अमीर चंद वैश्य,
एक जिम्मेदार आलोचक का यह दायित्व होता है कि वह नयी से नयी रचना परदृष्टि डाले और उसके महत्त्व को रेखांकित करे. अमीर चन्द्र वैश्य ऐसे ही आलोचक हैं जिनकी नजर नए से नए रचनाकार और उनकी रचनाओं पर रहती है. सौरभ राय ऐसे ही युवा कवि हैं जिनका एक संग्रह आया है 'अनभ्र रात्रि की अनुपमा.' इस संग्रह पर पत्र रूप में एक गंभीर टिप्पणी की है अमीर जी ने.
12. 04. 2013
प्रिय भाई सौरभ,
सादर नमस्कार। आप के 25. 03. 13 के आत्मीय पत्र के साथ आप के
तीनों काव्य संकलन मेरे हाथ में आए। मन में प्रसन्नता। इस त्वरित औदार्य के लिए धन्यवाद व्यक्त
करता हूँ।
जीवन में कभी कभी अजीब
संयोग उपस्थित होते हैं। मार्च में 'वागर्थ' का अंक देख रहा था। पहले कवितायेँ
ही पढ़ता हूँ। अचानक पढ़ने लगा आप की कविताएँ। प्रत्येक कविता कम-से-कम दो बार पढ़ता हूँ। आप की कविताएँ पढ़कर अनायास आप का मो.नं. अंकित
करके लाल चिन्ह दबा दिया। थोड़े से अन्तराल बाद मेरा फ़ोन ध्वनित होने लगा। हरा चिन्ह
दबाया। सुना कि आप बोल रहे हैं। इस अप्रत्याशित संवाद ने हम दोनों के बीच सम्बन्ध-सूत्र जोड़ दिया। आप ने वचन का निर्वाह किया। और अपने
तीनो संकलन आप ने तत्काल प्रेषित कर दिए और मुझे साहित्यिक दयित्व से बाँध दिया।
जिस दिन पैकिट प्राप्त
हुआ, उसी दिन को आपको प्राप्ति की सूचना बता दी और पहला
संकलन 'अनभ्र रात्रि की अनुपमा'
की कविताएँ पढ़ने-समझने लगा। लगभग सभी कविताएँ पढ़ लीं। दो दिनों
की अवधि में।
अभिव्यक्ति व्यक्ति का
स्वाभाविक गुण है। सभी में होता है। लेकिन सर्जनशील कवि में सर्वाधिक होता है। सच्चा
कवि अपनी काव्य-सृष्टि में स्वयं को अनायास व्यक्त कर देता है। आपका कवि व्यक्तित्व
अंतर्मुखी कम बहिर्मुखी अधिक है। तभी तो अपने पहले संकलन में अपने परिजनों,
गुरुजनों और अन्तरंग मित्रों के प्रति आभार व्यक्त किया है।
"सुनीता का, एक अच्छी दोस्त और मेरी शुरुआती
कविताओं की प्रेरणा स्रोत" यह वाक्य स्मरणीय सूत्र है। क्या सुनीता 'अनभ्र रात्रि की अनुपमा' है, जो यही कहती थी
"तुम अच्छे हो सौरभ
कुछ ज़्यादा
ही अच्छे
और थोड़े से पागल भी" (पृ. 163)
'कुछ ज़्यादा ही अच्छे' और थोड़े से पागलपन ने आप को
सहृदय कवि के रूप में अंतरित किया है।
समकालीन हिंदी कविता
के संसार में कई पीढ़ियों के कवि सक्रिय हैं। कुछ तो राजधानी दिल्ली के हैं,
जो स्वयं को बड़ा मानते हैं । जन-गण-मन से दूर रहकर सत्ता पक्ष
से अपने आत्मीय सम्बन्ध जोड़े रहते हैं। केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण, अशोक वाजपेयी ऐसे ही कवि हैं, जो साहित्य के सामंत हैं। नामवर सिंह जिस की प्रशंसा कर दें, वह तत्काल बड़ा कवि हो जाता है। ऐसे कवि जोड़-तोड़ करके पुरस्कार
प्राप्त करने में अपना सौभाग्य समझते हैं। ऐसे कवि स्वयं को वामपंथी घोषित करते हैं,
लेकिन आचरण की सभ्यता उन्हें इस का विलोम सिद्ध करती है। ऐसे
