लीलाधर जगूड़ी के संग्रह 'कविता का अमरफल' पर अच्युतानंद मिश्र का आलोचनात्मक आलेख 'अमरफल चाहता है कि कविता फिर किसी फल का बीज बनकर अमर हो'।

 

लीलाधर जगूड़ी

 

लीलाधर जगूड़ी हिन्दी साहित्य के अनूठे और अपनी बनक के कवि हैं। पिछले छः दशकों से वे लगातार रचनारत हैं। इसीलिए काव्यालोचना के लिए वे चुनौती खड़ी करते रहते हैं। किसी बने बनाये खाँचे में रख कर जगूड़ी जी का मूल्यांकन सम्भव भी नहीं। उनकी कविताओं में कई जमाने के साक्षात्कार और प्रतिबिम्ब हैं। गद्य को काव्य में बरतने का अप्रतिम हुनर जगूड़ी जी में है। उनके कविता संग्रह इसके गवाह हैं। 'शंखमुखी शिखरों पर', से शुरू हुई उनकी काव्य यात्रा 'नाटक जारी है', 'इस यात्रा में', 'रात अब भी मौजूद है', :बची हुई पृथ्वी', 'घबराए हुए शब्द', 'भय भी शक्ति देता है', 'अनुभव के आकाश में चाँद', 'महाकाव्य के बिना', 'ईश्वर की अध्यक्षता में', 'खबर का मुँह विज्ञापन से ढँका है' जैसे कविता संग्रहों से होते हुए बिल्कुल नए कविता संग्रह 'कविता का अमरफल' तक पहुँची है। कविता का अमरफल' पढ़ते हुए कवि आलोचक अच्युतानंद मिश्र ने जगूड़ी जी की एक आलोचनात्मक पड़ताल की है। अच्युतानंद मिश्र अपने शोधपरक गद्य और उम्दा कविताओं के लिए जाने जाते हैं। पहली बार पर एक अरसे बाद हम उनका लिखा प्रकाशित कर रहे हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है लीलाधर जगूड़ी के संग्रह 'कविता का अमरफल' पर अच्युतानंद मिश्र का आलोचनात्मक आलेख 'अमरफल चाहता है कि कविता फिर किसी फल का बीज बनकर अमर हो'

 

 

अमरफल चाहता है कि कविता फिर किसी फल का बीज बन कर अमर हो

 

                                                               

अच्युतानंद मिश्र

 

 

लीलाधर जगूड़ी का नया संग्रह हैकविता का अमरफल लीलाधर जगूड़ी तक़रीबन छह दशकों से कविता लिख रहे हैं। शंखमुखी शिखरों पर’ से ले कर कविता का अमरफल’ तक फैला उनका काव्य संसार बहुविध और बहुचर्चित रहा है।    

                       

उनकी कविता विविध कवितासमय का समुच्चय है। वह कई काव्य प्रवृत्तियों और काव्य-बोध को अपने में समाहित किये हुए है। ऐसे कवि की कविताओं पर बात करना जटिल काव्य-स्वाद की प्रक्रिया को आमंत्रित करना है। इसलिए जगूड़ी की कविताओं को किन्हीं निर्धारित काव्य प्रतिमानों या काव्य प्रवृत्तियों के सहारे नहीं समझा जा सकता। ऐसा करने पर हम बहुत तरह के सरलीकरणों के शिकार होने लगते हैं। साठोत्तरी कविता से शुरु करते हुए उनकी कविता हर समय की कविता का नया समकाल निर्मित करती है। लेकिन जो बात जगूड़ी की कविता को महत्वपूर्ण बनाती है वह है -उनका समय-बोध। जगूड़ी की कविता संभवतः एक ऐसी कविता है जो किसी पाठक के समय-बोध के समानान्तर चलने को कविता का अनिवार्य और जरुरी काम मानती है। ये कविताएँ एक वरिष्ठ कवि की कविताएँ होते हुए भी नये कवि के काव्य-बोध की तरह पाठक की चेतना में प्रवेश करती हैं।

 

