प्रतुल जोशी का आलेख 'प्यास है कि बुझती नहीं : बिहू में हुचूरी'.
असम के लोक-नृत्य पर प्रतुल जोशी का
एक विस्तृत आलेख आप पहली बार पर पहले ही पढ़ चुके हैं. इस आलेख के क्रम में ही यह
प्रस्तुत आलेख दिया जा रहा है जिसमें बिहू के कुछ और प्रकारों के बारे में प्रतुल
ने विस्तृत रूप से बताया है. ऐसे प्रकार जिससे हम अब तलक अनजान थे. तो आइये आज
पहली बार पढ़ते हैं प्रतुल जोशी का आलेख 'प्यास है कि बुझती नहीं : बिहू में हुचूरी'.
असम का बिहू
"प्यास है कि बुझती नहीं : बिहू में हुचूरी"
प्रतुल जोशी
वर्ष 2015, 2016 और 2017 में बिहू के विभिन्न रूपों से
एकाकार होने के बावजूद कुछ सवाल अभी तक अनसुलझे थे। उसमें एक सवाल यह था कि क्या
ऊपरी असम के इलाकों में हुचूरी की परम्परा अभी भी जीवित है या वैश्वीकरण और
आधुनिकीकरण के बुलडोजर ने इसको भी नेस्तनाबूद कर दिया है। दूसरा प्रश्न था कि बिहू
नृत्यों में हाथों का जो संचालन है इसके पीछे का शास्त्र क्या है? वर्ष 2015 से 2017 के मध्य जो यात्राएं मैंने
बिहू के सन्दर्भ में की थीं वह सरकारी खर्चे पर थीं। कार्यक्रम निर्माण के दबाव और
समय सीमा की बाध्यता के चलते बिहू के कुछ पक्ष छूट गये थे। वर्ष 2018 के अप्रैल
में तय किया कि छूटे हुए पक्षों पर भी कार्य किया जाए वरना हमेशा के लिए
आत्मग्लानि के एक भाव से गुज़़रना पडे़गा कि बिहू की मुकम्मल तस्वीर क्यूं नहीं
प्रस्तुत कर पाया।
वर्ष 2016-17 में दो बार शिवसागर की यात्रा कर चुका था।
इसलिए इस बार बिहू को जानने के लिए चुना असम का नॉर्थ लखीमपुर जिला। नॉर्थ लखीमपुर
को चुनने के पीछे मेरा एक स्वार्थ भी था। वर्ष 2004 से 2007 के मध्य ईटानगर में
रहते हुए प्रायः असम के नॉर्थ लखीमपुर में जाने का मौका मिलता रहता था। कारण
ईटानगर में प्रवेश करने के लिए किसी को भी नॉर्थ लखीमपुर से ही आना पड़ेगा। ईटानगर
(जिला पापुमपारे) की सीमा बनाता हुआ है नॉर्थ लखीमपुर। गौहाटी से ईटानगर आने वाली
बसें नॉर्थ लखीमपुर के बंदरदेवा या गोहपुर से ही ईटानगर में प्रवेश करती हैं। इसके
अलावा बंदरदेवा के पास हारमति नामक स्थान भी है जो सब्जियों का थोक बाजार भी है।
ईटानगर से बहुत लोग प्रायः रविवार या छुट्टी के दिन हारमति थोक में सब्जियों की
खरीददारी करने जाते हैं। कई बार ईटानगर के अपने सहकर्मियों के साथ हारमति तक मैं
आता रहा था तो यह जिज्ञासा भी थी कि हारमति के आगे जो लखीमपुर शहर है वह कैसा है? लेकिन ईटानगर प्रवास के दौरान यह इच्छा अधूरी
ही रह गई। वर्ष 2018 ने यह अवसर प्रदान किया कि एक अधूरी इच्छा को पूरा किया जाए।
नॉर्थ लखीमपुर पहुँचने के लिए मैंने अरूणाचल का रास्ता चुना था।
अरूणाचल के जीरो कस्बे में कुछ दिन गुजारने के पश्चात 13 अप्रैल 2018 की सुबह मैं
नॉर्थ लखीमपुर के एक होटल में आसीन हो चुका था। बिहू के मेरे पथ प्रदर्शक डॉ. अनिल
सैकिया ने अपने मित्र और लखीमपुर के एक रिटायर्ड इंजीनियर अरूण कुमार दत्ता जी को
मेरी सहायता करने का निर्देश दूरभाष से दे दिया था। अरूण जी के रूप में मुझे
लखीमपुर में एक निहायत ही सज्जन व्यक्ति का सान्निध्य हासिल हुआ जिन्होंने अगले दो
दिन पूरी तरह मेरी सहायता को अर्पित किये। हम लोगों ने तय किया कि 14 अप्रैल (यानी
गोरू बिहू के दिन) को हम लोग शाम को हुचूरी देखने चलेंगे। मैं खासकर हुचूरी के लिए
ही उत्तरी लखीमपुर जिले में आया था, अतएव
इस काम को सर्वाधिक प्राथमिकता देना था।
हुचूरी का अर्थ है कि एक इलाके के रहने वाले समूह में बिहू गीत गाते
हुए एक घर से दूसरे घर जाते हैं। जैसा मैं पहले भी लिख चुका हूँ कि इसमें मेरी
