उमेश चौहान
कवि – परिचय
पूरा
नाम: उमेश कुमार सिंह चौहान (यू. के. एस. चौहान)
जन्म: 9 अप्रैल, 1959 को उत्तर प्रदेश के लखनऊ जनपद के ग्राम
दादूपुर में
शिक्षा एवं अनुभव: एम. एससी. (वनस्पति विज्ञान), एम.
ए. (हिन्दी), पी. जी. डिप्लोमा (पत्रकारिता व जनसंचार)। वर्ष 1986 से भारतीय प्रशासनिक सेवा
(केरल कैडर) में कार्यरत। वर्तमान में नई दिल्ली में भारत
सरकार के खाद्य मंत्रालय में संयुक्त सचिव के रूप में तैनात।
साहित्यिक गतिविधियाँ:
- विद्यार्थी-काल से ही हिन्दी तथा अवधी में काव्य-रचना। मलयालम से हिंदी तथा हिन्दी से मलयालम में अनुवाद. दोनों भाषाओं की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर कविताएँ, कहानियाँ व लेख प्रकाशित।
- प्रकाशित पुस्तकें: ‘गाँठ में लूँ बाँध थोड़ी चाँदनी’ (प्रेम-गीतों का संग्रह - 2001), ‘दाना चुगते मुरगे’ (कविता-संग्रह – 2004), ‘अक्कित्तम की प्रतिनिधि कविताएं’ (मलयालम से अनूदित कविताओं का संग्रह – 2009), ‘जिन्हें डर नहीं लगता’ (कविता-संग्रह – 2009), एवं ‘जनतंत्र का अभिमन्यु’ (कविता – संग्रह – 2012)।
- सम्मान: भाषा समन्वय वेदी, कालीकट द्वारा ‘अभय देव स्मारक भाषा समन्वय पुरस्कार’ (2009) तथा इफ्को द्वारा ‘राजभाषा सम्मान’ (2011)।
कोई भी कवि इस मायने में विशिष्ट होता है
क्योंकि वह अपने काव्य के द्वारा निषिद्ध को भी सिद्ध साबित करता है।
उसे कोई भी हिचक नहीं होती, वह बिना किसी चिन्ता के अपने काम में जुटा रहता है.
उमेश कुमार सिंह चौहान हमारे बीच के ऐसे ही कवि हैं जो यह जोखिम उठाने में तनिक भी
नहीं हिचकते। हमारे समाज में कौवे को हीन दृष्टि से देखा-सुना जाता है
लेकिन कवि कौवों की सांगठनिक क्षमता पर मुग्ध है। वह उनसे प्रेरणा ग्रहण कर
हर दुखी और संकटग्रस्त मनुष्य को उसके दुःख और संकटों से निजात दिलाना चाहता है। और इसी क्रम में वह कौवा होना चाहता है और
येन-केन-प्रकारेण मनुष्यता को बचाए रखना चाहता है।
'आलोचक जी से कवि का संवाद’ कविता भी कुछ इसी तेवर की कविता है जिसमें कवि आलोचक जी के सुझावों को दरकिनार कर अंततः अपने मन में यही सुनता-गुनता है- “मनै कै सुनियो, मनै मां गुनियो, कवि तुम कह्यो मनै कै बात, जग का भावै या ना भावै, बेमन कहेउ न कौनिउ बात” यह देशी अंदाज वाली बात जो खालिस अपनी है और जो मिट्टी से जुड़े होने का एहसास कराती है, उसे ताकत प्रदान करती है अपने कवित्व के प्रति. यहाँ यह ध्यान रखना जरूरी है कि उमेश जी एक नौकरशाह हैं और शासन-सत्ता का अंग होते हुए भी यह कहने की हिम्मत रखते हैं कि ‘रोओ कि यहाँ सुरक्षित नहीं है कोई चुस्त पुलिस वालों के बीच भी, रोओ कि यहाँ तमाम अधिनियम होते हुए भी सजा देने में सुस्त है कानून।’
तो आइए पढ़ते हैं कवि उमेश चौहान की कविताएँ।
