प्रज्ञा की कहानी 'स्याह घेरे'

प्रज्ञा 

परिचय


जन्म  28 अप्रैल,1971, दिल्ली



शिक्षा- दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में पी-एच.डी ।

प्रकाशित किताबें



कहानी संग्रह – ‘तक़्सीम’ (2016) साहित्य भंडार, इलाहाबाद से प्रकाशित।

उपन्यास- ‘गूदड़ बस्ती’ (2017) साहित्य भंडार, इलाहाबाद से प्रकाशित।

हंस, पहल, कथादेश, ज्ञानोदय, वागर्थ, पाखी, वर्तमान साहित्य, परिकथा, जनसत्ता, रचना समय, बनासजन, पक्षधर, बया, इंद्रप्रस्थ भारती, आजकल, निकट, जनसत्ता साहित्य वार्षिकी, सम्प्रेषण, हिंदी चेतना आदि सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित।



नाट्यालोचना-

नुक्कड़ नाटक : रचना और प्रस्तुति राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से 2006 में प्रकाशित

जनता के बीच जनता की बात, वाणी प्रकाशन से नुक्कड़ नाटक-संग्रह संपादित, 2008  नाटक से संवाद, अनामिका प्रकाशन, 2016



बाल-साहित्य- तारा की अलवर यात्रा, एन. सी . ई. आर. टी से 2008

सामाजिक सरोकारों पर आधारित- आईने के सामने’, स्वराज प्रकाशन, 2013

पुरस्कार -

* सूचना और प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की ओर से पुस्तक तारा की अलवर यात्राको वर्ष 2008 का भारतेंदु हरिश्चन्द्र पुरस्कार।

* प्रतिलिपि डॉट कॉम, कथा-सम्मान 2016, ‘तक्सीमकहानी को प्रथम पुरस्कार, 2016

* स्टोरी मिरर डॉट कॉम कांटैस्ट-3 2017, कहानी पाप, तर्क और प्रायश्चितको प्रथम पुरस्कार।

* उपन्यास गूदड़ बस्तीमीरा स्मृति पुरस्कार 2017 से पुरस्कृत।



*जनसंचार माध्यमों में भागीदारी



राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्रों और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित लेखन।

आकाशवाणी और दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों के लिए लेखन और भागीदारी।

रंगमंच और नाटक, कहानी की कार्यशालाओं का आयोजन और भागीदारी।

राष्ट्रीय स्तर की अनेक संगोष्ठियों में भागीदारी



सम्प्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत।



धर्म, परम्परा, संस्कृति जैसे खूबसूरत शब्दों को हथियार बना कर कट्टरपंथी अक्सर ही उसे बदसूरत कर देते हैं। ऐसा समाज स्त्रियों और दलितों की स्वतन्त्रता को स्वीकार नहीं करता। आज तो स्थितियाँ हमारे यहाँ भी बड़ी विकट हो गयी हैं। ऐसे लोगों का आज प्राधान्य है जो अपने अहमकपने को हथियार बना कर औरों से यह उम्मीद करते हैं कि वे उनके कहे सुने का शब्दशः अनुसरण करें। जो ऐसा नहीं करता वह उनकी नजर में उनका दुश्मन बन जाता है। ऐसे कमजर्फ लोगों के यहाँ असहमति के लिए कोई जगह नहीं होती। यही नहीं अब तो ऐसे लोगों पर राष्ट्रद्रोही और समाजद्रोही का ठप्पा भी फौरन ही लगा दिया जाता है। ऐसे कट्टरपंथी लोग बड़े शातिर तरीके से अपने उस तथाकथित विरोधी को अकेले करने का षडयन्त्र रचते हैं और उसे ऐसी स्थिति तक पहुँचा देते हैं जिसमें या तो आत्महत्या का दामन थामना पड़े या फिर उनका दासत्व स्वीकार करना पड़े। दुर्भाग्यवश ऐसे शातिर लोग वाम खेमे में भी हैं जो वाम का चोला ओढ़ कर हर पल अपना स्वार्थ साधते रहते हैं। ऐसे लोग नैतिकता की बातें जोरोशोर से करते हैं। भले ही उनका नैतिकता से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध न रहा हो। प्रज्ञा की बेजोड़ कहानी ‘स्याह घेरे’ ऐसे ही लोगों और ऐसी ही व्यवस्था के शातिरपने को खूबसूरती से उजागर करती है। तो आइए आज पढ़ते हैं प्रज्ञा की यह उम्दा    कहानी 'स्याह घेरे'

       
स्याह घेरे



प्रज्ञा
                                                                                               

           
ज्योति अपार्टमेंट्स में कल पंद्रह अगस्त के कार्यक्रम के लिये इलेक्ट्रीशियन नन्द लाल और गार्ड रामबीर को जरूरी काम बता कर विनय शास्त्री एक्ज़ीक्यूटिव कमेटी के दफ्तर से निकले। शाम हो रही थी और उन्हें अभी बाजार भी जाना था। कल के लिए कई जरूरी सामान आज ही खरीदना था। कल का कार्यक्रम भले ही घण्टे भर का हो पर बिना तैयारी के तो नहीं किया जा सकता था। फिर आदमी विनय जैसा जिम्मेदार हो तो एक-एक बात पर गहराई से विचार करते हुए किसी भी कार्यक्रम को बेहतरीन अंजाम तक ही पहुंचाता था। उनकी इसी आदत के चलते सोसायटी के अन्य कर्ता-धर्ता पूरी तौर पर निश्चिन्त रहते। बरसों से यही रवायत थी पर आज समय कम रह गया था और काफी सारे काम बाकी थे।


अगले दिन सुबह से ही विनय कार्यक्रम को सफल बनाने की अपनी मुहिम में जुट गए। इलेक्ट्रीशियन नंदलाल ने मुस्तैदी से अपना काम कर दिया और रामबीर ने झंडे में फूल भरकर उसे पार्क के पोल पर लगा दिया । विनय कार्यक्रम स्थल पर लोगों को बुलाने के लिए लगातार एनाउंसमेंट कर रहे थे। अपार्टमेंट्स के बच्चे सुबह से ही बिना किसी आमंत्रण के मजमा जमाए थे। समय बीतने के साथ लोग भी आने लगे और कार्यक्रम आरंभ हुआ। बच्चों ने गीत-नृत्य की कुछ प्रस्तुतियां दीं।


‘‘ अब ज्योति परिवार की वरिष्ठ सदस्य, हमारी फ्रेंसिना आंटी झंडा फहराएंगी।’’

विनय की इस घोषणा ने सभी को चकित कर दिया। हर बार कुछ नया करना विनय की आदत में यों भी शामिल रहता था। इससे पहले माहौल में इस नए प्रयोग और फ्रांसीना आंटी के चयन को लेकर कानाफूसी शुरू होती विनय बड़े आदर से श्रीमती फ्रांसिना क्लीटस को मंच तक ले आए। झंडा फहराया गया और सबने राष्ट्रगान गाया। हर बार की तरह दसवीं और बारहवीं कक्षाओं के होनहार बच्चों को पुरस्कृत करने का काम विनय ने इस बार आंटी से करवाया। अंत में बच्चों को तिरंगे और टॉफी और सभी मौजूद लोगों को बूंदी के लड्डू बांटकर कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। फ्रांसिना आंटी ने बच्चों के संग विनय को खूब दुआएं दीं। पार्क में मौजूद लोगां ने भारत माता की जय के नारे लगाए।

‘‘विनय भाई! इस बार कार्यक्रम पिछली बार से भी अच्छा हुआ है। आप न हाँ तो इस तरह के कार्यक्रम कौन कराएगा?’’ विनय को बाहाँ में भरते हुए डॉ. केवल बोले।


‘‘डॉक्टर साहब! कार्यक्रम भले ही कोई करा ले जाए पर इनकी तरह का अंदाज कहाँ से लाए?’’ मिसेज सिंह के इस कथन पर आस-पास खड़े सभी लोगों ने हामी भरी। माहौल में खुशी और संतोष के सारे रंग खिल रहे थे और इनके बीच विनय की संकोच भरी मुस्कान उनकी शालीनता का परचम लहरा रही थी। अगस्त की पीठ पर चुभने वाली तीखी धूप भी उन्हें महसूस नहीं हो रही थी। सब काम निबटाकर जैसे ही उन्होंने घर की ओर रूख किया पीछे से गार्ड रामबीर की आवाज़ कानों में पड़ी-

‘‘साहब जी! वो दो सौ छत्तीस नम्बर में नया किराएदार आया है। एंट्री की पर्ची काट कर रजिस्टर में नाम चढ़ाना है।’’

विनय अब तक थक चुके थे, बोले-
‘‘रामबीर! एंट्री तुम कर लो भाई! बाद में मैं इत्मीनान से काम निबटा दूंगा।’’

इतवार की छुट्टी इत्मीनान कम और जिम्मेदारियां अधिक लिए होती है। उनकी अनदेखी से आने वाले पूरे सप्ताह में विनय के लिए बैंक की नौकरी से समय निकालना दुश्वार होता। आज सुबह से ही दोनों बच्चों ने स्कूल के प्रोजेक्ट्स में काम आने वाले सामान की एक फेहरिस्त विनय को थमा दी। वहीं प्रीति ने भी महीनों से टलती आ रही अपनी बहन के घर जाने की बात की रट फिर लगा दी। रट के वज़न से ही विनय ने समझ लिया आज जाए बिना छुटकारा नहीं। इधर कुछ समय ऑफिस के लिए भी निकालना जरूरी था। प्रेसिडेंट शर्मा जी से कुछ बातें करनी थीं। विनय ने सबसे पहले ऑफिस का रूख किया। छोटे से कमरे में बरसों से चल रहे इस ऑफिस में शर्मा जी से कुछ जरूरी मसलों पर बातचीत के बाद विनय की नज़र रजिस्टर पर पड़ी। मेज पर पड़े रजिस्टर में पैन अटका हुआ था। जैसे ही पैन निकालने के लिए विनय ने रजिस्टर खोला उस पेज पर दो सौ छतीस की एंट्री के आगे किसी अनुभा चौधरी का नाम उन्हें दिखाई दिया। एक क्षण सोचने के बाद उन्हें कल रामबीर की कही गई बात याद आ गई। नए किराएदार से मंथली सब्सक्रिप्शन की पहली रसीद कटवाने का काम ऑफिस के लोग किया करते थे। विनय रसीदबुक लेकर दो सौ छतीस की ओर बढ़ चले। रास्ते भर सोचते रहे अनुभा चौधरी, ये नाम कहीं सुना-सुना सा लग रहा है पर कहाँ सुना है ये उन्हें याद नहीं आया।