कवि जोड़-तोड़ अथवा जुगाड़ से दूसरे संकलन पर ही साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त कर लेते हैं
। अनेक पुरस्कार हैं आजकल कवियों और लेखकों के लिए। लेकिन वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जैसे
कवि संख्या में बहुत कम हैं, जो अपनी सर्जनशीलता को लोक के
लिए समर्पित कर के कविता से अपने जीवन को सार्थक कर रहे हैं। मुझे आप के काव्य व्यक्तित्व
में विजेन्द्र जी की झलक दृष्टिगोचर होती है। विजेन्द्र जी पांच दशकों से काव्य-सर्जन
में संलग्न हैं। 'लोक चेतना' से प्रेरित 'कृति ऒर' पत्रिका के प्रधान संपादक हैं
। उन के लिए 'लोक' मनोरंजन का साधन न होकर 'लोकतंत्र' का वह
'लोक' है, जो जिजीविषा से प्रेरित होकर श्रम-सौंदर्य को सर्वोपरि जीवन-मूल्य
मानता है।
आप की कविताओं में मुझे
ऐसी ही झलक दिखाई पड़ती है। आप का
पहला संकलन पढने के बाद मुझे आभास होने लगा कि प्रेम के साथ-साथ आप की कविताओं का मूल
भाव 'करुणा' है, जो आपकी ज्ञानात्मक संवेदना
को श्रमशील 'लोक' से जोड़ती है और
'भद्रलोक' की बेलाग आलोचना करती है। अपनी बात के समर्थन में 'ख़ुशी' शीर्षक कविता की ऒर संकेत है। इस कविता में सामाजिक-राजनैतिक वास्तविकता के प्रति खिन्नता-प्रसन्नता व्यक्त करते
हुए 'मैं ख़ुश हूँ' वाकया की आवृति से सात्विक अभर्ष की अभिव्यक्ति की
गयी है। सम्पूर्ण कविता में वर्तमान विषम समाज के अनेक रूप उजागर किये
गए हैं। 'मैं ख़ुश हूँ' कहकर आप ने तीखा प्रतिरोध दर्ज किया है। एक उद्धरण इस प्रकार है -
"एक पिता अपने बच्चे की लाश
धरे सोच रहा है
वोट देने दो कोस जाने पड़ते हैं
चिकित्सा को बाईस कोस क्यों?
मैं तो ख़ुश हूँ " (पृ. 42) ।
यह 'मैं' क्रूर पूंजीवादी व्यवस्था का
अदना सा व्यक्ति है अथवा प्रशासक है अथवा जनप्रतिनिधि है, जो 'स्वार्थ' में ही 'मस्त' है। परार्थ से उसे कोई सरोकार नहीं है। अभी-अभी का समाचार है कि महाराष्ट्र
के कई क्षेत्र सूखे से संत्रस्त हैं। पानी के लिए तरस रहे हैं। दूसरी ऒर मंत्री के
लिए 'हेलिपैड' तैयार करने के वास्ते हज़ारों लीटर पानी बहाया जाता है। फिल्म
की शूटिंग के लिए पर्याप्त पानी की व्यवस्था की जाती है। शाहरुख़ खान ख़ुश हो जाते हैं।
इसी कविता में आपने एक
और अविस्मरणीय बात कही है-
"एक
कवि आज अपनी ही कविता को
पढ़कर, न समझकर
ख़ुश है
मैं भी ख़ुश हूँ।"(पृ. 44
)
समकालीन अधिकांश हिंदी कविता लगभग अपठनीय हैं। उस में लयात्मकता
का अभाव है, जब कि
'लय' कविता की संरचना के लिए
अनिवार्य है। मुक्त छंद का अर्थ छंद के बंधनों से मुक्ति है, न कि लय का परित्याग। निराला ने कवित्त आदि अनेक परंपरागत छंदों को मुक्त छंद में ढाला है। 'जागो फिर एक बार' शीर्षक कवित्त की लय पर आधारित है। तुलसी के प्रिय छंद 'हरिगीतिका' छंद का मुक्त रूप में प्रयोग
कई आधुनिक कवियों ने किया है। दिनकर ने। अज्ञेय ने। मुक्तिबोध ने। गुप्तजी ने इसे परंपरागत रूप में प्रयक्त किया है। उन की 'भारत-भारती' और उन का खंड काव्य जयद्रथवध' हरिगीतिका छंद में रचे गए हैं।
