विजय गौड़ की कहानी 'कूड़े का पहाड़'



 
विजय गौड़

एक अजीब सा समय है यह धर्म के नाम पर आप कब माब लिंचिंग के शिकार बन जाएँ, कब आपकी हत्या कर दी जाय, इसका कोई ठिकाना नहीं सावन का महीना जो कभी बादल, बारिश, कजरी, झूले, धान की रोपाई आदि आदि के लिए जाना जाता था, अब कांवर यात्रा और कांवरियों के आतंक के लिए जाना जाता है धर्म किस तरह उन्माद बन जाता है कांवर यात्रा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है अब सावन के महीने में रास्ते ही नहीं, नेशनल हाईवे तक गाड़ियों के लिए पूरी तरह बन्द कर दिए जाते हैं तोड़-फोड़ और मारपीट जैसे कांवरियों के धार्मिक कृत्य का ही अंग हो गया है जिस धर्म का उद्देश्य मानवता की रक्षा था अब वह पूरी तरह अमानवीय लोगों के हाथ में आ गया है कौन क्या बोले-लिखे, यह सब अब धर्म के ये ठेकेदार ही निर्धारित करेंगे अब धर्म की आलोचना के लिए कोई जगह नहीं है कबीर दास आज अगर होते तो उन्हें अपने दोहे कहने के पहले हजार बार सोचना पड़ता विजय गौड़ की यह कहानी ‘कूड़े का पहाड़’ धार्मिक विकृति की तफ्शीश करती है और इस खौफनाक मंजर को साफगोई से हमारे सामने रखती है तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं विजय गौड़ की कहानी ‘कूड़े का पहाड़’


              

कूड़े का पहाड़


विजय गौड़




मैंने किसी भी घटना को कभी उसके नंगेपन के साथ नहीं देखा, सिवाय उस पहले वाकये के जिसका जिक्र करना आपसे जरूरी समझ रहा। नंगेपन से मतलब है कि किसी ऐसी घटना का साक्षात् दर्शन नहीं किया था, जैसी अक्सर कथा-कहानियों में पढ़ी होती है। यही वजह है कि किस्से कहानियों की घटनाओं को मैं भावाभिव्यक्ति ही मानता हूँ। जैसे कहीं लिखा होता है, चारों ओर अफरातफरी मची है’’, या, बदलता हुआ समय कठिन से कठिनतर होता जा रहा है।’’ चूंकि किस्से कहानी पढ़ने का मुझे बेहद शौक है, इसलिए लिखे हुए को पढ़ भर लेने के बाद भी, मैंने उसे कभी यथार्थ के रूप में नहीं माना। एक लेखक के उदगार भर ही मानता रहा।


लेखकों का क्या है, हमेशा के विघ्नसंतोषी।


मुझे इस बात पर पक्का यकीन है, मेरी तरह के बहुत सारे लोग इस दुनिया में हैं। वे हैं, तो ही दुनिया बची हुई है, वरना किस्से कहानियों के सच यदि वाकई सच हों, तो कभी की चाक हो लेती ये दुनिया तो। हर तरफ हाहाकार और मारा-मारी ही मची होती। लेकिन मुझे आशंका है कि कहीं आप उस घटना को भी वैसी ही भावाभिव्यक्ति न मान लें, यही सोच कर सुनाने में एक हिचकिचाहट महसूस कर रहा हूँ। पर यह भी सच है, मैं नंगेपन के उस सच को बयान करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ


नेशनल हाइवे चौबीस नम्बर  को याद करें। दिल्ली-गाजियाबाद के जिस क्षेत्र से वह गुजरता है, उसके एक ओर एक टीला आपने देखा होगा। वह कूड़े का पहाड़ है। मैंने पहले सुना-सुना ही था कि दुनिया में जगह-जगह कूड़े के पहाड़ हैं। उस टीले को जब पहली बार देखा तो ही मुझे यकीन हुआ और मैंने मान लिया, हाँ भई होते ही होंगे कूड़े के पहाड़।


आप जब नेशनल हाइवे चौबीस नम्बर पर गाजियाबाद से दिल्ली की ओर चलें और आपका जीपीएस जब गाजीपुर नाम के गाँव की स्थिति पर हो, तो अपने बांये हाथ की दिशा को देखें। कूड़े का पहाड़ आपको दिखायी दे जाएगा। पुष्टि के लिए खुली खिड़कियों वाली गाड़ी की सवारियों के चेहरे देखें, वे रूमाल से अपनी नाक दबाये हुए दिख जाएंगीं। यह नेशनल हाइवे है, पैदल यात्री की कल्पना करना बेकार है, अलबत्ता दो पहिया वाहनों से काम पर पहुँचने वाले आपको दिखते रहेंगे। लेकिन जल्द से जल्द उस जगह से भाग निकलने की हड़बड़ाहट में उनके चेहरों को देखना आपके लिए संभव नहीं होगा। हैलमेट से ढके उनके चेहरे यूं भी उतने खुले नहीं होते। लेकिन नथुनों के रास्ते घुसती उनके भीतर घुसती दुर्गंध हैलमेट से ढके चेहरे के बाद भी घुसती ही रहती है।


कुछ समय पहले, एक दिन, जब शहर को साफ सुथरा बनाने वाले मेहनतकश इंसान कूड़े के पहाड़ को छील काट कर कूड़े को वहाँ से उठाने में जुटे थे, पहाड़ फट गया और भरभरा कर ढह आए मलबे में दब कर दो जान चली गयी। मैं उस घटना का चश्मदीद नहीं, सुना भर है। कौशाम्बी मेट्रो से इन्दिरापुरम आते हुए जब दुर्गंध का तेज भभका टेम्पो में आया तो काफी आगे निकल आने के बाद नाक से रूमाल हटाते हुए साथी यात्री ने बताया था, कल ही फटा, दो जान भी चली गयी, एक डम्फर अभी भी मलबे में दबा है।उस घटना को मैं कहना नहीं चाहता। मैं उस घटना के नंगेपन से वाकिफ भी नहीं। तथ्यों की चूक हो जाना लाजिमी है। हो सकता है, ऐसे में उस सच को आप सुनना ही न चाहें और अपनी प्रतिक्रिया की जल्दबाजी में मेरे द्वारा खास जातिगत रंग दे दिया मान कर किनारा कर लें। बहुत तेज धूप हो तो कूड़े का वह पहाड़ कई बार शीशे की तरह भी चमकता है। मेरी दिक्कत है कि मैं आपसे मुखातिब हूँ और आप वे हैं, जो मेरी ही तरह जाति की कटार से क्षतविक्षत होते लोगों की श्रेणी में नहीं। सच बात तो यह है, इस देश  का समूचा मध्यवर्ग उस कटार के अनुभवों से वंचित है। छोडि़ये इस बात को कि साहित्य में एक पूरी धारा मौजूद है, जो ऐसे सच का उदघाटन करना चाहती है। सच के नंगेपन से वैसे उसका वास्ता भी अधूरा ही हो सकता है। फिर यह भी हो सकता कि ऐसे सच से आपका वास्ता न पड़ा हो, वरना आप जानते ही- हमारी समूची व्यवस्था अपने आप में जातिगत सड़ाँध का एक ऐसा ढेर है, जिसे देख कर कूड़े का पहाड़ भी शरमा जाए। पता नहीं यह फटती क्यों नहीं। चमकती तो खूब है। एक दो गैंती और बेलचों की मार से तो इसके मलबे को भी नहीं काटा जा सकता। जितना झूठा हो जाने का खतरा किसी भी घटना के बयान पर निर्भर करता है, उतना तो बहुत करीब के बयान में भी बचा रह जाएगा। उन भाईयों पर तरस खाइये जो वर्षों से गैंती फावड़े उठाए उसे फाड़ने का भरोसा दिलाये रहना चाहते हैं। आपने देखा होगा, कितनी ही बार उनकी पगड़ी सिर से फिसल-फिसल कर गिरने-गिरने को रही है। पर वे इस सख्त जान का तिनका भी न हिला पाए हैं। बल्कि उनके कोट के बटन तक ढेर पर चिपक कर सिर्फ चमकने का काम कर रहे हैं। खैर मनाइये, कभी सचमुच की चोट करते फावड़े बेलचें चलें तो जाति श्रेष्ठता के ऊंचे पायदान पर विराजने वाले ही नहीं, उनसे भिन्न और कमतर मानी जाने वाली जातियों वालों के बयान भी, सच्चाई के समूचे नंगेपन पर कोई चोट करते हुए नहीं दिखेंगे। पर आप यह जरूर जान पाएंगे, कूड़े के पहाड़ के नीचे दफ्न हो गए लोगों के दर्द से छलनी हुए सीनों का सच भी पूरी तरह से सच नहीं, झूठ ही है। 