‘‘जी कहिए?’’
दरवाजे के खुलने पर एक महिला ने जिज्ञासा से पूछा।
‘‘मैं विनय शास्त्री। यहाँ एग्जीक्यूटिव का सेक्रेटरी... कल आपसे मिलना संभव नहीं हो पाया था। यदि कोई दिक्कत न हो तो आपसे बात करना चाहता हूँ।’’
‘‘अरे! आप। आइए। गार्ड ने बतलाया था कि आप कल बिजी थे।’’

ड्राइंग रूम में बैठते ही विनय को हैरानी हुई कि कल आई अनुभा ने इस कमरे को तो काफी हद तक व्यवस्थित कर लिया है। इस कमरे से खुलते अगले कमरे में बंद सामान के कार्टंस झांक रहे थे। कमरे में बैठते ही विनय को एक पुरसुकून शान्ति का एहसास हुआ। मानो तेज रफ्तार जिंदगी में एक लमहा ठहरकर वक्त की चाल भांप रहा हो। कमरे का माहौल शान्ति के साथ सुरूचि का एहसास लिए था। शीशम की कार्विंग वाली चार कुर्सियां ठोस, चौकोर टेबल को घेरे थीं। टेबल पर रखे शीशे के नीचे से टेराकोटा के कुछ बेहद खूबसूरत पीस झांक रहे थे। पत्थर की मूर्तियों के रूप में दो वादक छोटी-सी चौकी पर विराजे थे। दीवार से सटे बुकरैक्स कमरे को सादगी और भव्यता से एक साथ भर रहे थे। कमरे पर एक नजर मार कर अनुभा को कुछ बुनियादी-सी बातें बताने के क्रम में विनय से अनुभा का प्रभावित करने वाला व्यक्तित्व छुप न सका। आत्मविश्वास से लबरेज़ अनुभा का चौड़ा ललाट, हल्का गेहुंआ रंग और चेहरे पर गजब की विश्रांति। बालों का ढीला-ढाला जूड़ा उसके व्यक्तित्व को और सौम्य बना रहा था। विनय को लगा उसका चेहरा ही जैसे कमरे का चेहरा था। अनुभा की बातचीत का सलीका भी विनय को प्रभावित कर रहा था। अनुभा जल्दी ही विनय के लिए जूस और कुछ बिस्किट ले आई। संकोच से भरकर विनय बोले-

‘‘आप तो तकल्लुफ में पड़ गईं।’’
‘‘इसमें कैसा तकल्लुफ विनय जी और फिर यहाँ आने के बाद आप ही पहली मर्तबा घर आए हैं।’’
‘‘बुरा न मानें तो एक बात पूछूं...आपका नाम बहुत ही जाना-पहचाना लग रहा है पर याद नहीं आ रहा कि आपसे भेंट कहाँ हुई है?’’
एक क्षण चौंकने के बाद अनुभा के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान उभर आई।
‘‘वैसे आपसे भेंट तो कभी नहीं हुई है पर... हो सकता है आपने कहीं मेरा लिखा कुछ पढ़ा हो। मैं फ्रीलांस जर्नलिस्ट हूँ... कुछ अखबारों और पत्रिकाओं..’’

‘‘अरे! मेरी आवाज़कॉलम की कलमकार अनुभा चौधरी...आप?’’ विनय का स्वर उत्तेजना भरी खुशी में तब्दील हो गया। बैंक में आने वाले स्वतंत्र समाचारमें उनके लिखे कई लेख विनय ने पढ़े थे पर कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि उनसे इस कदर मिलना होगा। विनय कुर्सी से उठ खड़े हुए और हाथ जोड़ कर अनुभा के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया-
‘‘आपका स्वागत है अनुभा जी। ये हमारा सौभाग्य है कि आप हमारे यहाँ आईं हैं। मैं आपको पढ़ता रहा हूँ। आम आदमी की आवाज़ बन कर आपने कई मुद्दों पर लोगों को झकझोरा है। आप जैसे लोग यहाँ होंगे तो हमारे बच्चे भी आपसे कुछ सीख-समझ पाएंगे।’’
इस सम्मान को पा कर अनुभा चौधरी के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान दौड़ गई।

‘‘अपनी कॉलेज लाइफ में हम भी बहुत कुछ करते-सोचते थे। एक जिद्द थी उन दिनों, कितने मुद्दों पर बेपरवाह लड़ते-जूझते थे। धीरे-धीरे जिंदगी खामोश रह कर जीने के शानदार सलीके सिखाती रही तो सारी बेपरवाही भाड़ झोंकने चली गई। कभी-कभार पुराना जुनून धूल-मिट्टी झाड़ कर खड़ा होता भी है तो... पर यकीन जानिए आपके विचार मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। आज की दुनिया में जहाँ सोचने-बोलने वाले लोगों को पसन्द नहीं किया जा रहा वहाँ आपकी निर्भीक आवाज़ हम जैसे लोगों के लिए बड़ा सहारा है। आप शान हैं हमारी।’’

‘‘बस-बस विनय जी...आप तो..’’

‘‘आपको किसी भी मदद की जरूरत हो तो ये मेरा फोन नम्बर है। मैं सैंतालीस नम्बर में रहता हूँ। बैंक में काम करता हूँ। नाम आप जान ही गईं हैं। कोई भी काम हो निस्संकोच याद कीजिएगा।’’

विनय के जाने के बाद अनुभा ने महसूस किया कि उनके लेखन पर सही की मोहर लगाने वाले उसे कहीं न कहीं मिलते जरूर हैं। इधर अनुभा से मुलाकात को लेकर प्रसन्न विनय ने घर आकर प्रीति को विस्तार से सारी कहानी बताई और दिन के बाकी काम भी पूरे उत्साह से निभाए। प्रीति आज बहुत खुश थी। उसी रात विनय ने कॉलेज के दिनों की अपनी एक डायरी खोज कर निकाली। अतीत पर जमी गर्द साफ की तो कॉलेज के दोस्तों के साथ बिताए अनेक यादगार पल जिंदा हो गए। धरने-प्रदर्शनों में शामिल होने के अपने अनुभवों पर लिखे जोशीले शब्दों से उनके पूरे बदन में एक उत्तेजना की लहर दौड़ गई। उन दिनों क्या जोश था गलत बातों पर असहमत हो कर आनन-फानन में एक माहौल बन जाता था और फिर सिलसिला चल पड़ता था सचेत कार्यवाही का। विनय के कानों में उन दिनों का वही शोर गूंज गया। देर तक विनय यादों के साथ डायरी को सहलाते रहे।

रोजमर्रा की भागदौड़ में जीवन फिर से व्यस्त हो गया। विनय को जिंदगी के तिहरे दायित्व के बीच फुर्सत ही कहाँ मिलती थी। घर, बैंक और अक्सर शाम को ऑफिस की जिम्मेदारियां सर पर बनी रहतीं जिन्हें वे हँसी-खुशी के साथ पूरा किया करते। ऑफिस के काम-काज के बीच ज्योति की नयी गतिविधियों पर भी चर्चा हो जाती थी नया क्या घट रहा है इसके सूत्र यहीं बैठकों में मिल जाया करते। ऐसे ही एक दिन ऑफिस से लौटते समय विनय, पाहवा जी से टकरा गए।
‘‘आप भी न विनय जी कैसे-कैसे लोगों को टिका लेते हो?’’
‘‘क्या हो गया? पाहवा जी! किस की बात कर रहे हैं आप?’’
‘‘वही दो सौ छत्तीस नम्बर वाली।’’
‘‘क्या हुआ?’’ विनय के कान एकदम खड़े हो गए।
‘‘अब देखिए न अकेली औरत है। घर-परिवार साथ नहीं। और तो और घर रहकर कुछ काम-धाम करती है और रहती कितने ठाठ से है। फिर सबसे बड़ी बात उसके घर लोगों का आना-जाना लगा ही रहता है। देर रात तक आदमियों संग गुलगपाड़ा... मेरे घर से सब साफ दीखता है।’’

‘‘अरे! पाहवा जी वो फ्रीलांस जर्नलस्टि हैं और रिश्तेदार क्या आपके घर नहीं आते?’’
‘‘आते हैं, पर रिश्तेदार और उन लोगों में जमीन-आसमान का अंतर है विनय जी!.. यहाँ अच्छे परिवारों के लोग रहते हैं, क्या असर पड़ेगा बच्चों पर?’’

