हिन्दी कहानी एक सदी की
अनुभव-संपन्न यात्रा तय कर नयी सदी में दाख़िल हो चुकी है। नयी सदी के इन दो
दशकों को 'कथा के ऊर्जावान स्त्री-स्वर’ के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। आज इतनी बड़ी तादाद
में महिला कथाकार न केवल रचनाशील हैं वरन कथा के भूगोल में 'नए आनुभूतिक प्रस्थान’ निर्मित कर रही हैं। इन दो दशकों में जिन स्त्री
रचनाकारों ने 'कथा की
ज़मीन’ को व्यापक सामाजिक सन्दर्भों में रूपांतरित करने की ठोस
पहल की है, उनमें मनीषा कुलश्रेष्ठ एक हैं। इस आलेख के द्वारा मनीषा
के प्रकाशित सात कहानी संग्रहों- बौनी होती परछाई, कठपुतलियाँ, कुछ भी
तो रूमानी नहीं, केयर ऑफ
स्वात घाटी, गंधर्वगाथा, अनामा और
किरदार के माध्यम से उनकी रचनात्मक यात्रा के 'कथा-सूत्रों’ को
जानने-पहचानने की कोशिश की गयी है -
एक - तरक्कीपसंद समय में कलाओं का निर्वासन
''तुम एक
बहुरूपिए का साथ नहीं निभा सको तो आज़ाद हो बेग़म ज़माना ही बहुरूपिया है, हरेक आदमी एक स्वांग रचे बसा है।’’
कितनी पीड़ा और अन्तर्वेदना के बाद गफूरिया के भीतर से कढ़े होंगे ये शब्द!
एक कलाकार के अन्तर्जगत में मानो सब कुछ ठहर-सा गया हो! यहाँ गफूरिया के
माथे पर उभरी चिंता की रेखाओं को बहुत साफ पढ़ा जा सकता है। परिस्थितियों की
विवशता तो देखिए कि जिस कला के द्वारा वह समाज के बहुरूपिएपन को नंगा करता आया
है, उसी कला को छोडऩे के लिए उसकी बेग़म ज़िद ठाने हैं। गफूरिया
की इस कसक भरी पीड़ा को राजेश जोशी के शब्दों में कहें तो 'लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह’ कि कौन बहुरूपिया नहीं है? यह सवाल लोक-कलाकार की अन्तर्वेदना को समकाल के ज्वलंत सवालों से नाथ देता है। हिन्दी कथा संसार में खासकर
पिछले दो दशकों में विरल हैं 'स्वांग’ जैसी संश्लिष्ट शिल्प-प्रविधि की रचनाएं। कहानी का वह
दृश्य चित्त से कभी नहीं उतरता जब गफ्फार खां (गफूरिया) मेले में 'स्वांग’ करते हुए
अकेले पड़ जाते हैं और भीड़ उन्हें छोड़ कालबेलिया दिखाती ख़ानाबदोश युवतियों की
ओर रुख कर जाती है और तब वह याद करते हैं अपने बीते समय को जब उनकी कला का कितना
मान था! बहुरूपिया कला के संकट के इस 'पाठ’ के पार क्या 'कथा में
छुपा मौन’ कोई और भी संकेत करता है? फुर्तीले अंगों वाली कालबेलिया दिखाती इन युवतियों की 'देह’ गफ्फार
खां की तरह जब 'बूढ़ी
सदी’ में पहुंचेगी तो उनका क्या होगा? तब न ऐसी दमकती काया होगी और न इस तरह लचकते अंग, तब कौन पूंछेगा इन कालबेलिया दिखाने वाली औरतों को? जब राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त कलाकार की ये हालत है तो
अन्य लोक कलाकारों का पेट कैसे भरेगा? लोक
कल्याण का मुखौटा पहने हमारी सरकारें इन कलाकारों को 'सफेद हाथी’ समझ रही
हैं फिर तो पूर्व में रह चुके विधायक, सांसद, मंत्री भी तो 'सफेद
हाथी’ हुए! इस 'बहुरूपिए
लोकतंत्र’ को तो देखिए कि धन की ताकत, दबंगई और जाति-सम्प्रदाय की राजनीति कर अगर एक बार भी
विधायक, सांसद बन गए तो पूरी ज़िन्दगी भर पेंशन, मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा का लाभ और गफूरिया जैसे लोक
कलाकार के इलाज़ के लिए इतनी बेरुखी! जिस लोक कलाकार ने अपनी पूरी ज़िन्दगी कला के
लिए समर्पित कर दी उसके प्रति इतनी बेमुरौव्वती? तरक्कीपसंद’ होने का
मतलब क्या यही है कि हमारी अपनी लोक कलाओं को हम महाराजाओं के ज़माने की घोषित कर
दें? गफूरिया के जिले के तरक्कीपसंद (?) कलेक्टर को कौन समझाए कि लोक कलाएं भी महाराजाओं के ज़माने
की और आज के ज़माने की नहीं होतीं? हम कैसे
भूल सकते हैं कि ये लोक कलाएं भारतीय समाज की रंग बिरंगी पहचानें हैं। 'तरक्कीपसंद होने के सच’ को कितनी गाढ़ी और मर्मभेदी दृष्टि से गफ्फार खां उघाड़ते
है- ''कला से नहीं, खुद के
भीतर की मुलायम आस्थाओं से भाग रहे है ये लोग। कछुए हैं साले, धरम के कड़े खोल को सब कुछ माने बैठे हैं, जो मुलायम देह की परतों के बीच धड़क रहा है, वह मन-प्राण क्या कुछ नहीं?’’ (स्वांग, कठपुतलियाँ
क.सं. पृष्ठ-131) गफ्फार खां की चिंता 'कला के बहाने’ समकाल के
मनुष्यविरोधी चरित्र को उजागर करती है। क्या ऐसे ही तरक्की करेगा समाज जैसा 'गफ्फार खां के मोहल्ले’ ने किया है? जहाँ विश्वास
इस कदर पराजित हो गया है कि दूसरे कौम के लोग दिन में भी गुज़रना बंद कर चुके
हैं! 'पीपल के नीचे चराग़ जलाने’ के लिए जहाँ के
लौंडे गफ्फार खां को हज़ारों बार धमका चुके हों, उनसे भविष्य का कैसा समाज बनेगा? अनुभवों के ऐसे कितने ही धरातल 'स्वांग’ के