उन दिनों नेशनल हाइवे चौबीस नम्बर, चौड़ा किये जाने की जिस योजना को वर्षों से बरत रहा था, अपने अंतिम चरण में था। सड़क के चौड़ेकरण में ही विकास का माथा गौरवान्वित होता हुआ था। यह बात आपसे भी छुपी नहीं कि सीना चौड़ा करती महाबली सरकारें नीति, कौशल और विकास का ढोल ऐसे ही पीटती हैं। यूं भी कूड़े के ढेर वाली योजनाओं के आयोगों के अंदाज के निरालेपन में कंटक जैसे चुभते पहाड़ ही आंखों की किरकिरी होते हैं। सबसे पहले वे उन्हें ही ढहाती हैं और उनका मलबा किसी वैसे ही आयोग के नाम धर देते है।



कनटोप और सिगनल लाइट की पटियों वाले कपड़ों को पहने मजदूर इधर का मलबा उठा कर उधर फेंकते और उधर का मलबा इधर। ड्रोजर और रोड रोलरों पर बैठे ड्राइवर अपने मजदूर साथी के इशारों पर चहलकदमी करते थे। उड़ती हुई धूल के बीच आने जाने वाली गाड़ियों के मुताबिक ट्रैफिक कंट्रोल करता उनका कोई साथी उन्हें राह दिखाता रहता था। दिन रात काम पर जुटे रह कर वे नेशनल हाइवे चौबीस नम्बर को कल्पित से वास्तविक शक्ल देने में जुटे थे। उस धूल-धक्कड़ के बावजूद चौड़े सीने वाले मंत्री-संतरी तेज गति वाहनों में फरफराते हुए बिना एक तिनके के स्पर्श के जब-तब उस नेशनल हाइवे से गुजरते रहते थे। दिल्ली राजधानी है, धूल की आँधी उड़ाती उनकी गाड़ियों को रोकने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता था। सिगनल लाइट की पटियों वाले कपड़े पहना वह मजदूर भी नहीं जिसे काम की सहूलियत के हिसाब से ट्रैफिक कंट्रोल करना पड़ता था।



उस दिन मैं भी वैसी ही एक गाड़ी पर सवार था जिसके शीशों को बन्द रखने पर भी बाहर की गर्मी से निजात पाई जा सकती थी। मेरे लिए इस तरह के वाहन से यात्रा करना शौक नहीं समय की जरूरत थी। यूं तो नई दिल्ली के उस इलाके पटेल चैस्ट से, जो विश्वविद्यालय का गढ़ है,  इन्दिरापुरम तक पहुँचने के लिए मैं हमेशा ही सार्वजनिक वाहनों से ही सफर करता हूँ। उस दिन एक ढेर किताबों का अतिरिक्त बोझ मेरे पास था। किताबों के उस ढेर को रिक्शे पर लादकर मेट्रो तक ले जाने और फिर अपने गंतव्य के करीबी स्टेशन पर मेट्रो से उतर जाने के बाद ऑटो की घिचपिच में जाना आसान नहीं था। भला हो पटेल चैस्ट की उन फोटो कॉपी दुकानों का जिन्होंने कितने ही मोटे-मोटे ग्रंथों का चुटकियों में और मूल किताबों के मूल्य से काफी कम दाम पर भी फोटो कॉपी के रूप में मुहैया कर दिया। दिक्कत एक ही थी कि उन सबकों एक साथ ले कर कैसे जाऊँ



दुकानदार होशियार था, आप तो यहीं से टैक्सी कर लें, कहाँ जगह-जगह धक्के खायेंगे। फिर कुल किराया भी लगभग टैक्सी के बराबर ही हो जाएगा। इससे तो अच्छा है ओला-उबेर कर लीजिए और सीधे घर पहुँचिए’’, उसने सलाह दी। मैं कुछ कहता, उससे पहले ही उसने अगला सवाल किया, डे स्टीनेशन क्या रहेगा?’’ वह मोबाइल स्क्रीन पर झुका हुआ था और गाड़ी बुक करने की अन्तिम कार्रवाई को निपटा देना चाहता था। मानो मैं भी उसके सवालों के वशीभूत रहा और बिना सोचे ही मैंने जवाब दे दिया इन्दिरापुरम’’।



इन्दिरापुरम में कहाँ? शिप्रा मॉल?’’, इन्दिरापुरम लिखते ही मानो उसके मोबाइल पर पूरा नक्शा खुल चुका हो।
नहीं, सांई मंदिर
ये नेशनल हाइवे चौबीस नम्बर पर दिखा रहा है, .... यही न।




नेशनल हाइवे चौबीस नम्बर, यह मेरे लिए नयी जानकारी थी। उससे पहले मैं नहीं जानता था कि ऑटो की सवारी करते हुए जिस रोड से मेरा अक्सर पटपड़गंज जाना हुआ, वह नेशनल हाइवे चौबीस नम्बर  है। मैंने उसके सवाल का सीधे जवाब देने की बजाय अनभिज्ञता जाहिर करनी चाही। तब तक वह टैक्सी बुक भी कर चुका था। उसके मोबाइल पर बुक हो चुकी टैक्सी की डिटेल थी। प्राप्त हो चुकी जानकारी के आधार पर टैक्सी ड्राइवर को फोन करने लगा। मुझे लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि पहुँचने वाली जगह का पता गलत हो लेकिन कुछ कहने से पहले ही शब्द इस चिन्ता में उलझ गए, टैक्सी से उतरने के बाद तो मुझे किताबें खुद ही उठा कर ले जानी होंगी। यदि बिखरी हुई रहीं तो कैसे उठाऊंगा। मैं उसे हिदायत देना चाहता था कि भाई किताबों को एक साथ बांध दो।


मेरी हर परेशानी का ख्याल वह पहले से रखे था। अपने सहायक को उसने पहले ही हिदायत दे दी थी, किताबों को एक बण्डल के रूप में बाँध दे । सहायक ने बेकार पड़ी एक प्लास्टिक की डोरी कहीं से तलाश ली थी और किताबों को बांध रहा था। दुकान के सामने, सड़क के दूसरी और टैक्सी पहुँच चुकी थी। ड्राइवर को वहीं रुकने की हिदायत देते हुए उसने अपने सहायक को बण्डल गाड़ी में रखवा देने के लिए कहा। मैं उसकी इस मुफ्त सेवा के लिए कृतज्ञ था और उसका आभार व्यक्त करना चाहता था।



आगे सेवा का अवसर दीजिए जनाब’’, हँसी खुशी हाथ मिलाते हुए उसने मुझे विदा किया और टैक्सी सर्विस से प्राप्त हुए वेरीफिकेशन कोड को मुझे नोट करा दिया। 



दोनों हाथ झुलाते हुए जब मैंने सड़क पार की और गाड़ी तक पहुँचा तो दुकानदार का सहायक किताबों के बण्डल को टैक्सी की सीट पर रख चुका था। मेरे पहुँचते ही उसने दौड़ कर टैक्सी के दूसरी ओर का पिछला दरवाजा खोल दिया। इस अतिरिक्त सेवा ने, जिसको वहन कर सकने का शऊर मुझमें कतई नहीं, मुझे संकोच में जकड़ लिया। यही मेरी स्वाभाविक प्रवृति है जिसके कारण अक्सर होता यह है कि मैं सहयोगी के हर अगले कदम को अपने लिए हिदायत मानते हुए स्वीकारता चला जाता हूँ। मन में बेशक, कोई दूसरा ख्याल हो लेकिन मेरे मुँह से बोल भी फूट नहीं पाते हैं।




किताबों का बण्डल पिछली सीट पर रखा जा चुका था और मेरा मन अगली सीट में ड्राइवर के साथ बैठने का था। चाहता था कि बोलते-बतियाते हुए जाऊँगा। लेकिन ड्राइवर को जैसे मुझसे कोई मतलब नहीं था। वह सामने ही देखता रहा। आगे वाला दरवाजा खोलने में मेरी मदद करने की बजाय वह पिछले दरवाजे के बन्द होने का इंतजार कर रहा था। मन न होते हुए भी मैं पिछली सीट में बैठ गया।