‘‘पाहवा जी! आप तो बस...’’ कह कर विनय ने बात को हंसते हुए टाला पर पाहवा जी ने अपने घर की ओर रूख करते हुए उंगली के इशारे से विनय को चेताया। आज सोने से पहले विनय, पाहवा जी की बात पर मंथन करते रहे। पाहवा जी को दिक्कत आखिर किस बात से है? अनुभा के अकेले रहने से? उनके काम से? उनके ठाठ से? या उनके घर आने वाले लोगों से? देर तक चले मंथन के बाद नींद ने उन्हें अपनी आगोश में ले लिया। 



बैंक की नौकरी में तमाम तरह के एकाउंट्स और लैज़र हैंडल करते और कभी-कभी विदड्रॉल कांउटर संभालते विनय को दोपहर दो तक सिर उठाने की मोहलत नहीं मिलती। आज भी यही हाल था। दो बजे खाना खा कर इत्मीनान से जब उन्होंने अखबार उठाया तो पहला पेज देखने के तुरन्त बाद एडिटोरियल पेज खोल लिया और यह क्या आज का प्रमुख लेख अनुभा चौधरी का ही प्रकाशित हुआ था। विनय के चेहरे पर गर्व भरी मुस्कान दौड़ गई। कल तक जिनका लेख पढ़ा करते थे आज नाम के साथ उनका चेहरा भी आंखों के आगे तैर गया।

मुस्लिम महिलाओं की दूभर दुनिया’-  इस लेख को विनय पूरा पढ़ कर ही उठे। अनुभा चौधरी ने बहुत तथ्यात्मक तरीके से मुस्लिम समाज की कुप्रथाओं में नारकीय जीवन जी रही स्त्रियों की सच्चाईयों से लोगों को परिचित कराया था। अशिक्षा सहित स्कूल और कॉलेज में पढ़ने वाली लड़कियों पर हिजाब की सख्तियां, महिला सुन्नत, तलाक जैसे मामले के साथ उन्होंने उन लड़कियों से बातचीत को भी लेख में शामिल किया था जिन्होंने साहस के साथ इन विपरीत स्थितियों में जीने की राह बनाई। जो भारतीय समाज में मिसाल की तरह सामने आईं। लेख हमेशा की तरह विचार की आंच पर तपा था। विनय ने अपने साथी श्रीवास्तव को भी यह लेख पढ़ने के लिए दिया। और फिर तो एक से दो, दो से तीन, चार, पाँच जितने भी हाथों में लेख गया सभी ने उसकी तारीफ की। विनय की मुस्कान होंठों से गुजरकर गालों की सीमा के पार कर गई। उन्होंने सोच लिया आज इस लेख को पसन्द करने वाले लोगों की भावना को अनुभा तक जरूर पहुंचाएंगे। रोज की तरह शाम को पास ही के ब्लॉक वाले श्रीवास्तव के साथ कार पूल करके विनय लौट रहे थे।

‘‘तीखे शब्दों में बात तो बिल्कुल खरी लिखी है इस औरत ने।’’

 ‘‘किसने?...अनुभा जी ने।’’ विनय को श्रीवास्तव का औरतजैसे शब्द का प्रयोग अखरा इसलिए उन्होंने जीपर जरा अधिक जोर दिया। बावजूद इसके श्रीवास्तव पर कोई असर न हुआ।

‘‘ठीक कहती है वो, इन लोगों में औरत को उठने ही नहीं देते। नकेल कस कर रखते हैं हरामी। हमसे क्या बराबरी करेंगे...?’’ एक भद्दी गाली श्रीवास्तव की जुबान से कोड़े फटकारती हुई निकली।

‘‘पर अनुभा जी ने इन्हीं के बीच से उठती लड़कियों का भी तो जिक्र किया है... शायद आपने गौर नहीं किया।’’ विनय अपनी बात कहने से नहीं चूके।

‘‘हाँ निकल आती हैं इनमें भी दो-एक ऐसी।’’ श्रीवास्तव ने बहुत ही ठंडा-सा जवाब दिया।
‘‘वैसे अब अनुभा जी हमारे ही अपार्टमेंट्स में आ गईं हैं। वो हैं न अपने बैंक वाले मल्होत्रा साहब... अरे वही जो रिटायर होकर विदेश चले गए अपने बेटे के पास, उन्हीं के फ्लैट में।’’

‘‘फिर तो हमारी बधाई जरूर पहुंचा देना। कहना लेख अभी कई किश्तों में चलाए। बहुत सस्ते में छोड़ दिया इन लोगों को। आज ही लेख का लिंक अपने ग्रुप्स पर लगाता हूँ और खास दोस्तों को भी भेजूंगा पर्सनली। ’’

विनय तेजी से घर की तरफ कदम बढ़ा रहे थे कि जाकर इत्मीनान से अनुभा चौधरी को फोन करेंगे पर रास्ते में डॉ. केवल ने किसी काम से रोक लिया। दरअसल उनके घर के ड्रेन पाइप में दिक्कत आ गई थी और फोन करने के बावजूद प्लम्बर नहीं आ रहा था। डॉक्टर साहब जानते थे यदि विनय काम को हाथ में लेंगे तो प्लम्बर दौड़ा आएगा। उन्हें साथ ले कर जैसे ही विनय ऑफिस में दाखिल हुए वहाँ पहले से बैठे मेंबर्स के बीच भी अनुभा चौधरी के लेख की चर्चा चल रही थी। अब तक वे सब जान चुके थे कि यह पत्रकार उनके यहाँ की नई किराएदार है।

‘‘भई! विनय किसी संडे, शाम इनका छोटा-मोटा स्वागत कर लो मैडम का। अखबार में लिखती-विखती हैं, कोई काम पड़ेगा ही।’’

‘‘हो सके तो भाषण-वाषण....।’’ सोसायटी के प्रेसिडेंट और ट्रेज़रार एक सुर में बोले। विनय महसूस कर रहे थे अनुभा कितनी जल्दी यहाँ स्टार बन गईं। उनके मन ने राहत की सांस ली कि अब पाहवा जी जैसे लोगों की भी संतुष्टि हो जाएगी। विनय ने सोचा संडे के कार्यक्रम की पूरी रूपरेखा बना कर ही अनुभा से उनके घर मुलाकात करना ठीक रहेगा।

‘‘अनुभा जी! क्या बताऊं आपको, आपकी कलम के कई प्रशंसक मिल रहे हैं। आपके कल के लेख की कितनी बधाइयां मैंने खुद बटोरीं। आज बधाई की पोटली साथ बांध के लाया हूँ।’’
‘‘विनय जी! ये तो मेरा काम है ...’’ अनुभा ने बेहद संकोच से कहा।
‘‘नहीं अनुभा जी! आप बहुत जिम्मेदारी से अपना काम कर रही हैं।’’

‘‘आप बधाई की पोटली थमा रहे हैं और कल से अखबार के संपादक मुझे बता रहे हैं कि कितने लोग उस लेख को पढ़कर बौखलाए हुए हैं। ’’
‘‘मुझे तो एक भी आलोचक नहीं मिला आपका।’’
‘‘दूसरा पक्ष आपके सामने खुल ही कहाँ पाया है विनय जी? आपके इर्द-गिर्द कहाँ हैं वे लोग? मेरे विचार को आरोप समझ कर अभी बहुत छींटाकशी होगी, आप देखिएगा।’’ अनुभा ने कहा।

‘‘ठीक कह रही हैं, धर्म और सम्प्रदाय विशेष की आस्थाओं के गढ़ को छू लीजिए जरा-सा, ज़माना दुश्मन हो जाता है। ’’
‘‘विनय जी! मेरा झगड़ा धर्म से नहीं, इंसान को इंसान का विरोधी बनाने वाली सोच से है।’’

‘‘अनुभा जी को डर नहीं लगता क्या?’’- विनय के मन में सवाल उठा। कुछ देर के बाद अचानक विनय को संडे के कार्यक्रम की याद हो आई। चाय के संग विस्तार से सारी बातें हुईं। बहुत मना करने के बाद विनय, अनुभा को मनाने में सफल हो गए। दिन बीते और जैसा कि विनय को उम्मीद थी कार्यक्रम बहुत अच्छा रहा। अनुभा चौधरी ने न केवल सभा को सम्बोधित किया बल्कि अपने निजी जीवन को उदाहरणस्वरूप पेश कर के लड़कियों का हौसला बढ़ाया। कार्यक्रम के बाद काफी देर तक लड़कियां उन्हें घेरे रहीं। हर सभा के सम्पन्न होने के बाद का जरूरी हिस्सा होता है उपसभा का जहाँ कार्यक्रम के अच्छे-बुरे पक्षों की अदालत बैठती है।

‘‘कितनी धाकड़ औरत है। अपने दम पर, अकेली, अपने शहर से दूर रहती है और मज़े से अपना काम करती है।’’ मिसेज कालरा ने कहा।

‘‘मज़े तो हैं ही। न पति ,न बाल-बच्चे। न कोई जिम्मेदारी। हमें भी ऐसा सुख मिल जाए तो हम भी कोई काम कर लें। पर हमारी किस्मत में तो रोज तीन टाइम एक ही सवाल है- आज क्या बनाऊं खाने में?’’ मिसेज सिंह बोलीं।

मिसेज कालरा और मिसेज सिंह की बात विनय के कानों में भी पड़ी और उसके बाद कुछ महिलाओं का ठहाका भी हवा में गूंजा जिसे सुन कर विनय का मन कसैला हो गया। इस ठहाके में आस-पास मौजूद कुछ पुरूषों की हँसी भी शामिल थी। विनय के मन ने कहा कितना भी भला सोचो प्रतिक्रिया इतनी खराब क्यों होती है? उन्होंने शुक्र मनाया कि अनुभा इन बातों को सुनने से पहले विदा ले चुकी थीं। अचानक उन्हें लगा, ठहाका लगाने वाली इन महिलाओं, उनके संग मुस्कान बिखेरने वाले पुरूषों और पाहवा जी जैसों में भला क्या फर्क है?