लीलाधर जगूड़ी का हर नया संग्रह पुरानी काव्य परिपाटियों से आगे निकल जाता है। उनके विभिन्न संग्रहों को समय की संगति में रख कर पढ़ा जाना चाहिए। यही वजह है कि इतने लम्बे समय से कविता लिखते हुए भी जगूड़ी की काव्य-भाषा और काव्य-बोध रूढ़ नहीं हुआ है। उनका नया संग्रह कविता का अमरफल कविता के पारम्परिक दृष्टिकोण और आस्वाद दोनों को ही चुनौती देता है। कविता का अमरफल की कवितायेँ काव्यात्मकता एवं काव्यास्वाद के प्रश्न को काव्य विषय के रूप में प्रस्तुत करती हैं। वे एक सजग कवि के भीतर पाठक की चौकन्ना निगाहों से, दायरे तोड़ती कविता है। एक नये प्रस्थान को इंगित करती कविता है।

 

समय और समाज की संगति में ही रहकर कवितायेँ अपना आकार ग्रहण करती हैं। वे वहीँ अपना अर्थ भी पाती हैं। जगूड़ी कहते हैं

 

कविता ने जैसे पहले अपने लिए गद्य को पद्य का रूप दिया उसी तरह आधुनिक समय में कविता को एक नये गद्य की जरुरत है जो पद्य की सरसता को एक नया रूप-विधान दे सके

 

हम देखते हैं कि 20वीं सदी के तमाम बड़े गद्यकारों ने गद्य में काव्यात्मक प्रभाव विकसित किया। इससे गद्य में एक नई चमक, नई पाठकीयता और नई गति पैदा हुई। काव्यात्मक बोध लिए हुए गद्य अर्थ की सरलता और बोध के इकहरेपन के पार जा सकती थी। समय की जटिलताओं ने अर्थ की बहुस्तरीयता को अनिवार्य बना दिया। ऐसे में गद्य के भीतर काव्यात्मकता का दबाव और आग्रह दोनों बढ़ा।

 

निराला कवि के जीवन संघर्ष को गद्य में प्रस्तुत करने की बात कह रहे थे। जीवन संघर्ष का अर्थ उनके लिए आत्मसंघर्ष ही था। निराला के गद्य में काव्यात्मक आवेग और गति दोनों को देखा जा सकता था। यह आवेग और गति उनके जीवन के झंझावातों से निर्मित हुई थी। उनके गद्य में एक तरह की तुर्शी थी।

 

मुक्तिबोध वैचारिक और द्वंद्वात्मक बोध को गद्य में रख रहे थे। वे आत्मसंघर्ष के लिए आत्मसंवाद की भाषा तलाश रहे थे। एक ही व्यक्ति की खंडित चेतनाओं का आपसी संवाद उनके यहाँ बहुत प्रखरता के साथ मूर्त होता है।

 

मुक्तिबोध की कोशिश आत्म को विलगाव से बचाने की थी। यह कोशिश ही उनके यहाँ आत्म-संघर्ष का रूप अख्तियार करता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। यह कथन जितना सरल, इकहरा और सहज दिखता है, वास्तव में उतना रह नहीं गया। इसमें मौजूद तनाव को मुक्तिबोध ने लक्षित किया। उनकी कविता और गद्य में इस तनाव की रुपरेखा को समझने और पहचानने की कोशिश दिखाई देती है। यही वजह है कि मुक्तिबोध हिंदी में एक नये तरह की गद्यात्मक कविता और विचारोत्तेजक एवं संवादपरक गद्य ले कर आए। जगूड़ी की वर्तमान संग्रह की कवितायेँ गद्यात्मक कविता का एक नया और जरुरी आयाम रचती हैं। जो समाज और व्यक्ति में आये मूलभूत परिवर्तन को इंगित करती है।

 


 

आज का मनुष्य आत्म-विस्मृति में जी रहा है। जगूड़ी उसे कविता में लाते हैं। एक नये काव्यबोध के साथ। पुराने काव्यात्मक स्वरुप के रास्ते इस आत्म-विस्मृति को गहनता के साथ अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। वह आत्म विलगाव की पुरानी स्थितियों को पार कर चूका है। ऐसे में उसके समक्ष एक नया अस्तित्वगत प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। यह अजनबियत की नई स्थिति है। अपरिचय का नया मुकाम। अलगाव और अजनबियत ने भय का नया परिवेश उसके भीतर रच दिया है।

 