ज्यादा रूचि इसलिए भी थी कि बचपन में मैंने अपने पिता जी से कई बार सुन रखा था कि
होली के अवसर पर कुमाऊँ में गांवों में एक दूसरे के घर समूह में होली गीत गाते हुए
जाने की परम्परा थी। कुमाऊँ से बड़े पैमाने पर पलायन और गॉंवों के उजड़ते जाने ने इस
परम्परा पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ा है। यद्यपि आज भी कुमाऊॅं अंचल के बहुत से
गॉंवों में यह परम्परा होगी लेकिन मैं इससे बहुत ज्यादा भिज्ञ नहीं हूँ। लेकिन
ऊपरी असम में यह परम्परा अभी भी विद्यमान है इस तथ्य ने ही मुझे असम के नॉर्थ
लखीमपुर जिले में आने के लिए प्रेरित किया।
14 अप्रैल
दत्ता जी ने एक दिवस पूर्व सूचित किया था कि 14 अप्रैल को वह सुबह
सुबह मेरे होटल में आयेंगे और नॉर्थ लखीमपुर के आस पास के गांवों में ले चलेंगे।
आठ बजते न बजते हम लोग दत्ता जी के एक मित्र के घर में प्रवेश कर चुके थे। दत्ता
जी का आग्रह था कि पहले कुछ नाश्ता वगैरह कर लिया जाए उसके बाद आगे बढ़ा जाएगा।
चूंकि दत्ता जी के परिवार में निकट भविष्य में कोई वैवाहिक समारोह था अतएव वह अपने
घर की बजाए अपने एक अभिन्न मित्र के घर ले गये।
दत्ता जी के मित्र के घर पहुँच कर मुझे एक बेहद सुखद अनुभूति हुई। जब घर की गृहस्वामिनी ने बड़े ही विनम्रता से कहा कि वह बहुत प्रसन्न महसूस कर रही हैं क्यूंकि बिहू के दिन किसी ने सुबह सुबह अतिथि बनना स्वीकार किया है। उनकी विनम्रता और इस स्वागत से मैं अत्यन्त प्रभावित था। थोड़ी ही देर में हम लोग नाश्ते की टेबल पर थे जहॉं विभिन्न किस्म के व्यंजन जैसे मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। तिल वाला पीठा, गुड़, चावल का केक, सूजी नारियल और चीनी से बने स्वादिष्ट सूजी लडडू, मालपुआ की तरह बना धूपपीठा, मूड़ी (लैया) से थोड़ा अलग (हल्की उबली हुई मूडी क्रीम के साथ) हुरूम (Hurum), क्रीम और सीरा (माजा चावल), नमकीन आदि आदि।
बाइडो (असमिया में अपने से बड़ी उम्र की महिला को संबोधन के लिए
प्रयुक्त होने वाला शब्द) ने नाश्ते के बाद बड़े ही आदरपूर्वक एक असमिया गामोछा
मुझे पहनाया। यह असम की परम्परा है कि वहाँ किसी भी अतिथि का स्वागत गामोछा पहना कर
किया जाता है। मेरे गले में सुबह सुबह यह दूसरा गामोछा था क्यूंकि आरणीय दत्ता जी
ने सुबह मिलते ही एक गामोछा पहना कर मेरा स्वागत किया था। बाइडो के इस प्रेम भरे
स्वागत और स्वल्पाहार के पश्चात् अब हम लोगों की मंजिल उस गाँव की तरफ थी जहां शाम
को हमें हुचूरी देखनी थी। नॉर्थ लखीमपुर धेमाजी मार्ग पर हमारी गाडी दौड़ी जा रही
थी कि दत्ता जी ने दायें हाथ पर एक खडंजा सड़क पर गाड़ी मोड़ दी। गाड़ी एक लम्बे कच्चे
रास्ते को पार कर गाँव के भीतर थी। दत्ता जी ने बताया कि गाँव का नाम जोरहटिया है
क्यूंकि वर्षों पहले जोरहाट जिले के निवासियों ने यहाँ आ कर खेती करना शुरू कर
दिया था। मुझे यह सोच कर प्रसन्नता हो रही थी कि कम से कम असम के एक गाँव का नाम
और उसका इतिहास मुझे आसानी से समझ आ रहा था। दत्ता जी उस गाँव में किन्हीं सैकिया
जी से मिलने आये थे लेकिन शायद वह सैकिया जी का सही नाम नहीं बता पा रहे थे, इसलिए उनके उन परिचित से हम लोगों की मुलाकात
नहीं हो सकी। खैर! यह निश्चित कर कि शाम को वहाँ हुचूरी का आयोजन होगा हम लोग वापस
लौट लिये। लेकिन यहॉं “लौटना” मेरे
लिए एक अत्यन्त सकर्मक क्रिया थी। भगवत रावत ने अपनी कविता “लौटना” में लिखा है-
“दिन भर की थकान के बाद
घरों की तरफ लौटते हुए लोग
भले लगते हैं
दिन भर की उड़ान के बाद