'आलोचक जी से कवि का संवाद’ कविता भी कुछ इसी तेवर की कविता है जिसमें कवि आलोचक जी के सुझावों को दरकिनार कर अंततः अपने मन में यही सुनता-गुनता है- “मनै कै सुनियो, मनै मां गुनियो, कवि तुम कह्यो मनै कै बात, जग का भावै या ना भावै, बेमन कहेउ न कौनिउ बात” यह देशी अंदाज वाली बात जो खालिस अपनी है और जो मिट्टी से जुड़े होने का एहसास कराती है, उसे ताकत प्रदान करती है अपने कवित्व के प्रति. यहाँ यह ध्यान रखना जरूरी है कि उमेश जी एक नौकरशाह हैं और शासन-सत्ता का अंग होते हुए भी यह कहने की हिम्मत रखते हैं कि ‘रोओ कि यहाँ सुरक्षित नहीं है कोई चुस्त पुलिस वालों के बीच भी, रोओ कि यहाँ तमाम अधिनियम होते हुए भी सजा देने में सुस्त है कानून।’
तो आइए पढ़ते हैं कवि उमेश चौहान की कविताएँ।
हिम्मत न हारना
मैना,
अभी तो तुम्हें
बहुत कुछ गाना है
ढेर सारा नया-नया
नई धुन में सुनाना है
अभी तो पिंजड़े से
बाहर आकर तुम्हें
आज़ादी का जश्न भी
मनाना है
अब कभी रोने या
रुला देने के अंदाज़ में मत गाना मैना।
मैना, अब तुम बाज
से कभी डरना नहीं
उसके ख़ूनी पंजों
के भय से
सींकचों में दुबक
कर कहीं मरना नहीं
मैना अभी तो
तुम्हें बाज की चोंचों के
आघातों की पीड़ा
का बयान करना है
मैना, अभी तो
तुम्हें अपनी देह से टपकी एक-एक बूँद से
दुनिया में फैली
नकली सफेदी को लाल करना है।
मैना, अभी तो
तुम्हें बुलन्द आवाज़ में भी कुछ सुनाना है
मैना, अभी तो
तुम्हें शहादत के गीत गाना है
मैना, अभी तो
तुम्हें अपनी पूरी क़ौम को
खुले आकाश में
उड़ना सिखाना है
मैना अभी तो
तुम्हें अपने हिस्से के दाना-पानी पर
अपना नैसर्गिक
अधिकार जमाना है।
मैना, अभी तो
बदलाव की शुरुआत भर हुई है
अभी तुम
दुश्चिन्ताओं से घबरा कर कहीं ठिठक न जाना
अभी तो तुम्हें
दुनिया में अपनी सुरीली जंग का लोहा मनवाना है
मैना, बस अब
तुम्हें आज के बाद अपनी मीठी तान में थोड़ी सी
पंखों की
प्रतिरोध-भरी फड़फड़ाहट की संगत भी मिलाना है।
हिम्मत न हारना
मैना अभी तो यहाँ तुम्हें बहुत कुछ गाना है।
लक्ष्मण-रेखाएँ
जो हमेशा अपनी हद
में रहता है
वह प्रायः सुरक्षित
बना रहता है
लेकिन इतिहास का
पन्ना नहीं बन पाता कभी भी
जो हदें पार करने
को तत्पर रहता है
उसी के लिए खींची
जाती हैं लक्ष्मण-रेखाएँ
जो वर्जना को
दरकिनार कर लाँघता है ये रेखाएँ
वही पाता है जगह
प्रायः इतिहास के पन्नों पर।
इस देश में ऐसे
महापुरुषों की कमी नहीं
जो नारियों को
मान कर अबला
रोज़ खींचते हैं
उनके चारों ओर लक्ष्मण-रेखाएँ
लेकिन फिर भी कुछ
सीताएँ हैं कि मानती ही नहीं
युगों पुरानी
त्रासदी को भूल
किसी भी वेश में
आए रावण की परवाह किए बिना
वे लाँघती ही
रहती हैं निर्भयता से
पुरुष-खचित इन
रेखाओं को
और इतिहास के
पन्नों में दर्ज़ होती रहती हैं
मीराँबाई,
अहिल्याबाई, लक्ष्मीबाई
या फिर यूसुफजाई
मलाला और दामिनी बन कर!