जगूड़ी की कवितायेँ संवाद की कविता है। शुष्क होती संवेदना के भीतर संवाद का जल। संवाद का लहजा गद्यात्मक है। यानि कविता के भीतर गद्य। कविता में इस संरचनात्मक रूपांतरण को कभी रघुवीर सहाय ने अपने अंतिम दिनों में दर्ज किया था। वे समझ रहे थे कि भावुकता और व्यवहारिकता के मध्य मौजूद द्वंद्व समाप्त हो रहा है। लोग रूमान, भावुकता और नोस्टेल्जिया के एक छोर से निकलकर भीषण व्यवहारिकता की तरफ बढ़ रहे हैं। वे इसे कुशल जीवन प्रबंधन समझ रहे हैं। इस कुशल होने की प्रक्रिया में उनके भीतर कुछ नष्ट हो रहा है। वे इसे जीवन में आगे बढ़ना समझते हैं, लेकिन यह बढ़ना, उन्हें आत्म-क्षरण की तरफ लिए जा रहा है। रघुवीर सहाय लिखते हैं

 

यह नई पीढ़ी है

भावुकता से परे व्यवहारिकता से अनुशासित

इस नई पीढ़ी को ऐसे ही स्वाधीन छोड़ दें। (नई पीढ़ी, एक समय था)

 

 

21वीं सदी के आते-आते यह नई पीढ़ी व्यवहारिकता से आत्महनन की तरफ बढ़ गयी। वह किसी सेल्फ को स्वीकार नहीं करती। जगूड़ी की कविता उसे आत्म की ओर धकलने की कोशिश करती है। इसलिए गहरे अर्थों में कविता के अमरफल की कविताएँ आत्म-स्मृति की कवितायें है। घटित का वर्तमान। और इस अर्थ में वह कविता में पुनः-घटित होती हैं। यहाँ कवि सर्वत्र है, लेकिन उसके मैं ने विस्तार कर लिया है। वह जीवन, प्रकृति, समय, संस्कृति और भाषा सब में पैवस्त होना चाहता है। ये कविताएँ समय के ठहराव की कविताएँ नहीं हैं। समय के आगे बढ़ जाने की कविताएँ है।

 

क्षणों से बने समय को घटनाओं से बनी समस्याएं

ढंकने लगती हैं

मगर समय है कि सरक जाता है।(64)

 

इसलिए ये कवितायेँ समय की फिल्म तैयार करती हैं। समय का चेहरा। समय के हाव भाव। समय का संवाद। इसमें छूट जाने और पा लेने का पुराना द्वंद्व नहीं है। समय के साथ हो लेने की अंतर्लय है। ये स्मृति को वर्तमान में खोजने की कविता नहीं है, वर्तमान में स्मृति को घुला देने की कविता है। स्मृति यहाँ अतीत नहीं वर्तमान है। वह लगातार घटित हो रही है।  

 

औजार भले ही कहीं गोदाम में रखे हुए हों दूर

पर इस्तेमाल उनका दिमाग में रखा हुआ

कभी भी कहीं भी चलता रहता है (65)

 

कवि पीछे मुड़ कर देखने की बजाय पीछे के समय को आगे लाकर वर्तमान के भीतर से उसे देखता है। हिंदी में स्मृति पर खूब कवितायेँ लिखी गयीं हैं। उनमें से अधिकांश कविताओं में स्मृति को अतितोन्मुखी बनाने पर ही जोड़ रहता है। वहां आगे बढ़ते हुए याद करने की जद्दोजेहद की जगह पीछे मुड़ कर समय के विपरीत चले जाने की उत्कंठा या उत्साह अधिक दिखाई देता है। इसलिए कई बार ऐसी कवितायेँ एक स्थूल रोमन ही निर्मित करती हैं। वह हमारे गतिशील बोध में दाखिल नहीं होती। समय के विपरीत कौन जा सका है? जगूड़ी की ये कवितायेँ स्मृति के भीतर से वर्तमान में फूटने का यत्न करती हैं।

 

उधर उस पत्थर में थोड़ी देर उसी जैसा हो कर सोचने लगा

पत्थर की याद में छिपे किसी फूल की तरह अपनी भी यादों को

काट-छांट कर उकेरो तो खिलाया जा सकता है पत्थर को भी (65)

 


 

 

