शैलेंद्र चौहान द्वारा लिखी गई समीक्षा 'घिरे हैं हम सवाल से... हमें जवाब चाहिए'




कुमार कृष्ण शर्मा जम्मू के सुपरिचित कवि हैं। उनकी कविताओं में जम्मू का परिवेश तो है ही, साथ ही वह मनुष्यता भी है जिससे कोई इंसान कवि बनता है। कुमार कृष्ण समाज में व्याप्त विसंगतियों को करीने से उभारते हैं। अपनी कविता आलू में वे लिखते हैं 'आलू खेतों में पैदा नहीं होते/ कुछ के लिए आलू फैक्ट्रियो में बनते हैं/ कुछ के लिए तोंदों में/ मेरे लिए पीठों पर उगते हैं आलू'। हाल ही में कवि का पहला संग्रह 'लहू में लोहा' नाम से प्रकाशित हुआ है। इसकी समीक्षा लिखी है चर्चित कवि एवम आलोचक शैलेन्द्र चौहान ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कुमार कृष्ण शर्मा के पहले कविता संग्रह 'लहू में लोहा' पर शैलेन्द्र चौहान की समीक्षा 'घिरे हैं हम सवाल से... हमें जवाब चाहिए'।



'घिरे हैं हम सवाल से... हमें जवाब चाहिए'


शैलेंद्र चौहान


हिंदी में कविताएं लगातार लिखी जा रही हैं। अन्य भाषाओं में भी लिखी जा रही होंगी लेकिन कविताओं के पाठक अत्यल्प  हैं। जो कविताएं इधर रची जा रही हैं, कुछेक दशकों से वे आम पाठक को पठनीय नहीं लगती। उसके पाठक पढ़े लिखे साहित्यिक रुचि रखने वाले पाठक हैं जिसमें अधिकांश कवि ही हैं। कुछ महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले हिंदी प्राध्यापक और कुछ विद्यार्थी होंगे जो कविता पढ़ते हैं। प्रश्न यह है कि ऐसी कविता आखिर लिखी ही क्यों जा रही है जो लोग पढ़ना ही नहीं चाहते। इसका उत्तर मुझे नहीं उन कवियों को ढूंढ़ना है जो कविताएं लिख रहे हैं। कविताएं मैं भी लिख रहा हूं और ठीक वैसी ही लिख रहा हूं जैसी सब लिख रहे हैं। चूंकि सब वैसी लिख रहे हैं इसलिए मैं भी लिख रहा हूं। यानि मैं अनुसरण कर रहा हूं। इसका एक जवाब यह भी हो सकता है। इस पर और अधिक गंभीरता से सोचने की जरूरत है। सबके लिखने में एक फर्क हो सकता है कि उसका कंटेंट या‍नि कथ्य अलग अलग हो। फिर भी पाठक तो कम भी होंगे। अब इस बात को यहां छोड़ कर यह जान लेना भी आवश्यलक है कि अधिकांश कवि मध्य वर्ग से हैं तो उनकी सोच, उनकी मानसिकता उसी वर्ग, परिवार और जीवन दृष्टि से संचालित होगी। उनमें कुछ लोगों की वर्गीय दृष्टि वैज्ञानिक आधार पर भी देखने को मिलती है। वे संवेदनशील होते हैं। वर्गों की साफ साफ समझ उन्हें होती है। और वे दमित, दलित, निर्बल, शोषित वर्ग के पक्ष में कविताएं लिखते हैं। फिर चाहे व्यवहार में वे मध्यवर्गीय ही क्यों न हों। सुविधा संपन्नता उनकी कामानाओं में रची बसी क्यों न हो पर वे बात शोषित तबके की ही करते हैं। वे भोक्ता नहीं हैं, सहचर भी नहीं हैं पर शुभचिंतक अवश्य हैं निर्बल वर्ग के। यह भी कम नहीं है। हमारे अधिकांश कवि कुछ इसी तरह के हैं। पता नहीं अपनी इस नियति पर वे कविताएं क्यों नहीं लिखते।

जनकवि शील की एक कविता है, 'बीच के लोग'-


खाते पीते दहशत जीते

घुटते पिटते बीच के लोग

वर्ग-धर्म पटकनी लगाता

माहुर गाते बीच के लोग

घर में घर की तंगी-नंगी

भ्रम में भटके बीच के लोग

लोभ लाभ की माया चाहे

झटके खाते बीच के लोग  


झटके खाते बीच के लोग झटकेदार कविताएं लिख रहे हैं। कभी विरह की, कभी क्रांति की, कहीं प्रेम की तो कहीं पूंजी प्रेम की। लोग अपने परिवेश की विसंगतियों, दुष्टिचंताओं, क्रूरताओं, विषमताओं और सौहार्द की कविताएं लिख रहे हैं। यही आम चलन है। जम्मू के ऐसे ही युवा कवि कुमार कृष्ण शर्मा भी ऐसा ही रच रहे हैं। उनका हाल ही में पहला संग्रह 'लहू में लोहा' नाम से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की अधिकांश कविताएं उनके अपने स्थानीय परिवेश और अतीत में भोगे गए अनुभवों की कविताएं हैं। इनमें एक टटकापन है। इसमें विसंगतियां भी हैं पर आत्मीयता भी है। इनकी इसी शीर्षक की कविता 'लहू में लोहा' एक डोगरी कहावत से शुरू होती है जो सहज ही ध्यान आकर्षित करती है-


मां गी नी जुड़दा त्रकला, पुत्तर बरछियां गडांदे

अर्थात मां के पास तो तकले तक का लोहा नहीं है और बेटे बरछियां बनवाने निकल पड़े हैं। आगे-


क्या वे बेटे ही

तलवार बरछे बना सकते हैं

जिनकी माताओं के घर

बहुत सारा लोहा है

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इतिहास गवाह है

उन्हीं बेटों के हथियारों के निशाने

सही जगह लगे हैं

जिनकी माताओं के पास

त्रकले तक का लोहा नहीं था

ऐसी माताएं

जुटा ही लेती हैं

अपने विचारों के साथ

लहू में इतना लोहा

जिनसे उनके बेटे

बना सकें ऐसे हथियार.........