मुझे आपकी कविताओं में
लय का तो आभास होता है, परंपरागत छंद के मुक्त रूप का नहीं। लेकिन आप वाक्यों की रचना इस प्रकार करते
हैं कि कविता पढ़ते हुए लय का आभास होने लगता है । एक उद्धरण प्रस्तुत है -
"नोट
मेरी प्रेरणा का स्रोत है
वोट मेरी शक्ति का
और
आप जैसे लोग
मेरी दिलेरी का
मैं परिणाम से ज्यादा
परिमाण पर यकीन करता हूँ।" (पृ. 142)
यह 'क़ानून : एक साक्षात्कार' कविता का एक अंश है।
पूरी कविता लयात्मक है। पठनीय है। यथार्थ से साक्षात्कार भी कराती है। उद्धृत अंश
में 'परिणाम' एवं 'परिमाण' पद स्वार्थी नेता के चाल-चलन
और चेहरे से अवगत करा रहे हैं।
इस क्रूर पूंजीवाद व्यवस्था
में 'आदमी' 'इंसान' बन जाए, यह असम्भव है । तभी तो ग़ालिब ने कहा है -
'बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को
भी मयस्सर नहीं इंसां होना।'
लगभग यही भाव या विचार आपने 'दिल-दरवाज़ा' में व्यक्त किया है -
"मेरा दरवाज़ा मुझे
देखता है ।
एकाकी जिया
और पैसा
कमाया
पैसों का घर बनाया
और बनाया
ये अभेद्य दरवाज़ा
जिस की चौखट लांघ
घर
में न कोई आया है
न ही किसी के आने की संभावना है।" (पृ. 135)
यह है अलगाव की दुर्भावना,
जो निम्नवर्ग से तो घृणा करता है, लेकिन उच्च वर्ग की ऒर ताकता रहता है ।
लेकिन आप अपने वर्ग की
सीमाएं लांघकर 'चक्की के चारों तरफ'
देखकर कहते हैं -
"मैं गया एक झोपड़ी में
चावल पिसाने
एक लड़की देखी
सुन्दर पर काली
संदल
तप्त बदन
पीतल की तराश
झोपड़ी के अँधेरे में चमकती
जैसे गर्म सोने को आंच से निकाला हो
चेहरे पर सच्चाई
माथे पर मेहनत का पसीना
जो उस जिस्म पर नहीं ठहरता
फिसलता चला
जाता
फ़र्श पर गिरने तक।" (पृ. 122)
यह कविता पढ़ कर निराला की कालजयी
कृति 'वह तोड़ती पत्त्थर' याद आने लगती है।
श्रम के प्रति सम्मान
और समादर की भावना आज की लोकधर्मी कविता की प्रमुख विशेषता है। सत्ता - व्यवस्था से अन्तरंग सम्बन्ध
जोड़ कवियों के काव्य संसार में इस वैशिष्ट्य का अभाव है। यदि किसी कवि में है
तो वह सघन होकर विरल है।
आप के पहले काव्य-संकलन
में यह वैशिष्ट्य लसित होता है। इस सन्दर्भ में 'दधिची' कविता उल्लेखनीय है,
जिस में पौराणिक नाम 'दधिची' को श्रमशील किसान के रूप में प्रस्तुत
किया गया है। इस कविता में श्रमशील वर्ग और प्रभुवर्ग को द्वंद्वात्मक रूप में व्यक्त
करके वर्तमान समाज की क्रूर विषमता उद्घाटित की गयी है -
"देवता बैठे
हैं
पी रहे हैं
सुरा
नृत्य देखते
नर्तकी का
+++
किसान है
दधिची
देवों को अपनी हड्डी देकर
रेंग रहा है चुपचाप
देवता बैठे हैं
पी रहे हैं
सुरा
नृत्य देखते
प्रगति का।" (पृ. 117)
पौराणिक ऋषि दधिची के
अस्थि-दान को, आधुनिक सन्दर्भ में,
आपने प्रयुक्त किया है। शायद पहली बार। यह कविता पढ़कर निराला की प्रसिद्द कविता 'बादल राग' श्रंखला की छठी कविता का अंश याद आ रहा है -
"जीर्ण बहु, हे शीर्ण शरीर
तुझे बुलाता कृषक अधीर
ऐ विप्लव के वीर!