घोंसलों की तरफ लौटती चिड़ियां
सुहानी लगती है”
जोरहटिया गाँव से नॉर्थ लखीमपुर की तरफ लौटना भी कुछ इसी कविता जैसा
था। इस लौटने में जो दृश्य उपस्थित हुए उसने ऊपरी असम के खान पान और पारंपरिक
खेलों के बिहू से रिश्ते को स्वतः सिद्ध कर दिया था। सड़क के दोनों तरफ लोग जगह जगह
सूअर का मीट खरीदने में लगे थे। दत्ता जी ने बतया कि उत्तरी लखीमपुर और आस पास के
जिलों में गोरू बिहू के दिन सुअर के मांस के व्यंजन खाने की परम्परा है। मैं
पाठकों को बताता चलूं कि उत्तर पूर्व भारत में मुर्गी और बकरे के साथ बड़े पैमाने
पर सूअर का मांस भी लोकप्रिय है। सूअर को स्थानीय भाषा में गावरी कहते हैं। यह
हमारे देश की खान पान की विविधता का एक अंग है और इसे हमें स्वस्थ तरीके से
स्वीकार भी करना चाहिए। दूसरी चीज जिसने मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया वह था ‘‘कनी जूच’’ यानी
बिहू के अवसर पर अंडा लड़ाने की प्रतियोगिता। अंडा लड़ाने (यानी Egg Fighting½ के खेल में,
मैं वर्ष 2017 में, शिवसागर के पास के एक गाँव में शामिल भी हो
चुका था। लेकिन नॉर्थ लखीमपुर कस्बे में जिस तरह बच्चे और नवयुवक अंडे की ट्रे की
ट्रे दुकानों से खरीद रहे थे और जिस तरह से सड़क के किनारे नौजवान “कनी जूच” में भिड़े पड़े थे वह मुझे आश्चर्यचकित करने वाला
था। बिहू के अवसर पर पारंपरिक खेल अभी भी यहाँ के निवासियों में इतने लोकप्रिय हैं, यह केवल देख कर ही विश्वास हो पा रहा था। “Seeing is Believing” वाली अंग्रेजी कहावत चरितार्थ हो रही थी।
शहर से लगभग 15 किलोमीटर दूर तक घूम-घाम कर हम लोग वापस लौट लिये इस
वायदे के साथ कि शाम को पांच बजे हुचूरी देखने फिर जोरहटिया गाँव में जाएंगे।
क्यूंकि वहाँ काफी परिष्कृत स्तर की हुचूरी होती है। मैं आ कर कमरे में विश्राम
करता हूँ लेकिन मन नहीं लगता। स्वयं से पूछता हूँ कि क्या मैं यहॉं होटल में
विश्राम करने आया हूँ। दोपहर का लगभग तीन बज रहा था और नॉर्थ लखीमपुर शहर की के. बी.
रोड स्थित होटल से निकल कर बाहर आता हूँ। के. बी. रोड एक लम्बी चौड़ी सड़क है। मैं इस
सड़क का कोई इतिहास नहीं जानता। रोड पर एक दिलचस्प नजारा था। सड़क पर दोनों तरफ
वाद्ययंत्रों की दुकाने हैं। लग रहा था बिहू वाले दिनों में इन दुकानों की अच्छी
खासी आमदनी होती है। क्यूंकि सभी दुकानों पर ग्राहकों की अच्छी भीड़ जमा थी। कुछ
लोग ढोल वगैरह खरीद रहे थे तो कुछ अपने ढोलों की मरम्मत करवाने में जुटे थे। आखिरी
मिनटों की कोशिशें। किसी इलाके में कला और संस्कृति के विकास से वहाँ कलाकारों और
कला के पेशे से जुड़े लोगों का किस तरह आर्थिक सामाजिक संवर्धन होता है, यह ऊपरी असम की बिहू संस्कृति से समझा जा सकता
है।
सड़क पर कुछ कदम बढ़ाता हूँ कि पाता हूँ कि जगह-जगह बिहू की आकर्षक
पोशाकें पहने लखीमपुर निवासी बिहू उत्सव के लिए स्वयं को तैयार कर रहे हैं। बड़े तो
बड़े बच्चे भी धोती, कुर्ता, गामोछा
और ढोल के साथ बिहूमय थे।
हम लगभग शाम के पांच बजे हुचूरी देखने के लिए कार से निकले। लेकिन
तभी मौसम ने करवट ली। आसमान को घने बादलों ने घेर लिया था। हल्की बरसात शुरू हो
गयी। मौसम की मार से हमें निराश होना था। क्यूंकि हल्की बरसात के बाद अब तेज बरसात
का दौर था। फिर भी दत्ता जी ने अपना हौसला नहीं खोया। Hope against Hope की तर्ज पर शाम सात बजते न बजते हम लोग जोरहटिया गाँव पहॅंच
चुके थे। लेकिन वहॉं बिहू का कोई दृश्य नहीं था। पूरा गाँव बरसात और अंधेरे में
डूबा था। गॉंव की कच्ची सड़क पर चलते हुए हमारी गाड़ी एक नामघर के सामने रूकी। नामघर