ये हथियार महज लोहे के नहीं बल्कि लोहे जैसे संकल्प, विचार, सोच और कर्मठता के होते हैं। सफलता अर्जित करते हैं। इनकी एक कविता है- 'हकलाता हूं मैं'-


बात करते करते अकसर

एक ही शब्द पर अटक जाता हूं मैं

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कितने ऐसे सवाल जो मैं पूछना चाहता था

नहीं पूछ पाया

ऐसी नौकरियों के लिए नहीं कर पाया आवेदन

जिनके लिए जरूरत थी

कड़क रौबदार आवाज में बिना रुके बोलने की

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इस दुनिया में हर कोई हकलाता है

कोई मेरी तरह न चाहते हुए 

तो कोई आत्महसमर्पण कर हकलाता है

अपने घुटनों से, रीढ़ से, दिमाग से


यह एक महत्वपूर्ण कविता है। यद्यपि इसमें अनावश्यक विस्ता़र है जो कविता को कमजोर करता है। कसे हुए कम शब्दों  में अगर कविता बन सकती है तो अधिक विवरणों और वर्णन से बचना चाहिए। पर इसके बावजूद इसका संदेश यह है कि जो एक पिछड़े हुए परिवेश से आया हुआ युवक कम आत्मविश्वास के चलते उन अवसरों पर पीछे रह जाता है। उसका संकोच, हीन भावना उसके आड़े आता है। यदि वह ठान ले तो इस पर विजय प्राप्त कर सकता है पर वे क्या करेंगे जो मस्तिष्क, सोच और समझ से हकलाते है और अवसरानुकूल गिरगिट जैसा रंग बदलते हैं। छोटे लाभ के लिए समर्पण कर देते हैं।


कुमार कृष्ण शर्मा


कुमार कृष्ण के इस संकलन में तमाम अच्छी कविताएं हैं। एक कविता है आलू-


आलू खेतों में पैदा नहीं होते

कुछ के लिए आलू फैक्ट्रियो में बनते हैं

कुछ के लिए तोंदों में

मेरे लिए पीठों पर उगते हैं आलू


घनी व्यंजना है। वैभव और अभाव का अंतर स्पष्ट है। एक श्रमिक आलू ढोता है और संपन्न वर्ग खाता है। यहां धूमिल की कविता याद आती है-


एक आदमी रोटी बेलता है

एक आदमी रोटी खाता है

एक तीसरा आदमी भी है जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है

वह सिर्फ रोटी से खेलता है 


कुमार कृष्ण अपने परिवेश, अपने समय से पूरी तरह से अभिन्न हैं-


उनकी एक कविता है- 'मुझे आईडी कार्ड दिलाओ'-


शहर सुनसान है

हर तरफ पसरा सन्नाटा

शहर के मुख्य चौराहे पर घायल पड़ा व्यक्ति

दर्द से चिल्ला उठा

मेरी मदद करो

मुझे पहचानो.......


आतंकी दौर में पहचान बची नहीं रहती

शोषण होता है और होता है उत्पीड़न, क्रूरता और प्रशासनिक असंवेदनशीलता।

आसिफा के लिए उनकी एक महत्व्पूर्ण कविता है-


छुट्टी कर घर लौटी

मेरी छह साल की बेटी

बता रही है गुड टच और बैड टच के बारे में

जो वह स्कूल से सीख कर आई है

ऐसा लगा जैसे मैं

अपने से छत्तीस साल छोटी बेटी के सामने

नंगा खड़ा हो गया हूं...


बहुत हिला देने वाली कविता है। राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कई परतें उघड़ती देखी जा सकती है। विकृतियों को समझा जा सकता है और मुनष्य होने की प्रक्रिया को उत्प्रेरण दिया जा सकता है।


सांप्रदायिकता के साथ साथ जाति व्यवस्था  भी कम पीड़ादायक नहीं है-


ब्राह्मण प्रतिनिधि सभा की रैली

राजपूत सम्मेलन

दलित महासभा

महाजन समाज की कांफ्रेंस

मुस्लिम जमायत की बैठक

शहर का मुख्य चौराहा

इन सभी बेनरों से भरा पड़ा है... 


यह स्पष्ट है कुमार कृष्ण शर्मा की कविताएं अपने समय, समाज, हालात से रूबरू हैं। वे प्रश्नवाचक की मुद्रा में हैं। क्या आपके पास कोई जवाब है है। वे जानना चाहती है।



सम्पर्क 

शैलेंद्र चौहान

34/242  सेक्टर- 3,

प्रतापनगर,

जयपुर 302033

टिप्पणियाँ

  1. समय की मार झेल कर शब्दों की मितव्ययिता के साथ निकले कलापूर्ण, अर्थव्यजंक उद्गार। कवि का आभार !

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  2. Santosh Chaturvedi जी आपका शुक्रिया। Shailendra Chauhan जी का भी बहुत बहुत आभार।

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  3. कवि का आभार !

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