ब्रेख्त: प्रतिरोध की लोकधर्मी कविता
लोकधर्मी कवियों की परम्परा श्रृंखला के अंतर्गत आप वाल्ट व्हिटमैन, बाई जुई, मायकोव्स्की, नाजिम हिकमत एवं लोर्का पर आलेख पहले ही पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में प्रस्तुत है प्रख्यात कवि एवं नाटककार बर्टोल्ड ब्रेख्त पर आलेख, जिसे तैयार किया है हमारे वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी ने.
ब्रेख्त: प्रतिरोध की लोकधर्मी कविता
विजेन्द्र
ब्रेख्त के बारे में सोचते ही गेटे और रिल्के के नाम सहज ही याद आते हैं। ब्रेख्त सबसे बाद के कवि हैं। सबसे पहले गेटे। उसके बाद रिल्के। तीनों ही जर्मन भाषा के.अपनी अपनी बनक के अनूठे कवि हैं। इन तीनों की कविता हमें एक दूसरे को समझने में मदद करती है। गेटे (1746 - 1832 ) 18 वी सदी में जन्में। 19वी सदी में उनका कवि कर्म चरितार्थ हुआ। गेटे ने दो विश्व युद्धों की विनाशकारी विभीषिका न देखी। न सुनी। न उन्होंने साम्राज्यवाद के जनविरोधी आक्रामक तेवर देखे। अतः उनके सरोकार मनुष्य केंद्रित होते हुये भी हमें मनुष्य के आभ्यांतर जगत द्वंद्व से ही ज्यादा जोड़ते हैं। मसलन मनुष्य की अछोर ज्ञान पिपासा। उसकी अदम्य आकांक्षा। उसके मन में अपूर्णता का बेचैन केरने वाला असंतोष। आत्मा का शैतान के जाल में फँस कर उससे मुक्त होने के अथक प्रयासों में सफल होना। अपने को महापतन से बचाना। यानि उनके सरोकारों का स्वभाव व्यक्ति केंद्राभिमुख (centripetal) अधिक है। रिल्के (1875 - 1926) ने प्रथम विश्व युद्ध की विनाशकारी विभीषिका तो देखी। पर जिन साम्राज्यवादी देशों ने यह विनाशलीला योरुप पर थोपी थी उनकी तरफ उनका ध्यान कतई नहीं गया। दरअसल वह एक ऐसे पतनशील साहित्या आंदोलन से जुड़े रहे जिसने विश्व के बड़े बड़े कवियों को बर्बाद किया है। रिल्के में मृत्यु ही एक ऐसा सर्वोच्च सर्वोच्च भाव है जिसके लिये जीवनपर्यन्त तैयारी करनी पड़ती है। जब प्रथम विश्व युद्ध उन्हें विचलित करने को घटित हुआ उसी समय रिल्के ने अपने ‘शोक गीतो‘ को ‘मनप्रक्षालक’ तथा ‘पुनरुद्धारक’ कहा था। वह इतने विचलित थे कि उन्हें काव्य रचना ही असंभव लगने लगी थी। अतः उन्होंने 1915और 1919 के मध्य लगभग न के बराबर ही लिखा। वह जीवन भर ‘दृश्यमान’ को ‘अदृश्यमान’ में रूपांतरित करने के ही काव्य प्रयत्न कर नवरहस्यवाद का ताना बाना बुनते रहे। ब्रेख्त (1898 - 1956) इन दोनों कवियों से अलग और भिन्न 20 वी सदी के योद्धा कवि हैं। एक ऐसा कवि जो कविता को ‘शिवेतर क्षतये‘ के लक्ष्य से जोड़ कर उसे पूँजीकेंद्रित व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का अस्त्र बनाता है। यानि उनकी कविता नागार्जुन, केदार बाबू, मुक्तिबोध, कुमारेंद्र, कुमार विकल आदि की कविता की तरह राजनीति में सीधा हस्तक्षेप है।
ब्रेख्त मूलतः नाटककार हैं। यद्यपि वह कवि भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। जैसे शेक्सपियर जीवन भर काव्य नाटक लिखते रहे। उन्होंने अलग से सानेट भी लिखे। पर हैं वह महान नाटककार ही। ब्रेख्त की कविता बिना उनके नाटकों को समझे उसकी प्रदत्त ऐंतिहासिक अनुगूँजों के साथ नहीं समझी जा सकती। इसी तरह उनकी कविता को पढ़ कर उनके नाटकों के सार तत्व तक पहुँचा जा सकता है। मेरा अपना विचार है उनकी कवितायें तथा नाटक परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। लगता है उनके लिये कविता तथा नाटक दो अलग अलग विधायें होकर भी एक दूसरे की साधती सँभालती हैं। जबकि शेक्सपियर में ऐसा नहीं है। उनके नाटकों की जो संक्रियात्मक बाह्यता है वह उनके आत्मपरक सानेट से भिन्न है। जबकि ब्रेख्त की कविता में नाटकों की संकिय्रात्मक बाह्यता बराबर बनी रहती है। अतः उनका काव्य स्वभाव रिल्के के काव्य स्वभाव से बिल्कुल भिन्न अपकेंद्रीय (Centrifugal) है। ब्रेख्त को कविता लिखना इसलिये जरूरी लगा क्योंकि वह नाटको की अत्यधिक बाह्यता की वजह से अपने गहरे आत्मपरक अनुभवों को उनमें नहीं कह पा रहे थे। पर उनकी कविताओं का कथ्य नाटकों के कथ्य का आत्मपरक विस्तार ही है।
ब्रेख्त की प्रदत्त ऐतिहासिक सिथतियाँ बहुत ही भयावह हैं। किसी भी लेखक को अत्यधिक चुनोतीपूर्ण। बल्कि जनपक्षधर तथा लोकधर्मी कवि कर्म के लिये जानलेवा जोखिम से भरी हुई। स्पेन मे फासिज़्म की क्रूर तानाशाही पूरी दुनिया के लेखकों के लिये विकल्प की चुनौती खड़ी कर रही थी। लेखक क्या करें! ऐसे समय तटस्थ रहें। या लोकतंत्र के लिये जनता के साथ संघर्ष में शरीक हों। फासिज़्म को स्वीकारें। या उसके विरुद्ध लड़ने को विश्वस्तर पर संगठित हों।योरुप और ब्रिटेन के लेखक स्पेन में घटित इन दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों के लिये बहुत चिंतित थे। ब्रेख्त के नाटकों तथा कविताओं के कथ्य का खनिज इतिहास प्रदत्त इन्ही परिस्थितियों की देन है ।