सीट में दूसरी ओर रखे बण्डल के कारण में असहजता महसूस कर रहा था। हो सकता वह असहजता भौतिक परिस्थिति की वजह से उतनी न रही हो जितनी मेरे मानसिक मिज़ाज में थी। मैं उन बंडलों को इस अंदाज में हिलाते-डुलाते हुए ठीक से रखने का उपक्रम करने लगा कि खामोश बैठा ड्राइवर मुझसे मुखातिब हो और परिचय की शुरुआती लकीर बने। ड्राइवर ने मेरी किसी भी हरकत पर कोई ध्यान नहीं दिया। मानो उसे मेरी किसी भी हरकत से कोई लेना देना नहीं। गाड़ी का स्टैयरिंग थामे, ट्रैफिक लाइट के हरे हो जाने का इंतजार करता रहा। उसके व्यवहार में शुद्ध व्यावसायिक किस्म की तटस्थता थी। टैक्सी का दरवाजा बन्द हो जाने और मेरी हरकतों में विराम लग जाने के साथ ही उसने मुझसे बस वेरीफिकेशन कोड की मांग की थी। मोबाइल पर वेरीफिकेशन कोड को अपडेट कर देने के साथ ही टैक्सी को पटेल चैस्ट चौराहे की ओर बढ़ती सड़क पर धकेल दिया।




चौराहे पर भीड़ थी। ट्रैफिक लगभग जाम ही था। राजधानी दिल्ली के ट्रैफिक के बारे में किसी की चाहे कोई भी जानकारी हो, उस वक्त देखता तो उसे कलकत्ते का ट्रैफिक ही नजर आता। जान लें कि कलकत्ता मेरे निवास के  इतिहास का शहर है। मूर्ति विसर्जन की कार्यवाही में हो हल्ला मचाते लोग कलकत्ते में अक्सर ही दिख जाते हैं। आप यह न सोचें कि मैं दुर्गा पूजा महोत्सव के दौरान होने वाले मूर्ति विसर्जन का जिक्र कर रहा हूँ। दुर्गा पूजा महोत्सव के अलावा भी कलकत्ता तो मूर्तिविसर्जक शहर ही है। काली, जगदात्री, सरस्वती, लक्ष्मी पूजा के बाद ही नहीं, बल्कि रोज ही, किसी भी मूर्ति विसर्जन के लिए निकली कोई न कोई टोली आपको कहीं भी मिल सकती है। कलकत्ता के दुर्गा पूजा महोत्सव के दौरान होने वाले मूर्ति विसर्जन कार्यक्रम की तुलना करनी हो तो गणेश चतुर्थी वाले त्यौहार के दिन मुम्बई की सड़कों पर घूम आएं।




हाँ याद आया, गणेश प्रतिमाओं से लदी गाड़ियाँ ही उस दिन दिल्ली की सड़कों पर थी। मूर्ति के साथ-साथ गाड़ी में बड़े-बड़े डीजे स्पीकर थे। तेज आवाज में बजते गानों पर थिरकते दल सड़क को घेर कर चल रहे थे। दिल्ली में वैसा नजारा मैंने पहले कभी नहीं देखा था। नाचने वालों में पैदल लोग ही नहीं, दोपहिया वाहन भी शामिल थे। वाहन सवार ज्यादातर युवा थे। उनके चेहरे भगवा रंग से पुते थे। हालाँकि रंग से पुते चेहरों में न तो उन्हें पहचाना जा सकता था और न ही ठीक से किसी की भी उम्र का अंदाज लगाया जा सकता था। उनकी संगत में महिलाओं का भी साथ होना उन्हें नागरिक कर्तव्य से भरा होना दिखा रहा था। वे अपने दो पहिया वाहनों को बजती हुई धुनों की संगत में लहराते और शोर मचाते हुए थे। उनकी अपनी ही लय और अपनी ही ताल थी, जिसका स्वर कई बार डीजे की आवाज को भी मात दे देना चाहता था। जैसा घमासान मुम्बई की सड़कों पर होता है, या फिर कलकत्ता में होता है, कुछ-कुछ वैसा ही। पटेल चैस्ट से गुजरने वाली उस भीड़ ने सभी सड़कों के ट्रैफिक को जाम कर दिया था। मिरांडा हाऊस वाली सड़क, जिस पर उनका हुजूम आगे बढ़ रहा था, उधर के ट्रैफिक को तो मानो लकवा ही मारा हुआ था।




गणेश चतुर्थी तो परसों थी, ये लोग आज कौन सी मूर्ति लिए जा रहे हैं !!’’,  यह बात मैंने अपने से ही लेकिन कुछ ऊंचे स्वर में इस अंदाज में कही कि चाहे तो डाइवर इसे पूछा गए सवाल की तरह पकड़ ले और बातचीत का कोई सिलसिला बने। वैसे सच कहूँ तो उठा हुआ सवाल मेरे भीतर की सहज जिज्ञासा ही था। मैं सचमुच उस सवाल का जवाब खोजना चाहता था। मेरा मानना था, मूर्तियां तो गणेश चतुर्थी वाले दिन ही विसर्जित हो गयी होंगी लेकिन आज फिर यह मूर्ति विसर्जन जैसी कार्यवाही का क्या मतलब है ! दिल्ली जैसे शहर में, जिसका पूरा मिजाज ही भिन्न-भिन्न प्रांतों की उपस्थिति पर निर्भर करता है, एक खास प्रांत में मनाये जाने वाले त्यौहार की ऐसी धूम के कारण क्या हैं !!




मूर्ति विसर्जकों की दो टोलियां चौराहे को पार कर मिरांडा हाऊस वाले रास्ते पर आगे बढ़ चुकी थीं लेकिन चौराहे के पार, मिरांडा हाऊस वाली सड़क के विपरीत दिशा की ओर, मूर्ति विसर्जक टोलियों की पूरी लम्बी कतार थी। उनके पार होने का सिलसिला जारी रहे तो चौराहा पार करने की कोई सूरत नहीं बन सकती। भला हो उन सिर पर पटका बांधे सज्जन का, जिन्हें इस बात का ख्याल रहा कि आर-पार गुजरने वाली गाड़ियों को थोड़ी मोहलत दे दी जाए। मोटर साइकिलों पर अनाप-सनाप दौड़ रहे गणेश भक्त ही नहीं, बल्कि नाचती गाती टोलियों ने भी रुके हुए ट्रैफिक को निकलने देने में कोई हुज्जत नहीं की। पटके वाले सज्जन के इशारे पर वे कुछ देर को एक ही जगह पर नाचते गाते रहे। डीजे पर बज रहे संगीत के अलावा झाँझ, मजीरे, ढोलक वालों की थाप पर वे कुछ देर नाचते रहे, रंग उड़ाते रहे, लेकिन फिर आगे बढ़ने लगे। टैक्सी ड्राइवर होशियार था और उसने पार हो जाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वरना तय था कि सेकेण्ड के अंतराल पर आगे बढ़ने वाली टोलियों के कारण दूसरी गाड़ियों के साथ हमें भी रुक ही जाना पड़ता। हम चौराहा पार हो चुके थे। टैक्सी आगे बढ़ती रही और एक खामोशी-सी हम दोनों के बीच पसरी रही। मुझे भी लगा, जब ड्राइवर खुद ही दूरी बनाये रखना चाह रहा तो मैं ही क्यों बेवजह बातचीत करने का सिरा तलाशता रहूँ। वैसे उसकी कद-काठी, अंगों के परिचालन से यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि वह वाकई पेशेवर तरह के व्यवहार को अपनाने वाला व्यक्ति हो। मुझे उस दिन पहली बार अपने इस ज्ञान की सीमा मालूम हुई, जिसके हवाले से मैं उस फलसफे पर यकीन करता था, “व्यक्ति को उसकी बातों से नहीं, उसके चलने, उठने, बैठने, हँसने, देखने से पहचानना चाहिए ।’’  



लम्‍बे समय तक थियेटर से जुड़े रहने वाले अपने उस अनुभव पर मुझे गर्व था जो मैंने दादा अशौक चक्रवर्ती के संग साथ से हासिल किया था। दादा अक्सर कहा करते थे, बल्कि दोहराते थे, ‘कलाकार की पहचान डायलॉग डिलीवरी से नहीं उसकी एक्जिट-एंट्री से हो जाती है।