के सामने परचून की एक छोटी दुकान उस बरसाती रात में भी खुली थी। दत्ता जी ने
असमिया भाषा में पूछा कि क्या हुचूरी पार्टी आयी थी। दुकानदार ने बताया कि हां शाम
को लोग नामघर में इकट्ठे हुए थे। लेकिन फिर बारिश के कारण अपने अपने घरों में चले
गये थे। दुकानदार से शब्द सुन कर मुझसे ज्यादा दत्ता जी को निराशा होने लगी थी।
उन्हें लग रहा था कि शिवसागर से डॉ. अनिल सैकिया ने जो जिम्मेदारी सौंपी थी उसे वह
पूरा नहीं कर पा रहे थे। मैंने ढांढस बंधाया कि इसमें उनका कोई दोष नहीं था बल्कि
मौसम की प्रकृति के आगे हम सब लाचार हैं। शहर की तरफ लौटते हुए हम लोगों ने तय
किया कि समीप के किसी रेस्तोरां में बैठ कर चाय पियेंगे और बारिश के रूकने का
इंतजार करेंगे।
चे ग्वारा के बड़े पोस्टर (स्पेनिश भाषा में उस पर लिखी पंक्तियॉं),
मोनालिसा की मुस्कान से युक्त एक अन्य चित्र और ऐसी ही कुछ आधुनिक पेंटिंग्स से
सजे Maple Leaf
Restaurant
में वेटर द्वारा चाय लाने में की गई अप्रत्याशित देरी ने हमारी आगे की राह आसान कर
दी थी। दरअसल बिहू के समय होटल और रेस्तोरां के अधिकतर कर्मचारी अपने अपने गांवों
को चले जाते हैं। उस रेस्तोरां में भी ऐसा ही था। इक्का दुक्का कर्मचारी ही
रेस्तोरां को संभाले थे।
रेस्तोरां में बैठ कर अरूण दत्ता जी और उनके साथ में आया युवक हेमंत
गोस्वामी तमाम लोगों को फोन मिलाने में जुट जाते हैं।
‘‘आपके
यहॉं हुचूरी हो रही है? एक ही प्रश्न दोनों महानुभावों के मोबाइल से
उद्भूत हो रहा था। अधिकांश स्थानों से नकारात्मक उत्तर मिलते प्रतीत हो रहे थे।
मैं उन दोनों मेजबानों की विनम्रता देख कर अभिभूत था। अपने अतिथि के लिए कितनी चिन्ता? उन्हें लग रहा था कि यदि उनका अतिथि (जो लगभग
दो हजार किलोमीटर दूर से हुचूरी देखने के विशेष प्रायोजन से ही आया है) खाली हाथ
लौट गया तो यह अत्यन्त दुःख का विषय होगा। अन्ततः कई लोगों को फोन मिलाने के बाद
कुछ सकारात्मक उत्तर भी प्राप्त होने लगते हैं। चाय की अन्तिम चुस्कियों के बीच
दत्ता साहब सूचना देते हैं कि एक जगह हुचूरी हो रही है और हम लोग वहीं चल रहे हैं।
इस बीच बारिश रूक चुकी थी। हुचूरी वाले गंतव्य की ओर जाने वाले रास्ते में दत्ता
जी ने बड़े ही विनम्रता से कहा कि वह दिन एक अन्य कारण से भाग्यशाली साबित हुआ है
क्यूंकि एक दिन पहले हुई राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा में असमिया भाषा में
बनी फिल्म “Village
Rockstar” को सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का पुरस्कार हासिल
हुआ था। बिना किसी उत्तेजना के उन्होंने बडे ही सहजता से सूचित किया कि राष्ट्रीय
फिल्म पुरस्कार का मिलना संपूर्ण असमवासियों के लिए बेहद गर्व का विषय है क्यूंकि
29 वर्षों बाद किसी भी असमिया फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का अवार्ड मिला था।
इससे पूर्व वर्ष 1987 में जाहनू बरूआ की फिल्म हालोधिया चोराये बाओधन खाई (Halodhiya Choraye Baodhan Khai) को सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का पुरस्कार मिला था।
मुझे दत्ता जी की बातों से उतनी ही खुशी हो रही थी जितनी दत्ता जी को
हो रही होगी। क्यूंकि मुझे लग रहा था कि उत्तर पूर्व की धरती से हमारे देश को एक
प्रतिभाशाली फिल्म निर्देशक मिल रहा है।
थोड़ी देर में हम लोग एक चौराहे से बायें तरफ कट रही सड़क पर मुड़ लिये
थे। चौराहे से सौ कदम पर हेमंत ने दायीं तरफ एक चहारदीवारी के समांतर कार पार्क