रचनात्मकता के श्रोत किन्हीं पत्थरों में ही छिपे होते है। पत्थर जो कि अतीत में रहा होगा मुलायम मिटटी का टुकड़ा। जिसपर अंकित हुए होंगे मनुष्य के पैरों के निशान। उसकी मुलायम देह पर खिले होंगे फूल और फिर समय के थपेड़ों ने उसके भीतर का जल नष्ट कर दिया होगा। जगूड़ी उस पत्थर के भीतर मौजूद फूल की स्मृति को पुनर्जीवित करते हैं। उस पत्थर पर मौजूद अंकित मनुष्य के पैरों के निशान की तलाश ही उनकी कविता का वर्तमान है। वर्तमान में स्मृति का यह कम्पन इस तरह दर्ज़ होता है।

 

पर जिन पत्थरों पर से नदी गुजरी है

उन्होंने अगर पानी से मिलाई होगी अपनी आवाज़

तो वे रेत हो चुके होंगे

कछारों में बगुलों संग बगुले बनकर उड़ रहे होंगे

या अगर वे नदी मार्गों से अलग छिटके पड़े हैं

तो पानी के स्पर्श और उसकी आवाज़ के लिए तड़प रहे होंगे (30)

 

नदी का रास्ता सभ्यता का रास्ता है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते गयें, हम नदी के रास्ते से दूर होते गयें। लेकिन कवि की निगाह उस रास्ते को अपने भीतर अब भी बचाए हुए हैं।

 

जगूड़ी की कविताओं में सभ्यता और समय के अंतर्द्वंद्व की गहरी पड़ताल देखी जा सकती है। गौरतलब है कि यह अंतर्द्वंद्व जगूड़ी के काव्य व्यक्तित्व का केंद्रीय अंतर्द्वंद्व है। साठोत्तरी कविता से वर्तमान कविता तक इस अंतर्द्वंद्व की पड़ताल के रास्ते भी उनकी कविता के चेहरे को संवेदना की रौशनी में देखा जा सकता है। इस व्यवस्था में, बलदेव खटिक, मंदिर लेन जैसी कविताओं में मौजूद काव्य भाषा, कविता समय और काव्य संवेदना से निश्चित रूप से उनकी कविता दूर निकल आई है, लेकिन समय और सभ्यता के अंतर्द्वंद्व की शिनाख्त ही उनकी वर्तमान कविताओं को उनकी पुरानी कविताओं से जोडती है। कहना होगा कि यह क्रमिकता लीलाधर जगूड़ी की काव्य यात्रा के विकास को दिखाता है। वे विस्तार से सूक्ष्मता की तरफ अग्रसर हुए हैं। इस सूक्ष्म होने की प्रक्रिया में उनका काव्य-बोध अधिक जटिल और समकालीन हुआ है।

 

इस संग्रह की कवितायेँ काव्यात्मकता का बहुत आग्रह नहीं करती। इनके दायरे खुले हैं। पुराने काव्यात्मक-बोध से देखने पर ये कविताएँ अधिक सपाट लग सकती हैं। लेकिन गद्यात्मक और अधिक गतिशील हो रहे जीवन, समय और समाज की कविता क्या पुराने काव्यबोध के भीतर से संभव है? कविता का अमरफल की कवितायेँ इस प्रश्न का उत्तर नये तरह की कविताओं से देती हैं।

 

भीतर से ज्यादा बाहर सुन्दर है

क्योंकि ब्रह्माण्ड के अन्दर है

थोड़ा मेरा वर्तमान अतीत के भीतर

थोड़ा भविष्य में

ज्यादा भविष्य के बाहर है

हर भीतर फिर भी बाहर के अन्दर है (55)

 


 

 

यह दुनिया, समय और स्वयं को देखने का एक दृष्टिकोण है। जिसे हम बाहर समझ रहे हैं, वह भी अंततः किसी के अन्दर है। यानि वास्तव में कुछ भी पूरी तरह तो बाहर है और ही अन्दर। चीज़ें किसी खास भाषा या किसी समय में एक तरह का अर्थ रखती हैं। वह अर्थ उनका स्थूल वर्तमान है। उस क्षण के बीत जाने पर उसका अर्थ बदल जाता है। बदलाव की यह श्रृंखला ही वास्तविकता है। एक कवि इसमें अपने लिए उम्मीद खोजता है। हर आततायी या क्रूर या दहशतगर्द या जालिम जितना सबसे खुद को बाहर समझता है या मुक्त समझता हैवैसा है नहीं। वह भी कहीं से किसी से नियंत्रित है। किसी के भीतर है। किसी का अनुगामी है। किसी के निदेशों का पालन कर रहा है।