कुछ दिनों बाद रोज की भागमभाग से पहले विनय अपनी बाल्कनी में सुबह की ठंडी हवा का लुत्फ उठा रहे थे। हवा ,मौसम के बदलने की रफ्तार का साफ संकेत दे रही थी। सर्दियों के आने की आहट हवा में एक खास तरह की नमी घोल देती है जिसका स्पर्श बदन को बहुत मुलायम अंदाज में सहलाता है और चेहरे पर ताजगी खिल जाती है। विनय का स्वभाव मौसम के मिजाज से जुगलबंदी कर ही रहा था कि अचानक फोन ने सारी तन्मयता छीन ली।

‘‘साहब! जल्दी से गेट पर आ जाइए। यहाँ कुछ लोग आए हैं। किसे रोकूं, किसे जाने दूं समझ नहीं आ रहा।’’

गार्ड रामबीर की बात सुन कर विनय चिन्तित हो गए।

‘‘तुम उन्हें वहीं रोको मैं आता हूँ।’’ कहकर विनय ने बनियान और पायजामे की अपनी घरेलू पोशाक पर घर से निकलते हुए एक शर्ट पहन ली। विनय को देख कर रात की पाली के सभी गार्ड थके होने के बावजूद मुस्तैद हो गए। विनय ने देखा गेट के बाहर वाकई कई लोग थे जिनमें महिलाएं भी थीं।

‘‘कहिए कैसे आना हुआ?’’
‘‘कुछ बात करने आए हैं।’’ भीड़ में से एक आदमी आगे आया।
‘‘अरे आप गुप्ता जी! मैं तो जानता हूँ आपको। आप तो गुलमोहर अपार्टमेंट्स में रहते हैं न? हमारे बैंक वाले श्रीवास्तव जी के यहाँ। आइए-आइए। कुछ लोग अंदर आ जाइए ऑफिस में, गेट पर भीड़ न लगाइए।’’ विनय ने आदर से उन्हें बुलाया।

‘‘ आपने ठीक पहचाना मुझे। मैं ही इन लोगों को यहाँ लाया हूँ। ’’ गुप्ता ने कहा। 
‘‘क्या हुआ गुप्ता जी?’’
‘‘तुम्हारे यहाँ कोई औरत आई है अनुभा चौधरी?’’
 ‘‘हाँ बिल्कुल।’’
‘‘बस उसी से मिलना है।’’
‘‘अरे! जरूर मिलिए। बड़ी अच्छी महिला हैं।’’ गार्ड के फोन से विनय के दिमाग में हलचल मचाती चिंता की रेखाएं शांत हुईं। वे अनुभा के प्रशंसकों के आने पर खुश दीखने लगे।
‘‘हाँ तो मिलवाइए न उनसे।’’

विनय उन लोगों को संग लिए अनुभा के घर की ओर बढ़े। कुछ लोग गेट पर ही छूट गए। गुप्ता जी से बातचीत करते हुए विनय सोच रहे थे कि ये लोग भी हमारी देखा-देखी अनुभा चौधरी का कार्यक्रम अपने यहाँ रखवाने की सोच रहे होंगे। पहले भी कुछ कार्यक्रमों की नकल करते रहे हैं। उनके मन ने कहा ये श्रीवास्तव भी न... कोई बात नहीं पचती इसके पेट में।

‘‘आज इतनी सुबह-सुबह विनय जी! कोई खास बात?’’ दरवाजा खोलते ही अनुभा ने चौंकते हुए पूछा।
‘‘कुछ नहीं बस ये लोग आपसे मिलना चाहते हैं...यहीं पास ही की सोसायटी के हैं।’’
‘‘जी कहिए’’ कहते हुए अनुभा ने उन्हें आदर से अंदर बुलाया।

गुप्ता जी और उनके साथ आए साथी जब कमरे के भीतर आ गए तो उनमें से एक ने बड़े अजीब अंदाज में कहा-‘‘ तुम ही हो अनुभा चौधरी?’’
‘‘जी।’’
एक और स्वर गूंजा- ‘‘तुम ही लिखती हो अखबार में?’’
‘‘हाँ, मैं ही लिखती हूँ।’’
अनुभा का यह स्वीकारना था कि उनमें से एक महिला ने आगे बढ़ कर एक थप्पड़ अनुभा के गाल पर जड़ दिया।

अनुभा अचानक हुए इस हमले का कोई बचाव नहीं कर पाईं। विनय एकदम सन्न रह गए। एक पल के बाद जब उनकी चेतना लौटी तो उन सब लोगों को हटाते वे अनुभा के साथ आ खड़े हुए और बोले-

‘‘ ये क्या बद्तमीज़ी है? शर्म आनी चाहिए आप लोगों को।’’

‘‘शर्म तो हम इसे सिखाने आए हैं। हमारी संस्कृति और सभ्यता के बारे में कितना ज़हर उगला है तूने। लिखती है हमारे पूर्वज गऊ खाते थे। हमारे रीति-रिवाजों को पाखंड कहती है। कहाँ दिख रही है तुझे देश में संस्कृति के नाम पर गुंडागर्दी? धर्म की दुकानें?’’ अनुभा के घर में आए तूफान की लहरें शोर के साथ ऊंची उठती ही चली जा रही थीं।

‘‘लिखती है हमारे साधु-संत ढांगी हैं। हमारे त्यौहारों को ढकोसला बताती है। बता क्या जानती है करवाचौथ और नवरात्र के बारे में? तू...तू समझाएगी हमें संस्कृति के मायने? मुसलमानों की दलाल।’’ महिला और पुरूष दोनों स्वरों में एक-दूसरे से अधिक चीखने की होड़ लगी थी।

‘‘देशद्रोही कहीं की... निकाल बाहर करो इसे।’’

इन शब्दों के साथ उस स्वर ने अनुभा के मुँह पर आज का अखबार उछाला जिसमें हिंदू धर्म की जकड़नविषय पर उसका लेख छपा था। एक जहर बुझा तीर अनुभा को बेतरह घायल कर गया।

‘‘इसी पैन से लिखती है न? ये ले... ले अब लिखना देश की संस्कृति के विरोध में।’’ दांत पीसते हुए किसी ने यह कह कर मेज पर रखी अनुभा चौधरी की कलम को बेरहमी से ठोककर तोड़ डाला। 

अनुभा को लगने लगा उसका पूरा वजूद अपमान की स्याह सिलवटों में डूब रहा है। विनय के हाथों के बने सुरक्षित घेरे को बेध कर अनुभा सामने आई। ‘‘निकल जाइए इसी वक्त आप लोग यहाँ से...इसी वक्त।’’  अपमान के तीखे नश्तरों ने गहरा प्रहार किया था पर अनुभा की दृढ़ छवि को जख्मी नहीं कर पाए थे। जाती हुई भीड़ के चेहरे पर दंभ से भरा विजयोल्लास चमक रहा था। वे जाते-जाते अनुभा के खिलाफ देशद्रोह के नारे लगा रहे थे- ‘‘होने न देंगे अत्याचारों को, भेजो बाहर गद्दारों को।’’ अपने किए पर पीठ ठोकती भीड़ में से एक ने अनुभा के गलियारे में सजी एक नृत्यांगना की मूर्ति को तेज लात मार कर तोड़ गिराया। आस-पास के घरों के लोग तमाशाई बने देखते रहे पर कोई नहीं आया। कुछ ने तो घर से बाहर आना भी ठीक नहीं समझा। भीड़ के जाने के बाद कमरे में विनय और अनुभा ही बचे थे और उनके साथ था एक सन्नाटा। सन्नाटे में लिपटी अपमान की सघन छायाएं थीं जो अनुभा और विनय को एक साथ घेरे थीं। विनय अपराधी की तरह सिर झुकाए खड़े रहे। स्थितियां जिस तेजी से घटीं अब उनका कोई स्पष्टीकरण भी विनय के पास नहीं था और न थी सांत्वना से भरे शब्दों की भाप जिससे इस विषाक्त माहौल को वे पिघला पाते। सिर झुका कर अपने दोनों हाथ जोड़ कर उन्होंने अनुभा से विदा ली।

अनुभा चौधरी के जीवन में ऐसी घटना पहली बार नहीं घटी थी। साफगोई की वजह से पहले भी उसे घर बदलना पड़ा था। न उसने लिखना छोड़ा न लोगों ने उसे तंग करना। पर घर में घुस कर मारने और तोड़-फोड़ का यह पहला वाकया था ऊपर से देशद्रोह का इल्ज़ाम। अनुभा सोचने लगी इस देश के बेहतर हालात के लिए उसने दिन-रात एक किए और वह देशद्रोही? कितना आसान है लोगों के लिए उसे कठघरे में खड़ा कर देना। कानून को ताक पर धर देना। किसी को भी मुजरिम बना दिया जाना और खुद का मुंसिफ बन जाना। काफी देर तक अनुभा सामने की दीवार को एकटक देखती रही फिर झटके से उठी। अनुभा ने निर्णय लिया कि इस मामले में देर करना उचित नहीं। वह किसी भी रोग को लंबा खींचने के पक्ष में कभी नहीं रही थी। जल्द ही तैयार होकर नजदीकी थाने पहुंची। अपना परिचय दिया और समस्या बताई तो एस. एच. ओ ने तवज्जो दी।

‘‘अबे! लाल सिंह कहाँ मर गया...पत्तरकार मैडम के लिए कुर्सी लगा और पानी ला।’’ एस.एच. ओ. ने कांस्टेबल को आवाज लगाई।

‘‘पानी नहीं चाहिए आप...’’ अनुभा पूरा वाकया बता चुकी थी उसे पानी नहीं, मदद चाहिए थी।

‘‘ठंडे हो लो मैडम जी!...आप भी न। देखो समाज है ये और आप तो समाज का काम ही कर रहे हो तो फिर क्यों नहीं रहते समाज के साथ मिल-जुल कर? क्या जरूरत पड़ी है लोगों को छेड़ने की? अच्छा लिखते हो तो कविता-कहानी लिखा करो न। जिसे पढ़ कर लोगों को मजा आए। खामखां भड़का दिया उन्हें सबेरे-सबेरे। अपना भी मूड खराब किया और उन लोगों का भी।’’

‘‘आप इस मामले में क्या करने जा रहे हैं ?’’ अनुभा चौधरी इन समझाइशों की आदि थी और इस तंत्र से मुठभेड़ के लिए तैयार भी।

‘‘आप जाओ मैडम! हम चक्कर लगा लेंगे आज। पूछताछ करेंगे। सीरियस बात हुई तो पहरे पर भी बैठा देंगे किसी को।’’

‘‘लेकिन आप कम्पलेंट तो लिखिए।’’ अनुभा ने जोर दे कर कहा।

‘‘ वो भी लिख लेंगे...पहले तफ्तीश तो हो जाए। गुप्ता जी और आप दोनों को साथ बुलाएंगे मैडम जी। दोषी भले जो हो, छूट न सकेगा।’’ एस. एच. ओ ने निहायती ठंडेपन से कहा पर भीतर ही भीतर वह सचेत हो गया था। आखिर ये देशद्रोह का मामला था। व्यर्थ किसी चक्करबाजी में वह अपनी गर्दन नहीं फंसाना चाहता था।