करी ही थी कि बगल की गली से आठ दस अधेड़ वय के व्यक्तियों का एक समूह हाथों में ढोल
एवं अन्य वाद्ययंत्रों के साथ आता दिखाई दिया। वह हमारी कार से ठीक सामने वाले
मकान में प्रवेश करने जा रहे थे। उन्हीं के पीछे पीछे अरूण दत्ता, हेमंत गोस्वामी और मैंने भी प्रवेश किया। थोड़ी
देर में हुचूरी प्रारम्भ हो गयी। मेरे हर्ष की सीमा नहीं थी। यही देखने के लिए तो
मैं यहाँ आया था। कुर्ता धोती पहने, गले
में गामोछा डाले उम्रदराज़ लोगों का समूह पूरी मस्ती के साथ एक गोल घेरे में घूम-घूम कर हुचूरी गा रहा था। मेजबान के घर और प्रवेश द्वार के मध्य एक खाली मैदान था, वहीं हुचूरी का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ था।
पहले उन लोगों ने धीमी लय में कोई गीत गाया। असमिया भाषा मेरे पल्ले न पड़ने के चलते
मैं यह समझ रहा था कि वह कोई भक्ति पद गा रहे हैं। पहले गीत के बाद सुर बदल गये।
अब पूरी मस्ती के साथ 60 से 70 साल के अधेड़ पुरूषों का समूह गाने में मगन हो गया।
उनको देख कर लग ही नहीं रहा था कि वह कोई अधेड़ पुरूषों का समूह है। ऐसा लग रहा था
कि यह बुजुर्ग एक बार पुनः अपनी युवावस्था में पहुँच गये हैं। जो सज्जन ढोल बजा
रहे थे उन्होंने मूंगा सिल्क का कुर्ता और गले में गामोछा डाल रखा था, वहीं कमर में चारों तरफ एक रंगीन गामोछा और सिर
को भी खूबसूरत मफलर जैसी चीज़ से कवर कर रखा था। समूह के मध्य में एक मौलाना जी
मूंगा सिल्क के कुर्ते पर गामोछा डाले पूरे उत्साह से मंजीरा बजाने में जुटे थे।
हाथों को पूरे अभिनय से आगे पीछे ले जाते हुए, कमर
को लचकाते हुए, शरीर को नृत्य की विभिन्न भंगिमाओं में ढालते
हुए इन सीनियर सिटीजन्स की मस्ती देखते ही बनती थी।
इस बार कुछ शब्द मेरे पल्ले पड़ रहे थे। उसमें दो शब्द थे पहला यमुना
और दूसरा अजंता। बाद में मैंने दत्ता जी से उस गीत के बारे में पूछा तो उन्होंने
पूरा गीत मुझे असमिया भाषा में सुनाया और उसका अर्थ भी बताया। गीत कुछ इस तरह था।
नदी नामे
जमुना
गुहा नामे
अंजता।
अरे नदी
नामे जमुना
गुहा नामे
अजंता।
मुमताजक
ताजमहल
प्रेमक एति
नमूना
मुमताजक
ताजमहल
प्रेमक एति
नमूना
ताराय नू
पोहार होते
पूहौर
पूहौर ना लागे
जूने पूहैर
नी दिये
आने मरम
करिले
मरम मरम ना
लागै
तुम मरम न
दिया
(नदी का नाम जमुना
गुफा का नाम अजंता
मुमताज का ताजमहल
प्रेम का एक नमूना
तारे प्रकाश देते हैं
लेकिन उनका प्रकाश
प्रकाश नहीं लगता
जब तक कि चन्द्रमा
प्रकाश नहीं देता
दूसरों के प्यार का
इज़्हार करने से
प्यार का एहसास नहीं होता
ज्ब तक कि तुम
प्यार नहीं करती)
दरअसल बिहू में हजारों किस्म के गाने गाए जाते हें। कुछ श्रीमंत शंकर
देव की भक्ति धारा से प्रभावित भक्ति गीत हैं तो बड़ी संख्या रोमांटिक गीतों की है।
इन रोमांटिक गीतों में शुरूआती लाइनें प्रकृति का वर्णन कर रही होंगी। प्रेम की
अभिव्यक्ति बाद की लाइनों में होती है।
हुचरी गाने के पश्चात गायक दल का स्वागत मेजबान द्वारा किया जाता है।
गृहस्वामिनी एक पात्र ले कर उपस्थित होती हैं। जिसे हराय (Harai)
कहते हैं। हराय एक स्टैण्डनुमा तश्तरी है। हराय
में प्रायः पान-ताम्बूल होता है। साथ ही बिहू पार्टी को कुछ मुद्रा भी गृहस्थ की तरफ से प्रदान की जाती है।
बिहू गाने के पश्चात बिहू पार्टी के सभी सदस्यगण जमीन पर बैठ जाते है। बिहू दल से
एक सदस्य मेजबान को नववर्ष की शुभकामनाएं एवं आशीर्वाद देता है। गृहस्थजन घुटनों
के बल बैठ कर धरती को प्रणाम करने की मुद्रा में आते हैं। इसके पश्चात् बिहू
पार्टी अगले घर के लिए प्रस्थान कर जाती है। मेरा अनुमान था कि हुचूरी पार्टी को