कथा-गर्भ में समाए हैं। कथा के 'संश्लिष्ट
शिल्प’ की यही ताकत है कि जहाँ वह एक ओर लोक कलाओं की छीजती दुनियाँ का संवेदनशील
साक्षात्कार कराता है वहीं दूसरी ओर परंपरा, आधुनिकता, समाज और
लोकतंत्र की नब्ज़ भी टटोलता है।
कलाकार की एक और दुनिया है
जिसे 'किरदार’ कहानी
में व्यक्त किया गया है। कलाप्रेमी 'मधुरा’ की आत्महत्या से शुरू हो कर यह कहानी, कलाकार के अन्तर्जगत, स्त्री-संवेदना जैसे बिन्दुओं से होते हुए आत्महत्या के
कारणों की निशानदेही करती सभ्यता के रोशन हलकों में पनपी चुप्पी और अवसाद की टोह
लेती है। भारतीय समाज में 'दाम्पत्य की निर्मिति’ ही ऐसी रही है कि इसमें स्त्री की कल्पनाओं का
इन्द्रधनुषी संसार आहिस्ता आहिस्ता बदरंग होता जाता है। इस सन्दर्भ में 'केयर आफ स्वात घाटी’ की 'सुगंधा’ के जीवन को वर्गमूल बनाया जाए तो हम बहुत स्पष्ट देख
पाएंगे कि दाम्पत्य में स्त्री का 'स्वत्व’ किस तरह क्षरित होता है। 'मधुरा’ और 'सुगंधा’ दोनों 'तथाकथित शहरी और संभ्रांत’ माने जाने वाले 'दाम्पत्य’ का
हिस्सा हैं। लेकिन वहाँ उनकी 'अपनी
दुनिया’ गायब हो गई है। सुगंधा का नाट्य-अभिनय देखना उसके पति के
लिए 'बीवी की नौटंकी देखने’ की तिरस्कृत दुनिया है और मधुरा के पति के पास उसकी
दुनिया में झाँकने का समय ही नहीं है।
एक तरफ-'बहुत अकड़ के जा रही है ना, फिर सोच लेना, लौट कर
घर आने की जरूरत नहीं है’ की क्रूर
धमकी है तो दूसरी ओर 'खुद के
अलावा किसी और को पसंद करने’ की भयावह
प्रवृत्ति। इन दोनों परिस्थितियों की तुलना करें तो हम पाएंगे कि शारीरिक-मानसिक
हिंसा का सामना कर के भी यदि सुगंधा घर के बाहर निकल सकती है तो मधुरा क्यों
नहीं? फिर 'पेंटिंग
कला’ के सामने 'नाट्य
अभिनय’ जैसे संकट नहीं हैं, मसलन रात में देर तक घर के बाहर बच्चों और परिवार से दूर
रहना और असुरक्षित सड़कों से होते हुए घर तक पहुँचना; नाट्य
अभिनय की तुलना में पेंटिंग घर में रह कर अकेलेपन में ज्यादा सधने वाली कला है
जिसकी ट्रेनिंग तो मधुरा को विरासत में मिली थी। क्या मधुरा को अधिराज के साथ
बेहतर संवाद स्थापित किए जाने की ज़रूरत नहीं थी भले ही अधिराज बहुत कम संवादी
रहा हो; शुरुआत तो किसी को करनी ही पड़ती है? गहरे उतर
कर देखा जाए तो आत्महत्या के ठोस कारण कहानी में नहीं मिलते। यह भी देखा जाना
चाहिए कि मधुरा केवल एक कलाकार भर नहीं है, एक माँ भी है, उसे
क्यों आत्महत्या करते समय अपने दोनों
बच्चों का भविष्य नहीं दिखा? 'मधुरा को
आत्महत्या नहीं करनी चाहिए थी’- इस पर
मेरी पाठकीय आपत्ति नहीं है, मेरा कथा
के भावक होने के नाते यह सवाल है कि - कहानी आत्महत्या को लगातार जस्टीफाई क्यों
करती है? इन सब के बावजूद कहानी मौत की फैंटेसी में जिन सवालों से
टकराती है वो हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। इसे केवल गृहस्थी में फंसी स्त्री
की कथा के रूप में सरलीकृत नहीं किया जा सकता क्योंकि यह एक बेहद भावुक कलाकार
की कहानी है अन्यथा समाज में जाने कितनी स्त्रियाँ हैं जो ऐसी गृहस्थी के लिए
ललकती और तरसती हैं। लेकिन फिर भी कहानी 'विवाह’ के
मुद्दे पर जो तर्क रखती है उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता - 'उनका व्याह किसी कलाकार से ही होना चाहिए था, किसी ऐसे बंदे से जो उस दरिया को बांधता नहीं।’ इसकी क्या गारंटी है कि कोई कलाकार होगा तो वह उसकी कला
का सम्मान करेगा और बंदिशें नहीं लगाएगा? क्या हम इस सच से वाकिफ नहीं हैं कि कलाकृति बनाने और
जीवन जीने में बहुत बड़ा अन्तर है। इस
सन्दर्भ में यहाँ प्रस्तुत की गई कथा-स्थितियों को लेकर तर्क-वितर्क की बहुत
गुंजाइश है।
कला का एक और संसार हम 'कालिंदी’ कहानी
में देखते हैं जहाँ वह शरीर को नोचे जाने के परिवेश से 'न्यूड माडलिंग’ की
दुनिया में पहुँच कर एक नया जीवन तलाशती है। क्या यह महत्वपूर्ण नहीं है कि
इस दुनिया में रहते हुए भी वह कुछ चीजें अपनी शर्तों पर करती है। 'कला की प्रयोगोन्मुखी बारीकियों’ और 'गठन की सुसंबद्धता’ की दृष्टि से यहाँ मनीषा का कथाकार बेहद चौकन्ना और
जागरूक है। कलाकार की दुनिया से गहरे तक जुड़ी इस सभी कहानियों में चारो ओर उमस
है जो पाठक को तर कर देती है। रेखांकित किया जाना चाहिए कि वह अपनी कहानियों में
चौकाने वाला अन्त नहीं ठूंसतीं।
दो - भूगोल के नए इलाके में रहगुज़र
''लोगों को
उनके हिस्से का अधिकार न मिले, खाना, शिक्षा, सुरक्षा...