सब जानते हैं ब्रेख्त का जन्म 10 फरवरी 1898 केा जर्मनी के बावेरिया प्रांत में हुआ था। उनके कस्बे का नाम आग्सबुर्ग था। वहीं उनके पिता एक कागज़ के कारखाने में प्रबंधन का काम करते थे। ध्यान देने की बात है कि ब्रेख्त के माता पिता का गहरा संबंध खेतिहर किसान परिवारों से था। पिता और माता दोनों ही धार्मिक थे। ब्रेख्त का लालन पालन मार्टिन लूथर के ढंग से हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उनके गृह कस्बे आग्सबुर्ग में हुई थी। 1917 में वह म्यूनिख विश्वविद्यालय में अध्ययन हेतु चले गये। यहाँ उन्होंने चिकित्साशास्त्र का अध्ययन चुना। पर उनका मन इस में कम लगा। उसी समय से ब्रेख्त कविता तथा नाटक में दिलचस्पी लेने लगे थे। वहाँ के स्थानीय अखबारों में उनकी रचनायें प्रकाशित होने लगी थी। प्रथम विश्वयुद्ध के समय ही उन्हे सेना में जाने का अवसर मिला। उनको सेना के मैडिकल कोर में काम पर रखा गया। अच्छी बात यह हुई कि उनकी नियुक्ति उन्हीं के कस्बे आग्सबुर्ग में ही हो गई। सेना में रहने की वजह से उनकी काव्य संवेदना पर युद्ध की विनाशकारी विभीषिका का गहरा असर पड़ा है। उनकी कविताओं में बराबर युध्द विरोधी अनुगूँजें तथा शांति के लिये प्रयत्न आद्यंत सुनाई पड़ती हैं-
मुझ नाटककार को
युद्ध ने कर दिया अलग, मेरे दोस्त रंगकर्मी से
वे शहर जिनमें हमने काम किया, अब नहीं हैं कहीं
ब्रेख्त कविता और अपने नाटकों में बराबर युद्ध को मानव विरोधी तथा नरसंहारक बता कर प्रत्यक्ष परोक्ष उसका विरोध करते रहे हैं। उनकी कविता में व्यक्त प्रतिरोध का यह एक प्रमुख पहलू है। या फिर वे शांति की बात को प्रमुखता से उठाते हैं। शांति के लिये बराबर चिंतित रहना भी परोक्षतः युद्ध का विरोध है। कुछ लोग कह सकते हैं यह एक नकारात्मक प्रतिरोध है। ऐसा नहीं है। युद्ध का विरोध दुनिया को अमानवीय ध्वंस से बचाने के लिये जरूरी है। पर ब्रेंख्त के इस विरोध का एक राजनीतिक पहलू भी है। वह जानते हैं साम्राज्यवादी देश दूसरे शांति प्रिय देशों पर युद्ध थोपते हैं। क्योंकि युद्ध से ही उनके देश की आर्थिकी फल फूल रही है। युद्ध होंगे तो आयुधों का बंज व्यापार पनपेगा। अतः युद्ध का सक्रिय विरोध प्रकारांतर से युद्धोन्मादी साम्राज्यवाद का ही विरोध है। साम्राज्यवाद दुनिया में न तो शांति चाहता है। न आर्थिक समता। अतः युद्ध तथा आर्थिक विषमता का विरोध साम्राज्यवाद तथा पूँजी केद्रित व्यवस्था का ही विरोध है। ब्रेख्त के लिये युद्ध मनुष्य को ही नष्ट नहीं करता बल्कि हमारे संसाधनों को भी ध्वस्त करता है। इसका गहरा असर गरीब आदमी के जीवन पर पड़ता है । हमारी सभ्यता, संस्कृति, श्रम तथा मानवीय मूल्य भी नष्ट होते हैं। ब्रेंख्त कहते हैं -
जब हमारे शहर बरबारद हुये
बूचड़ों की लड़ाई से नेस्तनाबूद
हमने उन्हें फिर से बनाना शुरू किया
ठण्ड , भूख और कमज़ोरी में
कहना न होगा कि ब्रेख्त का युद्ध विरोध तथा शांति प्रिय होने का प्रभाव उनकी विचारधारा पर भी पड़ा है। ब्रेख्त शुरू में बहुत कुछ अराजक थे। उनके लेखन मे दिशाहीनता भी देखी जा सकती है । वह मनमोजी ढंग से लिखते थे। 1924 में ब्रेख्त बर्लिन आ गये। उस समय जर्मनी राजनीतिक तथा रंगमंचीय गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बना हुआ था। यहाँ आ के वह वामपंथी लेखकों, रंगकर्मियों तथा राजनीतिज्ञों के संपर्क में आते रहे। उनके बीच वे लोकप्रिय हुये। कवि रिल्के से बिल्कुल अलग ब्रेख्त एक प्रतिबद्ध राजनीतिक लेखक हैं। वह अपनी कविताओं में पूँजीकेंद्रित क्रूर होती व्यवस्था का विरोध बराबर करते दिखते हैं। साम्राज्यवाद, फासिज्म तथा पूँजी केंद्रित व्यवस्था को वे ‘काली और विनाशकारी’ शक्तियों की तरह देखते हैं। यही शक्तियाँ युद्ध थोप कर अपने हित साधती है। पर आम आदमी इसके दुष्परिणाम की वजह दुख भोगता है -
युद्ध जो आ रहा है
पहला युद्ध नहीं है
इस से पहले भी युद्ध हुये थे
पिछला युद्ध जब खत्म हुआ
तब कुछ विजेता बने और कुछ विजित
विजितों के बीच आम आदमी भूखों मरा
विजेताओं के बीच भी वह मरा भूखा ही
यानि ब्रेख्त को युद्ध आम आदमी की रोटी का विनाश करने वाला लक्ष्ण है। ये काली ताकते ही मनुष्य का शोषण करती हैं। यातनायें देती हैं। उन्हें कमज़ोर करती है। ब्रेख्त जीवन भर इन काली ताकतों को चुनोतियाँ देते रहे. उनसे अपनी कविता तथा नाटकों में लड़ते रहे। साथ ही इन ताकतों का सिरमौर सर्वहारा की अजेय शक्ति का भी एहसास कराते रहे। एक जनपक्षधर कवि जनविरोधी शक्तियों की आलोचना ही नहीं करता। वह विकल्प भी बताता है। ब्रेख्त या नागार्जुन की कविता संकेत है कि बिना सर्वहारा को संगठित किये हम जनविरोधी व्यवस्था से न तो लड़ सकते हैं। न उसे बदल सकते हैं। ध्यान रहे एक बड़ा कवि अपने समय की छाया प्रतीतियों को व्यक्त कर वह सार तत्व तक जाता है। यानि ब्रेख्त जनविरोधी तथा जनविद्वेषी ताकतों पर प्रहार ही नही करते बल्कि वे उन आधारों तक जाते हैं जो इन ताकतों को खाद पानी देकर पोस रहे हैं । वे निराला की तरह यह भी जानते हैं कि अन्याय की ताकतें बलवान हैं -
‘राम की शक्ति पूजा‘ में कहा ही है ‘अन्याय जिधर, है उधर शक्ति’। पर एक दिन उस अन्याय पोषित शक्ति का अंत जरूर होता है -
साम्राज्यों का पतन होता है
गैंग लीडरान चल रहे हैं अकड़ कर
राजनेताओं की तरह
फौजी वर्दियों के अलावा अब कहीं नहीं दिखेंगे आदमी
अतः भविष्य अब अँधेरे मे है
न्याय की ताकते कमज़ोर है .....