मेजबान द्वारा कुछ मिष्ठान्न वगैरह भेंट किया जाता है लेकिन अनुमान के विपरीत
हुचूरी पार्टी का स्वागत पान-ताम्बूल से करने का रिवाज है। 14 अप्रैल की रात एक दो
और हुचूरी पार्टियों को देखने का अवसर प्राप्त हुआ।
अगला दिन रविवार था और साथ ही असमिया नव वर्ष का प्रथम दिवस। नॉर्थ
लखीमपुर की सड़कों पर जैसे बिहू पार्टियों का सैलाब उतर आया था। छोटे छोटे बच्चों
से ले कर किशोर, बड़े, सभी
बिहू की ड्रेस में सड़क पर स्कूटर, मोटरसाइकिल, कार, ई-रिक्शा
यानी हर सवारी में नजर आ रहे थे। अपनी अपनी हुचूरी टोली के साथ अपने चिर परिचितों, रिश्तेदारों के घर जाते हुए। कहीं बिना बुलाए, तो कहीं निमंत्रित। अपने होटल के पास छोटे छोटे
बच्चों की एक बिहू टोली देखता हूँ। एक घर से दूसरे घर के सामने बिहू गीतों और
नृत्य का समां बांधते हुए। छोटे-छोटे बच्चों पर छोटी छोटी धोतियां और मूंगा सिल्क
की साड़ियां खूब फब्ती हुयी। छोटी-छोटी बच्चियों ने भी माथे पर बड़ी सी बिंदी लगा
रखी है। मैं होटल की खिड़की से देखता हूँ। एक घर के आगे इन छोटे-छोटे बच्चों की
हुचूरी टोली रूकती है। फिर एक बच्चा ढोल बजाना शुरू कर देता है। कुछ छोटी-छोटी
बच्चियां नृत्य शुरू कर देती हैं। फिर पूरा दल अपनी टूटी फूटी आवाज में बिहू गीत
गाने लगता है। एक अद्भूत दृश्य मेरे सामने उपस्थित हो जाता है। थोड़ी देर में
गृहस्वामिनी घर से बाहर आती हुई। सब बच्चे पलथी मार कर बैठे हुए। गृहस्वामिनी हराय
में बच्चों के लिए कुछ मुद्राओं का उपहार जरूर लाई होंगी। फिर जमीन पर प्रणाम की
मुद्रा में पहले गृहस्वामिनी का झुकना, फिर
सब बच्चों का झुकना। बिहू की परम्परा में संस्कारित होते यह बच्चे जिसमें से कुछ
भविष्य में अपनी प्रतिभा निश्चित रूप से पूरे विश्व में फैलाएंगे।
ऊपरी असम में हुचूरी की परम्परा इतनी व्यापक है कि शहर के हर हिस्से
में बिहू के पहले और दूसरे दिन हुचूरी टोलियां नृत्य और गीतों के साथ जरूर दिख
जाएंगी। देर रात तक यह सिलसिला कायम रहता है।
अरूण दत्ता जी ने मुझे यह सूचना दी थी कि हुचूरी टोलियों में केवल
पुरूषों के जाने की ही परम्परा रही है। चूंकि देर रात तक लोग एक घर से दूसरे घर
जाते हैं इसलिए उसमें महिलाएं नहीं रहा करती थीं। लेकिन हाल के वर्षों में इस परम्परा
में कुछ परिवर्तन दृष्टिगोचर हो रहे हैं। अब महिलाएं भी हुचूरी का आनन्द लेने में
पीछे नहीं हैं। ऊपरी असम में रोंगाली बिहू का त्यौहार कुछ कुछ होली से मिलता जुलता
है। बस अंतर यह है कि हिन्दी बेल्ट में होली पर जहां बालीवुडी संगीत का ही वर्चस्व
रहता है, वहाँ बिहू में असम की जनता अपने असमिया गीतों
और नृत्यों का भरपूर आनन्द उठाते हैं। यह देश की सांस्कृतिक विविधता है कि बहुत से
राज्यों में आंचलिक बोलियों और भाषाओं का वहाँ की जनता पर इतना प्रभाव है कि आज भी
बालीवुडी संस्कृति को उसने अपने पास तक फटकने नहीं दिया है। मैं बिहू संगीत और
नृत्य देखकर अपूर्व आनन्द से आनंदित तो होता हूँ लेकिन मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कसप’ के
नायक डी डी की तरह दुःखी भी होता हूँ कि आखिर इतनी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा से हिन्दी
क्षेत्र के करोड़ों करोड़ लोग वंचित क्यूं हैं। हमारे यहॉं की आवाम के होठों पर वह
गीत क्यूं नहीं है, जिसे हम अपना कह सकते हों। या अगर थोड़े बहुत
हैं भी तो वह अधिकांश जनसंख्या के मानस में अपनी पैठ क्यूं नहीं बना पाए ।
सुख और दुःख की मिश्रित अनुभूतियों के मध्य मैं नॉर्थ लखीमपुर से