वो तो जाने दो... मगर जो हमारा था, वह तो न छिनता... ये जंगल, पहाड़, हमारी
खेतियाँ, पशु और हमारी औरतें। हमारे शहर, गाँव, कस्बे
सेना के ट्रकों, बंदूकों
और सिपाहियों से भर जाएं और हम उनके साये में
कंपकंपाते जीते रहें?’’ मणिपुरी
लड़की प्रिश्का की इस अभिव्यक्ति में लेखकीय चिंता का ऐसा मर्म बिंधा है जिसे
समझे बिना समस्या के उन कारणों तक नहीं पहुँचा जा सकता
जिसके चलते पूर्वोत्तर भारत के कई हिस्से अशांति के केंद्र बन गए हैं। हथियार
किसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का भविष्य नहीं बना सकते। एनकाउन्टर के नाम पर
मारे जा रहे हजारों युवाओं को देख कर
मणिपुरी जीवन्तता का प्रतीक 'आर्किड’ फूल का चेहरा ही क्लांत नहीं हो गया है, इस खूनी संघर्ष को देख कर मिज़ो की पहाडिय़ां भी रुदन करती नज़र आती हैं। 'जहाँ ज़िन्दगी आर्किड की तरह खिलती थी वहाँ अब ज़िन्दगी घिसट रही है’- मातम और संघर्ष के बीच। चीखती माँ, सर पकड़े पिता, बेसुध
हुई विधवा स्त्रियाँ और शवों से भरी हुई मार्चुरी। जैसे ही कथा के प्रवाह में हम
धंसते हैं वैसे ही थिराई हुई नदी की जलधारा की मानिंद सब पारदर्शी हो जाता है।
चेहरों पर उभरी गाढ़ी पीड़ा, माथे पर
उगा भय का पठार, आँखों की
कोरों में अटका असमंजस, मौन
बिंदु पर ठिठके होंठ, गले में
अटका और चुभता कसैला स्पन्दन। ज़ेना, प्रिश्का, मोज़ी, एलन जैसे
कितने युवाओं की हताशा और अकुलाहट को महसूसना एक व्यथा का हिस्सा बनना है।
श्मशानों और कब्रिस्तानों में बढ़ती भीड़ के बीच लोकतंत्र, राष्ट्र, सरकार और
'संविधान में लिखा जीने का मौलिक अधिकार’ सब बेमानी हो जाते हैं।
मणिपुर के अलगाववादी गुटों
से निबटने और शान्ति स्थापित करने के लिए जिस 'आफस्पा’ को लगाया
गया है उससे स्थितियां सुलझने के बजाए और उलझ गई हैं। मारे गए बेकसूर युवाओं की
संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। कहानी तटस्थ होकर इस गंभीर बीमारी की तह तक
पहुँचती है और यह देख पाती है कि आख़िर मणिपुर सहित पूर्वोत्तर के लोग भारत को 'भीतर से अपना मानने’ में क्यों हिचकते हैं? क्यों वहाँ की स्त्रियाँ केवल अपने स्टेट के झंडे को देह
में लपेट कर सड़कों पर आन्दोलन करती हैं? बहरहाल हमें प्रिश्का की इस चिंता पर भी गंभीरता से विचार
करना चाहिए कि गलती एकतरफा नहीं है, ये जो हो
रहा है इसमें दोनो ही पक्षों का दोष है। कहानी सिक्के के दोनों पहलुओं पर
ध्यानपूर्वक सोचने के लिए बाध्य करती है। हमें अलगाववादियों के आकाओं की नीतियों, कार्यक्रमों और उद्देश्यों पर भी विचार करना होगा तभी इस
समस्या का हल निकाला जा सकता है।
'आर्किड’ कहानी जहाँ मणिपुर
के अलगाववाद और वहाँ के जनजीवन की कठिनाइयों को साझा करती है वहीं 'हाइड एन्ड सीक’ कश्मीर
घाटी में आतंकवाद, सीमा-पार से फैलाई गई हिंसा और युवाओं में भरी जा रही नफरत के
बीच फौजियों के जीवन के संवेदनशील हिस्सों को उकेरती है। इतने स्थानीय नागरिकों, जवानों की जान महज़ कुछ लिजलिजे निर्णयों और ढुलमुल
नीतियों के चलते ही तो जाती है, इसी से
क्षुब्ध हो कर कर्नल हंसराज जैसे अफसरों को वीआरएस लेना पड़ता हैं।
बहुत वर्षों बाद जब वह घाटी घूमने जाते हैं तो देखते हैं कि जिन हाथों में खेती
के लिए कुदालें, फावड़े, नावें चलाने के लिए पतवार और भेड़ें चराने के लिए डंडे थे
उनमें इतनी मात्रा में रायफलें, बंदूकें
और बम कैसे आ गए? दूसरी
तनख्वाह का चेक पंहुचने से पहले सैनिकों का शव कितनी जिंदगियों को अवसन्न कर
देता है। ऐसे कई सूक्ष्म विश्लेषण असहज कर जाते हैं। सैनिकों की पेट्रोलिंग और
बारूद निरोधक आपरेशन के बीच डॉग स्क्वायड के जोड़े 'साशा और रोवर’ की
अप्रतिम प्रेम-कथा 'मौत और
ख़ौफ़ के अँधेरे के बीच’ 'ज्योति
बिम्ब’ की तरह चमकती है। न जाने कितने सैनिकों और सामान्य लोगों
की जिन्दगी बचाती आई थी यह जोड़ी और एक दिन बम ढूढ़ते हुए साशा अपने जीवन से हार
जाती है। जिस साशा के बिना पल भर में ही रोवर बेचैन हो जाता था; जिनकी प्यार की गुर्राहटों से घाटी गूंजती थीं उसके बिना
रोवर ने भी जीने का मोह त्याग दिया।
मानवेतर प्रेम और साहस के इस बिंदु पर आकर कथा अपने प्रस्थान बिंदु पर
पंहुचती है - ''क्या यह
सच नहीं कि साशा-रोवर सच में दो अनूठे प्रेमी थे! और क्या वे धर्म, प्रतिष्ठा, धन और
शक्ति के मोह के आगे प्रेम और वफादारी को तरजीह देने वाले दरवेश नहीं थे? क्या हुआ जो वे इंसान नहीं थे मगर उनके जीवन और मृत्यु
दोनों इंसानों को पाठ नहीं पढ़ा गए?’’ (हाइड एंड
सीक, पृष्ठ-96)
मनीषा कुलश्रेष्ठ पाठक को
कथा के इस नए भूगोल और परिवेश से परिचित बस नहीं करातीं, उसकी सरहदों पर भी ले जाती हैं और चुपके से सैनिकों के
