भगवत रावत







२५ मई २०१२ का मनहूस दिन. हम सबके अजीज कवि भगवत रावत आज नहीं रहे. हमारे अग्रज कवि मित्र केशव तिवारी ने जब यह सूचना मुझे दी तो मैं हतप्रभ रह गया. विगत कई वर्षों से जिस जीवट से वे जिंदगी के लिए मौत से जूझ रहे थे वह अप्रतिम था और इसीलिए जब यह खबर मुझे सुनायी पडी तो मैं सहसा विश्वास नहीं कर पाया. एकबारगी मुझे लगा जैसे मेरा सब कुछ खत्म हो गया.


भगवत दादा बातचीत में कभी भी अपने दर्द का एहसास सामने वाले को नहीं होने देते थे. मैं जब कभी उन्हें फोन करता उनका आत्मीय स्वर तुरंत सुनायी पडता ‘बोलो बेटा.’ मैं पूछता कैसे हैं दादा? वे तपाक से बोलते ‘बढ़िया हूँ.’ हालांकि मुझे पता होता था कि वे काफी तकलीफ में हैं. फिर बढ़िया कैसे होंगे. लेकिन एक अभिभावक के तौर पर वे हमें आश्वस्त करते बढ़िया होने का. साथ ही लिखने के लिए लगातार प्रेरित करते रहते. बीच-बीच में उनके स्वास्थ के बारे में मैं उनकी बेटी प्रज्ञा रावत जी से पता करता रहता.


दादा से जब मैंने ‘अनहद’ के लिए कुछ लिखने का आग्रह  किया तो वे तुरंत तैयार हो गए. खराब स्वास्थ के बावजूद उन्होंने ‘अनहद’ के लिए कमला प्रसाद जी पर एक आत्मीय संस्मरण और हमारे आग्रह पर एक लंबी कविता ‘मनुष्यता: एक आधुनिक जातक कथा’ लिखी. दादा ने वह कविता मुझे फोन पर सुनायी और बड़े भोलेपन से पूछा ‘बेटा कविता कुछ बन पायी है?’ हिन्दी के हमारे समय के शीर्ष और बेजोड कवि ने जब मुझ जैसे अदना कवि से ऐसा पूछा तो मैं कैसा महसूस किया होउंगा आप खुद इसका अंदाजा लगा सकते हैं मैंने आभार प्रकट करते हुए कहा कि दादा आपकी एक बेहतरीन कविता है यह. तो दादा ने कहा ‘यह कविता मैंने विशेष तौर पर 'अनहद' के लिए लिखी है.’  संभवतः दादा द्वारा लिखी गयी यह अंतिम कविता साबित हुई. क्योंकि इसके बाद दुर्भाग्यवश वे लगातार बीमारियों से जूझते रहे और अंततः हमें छोड़ कर न जाने किस देश को आज चले गए.






श्रद्धांजलिस्वरुप प्रस्तुत है अनहद-२ में छपी भगवत दादा की वह कविता-




‘मनुष्यता: एक आधुनिक जातक कथा.’



मैं कोई सदगुरू तो नहीं
न कोई संत न साधु
उपदेशक तो बिलकुल नहीं
मेरे ही रहने का ठौर-ठिकाना नहीं
तो मेरे नाम का कोई आश्रम कैसे हो सकता है.




न तो मैंने अपने बाल बढाए हैं
न दाढी रखी है
मैं शरीर पर पूरे वस्त्र धारण करता हूँ
उघाड़े बदन रहना मुझे पसंद नहीं
साधु या संत होने का कोई लक्षण मुझमें नहीं है




वैसे भी आजकल साधु संत या उपदेशक
होने के लिए बहुत पापड बेलने पड़ते हैं
जैसे राजनीति के अखाड़े में कूदने के लिए
विनम्रता, सज्जनता, शालीनता आदि
ऊपर-ऊपर दिखने वाले गुणों के इतने
दांव-पेंचो भरे अभ्यास करने पड़ते हैं
कि खुद को अपना चेहरा ही भूल जाता है.




उसी तरह साधु संत बनने के लिए
यह भी भूलना पडता है कि
अंततः आप भी एक मनुष्य हैं
कि आपको भी क्रोध आता है
प्रेम, घृणा,  इर्ष्या सब
आपके भी व्यक्तित्व का हिस्सा है
पर इस सबसे ऊपर उठ कर
निर्लिप्त, निर्विकार
परमहंस की मुद्रा में ही आपको रहना पडता है
और अपने असली रूप को इतना गोपनीय रखना पडता है
कि लोग सर पटक कर मर जाएँ
पर आपका असली चेहरा देख न पायें




सार्वजनिक होने के पहले
आपको बार-बार दर्पण के सामने यह जानने के लिए
जाना पडता है कि किसी भी कोण से आप में
वह तो नहीं दिखाई दे रहा जो असल में है.




होने और दिखने की इस दूरी में
ऐसा संतुलन बनाए रखना
क्या किसी तपस्या से कम है.


... ... ... ... ... ...