अनुभा को जैसा अंदेशा था थाने में वही हुआ। घर आने के बाद वह शांत न बैठ सकी। सबकी दुनिया रोज की तरह चल रही थी पर अनुभा के घर में एक बवंडर जैसे आ कर ठहर गया था। पूरा घर उसकी गिरफ्त में था। ज्योति के लोग भी अनुभा को आते-जाते घूर रहे थे। सबकी निगाहों में अपने लिए सवालिया निशान देख कर अनुभा से रहा न गया। अपने कुछ साथियों को उसने फोन किए। तय हुआ कि शाम को उसके घर बैठक होगी। इधर विनय के बैंक की हवा भी आज अनुभा के खिलाफ बह रही थी। इससे पहले कि वे आज का वाकया श्रीवास्तव से साझा करते श्रीवास्तव ने पहले बाजी मार ली। आज का अखबार दिखा-पढ़ाकर वह अनुभा के खिलाफ लोगों को भड़काने लगा। हिंदू संस्कृति पर खतरा मंडराता देख यों भी सबका सचेत होना और भड़कना जरूरी था। विनय ने आज खुद को कई जोड़ी आंखों के सवालों में घिरा पाया। आरोपों की भाषा न सिर्फ अनुभा की त्वचा खुरच रही थी बल्कि उसके साथ सहानुभूति रखने वाले हर आदमी को कठघरे में खड़ा कर चाबुक मारने पर आमादा थी।



रात नौ बजे के करीब, अपने काम-धंधों से फारिग होकर अनुभा के पुराने पत्रकार, लेखक-साथी उसके घर आ जुटे। इस नए घर में आने पर पहले भी एक बार उनका आना हुआ था पर वे नहीं जानते थे कि यों दोबारा, इतनी जल्दी उनका आना होगा। समस्या गंभीर थी और समाधान आसान न था। वे सभी जान-समझ रहे थे उनकी कलम के खिलाफ कार्यवाहियां दिनों-दिन तेज हो रही हैं। उन्हें रोज आतंकित किया जा रहा है। उनमें से अनेक लोग अपनी राह पर चलते थक भी गए थे। कुछ टूट गए थे और बहुत से रंगीन सपने दिखा कर तोड़ लिए गए थे। जो रंगीन सपने न देख कर खुरदरी और बेरंग सड़क पर चलने की जिद्द नहीं छोड़ रहे उन्हें चुप कराने के हथकंडे लगातार इस्तेमाल किए जा रहे थे पर वे अपनी धुन के पक्के थे। अनुभा के घर सब खतरों के बावजूद आज की बैठक में कई बातों पर विचार हुआ।

‘‘अनुभा! फिलहाल तुम्हें अकेले बिल्कुल नहीं रहना है। हममें से कुछ लोग लगातार तुम्हारे साथ रहेंगे।’’

‘‘यही नहीं इस मामले की जांच करने के लिए पुलिस के पीछे भी पड़ना होगा। लोकल थाने में कम्प्लेंट जरूरी है। और इस मसले पर खबर बना कर जल्द ही लगानी होगी। हो सके तो कल ही।’’

‘‘इस बार पहल नहीं की गई तो यहाँ भी अनुभा का रहना मुश्किल हो जाएगा।’’

जितने लोग थे उतने सुझाव। देर तक चली इस बातचीत ने अनुभा को अहसास करा दिया कि इस लड़ाई में वो अकेली नहीं है। धीरे-धीरे माहौल बदला और बातों का सिलसिला काम और जीवन की ओर जा निकला। इन सबके चलते सुबह उठा बवंडर अब अनुभा को उतना विकराल जान नहीं पड़ रहा था। हल्के संगीत में देर रात तक खाना-पीना चलता रहा। अगले दिन दो-एक अखबारों में अनुभा से जुड़ी खबर भी प्रकाशित हुई। खबर विनय ने भी पढ़ी। विनय चाह रहे थे कि इस मामले को लोग गंभीरता से लें पर उन्होंने करीबी लोगों को टटोला तो निराशा हाथ लगी। दो-एक ने उन्हें धमका कर शांत रहने और इस सबसे दूर रहने की हिदायत भी दे डाली।

अगले कुछ दिन शान्ति से गुजरे। अनुभा की दोस्त पल्लवी उसके साथ रहने कुछ दिन के लिए आ गयी थी। इन दिनों अनुभा लगातार रूखी, निर्मम और कड़ी निगाहों का सामना कर रही थी। पल्लवी का होना इन सबके बीच तेज़ धूप में हल्की फुहार का एहसास लिए था। दिन का कोई पहर निर्द्वंद्व और मुक्त नहीं था। पल्लवी के साथ ने बीते कल के अपमान की स्याही को अपने बिंदास अंदाज में हल्का कर डाला था और अनुभा के आज की हर हरकत के प्रति भी उसकी मुस्तैदी पूरी तरह बनी हुई थी। अचानक एक रात कोई दो बजे का वक्त होगा कि डोरबैल बजी। दोनों हड़बड़ाकर जागीं। जब तक कुछ समझ पातीं बैल दोबारा बज उठी। दोनों चौंक गईं.. इस वक्त भला कौन हो सकता है? गार्ड ने इंटरकॉम पर किसी के आने की सूचना भी नहीं दी। क्या गेट पर कोई नहीं है? या कोई अंदर ही से आया है इस वक्त? सवालों से घिरी, अपने बालों को समेटे, मिचमिचाती आंखों से अनुभा ने लकड़ी का दरवाजा खोला। पल्लवी पीछे ही थी। बाहर लगे लोहे के गेट से उन्हें दो पुलिस वाले दिखाई दिए।

‘‘क्या गोल-माल चल रहा है अंदर?’’ उनमें से एक ने पूरी हेकड़ी से पूछा।
‘‘मतलब?’’ अनुभा अचानक कुछ समझ न पाई।

‘‘मतलब कि गलत धंधा चल रहा भीतर। पक्की खबर है हमारे पास...गेट खोल और देखने दे कौन-कौन बिठा रखा है अंदर? शरीफ लोगों की आड़ में कॉलगर्ल का रैकिट चलाती है।’’ दूसरे का चेहरा खुर्दबीन की तरह गेट की जाली से सब सुराग बाहर निकाल लाने को बेताब था। दोनों के चेहरों पर एक अजीब-सी उत्तेजना चस्पां थी। अनुभा के साथ पल्लवी भी सकते में आ गई। इतना भद्दा इल्जाम? दो क्षण के मौन के बाद पल्लवी अपने चैनल का आई. कार्ड लेकर आई। पुलिस वालों की हेकड़ी के आगे दोनों चट्टान-सी तन गईं। खूब जिरह हुई और दोनों ने गलत इल्ज़ाम की शिकायत ऊपर करने की धमकी दी। अनुभा के फोन पर विनय भी तुरन्त दौड़े आए। आखिरकार पुलिस वालों ने माफी के रूप में भोला सुधार करते हुए कहा-

‘‘हम क्या करें? हमें तो यही सूचना मिली थी कि यहाँ धंधा चल रहा है... हमें क्या पता? शायद किसी ने गलत सूचना दे दी या तंग करने के लिए ऐसा किया पर फोन तो आया था और पता भी यही था। हमारा काम तो हुकम बजाना ठहरा।’’ कुछ न मिल पाने की निराशा और एक नहीं दो-दो पत्रकारों और सोसायटी के सेक्रेटरी से सामना होने की खीझ में दोनों पुलिसवाले स्पष्टीकरण देने लगे। आस-पास के फ्लैट से कोई नहीं निकला। पुलिस वालों और विनय के जाने के बाद अनुभा सारी रात सो न सकी। उसके भीतर एक ज्वालामुखी सुलग रहा था। आंखें गुस्से और निराशा की चरम परिणिति में फटी पड़ रही थीं। भीतर तक चीरने वाली झटपटाहट में वह लगातार कमरे में चक्कर लगा रही थी। बाहर से उठते चले आ रहे खंजर अपना अचूक निशाना बांधे थे और भीतर उन्हें रोकने वाली कोई ढाल नहीं थी। आज रात उस पर जाने-अनजाने एक हमला किया गया था। हमला जो सदियों से किसी भी औरत पर सबसे आसान और पुख्ता हथियार से किया जाता है। जो बेवजह बड़ी सफाई से औरत को बदचलन करार कर देता है। हर उस औरत को तोड़ने के लिए एक हमला जो समाज की अमरबेलों के आगे चुनौती बन कर खड़ी हो जाती है। यही तो अनुभा का जुर्म था। अनुभा पहले देशद्रोही और अब चरित्रहीन भी बना दी गई। चरित्रहीन बना कर उसे खत्म करना दकियानूसी समाज की नजर में बेहद आसान था मानो चरित्र न हुआ रूई हो जो एक फूंक में उड़ जाए या रेत का ढेर हो जो उंगली से छूते ही भरभरा कर ढह जाए।

‘‘नहीं पल्लवी...बहुत हुआ, अब ये सब बर्दाश्त के बाहर है। हमें जबरन घेरने की कोशिशें तेज़ हो रही हैं। अब इस खबर को मीडिया की सुर्खियों में लाना ही होगा।’’

‘‘तुम फ्रिक न करो अनुभा... हम भी अपनी कोशिश करके देखेंगे। पर ये सच है कि विरोध और विचार को पचाने का लोगों का हाजमा कमजोर हो चला है इसीलिए साजिशें की और करवाईं जा रही हैं।’’

‘‘देख रही हो न पल्लवी! हमारे जनतंत्र की हालत? लिखने-बोलने पर ही क्यों पहनने-ओढ़ने,खाने-पीने की आजादी पर भी तो लोग भड़कने लगे हैं। व्यक्ति के ये हक अब क्या भीड़ तय करेगी? लोगों को ये अघोषित आपात्काल क्यों दिखाई नहीं देता?’’