बहुत जल्द ही हम यमुना पुल पर पहुँच गए थे। उसी वक्त मेरे मोबाइल की घंटी बजने लगी। स्क्रीन पर दिखाई दे रहा फोन नम्बर अनजाना था। कॉल रिसीव करते हुए मैंने बड़ी सधी हुई आवाज में ‘हैलो’ कहा, लेकिन दूसरी तरफ से कोई जवाब नहीं मिला। इधर मैं ‘हैलो हैलो’ करता रहा, उधर ऐसा लगता रहा मानो कनेक्शन टूटा हुआ है। मेरी खीझ पर ड्राइवर ने बहुत धीमे से कहा, इधर सारी जगह लोहा इ लोहा है, इस करके सिगनल गड़बड़ाते हैं’’। यदि उस दौरान मैंने उसकी कही बात का कोई जवाब दे दिया होता तो निश्चित ही आगे के सफर में हम संवादरत बने हुए हो सकते थे। पर उस वक्त मेरा ध्यान इसी बात पर रहा कि न जाने कोई जरूरी कॉल हो और बात नहीं हो पा रही है। मोबाइल में सिगनल पूरे दिख रहे थे। ड्राइवर की कही बात पर मैं ध्यान देने को तैयार नहीं था। खुद से कॉल करता रहा। लेकिन बार-बार कॉल कटती रही। अंत में मैं थक गया। तब तक गाड़ी न जाने किन-किन रास्तों से गुजरी मुझे बिल्कुल मालूम नहीं चला। जब दुबारा खुद को टैक्सी में महसूस किया तो पाया टैक्सी ऐसे रास्ते से गुजर रही थी जिसके एक ओर नये बन रहे फ्लाईओवर की दीवार खड़ी थी। निर्माण कार्य जारी  था। उसके कारण ट्रैफिक बहुत ही सुस्त तरह से चल रहा था। इतना सुस्त कि ड्राइवर गाड़ी चलाते हुए फोन पर बतियाता हुआ था। मेरा ध्यान सहज ही उसकी बातों पर केन्द्रित हो गया। शायद उसका कोई साथी-ड्राइवर लाइन पर था। अभी मॉडल टाऊन से निकला हूँ, गाजियाबाद सवारी छोड़नी है। तू क्या बॉअर्डर पे है। ...अरे क्या खाली पीली दावत। कुछ जुगाड़ है तो आता हूँ। ...अच्छा आता हूँ, पर यो बता बॉअडर की सवारी कहाँ से मिलेगी ? ... आनन्द विहार तो उल्टा हो जावेगा। एनएच टोंटि फोर के रास्ते आऊंगा’’। 




मैं बीच में ही उससे टोकने को हुआ कि तुम्हारे दोस्त की सलाह ठीक है, लौटने पर आनन्द विहार से कहीं की भी सवारी मिल जाएगी। लेकिन वह फोन पर बतियाता ही रहा और इस बात का कोई अवकाश उसने नहीं दिया कि मैं अपने मन की बात कह भी पाऊं। वह जानता भी नहीं था, मैं उससे कुछ कहने को उतावला हो रहा हूँ, फोन पर हँसता बतियाता ही रहा। अब मुझे उसकी बातों में बिल्कुल भी रस नहीं आ रहा था। जबकि, वह इतना मग्न था कि पता नहीं उसे ध्यान भी था या नहीं कि वह टैक्सी चला रहा है। गाड़ियाँ यदि खिसक-खिसक के आगे न बढ़ रही होती तो उसके लिए फोन पर बात करते रहना मुश्किल ही हुआ होता।




मैं सोचने लगा, सड़कों में ऐसी रुकावटें कहीं ड्राइवर के भीतर भी कड़वाहट तो भरती ही होंगी। शायद इसीलिए वह फोन में व्यस्त था कि भीतर भर रही कड़वाहट से मुँह चुरा सके। मेरे पास उस कड़वाहट से मुँह चुराने का कोई तरीका नहीं था। बल्कि सच कहूँ तो इस तरह के ट्रैफिक से गुजरते हुए तो मैं हमेशा की तरह बेचैन ही हो रहा था। एक अन्य यात्रा का एक ऐसा ही अनुभव आपको बताता हूँ, मैं कितना बेचैन रहा।




उस यात्रा में मैं ऋषिकेश से देहरादून जा रहा था। रात के दस बज रहे थे, जब मैं ऋषिकेश बस स्टैण्ड पहुँचा था। बस स्टैण्ड पहुँचने के बाद एक व्यक्ति से पूछने पर मुझे मालूम हुआ था, देहरादून जाने वाली आखिरी बस का समय तो नौ बजे का है और वह बस छूट चुकी है। मुझे यह जान कर आश्चर्य हुआ, क्योंकि देहरादून मेरा पहले भी कई बार जाना हुआ था और मुझे याद था कि रात 11 बजे भी मैंने ऋषिकेश से देहरादून के लिए बस पकड़ी है। मुझे उस व्यक्ति की बातों पर यकीन नहीं हुआ। जबकि उसने पूरे आत्मविश्वास के साथ यह जानकारी दी थी, देहरादून की आखिरी बस तो निकल गयी कबकी। नौ बजे निकल जाती है आखिरी बस...’’, मैं उसकी बात पर आश्चर्य व्यक्त करता, उससे पहले ही अपने को सही ठहराने के लिए उसने एक ओर जानकारी देनी चाही, .... पिछले दिनों हाथियों का आतंक बढ़ जाने के‍ कारण जंगलात वालों ने नौ बजे के बाद ऋषिकेश-देहरादून रोड़ पर बैरेकेड लगाना शुरू कर दिया है। ... जंगलात चौकी चले जाओ, कोई न कोई गाड़ी वहाँ जरूर फंसी होगी जिसे कुछ ले लिवा कर गार्ड पास दे ही देगा, आपको भी लिफ्ट मिल जाए शायद ।’’    




मुझे वह व्यक्ति अव्वल दर्जे का पॉजी लगा। इस तरह की फालतू बातें करने वाले कितने ही लोग आपने भी जरूर देखे होंगे। हमेशा के विघ्नसंतोषी। पर्यावरण और पारिस्थितिकी को बचाए रखने की चिन्ताएं जिनके लिए हमेशा बेमानी हैं। उनका वश चले तो जंगल के सारे जानवरों का खात्मा इस बिना पर कर दें कि उनकी वजह से आस पास के गांवों में रहने वालों का जीवन दुभर हो रहा है। मैं नहीं चाहता था कि ऐसा ही कोई भाषण उस व्यक्ति से मुझे सुनने को मिले। मैंने टिकट खिड़की पर पहुँच कर रोडवेज कर्मचारी से ही देहरादून की बस के बारे में पूछना उचित समझा। वैसे उस आदमी की जानकारी सही थी। दूर खड़ा वह मुझे वहीं से घूरता जा रहा था। उसको पक्का यकीन था, मैंने उसकी बात पर यकीन नहीं किया है। लेकिन शायद वह मुझसे खफा नहीं हुआ और वहीं से सीधा मेरी ओर को बढ़ने लगा। मुझे उससे आंखें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी।


“क्या कहा टिकट बाबू ने... चली गयी न बस। आप चिन्ता न करें, जंगलात चौकी निकल जाएं, अभी इतना टाइम नहीं हुआ, दस ही बजे हैं... आपको कुछ न कुछ मिल जाएगा। और कुछ न भी मिले तो भी कोई न कोई ट्रक तो मिल ही जाएगा। जंगलात चौकी वालों के भी दिन फिरे हुए हैं... ट्रक वालों के लिए उनका बेरेकेड कभी बन्द नहीं होता। बस एक पत्ते से ही उठ जाता है।
मैं संकोच से भरा था। मुक्त होने का एक ही रास्ता था, उससे आंखें मिलाते हुए उसकी बातों का जवाब दूं और यह आश्वस्ति के ऐसे भाव दिखा सकूं कि उसकी बातों पर मेरा यकीन है, और अब मैं जंगलात चौकी जा कर वहाँ से निकलने वाली किसी भी गाड़ी से लिफ्ट लेने चला ही जाऊँगा। मन के भीतर चल रही इस पूरी प्रक्रिया को मैंने अपनी पूर्व जानकारी के साथ रखना चाहा, “हाँ, हाथियों का आतंक तो सचमुच ही है देहरादून-ऋषिकेश रोड पर। वहाँ तो एक ऐसा फ्लाईओवर बन ही जाना चाहिए जिसके नीचे से जंगली जानवर आ जा सके और पूरा ट्रैफिक ऊपर से बिना रोक टोक के गुजरता रहे। मैंने अपनी बात को पुष्ट करते हुए कहना जारी रखा, ... मुझे याद है, जब मैं पहले कभी एक बार देहरादून गया था, मेरे दोस्त ने बताया था कि ऐसा एक फ्लाईओवर प्रस्तावित भी है उसका नाम होगा ‘एलेफिेंट कोरीडोर’।



