प्रणय कृष्ण का आलेख 'मार्कण्डेय : स्मरण में है आज जीवन'






मार्कण्डेय जी लेखक होने के साथ साथ एक बेहतर इंसान भी थे। अपने समीप आने वाले किसी भी व्यक्ति से मार्कण्डेय जी जिस सहजता से मिलते और आव-भगत करते थे वह आमतौर पर इतनी बड़ी कद-काठी के लेखकों के जीवन व्यवहार में प्रायः नदारद मिलता है। नयी पीढ़ी से वे हमेशा अत्यंत उत्साह से मिलते और उन्हें रचनाधर्मिता के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। वामपंथ के प्रति उनकी प्रतिबद्धता आजीवन बनी रही. कई धडों में बटे वाम लेखक संगठनों में एका के हामी मार्कंडेय जी किसी भी तरह रचनात्मकता को बढ़ावा देने के पक्षधर थे। मार्कण्डेय जी के जन्म दिन पर विशेष प्रस्तुतीकरण के क्रम में दूसरी कड़ी के अंतर्गत प्रस्तुत है युवा आलोचक प्रणय कृष्ण का एक आत्मीय संस्मरण।




मार्कण्डेय : स्मरण में है आज जीवन 

प्रणय कृष्ण 




मार्कण्डेय जी से पहली मुलाक़ात की तिथि तो याद नहीं, लेकिन वो मंज़र और आस-पास का घटनाक्रम ज़रूर याद है जिसने इस मुलाक़ात को साधारण मुलाक़ात नहीं रहने दिया था. मैं इलाहाबाद में तीसरी पारी के लिए अध्यापक बनकर सितम्बर १९९६ में आ चुका था. जब इलाहाबाद में छात्र था तो कथाकारों में सिर्फ अश्क जी और दूधनाथ जी से मिला था. १९८३ -८४ में ही इन दोनों हस्तियों से मिल चुका था. म्योर हास्टल की पत्रिका समवेत का सम्पादन करते हुए अश्क जी से इंटरव्यू लेने गया था, जो उन्होंने दिया नहीं और दूधनाथ जी से उस पत्रिका के लिए श्री दुष्यंत कुमार पर लेख माँगा था जो उन्होंने बड़े ही स्नेहपूर्वक रिकार्ड समय में लिख कर दिया था. दूधनाथ जी हमारे अध्यापक भी थे और मैं २-३ बार शंभू बैरक वाले उनके आवास पर उन्हीं दिनों आया गया भी था. शेखर जी से पहली मुलाक़ात जे.एन.यूं. में पढ़ाई के दिनों में इलाहाबाद उनके घर आ कर की थी. अमरकान्त जी से मिलना अध्यापक हो कर इलाहाबाद आने के बाद ही हुआ. कालिया दंपत्ति से भी तभी मिला. लेकिन मार्कण्डेय जी से मुलाक़ात सबसे बाद में हुयी. यों उनका बेटा सौमित्र म्योर होस्टल से अटैच्ड था, सो दूर दूर से १९८३-८४ से ही उन्हें जानते थे. 'अग्निबीज' तभी पढ़ा था। 'हंसा जाई अकेला' और 'गुलरा के बाबा' भी।



बहारहाल, हिन्दुस्तानी एकेडमी सभागार के जो दो दरवाज़े बाहर की और खुलते हैं, उनमें पीछे वाले दरवाज़े की सीढियों पर शाम के वक्त मार्कण्डेय जी से मेरी पहली मुलाक़ात हुयी. उस समय तक दूधनाथ जी की 'नमो अन्धकारम' छप चुकी थी और इलाहाबाद के साहित्यिक माहौल में वांछित-अवांछित प्रभाव भी उत्पन्न कर चुकी थी. मैंने दोनों हाथ जोड़कर मार्कण्डेय जी को अपना परिचय देते हुए कहा, 'मैं प्रणय'। वे आखों में गहरे झांकते हुए बोले, 'प्रणय कृष्ण?' और मेरे सर हिलाने पर मेरे दोनों जुड़े हुए हाथ उन्होंने अपने दोनों हाथों में ले लिए। बातें भी उन्होंने कुछ कहीं जो याद नहीं, लेकिन खूब खुश हो कर वे उसी मुद्रा में इतनी देर तक तो खड़े ही रहे कि दरवाज़े की ट्रैफिक रूक गयी और कार्यक्रम शुरू होने की उद्घोषणा सुन अन्दर आने को बेताब लोगों की व्यग्रता का अनुमान लगा मैंने ही उनसे कहा, 'अन्दर चलते हैं'।