लगता है तुमसे किसी ने कठोर मजाक किया है
और तुम्हें मेरे पास मनुष्यता का पता
जानने के लिए भेज दिया है




तुम्हें देख कर ही लगता है कि तुम
पूर्व जन्म के ऐसे भटके हुए यात्री हो
जिसकी नस्ल अब इस युग में
लगभग लुप्त हो चुकी है
अब कोई कुछ खोजने के लिए यात्रा पर नहीं निकलता
अब तो सबको पहले से वे सारे रास्ते पता होते हैं
जो उन्हें उनके मंतव्यों तक ले जाते हैं
गंतव्यों की जगह
मंतव्यों ने ले ली है




एक समय था जब गुरू अपने शिष्यों को
ज्ञान की खोज में
जंगलों-जंगलों, पहाड़ों-पहाड़ों और नदियों-नदियों
भटकने के लिए छोड़ देते थे
और शिष्य भी इस खोज में जीवन बिता देते थे
लगता है तुम इसी तरह के कोई
शापग्रस्त भटके हुए यात्री हो
और भटकते-भटकते मेरे पास
आ पहुंचे हो, तो भले ही तुम्हारे साथ
मजाक किया गया है, पर
मैं तुम्हारा भरोसा नहीं तोडूंगा
तुम मेरे अतिथि हो


तो फिर ऐसा करो
जाओ गाँव-गाँव शहर-शहर
गली-गली छान मारो
और उस आदमी को किसी तरह खोजो
जो थका मांदा लगभग पराजित और
अपमानित जीवन व्यतीत करता हुआ भी
हारा नहीं हो
और चौतरफा व्याप्त इस अविश्वसनीय समय में भी
इस बात पर अड़ा हुआ बैठा हो
कि एक न एक दिन
उसकी सच्चाई रंग लायेगी
और वह अपने सच के भरोसे जो भी कर रहा हो
या कर पा रहा हो
उसे दुनिया का जरूरी और बड़ा काम मान रहा हो




घड़ी भर बैठ कर उसकी संगत करो
उसके चेहरे पर उग आयी झुर्रियों जैसे
उसके अनुभवों को पहचानने की कोशिश करो
वह किसी और का क्या
अपना पता भी ठीक से नहीं बता पायेगा
पर वह तुम्हारी व्याकुलता समझ सकेगा
और तुम्हें मेहमानों के लिए अलग से रख छोड़ी
किसी पुरानी चीनी की प्याली में
लगभग काढे जैसी चाय जरूर पिलाएगा
उस चाय में जरूर
बची रह गयी मनुष्यता घुली होगी
उसके सहारे खोयी हुई
मनुष्यता का पता खोज सकते हो
तो खोजने की कोशिश करना.




रही मेरी बात
तो मैं एक साधारण सा आदमी
संयोग से तुम्हारी ही तरह मनुष्यता को
शब्दों में खोजता रहा जीवन भर
उन्हीं के पीछे-पीछे भागता दौडता
अब थक सा गया हूँ
पर हारा नहीं हूँऔर इस उम्र तक आते-आते
बड़ी मुश्किल से
अपमान, पराजय, असफलता
संशय, अकेलापन, विफलता
वंचना और करुना जैसे कुछ शब्द ही खोज पाया हूँ
जिसकी अनुभूति में
लगता है कहीं बहुत गहरे में
जा कर छिप गयी है मनुष्यता




अब इन शब्दों की आरती तो उतारी नहीं जा सकती
और न इनको महिमामंडित कर
उसका गुणगान ही किया जा सकता है
फिर भी मैं अब तक
इन्हीं शब्दों की आंच में
जो भी बन पड़ा बनाता पकाता रहा हूँ
और इन्हीं की ऊर्जा से अपना जीवन चलाता रहा हूँ


बार-बार मुझे लगता है कि तुम्हें
मेरे पास किसी ने शरारतन भेज दिया है
अब आ गए हो तो बैठो थोड़ी देर
मैं कम से कम तुम्हें
एक प्याली चाय तो पिला ही सकता हूँ



टिप्पणियाँ

  1. भगवत रावत , कविता की बड़ी उम्मीद का नाम , साहित्य का अति विश्वसनीय व्यक्तित्व , स्नेह का बहता हुआ शांत दरिया . मृत्यु का समाचार विषम घाव बनकर टीस रहा है, शरीर में न जाने कहाँ , कहाँ ? अभी कविता पर कुछ भी लिखने की हिम्मत नहीं, यकीन नहीं होता , अपराजेय स्नेह से आकंठ भरा हुआ, सहजता का बड़ा कवि देखते - देखते हमारे बीच से यूँ अदृश्य हो जायेगा . आज भगवत के संतवत अथक रचनाकर्म को नमन करने का दिन है . हाँ , यह जरूर है , आज से एक नए भगवत रावत का जन्म हो चुका है , जो निश्चय ही जीवित भगवत जी के कद और हद से कई गुना बड़ा और व्यापक बनेगा . bharat prasad, shillong

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  2. भगवत रावत कविता में अमूर्तन के सदैव विरोधी रहे और लोक की सहजता के समीप | उनकी कविता को ये दो बातें ही ताकत देती थीं | उनकी स्मृति को प्रणाम

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