 

इन कविताओं में मौजूद है समय से संवाद करने की कोशिश में निज की तलाश। और यह निज कवि का व्यक्तित्व भर नहीं है। यह निज वह संवेदना है, जिससे उसके भीतर बाहर का संसार निर्मित होता है। किसी कवि का महत्व इसमें है कि उसने अपने निज को कितना विस्तृत किया। वह समय एवं समाज के कितने आयामों को पार जा सका। वह अपनी ही सीमाओं में तो कैद नहीं? कहीं वह बने बनाये कविता के रास्ते का यात्री तो नहीं। जगूड़ी की कवितायेँ सतत नये राह की तलाश करती हैं। पुराने स्थलों को छोड़ आती हैं। कवि को लगता है।

 

इस कोठरी, इस बिस्तर और चीज़ों को छोड़ कर

काव्यभाषा भी बहुत दूर नहीं जा सकती (44)

 

काव्यभाषा में परिवर्तन होऐसा कवि को लगता है। क्यों? क्योंकि, काव्यभाषा में भाषा मौजूद है। भाषा में मौजूद है -समाज और समाज मनुष्य से बना है। मनुष्य का जीवन लगातार बदल रहा है। जगूड़ी की कवितायेँ इस बदलते मनुष्य की कविता है। उसके दुःख-दर्द, पीड़ाक्लेश, जीवन-मृत्यु की कविता है। मनुष्य इन सब चीज़ों से गुजरते हुए अपने लिए एक जीवन दृष्टि का निर्माण भी करता है, जो उसे इन चीज़ों में मौजूद जीवन शक्ति की ओर मोडती है। इसी जीवन शक्ति से सौन्दर्य-बोध और फिर सौन्दर्य-शास्त्र बनता है। जगूड़ी कहते हैं।

 

चाहता हूँ मृत्यु को एक अच्छी तरह बरता हुआ

कपड़ा मिले

जो सचमुच पहनने लायक रहा गया हो

चाहता हूँ कि मृत्यु को वह आँख मिले

जो अपने सारे सपने देख चुकी हो

और उससे मृत्यु कोई सपना देख पाए (87)

 

 

भाषा और समाज का एक अर्थ यह भी है कि हम भाषा के रास्ते समाज की शिनाख्त करे। समाज की उन अंतर्ध्वनियों और द्वंद्व को पहचानें, जो भाषा में झांकती रहती हैं। जिस भाषा के भीतर एक सामान्य मनुष्य का चेहरा कौंध उठता है। लेकिन जब हम काव्यभाषा की बात करते हैं, तो वह भाषा को रूपांतरित करती है। वह समाज के सूक्ष्म आयामों को रखती है। एक तरह से कहें तो काव्यभाषा समाज की एक्सरे मशीन है। इसलिए काव्यभाषा का निर्माण एक कवि के लिए बड़ी चुनौती भी है और वह एक बड़े दृष्टिकोण की मांग भी करता है। कवि भाषा का पुनर्निर्माण करता है। लेकिन एक जटिल सामाजिक संरचना के भीतर, एक समयहीन समय के भीतर वह शब्दों की जीवंत दुनिया का निर्माण करता है। यह दुनिया कवि का अपना आसरा है, ठिकाना है। लेकिन लम्बे दौर में इस काव्यभाषा में परिवर्तन की जरुरत रहती है। बहुत से कवि एक स्थिर काव्य-भाषा के कम्फर्ट जोन में कवितायेँ लिखते रहते हैं। ऐसे में काव्यभाषा समाज की छवियों को स्थिर करने लगती है। कवि अपनी काव्यभाषा के साथ एक पुराने काव्यात्मक संसार में रहने लगता है। वास्तविक संसार से उसका सम्बन्ध छूटने लगता है। ऐसे में कवि दो स्तरों पर, दो भाषाओँ में, दो समाजों में और दो समयों में जीने को अभिशप्त हो जाता है। एक उसकी कविता की दुनिया और दूसरे उसके जीवन समाज की दुनिया। इस तरह उसके व्यक्तित्व में एक गहरा गैर रचनात्मक तनाव घर करने लगता है। काव्यभाषा और भाषा के बीच के बढ़ते अन्तराल से यह तनाव उत्तरोत्तर गहरा होता जाता है। कविता में जीवन छवियाँ तो रहती हैं, लेकिन वे जीवन छवियाँ हमारी वर्तमान संवेदना को झंकृत नहीं करती। समकालीन कविता में ऐसे बहुत सारे कवियों के उदाहरण देखे जा सकते हैं, जो धीरे-धीरे अपनी कविता के कम्फर्ट जोन में कैद होते गये और उत्तरोत्तर कविता के वास्तविक संसार से उनका मोहभंग होने लगा। जगूड़ी की कविताओं में काव्य भाषा का सतत परिवर्तन उन्हें इतना प्रासंगिक और अनिवार्य बनाता है। उनकी कवितायेँ इस संसार के गहरे मोह से बनी कवितायेँ ही हैं।