लगता है आपका दोस्त जरूर ही शासन, प्रशासन के घेरे का आदमी है। उसकी सूचना एकदम दुरुस्त मानिये। फ्लाईओवर का निर्माण कार्य भी शुरू हो चुका है। पर असल बात तो आपके दोस्त ने छुपा ही दी। जिसे आप ‘एलेफिेंट कोरीडोर’ कह रहे हैं न, वे हाथी के दाँत हैं- दिखाने के दांत और, लेकिन खाने के दांत और वाली कहावत ही समझिए। मेरी बात पर यकीन न हो तो मालूम कर लें किसी से भी- कुंआ वाला से पहले, बांये तरफ एक पेड़ है, जिस पर कभी लंगोट लटका कर और जिसकी जड़ में कभी दीया रख कर जो वर्षों मेहनत की गयी उस जगह को देवभूमि बनाने की, उसी जगह पर मन्दिर निर्माण करवाने की कार्रवाई का नाम है फ्लाईओवर निर्माण। देवता का वह पेड़ इतना भारी हो गया कि उसको काट कर रोड बनाने की बजाय उसको बचाने के लिए ही फ्लाईओवर की कल्पना साकार की गयी है। किसी से पूछना न चाहे तो दिन के वक्त कभी खुद वहाँ पहुँचिये और देखिए भक्तों का कैसा जमघट लगता है। कभी भण्डारा चल रहा है, तो कभी नाच गाना...बोलेंगे सतसंग । अब ट्रैफिक जाम लगता है तो लगे- उनकी बला से। भजन कीर्तन चलते रहने चाहिए भाई, देश जाए भाड़ में। फिर फ्लाईओवर बनाने में कौन सा अपनी जेब का पैसा लग रहा है। ऊपर से तुर्रा यह कि विकास के इतने काम कर डाले हमने तो।




उस व्यक्ति के ऐसे विश्लेषण को सुनने के बाद हो ही नहीं सकता कि कोई उसे अव्वल दर्जे का अफवाहबाज न माने। इतना सुनने के बाद मुझे भी उससे दूसरी जानकारी मांगने में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी। जगह-जगह बने फ्लाईओवर्स के बारे में उसकी राय सरलीकरण से भरी थी। वैसे यह बात सच है कि पहले कभी मैं भी उस आदमी की तरह से ही सोचा करता था। आप यकीन मानिये मेरे साथ का हर व्यक्ति मुझे तब ‘नैगेटिव’ कहता था। बल्कि कई बार तो बहस मुबाहिसों में कोई सीधे-सीधे भी कह देता, मुझे पहले से मालूम था मिस्टर सरोज आप क्या कहने वाले हैं। फ्लाईओवर बन रहा है, उससे रोज के लगने वाले जाम से राहत मिलेगी, यह तो आपको दिखता नहीं, बस विरोध करने को कुछ नहीं मिल रहा तो जबरदस्ती कहीं कि बात कहीं घुमा दे रहे हैं। आप खुद सोचें कि कह क्या रहे हैं आप। आपके‍ हिसाब से तो हर गाँव वाले के हाथ में एक-एक बंदूक दे दी जाए और ऐलान कर दिया जाए- जंगली जानवरों को देखते ही वे गोली से उड़ा दिया करें। तब मिल जायेगी आपको शांति, जब इस तरह से पूरी एक प्रजाति का नामोनिशान मिटा दिया जाएगा। कुछ सकारात्मक  सोचें सरोज जी और अपने उन प्रिय गाँव वालों के कहें कि सरकार जहाँ आपको जगह दे रही है, वहाँ जाइये भाईसाहब। ये धरती जितनी आपकी है, उस पर ईश्वर के बनाये पशु, पक्षियों और प्रकृति का भी उतना ही हक है।  



हो सकता है, वह व्यक्ति जिस फ्लाईओवर की बात कर रहा था, उसके निर्माण के कारणों में कुछ वैसा गुप्त एजेंडा भी रहा हो। लेकिन उसकी बातें तो व्यवस्थित तरह से ट्रैफिक कंट्रोल करने के तरीकों को ही खारिज कर रही थी। मुझे पक्का यकीन है कि वह आज भी यह बात नहीं जानता होगा कि फ्लाईओवर्स किस कदर वरदान हैं आज बढ़ते हुए ट्रैफिक की दुनिया के। फ्लाईओवरों ने तो आज धरती को दो तल्ला बना दिया है। बल्कि तीन तल्ला धरती भी कहीं-कहीं दिख जाएगी। मन तो हुआ उसका हाथ पकड़ू और हावड़ा जाने वाली दून एक्सप्रेस में बैठा कर कलकत्ता भेज दूं, यह हिदायत देते हुए कि रवीन्द्र सदन के पास एक्साइड के नाम से जाने, जाने वाले चौराहे पर खड़े हो कर देख लेना भाई कि कितना ट्रैफिक तो पाताल से गुजरने वाली मेट्रो के हवाले है, कितना आचार्य जगदीश चंद बोस रोड वाले फ्लाईओवर के हवाले है और कितनी बस एवं टैक्सी उस फ्लाईओवर के नीचे आशुतोष मुखर्जी रोड से गुजरती हैं। उसकी किसी भी सूचना पर अमल करने में भी मैं अब सशंकित हो गया। ‘जंगलात चौकी पर कोई न कोई गाड़ी मिल सकती है’, मैं यकीन नहीं कर पा रहा था। लेकिन मेरे पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था। ऋषिकेश में जहाँ रुका था, वहाँ से तो पिट्ठू बांध कर निकल चुका था। देहरादून में जिस साथी के पास रूकने का तय था, पहले ही फोन किये हुए था कि घंटे भर में जोगीवाला पहुँच जाऊँगा। वह मुझे वहाँ पर लेने आ जाने वाला था। दुविधा के बावजूद मैंने जंगलात चौकी तक जाने के लिए ऑटो को पुकारा। भाड़ा तय किया और निकल लिया। ऑटो ड्राइवर होशियार था, कहने लगा, चौकी तक क्यों जायेंगे आप... कृष्णा पैलेस के पास ही रुकिये.... सारी गाड़ियाँ तो वहीं से हो कर निकलेंगी। आपकी तरह और भी न जाने कितनी सवारी वहाँ हो सकती है... आप आगे निकल जायेंगे तो फिर वहीं से सवारी भर कर चौकी तक पहुँची हुई गाड़ी में जगह न होने के कारण आपको तो पछताना ही पड़ेगा।



मुझे ऑटो ड्राइवर की बात तर्कपूर्ण लगी और कृष्णा पैलेस के चौराहे पर उतरना ही तय किया। ड्राइवर ईमानदार था, तय भाड़े के बावजूद उसने मुझसे दस रूपये कम ही लिए। वे बरसात के दिन थे। कृष्णा पैलेस के चौराहे पर कांवडि़यों की अथाह भीड़ थी। नीलकंठ महादेव को जल चढ़ाने के बाद वे वापिस लौट रहे थे। हर आती-जाती गाड़ी को रोक कर उस पर लद जा रहे थे। उनके जमावड़े के आगे गाड़ी वाले नाक भौं सिकोड़ते लेकिन उन्हें बिना बैठाये निकल जाए, ऐसी हिमाकत नहीं कर पा रहे थे। उनके जमावड़े को भेद कर कोई सवारी पा जाना मेरे जैसे के लिए संभव नहीं था। मेरी ही तरह कुछ और लोग भी सवारी की आलगाए खड़े थे। असहायता की लकीरें उनके चेहरों पर भी थी । इस उम्मीद में वे आगे खिसकते जा रहे थे कि कांवडि़यों की भीड़ से अपने को अलग कर लें और पहले ही गाड़ी पा जाएं। मैंने उनका ही अनुगमन करना उचित समझा। उसी वक्त एक कार पीछे से आई। दूसरों की देखा-देखी मैं भी कार वाले को हाथ देने लगा। कार रुक गई। कार वाला व्यक्ति शायद तेल का खर्च निकाल लेने में यकीन करने वाला शख्स था। हमें ज्यादा कुछ कहना नहीं पड़ा और एक मुनासिब भाड़े की अदायगी के वचन के साथ मेरे अलावा तीन दूसरी सवारियां भी गाड़ी में बैठ गयीं। जंगलात चौकी के पास पहुँच कर कार वाले ने चौकी-गार्ड को जाने क्या कहा, वह जब स्टीयेरिंग पर वापिस लौटा तो गार्ड ने बैरीकेड उठा दिया था। कार फर्राटे से जंगल के बीच बनी सड़क पर दौड़ने लगी। मेरे भीतर हाथियों के झुण्ड को देखने की उत्सुकता थी। लेकिन अंधेरे को चीरती कार की हैडलाइट की रोशनी के बावजूद हाथी तो दूर, बन्दर भी नहीं दिख रहे थे। जंगल का रास्ता पार हो गया तो मैंने अपने दोस्त को सूचना दे देना जरूरी समझा जो देहरादून में मेरा इंतजार कर रहा था। “आदित्य, बस चालीस-पचास मिनट में पहुँच रहा हूँ... तू जोगीवाला पहुँच।’’



