चंद्रेश्वर की कविताएँ
परिचय
30 मार्च 1960 को बिहार के बक्सर जनपद के एक गाँव आशा पड़री में जन्म।
पहला कविता संग्रह 'अब भी' सन् 2010 में प्रकाशित। एक पुस्तक 'भारत में जन नाट्य आन्दोलन' 1994 में प्रकाशित।
'इप्टा आन्दोलन : कुछ साक्षात्कार' नाम से एक मोनोग्राफ 'कथ्यरूप' की ओर से 1998में प्रकाशित।
दूसरा कविता संग्रह 'सामने से मेरे' रश्मि प्रकाशन से हाल ही में प्रकाशित।
वर्तमान में बलरामपुर, उत्तर प्रदेश में एम. एल. के. पी. जी. कॉलेज में हिंदी
के एसोसिएट प्रोफेसर।
आज लोगों के दिल-दिमाग में एक अजीब सी
हवस भरी हुई है। ज्यादा से ज्यादा धन-संपत्ति अपने
पास कर लेने की हवस ही मुख्यतः आज के उस भ्रष्टाचार की जड़ है जो समाज के ताने-बाने
को छिन्न-भिन्न कर दे रही है। समाज का उच्च वर्ग
जिसमें नेता और नौकरशाह, ठेकेदार, दलाल आदि शामिल हैं इसमें पूरी तरह मुब्तिला है। जनसेवा के नाम पर लूट-पाट का बाजार आज कुछ ज्यादा ही गरम दिख रहा है। ऐसे में महावीर
स्वामी, गौतम बुद्ध और कबीर याद आते हैं। कबीर का यह ख्यात दोहा याद आता है –
साईं इतना दीजिए
जामे कुटुम समाय
मैं भी भूखा न रहूँ,
साध न भूखा जाय
कवि चंद्रेश्वर इसी परम्परा को आगे बढाते हुए कहते हैं – ‘बड़ी-बड़ी गाड़ी कि बड़ा-बड़ा
मकान/ बड़ा-बड़ा प्लाट और दुनिया जहान/ शब्द ज़्यादा कि विचार कम/ खाँची भर अनुभव
कि संवेदना कम/ सियासत ज़्यादा और नतीजा कम/ सब ला खड़ा करते हैं ख़िलाफ आपको साहब/
धर्म, ज़िन्दगी और अंततः/ इन्सानियत
के!’ चंद्रेश्वर हमारे समय के सजग सचेत कवि हैं, जिनकी कविताएँ घनीभूत अनुभवों की परिणति के रूप में दिखायी पड़ती हैं। वे यह जानते हैं
कि शोषक बन कर शोषितों के बारे में बात नहीं की जा सकती। इसके लिए शोषितों के स्तर
पर खुद को उतारना पड़ता है। हाल ही में चन्द्रेश्वर जी का एक कविता संग्रह 'सामने से मेरे' रश्मि
प्रकाशन लखनऊ से आया है। आज हम पहली बार पर इस संग्रह की कुछ चुनिन्दा कविताएँ प्रस्तुत
कर रहे हैं। तो आइए आज पढ़ते हैं चंद्रेश्वर की कविताएँ।
चन्द्रेश्वर की कविताएँ
हरियाली का सफ़र
जिस जगह से उखड़ कर जाता है पौधा
जिस जगह को दूसरी-तीसरी, चौथी या पाँचवीं बार
हर बार कुछ मिट्टी बची रह जाती है उन-उन जगहों की उसकी जड़ों में
जिन-जिन जगहों से उखड़ता है वह
जिस जगह से उखड़ कर जाता है पौधा
जिस जगह को दूसरी-तीसरी, चौथी या पाँचवीं बार
हर बार कुछ मिट्टी बची रह जाती है उन-उन जगहों की उसकी जड़ों में
जिन-जिन जगहों से उखड़ता है वह
इस तरह पौधे के साथ -साथ सफ़र करती रहती है मिट्टी भी
मिट्टी से मिट्टी का यह महामिलन ही साखी है
हरियाली का!