कैम्प में घुस जाती हैं, जहाँ 'शहीद हुए सिपाहियों के ठंडे पड़ चुके जिस्मों से
आइडेंटिटी टैग उतारती हुई अम्बिका है, रक्त से
सनी हुई बांह वाला लेफ्टीनेंट है, जीत के
बाद भी पराजय के बोध से भरा हुआ मेजर है। यहाँ साहस, पराक्रम और दृढ़ता के आवरण में दीखता है भावनाओं का
सुलगता ज्वालामुखी। जहाँ हर दिन जीवन और मौत के बीच एक दुर्निवार जंग चल रही है।
कराहते हुए सैनिकों के बीच यह कोई नहीं जान पाता कि यह किसकी आख़िरी रात है। एक
सैनिक के जीवन की त्रासदी को मेजर के शब्दों में पढऩा स्तब्ध कर जाता है- ''एक सैनिक जब युद्ध से लौटता है तो यूनिट में बहुत कुछ बदल
चुका होता है, शहीदों की तस्वीरों में बढ़ोत्तरी और तब सीने पर मैडल
लाने का मतलब नहीं रह जाता।’’ (एडोनिस
का रक्त और लिली के फूल, पृष्ठ-56)। लेखिका के साथ 'रक्स की घाटी’ में
घुसपैठ करते ही हमारा सामना जिस दुनिया से होता है उसमें ओर छोर तक मूक विवशताएँ
हमारे मानस को झिंझोड़ देती हैं। दहशतगर्दों के चलते गज़ाला, लुबना और गुलवाशा की खेत में बिताई रातें, घाटी से खाली होते गाँव, स्वरों को दर्दमंदी के गीत में ढालने वाले फनकारों पर
जुल्म, टूटे रबाब, सारंगियां, जमीन पर लिथड़े साफे, मज़हबी कट्टरता में बिला गयी ज़िंदादिली के बीच स्कूल ड्रेस
पहनी गज़ाला के प्रश्न का सामना करते ही मन की नसें अकड़ जाती हैं कि 'अब्बू तो कहते थे कि सरकार सिनेमा घर बचाए न बचाए हमारे स्कूल जरूर बचाएगी...।’ मनीषा की कथा-यात्रा में इस परिवेश का दृश्यांकन उन्हें
बिलकुल अलहदा पहचान देता है। इस पूरे शीर्षक को मन मसोस कर यहीं छोड़ रहा हूँ
क्योंकि अभी बहुत कहा जाना शेष है।
तीन - स्त्री होना प्रेम के होने का पर्याय है
मनीषा का कथा-बीज प्रेम की
उम्मीद से बना है जो कंकरीली-रेतीली धरती में भी फूट पड़ता है और ज़िन्दगी के नीरस और संकरे दिनों में भी हरीतिमा बचाए
रहता है। प्रेम को हर स्त्री अपनी तरह से जानती, महसूसती और जीती है। यह प्रेम 'गंधर्वगाथा’ और 'कुछ भी रूमानी नहीं’ में अनुभूति और भावना के संस्पर्श से अमूर्तन रचता है। यह
प्रेम जब 'कठपुतलियाँ’ की सुगना
के जीवन में प्रवेश करता है तो उसके 'अन्दर की
कठपुतली सांस लेने लगती है।’ ठहर चुके
उसके मन के शांत जीवन में उम्मीद का यह कांकर हिलोरें उठा देता है। यह वही जोगी
था जिसका नाम उसके जेहन में वर्षों तक गूंजता रहा था। 'प्रेम की चाह’ मनीषा की
बहुसंख्य कहानियों के स्त्री पात्रों की अनिवार्य पहचान बन कर उभरती है। जैसे
जैसे मनीषा का कथा-विकास होता जाता है वैसे यह प्रेम व्यष्टि की परिधि का
अतिक्रमण करता जाता है। इस सन्दर्भ में डॉ. वाशी और प्रिश्का के बीच अंकुराए
प्रेम और उसकी परिणति पर गौर किया जाना चाहिए। जब प्रिश्का के सामने अपनी धरती
और अपने प्रेम के बीच 'किसी एक’ को चुनने का वक्त आता है तो वह अपनी धरती का चुनाव करती
है। उस धरती का चुनाव जहाँ उसके अपने मारे जा चुके हैं और मारे जा रहे हैं; जहाँ चारो ओर भय की प्रकम्पित छायाएं मंडरा रही हैं। वह चाहती
तो डॉ. वाशी के विवाह प्रस्ताव को स्वीकार कर लेती और एक आलीशान ज़िन्दगी जीती, पर नहीं, नंगें
पैरों से अपनी धरती पर उसने जो संघर्ष की पगडंडी बनायी है उसे वह कैसे छोड़ती? 'स्त्री-प्रेम’ को समझने के लिए प्रिश्का के मन के भीतर तक घुसना पड़ेगा
और तब यह बात समझ में आएगी कि आख़िर वह क्यों इसे नहीं स्वीकारती। प्रिश्का कभी
नहीं चाहती कि उसे प्रेम करने वाले पर उसके कारण कोई संकट आए इसीलिए वह डॉ. वाशी
से कहती है कि 'यहाँ से
इंडिया में ट्रांसफर ले लो..।’ अगर हम
इस प्रेम को सीमित नज़रिए से देखेंगे तो कह सकते हैं कि, प्रिश्का तो एलन से प्रेम करती थी! लेकिन इस प्रेम को 'शब्दों’ के पार
जा कर महसूस करना होगा। आपका तर्क भी 'एडोनिस का रक्त और लिली के फूल’ के युवा लेफ्टीनेंट की तरह हो सकता है कि -'क्या एक साथ दो पुरुषों से कोई स्त्री प्रेम कर सकती है?’’ हाँ कर सकती है क्योंकि उसका प्रेम 'पुरुष के प्रेम’ से भिन्न है। अगर आप इस तर्क से सहमत नहीं हैं
तो अम्बिका के इन शब्दों को ठहर कर भीतरी
मन से सुनिए- ''यू नो लव
इज माय सोलफूड एन्ड आय’म बैगर।’’ (केयर आफ स्वात घाटी, कहानी संग्रह, पृष्ठ-62) दरअसल स्त्री प्रेम के बिना जी ही नहीं सकती, प्रेम का रसायन उसके रक्त में इस कदर घुला मिला है कि उसे
अलगाना संभव नहीं। युवा लेफ्टिनेंट के लिए प्रेम का मतलब होंठों को चूमना या
स्पर्श सुख तक सीमित है पर क्या अम्बिका के लिए भी! इसे स्त्री-पुरुष के बीच के
जैविक भेद से समझना होगा। क्या पुरुष कभी सेक्स के चरम आनन्द के बाद स्त्री को उस तरह स्निग्ध स्पर्श दे पाता है जैसा
'आनन्द से ठीक पहले’ देता है!