कार दौड़ती जा रही थी घाटी की हवाओं के झोंकें राहत दे रहे थे। दिन भर की थकान और थकान को दूर भगा देने वाली हवा के कारण मेरी आंखें बन्द होने लगी। नींद कहना उचित न हो शायद। बीच-बीच में आँख खुल जाती थी। बाहर अँधेरा ही अँधेरा था। उस वक्त मैं नींद में ही था जब आदित्य ने मुझे फोन किया। वह जोगीवाला बायपास में पहुँच गया था और बेताबी से मेरा इंतजार कर रहा था। संभवत: एक सिगरेट वह फूंक चुका हो। मैं उसकी व्यवहारिकता से वाकिफ था। किसी प्रिय का इंतजार करते हुए भी वह उकताता नहीं और न ही तुरन्त फोन करने को उतावला हो जाता है। मैंने अधखुली आंखों से मोबाइल पर ब्लिंक करते उसके नाम को देखा तो तुरन्त कार के बाहर देख कर कि कहाँ तक पहुँचा हूँ, जानना चाहा। मैं उसे अपने जोगीवाला पहुँचने के संभावित समय को बताना चाहता था। मेरी बांयी ओर अँधेरा था और ड्राइवर वाली सीट की ओर एक बड़ी सी दीवार नजर आ रही थी। कार इतने तंग रास्ते पर थी कि दूसरी ओर से आ रही गाड़ियों की कतार के कारण हमारी कार को बैक होना पडा था और बांयी ओर के अंधेरे को थोड़ा पीछे धकेल कर कच्चे पर उतर कर रुक जाना पडा था। मैं जगह का ठीक से अंदाज नहीं लगा पा रहा था और ऐसा मान चुका था कि शायद जोगीवाला चौराहे पर ही हम पहुँचे हुए हैं। पुरानी एक खबर मुझे याद थी कि जोगीवाला से निकले बायपास के कारण चौराहे पर ट्रैफिक जिस तरह की अव्यवस्था का समाना करने लगा था, उसका निदान फ्लाईओवर से ही संभव है। कई अखबारों में उस वक्त ही वहाँ एक फ्लाईओवर बना देने की पेशकशें खबरों के रूप में जगह पाती रहती थी। मैंने मान लिया था कि प्रस्तावित जगह पर हम शायद फ्लाईओवर बनने लगा है। अपने अनुमान के मुताबिक आदित्य को सिर्फ इतना ही कहा बस मुश्किल से दस-पाँच मिनट लगेंगे पहुँचने में। लेकिन निर्मित हो रहे फ्लाईओवर के कारण बगल में छुटे हुए तंग रास्ते वाले हिस्से को पार करने में ही बीस मिनट से ऊपर लग गए थे। लेकिन निर्माणाधीन फ्लाईओवर को पार कर लेने के बाद भी हम जोगीवाला चौराहे पर नहीं पहुँचे थे। मैं एकाएक अकबका गया था। अपनी गलती का अहसास मुझे उस वक्त हुआ जब मेरे भीतर की उत्सुकता को भांपते हुए ड्राइवर सीट पर बैठे कार वाले ने बताया, जोगीवाला आगे है, यह तो मोकमपुर का फाटक है।  टैक्सी किसी बेहद तंग रास्ते पर थी। ड्राइवर-साइड की खिड़की की ओर एक खड़ी दीवार ही नजर आ रही थी।



फोन को डिसकनेक्ट करते हुए ड्राइवर ने सामने की ओर देखते हुए ही मुझसे सवाल किया,  ये ही है न एनएच टवैंटी फोर?’’, अचानक से पूछे गए उस सवाल के लिए न तो मैं मानसिक रूप से तैयार था और न ही यह बता सकता था कि क्या हम एनएच चौबीस नम्बर में ही बढ़ रहे हैं। कुछ भी कह पाने से पहले मेरे मुंह से ‘उं  आं’ की ही आवाजें सुन कर ड्राइवर ने अगला सवाल कर दिया, सांईं मन्दिर तो इसी रोड पर है न?’’, पूछा गया सवाल एकदम स्पष्ट था, लेकिन दूसरी ओर दिखायी दे रही सीधी खड़ी दीवार मुझे जगह का अनुमान लगाने की भी छूट नहीं दे रही थी। मैंने स्पष्ट कहना चाहा, मुझे मालूम नहीं भाई यह रोड कौन सी है, पर मुझे साईं मन्दिर, इन्दिरापुरम जाना है।  

 


मालूम नहीं ड्राइवर को मेरे जवाब से संतुष्टि मिली या नहीं, लेकिन आगे खाली मिल गयी सड़क पर उसने गाड़ी तेजी से बढ़ा दी। अब आती जा रही जगहें कुछ-कुछ पहचानी-सी तो दिख रही थी लेकिन मैं तब भी यह जान नहीं पा रहा था कि अभी किस जगह पर पहुँचे हैं। दुर्गंध का तेज भभका आया। नाक को दबाते हुए एकाएक मैने दांयी ओर को देखा। रात का वक्त था, अंधेरा घिरा होने के कारण सड़क के दूसरी ओर भी तेज रफ्तार गति से दौड़ती गाड़ियाँ ही दिख रही थी। दुर्गंध के स्रोत का यदि कुछ मालूम चलता तो मेरे लिए ड्राइवर को यह बता पाना शायद आसान हो जाता कि हम सही रास्ते चल रहे हैं । ड्राइवर आश्वस्त था कि टैक्सी गंतव्य की राह पर ही है। बहुमंजिला इमारतों पर चमकते नाम, जिन्हें मैं आते जाते हुए अक्सर पढ़ने की कोशिश कर लिया करता हूँ, दिखायी दे रहे थे। अनायास मेरे मुंह से निकला, “हाँ, हाँ, बस कुछ ही आगे है साईं मन्दिर’’। ड्राइवर को अब मेरी जानकारी से कोई लेना देना नहीं था। टैक्सी को उसने बांयी ओर को कट मार कर उतरती ढाल पर मोड़ दिया। अरेरेरे-कहाँ जा रहे हो ?’’


  
यही तो है साईं मन्दिर’’, गाड़ी को ढाल पर उतारते हुए ही उसने ऐसे कहा मानो वह जगह को पहले से जानता हो। मैं एकबारगी उसके जवाब पर ठिठका और साईं मन्दिर के गुम्बद को खोजने लगा। जगह को तुरन्त न पहचान पाने के कारण ही मैंने ड्राइवर को टोका था। उतरती हुई ढाल पर गाड़ियाँ ही गाड़ियाँ थी। ट्रैफिक पूरी तरह से जाम था। तभी मेरी निगाह साईं मन्दिर के गुम्बद पर पहुँच गयी। जबकि साईं मन्दिर के गुम्बद को तो मैं रास्ते की उस जगह से ही तलाश रहा था जहाँ से चमकते नामों वाली इमारतें दिखने लगी थी। मुझे मालूम था कि वहाँ से साईं मन्दिर पहुँचने तक नहीं भी तो कम से कम दस पन्द्रह मिनट लग ही जाते हैं। लेकिन इतनी जल्दी साईं मन्दिर के पास पहुँच जाने पर मेरे भीतर संदेह उपजना लाजिम था कि क्या यही साईं मन्दिर है। रास्ते की वह जगह जहाँ से साईं मन्दिर के गुम्बद की झलक दिखने लगती है, ऑटो वाले उस जगह पर सवारियों को उतारते हैं, एक लम्बवत सड़क नीचे से गुजरती है जो खोड़ा कहलायी जाने वाली जगह तक जाती है। भाड़े को ले कर होने वाली चिकचिक के कारण भी कई बार ऑटो वहाँ से आगे खिकसकने के लिए कुछ ज्यादा ही समय ले लेते हैं।