गौहाटी के लिए ट्रेन पकड़ने के लिए मजबूर था। लेकिन लखीमपुर की हर गली, हर चौराहे और हर मुहल्ले में दिन भर गूंजते ढोल
की थापों और बच्चों, युवकों और बुजुर्गों के बिहू की ड्रेस में सजे
दलों ने काफी देर तक मेरे मन-मस्तिष्क पर कब्जा जमाए रखा। खासकर रेलवे स्टेशन की
तरफ जाते हुए रास्ते में एक घर में नवयुवतियों के एक आकर्षक समूह द्वारा किये जा
रहे हुचूरी गीत संगीत का देखकर ऐसा लगा कि आगे की यात्रा को स्थगित कर पूरी रात्रि
उन्हीं नवयुवतियों की हुचूरी का आनन्द उठाता रहूँ। लेकिन कल्पना और यथार्थ की
रस्साकशी में यथार्थ का पलड़ा ही भारी रहने की नियति है।
नॉर्थ लखीमपुर में मेरा तीन दिन का प्रवास था। प्रवास के दौरान कुछ
और विचारों से भी टकराता रहा। नॉर्थ लखीमपुर या ऊपरी असम में बिहू की समृद्ध
सांस्कृतिक परम्परा के पीछे एक बड़ा कारण जहां एक तरफ वहाँ के निवासियों में परम्पराओं
का गहरे जड़ जमाना है, वहीं अभी भी वहाँ के माहौल में बाजारवाद की
पूरी तरह घुसपैठ न होना भी है। दूसरा वहाँ की जनता बड़े पैमाने पर कृषि पर निर्भर
है। खेती से हमारे अधिकांश त्यौहार जुड़े हुए हैं। असम में खूब बारिश होती है, इसलिए धान की खेती भी बड़े पैमाने पर होती है।
मई से धान की रोपाई शुरू हो जाती है। कई जगह वर्ष में एक ही फसल उगायी जाती है तो
कई जगह दो बार। अप्रैल में खेत खाली होते हैं। यह समय इसलिए खूब नाचने गाने का
होता है।
लखनऊ में पिछले दिनों हम लोगों ने देश के कृषि संकट पर कई सेमिनार
आयोजित किये थे। जिसमें कृषि की बढ़ती लागतों और किसानों के विपरीत जाती व्यापार की
शर्तों पर व्यापक चर्चा हुई थी। हम लोगों की चर्चा का केन्द्र उत्तर भारत और
विदर्भ के किसान थे। असम या पूर्वोत्तर भारत पर ऐसी कोई चर्चा हमने नहीं की।
नॉर्थ लखीमपुर में घूमते हुए अचानक एक पवित्र विचार ने मुझे घेर
लिया। चूंकि बिहू और कृषि व्यवस्था एक दूसरे के पूरक हैं। अचानक मेरे मुँह से
निकला ‘‘अगर कृषि बचेगी तो बिहू बचेगा’’। मैं अपने इस महान विचार से इतना प्रभावित था कि मैं चाहता था कि
दत्ता जी मुझे कहीं किसानों के मध्य ले जाएं और मैं उनके बीच जा कर यह घोषणा करूँ।
मैं किसानों के साथ कृषि और संस्कृति के अन्तर्संबंधों पर बातचीत करने के मूड में
आ चुका था। लेकिन मुझे मालूम था कि अन्य बहुत सी कल्पनाओं की तरह यह भी एक हवाई
कल्पना ही साबित होने जा रही है। फिर भी यह तय है कि अगर हमें अपनी लोक संस्कृति
को बचाना है तो कृषि के क्षेत्र को मजबूत बनाना होगा। कृषि को इतना उत्पादक करना
होगा कि उससे किसानों का पलायन न हो।
कुछ और रोचक बातें
नॉर्थ लखीमपुर में टहलते हुए जब तेज हवाओं और मूसलाधार बरसात के
दर्शन हुए तो दत्ता जी ने बताया कि तेज हवाओं को असमिया भाषा में बोरदोईसिला (Bordoisila) नाम से जाना जाता है। यह हवाएं चैत्र के महीने
से ही प्रारंभ हो जाती हैं। बोरदोईसिला पर असमिया भाषा में बहुत सारे गाने भी हैं।
भूपेन हजारिका ने भी एक बेहद चर्चित गाना ‘‘बोरदोईसिला’’ गाया है। बोरदोईसिला के साथ बहुत से मिथक जुड़े
हैं। एक मिथक यह भी है कि बोरदोईसिला असम की नौजवान विवाहित बेटी है और बोहाग के
अवसर पर वह तेजी से दौड़ती हुयी अपनी मां से मिलने मायके असम आती है। मिलने की
उत्कंठा इतनी तीव्र है कि उसके रास्ते में जो भी आता है उसको बोरदोईसिला तहस नहस
कर देती है। तेज हवा का ऐसा मानवीकरण और फिर उसे गीत में ढाल कर भूपेन हजारिका ने
जिस तरह प्रस्तुत किया और बोरदोईसिला के माध्यम से असम की संस्कृति को भी खूबसूरती