रोओ
रोओ, इस देश की
दुर्गाओ, चण्डियो, महाकालियो!
रोओ, क्योंकि
रोना ही बचा है नियति में
तुम्हारी और
हमारी भी।
रोओ, क्योंकि
भूखा है देश यह
सिर्फ पेट का ही
नहीं
हर तरह की
निर्लज्जता दिखाने का भी।
रोओ कि विश्व के
बलात्कारियों की राजधानी बन चुकी है दिल्ली,
रोओ कि घर से
लेकर भरी सड़कों तक कहीं भी महफूज़ नहीं हो तुम,
रोओ कि बड़े शहर
ही नहीं, छोटे कस्बों और गाँवों तक का यही है हाल,
रोओ कि नग्नता निषिद्ध
होते हुए भी
इस देश के पर्यटन-स्थलों
में
आए दिन होते हैं
बलात्कार विदेशी युवतियों तक पर।
रोओ, क्योंकि
हमारे आक्रोश से डर कर
शर्म से
आत्महत्या तो नहीं कर लेंगे ये बलात्कारी
और गुस्से में इन
विक्षिप्तों को संगसार करने का
मौका तो नहीं ही
मिलेगा आपको गाँधी के इस देश में!
रोओ कि यहाँ
गुस्सा सड़कों पर नहीं सिर्फ टीवी चैनलों पर फूटता है,
रोओ कि यहाँ
सिर्फ बेनतीज़ा बहसें ही होती है पान के नुक्कड़ों से लेकर संसद के भीतर तक,
रोओ कि यहाँ
सुरक्षित नहीं है कोई चुस्त पुलिस वालों के बीच भी,
रोओ कि यहाँ तमाम
अधिनियम होते हुए भी सजा देने में सुस्त है कानून।
रोओ कि यहाँ यह
सब आए दिन होते हुए भी
झूठ-मूठ
गर्वान्वित होते ही रहेंगे हम अपनी सांस्कृतिक विरासत पर,
रोओ कि यहाँ सब
कुछ भुला ही दिया जाता है दो-चार दिन में
अनेकानेक
समस्याओं के बीच।
रोओ, क्योंकि
करुणा से भरा है इस देश का इतिहास,
रोओ, क्योंकि
वैसे भी हँसा तो जा नहीं सकता
अपने ही घरों में
आग लगा कर भी।
रोओ, इस देश की
माताओ, बहनो, बेटियो, रोओ!
लेकिन एक बार
घरों से बाहर निकल कर
जरा कुछ जोर से
तो रोओ!
अप्रत्याशित
एकदम अप्रत्याशित
दृश्य था वह
एक कौवा अभी-अभी
आकर सामने बिजली के तार पर बैठा था
अचानक ही उसका एक
फड़फड़ाता डैना पास वाले दूसरे तार में छू गया
कौवा अब दोनों
तारों के बीच चिपका लाचारी से तड़पड़ा रहा था
प्रातः की
चहाचहाहट को बेधती कौवे की चीत्कार
करुण भी थी और
तीखी भी
मैं उसकी कोई भी
मदद करने में असमर्थ था
तत्क्षण मुझमें
अपनी असमर्थता के प्रति चिढ़ भरने लगी
और कौवे की आसन्न
मृत्यु के प्रति सहानुभूति।
तभी अचानक ही
चारों तरफ से
काँव-काँव का शोर उठने लगा
आसमान पर कुछ ही
क्षणों के भीतर आ जुटी
कौवों की पूरी
सेना निर्भयता के साथ
बिजली के तारों का
सारा रहस्य पता था जैसे उन्हें
अलग-अलग तारों पर
उछल-उछल कर
तमाम कौवे उन्हें
एक साथ हिला रहे थे
कुछ कौवे तारों
को चोंचों से दबा-कर
उन्हें छिटका
देने के प्रयास में जुटे थे
कौवों की सेना का
समेकित युद्ध-घोष
वातावरण को हिलाए
दे रहा था
पास से गुजरती
ट्रेन की सीटी की तीखी आवाज़ भी
दब गई थी उनके
प्रबल रोष भरे कलरव के सामने।
आगे जो हुआ वह
किसी चमत्कार से कम नहीं था
सहसा बिजली के
तारों से चिपका कौवे का एक डैना तार से छूटने लगा
उसने जोर लगाया
तो पल भर में ही वह दोनों तारों से मुक्त हो गया
मुझे लगा कि
विद्युत.प्रवाह से अशक्त हुआ वह
शीघ्र ही लड़खड़ाकर
नीचे गिरेगा
लेकिन यह क्या!
