प्रचण्ड प्रवीर का आलेख 'ह्युमिलिटी और ज्ञानरञ्जन'
![]() |
ज्ञानरञ्जन |
रवीन्द्र कालिया, ज्ञानरञ्जन, दूधनाथ सिंह और काशीनाथ सिंह साठोत्तरी कहानी के प्रमुख स्तम्भ माने जाते हैं। यह अलग बात है कि ज्ञानरञ्जन ने कुछ कहानियां लिखने के पहचान 'पहल' नामक पत्रिका की शुरुआत कर दी। इस क्रम में उनका कहानी लेखन स्थगित हो गया। इस स्थगन में एक लेखकीय ईमानदारी भी देखी जा सकती है। हाल ही में 'हिन्दवी' द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम 'सङ्गत' के सौंवे एपिसोड में ख्यातिलब्ध प्रतिष्ठित कथाकार-सम्पादक ज्ञानरञ्जन का साक्षात्कार लिया गया जिसमें उन्होंने कुछ बेबाक बातें की। अपनी एक कहानी को बेहतरीन कहानी बताया और अपने कुछ समकालीनों की कड़ी आलोचना भी की। इसे ले कर हिन्दी समाज में उठापटक जारी हो गई है। इस क्रम में ज्ञानरञ्जन पर आक्रामक प्रहार किए जा रहे हैं और उन्हें ह्युमिलिएट भी किया जा रहा है। हिन्दी समाज में अपने वरिष्ठ के प्रति यह व्यवहार कोई नई बात नहीं है। प्रचण्ड प्रवीर ने अपने एक आलेख में इस मुद्दे की तार्किक तहकीकात की है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रचण्ड प्रवीर का आलेख 'ह्युमिलिटी और ज्ञानरञ्जन'।
ह्युमिलिटी और ज्ञानरञ्जन
प्रचण्ड प्रवीर
आमतौर पर हिन्दी आलेखों मैं अङ्ग्रेजी शब्दों का प्रयोग करना अनुचित है किन्तु प्रस्तुत आलेख का प्रतिपाद्य समाज, विशेषतया हिन्दी साहित्य समाज में भाषागत भ्रामक स्थापनाओं के सन्दर्भ है। प्रचलित शब्द 'ह्युमिलिटी (humility)' का अर्थ 'विनम्रता' और 'विनय' में अनुवाद किया जाता है। किन्तु ह्युमिलिटी का शाब्दिक अनुवाद 'दीनता' के अर्थ में अधिक समझा जाता है। यही अर्थ बहसों में प्रस्तुत है।
हाल ही में 'हिन्दवी' द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम 'सङ्गत' की सौंवी में ख्यातिलब्ध प्रतिष्ठित कथाकार-सम्पादक ज्ञानरञ्जन' का साक्षात्कार लिया गया। दो घण्टे लम्बे साक्षात्कार में, ठीक चालसीवें मिनट में ज्ञानरञ्जन से प्रश्न किया गया कि वे बड़ी कहानी किसे मानते हैं। इसके उत्तर में ज्ञानरञ्जन जी ने कहा कि बड़ी कहानी वह है जो लम्बे समय तक जीवित रहे और जिसे व्यापक समाज स्वीकार कर ले, विरोधी भी स्वीकार कर ले, वो है बड़ी कहानी। इसके उपरान्त उन्होंने अपनी ही एक कहानी का उदाहरण दिया।
हिन्दी साहित्य समाज में इसे 'ह्युमिलिटी का अभाव' तथा आत्ममुग्धता समझा और कहा गया है। ह्युमिलिटी का अभाव कहने का अर्थ यह भी है कि व्यक्ति में ह्युमिलिटी होनी चाहिए, यानी ह्युमिलिटी एक वरेण्य मूल्य है जिसका अनुपालन सभी को करना ही चाहिए। याद दिलाना चाहूँगा कि ह्युमिलिटी एक ईसाई मूल्य है जिसे भारतीय दस यम (सत्य, दम, तप, शौच, संतोष, क्षमा, आर्जव (सरलता सीधापन), विद्या, शम और दया) में स्थान नहीं मिलता।
यहाँ पर मैं वही कह रहा हूँ जिसे बारुक स्पिनोजा ने अपनी कालजयी पुस्तक 'एथिक्स' (नैतिकता, ज्यामितिक प्रमेयों में प्रदर्शित - 1677) में कहा था, जिसे पश्चिमी संसार में बहुत दिनों तक प्रतिबन्धित किया गया था। स्पिनोजा के 'एथिक्स' के चौथे अध्याय का तिरपवनाँ प्रमेय इस प्रकार है ह्युमिलिटी कोई मूल्य नहीं है और यह तर्कसङ्गत युक्ति (रीज़न) से उत्पन्न नहीं होती। वहीं स्पिनोजा ने तीसरे अध्याय के पचपनवें प्रमेय और मनोभावों की व्याख्या के क्रम में छब्बीसर्वी व्याख्या में ह्युमिलिटी का अर्थ 'दीनता' के अर्थ में समझाते हैं। स्पिनोजा के अनुसार ह्युमिलिटी किसी व्यक्ति के अपने शरीर और मन की दुर्बलता के विमर्श से उत्पन्न पीड़ा से लेते हैं।