कुछ ही दिनों पहले एक घटना ऐसी हुई थी जिसके चलते ही संभवतः मार्कण्डेय जी मेरे जैसे नए अध्यापक को मिलने से पहले से ही जान चुके थे। दर-असल दूधनाथ जी की 'नमो अन्धकारम ' से इलाहाबाद में न केवल नए पढने लिखने वाले बल्कि मेरा अनुमान है कि पुरानी पीढी के लोग भी बहुत आहत हुए थे, ज़ाहिर उन्होंने भले ही न किया हो। उन्हीं दिनों अत्यंत प्रतिभाशाली युवा कथाकार श्री वसु मालवीय (जिनकी सड़क दुर्घटना में मृत्यु हुई थी) की या तो पहली पुण्य-तिथि थी या फिर मृत्यु के बाद पहले जन्म दिन पर उनकी याद में एक गोष्ठी उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र की चित्रशाला वाले हाल में आयोजित थी. मैंने वसु मालवीय की रचनाओं पर नोट्स लिए थे औए तैय्यारी से था. पहुँचने पर श्री यश मालवीय ने मुझसे संचालन संभालने को कहा। मैंने उनसे दरखास्त की कि मैं बोलने की तैय्यारी से आया हूं, अतः संचालन किसी और का करना बेहतर होगा. जब उन्होंने यह बताया कि अध्यक्षता दूधनाथ जी करेंगे , तो मैंने बिलकुल ही हाथ खड़े कर दिए. 'नमो अन्धकारम' की प्रतिक्रया मैं भांप रहा था और अन्दर से एक भय था कि कहीं गोष्ठी उधर ही न मुड़ जाए और तब संचालक की भूमिका भी बहुत नाज़ुक हो उठती। बहारहाल वे नहीं माने और संचालन मुझे ही करना पडा। मैंने यश मालवीय से वक्ताओं की सूची माँगी, तो वे बोले कि ऐसी कोई सूची बनायी नहीं है, आप अपने विवेक से आए हुए लोगों में से बुलाते जाएं. अंततः जो भय था वही हुआ. एक के बाद एक वक्ता आते गए और वसु पर कम, बात उस कहानी और दूधनाथ जी पर ही अधिक केन्द्रित होती गयी. मैंने बार-बार जितना ही विषय पर गोष्ठी को लाने की कोशिश की, उतना ही दूधनाथ जी को यह लगता गया कि मैं षड्यंत्र कर रहा हूं और अंततः दोनों पक्षों ने एक दूसरे पर प्रहार करने में कुछ उठा न रखा। गोष्ठी के बीच से उठ कर लोगों ने पब्लिक फोन से लोगों को बुलाया (तब तक मोबाइल नहीं आया था) लोग माहौल की गर्मी का लुत्फ़ उठाने गोष्ठी ख़त्म होते होते भी गिरते पड़ते पहुंचते ही रहे। बाहर भी बहसा-बहसी हुई और फिर अखबारों और साहित्यिक वृत्त में जारी रही. शायद इसी सिलसिले से मार्कण्डेय जी को मेरे विषय में जानकारी हुई।