चूस लिया है उसका सार
हाड-मांस ही है आधार
ऐ जीवन के पारावार।" (निराला रचनावली. 1, पृ. 124)
सन 1924 में रचित यह कविता बता रही है, कि उस समय अर्थात स्वाधीनता-संघर्ष
के दौर में सर्वाधिक शोषण किसानों का हो रहा था। तभी तो निराला ने बादल के क्रांतिकारी
रूप का स्मरण किया था। आज भी, उदारीकरण के दौर में,
कृषक वर्ग सब से अधिक पीड़ित-शोषित है। वह आत्महत्या करने लगा
है। लेकिन वर्तमान व्यवस्था के प्रभु-वर्ग के देवता मस्त हैं।
आपने भी 'क्रांति कन्या' रचकर निराला की परंपरा से स्वयं को जोड़ा है, लेकिन आलोचनात्मक ढंग से। ऐसा आभास होता है कि 'क्रांति कन्या' से आप पूर्णतः आश्वस्त
नहीं हैं। लेकिन सवाल यह है कि भारत जैसे देश में विषमता कैसे दूर हो। जवाब है-
किसानों के साथ मज़दूरों का सुदृढ़ संगठन और मध्य वर्ग का रूपांतरण। भारत में जब तक भूमि-सुधार नहीं होंगे,
तब तक कोई बुनियादी परिवर्तन संभव नहीं हो सकेगा। और ऐसे परिवर्तन के लिए आवश्यकता है क्रांतिकारी
राजनैतिक दल की। दुर्भाग्य से भारतीय वामपंथी दल एकजुट नहीं हैं। वे हिंदी भाषी
प्रदेशों में क्यों असफल रहे हैं? भारत में ऐसे कितने मुख्य मंत्री हैं, जिनके पास त्रिपुरा के मुख्य
मंत्री माणिक सरकार के समान निजी संपत्ति नहीं है। वर्तमान परिवेश को देखकर आप का
मानस निराशा से भर गया है। तभी तो आपने लिखा है -
"लिंकन
गोली खाकर
गिरता
रहा
सीढ़ियों से लगातार
मार्क्स
समाजवाद की किताब
बेच रहा है
+++
लेनिन की
मूर्ति
मूर्त चौकस है
चौक पर
जहाँ से हर रास्ता
पूँजीवाद को जाता है
जोन
ऑफ़ आर्क की तलवार
अजायबघर में सजी है
मार्टिन लूथर किंग का शरीर
कब्र में
गोरा पड़ गया
घर में बच्चा
क्रान्ति बोल
दूध पीने से अड़ गया।" (पृ. 153)
आपकी यह अस्थायी निराशा
स्वाभाविक है। संचार क्रांति ने पूंजीवाद को नयी जीवन शक्ति प्रदान की है। सम्प्रति
निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों ने अमीरों को समृद्ध किया है, लेकिन गरीबों को बेमौत मार डाला है।
'हर नफस उम्रे गुज़रता है मैयत फ़ानी
ज़िन्दगी नाम
है मर-मर के जिए जाने का।'
मनुष्य की जिजीविषा अदम्य है। उसने यथास्थिति का प्रतिरोध हमेशा किया है। इतिहास का अंत नहीं हुआ है। वह और आगे
बढ़ेगा। यथास्थिति का विकल्प सामने