जबकि स्त्री इस आनन्द के बाद भी उतना ही समर्पित स्पर्श देने के लिए तत्पर
रहती है। इन पलों में वह पुरुष का जितना साथ चाहती है पुरुष उतनी ही दूरी चाहता
है। यही प्रकृतिगत अन्तर है स्त्री और पुरुष के बीच। यह स्त्री-पुरुष व्यवहार
जीवन के अनेक क्षणों में बरता जाता है। मनीषा इस प्रस्थान बिंदु तक पहुँचती हैं
कि प्रेम स्त्री के भीतर कभी न खत्म होने वाली उम्मीद है। इस उम्मीद को थाहने के
लिए 'आर्किड’ कहानी की
'प्रिश्का’, 'कठपुतलियाँ’ कहानी की 'सुगना’ और 'एडोनिस
का रक्त और लिली के फूल’ कहानी की
'अम्बिका’ के मन के
स्रोतों तक पहुँचना होगा।
चार - उसके भीतर पीड़ा की एक नदी बह रही है
जहाँ शब्द केवल शब्द न हों पूरी ज़िन्दगी का मायना हों। इन
मायनों के आवर्तन में भीगी हुई सांस की गर्माहट को दर्ज करती मनीषा की कहानियाँ
स्त्री मन तक पहुँचने का विश्वस्त ज़रिया हैं। कथा के इस आनुभूतिक प्रस्थान में
स्त्री जीवन के तमाम धूसर-बदरंग हिस्सों, परंपरा की जड़ हदबंदियों, नाथ दी गयी वर्जनाओं, घुप्प अँधेरे में धकेल दिए गए स्वप्नों, अनचाहे रिश्तों की डोर की जकड़बंदियों तक पहुँचने के उपक्रम में 'कठपुतलियां’ की सुगना, 'कुरजां’ की डाकण, 'ठगिनी’ की गूंगी
बना दी गयी कंचन, 'कालिंदी’ की जमुना, 'ओ मरियम’ की अरूसा, 'रक्स की
घाटी’ की गज़ाला, लुबना और
गुलवाशा, 'लापता तितली’ की मनाली, 'केयर आफ स्वात घाटी’ की सुगंधा से होकर गुज़रना पड़ेगा। मैं इन कहानियों के
चरित्रों को 'कथा के एक पात्र के रूप में नहीं’ हिन्दुस्तान के गांवो, कस्बों और शहरों की अधिसंख्य गलियों, मुहल्लों के यथार्थरूप में देखता हूँ। हमारा समाज
कठपुतलियों के निर्माण की प्रयोगशाला है जिसमें जाने कितनी 'सुगनाएं’ पैदा तो
इंसान के रूप में होती हैं पर कठपुतली बना दी जाती हैं। इस मुल्क में काठ की
पुतलियाँ कम हैं जीवित कठपुतलियाँ ज्यादा। हम सब हुनरमंद हैं इस कला में।
हिन्दुस्तान के कितने ही गाँवों में आज भी कितनी ही सुगनाओं को उनके महतारी बाप
रामकिशन जैसे पुरुषों के हांथों बियाह के नाम पर बेंच देते हैं। एक तो
अपाहिज-विधुर रामकिशन तिस पर दो टाबरों का बोझ, इसके बावजूद 'सुगना’ को 'झोंकते
हुए’ उसकी महतारी को एक बार भी अकरास नहीं हुआ? एक बार भी उसकी छाती नहीं दरकी? यहाँ बहुत से सवाल गुंथें हैं जिनको सुलझाने के लिए इस
बिंदु को आपके हवाले करता हूँ। देखा जाना चाहिए कि कहानी इस यथार्थ तक ही सीमित
रहती है या इसका अतिक्रमण भी करती है। रसोईं और कोठरी की दीवारों की घुटन से
अंगने की ओर भागती सुगना क्या अपनी देहरी भी लाँघ पाती है! पानी के संकट ने
आखिरकार सुगना को घर की घुटन से दूर तक निकलने का मौका दिया। सुगना का कुलधारा
के खंडहरों वाली बावड़ी में पानी लेने जाने का सिलसिला फिर रुका नहीं। तमतमाती
धूप में इतनी दूर तक जाना और रेत के धोरों को पार करते हुए सर पर तीन मटके ढो कर
लाना शारीरिक रूप से चाहे जितना कष्टदायी रहा हो पर मानसिक रूप से सुकून देने
वाला था। यह सुकून केवल इसलिए नहीं है कि वहाँ उसकी मुलाकात जोगी यानी जोगिन्दर से होती है बल्कि इसलिए
भी कि 'घुटन से भरी कोठरियों’ के बाहर दूर तक फैला आकाश, खुली हवा
और बावड़ी में जल की शीतलता में उसे कितना सुख मिलता था! तृप्तिदायक अहसास के
साथ वह उस शीतल जल में अपनी जलन तो मिटा देती थी। उसने जोगी के साथ जो कदम उठाया
उसे समाज (?) भले ग़लत कहे पर क्या उसकी अपनी कोई चाह नहीं है। यहाँ जो
भी घटित हुआ वह बहुत स्वाभाविक था क्योंकि जिस प्रेम और जैविक तृप्ति की उसे
ज़रूरत थी, रामकिशन शायद ही कभी दे पाया हो! लेकिन जहाँ परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी उठाने की बात रही हो वह
कभी पीछे नहीं हटी, लेकिन जो
जीवन उसके गर्भ में पल रहा है उसका क्या? रामकिशन की महतारी सुगना की महतारी से कम कैसे निकल जाती, सो वह रामकिशन की लाख चिरौरी से भी नहीं पसीजी। हद तो यह
कि अब इसका फैसला’ वह
पंचायत में करके रहेगी; बस 'उस रांड के प्रेमी का पता चल जाए, उससे धरवाएंगे हरजाना... पूरे चार हज्जार।’ इतने में ही तो विवाह के नाम पर खरीदा था सुगना को
रामकिशन के खातिर। गर्भभार से क्लांत, पीले