फिर उनके यहां किसी न किसी कार्यक्रम का न्यौता लेकर मैं जाता ही रहा। लगभग सदैव ही वे लक-दक सफ़ेद कुरते-पायजामें में मिले। गोरी, लम्बी, छरहरी काया और सन से सफ़ेद बाल. अपनी धीमी और किंचित स्त्रीसुलभ आवाज़ में वे हमें कुछ संस्मरण या साहित्य के नुक्ते से कोई बात आहिस्ता-आहिस्ता सुनाते समझाते। ज़्यादातर खुद नाश्ते की चीज़ें भीतर से लेकर आते. उनका अपना सलीका था हर बात में। हमें उन्होंने एक तरह का 'ब्लैंक चेक' दे रखा था। कह रखा था कि जिस भी कार्यक्रम में मुझे बोलने के लिए बुलाना चाहो, बिना मुझसे पूछे आमंत्रण में नाम डाल देना. फोन पर तारीख और समय बता देना, मैं पहुच जाउंगा. ऐसा उन्होंने अंत तक निभाया भी, जब तक कि अशक्त नहीं हो गए. एक बार तो हम उन्हें लेने कुछ देर से पहुंचे और पता चला कि वे रिक्शा कर के कार्यक्रम-स्थल के लिए रवाना हो चुके हैं।



एक घटना याद आती है जब श्री बोधिसत्व की 'पागलदास' शीर्षक कविता मेरे सम्पादन में निकली 'जनमत' में प्रकाशित हुई और फिर बाद में पुरस्कृत भी। हमें लगा कि जनमत पत्रिका की और से बोधिसत्व का सम्मान किया जाए। कार्यक्रम तय हो गया. कार्ड छप गए। मार्कण्डेय जी को अध्यक्षता करनी थी। लेकिन जिन भी कारणों से बोधिसत्व पर और उनके संगठन के अन्य साथियों पर इस कार्यक्रम में शिरकत न करने का सांगठनिक दबाव आन पडा। शायद संगठन की मीटिंग भी हुई और कार्यक्रम में शिरकत न करने का निर्णय भी लिया गया। जो हो आयोजक होने के चलते हमारी चिंता बढ़ गयी। बोधिसत्व ने तो खैर हमें आश्वस्त किया कि वे ज़रूर आएँगे, लेकिन बाकी लोगों को लेकर चिंता बनी रही। एक चिंता मार्कण्डेय जी को लेकर भी थी. संगठन का मामला था और वे इतने वरिष्ठ थे कि हम सीधे उनसे पूछ भी नहीं सकते थे कि इस स्थिति में वे क्या करेंगे. कार्यक्रम जिस दिन था, उस दिन भारी अनिश्चितता बनी हुई थी। शाम पांच बजे से निराला सभागार में कार्यक्रम होना तय था, लेकिन अचानक 3.30 बजे से ही ज़ोरदार बारिश शुरू हो गयी। कार्यक्रम के महज 15 मिनट पहले रुकी और निर्धारित समय से 15 मिनट बाद हाल खचाखच भर चुका था। हम कार्यक्रम की सफलता को ले कर तभी आश्वस्त हो गए जब देखा कि मार्कण्डेय जी उनको लेने गए साथियों के साथ अपनी चिर-परिचित वेश-भूषा और भंगिमा में ठीक समय पर पधार गए।