आएगा। मुझे विश्वास है कि अपनी अन्य कविताओं में आपने सार्थक विकल्प प्रस्तुत किया है। किया होगा। 'तानाशाही को' शीर्षक कविता इसका प्रमाण है। आप तानाशाहों को चेतावनी देते हुए कहते हैं -
"रक्त
में मथनी डाल कर
होगा मंथन विचारों का
आसमान से गिरेगा ताबूत
धरती फटेगी
ख़ुद-ब-ख़ुद
और आंधी उड़ा ले आएगी मिट्टी
तुम्हारा देश धम्म से गिरेगा
और कुचल देगा तुम्हे।" (पृ. 152)
आपने प्रतिरोध भावना 'विदर्भ' कविता में किसानों की
आत्म-हत्या के सन्दर्भ में भी की है -
"शव के बदले चुका
लो कर्ज़ा
बो दो शव को खेत में
अथवा बेच दो
कपास बतलाकर
यही तो
करता आया है तुम्हारा सम्राट
न-न जलाओ नहीं
कहीं आत्माराम की दुम
बजरंगबली की पूँछ बनकर
जलाकर ख़ाक न कर दे
विदर्भ
के सम्राट को ।" (पृ. 156)
यह आत्मीय विकल्प पाठक को आश्वस्त करेगा कि यथास्थिति कर प्रहार होगा। अनिवार्यतः होगा।
'विदर्भ' के समान 'अवध', 'झारखण्ड', 'तक्षिला' (तक्षशिला), 'द्वारका' और 'कोसल' को केंद्र में उपस्थापित करके
उनसे सम्बद्ध बातें भी कविता निबद्ध किया गया है। इससे आपकी कविताओं में व्यापकता
का समावेश हुआ है। 'द्वारका' के माध्यम से सामाजिक-धार्मिक-राजनैतिक विसंगतियों की प्रभावपूर्ण
अभिव्यक्ति की गयी है -
"पोरबंदर के महात्मा
मदिरा त्याग कर गए
हूच के मज़दूर
दारू पीकर मर गए
द्वारकाधीश
लड़ रहा है महाभारत
हस्तिनापुर जाकर
राम खुश है
रहीम को जला कर
आदमी कहता है - छोड़
दो हमें
पंडित कहता है - फोड़ दो बमें
दहशत है या की वहशत?
आदमी नहीं बताएगा
मरने का खतरा है।" (पृ. 160)
आम आदमी के प्रति आप
की यह संवेदना सहृदयता का प्रमाण है। क्रूर व्यवस्था ने आम आदमी का जीना हराम कर दिया है। अब भारत के
मानचित्र में 'कोसल' का नाम अंकित नहीं है। आपने ठीक लिखा है -
"नक़्शे में
कोसल का पता बताने वाले
भूखे पेट सो गए हैं
चाँद अमीरों के बीच
करोड़ों गरीब
खो गए हैं " (पृ. 162)
करोड़ों गरीबों के प्रति
आपकी स्वाभाविक संवेदना आप के बहिर्मुखी व्यक्तित्व का प्रमाण है। और कवि जनोचित सहृदयता
का भी। यही सहृदयता प्रेम विषयक कविताओं में व्यक्त हुई है। 'अनामिका' कविता इसका अच्छा सबूत है,
जो सहृदय भाई के निश्चल प्रेम की अभिव्यक्ति है-
"असंख्य
दुःख सहे होंगे तुमने
उनका मुझे आभास है
आवर्जिन न करना कभी
जब तलक यह भाई तुम्हारे