 


 

 

रात अब भी मौजूद है से लेकर घबराए हुए शब्द तक एक खास तरह की प्रतिक्रियात्मक आवेग वाली भाषा है, तो भय भी शक्ति देता है से ले कर ईश्वर की अध्यक्षता में तक की कविताओं में प्रतिक्रिया का ढंग परोक्षात्मक है। जगूड़ी की काव्यभाषा का एक तीसरा दौर भी है, जो वर्तमान तक की कविताओं में देखा जा सकता है। जहाँ भाषा समय की सीमाओं के पार जाना चाहती है। जहाँ अनुभव का विपुल संसार घटित होकर भी वर्तमान को जीवंत करता है। यह पीछे मुड़ कर अतीत की रूमानी अनुभूतियों में खोये रहने की भाव-परक भाषा से भिन्न अनुभूति की भाषा है। यहाँ अनुभूति का वर्तमान केन्द्रीय है। इसलिए आत्महत्या जैसे विषय को भी जब जगूड़ी याद करते हैं तो वहां भाववादी होने से बचते हुए जीवन जीने की प्रक्रिया में उसकी शिनाख्त करते हैं।

 

एक दिन गोमती नगर वाले शानदार घर को भी छोड़ कर

अपना साफ़ सुथरा आकर्षक शारीर लेकर

चिड़ियाघर और सिविल अस्पताल के बीच

सूचना विभाग को छोड़कर

वही राजेश शर्मा

हुसैनगंज वाली ग्यारहवीं मंजिल पर जा पहुंचा

जहाँ दरी पर चादर बिछा कर

अच्छे साहित्य से पैदा हुए अच्छे समाज की बातें की थीं हमने

लिफ्ट पर चढ़ कर गया वह

कूद कर नीचे आने के लिए।(49)

 

 

आखिरी पंक्ति पूर्व की तमाम पंक्तियों से ही पैदा हुई है। वहां उसका महिमा-मंडन नहीं किया गया है। वहां एक प्रक्रिया के तहत ऊपर जाना और फिर नीचे आना है। यह प्रक्रिया सफल जीवन जीने की प्रक्रिया मानी जाती है।

 

अपने को सबसे अलग समझने की

यह अलग ही कोई चोट है

जो खुद पर खुद ही मारनी पड़ती है राजेश की तरह (50)

 

यह आत्महत्या इस वर्तमान सभ्यता का निष्कर्ष है। भागदौड़ का अंतिम स्टेशन है। सफल जिंदगी का आखिरी पड़ाव।

 

जिंदगी बहुत सी चीज़ों के काम आती है

इसलिए आत्महत्या के भी काम आई एक दिन

जैसे अपनी मृत्यु ही सारी चीज़ों पर अंतिम पर्दा हो (50)

 

जगूड़ी की कवितायेँ पढ़ते हुए एक बात बहुत शिद्दत से महसूस होती है कि उनकी कविताओं में एक अनोखा सामाजिक इतिहास विन्यस्त है। अरुण कमल की तरह उनकी कविताओं में सामाजिक घटनाओं से बनी मुक्कमल कथाएं नहीं है, लेकिन बहुतेरे प्रसंग है। उनकी किसी भी महत्वपूर्ण कविता में ऐसे प्रसंगों की बहुतायत है। इन प्रसंगों को पढ़ते हुए कई बार जगूड़ी हैरान करते हैं, खासकर जब वे एक प्रसंग से दूसरे प्रसंग की ओर जाते हैं। दिलचस्प सी बात लगती है कि जितनी खूबसूरती से ये प्रसंग जुड़े हैं, उतनी ही स्वयत्तता के साथ स्वतंत्र भी। यह शायद जगूड़ी का अपना अंदाज़ है। इसके पीछे दो कारण देखे जा सकते हैं, एक तो कविता की पूरी लय बोलचाल के सधे हुए स्वर के बेहद निकट और दूसरी उनकी कल्पनाशीलता चमत्कृति पैदा करने से बचती है।