एक वाकया और है लोकसभा चुनावों के वक्त का। मैं विश्विद्यालय में था कि दोपहर में अचानक साहित्यिक बिरादिरी के कुछ लोग आए और कहने लगे कि तुरंत चलिए ए. जी. आफिस, ज़रूरी मीटिंग है। बताया गया कि भाजपा के प्रत्याशी डा. मुरली मनोहर जोशी के पक्ष में कुछ प्रगतिशील, सेकुलर साहित्यकारों ने बयान दिया है. पहुंचे तो देखा कि कई हस्तियां पहुँच चकी हैं. संघ परिवार के किसी आनुषंगिक संगठन ने एक फोल्डर निकाला था कीमती कागज़ पर, जिसमें डा. जोशी को शहर के कई नामी-गिरामी लोगों ने सबसे योग्य उम्मीदवार बताया था. नीचे दिए गए नामों में मार्कंडेय जी और ममता कालिया का भी नाम था। कुछ लोग बेहद उत्तेजित थे। चाहते थे कि तुरंत ही इन लोगों के खिलाफ प्रस्ताव ले कर हस्ताक्षर करा कर प्रेस को दे दिया जाए. प्रेस के लोग भी उपस्थित थे. मैंने ये ज़रूर कहा कि कोई भी प्रस्ताव लेने से पहले मार्कंडेय जी और ममता जी से यह पूछ ज़रूर लेना चाहिए कि उन्होंने ऐसा किया भी है या नहीं. ये बात कुछ लोगों को ठीक तो कुछ लोगों को नागवार लगी. बहर-हाल मीटिंग में कोई प्रस्ताव पास नहीं हुआ. यह बात दोनों तक पहुंचा दी गयी कि वे अपना पक्ष स्पष्ट कर दें। अगले दिन के अखबार में दोनों का बयान छपा कि उन्होंने डा. जोशी के समर्थन में कोई बयान नहीं दिया है. लेकिन इस छोटे से खंडन के बर- अक्स लगभग आधे पेज में ढेर सारे हस्ताक्षरों के साथ दोनों की निंदा के प्रस्ताव का समाचार छपा था. मैं यह देख हतप्रभ रह गया. क्यों लोग इतने बेताब थे कि इन्हें अपना मत स्पष्ट करने का मौक़ा दिए बगैर निंदा प्रस्ताव ले आए? क्यों उन्हें इनकी सफाई से ज़्यादा संघ परिवार के फोल्डर पर ज़्यादा भरोसा था? इस राजनीतिक दीवालिएपन पर मुझे हैरत हुयी कि संघ परिवार के छल-छंद के चलते इतनी आसानी से इलाहाबाद जैसे राजनीतिक शहर के अदीब विभाजित होकर अपने ही साथियों के खिलाफ बयानबाजी करके प्रकारांतर से चुनाव के नाज़ुक मौके पर संघ और डा. जोशी को फ़ायदा पहुंचा रहे थे। मैं 1999 से ले कर 2007 तक माले की राज्य कमेटी की ओर से इलाहाबाद जिला इकाई का इंचार्ज रहा और इस दौरान साहित्य की दुनिया में मेरी आमो-दरफ्त बचे खुचे समय में ही संभव थी. लेकिन ठीक इसी कारण मेरा राजनीतिक विवेक अपनी जगह पर था और साहित्यिक गुटबाजी उसे ज़्यादा प्रभावित नहीं कर सकती थी. मैंने यह भी सूंघ लिया था कि इस बहाने साहित्यिक इर्ष्या-द्वेष के चलते मुख्य निशाने पर मार्कण्डेय जी ही थे।



साथियों की सलाह से मैंने लंबा बयान संघ के खिलाफ देते हुए उन्हें चैलेन्ज किया कि वे सिद्ध करें कि मार्कण्डेय और ममता कालिया ने उक्त बयान पर हस्ताक्षर किए थे, अन्यथा माफी मांगें. इस बयान में संघ की खुराफातों से प्रगतिशीलों को भी आगाह किया गया था. बयान खासा लंबा होने के बावजूद अखबारों ने छापा था और उसके बाद पूरे मसले का ही पटाक्षेप हो गया।