पास है।" (पृ. 137)
प्रेम शब्द में ढाई अक्षर
हैं, जिनके आभाव में जीवन अधूरा रहता है। यह संसार ढाई
अक्षरों का ही विस्तार है। आपने ऐसे प्रेम का महत्व समझा है और उसे निर्द्वन्द भाव
से कविताओं में व्यक्त किया है। 'तेरी कविता' इस का प्रभावपूर्ण उदहारण है,
जिस में कहा गया है -
"देखना चाहता हूँ तेरी आँखों से
वो छोटे बड़े सपने जो तू संजोती है
महसूस करना चाहता हूँ वो सब
और रोना चाहता हूँ तेरे साथ
जब तू दुनिया के लिए
रोती है
+++
जो अनकही कविता तेरे
नयनों में बस्ती है
दिख पड़ती है मुझे
जब तू हंसती है।" (पृ. 86)
मानवीय प्रेम प्राकृतिक
परिवेश के मध्य परिपक्व होता है। जीवन के समान प्रकृति के रूप भी अनेक होते हैं। रात-दिन,
धूप-छांव, धरती-आकाश, सूखा-बाढ़, वन-उपवन, पेड़-पहाड़, आंधी-तूफ़ान आदि। ये सभी रूप मनुष्य के सुख दुःख के साथी होते हैं। आपने 'पेड़' शीर्षक कविता में पेड़
का मनमोहक बिम्ब रूपायित किया है। पेड़ स्वयं कहता है -
"चाहता हूँ
धूप खिले
फिर से कोई मुसाफिर
मेरी पनाह में रोटी
अचार खाए
लकड़ियाँ काटे
घर बनाये
कट कर किसी का घर बन जाना
अत्यंत सुखद होता
है ।" (पृ. 55)
पेड़ का यह परोपकारी रूप आप के संवेदनशील कवि का एक और अच्छा प्रमाण है।
'2471185' शीर्षक कविता वर्तमान समय की संचार क्रान्ति से उनमें प्रेम भाव के आदान-प्रदान का अभिनव रूप है । फोन-संवाद
के माध्यम से सामजिक विसंगति की कलात्मक अभिव्यक्ति की गयी है -
"is it
2471185?
ख़ुशी क्या तुम मुझे सुन सकती हो?
चुप क्यों हो?
मत रो!
कुछ तो बोलो!" (पृ. 49)
सम्पूर्ण कविता इकतरफा कथन है। संवाद नहीं है। ख़ुशी की चुप्पी
और उसका रोना उसकी विवशता व्यक्त कर रहे हैं। कविता की कथन-भंगिमा में बाँकपन है, लेकिन दुर्बोधता नहीं
है।
प्रेम के संवर्धन में
आँखों का विशेष महत्व होता है। आँखें चार होती है और प्रेमास्पद आँखों में बस जाता
है। रहीम ने लिखा है कि जब प्रियतम की छवि नयनों में बस जाती है, तब उनमें पर छवि नहीं समाती है। सराय
को मरा देखकर पथिक स्वयं लौट जाता है। आपने
'परदे' शीर्षक कविता में आँखों
का कलात्मक समावेश किया है -
"और अंगड़ाई ले कर खुलती हैं
तुम्हारी आँखें
इस खुलती खिड़की के
उस पार की धूप में
परदे की आड़ में दिख जाता है
खेलता बचपन
शर्माता यौवन
एक सम्पूर्ण जीवन!