 


 

 

एक और महत्वपूर्ण चीज़ की तरफ ध्यान जाता है, हम अमूमन समकालीन कविता में एक द्वंद्व निर्मित करते हैं। साठोत्तरी बनाम आठवां दशक। शायद यही बिंदु है, जहां हम आठवें दशक के कवियों के महत्व को उजागर करते हैं। लेकिन जगूड़ी सरीखे कवियों को पढ़ते हुए, हम उस संक्रमण को पढ़ते हैं, उस यात्रा से गुजरते हैं जहां ये दोनों दिशाएं मिलती हैं। कैसे कविता का पोलटिकल मंतव्य एक सामाजिक कथन में बदलता है। कैसे भाषा का बाहरी अर्थ निजता के दायरे में फैलता है। यह बात जगूड़ी को पढ़ते हुए बखूबी समझ में आती है। जगूड़ी लोक की गहन संवेदना और जीवन शैली को अपनी भाषा में बार-बार विन्यस्त करते हैं। उसे समकालीन मिजाज़ के अनुरूप ढालते हैं। संभवतः लोक और समकालीन बोध के संधि स्थल पर खड़ी उनकी कविता अपना एक ऐसा पाठकीय दायरा विकसित कर लेती है, जो समकालीन दृश्य में कई बार दुर्लभ सा जान पड़ता है। लोक का गतिशील अर्थ क्या है? 21 वीं सदी में लोक किसे कहेंगे. इन प्रश्नों को कविता का अमरफल से समझा जा सकता है।

 

हिरना गाड़ी हो या बैलगाड़ी

भैंसा गाड़ी हो या कुत्ता गाड़ी

हर गाड़ी को घोड़ा शक्ति तक लाने के लिए

हमें नहीं था पता कि हम कार के कारखानों और

रिज़र्व बैंक की ओर तीर छोड़ रहे हैं

गति मती और हुनर ने हमारी बहुत धुनाई की है

हमें नहीं पता था कि हम कोड़ों को इंजेक्शन में

घोड़ों को इंजिन में और पहियों को टायर में

बदलने के कगार पर पहुंचेंगे (119)

 

औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप हम मति और गति की दुनिया में गये। हमारे सारे सम्बन्ध मति और गति के तर्कों से निर्मित होने लगे। इस मति और गति के तर्कों ने मनुष्य को एक सतत लालच और फायदे के संसार में ला दिया। यह संसार मनुष्य का वास्तविक संसार नहीं था। धीरे धीरे इस छद्दम संसार की संसारिकता ने मनुष्य को अपने नियंत्रण में ले लिया। मनुष्य की यह क्रूर रचनाशीलता उसी का शिकार करने लगी।

 

अचानक से भी ज्यादा जल्दी छलाँगता जाता है भीतर का बाघ

अभिव्यक्ति में ख़ुशी का भी हिरन की तरह शिकार करना पड़ता है (119)

 

समय के अन्तराल और संक्रमण को जगूड़ी की कवितायेँ बहुत बारीक़ नज़र से पकडती हैं। लेकिन इस बारीकी के मूल में भाषिक उलझाव नहीं है, बल्कि अनुभव को काव्यबोध में रूपायित करने की सघन ऐंद्रिकता है। मौत का कब्जा उनकी एक पुरानी कविता है  रात अब भी मौजूद है संग्रह में वह कविता पढ़ी जा सकती है।

 

बैल को बचाना जरुरी था

और वह समूचा का समूचा नहीं पकड़ा जा सकता था

इसलिए पूंछ पकडे हुए दादी भी पहाड़ से गिर पड़ी

 