अपने मुक्त डैनों
को लहराता
वह उस काली सेना
से घिरा
थोड़ा सा नीचे की
ओर लहरा कर
सीधे ऊँचे आसमान
की ओर उड़ चला था
कौवों का विजयी
समूह अब खुशियों से काँव-काँव करता
बिजली के उन्हीं
मारक तारों को अपने पंजों में दबा-कर
दूर-दूर तक
पंक्ति-बद्ध हो बैठता जा रहा था
मुझे उनके साहस
और सामूहिक प्रतिरोध की शैली पर गर्व हो आया
मैं कौवों की उस
बिरादरी की इच्छा-शक्ति के प्रति अभिभूत था।
मैंने सोचा, काश!
हमारे बीच
शारीरिक अत्याचार का शिकार हो रही हर स्त्री
सड़क पर दुर्घटनाओं
में घायल होकर तड़पने वाला इन्सान
दूर गाँव में
आत्महत्या के लिए उद्यत होता हर किसान
सदियों के शोषण व
अन्याय की टीस झेलता हर दलित
घने जंगल में बसर
कर रहा
अपनी जीविका के
संसाधनों के अधिकारों से वंचित हर आदिवासी
एक कौवा होता!
कितनी सरलता से
जुटती ऐसी ही मददगार एक सेना चारों तरफ
उनमें दुर्नियति
से भिड़ने का एक नया हौंसला भरते
और उनके जीवन की
भरसक रक्षा करते हुए।
एकाएक ही मेरे मन
में
तेजी से भरने लगी
क्षुब्धता और आत्मग्लानि
समान
परिस्थितियों में फँसे
सर्वस्व खोते जा
रहे निरीह इन्सानों के प्रति
समाज में बढ़ती जा
रही उदासीनता को याद कर
अब मुझे अपने एक
कौवे जैसा भी न हो पाने का
गहरा पछतावा हो
रहा था
और मैं अचानक ही
उड़ान भरते हुए अपने मन को
बिजली के तार पर
उन कौवों के बगल में बैठा हुआ-सा पा रहा था।
आलोचक जी से कवि का संवाद
कविताओं पर एक
उड़ती नज़र डालते हुए
आलोचक जी कवि से
बोले,
“बड़े घटिया कवि
हो!”
“सो तो हूँ, आपकी
परेशानी?”
“साहित्य का कूड़ा
बढ़ा रहे हो!”
“बढ़ने दो, आप तो
बस मोती वाली सीपियाँ ही सँभालो!”
”लेकिन सामने तो
यही सब बिखरा दिया है,
किताबें जैसे
कूड़ादान लगती हैं”
“आज की यह दुनिया
ही कूड़ादान है,
आप न जाने कैसे
पारखी हो!”
“लिखो मेरी बला
से,
कुछ भी लिखते-सुनाते
रहते हो!”
“इसका भेद तो
तुलसी बाबा बता ही गए हैं सदियों पहले-
‘निज कबित्त केहि
लाग न नीका’ कह कर”
“समझ गया कि नहीं
मानोगे,
कविता की अरथी
सजा कर ही रहोगे!”