मार्कण्डेय जी वामपंथ की जिस धारा से उसके जन्म से जुड़े हुए थे, उसी धारा से अलग होकर कामरेड चारू मजूमदार और उनके साथियों ने एक अलग रास्ता अपनाया था जिससे मेरा सम्बन्ध है, लेकिन एक बोध यह आज भी जीता है कि सारी कटुताओ के बावजूद वामपंथी एक दूसरे से सही रास्ते के लिए झगड़ते हैं, व्यक्तिगत कारनों से नहीं। हमारे मतभेदों से कम बड़ी नहीं हैं हमारी साझेदारियां। कितने लोग इसका ध्यान रख पाते हैं? कितने लोग दुश्मनाना और गैर-दुश्मनाना अंतर्विरोधों में फर्क की तमीज रखते हैं? मेरा मार्कण्डेय जी से ऐसा सम्बन्ध नहीं था जो कि उनके समकालीनों और समवयस्कों का रहा है, मैं बिलकुल अलग पीढी का हूं उनके जानने वालों में, लेकिन इतना तब भी समझता हूं कि उनकी राजनीतिक समझ और वैचारिक दिशा जीवन के आखिरी दिनों तक अपने तमाम समकालीनों और आगे के लोगों से काफी आगे थी। व्यक्तिगत जीवन और राजनीतिक सम्बद्धता के बीच खाई से कोई भी मध्यवर्गीय वाम पक्षधर बौद्धिक मुक्त नहीं है। मार्कण्डेय भी नहीं होंगे, लेकिन उसकी अभिव्यक्तियों के बारे में मेरा कोई अनुभव नहीं है।



सम्पादक मार्कण्डेय ने कभी वामपंथ की अलग अलग धाराओं से परहेज़ नहीं किया। कोई चाहे तो उनके सम्पादन में निकली 'कथा' के तमाम अंकों को देख जाए। मेरे जैसों के लिए तो कथा में लिखने के लिए उनका कहना आदेश से कम न होता था. मुझे अफ़सोस है कि जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने मुझसे यह कहते हुए कुंवर नारायण पर लिखने के लिए कहा था कि बहुत से वाम-जनवादी-प्रगतिशील कन्नी काट गए हैं। कैंसर के बाद अपनी बदली हुयी आवाज़ में कहते थे, 'तुम्हीं लिख सकते हो'। मुझे वो आवाज़ अभी भी भूलती नहीं।



2007 के दिसंबर या शायद 2008 की शुरुआत में राजीव गांधी कैंसर इंस्टीटयूट में उनसे मुलाक़ात हुई। बीमारी का पता चला, फिर रोहिणी में जहां उन्होंने इलाज के लिए घर लिया था वहां गया। श्री ग्रोवर ने फोन लगाया अमरकांत जी को। फोन का लाउडस्पीकर ऑन था अमरकांत कह रहे थे, "कबे! मार्केंडेवा! का भइल?" आदि। भोजपुरी में दो दोस्त अपने दिल की बात कर रहे थे. ऐसा था सम्बन्ध इनका जहां मौत भी मुल्तवी हो जाती थी. जिस कमरे में उन्होंने मेरे जैसों और अन्य तमाम लोगों का लगातार स्वागत किया था, उसी कमरे में उनकी निश्चेष्ट काया को देखा, उस आखिरी दिन।



इसी इलाहाबाद में कामरेड जिया-उल-हक़, कामरेड कृपाशंकर, जस्टिस मेहरोत्रा (तीनों हमारे सौभाग्य से अभी भी जीवित और 90 के आस-पास) और पूर्व विधायक समाजवादी नेता भगवंत प्रसाद से जो स्नेह मिला है मुझे, उससे कम नहीं था मार्कंडेय जी का स्नेह जिनसे न मेरा कोई स्वार्थ सधना था न उनका मुझसे।







(युवा आलोचक प्रणय कृष्ण इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। साथ ही समकालीन जनमत पत्रिका के संपादन मंडल से जुड़े हुए हैं.)  



टिप्पणियाँ

  1. बेहतरीन स्मरण आलेख ....सचमुच मार्कंडेय जी एक विलक्षण कथा शिल्पी के साथ साथ अदभुत और संवेदनशील इंसान भी थे ....उनकी स्मृति को नमन

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  2. Ramakant Roy पढ़ आया , बेहतरीन है.
    तीसरी कड़ी का इंतज़ार रहेगा.