ब्रेख्त अपनी कविता में अपनी सैद्धातिकी रचते चलते है। वह बिल्कुल साफ हैं। उन्हें क्या कहना है। क्यों कहना है। किसके पक्ष में कहना है। कहाँ किसका विरोध करना है। उन्होंने महाविनाशक दो विश्व युद्ध देखे हैं। उनके कष्ट झेले हैं। फासिज्म से उन्होंने सदा नफरत की है। यही नहीं उसके विरुद्ध अंतिम परिणति तक संघर्ष को अनिवार्य बताया है। इस दृष्टि से ब्रेख्त आज हमारे लिये अत्यधिक प्रासंगिक हैं। अनुकरणीय भी। उन्होंने कुलीन जड़ सौंदर्यशास्त्र को तार तार कर सर्वहारा का लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्र रचा है। इस दृष्टि से हिंदी कविता आज बहुत पीछे है। यदि ध्यान से देखें तो आज की कविता में वैसे बड़े सरोकार हैं ही नहीं जिन्हें ब्रेंख्त अंत तक कहते रहे हैं। इसके लिये उन्होंने जोखिम उठाये हैं। बुर्जुआ आलोचक या सिद्धांतकार उनकी उपेक्षा पहले ही करते थे। आज भी करते हैं । क्या वजह है हिंदी के अधिसंख्य कवि रिल्के पर जान न्यौछावर करते हैं। पर ब्रेख्त से दूरी बनाते हैं । हम किस कवि को पसंद करते हैं इस से हमारी साहित्यिक विश्वदृष्टि का भी पता लगता है । एक प्रकार से ब्रेख्त बुर्जुआ यथार्थवाद को पीछे छोड़ सर्वहारा के सौंदर्यशास्त्र का सृजन करने के लिये कृतसंकल्प हैं। उनकी एक कविता है ‘जर्मनी 1945’-
घरों में भीतर प्लेग है
घरों के बाहर ठण्ड से मौत है
तब हमारा ठिकाना कहाँ
सुअरी ने हग डाला है
सुअरी मेरी माँ है
ओ मेरी माँ , ओ मेरी माँ
तुमने यह क्या कर डाला - याद कीजिये नागार्जुन भी सुअरी को ‘मादरे हिंद’ कह कर कुलीन सौंदर्यबोध को चकनाचूर करते हैं।
इसी प्रक्रिया से ब्रेख्त भावुकतापूर्ण रूमानियत तथा आत्मनिष्ठ -पतनशील प्रतीकवादियों की सीमाओं को त्याग संघर्षशील लोक से जुड़ते हैं। उनकी कविता की केंद्रीय प्रवृत्ति पूँजीवादी ढाँचे पर तीखे प्रहार करना है। हमारे यहाँ ऐसे प्रहार नागार्जुन, केदार बाबू तथा मुक्तिबोध में देखे जा सकते हैं। क्या हमारी जिज्ञासा यह जानने की न हो कि आज की अधिकांश कविता बहुत ही सीमित सरोकारों की कविता होकर रह गई है। ऐसा क्यों है! क्योंकि बुर्जुआ सत्ता तथा संस्कृति का रंग इतना गाढ़ा है कि उससे उबर पाना आसान नहीं है। हिंदी के प्राध्यापक कवि सत्ता को देख गुन कर ही कोई बात कहते हैं। ब्रेख्त ने कभी चिंता नहीं की होगी कि यदि वह सर्वहारा के पक्षधर कवि होगे तो उन्हें सत्ता द्वारा प्रायोजित पुरस्कारों से हाथ धोना पड़ेगा। लोकतंत्र में लोकधर्मी कविता लिखना वैसा ही कठिन है जैसे छोटे किसानों - श्रमिकों का कोई आंदोलन खड़ा करना। खैर,
शुरू में ब्रेख्त अपनी काव्यदृष्टि को लेकर बहुत साफ और दिशासूचक नहीं हैं। वहाँ अराजकता भी है। इन कविताओं में प्रकृति, युद्ध, मृत्यु तथा कामेच्छायें प्रबल हैं। जैसे अपनी कविता, ‘जलता हुआ पेड़’ उन्हें ऐतिहासिक योद्धा की भांति थकाहारा-पराजित सा लगता है। उनके नाटकों तथा कविता के कथ्य खनिज का यदि सूक्ष्म विश्लेषण करें तो लगता है कि ब्रेख्त जीवन में विकृतियाँ, कामोन्माद, हिंसा, युद्ध, लालचपूर्ण स्वार्थपरता, निरंकुश अराजकता आदि को पूँजीकेंद्रित व्यवस्था के ही उत्पाद मानते हैं। उनके नाटकों तथा कविताओं की वास्तुशिल्पीय संरचना में मनुष्य जाति के लिये सकर्मक तथा द्वेषसूचक संकेत बुना रहता है। वह चाहते हैं कि लोक इस बात को समझे कि हमें मार्क्सवाद ही ऐसी समझ देता है जिससे हम सर्वहारा को मुक्त करा के एक नई जनवादी सस्कृति का सृजन कर सकते हैं। वैज्ञानिक समझ -सूझबूझ से हम कैसे समतामूलक समाज रच सकते हैं! यह तभी संभव है जब लेखक स्वयं उस विचार दर्शन से पूरी तरह लैस हो। हम स्वयं अपने आचरण को बड़े संयम तथा अनुशासन से जनता के समक्ष प्रस्तुत करें। आत्मरति, आत्ममुग्धता तथा आत्मनिष्ठता को बड़ी निर्ममता से त्यागें। मसलन वे अपने अत्यंत महत्वपूर्ण नाटक ‘द लाइफ आफ गैलिलियो’ में कुछ बातें बहुत साफ साफ कहते हैं। प्रारंभ से ही उनकी सहानुभूति वाम से थी। सामान्य और अनुदात्त को गौरव देते हैं। कई बार वह विभ्रमित हाकते दिखते हैं। सामाजिक और राजनीतिक मूल्य इतने गिर चुके हैं कि वे इन पर तीखे वयंग्य करते हैं। चर्च और वैज्ञानिक सोच के मध्य गहरे द्वंद्व हैं। कविता तथा नाटकों में वे मानते हैं कि पुराना समय खत्म हो चुका है, यह नया युग है.... बहुत कुछ खोजा जा चुका है, पर अभी खोजने को बहुत शेष है.... नये समय का अरुणोदय हो चुका है... एक महान युग जिस में जीवंत रहना ही हमारे लिये आनंद का विषय है....लोग समझ रहे हैं कि अब सूर्य अपने स्थान पर थिर है। पृथ्वा उसकी परिक्रमा करती है। यह एक तर्कपूर्ण सैद्धान्तिकी है जिसे ब्रेख्त नाटकों तथा कविता दोनों में सिरजते हैं। उनकी एक कविता है ‘‘जनता और रोटी’। यहाँ उन्होंने न्याय को जनता की रोटी कहा है। यानि जिस तरह नयाय की जरूरत दिन प्रति दिन होती है ठीक वैसे ही न्याय की। पर यह न्याय की रोटी जनता के हाथों ही पकनी चाहिये। यह भर पेट हो। दूसरे, पौष्टिक भी हो -
न्याय जनता की रोटी है
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जब रोटी दुर्लभ है तब चारों ओर भूख है