इस खुलती खिड़की पर से
लहराते परदे को
आज आहिस्ता से मैंने हटाया
आज फिर से तेरा
नाम कागज़ पर लिख कर
मुस्कुराकर मैंने मिटाया ।"(पृ. 47)
यह कवितांश पर्याप्त
व्यंजक है, जो प्रेमी मन का अन्तः द्वंद्व व्यक्त कर रहा है। प्रेमी प्रसन्न भी है और अवसन्न भी। कागज़ पर प्रेमिका का नाम लिखकर उसे मुस्कुराकर
मिटाना सामजिक रूढ़ियों की ऒर संकेत कर रहा है। प्रेम कभी-कभी एकपक्षीय भी होता है। इस कविता में ऐसा ही प्रेम व्यक्त किया गया है ।
प्रेम की प्रवृत्ति रंजन
के प्रति होती है, और करुणा की रक्षण के प्रति। करुणा से प्रेरित होकर आपने
कई कवितायेँ लिखी हैं। किसानों के प्रति आप की सच्ची हमदर्दी है। धार्मिक पाखंडों के प्रति व्यंग्य
है। तर्क के आधार पर परंपरागत रूढ़ियों पर प्रहार किया गया है। बेटियों के प्रति संरक्षण भाव है। 'शोकगीत' कविता में आपने आक्रोशपूर्ण
शैली में अनेक कुरीतियों पर प्रहार किया है -
"ज्यों ही सूखता है पक्षियों का
गला
काट दो उसको
भर जाने दो खून से
लबालब।
निकाल दो भ्रूण को
हर माँ की
कोख से
उजाड़ दो सार संसार
काट डालो पेड़ पर पेड़
कर दो धरती को
नंगा।
मुचड़
दो फूलों को
बच्चे के हाथ से छीनकर
पकड़ा दो बन्दूक
खोद दो गड्ढे
जगहों पर
रोप दो उनमें बारूद।" (पृ. 108)
इस कवितांश में वर्णित मानव-विरोधी
क्रियाओं के प्रति प्रखर भर्त्सना व्यक्त की गयी है ।
आपने तर्क अर्थात काव्य-तर्क
के आधार पर परंपरागत मान्यताओं की तीखी आलोचना की है। और माध्यम वर्ग की भी। इसीलिए
आप की कविताओं में आत्म्व्यंग भी है। यथा आप कहते हैं -
"हर गली नुक्कड़ से गुज़रा
अन्याय देखा और गुंडों को नमस्कार किया
बोलने का मन बनाकर
घर में ठिठका सा
बुदबुदाया और सो गया
उठ कर मैंने फिल्म देखी
गाना गाया
ज़िन्दगी में बड़ा मज़ा आया।" (पृ. 27)
आप ने 'क्रमशः' शीर्षक कविता में घटना प्रसंग
का वर्णन करके आज के उस सामाजिक उत्पीड़न की कलात्मक अभिव्यक्ति की है, जो सबल द्वारा निर्बल पर किया जाता है। कविता के पूर्वार्ध में ज़ुल्मी ठेकेदार
अपने एक मज़दूर को 'नेतागिरी' करने पर पीटकर अधमरा कर देता
है। उत्पीड़ित मज़दूर खून को घूँट जाता है, थूकता नहीं है। 'थूकता तो मालिक गुस्सा करते।' कविता के दूसरे भाग में वह मज़दूर घर पहुंच कर अपनी बीवी को पीट देता है -
"बीवी रो रही थी -
"काहे मरते
हो
कमजोर को काहे सताते हो"
"बहस करती है
आँख दिखाती है"
वो मारता
जा रहा था।" (पृ. 17)
यह है क्रोध का स्थानांतरण । यह एक ऐसा मनोभाव है, जो प्रायः अपने से कमज़ोर के प्रति व्यक्त किया जाता है । संवादों
के समावेश से कविता प्रभाव से अन्वित हो गयी है।
इस भिन्न व्यंग्यात्मक
शैली में रचित 'राष्ट्रगान' भी प्रभावान्वित है। करुणा व्यंग्य करने के लिए विवश करती है। और घृणास्पद यथार्थ से साक्षात्कार कराने लगती है -
"जहाँ प्यार करने के लिए
दिल होने से ज़्यादा गुंडा होना ज़रूरी है
जहाँ 'सत्य' शब्द का इस्तेमाल
केवल अर्थी ले जाने पर किया जाता
है
+++
जहाँ लड़की के जन्म पर शोकगीत गाया जाता है
फिर उसकी मौत पर गरीबों में कचौड़ी खिलाई जाती है
+++
घिन्न होती है सोचते हुए कि
छुटपन में मैंने कभी गाया था
सारे जहाँ से अच्छा..." (पृ. 18-19)
हमारे सामाजिक जीवन में
'रामायण' के आदर्श पात्र हमेशा
अदृश्य रहते हैं, लेकिन 'महाभारत' के पात्रों से हम प्रतिदिन साक्षात्कार करते हैं। 'आत्मदाह' शीर्षक कविता में महाभारत के
प्रमुख पात्रों -कर्ण, युधिष्ठिर, भीष्म पितामह के साथ-साथ सम्पूर्ण महाभारत को तार्किक दृष्टि
से स्मृत किया गया है।
"पुण्य और पाप हैं आज घुलमिलकर एक
क्या अद्भुत समन्वय
है दोनों तटों में
कौरव करें तो पाप?