चेहरे वाली सुगना को देख रामकिशन सिसक उठा पर उसकी माँ टस्स से मस्स नहीं हुई।
ऐसी दशा में एक स्त्री दूसरी स्त्री के इतनी ख़िलाफ! सुगना की माँ और सास के
निर्णयों को देखिए और विचार करिए कि स्त्री आखिर क्यों पीछे रह जाती है? दूसरी ओर सुगना को देखिए कि जिस दाम्पत्य के कारागार में
उसका दम घुटता था उससे अपने स्वार्थ के लिए वह मुक्त नहीं होना चाहती। उसे हमेशा
के लिए मुक्त कराने ही तो जोगी (जोगेन्दर) आया था और तान के कहा था कि सुगना तू
बिना डरे मेरा नाम लेना और कह देना ये बच्चा मेरा है। वह तो सुगना के लिए तन, मन और धन से तैयार था; फिर क्यों सुगना उसके साथ नहीं भागी? भरी पंचायत में उसने आत्मविश्वास भरे लहजे में यह स्वीकार
किया यह गर्भ रामकिशन का है। इस बिंदु पर वह सास और माँ से अलग राह बनाती है। वह
कैसे जाती अपने नंदू और बंशी को छोड़ कर जो
उसे अपनी माँ से 'जादा’ चाहते हैं। उस अपाहिज रामकिशन का क्या होगा जो घिसट घिसट
कर 'जिनगी’ पार कर
रहा है! वह जिन रिश्तों की डोर से हिलग चुकी है उनके भविष्य को अपने सुख के लिए
दाँव पर नहीं लगाना चाहती। कहानी अपनी परिणति में बदलाव की संभावना छोड़ जाती
है।
'ठगिनी’ कहानी
में ऐसी कौन सी विवशता थी कि बिटिया के जनम लेते ही उसे फिंकवाते हुए सरमण की
कनपटी नहीं झन्नाई। क्या सरवण की लुगाई इतनी बेबस थीं! (कहानी पढ़ कर तो ऐसा बिल्कुल नहीं लगता ) इसे विडंबना ही कहेंगे कि 'राणी सती की सौगंध’ खाने वाला और 'कुलदेवी
की पूजा करने वाला’ समाज
नवजात कन्या के कंठ में नमक ठूंस कर थूर
के जंगलों में फिकवाता है। गौर करिए कि 'स्त्री के भविष्य और जीवन’ का निर्णय करने वाली इस पंचायत के सभी पंच-सरपंच पुरुष
हैं जिनके घरों में कितनी ही बेटियों को मार दिया गया है। हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, पश्चिमी उत्तरप्रदेश आज जिस लिंगानुपात के संकट से गुज़र
रहें हैं उनके मद्देनज़र भी कहानी को पढ़ा जाना चाहिए। इस बात को कैसे बेसबब
छोड़ा जा सकता है कि सरवण जैसा काहिल और जीवन विरोधी व्यक्ति गाँव की इसी पंचायत
का उप सरपंच है। 'कंचन’ के न्याय के लिए लगी इस पंचायत और 'कठपुतलियाँ’ की सुगना
के लिए लगी पंचायत की सच्चाई को राजस्थान, हरियाणा जैसे राज्यों में कुकुरमुत्ते की तरह उग गयी खाप
पंचायतों के साथ वाबस्ता करने पर इनकी छीछालेदर को बखूबी समझा जा सकता है।
पांच -
संघर्ष-यात्रा की गूंजती पदचापें और पाथेय
रचना की सार्थकता तभी है जब
उसकी भावान्विति के संस्पर्श से पाठक अपने अन्दर बेचैनी महसूस कर सके और मनुष्य
जीवन की गरिमा बचाए रखने की जद्दोजहद में खुद को शामिल कर पाए। 'कुरजां’ और 'कालिंदी’ दो भिन्न
भिन्न परिवेश से आने वाली स्त्री-कथाएँ हैं जिन्हें पढ़ते हुए उन संघर्षाकुल
कन्धों की रगड़ हम अपने कन्धों में महसूस करते हैं। जहाँ 'कुरजां’ अंधविश्वासी और गिरवी मानसिकता वाले समाज के भीतर सिमट
चुके सन्नाटे को भेदती है वहीं 'कालिंदी’ स्त्री वज़ूद को ज़मीदोज़ होते देखने की अभिशप्त दुनिया के
असह्य किस्सों से हमारा सामना कराती है। बहिर्मुखता के शिल्प में कुरजां पूरी
व्यवस्था को अपनी ज़द में लेती है जबकि अन्तर्मुखता
के शिल्प में कालिंदी स्त्री की 'भीतरी
सीमाबंदी’ जो उसने खुद भी बनाई है को तोडऩे-ढहाने की प्रक्रिया में
मुब्तला दिखाई देती है। जिस कुरजां की सुन्दर आँखों में 'भिनसार की किरने’ भी डूबना चाहती हों उसे 'जीवसर के गंवारों ने रावले की शह पर’ डाकण घोषित कर गाँव से बाहर काढ़ दिया है। राजस्थान की
सुदूर पश्चिमी सीमा से सटे 'जीवसर’ 'गाँव के जनों’ के भीतर
इस अंधविश्वास को ठूंस ठूंस कर भर दिया गया है कि उसकी छाया गाँव के लिए काल है।
गाँव में चेचक का प्रकोप हो या रावली में सड़े मांस से बीमार पड़े बच्चों की
घटना हो इन सबके लिए उसी डाकण को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। उसे 'डायन’ इसलिए
घोषित किया गया क्योंकि वह उस हवेली से अपने पति को वापस चाहती है जहाँ उसे बेगारी में रखा गया था और जिसका दो साल से कोई अता
पता नहीं है। दूसरी तरफ 'कालिंदी’ की जमुना है जिसे एक पुरुष द्वारा प्रेम और विवाह के धोखे