‘‘ कहाँ है आपात्काल अनुभा? आराम से उठिए, काम पर जाइए, खाना खाइए, टी.वी. देखिए, इश्क-मोहब्बत कीजिए, सैर-सपाटा-खरीदारी कीजिए, लंबी तान कर सो जाइए- कहाँ है आपात्काल? पर आप जब बोलते हैं, सोचते हैं, सवाल करते हैं तब यकीन जानिए दुनिया वैसी नहीं रहती।’’

दिन के उगने के साथ कई अखबारों और चैनल्स को इस घटना की पूरी डिटेल के साथ इत्तला कर दी। मामला दो महिला पत्रकारों को लगातार दी जा रही धमकियों का था। यही नहीं अनुभा ने विनय के कहने पर अपनी सुरक्षा को ले कर चिन्तित होते हुए एक खत ज्योति की वेलफेयर कमेटी को भी लिखा। उसे पूरा विश्वास था विनय के वहाँ होने से सहयोग जरूर मिलेगा। मजबूत इरादों वाली अनुभा ने आज सुबह ही हवा में एक तल्खी भांप ली। आस-पास के लोगों को कल रात की घटना की भनक लग चुकी थी और वे बिना सच जाने अनुभा को संदेह भरी निगाहों से घूर रहे थे। थोड़ी ही देर में कुछ पत्रकार अनुभा चौधरी और पल्लवी से रात की घटना के संदर्भ में बातचीत करने आ पहुंचे। मामला गर्मा रहा था। अनुभा दृढ़ता से सब बातों का माकूल जवाब देने के बाद पल्लवी के साथ थाने की ओर चल दी।

‘‘ठीक है श्रीवास्तव साहब! कोई टेंशन नहीं। ये सब हमारा रोज का काम ठहरा।’’

थाने का एस. एच. ओ बाहर ही गुप्ता, श्रीवास्तव और किसी नेतानुमा आदमी से बतियाता उन्हें गाड़ी तक छोड़ने आया था। गुप्ता और श्रीवास्तव ने हिकारत भरी निगाह अनुभा पर डाली और पल्लवी को कुछ अजीब-सी नज़र से घूरा। इससे पहले की अनुभा कुछ कहने पाती वे तीनों रूखसत हुए। एस. एच. ओ किसी अर्जेंट काम का हवाला दे कर तुरन्त निकल गया। वहाँ मौजूद थानेदार ने दोनों से कल रात का वाकया सुन कर तुरन्त गलती स्वीकारी और मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की पर अनुभा आज कम्प्लेंट लिखाए जाने पर अड़ी रही। हार कर थानेदार ने अनुभा की कम्प्लेंट रजिस्टर की। पल्लवी ने जोर दे कर अनुभा के साथ घटी पिछली वारदात के बारे में हुई कार्यवाही की बाबत थानेदार से पूछा तो उसने कंधे ऐसे झटकारे जैसे साफ-शफ्फाक कमीज़ पर नामालूम-सी कोई धूल छाड़ रहा हो। अनुभा सोच में पड़ गई जब उसके साथ घटी घटना पर इस तरह की ठंडी कार्यवाही हो रही है तो आम आदमी की क्या बिसात?

‘‘तफ्तीश में समय लगता है मैडम। ’’ कह कर उसने एस. एच. ओ. पर सारी जिम्मेदारी डाल दी और मामले से तुरन्त अलग हो गया। घर लौटते समय पल्लवी अपने परिचितों और रसूख वाले कुछ लोगों से इस मामले को लेकर संपर्क करती रही। परेशान अनुभा सामने की ओर देखकर ड्राइव करते हुए सोच के महीन रेशों में उलझी हुई थी। उस पर लगे इल्ज़ाम का फैसला हुए बिना, उसका पक्ष जाने बिना सामान्य नागरिक अधिकार से भी उसे वंचित किया जा रहा था। उसकी आवाज़ को कैद करने की कवायदें जारी थीं। वह कोरी भावुकता वाली कोमल कल्पनाओं का संसार बुने तो ठीक कोमल से कठोर की ओर बढ़ेगी तो चकनाचूर कर दी जाएगी।

शाम को ज्योति की एग्ज़ीक्यूटिव के लिए सदस्यों की भीड़ जुटनी शुरू हुई। विनय गौर कर रहे थे हर बार इन मीटिंग्स में बामुश्किल चार-पाँच लोग ही जुटते थे। ऐसी भीड़ तो तभी आती थी जब कोई फैसलाकुन मीटिंग हो और वोटिंग की नौबत आ जाए या पहले से तय बात मनवानी हो। अगले ही पल मन के संशय को उन्होंने धिक्कारा- हो सकता है संवेदनशील मुद्दा है इसलिए सब आए हों। लेकिन मीटिंग सोची-समझी दिशा में ही आगे बढ़ी।

‘‘देखिए! वे हमारे यहाँ की सम्मानित महिला हैं, हमें उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेनी ही चाहिए।’’ विनय से रहा न गया। उन्होंने अपने समर्थन के स्वरों को टटोला पर वहाँ आत्मीयता और समझदारी की जगह रोष ने सिर उठाया। सब जैसे अनुभा के प्रति विनय के सहानुभूतिपूर्ण शब्दों की ताक में बैठे थे।

‘‘हम क्यों लेंगे उसकी जिम्मेवारी?...हमारे धर्म, रीति-रिवाजों को गलियाती है। इतनी दिक्कत है तो चली जाए दूसरे देश... वहाँ सब आरती उतारेंगे इसकी। यहाँ चुप रहा नहीं जाता, वहाँ बोल कर देखे।’’ प्रेसिडेंट की आवाज़ गरजी। ये आवाज़ विनय को चुप कराने के लिए गरजी थी पर विनय का साहस चुका नहीं-

‘‘याद कीजिए, आप ही लोगों ने उनका सम्मान किया था... आज इतनी जल्दी सब बदल गया?’’

‘‘वो तो इसलिए कि हमारे काम आएगी पर ये तो... जो औरत अपने धर्म की सगी नहीं हुई किसी के क्या काम आएगी? ऐसी दोगली को यहाँ रहने का क्या हक है प्रेसिडेंट साहब?’’ ट्रेज़रार ने तीखी नफरत से भरे लहज़े में कहा।

‘‘छोड़िये न विनय जी! आप किन चक्करों में पड़ रहे हैं? कल फिर कोई दल-वल आ गया तो किस-किसको रोकेंगे ?’’ वाइस प्रेसिडेंट चौहान जी ने मुलायमियत से भर कर कहा।

‘‘हमारी राय तो ये है कि इसके होने से हमारे यहाँ खराब असर पड़ेगा। फिर उस रात को पुलिस वाली बात... कौन जाने सच ही हो। हमारी लड़कियां इसके रंग-ढंग में बहें इससे पहले ही इससे फ्लैट खाली करवाया जाए।’’ तीन महिला एग्ज़ीक्यूटिव स्वर भी अनुभा चौधरी के विरोध में उठे।

‘‘एग्ज़ीक्यूटिव को ये हक किसने दिया कि किसी को रखे या निकाले... मकान-मालिक का फैसला है और उसका एग्रीमेंट है किराएदार के साथ।’’ विनय अपनी बात पर अड़े रहे।



‘‘क्या बात है विनय साहब! आप बड़ा इंटरेस्ट दिखा रहे हो?... यों भी आपका बड़ा उठना-बैठना है मैडम के साथ।’’ पाहवा जी ने विनय की आवाज़ को घायल करने का अपना अचूक बाण निकाला। कई चेहरों पर एक साथ एक भद्दी मुस्कान तैर गई। विनय अवाक रह गए। उन्हें लगा अनुभा का साथ देने के जुर्म में वह भी अकेले कर दिए गए हैं। एक निर्भीक आवाज़ की रक्षा के लिए उनके भीतर उमड़ते सवालों पर न सिर्फ झटके से दरांती चला दी गई बल्कि उनके चरित्र को भी कटघरे में खड़ा कर दिया। बेहद पीड़ा से सब को देखते रह गए। पाहवा का निशाना ठीक जगह लगा। एक सहज आदमी मर्म पर प्रहार झेल कर टूट कर बिखर जाए, चुप हो जाए या फिर अपने बचाव के रास्ते खोजने में उसका मूल मुद्दा ही धुंधला जाए। विनय आहत हुए पर चुप नहीं-

‘‘क्या किसी को असहमति का कोई हक नहीं है? क्या किसी की असहमति के कारणों को जानने का धैर्य भी हमने खो दिया है? अजीब हालत है। हमारी संस्कृति ने तो बहुत-सी विदुषियों को सम्मानित किया है। आप अपनी जिस संस्कृति की दुहाई दे रहे हैं वहाँ सीता, मीरा जैसी असहमत और राधा जैसी उनमुक्त स्त्री के लिए भी सम्मान है। उनकी बात जाने भी दें तो इतिहास में हमें और भी बहुत-सी ऐसी स्त्रियां... ’’

‘‘बस-बस, इतिहास पर लैक्चर सुनने नहीं आए हैं। वो औरत नहीं एक घटिया विचार है। ऐसे लोगों की नकेल कसनी ही पड़ती है और वो क्या करेगी हमारी सीता-राधा की बराबरी? पुलिस क्या यूं ही आ जाती है घरों में? बंद करो अपनी बकवास... अब उसे यहाँ से निकालना ही होगा। अजीब हाल बना रखा है जिसे देखो मुँह उठाए देश और उसकी पवित्र संस्कृति को गलिया रहा है। ऐसा नहीं चलेगा...अपनी नाक के नीचे तो बिल्कुल नहीं।’’ शर्मा जी बोले तो कई सिर उनके समर्थन में हिले।

मीटिंग चलने तक विनय को कुछ बोलने नहीं दिया गया। हताश कदमों से विनय घर लौटे। पूरी बेशर्मी के साथ विनय को चुप करा दिया गया था। अब विनय किस मुँह से अनुभा चौधरी को उम्मीद दिलाते? विनय ने तो अनुभा को सब ठीक होने की तसल्ली बहुत विश्वास के संग दी थी। विनय घर लौटे तो प्रीति कुछ कहने को आगे बढ़ी ही थी कि विनय का मायूस चेहरा और थके हुए कंधे देखकर चुप रह गई। कुर्सी पर अपने निढाल शरीर को सौंप कर विनय ऑफिस की घटना पर सोचने लगे। वह जान रहे थे अनुभा चौधरी एक धधकते ज्वालामुखी के आगे एक मामूली जर्रा है। ज्वालामुखी जो भीतर ही भीतर रहस्य की तरह लावा और आग सुलगा रहा है । रहस्य जो न जाने कब मूर्त रूप ले लेगा। सारा माहौल अनुभा के लिए एक मकड़जाल बुन रहा है। उसे नेस्तनाबूद करने की सारी कवायदें जारी हैं। वो लिखना तो दूर कलम उठाने से कतराए। सोचना तो दूर हमेशा आतंक में घिरी रहे। साहस से आगे आना तो दूर आत्मरक्षा के तरीकों में कैद कर के खत्म कर दी जाए।