हमें देखना चाहिए कि इस दीनता का प्रत्याख्यान भारत में किस तरह हुआ है और कब यह मूल्य बन गया। हमारे आधुनिक भारतीय मन में दीनता के विचार में गोस्वामी तुलसीदास का रामचरितमानस स्मरण में आता है जहाँ यह मुख्यता से मिलता है। दीनता का यह स्वरूप आलवार संतों की भक्ति में भी मिलता है। भक्ति का दैन्य और ईसाई मतों में ईश्वर के प्रति दीनता काव्य में फटेहाल, खिन्न, दुर्बल, अशक्त, लाचार के लौकिक स्वरूपों की तरह की जाती है। यहाँ तक कि यूरोपीय विद्वानों का यह आक्षेप था कि आलवार सन्तों और तुलसीदास की दीनता ईसाई मत से प्रेरित है।
मैं याद दिलाना चाहूँगा कि ईसाइयत के मुख्य मूल्य प्रेम (लव), करुणा (कम्पैशन), ह्युमिलिटी, इंटिग्रिटी (एकरूप सत्यनिष्ठा), और न्याय (जस्टिस) आदि हैं। ईसाइयत का प्रेम हिन्दी की शब्दावली में सन्दर्भानुसार वात्सल्य, भक्ति, स्नेह, कामुक प्रेम आदि में अनूदित किया जाएगा। स्पिनोजा की आपत्ति सीधे-सीधे ह्युमिलिटी के पाखण्ड से है। इसका उदाहरण हम उर्दू ज़बान में देखते हैं कि अपने लिए ख़ाकसार, नाचीज़, खादिम जैसे शब्दों का निरन्तर प्रयोग करना। 'हम कहाँ के दाना थे, किस हुनर में यक्ता थे' का प्रलाप काव्य में, पत्राचार में, सभा में अपनी बात रखने का लुभावना तरीका है। इसमें कुछ बुराई नहीं है। बुराई वहाँ पर आती है जब वह सत्य का गला घोंट कर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को चाशनी में लपेट कर पेश किया जाता है। जब कोई यह कहे मैं हिन्दी का, हिन्दी की परम्परा का, नाटक का और बनारस का जहाज रुकने नहीं दूंगा, ऐसा कथन हास्यापद न लगे और इसमें किसी को आत्ममुग्धता नज़र न आए उस स्थिति में एक साथ हँसा और रोया जा सकता है। पहले दिखाई तक सारी विनम्रता और विनयपूर्ण व्यवहार हाशिए पर चला जाता है और यह मसीहाई स्वरूप याद आता है जिसे आमतौर पर भ्रष्टता के पर्याय राजनेता अपनाते हैं।
ह्युमिलिटी का अर्थ हम एक साथ 'विनम्रता', 'विनय' और 'दीनता' से चाहे अनचाहे समझते हैं। सभा में बहुधा अपनी बात कहने से पहले अपनी अशक्त होने का या अशक्य होने का स्वीकार करना कई बार सत्य के अनुरूप होता है और हमें उस सत्यभाषण की प्रशंसा करनी चाहिए क्योंकि ऑस्कर वाइल्ड ने तो कहा ही है कि हम सभी गटर में पड़े हैं पर कुछ सितारों की ओर देख तो रहे हैं।
किन्तु हमें 'मोजार्ट' और 'मीर तक़ी मीर' के प्रसिद्ध उदाहरण कभी नहीं भूलने चाहिए। मिलोस फोर्मेन की फ़िल्म 'अमाडेयुस' (Amadeus-1984) जो कि अलेक्सान्दर पुश्किन के प्रसिद्ध नाटक 'मोजार्ट और सैलिएरी' (1830) पर आधारित थी, जिसमें मोजार्ट को अपनी प्रतिभा पर अभिमान और दूसरे सङ्गीतकारों की कमतर रचनाओं पर निर्मम आकलन से विरोधियों में उत्पन्न पीड़ा का चित्रण है। आज हम सीधा-सा सवाल कर सकते हैं कि यदि मोजार्ट से पूछा जाता कि भाई बताओ, आज के समय में सबसे महान सङ्गीत रचना कौन है? अपने स्वभाव के अनुसार और सत्यनिष्ठ होने के कारण