में छला जाता है। गोद में एक बच्चे के साथ उसे किसी एक महानगर की उन पीली
इमारतों के सीलन भरे कोनों में धकेल दिया जाता है जहाँ वह एक 'कस्टमर’ के लिए देह भर रह जाती है। बड़े मार्मिक और कुरेदने वाली 'घटनात्मकता’ और 'मनोविज्ञान’ के साथ
इसके कथानक को तागा गया है। 'कुरजां’ और 'कालिंदी’ का
परिवेश भले ही 'गाँव’ और 'महानगर’ के रूप में बिलकुल अलग है लेकिन संवेदना के स्तर पर एक
है। अपने देशकाल के ध्रुवान्तों के बावज़ूद 'संघर्षाकुलता’ के बिंदु
पर दोनों चरित्रों में 'अनकहा
साझापन’ है। दोनों ही 'सामाजिक
निर्वासन’ की प्रतिकूलताओं से ही नहीं घिरी हैं, 'दरिद्रता की
अर्थशास्त्रीय’ जकडबंदी
में सिमटी भी हैं। इन दोनों कथाओं के 'पाठ’ का सन्दर्भ भारतीय सामाजिक-आर्थिक जीवन की विभीषिका के
बीच अकेली स्त्री की जि़न्दगी का 'संदर्भ
बिंदु’ बनता है। संयोग से दोनों माएं हैं इसलिए उनकी 'संघर्ष-यात्रा’ दोहरी
है। पर देखें जहाँ भरपेट भोजन का संकट है वहाँ दोनों अपने अपने बच्चों को
पढ़ाने के लिए कृतसंकल्प हैं और इसके लिए वे अपमान और तिरस्कार का घूँट भी पी
जाती हैं। इस प्रस्थान बिंदु पर इन दोनों का संघर्ष उदाहृत किया जाना चाहिए । ये
आन्तरिक शक्ति ही तो है जिसके बल पर ये दोनों 'विगलित यथार्थ’ से मुंह
चुराक र भागती नहीं उसका सामना करती हैं। यही 'आंतरिक शक्ति’ और 'खुद पर भरोसा’ मनीषा की
कहानियों का महत्तम समापवत्र्य हैं। इन दोनों रचना-भूमियों से हमें जो मूल्यवान पाथेय मिलता है उससे पूरी
दुनिया न सही, आसपास की दुनिया को तो बदला ही जा सकता है।
इस साझेपन के बावज़ूद क्या
इन कथा-यात्राओं में कोई बुनियादी फर्क है? हाँ फर्क है, पर इसके
लिए इन कथाओं के 'अन्तर्पाठ’ तक पहुँचना होगा।
शहर की जमुना के पास पेट की भूख शांत करने का विकल्प तो मिलता है पर कुरजां के
पास तो वो भी नहीं है। आज भारत के तमाम बड़े महानगरों में बढ़ती मजदूरों औरतों
और बच्चों की भीड़ देखिए तब समझ में आएगा कि आख़िर क्यों गाँव ख़ाली होते जा रहे
हैं और शहर ठुंसे जा रहे हैं। जमुना की जो संतान अपनी पहचान छुपा कर महानगर के स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर रही है क्या यह
जीवसर के स्कूल में पढ़ रहे कुरजां की संतान के लिए संभव है? मानवीय गरिमा के साथ स्कूल में पढ़ पाने की न्यूनतम
अर्हता क्या जीवसर गाँव का स्कूल उसे दे पाएगा? क्या महानगर के स्कूल में पढ़ रहे जमुना के बेटे की तरह
कुरजां का बेटा जीवसर में रहते हुए अपना भविष्य बना सकता है? आप लाख तर्क देते रहें महानगरीय घुटन, अवसाद, भीड़ और
धुंए का पर जब इन दो परिवेशों में चुनाव की बारी आएगी तो कोई 'जीवसर’ जैसी
परिस्थियों में अपने बच्चे को नहीं पढ़ाना चाहेगा। इन दोनों कथा-भूमियों की
उर्वरा शक्ति और संभावनाओं पर बहुत विस्तार से बात की गुंजाइश है। बहरहाल 'कठपुतलियाँ’ से ले कर 'कुरजां’, 'ठगिनी, 'फांस’, 'मास्टरनी’, 'ओ मरियम’, 'रक्स की
घाटी’ की स्त्री पात्रों से मिल कर एक वृत्त बनता है जिसमें हम पूरे समय के प्रवाह को
पकड़ पाते हैं। रेखांकित किया जाना चाहिए कि यहाँ पीड़ा से उपजी हताशा के बावजूद
इन चरित्रों में दुर्दमनीय जिजीविषा है। मनीषा के पात्र अन्तर्मुखता-संपन्न हैं उनके बाहर से ज्यादा भीतर झाँकने की
जरूरत है।
छ: - अपनी अपनी दिशाओं के अपने अपने आकाश
कहानी के मूल्यांकन का
पैमाना क्या होना चाहिए? इसका
सीधा उत्तर मुझे कभी नहीं मिला। लगातार कहानियां पढ़ते हुए इतनी बात जरूर समझ
में आई कि सैद्धांतिक मूल्यांकन के लिए भले ही हम कोई पैमाना बना लें पर उससे न
तो हर कहानी को खोला जा सकता है और न ही उसकी संधियों में समाई अन्तर्कथा को थाहा जा सकता है। मनीषा की ही कहानी विधा को ले
लीजिए यहाँ 'अनामा’ से ले कर 'लापता
पीली तितली’, 'बिगड़ैल बच्चे’, 'सियामीज’, 'खरपतवार’, 'मेरा
ईश्वर यानि..’, 'ब्लैक होल’ और
किरदार तक रचनात्मकता के इतने अभिस्तर, विषय के
इतनी विविधताएं और स्थितियां मिलेंगी कि यह समझ पाना मुश्किल होता है कि ये एक
ही रचनाकार की कहानियां हैं।
'अनामा’ बनारस के
यात्रानुभव से उपजी रचना है जिसमें धर्म, परंपरा, अध्यात्म, दर्शन और आस्था के सूत्रों को बुहार कर अपने अनुभव की पोटली में बंद करने के साथ खोखली