मीटिंग के बाद विनय की ओर से किसी भी तरह की कोई सूचना न पा कर अनुभा ने अपनी सहज बुद्धि से इस चुप्पी का अनुमान लगा लिया। मदद की एक आवाज़ को किन चतुर तरीकों से खामोश किया गया होगा अनुभा समझ पा रही थी। आज की शाम उसे बेहद अकेला कर गई। अगली सुबह अनुभा ने बहुत उम्मीद के साथ अखबार उठाए। उसे लग रहा था इस घटना को लेकर हलचल मच जाएगी पर अखबार देख कर वह हैरान रह गई। उससे जुड़ी खबर एक छोटे से हिस्से में सरका दी गई थी।

‘‘ क्या खबर तभी बनेगी जब किसी की जान जाएगी?’’ पल्लवी चुप न रही और अखबारों के उन पत्रकारों को फोन करके इस मजाक की वजह पूछने लगी।

 अनुभा देर तक शांत रही। सारी हलचलों के बीच एकदम शांत। तीखे सच का सामना करने वाले इन दिनों में उसे एक हैरानी और होती थी कि पहले बुरे से बुरे वक्त में भी लोग असहमतियों का सम्मान किया करते थे। चाहे मंत्री हों, संस्थाएं या कोई और। उसकी कलम कभी कांपी न थी और उसके तल्ख विचारों पर विरोधियों ने भी अभिमान किया था। पर आज हर असहमत दुश्मन बना कर अकेला किया जा रहा है। कितने ही दोस्तों के अनुभवों ने बताया था कि अब इस पेशे में पहले जैसी आजादी नहीं रही। शासन-प्रशासन के आंख-नाक-कान इन दिनों काफी चौकन्ने हैं। अब कितनी बातें दबे-छिपे ढंग से कहनी-लिखनी पड़ती हैं। हत्यारे समय ने शब्दों पर पहरेदार बिठा दिए हैं। अनुभा सोचती ये कैसा आजाद देश है जहाँ गुलामी की जंजीरें हर मोड़ पर खड़ी हैं। इन सब निराशाओं में राहत की बात यही थी कि अब भी अनुभा जैसे लोग बाकी थे। पल्लवी उसके सामने थी। जो होगा देखा जाएगा- ऐसा सोच कर और सब बातों से ध्यान हटाकर अनुभा ने अपने कॉलम के लिए नया लेख धर्मसत्ता और स्त्रीलिखने का मन बनाया। डेडलाइन नजदीक थी।

अगले दिन बैंक से आ कर विनय, अनुभा से जुड़़े सारे घटनाक्रम पर सोच ही रहे थे कि बाहर से घर में दाखिल हुई प्रीति ने दो टूक कहा-

‘‘अब तो खत्म हो ये किस्सा। मामूली किराएदार ही तो है। सब लोग कहेंगे तो चली जाएगी। यहाँ सोसायटी में हमें शान्ति भी तो चाहिए।’’

‘‘क्या सिर्फ शान्ति की जरूरत होती है समाज को और किसी चीज की नहीं ?’’ विनय समझ गए इशारा कहाँ है। एक घर जो अनुभा के लिए हमदर्दी रखता था वहाँ भी आज उसके लिए नाराज़गी थी।

‘‘समाज का ठेका अकेले तुमने ले रखा है? बाकी लोग बेवकूफ हैं क्या?’’ प्रीति चुप न हुई।

‘‘इसमें ठेके की क्या बात है? मैं भी तो समाज में रहता हूँ। तुम भी तो रहती हो। सबसे बड़ी बात तो ये है कि क्या अनुभा अपने तरीके से लिख-पढ़ नहीं सकतीं?’’

‘‘मैं ये सब नहीं जानती। लेकिन इतना जान गई हूँ कि कल को तुमने उसका साथ दिया तो हमारा यहाँ रहना मुश्किल हो जाएगा। उसका क्या है वो तो किराएदार है, हमें तो यहीं रहना है। बस अब तुम अपने लोगों से मिल कर रहो... पहले की तरह। एक चुप सौ को हराए।’’

‘‘प्रीति! कम से कम तुम तो ऐसी बात न करो... तुम तो हर मुसीबत में हौसला बन कर मेरे साथ रही हो। याद करो जब हमारी मांगों को लेकर बैंक की लंबी हड़ताल चली थी।’’ विनय ने याद दिलाया।

‘‘वो तो नौकरी की बात थी।’’

‘‘बात नौकरी की नहीं थी... अन्याय की थी।’’

‘‘होगी। पर उस औरत की वजह से हम क्यों मुसीबत में पड़ें? उसकी वजह से हम बुरे बन रहे हैं।’’

‘‘ये तो वही बात हो गई कि समाज में अच्छे लोग हों, सोचने वाले हों, काम करें पर हमारे आस-पास न रहें।’’ विनय कल की मीटिंग में जो न बोल पाए थे प्रीति के सामने उन बातों को कहकर उन्हें जरा-सी राहत मिली। शाम ढल रही थी। आसमान हर हरकत से परे विनय को अपनी तरह उदास लग रहा था।

आज पूरा मन बना कर अनुभा ने लेख पर काम करना शुरू कर दिया। लेख की आधारभूमि यही थी कि समाज में धर्म चाहे कोई भी हो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हर कट्टरपंथ और कठमुल्लापन के आगे औरतों की स्थिती एक-सी ही है। पिछले कुछ दिनों में अपने तैयार किए नोट्स अनुभा की मेज़ पर फैले थे। आज अनुभा घर में अकेली थीं। पल्लवी को किसी खास रिपोर्टिंग के लिए बाहर जाना पड़ा था और दोस्तों के बहुत कहने के बावजूद अनुभा ने आज किसी को घर नहीं बुलाया था। काम करते-करते काफी समय बीत गया। रात गहरा गई थी पर अनुभा को आज एक क्षण दम लेने की फुर्सत नहीं थी। लंबे समय कागज़ों से तथ्य बटोरते, नोट्स को सुधारते और स्क्रीन के आगे बैठ कर उसकी आंखें भी भारी हो चलीं। एक ही मुद्रा में बैठने से गर्दन और कंधों में भी अब दर्द होने लगा। भूख-सी महसूस हुई तो अनुभा हाथ से गर्दन सहलाती रसोई की तरफ बढ़ी। आधी रात का समय था। कुछ बनाने की बजाय फ्रिज में रखे सुबह के पुलाव और दही को थाली में लिए वह ड्राइंग रूम तक आई तो देखा घर के बाहर की स्ट्रीट लाइट गुल है। अनुभा ज्यों ही पर्दे सरकार देखने को बढ़ी उसे कुछ फुसफुसाहटें सुनाई पड़ीं। ऐसा महसूस हुआ बाहर कुछ लोग थे। इतनी रात को? इस वक्त? मेरे घर के ठीक बाहर? आखिर क्यों? अनेक सवालों के साथ पर्दे की ओर बढ़ी अनुभा तुरन्त सावधान हो गई। सबसे पहले उसने दरवाजे की चिटकनी और ताले का मुआयना किया। भागकर पीछे के गेट को चेक किया। भागते-भागते इधर-उधर हो चुके मोबाइल और टार्च को हाथों की गिरफ्त में लिया। जब तक वह संभलने पाती बाहर शीशा टूटने की तेज़ आवाज़ आई। इससे पहले अनुभा चीखती, भागते कदमों की आवाज उसने सुनी। धड़कते मन से हिम्मत करके अनुभा ने पर्दा हटाया और टार्च से बाहर की ओर देखा। बाहर उसकी गाड़ी अपनी जगह खड़ी थी। अनुभा को समझने में देर न लगी कि शीशा उसीकी गाड़ी का तोड़ा गया है। ज्यों ही अनुभा ने बाहर की लाइट जला कर लकड़ी का दरवाजा खोला बाहर काली स्याही से फर्श भीगा था। जाली का दरवाजा स्याही से तर था जिसके छींटे लकड़ी के दरवाजे पर भी थे। एक क्षण के बाद मदद या गुहार लगाने की बजाय अनुभा ने अपने थके दिमाग और शरीर को सोफे पर धकेल दिया। खाना थाली में यों ही छूट गया। शब्दों के प्रहार अनुभा ने पहले भी झेले थे पर आज स्थितियां भिन्न थीं बल्कि अबूझ थीं। हमला हो रहा था पर बेशक्ल था। हमलावर साए के रूप में थे। बेहद करीब थे, उनकी पदचाप सुनाई देती थी पर चेहरा नदारद था। उनकी पदचापें पास बिल्कुल पास आतीं और खौफ रच कर अंधेरे में गायब हो जातीं। अनुभा को लगने लगा जैसे उसके चारों ओर भयानक अंधेरा रचा जा रहा है जहाँ उसे कुछ दिखाई न दे। वो लड़खड़ाए और अंधेरा उसे दबोच ले। हमलावर नयी साजिशों के साथ थे। उनके न चेहरे थे, न आवाजे़ं पर हर जगह उनके रचाए खौफ के निशां थे। बहुत-सी फुसफुसाहटें थीं जो अनुभा के सामने आने से पहले खौफ रच कर किसी अदृश्य खोह में समा जाती थीं। एक बड़ा खेल चल रहा था अनुभा को परास्त करने का। अचानक अनुभा ढगमगाते कदमों से मेज के पास आई। पानी से भरा गिलास उठाया और एक ही क्षण में उसे खाली कर दिया। कुर्सी सरकाई और बहुत हिम्मत के साथ उस पर बैठी। कंपकंपाते हाथ को साध कर फिर से लेख लिखना शुरू किया। समय घड़ी की सुईयों से परे जा बैठा। एक जुनून में अनुभा लिखती चली गई।

‘‘तो क्या सोचा है आपने विनय जी?’’ अगले दिन बैंक से घर लौटने पर विनय को सोसायटी के ऑफिस के बाहर उसके इंतजार में खड़े ज्योति के मेंबर्स मिले।

‘‘सोचना क्या है इसमें?’’ विनय ने साफ-साफ कहा। अब तक उन्हें अनुभा के संग घटी घटना की खबर प्रीति के फोन से मालूम पड़ गई थी और उनके भीतर गुस्सा उबल रहा था। उन्हें पूरा शक था हमला अंदर से ही किसी ने करवाया है।