जब बेस्वाद है , तब असंतोष है
खराब न्याय को झुठला दो
भूरा पपड़ाया गंधहीन न्याय
जो देर से मिले, बासी है
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जिस तरह रोटी की जरूरत रोज है
न्याय की जरूरत भी रोज़ है
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लोगों को चाहिये
हर रोज़ पूरी तरह, पौष्टिक, न्याय की रोटी
न्याय की रोटी भी
जनता के हाथों ही पकनी चाहिये
भर पेट, पौष्टिक प्रति दिन
30 जनवरी 1933 को जब हिटलर ने जर्मनी पर अधिकार जमा लिया तब ब्रेख्त को नया त्रासद संकट पैदा हुआ। यह स्पष्ट था कि अपने मार्क्सवादी विचार लेकर अब ब्रेख्त जर्मनी में नहीं रह सकते। इस बिंदु से ब्रेख्त के जीवन में निर्वासन का नया सिलसिला शुरू हुआ। यहाँ देखना यह है कि कवि ने ऐसे जानलेवा संकट में क्या सोचा! कौन सा विकल्प अपनाया। यदि ब्रेख्त चाहते तो मार्क्सवाद त्याग कर नया चेहरा पहन सकते थे। हिटलर के स्तुति गान रचने में उन्हें क्या कठिनाई हो सकती थी! जैसे हिंदी के अनेक लेखकों ने अपना कैरियर बनाने के लिये ऐसा किया ही है। सोवियत रूस के विघटन के बाद से तो हमने मार्क्स का नाम तक लेना उचित नहीं समझा। अपने कैरियर तथा सुख सुविधा के लिये डा0 नामवर सिंह जैसे समीक्षक ने तो 1968 (कविता के नये प्रतिमान) में ही मार्क्सवाद को विकृत करना शुरू कर दिया था। डा0 रामविलास शर्मा ने इस ‘पथभ्रष्ट विचलन’ की तीखी आलोचना भी की है। ऐसा क्यों होता है! क्या लेखक को ऐसा करने पर सबकुछ खो देना नहीं पड़ता! क्या इतिहास उन्हें क्षमा करता है। क्या वे हमारे आदर के पात्र बने रहते हैं! ऐसा ब्रेख्त ने क्यों नहीं किया। क्योंकि वह नाज़िम हिकमत तथा नेरुदा की तरह सच्चे लोकधर्मी कवि का महता दायित्व निभा रहे थे। शायद इसीलिये ये कवि आज स्मरणीय हैं। अनुकरणीय भी। बहरहाल, ब्रेख्त जर्मनी से निर्वासित होकर पहले डेनमार्क चले गये। 1938 में जर्मनी ने आस्ट्रिया को हड़प लिया। ब्रेख्त को आभास हुआ कि अब विश्वयुद्ध टाला नहीं जा सकता। यह भी लगा कि अब उन्हें वैज्ञानिक सोच को केंद्र में रख कर ही सृजन करना बेहतर होगा। इन दिनो ब्रेख्त की कविताओं का तेवर तीखा और धारदार है -
कितनी हड़बड़ी का आलंगिन है यह
तुम एक स्वादिष्ट दावत में शरीक होने जा रही हो
मेरे पीछे पड़े हैं जल्लाद के आदमी।
उन्हों ने व्यंग्य किया है उन लोगों पर जो शांति और युद्ध के बारे में हल्की फुल्की औपचारिक चर्चायें करके तुष्ट हो लेते है -
वे जो शिखर पर बैठे हैं, कहते है:
शांति और युद्ध के सार तत्व अलग अलग हैं
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युद्ध उपजता है उनकी शांति से
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उनका युद्ध खत्म कर डालता है
जो कुछ उनकी शांति ने रख छोड़ा है
उनके समीक्षकों का कहना है कि यह समय उनके ‘उत्कृष्ट सृजन’ का समय है। उनकी कविताओं में एक खास किस्म की गहरी रूपकीय भंगिमा उभरती दिखती है। इस दौर का ‘द लाइफ आफ गैलिलियों’ नाटक ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण सृजन है। एक प्रकार से यह कृति उनकी वैचारिक आस्था का कलापरक घोषणापत्र है। यह कृति बताती है कि अत्यंत प्रतिकूल स्थितियों में भी एक लेखक बिना वैचारिक विचलन के कैसे रास्ता निकालता है। दूसरे, बड़े तर्कपूर्ण ढंग से बताया गया है कि दुस्साहस कवि कर्म को विफल बनाता है। प्रतिबद्ध लेखक को चाहिये कि वह कठिनतम प्रतिकूल स्थितियों में भी अपना काम पूरा करे। दूसरे, विज्ञान का सही उपयोग सामान्य जन के लिये केसे हो। क्योंकि हिंसक और स्वार्थी लोगों ने विज्ञान के लाभ अपने हित के लिये हड़प लिये हैं। कहा है कि तुम्हारे और उनके (सामान्य जन) के बीच की खाई किसी दिन इतनी चौड़ी होगी कि तुम जिन नई उपलब्धियों को उत्सव मनाओगे उसका उत्तर एक भयावह चीख के द्वारा दिया जा सकता है। ब्रेख्त को सारतः समझने के लिये यह कृति बुनियादी है। मेरे विचार से हर उस कवि को यह कृति पढ़नी चाहिये जो कविता को बड़े सरोकारों से जोड़ कर उसकी ऊँचाइयों तक पहुँचाना चाहता है। यह कृति बताती है कि सच्चे जनपक्षधर कवि को बड़े जोखिम उठाना पूर्व शर्त है। अथक संघर्ष ही एक पथ है। जनता की शक्ति पाने के लिये हमें उससे एकात्म होना पड़ेगा। आज के लेखन का सबसे बड़ा रूपक (Metaphor) सर्वहारा ही है। सबसे बडा मिथक पूँजीवाद का साम्राज्यवाद से नाभिनालबद्ध गठजोड़ है। प्रतिबद्ध लेखक के लिये ब्रेख्त की तरह सर्वहारा का पक्षधर होना आज की अनिवार्यता है। लोकतंत्र की जरूरत भी। तभी हम अपने मुक्तिसंग्राम की अधूरी क्रांति को उसके तार्किक निष्कर्ष तक पहुँचा पायेंगे।
द्वितीय विश्व युद्ध का खतरा ब्रेख्त को चेतावनी थी कि डेनमार्क भी उनके लिये कोई महफूज़ स्थान नहीं रह गया है। योरुप में हर तरफ युद्ध के हालात देख सुन कर ब्रेख्त के मन मे भय था -
जनरल तुम्हारा टेंक एक मजबूत वाहन है
वह नष्ट कर डालता है वन को
और रौंद डालता है सैकड़ों आदमियों को
लेकिन उसमें एक खराबी है
इसके लिये एक चालक चाहिये
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उसके लिये एक मिकेनिक चाहिये
जनरल आदमी कितना उपयोगी है....