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  3. Vimal Chandra Pandey- Pranay da hamesha bareek nazar ka kayal karte hain, badhiya lekh aur zaroori bhi

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  4. बेहतरीन है. प्रणय सर का यह लेख मार्कंडेय जी के व्यक्तित्व के उज्ज्वल पक्ष को दिखाता है. मार्कंडेय जी बेहद सरल व्यक्तित्व के साहित्यकार थे. जब हमने उन्हें पहली बार देखा था तब हम ऍम ए में नए नए आये थे. सत्यप्रकाश जी के सौजन्य से शहर में खूब साहित्यिक कार्यक्रम हुआ करते थे. वे हम लोगो को कहा भी करते थे कि आना.
    इलाहाबाद संग्रहालय में कार्यक्रम था. तब हमलोगों का टिकट लगा करता था वहाँ जाने पर. इस बार हम लोग गए तो टिकट नहीं लगा. सत्यप्रकाश जी और मार्कंडेय जी बाहर ही थे, उन्होंने द्वार रक्षकों को हिदायत दी और हम लोगों ने पहचाना-- झक सफ़ेद कुर्ते में, सफ़ेद बाल, छरहरी काया. "ये मार्कंडेय जी हैं. अग्निबीज वाले" और हम लोगो को हाथ मिलाने का मौका मिला जबकि हम पैर छूने के लिए झुके थे.
    हम सब बहुत उत्तेजित थे. गोष्ठी जाने किस विषय पर थी. हमारा ध्यान बस मार्कंडेय जी पर था. हमलोगों ने बी ए में अग्निबीज पढ़ा था और हमारे जेहन में तब से कुछ बचपने वाले प्रश्न थे. गोष्ठी के समापन पर हम लोगों ने उनसे बात करने का प्रयास किया और वे सुलभ हो गए. वे सहजता से हमारे प्रश्नों के उत्तर देते रहे. फिर हम सब के एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि उसका उत्तर वे अग्निबीज के दुसरे खंड में लाने की कोशिश करेंगे. हमलोगों ने उस गोष्ठी को सफल माना.
    मार्कंडेय जी जब जब हमलोगों को दिखे वैसे ही दिखे. हम सब उनका लिहाज करते थे और कई बार यह सोच कर कि इतना बड़ा साहित्यकार है, हम लोगों से क्या बात करेगा? कन्नी काट लेते थे.और कई बार हम लोग उनसे रूबरू भी होते थे.
    आज उनको याद करके लगता है कि उनके और सत्यप्रकाश जी के बाद गोष्ठियों की रौनक खतम हो गयी.
    प्रणय जी ने उनके व्यक्तित्व के पहलूओं पर आत्मीयता से बात करके सर्वथा न्याय किया है.
    मार्कंडेय जी को नमन!

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  5. बेहतरीन है. प्रणय सर का यह लेख मार्कंडेय जी के व्यक्तित्व के उज्ज्वल पक्ष को दिखाता है. मार्कंडेय जी बेहद सरल व्यक्तित्व के साहित्यकार थे. जब हमने उन्हें पहली बार देखा था तब हम ऍम ए में नए नए आये थे. सत्यप्रकाश जी के सौजन्य से शहर में खूब साहित्यिक कार्यक्रम हुआ करते थे. वे हम लोगो को कहा भी करते थे कि आना.
    इलाहाबाद संग्रहालय में कार्यक्रम था. तब हमलोगों का टिकट लगा करता था वहाँ जाने पर. इस बार हम लोग गए तो टिकट नहीं लगा. सत्यप्रकाश जी और मार्कंडेय जी बाहर ही थे, उन्होंने द्वार रक्षकों को हिदायत दी और हम लोगों ने पहचाना-- झक सफ़ेद कुर्ते में, सफ़ेद बाल, छरहरी काया. "ये मार्कंडेय जी हैं. अग्निबीज वाले" और हम लोगो को हाथ मिलाने का मौका मिला जबकि हम पैर छूने के लिए झुके थे.
    हम सब बहुत उत्तेजित थे. गोष्ठी जाने किस विषय पर थी. हमारा ध्यान बस मार्कंडेय जी पर था. हमलोगों ने बी ए में अग्निबीज पढ़ा था और हमारे जेहन में तब से कुछ बचपने वाले प्रश्न थे. गोष्ठी के समापन पर हम लोगों ने उनसे बात करने का प्रयास किया और वे सुलभ हो गए. वे सहजता से हमारे प्रश्नों के उत्तर देते रहे. फिर हम सब के एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि उसका उत्तर वे अग्निबीज के दुसरे खंड में लाने की कोशिश करेंगे. हमलोगों ने उस गोष्ठी को सफल माना.
    मार्कंडेय जी जब जब हमलोगों को दिखे वैसे ही दिखे. हम सब उनका लिहाज करते थे और कई बार यह सोच कर कि इतना बड़ा साहित्यकार है, हम लोगों से क्या बात करेगा? कन्नी काट लेते थे.और कई बार हम लोग उनसे रूबरू भी होते थे.
    आज उनको याद करके लगता है कि उनके और सत्यप्रकाश जी के बाद गोष्ठियों की रौनक खतम हो गयी.
    प्रणय जी ने उनके व्यक्तित्व के पहलूओं पर आत्मीयता से बात करके सर्वथा न्याय किया है.
    मार्कंडेय जी को नमन!