‘‘या तो आप इस्तीफा दो या उस औरत को निकलवाओ... फ्लैट के मालिक से बात करो। आपकी तो सीधी बातचीत है।’’ पाहवा ने उन्हें अल्टीमेटम देते हुए कहा जिस पर सभी की मौन और मुखर स्वीकृति थी।

‘‘मैं क्यों दूं इस्तीफा? बाकायदा चुनाव लड़ कर आया हूँ सबके समर्थन से। लोगों ने चुना है मुझे। मैंने इतने साल सोसायटी को अपना समय दिया उसके कोई मायने नहीं।’’ पिछली मीटिंग में दबाव डाल कर चुप करा दिए गए विनय आज खामोश न रहे।

लोग आज भी कोई बात सुनने को तैयार नहीं थे। धैर्य अब उनके शब्दकोश का हिस्सा नहीं था। वे विनय के अब तक किए कामों को भूल कर गाली-गलौज पर उतर आए। पाहवा तो हाथापाई पर भी उतर आता लेकिन विनय ने उससे बात तक नहीं की। लोगों की घेराबंदी को अपने आत्मविश्वास से तोड़ कर विनय घर में घुसे तब तक प्रीति को गेट पर घटी इस घटना की सूचना आगे रहने वाली उसकी सहेली ने इंटरकॉम पर दे दी।

‘‘वो जैसा चाहते हैं तुम वैसा कर क्यों नहीं देते? मैं कुछ नहीं जानती बस तुम अभी, इसी वक्त इस्तीफा दे दो और शान्ति से रहो। पाहवा का लड़का इतना बदमाश है, प्रापर्टी डीलर है या जाने क्या काम करता है? और तुम हो कि पाहवा से सीधा उलझ रहे थे।’’ विनय के घर में घुसने की देर थी कि प्रीति ने सवाल खड़े कर दिए। गुस्से में होने के बावजूद प्रीति बेहद डरी हुई थी।

‘‘बात उलझने की है ही नहीं, समझने की है जिसे तुम नहीं समझ रही हो।’’

‘‘ मैं समझ रही हूँ विनय! पर तुम भी समझो। कल को हमारे बच्चे बाहर निकलेंगे उन्हें कुछ हो-हवा गया तो कौन होगा जिम्मेदार? और तुम पर ही किसी ने कुछ...  हमारा क्या होगा विनय? ये तो सोचो? मेरी मानो तुम आज ही इस्तीफा दे दो।’’  प्रीति की आवाज़ रूंधने लगी।

‘‘ऐसे कैसे दे दूं इस्तीफा? मेरी गलती क्या है कोई बतलाए जरा? कोई नियम-कायदा है कि नहीं? जब कोई अच्छा न लगे उस पर हमला कर दो। किसी की बात पसन्द न आए तो उससे इस्तीफा ले लो।’’

‘‘देखा न अभी नियम-कायदा। कितनी बद्तमीज़ी से तुमसे बात की गई। कल को जाने और क्या हो?’’ प्रीति के भय की वजहें बेहद साफ थीं। खतरा उसे घर के दरवाजे पर खड़ा दिखाई दे रहा था।

‘‘क्या अकेले आदमी की लड़ाई, लड़ाई नहीं होती प्रीति? अकेला आदमी झुंड में घिर जाए तो क्या उसे अपने लिए आवाज़ उठाने का भी हक नहीं? कोई क्या इसलिए उसकी मदद को आगे नहीं आएगा कि उसके समर्थन में संख्या के आंकड़े पुख्ता करने वाले लोग नहीं हैं? आज अनुभा चौधरी है कल हम भी तो हो सकते हैं, परसों कोई और।’’ इतना कह कर विनय ने प्रीति के दोनों कंधों को अपने मजबूत इरादे से सहलाया और बिना पानी पिए अनुभा चौधरी के घर की ओर निकल गए। विनय सीढ़ियों से उतर कर नीचे आए ही थे कि ऊपर बाल्कनी से प्रीति की आवाज़ आई-

‘‘ठहरो विनय! मैं भी आती हूँ।’’


सम्पर्क - 

ई-112, आस्था कुंज अपार्टमेंट्स, 
सेक्टर 18, रोहिणी
दिल्ली-89

ई-मेल - pragya3k@gmail.com

फोन - 9811585399

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

  1. असहमति का साहस जैसे हमारे समाज ने छोड़ ही दिया है. अथवा ये कहे कि सहमति की दलाली ही चारों तरफ फैली हुई है. जिसमें किसी का असहमत होना अनायास ही आज नागवार गुजरता है. धर्म, समाज और मर्यादा के आज हम इतने बड़े पुतले बन गए हैं कि किसी का कुछ बोलना हमारे अस्तित्व को भेद देता है और हम भीड़चाल में बदल जाते हैं. ये आपातकाल का नहीं बल्कि उससे भयानक दौड़ है. या यू कहें कि आज का तात्कालिक समय मनुष्यता के बंदरदौड़ का शिकार है. तार्किक सवालों का जवाब देना हमने बंद कर दिया है. उसके बदले किसी के लिए भी बस एक शब्द अनायास ही चस्पा कर देने का हमने फैशन शुरू कर दिया है. यह 'देशद्रोही' है. यह लड़की 'चरित्रहीन' है. यह धार्मिक, संस्कारी रस्मो-रिवायत और अपने संस्कृति के बचाने की कवायद नहीं बल्कि इंसानियत के खात्मे का तरीका है. ये सवाल जरूर आज चारों तरफ कौंधते से दिखाई देते हैं -
    ‘‘ कहाँ है आपात्काल अनुभा? आराम से उठिए, काम पर जाइए, खाना खाइए, टी.वी. देखिए, इश्क-मोहब्बत कीजिए, सैर-सपाटा-खरीदारी कीजिए, लंबी तान कर सो जाइए- कहाँ है आपात्काल? पर आप जब बोलते हैं, सोचते हैं, सवाल करते हैं तब यकीन जानिए दुनिया वैसी नहीं रहती।’’
    इन सारी उलझनो के बीच विनय का लगातार संघर्षरत रहना किसी विशेष जज्बे का प्रतीक तो नहीं है पर आज के समय में इतना होना ही उसे विशेष बना जाता है. आज के समय में इंसानियत के लिए खड़ा होना एक अद्भुत, आश्चर्यजनक पहल लगती है जो चंद साल पहले एक आम बात हुआ करती थी.
    विनय जब अनुभा के पास उसका साथ देने जा रहा है तो प्रीति की आवाज़ - ‘‘ठहरो विनय! मैं भी आती हूँ।’’ इंसानियत की गुंज है जो हमेशा रहेगी. बस उसे जिन्दा रखने और झकझोरने भर की जरूरत है...


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  2. हिन्दी मासिक पत्रिका 'परिकथा' के नववर्ष अंक में अभी 'स्याह घेरे' नामक कहानी पढ़ी। जो वर्तमान समय के राजनैतिक - सामाजिक परिदृश्य के परिपेक्ष्य में परिपक्व अभिव्यक्ति सी प्रतीत होती है।
    जो काल के चक्रीय साँचे में आज के राजनैतिक प्रपंचों की हकीकत बयान करता है। आज समाज में आस्था एवं धर्म के ढकोसलों में विभिन्न प्रकार की गतिविधियां स्वार्थपरक् राजनीति से प्रेरित होती है। जिन्हे आज ना सिर्फ समझने की जरुरत है, बल्कि सावधान होने की भी आवश्यकता है, कहीं हमारी भावनाओं के पिटारे को ढाल बनाकर हमें मात्र इस्तेमाल कर खोखला बनाने की कोशिश तो नहीं?
    इस कहानीं के माध्यम से लेखिका ने सामाजिक, धार्मिक पूर्वाग्रहों पर भी चोट की है, जिसका मूल समाज में स्थापित आडम्बरों एवं दकियानूसी परम्पराओं की कुढ़न है।
    अंतत: संदेशवाहक लेखन हेतु प्रेरणास्रोत लेखिका एवं शिक्षक प्रज्ञा मैम को ढेरों बधाई! उम्मीद है आगे भी हमें कलम की अभिव्यक्ति से नये-नये संदर्भो को जानने समझने का मौका मिलेगा!

    ~#स्याह #घेरे.

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  3. मेम की कलम से अभिव्यक्त आज के समाज को प्रस्तुत करती कहानी 'स्याह घेरे' एक सशक्त रचना है। अनुभा का लेखन कार्य निष्पक्ष मीडिया की ओर संकेत करता है,वहीं विनय एक ऐसा चरित्र है जो सच्चाई का साथ कभी नहीं छोड़ता।प्रीति एक ऐसी पत्नी व माँ जिसे अपने परिवार के लिए बहुत डर लगता है लेकिन उसका यह कथन ‘‘ठहरो विनय! मैं भी आती हूँ।’’ कहानी को अर्थ सा दे जाता है कि कितनी भी परेशानियाँ आए गलत के प्रति सदैव असहमति होनी चाहिए।

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  4. कहानी अच्छी है। पर कहानी पग पग पर यह अहसास दिलाती रही कि इस सोसायटी में विनय अकेला क्यों पड़ता गया? उस ने कुछ लोगों को अपने और अनुभा के पक्ष में खड़ा करने की कोशिश क्यों नहीं की? अंत में उसे अपनी पत्नी के साथ भी जूझना पड़ा।

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  5. 'स्याह घेरे' शानदार कहानी है पर गहरे सवाल भी छोड़ती है - विनय जैसा कनविक्शन वाला इंसान निरंतर अकेला क्यों पड़ता जाता है...अनुभा पर होता आक्रमण देखते देखते उसकी ओर निशाना साध लेता है।इस प्रवृत्ति की शिनाख्त भी होनी चाहिए।पर इस लगातार गहराते अंधेरे में रोशनी बन कर आस जगाती कहानी के लिए प्रज्ञा को हार्दिक बधाई।
    - यादवेन्द्र, रुड़की

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  6. बहुत सारे सवाल उठाती लाजवाब कहानी ... जिस का असर पाठक पर बहुत देर तक रहता है |

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