कालिख
माँ रोज़ माँजती
चिकनी राख और पानी से
शाम को शीशा
लालटेन का
रात भर जलती लालटेन
हम सुबह उठते सो कर
देखते कि जम गई है
कालिख फिर
लालटेन के शीशे में
न माँ रुकी कभी
न कालिख ही थमी
कभी!
देखा है
देखा है मक़तूल बनते क़ातिल को
रंक बनते राजा को
माटी में मिलते महल को
लुट जाते लुटेरे को
रोते-चीखते अत्याचारी को
हाथ पसारे दाता को
चिथड़े-चिथडे होते हिटलर को
शासन की बंदूक को भी
देखा है टूटते
होते जख़्मी
रात को देखा है
सहसा बदलते
सुबह में!
न हो सामना घटाव से
मैंने प्यार किया है तो घृणा कौन झेलेगा
चुने ख़ूबसूरत फूल मैंने तो उलझेगा गमछा किसका
काँटों से
बनाये अगर मित्र मैंने तो शत्रु कहाँ जायेँगे
सुख ने सींचा है मुझे तो तोडा है
बार-बार दुःख ने
मेरे जीवन में शामिल है सोहर तो मर्सिया भी
ऐसे कैसे होगा कि जोड़ता चला जाऊँ
न हो सामना घटाव से
लिया है जन्म तो कैसा डर मृत्यु से!
ज़्यादा-ज़्यादा
ज़्यादा-ज़्यादा कबाब, ज़्यादा-ज़्यादा शबाब
ज़्यादा-ज़्यादा ब्रेड, ज़्यादा-ज़्यादा मक्खन
ज़्यादा-ज़्यादा मुर्गा, ज़्यादा-ज़्यादा मटन
छौंक-बघार ज़्यादा-ज़्यादा, ज़्यादा-ज़्यादा चिक्कन
ज़्यादा-ज़्यादा दारू, ज़्यादा-ज़्यादा चिक्खन
बड़ी-बड़ी गाड़ी कि बड़ा-बड़ा मकान
बड़ा-बड़ा प्लाट और दुनिया जहान
शब्द ज़्यादा कि विचार कम
खाँची भर अनुभव कि संवेदना कम
सियासत ज़्यादा और नतीजा कम
सब ला खड़ा करते हैं ख़िलाफ आपको साहब
धर्म, ज़िन्दगी और अंततः
इन्सानियत के!
तुम्हारा डर
एक हाथी जितनी जगह छेंकता है
उसमें असंख्य चीटिंयाँ रह लेंगीं
एक राजा की बड़ी हवेली के नीचे
जो ढँकी है पृथ्वी
उतनी पृथ्वी पर तो बसाई जा सकती है
ज़रूरतमंद इंसानों की एक पूरी बस्ती
तुम इतने बड़े क्यों बने
कि तुम्हारा डर भी बनता गया बड़ा
छोटे आदमी का डर होता होगा
निश्चय ही छोटा!
कलियुग में त्रेतायुग का रहस्य
राम की प्रतिमा की लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई की बात से
पता चलता था कि वह जन-जन का हृदय-सम्राट
जन-जन के हृदय से विस्थापित हो कर सिमट गया है
प्रतिमा तक केवल
यह त्रेता युग की वापसी नहीं थी विशुद्ध माया थी यह
कलियुग विस्तार पा रहा था इससे सोलह हज़ार गुना
रात भर में ही दन दनादन
यह खुला खेल था फ़रूखाबादी अंदाज़ में
सत्ता -सत्ता का
ऐसी माया सत्ता की
सिर्फ़ राजा राम का ही नहीं कर रही थी इस्तेमाल
वह हाथ धो कर पड़ी थी पीछे
गांधी, भगत सिंह, पटेल और अंबेडकर के भी
इनकी प्रतिमाओं की जैसे-जैसे बढ़ती जाती थी संख्या
वैसे-वैसे दफ़न होते जाते थे
ज़मीन की सात परतों के भीतर इनके विचार
हम एक ऐसे दौर में थे जीने को लाचार जब
संस्कृति का मतलब रह गया था
विचार का बदलते जाना पाषाण में!
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