशीलता और अलहदा कल्पनाशीलता के साथ देखने की दुर्लभ क्षमता ही सक्सेना जी को अपने समकालीनों में अन्यतम सर्जक का व्यक्तित्व प्रदान करती है।




संपर्क-

भरत प्रसाद
एसोसिएट प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
नेहू, शिलांग, मेघालय
मो. 9863076138
E-mail: deshdhar@gmail.com>

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