यह गिरना, एक युग का, एक समय का, एक सभ्यता का, एक पीढ़ी का, एक व्यवस्था का, एक दूसरे से अलग होना था। लेकिन हर अलगाव के मूल में कोइ कोई लगाव विन्यस्त रहता है। उसकी गति में कोई संगति अंतर्भूत रहती है। इसलिए जगूड़ी कहते हैं।

 

दादी का बैल के साथ मर जाना

किसी मजदूर का मशीन की चपेट में जाना है

 

यह पंक्ति दो समयों, दो सभ्यताओं, दो पीढ़ियों और दो व्यवस्थाओं के बीच खड़ी है। एक कवि यही करता है। वह बीच की कड़ी बनता है। वह श्रृंखला के टूटने की मार अपने ऊपर झेलता है लेकिन श्रृंखला के टूटने को थामे रहता है।

 


 

 

कविता का अमरफल की कविताओं में एक आधुनिक लोक समाज को पकड़ने की कोशिश की गयी है।समय की चोट मनुष्य को भी बदलती है और शहर को भी बदलती है. शहर के आईने में मनुष्यता में हो रहे बदलाव को देहरादून कविता दिखाती है. मनुष्य के भीतर हो रहे ये बदलाव शहर के बदलाव की प्रति-छायाएं हैं।

 

जंगल काट कर कोठियां उगाता जा रहा है देहरादून

1960 तक यहाँ पंखे नहीं चलते थे

बता की दुकान तो थी पंखों की नहीं

धूप की वजह से नहीं बारिश की वजह से बिकते थे छाते

हिमालय का चेरापूंजी था देहरादून

 

शहर का बदलना प्रकृति और मनुष्य का बदलना है. लोक और जीवन का बदलना है. भाषा और मूल्य का बदलना है. यह कविता आज़ादी के बाद बदलते हिंदुस्तान की काव्य-कथा कहती है।

 

21वीं सदी में भर्तृहरि को याद करते हुए संग्रह की शीर्षक कविता, कविता का अमरफल लिखी गयी है। इस कविता में उस मनुष्य की शिनाख्त करने की कोशिश की गयी है, जो लालच के एक वृहद् संसार को दुनियादारी मानता है। उसके न्याय और नैतिकता, भाईचारा और समानता के तर्क वहीँ से बनते हैं। जगूड़ी भर्तृहरि के जीवन प्रसंग को समकालीन कवि के जीवन संकट से जोड़ते हैं। वर्तमान समय और समाज में एक कवि की भूमिका क्या है? आखिर कला कहाँ खड़ी है? किसके साथ? किसके पक्ष में? कौन उसे नियंत्रित करता है? जगूड़ी की कवितायें, इन प्रश्नों का उत्तर बनती हैं। कवि समाज का आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित करता है। वह समाज का अगुआ है। समाज के विकास और विनाश की बड़ी जिम्मेदारी उसी के कंधे पर है। उसे बार- बार कविता के बदले अमरफल प्राप्त होता है, जिसे उसे छोड़ना होता है। जहाँ उसने अमरफल चखा, कविता उसे छोड़ देती है। सच्चा कवि ही उस अमरफल के मोह से मुक्त रह सकता है। कविता का अमरफल, दरअसल अमरफल पा लेने के लोभ के पार चले जाना है।

 

तुम कवि होते तो राजत्व छोड़ पाते

एक साधारण वेश्या जितना धन भी

नहीं रखा तुमने अपने पास

वेश्यावृति की तरह तुमने राजत्व छोड़ दिया

पर वेश्या का उपकार हमेशा याद रखा

 

 

यह कविता एक कवि के आलोचनात्मक और समकालीन विवेक की कविता है। हर युग, हर सत्ता उसे पुरष्कृत करती है, उसे लालच देती है। वह उसपर है कि वह क्या छोड़ता है, क्या याद रखता है? कविता बांधती भी है, और मुक्त भी करती है। अब यह कवि पर है, वह किससे बंधता है और किससे मुक्त होता है? उसे राजाश्रय से जुड़ना है या लोक समाज से? उसे धनवैभव के मोह से मुक्त होना है या ज्ञानसंवेदना से? उसे सचमुच कविता के अमरफल की चाह है या नहीं? क्योंकि अमरफल के मोह से मुक्त हो कर ही वह कबीर की तरह कह सकेगा - अमरपुर ले चल हो सजना।

 

 


 

 

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