यहाँ ब्रेख्त युद्ध में मनुष्य के विनाश का संकेत करते हुये वे हुनरमंद आदमी के अपरिहार्य महत्व को बताते हैं। उसके बिना कुछ भी संभव नहीं। न निर्माण। न प्रगति। उसी दौरान फासिस्ट जर्मनी ने समाजवादी देश सोवियत रूस पर आक्रमण कर दिया। 1941 के आस पास ब्रेख्त अमरीका चले आये। वहाँ उन्होंने फिल्म उद्योग के लिये भी काम करने का प्रयत्न किया। पर उनके ज़मीर ने उनका साथ नहीं दिया। अमरीका भी उन्हें रास नही आया। वहाँ से लौट कर वह सबसे पहले स्विट्जरलैण्ड में रहने लगे। पर उनके मन में इस बात की चिंता जरूर थी कि अपनी विचारधारा के प्रसार के लिये वह अपने नाटकों का मंचंन करा सकें। तभी उनके मन में विचार आया कि शायद इस काम के लिये उन्हें आस्ट्रिया अधिक अनुकूल होगा। वहाँ की भाषा भी उस समय जर्मन थी। वहाँ से उन्हें पूर्वी तथा पश्चिमी जर्मनी में आने जाने की सुविधा रहेगी। 1949 के आस पास वह ज्यूरिख चले आये। वहाँ पहुँचने के बाद उन्होंने आस्ट्रियाई नागरिकता प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। 1950 में उन्हें वहाँ की इच्छित नागरिकता प्राप्त हो गई।
सोचने की बात है कि ब्रेख्त ने अपने सृजन के लिये जो विचाधारा चुनी वे उसका निर्वाह हर हालत में करते रहे। कहते हैं कि उन्होंने नाटकों द्वारा अपनी मार्क्सवादी विचारधारा का प्रचार प्रसार करने के लिये ‘एपिक थियेटर’ नाम दिया। हिंदी में उसे (लोक नाटक) की संज्ञा दी गई है। उन्होंने परंपरति अरस्तू आदि के नाट्य सिद्धांतों से भिन्न तथा मौलिक नाट्य सिद्धांत रचे। उनका तर्क है कि जो कुछ मंच पर घटित है उससे दर्शक एकात्म न हों। वे समझे कि जो कुछ दिखाया जा रहा है वह विगत की ही गाथा है। शायद ऐसा ही प्रभाव लोक गीतों को गाये जाने की कला करती है। इसकी अर्थ ध्वनि यह है कि दर्शक को एक तटस्थ भाव से ही नाटक देखना चाहिये। यानि दर्शकों का एक ‘अलगाव भाव’ बना रहे। ब्रेख्त बार बार यह संकेत करते हैं कि नाटक के द्वारा वह कोई यथार्थ विभ्रम के रूप में प्रस्तुत नहीं कर रहे। बल्कि वह नाटक के माध्यम से मनुष्य के स्वभाव को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि दर्शक एक ऐसा नाटक देख रहे हैं जहाँ मनुष्य अपनी संक्रियाओं से अपने स्वभाव को बताते हैं। इस प्रकार वह कविता तथा नाटक मे अरस्तू के चिर परिचित सिद्धान्तों को ध्वस्त करते हैं। इसीलिये ब्रेख्त के लिये काव्य तथा नाटक सृजन बहुत अलग अलग चीज़ें नहीं लगती। वह थियेटर को उच्चकोटि के बौद्धिक मनोरंजन का मंच मानते हैं। दर्शकों में उन्नत विवेक जाग्रत हो। वे अपने तर्क से चीज़ों को समझें। उन्हें विश्लेषित करें। दर्शकों को किसी भावावेग में बहने की जरूरत नहीं है। उन्हें बराबर यह एहसास रहे कि अभिनेता कुछ खास वर्ग के व्यक्तियों की सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर उनके स्वभाव तथा व्यवहार की संक्रियायें बता रहे है। दर्शक वास्तविक घटनायें न देखकर अभिनेताओं द्वारा कही गई गाथा देख रहे हैं। यही वजह है कि ब्रेख्त के नाटकों को परंपरित ढंग से ठीक उसी तरह मंचित नहीं किया जा सकता जिस तरह हम शेक्सपियर के नाटकों का मंचन करते हैं। एक प्रकार से ब्रेख्त चाहते हैं कि वे अपने दर्शकों को उनकी आंतरिक सीमाओं से बाहर निकाल पायें। उन्हें यह विस्मृत करा दें कि तत्क्षण वे थियेटर में हैं। यदि दर्शक नाटक को देख भावविभोर हुये तो उनकी तर्क शक्ति क्षीण बल होगी। इस दृष्टि से वह एक क्रांतिकारी तथा मौलिक नाटककार हैं। उन्हें यकीन है कि जीवन को आलोचनात्मक तथा विश्लेषणपरक आँख से देखना एक प्रकार से उसे रूपांतरित करने के लिये एक कदम आगे बढ़ना है। आज की कला का यह प्रमुख प्रयोजन भी होना चाहिये। वस्तुजगत की सिर्फ व्याख्या ही नहीं बल्कि उसके रूपांतरण होने की प्रक्रिया पर बलाघात हो। दिलचस्प बात है कि ब्रेख्त के यहाँ न तो कोई महानायक है न कोई खलनायक। जैसे हम शेक्सपियर या गेटे में पाते हैं। उनके यहाँ सामान्य क्रियाशील जीवंत मनुष्य ही है सब।
ब्रेख्त की कविता इस बात का अच्छा खासा प्रमाण है कि वह राजनीतिक प्रतिबद्धता को सृजन की पहली तथा जरूरी शर्त मानते हैं। उनकी एक कविता है ‘समाधानं उसमें वह जनता और सत्ता के रिश्तों का संकेत करते हैं -
सत्रह जून के विप्लव के बाद
लेखक संघ के मंत्री ने
स्तालिनाली शहर में पर्चे बाँटे
कि जनता सरकार का विश्वास खो चुकी है
और तभी दुबारा पा सकती है यदि दुंगनी मेहनत करे
वह मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की तत्वमीमांसाई बारीकियों को कविता में बड़े संयम तथा रूपकीय अंदाज़ में कहते रहे हैं। सामाजिक अंतर्विरोधो को वह बड़े ही सटीक ढग से प्रस्तुत करते हैं। श्रम का सौदर्य उनकी कविताओं मे बड़ी सांकेतिकता से आता है -
पसीने से सराबोर वह नीचे झुकता है
सूखी लकडियों के लिये
मच्छरदानी को सिर से परे ढकेलता है
लकड़ियों का गट्ठर बहुत मुश्किल से
सँभाल पाता है
घुटनों के बीच
पीठ सीधी करता है बोझ के भार से
और हाथों को उठाता है ऊपर ......