मोजार्ट अपनी ही रचनाओं का नाम लेता। इसमें कौन सी बड़ी बात होती? लेकिन क्या यह उनके ईर्ष्यालु समकालीनों को किसी तरह गवारा था? जैसा कि मीर तक़ी मीर के साथ विख्यात है कि वे अपनी रचनाओं के सन्दर्भ में अभिमानी तो थे ही, अन्तः में उनकी प्रतिष्ठा अहङ्कारी कवि की हो गयी। किन्तु हमें अहङ्कार और अभिमान में भेद करना चाहिए। अभिमान का सीधा अर्थ है 'मान' का स्वीकार। जैसे हम मानते हैं कि बिना किसी सहारे के चल-फिर सकते हैं, जो कि नवजात शिशु नहीं कर सकता। यह देहाभिमान किस स्वस्थ वयस्क में नहीं है? उसी तरह अगर कोई रचनाकार अपनी रचना को अच्छा कहे, इसमें कौन सी बुराई है। बुराई तब होगी कि जब वह रचना बेकार हो किन्तु लेखक इसी हठ में लगा रहे कि उसकी रचना बढ़िया है। ऐसा एक उदाहरण आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का सुनने में आता है कि वे अपनी पुस्तक में अपनी बकवास कविताओं का सन्दर्भ उत्तम कविताओं के उदाहरण में दिया करते थे। इस कारण वे हास्यास्पद थे।
जिन अभागों ने ज्ञानरञ्जन को पढ़ा नहीं है और केवल उनके छब्बीस कहानियों के लिखे जाने का रोना रो रहे हैं, उन्हें याद दिलाना होगा कि साहित्य में ऐसे कई प्रतिमान हैं जहाँ लेखक ने केवल एक रचना से ही बड़ी प्रसिद्धि पा ली। यह लेखक का स्वातन्त्र्य है कि वह लिखे या न लिखे। ज्ञानरञ्जन तब हास्यास्पद हो जाते जब वे कहते कि वे हिन्दी के सबसे बड़े कथाकार हैं। उस दृष्टि में उन्हें सिद्ध करना पड़ता है कि हिन्दी के जितने रचनाकार हैं, सबों के समस्त कविकर्म की तुलना में उनका रचनाकर्म क्यों और किस तरह सर्वश्रेष्ठ है। गौर कीजिए कि ज्ञान जी ने केवल बड़ी रचना की बात की है और उसी सन्दर्भ में अपनी रचना का उदाहरण दिया है। उपरोक्त कार्यक्रम, जिसका प्रधान मूल्य लाइक्स जुटाना और दृश्य सङ्ख्या बढ़ाना है और सहायक मूल्य 'सनसनी फैलाना' मात्र है, के निन्यानवें मिनट में ज्ञानरञ्जन यह भी कहते हैं वे पूर्णकालिक कहानीकार नहीं है, बल्कि स्थगित कहानीकार हैं। वे इस बात पर भी खिन्नता प्रकट करते हैं कि उनके पड़े हुए नोट्स में अधूरे उपन्यास और अधूरी कहानियाँ हैं जिसे वे स्वयं भी पसन्द नहीं करते। क्या यह विनम्रता नहीं? क्या यह आत्ममुग्धता का लक्षण है? आत्ममुग्धता तो तब होती जब वे सुपरमैन की तरह कहते या करते कि जब तक मेरी पीठ पर लाल-लाल लबादा है मैं हिन्दी कहानी के कागजी जहाज को डूबने नहीं दूँगा और कभी-कभार नीले-नीले अम्बर में पीला-पीला अबाबील उड़ाता रहूँगा।
हमें सजगता से दीनता और विनम्रता में भेद करना चाहिए। ज्ञानरञ्जन जैसे यशस्वी कथाकार जिन्होंने केवल छब्बीस कहानियों के दम पर हिन्दी में प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया है वे अगर अपने तेज में ऐसा न बोले तो क्यों न कहें? या तो हम यह स्थापित करें कि ज्ञानरञ्जन की कहानियाँ बेदम हैं, जिसका सभी को अधिकार है, या फिर इस स्थापना को स्वीकार करें कि पचास साल पहले ही ज्ञानरञ्जन हिन्दी साहित्य संसार में प्रतिष्ठित हो चुके हैं। आज हम निराला और जयशङ्कर प्रसाद की आलोचना करें, या मुक्तिबोध को दोयम दर्जे का राजनैतिक कार्यकर्ता-कवि कहें, इसका कोई मतलब नहीं है। प्रतिमान का पुनर्मूल्याङ्कन होता है, वे भुलाए भी जाते हैं, किन्तु उनके प्रतिमान बन जाने पर प्रश्नचिह्न खड़ा करना बेईमानी है।