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  6. Ramakant Roy बेहतरीन है. प्रणय सर का यह लेख मार्कंडेय जी के व्यक्तित्व के उज्ज्वल पक्ष को दिखाता है. मार्कंडेय जी बेहद सरल व्यक्तित्व के साहित्यकार थे. जब हमने उन्हें पहली बार देखा था तब हम ऍम ए में नए नए आये थे. सत्यप्रकाश जी के सौजन्य से शहर में खूब स...ाहित्यिक कार्यक्रम हुआ करते थे. वे हम लोगो को कहा भी करते थे कि आना.
    इलाहाबाद संग्रहालय में कार्यक्रम था. तब हमलोगों का टिकट लगा करता था वहाँ जाने पर. इस बार हम लोग गए तो टिकट नहीं लगा. सत्यप्रकाश जी और मार्कंडेय जी बाहर ही थे, उन्होंने द्वार रक्षकों को हिदायत दी और हम लोगों ने पहचाना-- झक सफ़ेद कुर्ते में, सफ़ेद बाल, छरहरी काया. "ये मार्कंडेय जी हैं. अग्निबीज वाले" और हम लोगो को हाथ मिलाने का मौका मिला जबकि हम पैर छूने के लिए झुके थे.
    हम सब बहुत उत्तेजित थे. गोष्ठी जाने किस विषय पर थी. हमारा ध्यान बस मार्कंडेय जी पर था. हमलोगों ने बी ए में अग्निबीज पढ़ा था और हमारे जेहन में तब से कुछ बचपने वाले प्रश्न थे. गोष्ठी के समापन पर हम लोगों ने उनसे बात करने का प्रयास किया और वे सुलभ हो गए. वे सहजता से हमारे प्रश्नों के उत्तर देते रहे. फिर हम सब के एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि उसका उत्तर वे अग्निबीज के दुसरे खंड में लाने की कोशिश करेंगे. हमलोगों ने उस गोष्ठी को सफल माना.
    मार्कंडेय जी जब जब हमलोगों को दिखे वैसे ही दिखे. हम सब उनका लिहाज करते थे और कई बार यह सोच कर कि इतना बड़ा साहित्यकार है, हम लोगों से क्या बात करेगा? कन्नी काट लेते थे.और कई बार हम लोग उनसे रूबरू भी होते थे.
    आज उनको याद करके लगता है कि उनके और सत्यप्रकाश जी के बाद गोष्ठियों की रौनक खतम हो गयी.
    प्रणय जी ने उनके व्यक्तित्व के पहलूओं पर आत्मीयता से बात करके सर्वथा न्याय किया है.
    मार्कंडेय जी को नमन!

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