“छोड़ो जी! यह
बताओ,
कविता की अरथी
उठाए जाने पर
उसको काँधा देने
में आपको खुशी होगी या दु:ख?”
आलोचक जी चकराए-
कहाँ फँसा रहा है
उन्हें यह कवि,
वे तपाक से बोले,-
“जरा-मरण की
चिंता से परे होता है आलोचक,
वह ज़िंदा कवियों
को मुर्दा और मुर्दा कवियों को ज़िंदा करने में ही
सार्थक समझता है
अपने जीवन को,
इसलिए ऐसा
निरर्थक प्रश्न मत करो!”
“ठीक है, फिर तो
निर्लिप्त मन से
चिता पर जलाई गई
कविता को
मुखाग्नि देने की
तैयारी करो
और गद्य की बहती
हुई गंगा में
इसकी राख को
तिरोहित कर दो!”
“वाह मित्र! भला
ऐसा मैं क्यों करूँगा
फिर शान से मैं
यहाँ-वहाँ
किस बात की
आलोचना करता घूमूँगा?”
“अच्छा? तब तो
अन्योन्याश्रित संबंध है हमारा आपका!
चलो, मिल-जुल कर
जोड़ते हैं विंध्य और हिमाचल के तार
और टटोलते हैं इस
देश के जन-गण का मन!”
आलोचक जी से कवि
का यह संवाद
एक जरूरी योजना
के सूत्रपात की तरफ बढ़ता दिखा,
तभी अचानक आलोचक
जी लपक कर उठ लिए,
“मुझे नहीं
खंगालना तुम्हारा यह कूड़ादान
मुझे नहीं जानना
तुम्हारी निष्पत्तियों के बारे में
क्योंकि मेरे पास
पहले से ही सजा है
गूढ़ विचारों से
सने तमाम अबूझ निष्कर्षों का पिटारा”
आलोचक जी उठ कर
जा रहे थे
कवि अपनी कविता
की संभावित मृत्यु के क्षणों को याद कर
दु:खी मन से उनके
पीछे.पीछे जाने की सोच रहा था
अचानक ही आ कर
हवा के एक झोंके ने
उसके गालों पर एक
दुलराती-सी चपत लगाई
कवि सहसा मुसकरा
उठा
फिर धीरे-धीरे वह
उलटी दिशा में चलता हुआ
अपनी मद्धिम-सी
आवाज़ में कुछ गुनगुनाने लगा,
“मनै कै सुनियो, मनै मां गुनियो, कवि तुम कह्यो मनै कै बात,
जग का भावै या ना
भावै, बेमन कहेउ न कौनिउ बात”
’’’’’’’’’
सम्पर्क-
डी-1/ 90, सत्य
मार्ग
चाणक्यपुरी
नई दिल्ली110021
मोबाईल- 91-8826262223
उमेश भाई की कविताएं जग के भाव की कवितायेँ है ... सीधे सीधे ठोस चित्र बनाती हैं ..जिसमें जग की विसंगतियो और उन से लड़ने की ताकत मुहिया करवाने की संवेदना पुरजोर रूप में अपने को व्यक्त करती है
जवाब देंहटाएंजबरदस्त.... !! इतनी सहज लेकिन मारक अभिवयक्ति!! मैंना -- का तो क्या ही कहना...?? अभी कविता जिंदा है, और ऐसी कवितायें ही पाठक जुटायेंगी अपने लिये...ओ गूढ़ कवियों कहाँ हो तुम??
जवाब देंहटाएंवाह सभी कवितायेँ बहुत ही भावप्रण, गहन संवेदनाओं का सुंदर ताना-बना, कविता यकीनन इन्ही अभिव्यक्तियों में सदा जीवंत रहेगी.... उमेश जी को बधाई, शुक्रिया संतोष जी......
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा उमेश जी की कविताये पढ़कर सहज लेकिन गहरे कटाक्ष और गहन संवेदनाये है ....उमेश जी को बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया....
जवाब देंहटाएंबेहद सार्थक कवितायें.....
बधाई उमेश जी को.
आभार
अनु