सबसे पहले मैं इस तथाकथित वरेण्य मूल्य का प्रतिरोध करता हूँ और इसे कुछ सन्दर्भों में मूर्खतापूर्ण, छद्मता और कपट का लक्षण मानता हूँ। लेकिन मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि ऐसा कहना मेरा मौलिक कथन नहीं है। श्रीमद्भग्वत्पाद आदि शङ्कराचार्य श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य में कह गए हैं कि चिन्तन-सम्प्रदाय में मौलिकता का दावा करने वाला सरासर मूर्ख होता है। बहुधा चिन्तन में ऐसी ही बात होती है जो कई बार विचारी गयी होती हैं किन्तु हम अपने अज्ञानवश या मोहवश उस को स्वीकार नहीं करते।
ज्ञानरञ्जन उन बिरले लोग में से हैं जिन्होंने बहुत कम रच कर भी अविस्मरणीय काम किया। यदि लेखक स्वयं को स्थगित करना चाहता है तो वह उसका विवेक है, अधिकार है। उनका कहना है कि वे अपनी लिखी कहानी को दोबारा नहीं पढ़ते। इस उम्र में वह अपनी कहानियों को पढ़ कर नहीं, अपितु स्मृति से याद कर के बताते हैं। यह दावा अविश्वसनीय प्रतीत होता है। इसका प्रमुख कारण ऐसे स्मृति का होना है, वह भी अट्ठासी साल की उम्र में।
ज्ञानरञ्जन पर मची हाय-तौबा की वजह स्वर्गीय नामवर सिंह पर लगाए उनके आरोपों और उनको अपना साहित्यिक शत्रु घोषित करने से है। मैं समझता हूँ कि लम्बे जीवन के उपरान्त वृद्धों को यह अधिकार है, जो कि हमें स्वीकार करना चाहिए, कि वे जीवन को जब पीछे मुड़ कर देखते हैं, तो उसमें वे कैसी विसङ्गतियाँ पाते हैं। किस आचरण को अनैतिक और किसे वे शत्रु समझते हैं। स्मृति पर आधारित आक्षेप वाक्यों को प्रमाण सहित प्रस्तुत होने की अपेक्षा सही नहीं है। ऐसे संस्मरण किसी व्यक्ति के प्रति धारणा से अधिक दर्शकों/ पाठकों/ श्रोताओं के लिए उपयोगी हैं कि वे अपने समय का निर्माण ठीक से करें।
कुछ लोग का यह आक्षेप है कि ज्ञान रज्जन ने नामवर सिंह की वाचिक परम्परा का निषेध किया है। मेरी सीमित समझ ऐसी है कि वाचिक परम्परा में कविताएँ और कहानियाँ होती हैं जो उत्तरजीवित रहती हैं। कौन से व्याख्यान सदियों से सुने-सुनाए जा रहे हैं, इसकी जानकारी कोई दे तो बड़ा उपकार होगा। मुझे यकीन हो चला है कि कुछ लोग अब नामवर सिंह जी के सुनाए चुटकुले और आलोचना के सिद्धान्त को अपने व्याख्यानों में देने का कष्ट करेंगे ताकि आने वाली पीढ़ियाँ उनकी महात्म्य से परिचित रहे और वाचिक परम्परा चलती रहे।
यह विचारणीय है कि ह्युमिलिटी की आड़ में ज्ञानरञ्जन पर वार करने वाले क्या छद्म दीनता को मूल्य मानने की मूर्खता करते हैं या वे सब कुछ समझ कर भी कुटिलता से अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। मुझे दूसरी सम्भावना प्रबल लगती है।
सही है
जवाब देंहटाएंआपका लेख विचारणीय है.असहमत होना कठिन है
जवाब देंहटाएंइस आलेख में भूमिका पर जितनी मेहनत पूर्वार्द्ध में हुई है उतनी ही लेख के उत्तरार्द्ध में परिपुष्ट उदाहरण से की जाती। सोदाहरण बात करके जहां पर पूर्वार्द्ध को भी परिपुष्ट व समृद्ध करने का अवसर आया, रामचन्द्र शुक्ल और नामवर सिंह जैसे एक-दो उदाहरण दे करके लावजामा समेट लिया गया है!
जवाब देंहटाएंऊपर की टिप्पणी आजकल सहारनपुर में रह रहे लखनऊ वासी बन्धु कुशखवर्ती की है!
जवाब देंहटाएं