साईं मन्दिर के आस पास के दूसरे पहचान चिह्न, जो मैंने पहले से खोजे हुए थे, सभी दिख रहे थे। उस वक्त मुझे अहसास हुआ, मैं ऑटो में नहीं, बल्कि टैक्सी में सवार हूँ। अब मुझे अपनी गलती का अहसास हो रहा था। लेकिन टैक्सी की सवारी का ख्याल आते ही गलती का अहसास तुरन्त काफूर हो गया। यदि कोई मेरा करीबी साथी होता तो मेरे व्यवहार में एकाएक घर कर गए उस अजीब किस्म के बदलाव को जरूर पकड़ लेता। झूठी शान की अकड़ में पीठ को पूरी तरह से सीट पर टिका कर लेटने की सी मुद्रा में मैं खामोश बैठ गया। कोई और समय होता तो आस-पास खड़े फल वालों से चीजों के दाम पूछता। कुछ समय चौराहे के इस पार और उस पार करते हुए जाया करता और सौदा पट जाने पर खरीद लिए गए सामान को  झूलाते हुए घर तक पहुँच जाता। मुश्किल से पांच मिनट की दूरी के उस रास्ते को पार करने में इस तरह दस से पन्द्रह मिनट में तय करना मेरे रोज की आदत थी। लेकिन उस वक्त मैं टैक्सी में था और सीधे गेट पर ही उतरना चाहता था।  इस तरह खामोश अकड़ में बैठा रहा कि जाम के कारण कहीं ड्राइवर मुझे वहीं उतरने को न कह दे।



हर ओर से आने वाली गाड़ियों ने चौराहे के केन्द्र को इस कदर जाम कर दिया था कि पीछे से आने वाली गाड़ियाँ किसी भी तरह से आगे निकल जाने की अफरातफरी में जहाँ-तहाँ से घुसना चाहती थी और इस तरह की गुत्थमगुथा उस पूरे जाम को गोल चौराहे का आकार दे रही थी। आग्‍गे कां जाणा है आपको?’’ ड्राइवर मुझसे मुखातिब था। जाम के खुलने के आसार न के बराबर थे। ट्रैफिक पुलिस का कोई जवान भी वहाँ दिख नहीं रहा था। जबकि फलांग भर की दूरी पर ही पुलिस चौकी थी, यह मैं जानता था। आपणे अपणी डस्टीनेसन तो योही साईं मन्दिर दी है, जदी आस पास ही जाणा हो तो उतर के निकल सकते हो। जाम तो खुलता दिख नी रा।’’ मेरी ओर से कोई जवाब न मिलने पर ड्राइवर ने फिर से कोशिश की।




जाना तो पास में ही है, दांयी ओर। निकल भी लेता, पर ये सामान ले कर चलना मुश्किल रहेगा। मैंने किताबों के बंडलों की ओर इशारा किया। उस वजह से ही मुझे लगभग आठ दिन का किराया एक बार में देना पड़ रहा था। अपने मन को मैंने इस तरह से समझा लिया था कि यदि ये किताबें फोटो कॉपी की बजाय मुझे वास्तविक प्रिंट रेट में खरीदनी पड़ती तो भी किराया जोड़ देने के बाद उनका कुल मूल्य लगभग आधे के ही बराबर ही था। ड्राइवर को शायद मेरी बात ठीक लगी। अब वह अभी तक जितना किनारे-किनारे चल रहा था, उतना ही बीच के तंग गेप में टैक्सी को बढा़ने का मन बना चुका था।



बीच-बीच में जैसे ही आगे की गाड़ियाँ चौथाई चक्का भर घूमती, ड्राइवर अपनी टैक्सी के चक्के को पूरा घूमा देने की जुगत लड़ाता। जैसे-तैसे उसने टैक्सी को उस स्थिति में पहुँचा दिया था कि अब हमारी दिशा एकदम सीधी हो चुकी थी। ड्राइवर इसी ताक में था कि यदि क्षण भर को भी जगह मिले तो वह टैक्सी को सीधे बढ़ा देगा। चौराहा पार करने के बाद उस तरफ वैसी मारा-मारी नहीं दिख रही थी। मिनट-दो-मिनट से भी कम समय में ही हम ‘पत्रकार विहार’ के गेट पर हो सकते थे। वहाँ से किताबों का बण्डल उठा कर मैं अपने फ्लैट तक निकल जाता। लेकिन हमारी लम्बवत दिशा से आती गाड़ियों ने हमारा रास्ता तो पूरी तरह से ही जाम किया हुआ था। पीछे से धीरे-धीरे आगे खिसक कर आती जा रही गाड़ियों ने हमें धकेलना शुरू किया। ड्राइवर अपनी टैक्सी को बांये ओर को सरकाने के लिए मजबूर था। पीछे वाली गाड़ियाँ हमें हमारी राह से बाहर की ओर धकेलने पर आमादा थी। ड्राइवर की सारी कोशिश जल्द से जल्द चौराहे को पार कर लेने की थी। फोन पर अपने दोस्त से किये गए वायदे और पत्नी को दिये गये आश्वासन, ’बस गाजियाबाद सवारी उतार कर घर ई लौटूंगा’, उसे मजबूर कर रहे थे कि जैसे भी हो चौराहा पार कर ले। सूत भर की जगह से भी वह टैक्सी को आगे बढ़ा देना चाहता था। कई बार तेज झटका लगता। मानो टैक्सी किसी गाड़ी से टकरायी हो, या किसी दूसरी गाड़ी ने पीछे से टैक्सी को ठेला हो। ड्राइवर के चेहरे पर आ रहे भावों में एक तरह की आक्रामकता घर करती जा रही थी। मैं स्वयं ही उसके लिए खुद को जिम्मेदार मानने को विवश था।



मुझे लग रहा था कि चौराहा पार हो जाने के बाद भी वह भीतर से भन्नाया रहेगा कि अजीब अहमक व्यक्ति हूँ मैं जो फलांग भर की दूरी पैदल चल कर पार कर लेने की बजाय घंटे भर तक खुद भी फँसा रहा और उसको भी फँसाये रहा। यह फैसला लेना भी उस वक्त जंच नहीं रहा था कि उतर ही जाऊं और भाड़ा चुका कर पैदल-पैदल रास्ता नाप लूं। आगे ही नहीं पीछे की ओर भी टैक्सी कहीं टस से मस नहीं हो सकती थी। बल्कि पीछे की ओर बढ़ना तो और भी मुश्किल था। दरवाजा खोल कर उतरने भर को भी जगह नहीं थी। पूरी स्थिति के लिए खुद को जिम्मेदार मान लेने वाला अपराध-बोध मुझे ड्राइवर से संबोधित होने का साहस नहीं दे रहा था। वह जिस तरह से टैक्सी को धचका खिला रहा था, मैं उससे यह कहने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था, थोड़ा संभल कर चलो भाई।



आगे वाली गाड़ियाँ कुछ सरकती तो हिम्मत बंधने लगती कि बस अब खुल ही जाएगा जाम। अभी भी हमारी दिशा पूरी तरह से उत्तर-‍दक्षिण ही थी, नेशनल हाइवे के एकदम समानांतर। मंगल बाजार से नेशनल हाइवे की ओर वाली सड़क, जो कि हमारे लम्बवत थी, थोड़ा-सा जगह दे देती तो हम उस वक्त पार हो ही जाते। शायद फिर यह मौका भी नहीं आया होता कि मुझे किसी ऐसे सच से सामना करना पड़ता जिसे हम किस्से-कहानियों में ही पढ़ते सुनते हैं, सामने घटित होते हुए शायद ही कभी देखा होता है। वह वैसी ही घटना थी जिसका हिस्सा हो जाने के बाद आप उसे बयां करने के लिए भी बचे नहीं होते हैं। अखबार और जनसंचार माध्यमों के रिपोर्टर पुलिस फाइलों की मदद से घटनाओं का ब्यौरा जरूर सुनाते हैं। या फिर कोई किस्सागो, कोई कथाकार, कवि अपनी रचना में घटना को दर्ज करते हुए होता है। आपको यह बताने की जरूरत मैं नहीं समझता कि किस्से कहानियों के सच क्यों कई बार अतार्किक दिखते हैं। यदि आप किसी किस्सागो की करीबी दुनिया में दखल दें तो उसकी रचना में किसी अतार्किक पक्ष को पाठक द्वारा देख लिए जाने पर छटपटाता रचनाकार जरूर दिख जायेगा।       


                                                                                       
आप परेशान न होइ कि एक घटना के नंगे सच से परिचय कराने की बात करते हुए मैं आपको न जाने कौन-कौन से रास्तों पर घुमाता चल रहा हूँ। दरअसल सच बात तो यह है, किसी भी घटना का सच उस घटे हुए क्षण मात्र की सच्चाई भर होता ही नहीं है। घटना से काफी पहले और घटना के बाद भी सच्चाई न जाने कितनी परतों में ढकी होती है। इतिहास के अध्ययन से भविष्य की कल्पना की जा सकती है।