तुम तो पुण्य?"
"आत्मरक्षा में हैं खग भी चोंच मारते
फिर हमीं क्यों हैं दोषी इस समाज
के।"
"पर अन्याय जब अभिशाप बन अपनों को दंशे
तो इस महाभारत को कौन टाल सकता था?" (पृ. 53, 54)
यह कविता पढ़ कर और समझ कर हमारा यह दयित्व बनता है कि 'अन्याय' को 'अभिशाप' बनने से रोकें। अलगाव त्याग कर समदृष्टि से समाज के अन्य वर्गों
को अपना बनाएं। इस के लिए सामूहिक प्रयास अनिवार्य है। लेकिन खेदजनक बात यह है कि क्रूर पूंजी ने समाज को जातियों, धर्मों, सम्प्रदायों, अगड़ों, पिछड़ों, अल्प-संख्यक और बहु-संख्यकों में बाँट दिया है। लोग अपनी-अपनी
पहचान के लिए लड़ रहे हैं। कमज़ोर ताक़तवर से डरते हैं। तभी तो आपने लिखा है
"मेरे घर के आसपास
लोग हैं
जो घर
से बाहर नहीं निकलते
जीने के जोखिम को उठाने से
दूर
बहुत दूर
कमरे में बंद
वो करते हैं बातें
खेल-फैशन-राजनीति की।" (पृ. 149)
राजनीति पर मात्र बातें
करना पर्याप्त नहीं है। आज जनवादी राजनीति की आवश्यकता है। लेकिन कैरियर-केन्द्रित युवा वर्ग ऐसी सक्रिय राजनीति से
दूर रहना ही श्रेयस्कर समझता है।
आप जैसे लोकोन्मुखी सहृदय
युवा कितने हैं। बहुत कम, जो जान जोखिम में डाल कर सच कहने
और लिखने का साहस कर रहे हैं। 'अनभ्र रात्रि की अनुपमा'
संकलन के पांच संस्करण प्रकाश में आ चुके हैं। पांचवा संस्करण
23 मार्च, 2013 को प्रकाशित हुआ है। इस से स्पष्ट हो रहा है कि आप की कवितायेँ असंख्य पाठकों
तक पहुंची हैं। फिर भी, मुझे लगता है, कि हिंदी का संसार आप के कवि रूप से पूर्णतया सुपरिचित नहीं
है।
इस संकलन की लयात्मक
भाषा प्रवाहपूर्ण और प्रभावपूर्ण है। यत्र-तत्र कुछ व्याकरणिक त्रुटियाँ लक्षित होती
हैं । विशेष रूप से लिंग सम्बन्धी भूलें। सभी कवितायेँ प्रभावपूर्ण नहीं हैं। 'मैं आप वो' शीर्षक कविता अर्थ-बोध की दृष्टि से कमज़ोर है। समझने के लिए बार-बार प्रयास करना पड़ता है।
जो कुछ इस पत्र में लिखा
है, वह आधा-अधूरा है। अभी आप के दो और संकलन नहीं पढ़ें
हैं। उन्हें पढ़ने के बाद ही मेरी बात पूरी होगी। फिलहाल इतना ही।
शुभाकांक्षी आपका,
अमीर चंद वैश्य
अमीर चंद वैश्य
Mob-09897482597
चूना मंडी, बदायूँ, उ. प्र.
243601
12. 04. 2013
कवि मित्र सौरभ को बहुत -बहुत बधाई . किसी भी नए कवि के लिए एक वरिष्ठ आलोचक का इतना समय देकर उनकी कविता की समीक्षा करना बहुत महत्वपूर्ण एवं सराहनीय कार्य है आज के समय में . यह गुण आज बहुत कम लोगों में है . इस सहृदयता के लिए मैं अमीर चंद वैश्य जी के प्रति दिल से सम्मान प्रकट करता हूँ .
जवाब देंहटाएं-नित्यानंद गायेन