ब्रेख्त ने अधिकांश लघु आकार की ही कवितायें लिखी है। शायद उन्हें नाटकों ने लंबी कवितायें लिखने का अवकाश ही न दिया हो। उनकी कवितायें वास्तुशिल्पीय संरचना की दृष्टि से सुगठित हैं। शब्दों की भारी मितव्ययता है। वह कुलीन काव्य मुहावरे को तोड़ते हैं। तथा कथित काव्यमय सुंदर शब्दों के पीछे नहीं भागते। आखिर कयों! क्योंकि विश्व के कुलीन और बुर्जुआ कवियों की तरह कविता उनके लिये मनोरंजन तथा विलासिता की चीज़ नहीं है। वह हमारे पुराने दकियानूसी संस्कारों को तोड़ने का अस्त्र भी है। मैं पहले ही कह चुका हूँ ब्रेख्त ‘शिवेतर क्षतये’ वाले काव्य प्रयोजन को मानते है। उनकी कविता सामान्य पाठक को उसके सामाजिक दायित्व के प्रति सचेत करती है। उसकी शक्ति का उसे एहसास कराती है। वह रिल्के की कविता की तरह निजी तथा अति गोपनीय चीज नहीं हैं। सर्वहारा के पक्ष में लड़ते रहने के लिये कविता एक ऐसा अस़्त्र है जो वर्गशत्रु पर आक्रमण कर उसे भी सोचने को बाध्य करती है। वह सप्रयोजन ऐसी रचना है जो संघर्षशील मनुष्य की हर कठिनाई में उसके साथ खड़ी होती है। कविता मनुष्य जाति की ऐसी मूल्यवान धरोहर है जो उसे अंदर से परिमार्जित कर अग्रगामी सामाजिक गतिकी को आगे बढ़ाती है।
कहना न होगा कि ब्रेख्त को मार्क्सवाद ने ही ऐसी विश्वदृष्टि दी जिससे वह समाज का वैज्ञानिक विश्लेषण कर उसे रूपांतरित तथा सुंदर बनाने के लिये प्रेरणा दे सके। यह तो सभी जानते हैं दुनिया में अधिकांश लोग दुखी है। यह सिर्फ छायाप्रतीति है। सारतत्व तक पहुँचने के लिये हमें यह भी जानना होगा कि उनकेा किसने दुखी बनाया है! फिर उससे मुक्त होने का क्या उपाय हो सकता है। एक बड़ी तथा उत्कृष्ट कृति इन सब सवालों के हल संकेत से सुझाती है। ब्रेष्ट की कविता तथा नाटक दोनो में ऐसे संकेत बड़ी गहराई तथा संश्लिष्टता से निहित हैं। उनकी कृतियों मे उच्च मानवीय मूल्यों से संसक्ति ऐसे नैतिक आदर्श भी हैं जो समाज का उन्नयन कर उसे अग्र गति दे सकें। ब्रेख्त एक राजनीतिक लेखक हैं - इसमे संदेह नहीं। उनकी गहरी रुचि जनता के संघर्ष में है। फिर भी उनकी कविताओं में संश्लिष्ट अर्थध्वनियाँ बराबर मौजूद रहती हैं। उनमें हताशा और नाउम्मीदी के काव्य बिंब बहुत कम हैं। वे श्रमिकों तक ही सीमित नहीं हैं। बल्कि किसान जीवन की मार्मिक छवियाँ भी उकेरते हैं -
जंगल पनपेंगे फिर भी
किसान पैदा करेंगे फिर भी
मौजूद रहेंगे शहर फिर भी
आदमी लेंगे साँस फिर भी।
अपनी कविता के प्रयोजन के बारे में वे बहत साफ हैं। कविता सप्रयोजन गंभीर कर्म है। वह बुरे आदमियों को खौफ पेदा करे। अच्छे इन्सान उसे पढ़कर प्रसन्न हों जैसे उन्हें कोई निरुपम उपलब्धि हुई है। उनकी एक कविता है ‘ एक चीनी शेर की नक्काशी को देख कर-’
तुम्हारे पंजे देख कर
डरते हैं बुरे आदमी
तुम्हारा सौंदर्य देख कर
खुश होते हैं नेक इन्सान
यही मैं चाहूँगा सुनना
अपनी कविता के बारे में
यहाँ बिंबध्वनि है कि कविता वर्गशत्रु को उसके अंत का संकेत देती है। उसके दुराचार को सबके सामने खोलती है। उसके विनाश के लिये तैयार होती ताकत का उसे एहसास कराती है। श्रेष्ठ कविता में संकेत होते हैं कि थिर कुछ नहीं है। हर चीज़ को रूपांतरित होना ही है। जो सर्वाहारा एक दम शोषित पीड़ित है उसे एक दिन विजयी होना है। एक दिन क्रूर और काली ताकतों को पराजित कर वह मुकुट जरूर पहनेगा। ऐसे विचार व्यक्त करने वाली कविता से बुर्जुआ सत्ता डरती है। जो कविता हल्की फुल्की बातों से उसका मनोरंजन कराये उसको वह संरक्षण देता है। ब्रेख्त की कविता वर्गशत्रु पर प्रत्यक्ष परोक्ष बराबर प्रहार करती है। पर ब्रेख्त ने राजनीतिक कविताओं के अलावा ऐसी कवितायें भी लिखी हैं जिन में व्यक्ति तथासामाजिक जीवन की गुणवत्ता विकसित करने के संकेत है -
हम यह जानते हैं सदा
अधमता से घृणा भी
रूप को विकृत करती है
असत्य की अवज्ञा से भी
हमारी वाणी कर्कश होने लगती है
ओह...हमने मैत्री के लिये
भूमि तैयार करने की इच्छा की
पर हम परस्पर मित्र न हो सके।
पर तुम धैर्य से सोचो
आदमी आदमी की सहायता के लिये
कहाँ कहाँ तक नहीं पहुँचा है
इस दृष्टि से ब्रेख्त के कथनों में ऋचाओं या बाइबिल की उक्तियों जैसी सहज सरल अभिव्यक्ति है।
बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया है कि ब्रेख्त प्रकृति की ओर बराबर आकर्षित रहे हैं । यह बात मुझे भी चमत्कृत करती रही है के एक प्रतिबद्ध राजनीतिक कवि प्रकृति के सौंदय्र से बार बार अभिभूत होता हे। पर उनके यहाँ प्रकृति किसी पलायन या प्रतिसंसार रचने के अर्थ में नहीं आती। वह उद्दीपन नहीं है। बल्कि अपने आप में ऐसा सवायत्त आलंबन है जो मनुष्य की संक्रिया को प्रभावित करता है। मनुष्य उसे रूपांतरित करते हुये दिखाई पड़ता है। यानि ब्रेख्त के यहाँ मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते द्वंद्वात्मक हैं। उनकी बहुत ही खूबसूरत कविता है ‘पौधघर’ । यहाँ ‘पेड़ों की सिंचाई’ के साथ ‘थकान से चूर’ होने का एहसास भी है। जहाँ ‘दुर्लभ फूलो के अवशेषों’ के साथ लकड़ियाँ , तिरपाल , तथा ‘टीन की बाड़’ भी है। ‘पीले मुरझाये डण्ठलों’ को थामें हुई रस्सियों की मरोड़ें’ हैं। तिरपाल की छत पर डोलती ‘ मामूली सदाबहार पेड़ों की छाया’ के प्रति ब्रेख्त आकर्षित हैं। ये सदावहारी पेड़ ऐसे हैं जिन्हें न सिंचाई की जस्रत है। न वर्षा की। बाद में ब्रेख्त को अफसोस है कि ‘खूबसूरत नाज़ुक पौधे अब ज़िंदा’ नहीं हैं । पूरी कविता में प्रत्यक्ष परोक्ष आदमी और प्रकृति की द्वंद्वपरक स्थिति बनी रहती है । ब्रेख्त ‘कोयल का गीत’ सुन कर प्रेरित होते है। जैसे अंग्रेज़ी के विद्रोही कवि शैले अबाबील का गीत सुन कर और कीट्स बुलबुल का। निराला जब अपने को ‘स्नेह निर्झर’ से रिक्त पाते हैं तो उन्हें आम की सूखी डाल दिखाई देती है जहाँ अब ‘ पिक या शिखी ’ बैठने को नहीं आते। ब्रेख्त मानते हैं कि ‘तमाम कोयलों के गीत रहेंग मेरे बाद भी’। ध्वनि है कि आदमी के बाद भी कला जीवित रहती है। जैसे कोयल के गीत। उनकी कविता में झील, नदियों, पहाड़ों, शरद के आने, बाढ़, शामें, तँबई रंग के देवदार, भयंकर तूफान, बियाबान, उमस भरे दिन, चाँदी जैसे चिनार के वृक्ष, झरबेरीयाँ, शार्क मछलियों, सुअरी, कुहरे से ढके दिन, घाटियों, सफेंद बादल, गुमसुम आकाश, बंजर जमीन, तितलियाँ, आँच की ऊँची लपटें, थरथराती झुलसती पत्तियाँ आदि के चित्र बराबर आते हैं। जैसा मैं ने कहा ब्रेख्त के यहाँ प्रकृति पलायन, रूमानियत या प्रतिसंसार रचने को न आकर आदमी की संक्रियाओं को बताने के लिये आती है। वह मनुष्य संक्रिया की पीठिका भी बनती है। और द्वंद्वमय क्रीड़ा भूमि भी। इस से कविता में इकहरापन नहीं आता। दूसरे , हम अपने आंतरिक संसार को विस्तृत करते हैं।
ब्रेख्त सही अर्थों में एक लोकधर्मी कवि हैं । वह मनुष्य के सप्रयोजन संघर्ष को कभी आँख ओट नहीं होने देते वह कहते हैं -
फोलादी कवि जब उन्हें पीटता है
देवियाँ उँचे स्वरों में गाती है
सूजी आँखों से
वे उसका आदर करती है
पूँछ मटकाती हुई कुत्तियों की तरह
उनके नितंब फड़कते हैं पीड़ा से
और जांघें वासना से। यह बात ब्रेख्त ‘कला की इष्टदेवियो’ के बारे में कह रहे हैं। संकेत है कि हमारे पवित्र आध्यात्मिक तथा नैतिक मूल्य बुंरी तरह विकृत हो चुके हैं। विश्वविख्यात चित्रकार एम0एफ0 हुसैन ने भारतीय देवी देवताओं को थेाड़ा विरूप अमूर्तन से जब बताया तो उन्हें यहाँ के कट्टर पंथियों ने देश छोड़ने को विवश किया। जबकि हम खजुराहो के मंदिर पर उकेरी नग्न और अश्लील मूर्तियों को सदियों से देखते सराहते आये हैं। कला सिर्फ ऊपरी सतही यथार्थ को नहीं दिखाती। बल्कि वह छाया प्रतीति को भेद कर आंतरिक विकृतियों के भी दिखाती है। देवी देवताओं में भी मानवीय दुर्बलतायें होती ही है। वे मनुष्य के प्रतिबिंब हैं।
..... आज के स्पाती युग में ‘फौलादी कवि’ कहना कवि और कविता की परंपरित कोमल धारणा को बुनियादी तौर से बदलने का ही उपक्रम है। यह बात सीखने की है। ब्रेख्त का कथ्य लोक से उत्खनित है । तदनुरूप उनकी भाषा भी लोक से ही अर्जित की गई भाषा है। उनकी भाषा में कुलीनता का बनाव ठनाव न होकर सीधी सहजता है। कुलीन मन को ऊपर से दिखने में वह सपाट और ऊटपटाँग लग सकती। पर उसमें संक्रियात्मक बिंब धर्मिता बराबर बनी रहती हैं। उसकी लय लाकोन्मुख तथा लोकानुगामी है। उसमें बेलबूटों की पच्चीकारी न होकर धमन भट्टियों में पके इस्पात की धारदार खनक है। एक प्रकार से वह रचनाशील भाषा का नमूना है। अर्थात् ऐसी रचनाशील भाषा जहाँ कवि के शब्द पूर्व स्वीकृत या पूर्व परिभाषित अर्थ-ध्वनियों का अनुगमन नहीं करते। बल्कि जहाँ कवि द्वारा सृजित शब्दों का अर्थ ध्वनियाँ अनुगमन करती हैं। ब्रेख्त की भाषा में स्फटिक जैसी बिंबधर्मी पारदर्शिता है। हीरक इनी जैसी तीक्ष्णता। भाषा के बारे में कवि के विचार जानने योग्य है -
और मैं हमेशा सोचता था
एकदम सीधे सादे शब्द ही पर्याप्त होन चाहिये
मैं जब कहूँ कि चीज़ों की असलियत क्या है
प्रत्येक दिल छलनी हो जाना चाहिये
कि धँस जाओंगे मिट्टी में एक दिन
यदि खुद नहीं खड़े हुये तुम
सचमुच तुम देखना एक दिन