से प्रस्तुत किया है, वह बेहद रोचक है।
फाटा बिहू
नॉर्थ लखीमपुर के बिहू की बात चले और फाटा बिहू का जिक्र न हो, ऐसा नहीं हो सकता। फाटा बिहू की चर्चा सिर्फ लखीमपुर में ही नहीं
वरन् पूरे असम में होती है। दरअसल फाटा बिहू लखीमपुर की एक तहसील ढकुआखाना में
प्रतिवर्ष मई के दूसरे सप्ताह में मनाया जाता है। ढकुआखाना, नॉर्थ लखीमपुर से लगभग 65 कि.मी. पूरब में एक
कस्बा है।
‘फाटा बिहू’ या ‘फाट बिहू’ को असम के सबसे पुराने बिहू में माना जाता
है। इसका आयोजन चरिकरिया (Charikariya) नदी के किनारे पर मोहघुली चापोरी (Mohghuli Chapori) स्थान में होता है। ढकुआखाना
का सबसे पुराना नाम हाबुंग था। हाबुंग एक बाढ़ग्रस्त क्षेत्र था। ऐसा माना जाता है
कि इस स्थान को अहोम राज्य की राजधानी बनाने के लिए चुना गया था। लेकिन क्षेत्र
में बाढ़ग्रस्तता के चलते यह स्थान राजधानी नहीं बन पाया।
फाट बिहू के नाम को ले कर बहुत सी कहानियां प्रचलित हैं। लेकिन मुख्य
बात है कि यहाँ मई महीने के दूसरे सप्ताह में तीन दिवस का बड़ा बिहू उत्सव होता है।
असम की विभिन्न जनजातियों के सदस्य इस फाट बिहू में शिरकत करते हैं। इसमें मिशिंग, देवड़ी, चूतिया, सोनोवाल, कछारी
जनजातियां प्रमुख हैं। इसके अलावा अहोम समुदाय के सदस्य भी शामिल हैं। बिहू से
जुड़ी बहुत सारी प्रतियोगिताएं जैसे मुकोली बिहू, जोंग बिहू, तोका बिहू, गामोछा
प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं। फाट बिहू का एक महत्वपूर्ण अंग है कि फाट बिहू
के स्टेज में हर एक को बिहू के पारंपरिक परिधान पहनने पर ही प्रवेश मिलता है। कोई
भी फाट बिहू में किसी अन्य परिधान में प्रवेश नहीं पा सकता। नॉर्थ लखीमपुर में
दत्ता जी फाटबिहू के सन्दर्भ में एक घटना का जिक्र करते हुए बताते हैं कि कैसे एक
संस्था के एक बड़े पदाधिकारी फाटबिहू में बिना धोती कुर्ता के पहुँच गये तो आयोजकों
ने उन्हें स्टेज पर जाने की अनुमति नहीं दी।
फाटा बिहू या फाट बिहू का जबर्दस्त प्रभाव असम वासियों में है। मई के
महीने में जब असम के अन्य हिस्सों में रोंगाली बिहू के कार्यक्रम मंद हो जाते हें, हजारों लोग ढकुआखाना में चरिकरिया नदी के
किनारे मोहघुली चापोरी में जुटते हैं बिहू का एक छोटा मोटा कुंभ है यह जो प्रति वर्ष
सम्पन्न होता है।
सम्पर्क –
मोबाईल : 9452739500
भाई साहब आलेख की धारा ने अपने आप को इस बात का ध्यान रखा है कि हुचूरी आपकी दृष्टि में नयी है, लेकिन लोग सहज होकर पर्व से पहले अभिवादन और सभी गाँव उतने सहज नहीं गांव विशेष अब बिहू से ज्यादा आदरणीय भूपेन हजारिका को लेकर काफी उत्साहित रही है ।बारदोईसिला के रुप में प्रकृति और फाटा बिहू गोल कर नृत्य की प्रस्तुति पूरे देश की सबसे बड़ी बात है मिर्जापुर की कजरी दंगल को लिजिए झूला कोई झूलता है गोलाकार महिला मंडल गाती है ।कर्मा खरवार लोग गोल गोल होकर नृत्य करते है राउत लोग नाचा बिलासपुर मध्यप्रदेश में सैकड़ो लोग एक साथ नृत्य करते है, गोलाई का कारण नहीं समझ सका ।एक बात अच्छी लगी कृषि बचेगी तो बिहू बचेगा ।यह अभियान पूरे देश को संदेश दे सकता है कि हमारी संस्कृति और सभ्यता के साथ धर्म भी तभी तक है जब तक कृषि है, आलेख का भौगोलिक पक्ष बहुत ही सशक्त है लेखनी प्रवाह के साथ है, बधाई
जवाब देंहटाएंप्रतुल जोशी जी का यह सुंदर आलेख हमारी पूर्वोत्तर की उत्सव धर्मिता और संस्कृति से बहुत बारीकी से परिचित कराता है. उन्हें इस तरह के अपने अनुभवों को एक पुस्तक के आकार में लाना चाहिए.
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