हमारे पीछे वाली सड़क से तेज रफ्तार में दौड़ती आ रही दो मोटर साइकिलों की आवाजों ने साईं मन्दिर के उस जाम को चीरना शुरू करना चाहा था। लेकिन अटी पड़ी गाड़ियों के कारण कहीं कोई ऐसा सूराख नहीं था कि वे वैसे ही आगे बढ़ जाती। मोटर साइकिलों सवारों की आवाज में गुस्से के ऐसे बोल थे कि सज्जन और भले भले बने रहने वाली मध्यवर्गीय मानसिकता उन्हें जानबूझ कर नजर अंदाज करने में ही अपनी भलाई समझ सकती थी। गालियों की बौछार थी और आगे फंसी गाड़ी के ड्राइवर डर कर ऐसे सहम जा रहे थे मानो गाड़ी को भी समेट लेने की गुंजाइश होती तो वे उसे कम्बल की तरह अपने बदन से लपेट लेते और मोटरसाइकिल सवारों को आगे निकलने देते। मोटरसाइकिलें ठीक टैक्सी के पीछे तक पहुँच चुकी थी। गालियों का एक रेला सा आया हो जैसे। खीझ और गुस्से से भरे मेरे टैक्सी ड्राइवर के लिए उन्हें बरदाश्त करना मुश्किल था। जवानी का खून उसकी रगों में भी दौड़ रहा था। बेवजह गाली देने वालों को ललकारने के लिए वह टैक्सी का दरवाजा खोल कर तुरन्त बाहर निकला था। अभी संभल भी नहीं पाया था कि मोटरसाइकिलें साइड स्टैण्ड के सहारे लटक कर खड़ी हो चुकी थीं और उनके सवार ड्राइवर को ताबड़तोड़ पीटने लगे थे। वे किसी नशे की सी उत्तेजना में थे। विरोध की किसी भी भाषा को सुनने पर आग बबूला होते हुए। टैक्सी ड्राइवर को बुरी तरह से पिटते जा रहे थे। चेहरे पर बह आए खून ने टैक्सी ड्राइवर को अपनी हार स्वीकार लेने के लिए तैयार कर दिया था। वह सिर्फ एक ही बात कह रहा था, भाई मेरी गलती क्या है? क्यों मार रहे हो मुझे—कोई तो बचाओ मुझे।’’ उस कातर आवाज का भी सवारों पर कोई असर नहीं पड़ रहा था। एक हटता तो दूसरा पीछे से उछल कर आगे आता एवं जोरदार घूंसा जमाते हुए गालियां बरसाता, बताएं भोसड़ी... क्या गलती है। साले मादर... हिन्दू जान कर छोड़ दे रहे। ... बता भैण के सवारी हिन्दू है न?’’



अब मामला ड्राइवर से सवारी तक आ चुका था। यकीन जानिए, सच के उस नंगेपन से वह मेरा पहला परिचय था। मेरे रोंगटे खड़े हो गए। समझ पाना मुश्किल था कि क्या करूं। वे ड्राइवर को बेहाल कर मुझ तक आते कि मैं खुद ही टैक्सी का दरवाजा खोल चुका था, लेकिन बाहर निकलने में एक हिचकिचाहट अब भी महसूस कर रहा था। कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या करूं। आधा भीतर और आधा बाहर ही था। इस बीच ड्राइवर ने शायद कुछ कहा हो, मैं सुन नहीं पाया। वे फिर उस पर पिल पड़े थे, चल साले पुलिस चौकी चलेगा ... चल।



जैसे तैसे मैंने हिम्मत बटोरी और बाहर निकल आया। बीच बचाव करना चाहता था लेकिन ड्राइवर के पक्ष में पूरी तरह से खड़ा हो पाने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। गाड़ियों की उस भीड़ के बावजूद कोई अन्य मदद के लिए सामने नहीं था। मैं भी अपने को अकेला पा रहा था। मेरे कानों में एक शोर बार-बार उठ रहा था, चल साले पुलिस चौकी चलेगा ... चल’। मेरा गंतव्य, पत्रकार विहार, सांईं मन्दिर के सामने की सड़क के उस अन्तिम छोर पर था जिससे आगे बढ़ता कच्चा रास्ता मकनपुरा तक जाता है। ओह, मकनपुरा का नाम आपने नहीं सुना। कुछ ही साल पहले हुए हाशिमपुरा नरसंहार के फैसले पर आई रिपोर्ट को खोजें, मकनपुरा शायद कहीं लिखा हुआ दिख जाए। मेरे भीतर इतनी दहशत घर कर गई थी कि मैं वहाँ हूँ भी, या नहीं, खुद मुझे ही मालूम नहीं हो रहा था। ड्राइवर का ही मुझ पर कैसे भरोसा जागता। वह पिटने को मजबूर था। मैंने हौले से उसकी पीठ पर हाथ रखा। ड्राइवर समझदार था, उसने मेरे संकेत को भांप लिया था जिसमें उलझने की बजाय किसी तरह बच निकलने के भाव थे। सवार मेरी मुद्रा से आश्वस्त हो चुके थे और नफरत भरी निगाहें मुझ पर फेरते हुए उन्होंने मुझे सकुशल छोड़ दिया था। मेरे अनकहे को समझते हुए ही ड्राइवर ने टैक्सी का दरवाजा खोला और अपनी सीट पर आ कर बैठ गया। आगे का रास्ता साफ हो चुका था। पत्रकार विहार के गेट पर उसने गाड़ी रोक दी थी। उस वक्त उसकी आंखों में हल्का गीलापन था। घटना के नंगेपन की बहुत धीमी आवाज में उसने यात्रा की समाप्ति पर मोबाइल में आए उस मैसेज को बुदबुदाया था जो यात्रा का भाड़ा था। मैंने जेब में रखे अपने पर्स को होले से निकाला। पर्स में एक वैसा ही नोट झांक रहा था, जिसका जेब में होना भी अक्सर न होने के जैसा हो जाता है। आप एक गिलास पानी के लिए तरस सकते हैं, मशीन पर बैठा हुआ लड़का मशीन भर का पानी बेच देने के बाद भी आपसे एक गिलास की कीमत वसूल कर छुटटे वापिस नहीं कर सकता। मंद रोशनी में भी नोट में छपी तस्वीर पर मेरी आंखें अटक गई थी। वह तस्वीर उस ऐतिहासिक घटना का सच थी जिसने नंगे बदन, लंगोटधारी, आजाद हिन्दुस्तान को राजघाट होने को मजबूर कर दिया था। कर्फ्यू, हत्या और बलात्कारों के शोर में आजादी के जश्न की बेचैन कर देने वाली इतिहास की पदचाप ने मुद्रा के असली या नकली होने के मायने को बहुत मामूली बना दिया था। गुस्से और असहायता के द्रव से उभार लेते भावों के साथ उसने पैसे भाड़ा काट कर बाकी रकम मुझे वापिस लौटा दी थी।



मेरा मन में उसे तसल्ली देने का भाव था। लेकिन कोई शब्द मैं ढूंढ नहीं पा रहा था। मैं उसे सलाह देना चाहता था कि साईं मन्दिर के रास्ते वापिस लौटने की बजाय वह आगे बढ़ कर मकनपुरा की ओर से आ रहे कच्चे रास्ते के साथ नेशनल हाइवे चौबीस नम्बर पर चढ़ कर चुपचाप निकल जाए। साईं मन्दिर के पास कहीं वे उसके लौटने का इंतजार न कर रहे हों। लेकिन उसी वक्त मुझे ख्याल आया कि बहुमंजिला इमारतों के पीछे दुबकने को मजबूर हो गए मकनपुरा का जिक्र मुझे नहीं करना चाहिए। मैं उसे हाशिमपुरा की सी दहशत की गिरफ्त में डूबने को मजबूर भी नहीं कर सकता था। लेकिन यह कहना भी मुझे ठीक नहीं लग रहा था कि आगे बढ़ कर ऊपर सड़क पर चढ़ जाए और कूड़े का पहाड़ जिस दिशा में दिखता है उसी ओर से निकल जाए।  

(नया पथ से साभार.)


            

सम्पर्क



फ्लैट न. 91, 12वां तल, टाईप-3,  
केन्द्रीय सरकारी कर्मचारी आवास परिसर, 
ग्राहम रोड, टॉलीगंज, कोलकाता- 700040 



मो. 09474095290      


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'