यहाँ शब्द सीधे सादे हैं। पर उनकी ध्वनियाँ , व्यंजना , संकेत अत्यंत दिशा सूचक तथा आक्रामक हैं। ‘कि धंस जाओगे मिट्टी में एक दिन /यदि खुद नहीं खड़े हुये’ वाक्य कविता को सर्वहारा के विश्वव्यापी संक्रिया से जोड़ती है। यानि बुनियादी रूपांतरण के हेतु सामूहिक तथा संगठित जनता के अलावा कोई अन्य विकल्प है ही नहीं। यहाँ शब्द कवि द्वारा विवक्षित बात के नये सृजित अर्थो के पीछे स्वयं दौड़ते नज़र आते हैं। इसी तरह वह श्रम की रचनाशीलता बताते हैं -
पसीने से सरावोर वह नीचे झुकता है
सूखी लकड़ियों के लिये
$ $ $
लकड़ियों का गठ्ठर बहुत मुशकिल से
सँभाल पाता है घुटनों के बीच
पीठ सीधी करता है बोझ के भार से
और हाथों को उठाता है ऊपर
$ $ $
उठे हैं उसके हाथ
यहाँ भी भाषा सिलपट दिख सकती है। पर संक्रियाओं की वक्रता में श्रम की भिन्न भिन्न बिंबधर्मी छबियाँ संगर्थित हैं। इसीलिये भाषा में अर्थव्यंजकता उसे इकहरा तथा निरर्थ नहीं होने देती। इसीलिये मैंने कहा कि ब्रेख्त की काव्य भाषा सपाट होकर भी बिंबधर्मी तथा रचनाशील है। नेरुदा की भाषा पर कुलीनता का प्रभाव है। ब्रेख्त की भाषा में नाजिम की भाषा जैसी सहजता हैं। दोनो ही लोक से भाषा अर्जित करते हैं। नेरुदा मार्क्सवादी होते हुये भी अधिकांशतः भाषा में कुलीन बने रहते है। हिंदी में जैसे मुक्तिबोध।
यह सवाल बार बार उठेगा कि आखिर ब्रेख्त को आज पढ़ना समझना क्यों जरूरी है। जिन संकटापन्न तथा त्रासद हालात में ब्रख्त ने अपना कवि कर्म किया आज भी हालात वैसे ही हैं। पूँजीकेंद्रित व्यवस्थायें अपने चरम पर मनुष्य का शोषण कर रही हैं। साम्राज्यवाद नये रूप में पहले से भी अधिक आक्रामक और एकध्रुवीय हुआ है। सर्वहारा के पक्षधर कवि को बड़ी चुनौतियाँ तथा जोखिम आज भी बदस्तूर हैं। ऐसे में ब्रेख्त को पढ़ना हमें अपने सामाजिक दायित्वं के प्रति सजग करेगा। हमें हर प्रतिकूल स्थिति में अपनी वैचारिक आस्था को बनो रखने के लिये प्ररित करेगा। उन्ही की एक कविता से बात खत्म करता हूँ -
जब तुम हमारी दुर्बलतओं के बारे में बताओंगे
उस अँधेरे समय के विषय में भी
जिसने हमें इस तरह कमज़ोर किया था
ये वह समय था जब हमने जूते कम
देस परदेस अधिक बदले
स्थितियाँ खौफनाक थी
इधर उधर भागना हमारी मजबूरी थी
वर्ग संघर्ष में नधे थे हम
फिर भी हताश थे
क्योंकि अन्याय ही सच था
प्रतिरोध का साहस कम
हमें यह भली भाँति पता था
अराजकता के प्रति नफरत
दिल को कठोर बना देती है
अन्याय के प्रति आक्रोश
हमें वाणी से मधुर नहीं होने देता
हम करुणा को सेंतना चाहते थे
पर स्वयं सहृदय नहीं हो पाये ..........।
(आलेख में प्रयुक्त सभी चित्र ब्रेख्त के हैं जिन्हें हमने गूगल से साभार लिया है।)
(विजेन्द्र जी हमारे समय के वरिष्ठ कवि, आलोचक एवं चित्रकार हैं। वे कृतिओर पत्रिका के संस्थापक सम्पादक भी हैं।)
संपर्क-
मोबाईल- 09928242515
विजेन्द्र जी युवा पीड़ी के लिए ज्ञान का अशेष भंडार हैं . उम्र इस पडाव पर उनकी लगन और ऊर्जा देखकर खुशी भी होती है और आश्चर्य भी . उनकी यह ऊर्जा यूँ ही बनी रहें .
जवाब देंहटाएंइस पूरी श्रृंखला के सभी लेख बहुत मौलिक एवं महवपूर्ण हैं अत: सभी लेखों को एक पुस्तक रूप में आना चाहिए . ताकी लंबे समय तक ये सुरक्षित और एकत्रित रह सकें .
वाह, क्या गज़ब की कविताएँ हैं
जवाब देंहटाएंAah ! Dhanyavaad
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लेख
जवाब देंहटाएंकभी यहॉ भी पधार पर अनु्ग्रहीत करें
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क्या आपको अपना मोबाइल नम्बर याद नहीं
Bahut bahut dhanyavaad aadarniya Vijendra jee... Abhaar Santosh bhai
जवाब देंहटाएंविजेन्द्र जी, आपका यह लेख पढने के पश्चात मैंने ब्रेख्त की कुछ और कवितायेँ पढ़ीं । उनकी कविताओं का सरोकार जन है - जो जीवन के पक्ष में खडी़ रहती है और ऐसे कारकों का विरोध करती हो जो लोक, संस्कृति और मानवीयता का तिरस्कार करती है । उनकी कविताओं में असामान्य तात्विकता भी दिखी । जीवन-तत्वों की खोज में उनकी कवितायेँ गंभीर, व्यापक, सहज और अनुभव-समृद्ध भी हैं । फासीवादी स्पेन तथा जर्मनी के अनुभव के बावजूद उनकी कविताओं में टाइम स्टाम्प भी नहीं दिखता । वो गलीलियो से लेकर मशीनों, मजदूरों, तथा युद्ध के बारे में लिखते हैं, जो किसी समय या सीमा से बाध्य नहीं हैं । शायद यही बात ब्रेख्त तथा उनके जैसे कुछ अन्य कवियों को अमर बना देती है ।
जवाब देंहटाएंसंतोष जी का धन्यवाद, पहली बार जैसा मंच स्थापित करने के लिए ! नित्यानंद जी, इसकी पुस्तक बननी ही चाहिए !
आभार। बहुत जरूरी काम किया है। कुछ अंश फेसबुक पर "साभार, ब्रेख्त" पोस्ट कर रहा हूं।
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