परंपराओं और पद्धतियों का वह क्रिटीक रचती हैं। अपने जीवंत इतिहास से आलोकित
बनारस आज धूर्त और लुटेरे पंडों, गेरुआधारी
बाबाओं, अंधश्रद्धा के दूध से गंधा रहा है, आसमान सुबह भी धुंए और धूल से हिचकियाँ ले रहा है, मुक्तिदायनी गंगा अपनी मुक्ति के लिए तड़प रही हैं, लाशें बह रही हैं। और गोवर्धन! जहाँ करील, कदम्ब
अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, यमुना का
प्रवाह कूरे कचरे से ठिठक गया है। परिक्रमा पथ में फिल्मी धुनों में बजते बेसुरे कानफोडू डीजे, पेप्सी, गुठका, चिप्स की बेतरह उग आई दुकानें। ये दृश्य भारत के किसी भी
हिन्दू तीर्थ स्थल पर मिल जाएंगे। इसे लेखिका की डायरी के अंशों के रूप में भी
पढ़ा जा सकता है और यात्रा संस्मरण के रूप में भी, लेकिन इस यात्रांत का साक्षी रहा पाठक न तो बनारस के
मटियाए प्रवाह से एकमेक हो पाता और न हीं गोवर्धन पर्वत की यात्रा से आत्मीयता
से जुड़ पाता। कई रोचक प्रसंगों के संयोजन के बावज़ूद यह कहानी वर्णनात्मकता का
शिकार हुई है। कथा 'सूचनाओं’ और 'ओरहन’ के भार से दब गयी है।
कभी कनेर की फुनगी पर तो
कभी दुआरे पर दस्तक देती तितलियों की तरह डोलती नन्हीं बेटियाँ अचानक से फुदकना
बंद कर दें तो! अपनी व्यस्तताओं और महत्वाकांक्षाओं की दुनिया में इतने मगन
माओं-पिताओं के पास कहाँ फुरसत है कि वो
इन फुदकना बंद कर चुकी 'लापता
पीली तितलियों’ के बारे
में सोचें। उनींदी सी उस रात के सन्नाटे में बांबी से निकले उस सांप का लिजलिजा स्पर्श बचपन के 'मिन्नूपन’ से सयानेपन तक की 'मनाली’ के
चेतन-अवचेतन को नोचता-खचोटता रहता है। मन को दबोचे भय की अनेक अनेक मन:स्थितियों
को व्यक्त करती कहानी 'लापता
पीली तितली’ यौन-दुर्व्यवहार तरक्कीपसंद
बाल मनोविज्ञान पर पडऩे वाली प्रभाव की बारीकियों से होते हुए हर अभिभावक को
चेताती है कि हमारे घर में अपना कोई बहुत विश्वसनीय हमारी मन्नुओं के साथ ऐसा न
कर पाए। डीके जैसे लोग हर जगह हैं इसलिए बच्चों से निरंतर मित्रवत संवाद कायम कर
हम कई घटनाओं से और बाल मन को अवसाद में जाने से बचा सकते हैं।
सात - अनुभवों की बखरी में भाषा की
देह
मनीषा के कथाकार के पास
भाषा की बखरी में शब्दों का अशेष भण्डार है। भाषाई रचनात्मक क्षमता का प्रयोग
करते हुए वह जीवन के तमाम आवरणों को हटाती यथार्थ को भेदती चली जाती हैं। ऐसी
रचनात्मक भाषा कविता में तो मिल जाती है पर कथा में विरल है। रेखांकित किया जाना
चाहिए कि वह नकली भाषा के छद्म को उघाड़ती हुई उसे संवाद का सहज माध्यम बनाती
हैं इसलिए भाषा की इस रचनात्मक शक्ति का उपयोग उनके रचना-सामर्थ्य को मूल्यांकित करने का जरूरी औज़ार बन जाती है। अबाध
संयोजन को निभाने वाला कथा-शिल्प और लोक के रस-गंध की मिठास से लबरेज़ यह भाषा
मनोभावों को बुनते हुए संकेत-धर्मी हो जाती है और अपनी सामाजिक-नैतिक भूमिका में
अव्वल भी। यह भाषा जब स्वप्निल प्रेम के संसार में कुलाचें भर रही होती है (गंधर्वगाथा, कुछ भी तो रूमानी नहीं, ब्लैक होल, एक ढोलो
दूजी मरवण तीजो कसमूल रंग) तब कजलियों की अंकुराई कोपलों के मानिंद हो जाती है
और तब भाषा की सारी दिशाएं 'प्रेम का
बहुवचन’ (बाबुषा कोहली की एक कविता से लिया टुकड़ा) हो जाती हैं।
जब यह प्रेम देह के स्पर्श तक पहुँचता है (कठपुतलियाँ, लापता पीली तितली, मेरा ईश्वर यानि..) तो यह भाषा सान्द्रता से भरे वनपाखी
के मीठे शहद की तरह हो जाती है। प्रेम में यह भाषा जब अमूर्तन रचती है तो कई बार
नीलाक्षी सिंह की कहानियां और बाबुषा की कविताएँ स्मृति के किवाड़ खटखटाने लगती
हैं। जहाँ यह जीवन के संघर्षों में प्रवेश करती है तो अमूर्तता की
पैरहन उतार कर यथार्थ के ठस प्रारूपों को ध्वस्त कर देती है और
रेगिस्तान के किरकिराहट भरे जीवन में घुस कर करील
की झाडिय़ों, खेजड़े के दरख्तों की सतह तक बिंध कर वहाँ की आर्द्रता भर लाती है।
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शशिभूषण मिश्र |
संपर्क-
मो. 09457815024
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-08-2018) को "सावन का सुहाना मौसम" (चर्चा अंक-3057) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी