रोहिणी अग्रवाल का आलेख ‘झोपड़पट्टी में धड़कती ज़िन्दगी और उलझती समस्याएं’
महानगरीय सभ्यता ने मानव
सभ्यता के इतिहास में एक नयी अमानवीय संस्कृति को जन्म दिया जिसे हम ‘झोपड़पट्टी
संस्कृति’ नाम से जानते हैं. रोजी-रोटी की तलाश में महानगर आए निम्नवर्गीय (आर्थिक)
पृष्ठभूमि वाले लोगों का शरणगाह बनी ये झोपड़पट्टीयाँ आंसू, अभाव और हाड़तोड़ मेहनत
के बावजूद दो समय की रोटी के लिए उनकी जिल्लत भरी जिन्दगी का गवाह होती हैं. एक
बेहतर जिन्दगी की आस में यहाँ के बाशिन्दे मुड़ते हैं उस अंधी गली की तरफ जो अपराध
और माफियागिरी के लिए उर्वर जमीन बन जाती है. इस जिन्दगी पर साहित्यकारों ने
सूक्ष्म दृष्टि डाली है और हिन्दी साहित्य को बेहतरीन रचनाएँ दी हैं. इसी क्रम में
आलोचक रोहिणी अग्रवाल ने जगदम्बा प्रसाद दीक्षित की बहुचर्चित कृति ‘मुर्दाघर’, मंजुल
भगत की कृति ‘बसन्ती’ जगदीश चंद्र की कृति ’नरककुंड में बास’ और मधु कांकरिया की कृति ‘पत्ताखोर’
का एक तुलनात्मक आलोचकीय अध्ययन किया है. तो आइए पढ़ते हैं रोहिणी अग्रवाल का आलेख ‘झोपड़पट्टी
में धड़कती ज़िन्दगी और उलझती समस्याएं’
झोपड़पट्टी में धड़कती ज़िन्दगी
और उलझती समस्याएं
(’मुर्दाघर’, ’बसंती’, ’नरककुंड में बास’ तथा ’पत्ताखोर’ का संदर्भ)
रोहिणी अग्रवाल
’’ ... एक रात वह ए. पी. सी. रोड से शुरु हुई सियालदह और मौलाली के
फुटपाथों से गुजर रहा था कि उसने देखा - बस्तियां ही बस्तियां! खुली, गंधाती, बजबजाती भरी-भरी गृहस्थियां! कुछ ईंट, दो बांस, उपयोग की हुई बैटरी और पोलिथिन के
सहारे फुटपाथों पर ही बनी खुली भूरी काली गृहस्थियां - मोबाइल और फोल्डिंग
गृहस्थियां! ...सामान के नाम पर अल्युमिनियम के बर्तन, एकाध बाल्टी। प्लास्टिक की पानी की
बोतलें। एकाध पोटलियां। कई जगह चटाई और मैला सा कंबल। एकाध टीन का बक्सा या
कार्टन! ...सिलबट्टा भी। वहीं सड़क पर ही दो-दो ईंट को जोड़ कर ... चूल्हा ...हवा के
साथ आते बदबू के भभके ...बहुत तीखी, तेजाबी गंध। पसीना, पेशाब और सड़े हुए कचरे की मिली-जुली गंध।’’ (मधु कांकरिया, पत्ताखोर, पृ0 149)
’’कचरे के ढेर पर घूम-घूम कर अब भी ढूंढ रहा है पागल - एक दुनिया ...जिसको
ढूंढते हो गया पागल़ ...नहीं मिली अब तक! दुनिया ...जिसने कचरा बना कर फेंक दिया
कचरे के ढेर पर। फटे हुए कपड़े। जमे हुए मैल की परतें ...और परतें। चिपके हुए बाल!
एक पागल जिस्म। ...पंख फड़फड़ाती मुर्गियां! दुम हिलाते हुए कुत्ते। गंदे सूअर! एक
कुतिया ...खुजली के जख्म चाटती हुई। डिब्बियां...पन्नियां ...जली हुई सिगरेटें।
जूठन और गंदगी। थूक और बलगम। ढूंढता रहेगा कचरे के ढेर पर ...क्योंकि न ढूंढना
नाउम्मीदी ...हार।’’
(जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, मुर्दाघर, पृ0 86)
’’गुजरे हुए दिन डरा नहीं पाते ...लेकिन डरा रहे हैं आने वाले। रात के
अंधेरे के बदले जो चला आ रहा है ...सुबह का उजाला नहीं...एक और गहरी रात का अंधेरा
है।’’ (मुर्दाघर, पृ0 81)
गगनचुंबी अट्टालिकाओं के परिपार्श्व
में औंधे मुंह पड़ी हैं झोंपड़पट्टियां! वक्त की घिनौनी हकीकत! लेकिन इतनी स्थूल और
सतही नहीं कि अंतरराष्ट्रीय शर्म मिटाने के लिए बुलडोजर चला कर नेस्तनाबूद कर दी
जाएं। देश की समाजार्थिक परिस्थितियों में बहुत गहरे धंस कर जिन खदबदाते
ज्वालामुखी सवालों को उठाती हैं ये झोंपड़पट्टियां, वहां दोषारोपण या जस्टीफिकेशन की बगलें
झांकती कोशिशें वक्त की आंख में धूल झोंकने का जुर्म बन जाया करती हैं। बेशक वक्त
विनीत, विनम्र खामोश हमसफर है मनुष्य का, लेकिन फरेबों और मक्कारियों से भरी
फौलादी ताकतों को धूल चटाने में देरी भी नहीं करता। वक्त चाहता है सवालों के जवाब
- ईमानदार और पारदर्शी! वक्त चाहता है मनुष्यता को लीलती अ-मानवीय शक्तियों की
पड़ताल और उन्मूलन। वक्त चाहता है समूची सभ्यता, संस्कृति और समाज के साथ एक सुसम्बद्ध
इकाई के रूप में व्यक्ति के सम्बन्धों की सतत जांच! एक सहअस्तित्ववादी समन्वयवादी
संवेदनशील समाज की संरचना का स्वप्न!
न! वसुधैव कुटुम्बकम् नहीं। कुटुम्ब तो
उत्पीड़न और शोषण का धारदार प्राचीनतम सांस्कृतिक अस्त्रा है - मखमली म्यान में
लिपटा जिसकी दिलकश बुनावट कला के सम्मोहक तिलिस्मों में ले जा कर मारकाट की
रक्तरंजित क्रूर सच्चाइयों पर परदा डालने लगती है। न!! उत्पीड़ित वक्त तो तमाम
सांस्कृतिक प्रपंचों और छलनाओं, मिथकों और सुरक्षा कवचों से किनारा कर खामोश सवाल को जान की सांसत
बना डालना चाहता है कि औंधे मुह पड़ी ये झोंपड़पट्टियां किस पर लज्जित हैं - अपनी
पारदर्शी सार्वजनिक नंगई पर या भव्य इमारतों की लहलहाती हृदयहीन सर्वभक्षी बेहयाई
पर? कि ये मानवाधिकारों का हनन हैं या
परिणाम? कि औद्योगिक क्रांति का दुष्परिणाम हैं
या विकास की अवधारणा को नए सिरे से परिभाषित करने की अनिवार्यता का नाम? कि जिंदगी की लड़ाई में हारे योद्धाओं
का करुण शोकगीत हैं या सामाजिक संरचनाओं के वर्चस्ववादी तेवरों का फूहड़
प्रत्यक्षीकरण? कि पेट की जरूरत ने इन्हें बिलबिलाता
रेंगता कीड़ा बनाया है या समृद्धि की अंतहीन भूख ने? जिंदगी के भरे-पूरे उत्साह को रौरव नरक
की भट्टी में झोंक देना - क्या यही है ’सर्वाइवल ऑव द फिटेस्ट’ का सार-तत्व? क्रूरता, बदहाली और दरिंदगी के साए में जीवन की
रागात्मक रचनात्मकता और आस्था को उन्नततर करने का स्वप्न? मृगमरीचिकाएं जीवन-दर्शन बन जाएं तो
जीवन को तार-तार होने में देर नहीं लगती। जीवन समग्रता, संतुलन और संवाद का नाम है जहां दो
ध्रुवों में बंट-कट कर जीवन के उल्लास को जिया नहीं जा सकता। झोंपड़पट्टियां विभाजन
को प्रश्रय देती ताकतों के खिलाफ मोर्चाबंदी संभाले मानवीय आस्थाएं हैं जो तमाम
भौतिक रिक्तता और पस्ती के बावजूद सिर पर कफन बांधे हैं।
वाजिब हैं
समाजशास्त्रिायों-अर्थशास्त्रिायों की चिंताएं कि दिन-रात, नर-नारी, पाप-पुण्य, स्याह-सफेद द्वित्वों की तरह द्वित्व
में विभाजित रही अट्टालिका-झोंपड़पट्टी, तो एक गहरी अर्थगर्भित स्वीकृति के साथ सब कुछ पूर्ववत् चलता रहेगा।
यथास्थितिवाद का पोषण और पुनरुत्पादन! झोंपड़पट्टी (स्लम्स) पर बात करने का अर्थ
महानगरीय परिदृश्य में बेघरों-बदहालों की दिन ब दिन बढ़ती संख्या के आंकड़े गिना
देना नहीं है (हालांकि आंकड़े न देने का लोभ संवरण कर पाना भी कठिन है कि यू. एन.
हैबीटैट की ताजा रिपोर्ट के अनुसार कॉमनवैल्थ राष्ट्रों में 327 मिलियन लोग
झोंपड़पट्टियों में रहते हैं या यूं कहें कि हर छठा कॉमनवैल्थ नागरिक झोंपड़पट्टी
में रहने को अभिशप्त है; कि 2001 की भारतीय जनगणना के अनुसार
मुम्बई की कुल जनसंख्या का 54 प्रतिशत यानी 6.25 मिलियन लोग और दिल्ली की कुल
जनसंख्या का 45 प्रतिशत यानी 2.6 मिलियन लोग झोंपड़पट्टियों में रह रहे हैं)।
झोंपड़पट्टी पर बात करने का अर्थ आवासीय सुविधाओं एवं पर्यावरण सुरक्षा के अभाव पर
चिंता करना भर नहीं है (हालांकि काबिलेगौर है कि मुंबई में चार-पांच सदस्यों का एक
औसत परिवार दस वर्ग मीटर से भी कम जमीन पर बने मकान में रहता है। यहां पेय जल के
नाम पर एक सार्वजनिक नल, शौचालय
के नाम पर एक सार्वजनिक शौचालय, रेल की पटरियां या नदी/समंदर के साथ का विस्तृत वीरान भू-प्रदेश है।
प्राइमरी स्कूल और प्राइमरी हैल्थ सेंटर की कौन कहे, बिजली-सड़क भी नहीं।) झोंपड़पट्टी पर बात
करने का एक उद्देश्य यह जरूर हो सकता है कि अमरीका और ब्रिटेन में लगभग खत्म हो
रही झोंपड़पट्टियों की स्थिति के बरक्स हम अपनी राष्ट्र-स्तरीय तैयारी की ठोस
रूपरेखा बनाएं। आर्थिक मामलों के विश्लेषक हरि सूद के अनुसार स्लम्स को खत्म करने
के लिए ब्रिटेन ने औद्योगिक क्रांति के जरिए 1825 से 1900 की समयावधि के बीच जी.
डी. पी. में आठ गुणा तथा अमरीका ने 1900 से 1940 के दौरान अपनी अर्थव्यवस्था में
चार गुणा वृद्धि की। अतः यदि हम अपनी वर्तमान जी. डी. पी. दर आठ प्रतिशत को बनाए
रखें और जनसंख्या वृद्धि की औसत दर को डेढ़-दो प्रतिशत से अधिक न बढ़ने दें तो वर्ष
2025 तक प्रति व्यक्ति जी. डी. पी. दर को दो हजार डॉलर तक ला सकेंगे। इससे न केवल
रोजगार बढ़ेगा बल्कि उसी अनुपात में लोगों का जीवन स्तर भी उन्नत होगा। फलतः
अपवादस्वरूप कुछ परिस्थितियों को छोड़ कर झोंपड़पट्टियां स्वतः ही विलुप्त होने
लगेंगी। दिवास्वप्न नहीं, चुनौती!
पूरा किया जा सकने वाला एक लक्ष्य! लेकिन इसके लिए जरूरी है उन सभी समस्याओं पर
विचार करना जो जनसंख्या विस्फोट ऑैर सिकुड़ती कृषि भूमि पर बढ़ते दबाव की वजह से
रोजगार की तलाश में महानगरों की ओर विकल्पहीन पलायन, महानगरों में अनिवार्यतः घटती आवासीय
जमीन की अनुपलब्धता,
अतिक्रमण
और अवैध बस्तियों की स्थापना की बाध्यता, भू माफिया की गतिविधियों और राजनीतिक पार्टियों की ढुलमुल अवसरवादी
नीतियों के रूप में सतह पर आती हैं। विडंबना है कि झोंपड़पट्टियों के समाजार्थिक
स्तर को समुन्नत करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अब तक एक भी सघन (इंटिग्रेटेड)
योजना नहीं बनी है। सिर्फ पुनर्वास के लिए जब-तब फेंके गए हड्डी के कुछ टुकड़े -
पानी, बिजली और शोचालय की सुविधा में जरा सी
बढ़ोतरी; प्राइमरी स्कूलों की स्थापना, पुनर्वास योजना के तहत सरकारी
झोंपड़पट्टियों का निर्माण-आवंटन, एक विशेष समयावधि तक (मुंबई के संदर्भ में यह अवधि अनेक बार बढ़ा कर
वर्ष 1990से 1995 और फिर 2005 तक कर दी गई है) अवैध रूप से स्थापित झोंपड़पट्टियों
को वैध कर देने का निर्णय आदि। दरअसल समस्या न स्लम्स हैं, न इनके बाशिंदे। समस्या हैं सामंतवादी
सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संरचनाओं के पूर्वग्रह जो अतिरिक्त उत्साह, (दुष्) प्रचार और मगरमच्छी आंसुओं के
साथ झोंपड़पट्टियेां को तमाम बुराइयों का ढूह साबित कर रहे हैं। इसलिए जरूरी है
तिरस्कार और वितृष्णा के बंजर भावों से उबर कर सम-वेदनापूर्वक झोंपड़पट्टी के भीतर
निचुड़ती-दरकती मानवीय नियति के संग संवाद जो अपनी तमाम विद्रूप विकरालता के बावजूद
जीने के मासूम सपने के साथ छलछला रही है। बेशक व्यभिचार और अपराध के अड्डे दीखते
हैं ये स्लम्स, लेकिन अंधेरों में पलती इन छुटभैया
अपराधी हस्तियों को कठपुतली सा नचाने वाली शख्सियतें क्या रोशनी और समृद्धि, ताकत और दर्प की ’इलीट’ दुनिया की प्रतिष्ठित इकाइयां नहीं?
समाजशास्त्रीय सर्वेक्षण-अध्ययन
समस्याओं को नंगी आंख से देखने का नैतिक साहस जरूर देते हैं किंतु अपनी ठोस (ठस्स)
तथ्यपरकता के कारण समस्या को थ्री डाइमेंशन में देख-विश्लेषित नहीं कर पाते। इस
तीसरे आयाम का अभाव (जो गहरी आत्मपरक संवेदना की न्यूनता के कारण समस्या के मर्म को
मनुष्य मात्रा के अंतर में आंदोलित नहीं कर पाता) व्यक्ति और व्यवस्था, पूंजी और श्रम, सरकार और जनता, माफिया और यूटोपिया की निजता और
पारस्परिकता को चेहराविहीन मशीनी आकृतियों में रिड्यूस कर देता है। फलस्वरूप ’हम’ और ’वे’ ये दो वर्ग शाश्वत दूरी के साथ यथावत बने
रहते हैं और प्रचुर संसाधनों की गोद में पले ’संभ्रंत अभिजन’ के लिए झोंपड़पट्टियां ’रेड लाइट एरिया’ की तरह घृणित, तिरस्करणीय, संदेहास्पद और अमानवीय बनी रहती हैं।
साहित्य अ-परिचय और अ-संवाद की इस शिला पर घन-प्रहार करता है। ’हम’ और ’वे’ की निष्प्राणता को ’मनुष्य’ की भास्वर निजता के साथ स्पंदित करते
हुए, जहां सांझा करने की नैसर्गिक मानवीय
वृत्ति तादात्मीकरण करते-करते तदाकार हो जाती है। (तू तू करता तू भया, मुझमें रही न मैं) चार्ल्स डिकेन्स के
पात्र डेविड कॉपरफील्ड, ऑलिवर
ट्विस्ट या पिप अपनी लौकिक अकिंचनता के बावजूद इसीलिए तो इतने विराट और गरिमामय हो
जाते हैं कि उनके भीतरी सौन्दर्य के संस्पर्श से हमारा अपना सौन्दर्य सकारात्मक
उठान के साथ ठाठें मारने लगता है।
झोंपड़पट्टियां और सौन्दर्य!!! विलोम का
महानुष्ठान! लेकिन साहित्य ही तो है जो सौन्दर्य को सत्य और शिव के साथ अनुस्यूत
कर हर विकार, विनाश, विद्रूप, विसंगति के भीतर छिपी सर्जनात्मक
मानवीय आकुलता को ढूंढ निकालता है। जीवन के मूलभूत राग का निनाद! स्लम्स को लेकर
बेशक हिंदी साहित्य में अधिक चिंतन नहीं हुआ और डिकेंस की ऊँचाई और घनत्व के
मुकाबले तो बिल्कुल नहीं, लेकिन
अपनी सीमाओं में बंध कर भी झोंपड़पट्टियेां में धड़कते जीवन और सौन्दर्य, अभिशाप और संघर्ष को उन्होंने छुआ, परखा और निखारा है।
जगदम्बा प्रसाद दीक्षित |
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’’रोशनी ...एक वहम! सिर्फ अंधेरा ...कई रंगों, कई रूपों
में। जाता नहीं ...बहाना करता है। वहीं है वेश बदल-बदल कर’’
यह ठीक है कि भारत में स्लम्स की शरुआत
1850 के आसपास कोलकाता से हुई लेकिन एक सामाजिक समस्या के रूप में इनकी शिनाख्त
1950 के बाद ही हुई। डॉमनिक लापियर ’सिटी ऑव ज्वाय’ में स्लम्स के रूप में पृथ्वी पर पसरे जिस रौरव नरक का चित्राण करते
हैं, ’मुर्दाघर’ (जगदंबा प्रसाद दीक्षित, 1974) उसी की कराहती गूंज है। अलबत्ता
व्यंग्य की टीस इतनी मारक है कि ’आनंदनगर’ की
अपेक्षा जिस ’मुर्दाघर’ की हकीकत वे बयान कर रहे हैं, वहां मुरदों को नहीं, ’जीवित लाशों’ को मर-मर कर जीने का असह्य दंड दिया
गया है। ये ’जीवित लाशें’ अपने लिए बेशक एक वक्त का खाना भी न
जुटा पाएं, अपने श्रम और स्व-रोजगार से देश की
अर्थव्यवस्था में योगदान जरूर देती हैं। टूटे-फूटे बर्तन-भांडों और सपनों के साथ
बार-बार उजड़ने और बसने की विवश अनिवार्यता ने भले ही इनके पैरों तले जमीन नहीं दी, लेकिन इनके ’वजूद’ ने औद्योगिक मशीनों को चलाने के लिए ’हाथ’ और ’संभ्रंत अभिजनों’ के सोशल स्टेटस को बढ़ाने के लिए मुंडू, बाई, ड्राइवर सरीखे ’कामचोर’ जरूर दिए हैं। दिन-रात की हाड़-तोड़
मुस्तैद मेहनत और बदले में पोर-पोर पिराता दर्द, दो जून की सूखी रोटी की बेफिक्री और
अगले दिन सुबह-सवेरे उठ कर काम-धंधे पर जाने की फिक्र! पैसा और सुविधाएं - सड़क के
उस पार अट्टालिकाओं का मुंह कर लेती हैं हमेशा। पोपट क्यों करे हमाली? मजूरी? जब-जब अपने को जानवर सा झोंका है काम
में, क्या पाया? ’’पांच रुपिया। दो खरच हो गया खाने
में। ...भोत हड्डी तोड़ना पड़ता। तब मिलता
ये पांच रुपिया। ...क्या होता ये पाँच रुपिया में। तेरा-मेरा पेट भी भरने वाला
नईं।’’ (मुर्दाघर, पृ0 108) नुकीली सच्चाइयों के बीच रह
कर वह समाज के जंगली तंत्र को जान गया है। मेहनत-मजूरी यानी आदर्शवाद का हश्र है
पगला जाना। अपनी ही झोंपड़पट्टी के पागल आदमी की तरह कचरे के ढेर में नाक घुसा कर
पेट पालने की विवशता और मैल-दुर्गंध से चीकट हो जाने पर अरसे बाद बदन के कपड़ों को
धो डालने की ’इंसानी’ इच्छा के वशीभूत रात के निर्जन अंधेरे में बदन
की नंगई छुपा कर कपड़े धोने की विकल्पहीनता। या फिर अंडरवर्ल्ड की ओर खुलते ’शॉर्ट कट्स’ का सहारा लेकर ऊपर उठने का अंतिम
अस्त्र। मौत और जोखिम दोनों तरफ है, लेकिन दूसरी तरफ जगर-मगर रोशनियों और सामाजिक प्रतिष्ठा का आश्चर्य
लोक भी है। हाजी मस्तान की तरह। आदर्श को धता बता कर प्राथमिकताएं न बदलें तो
आश्चर्य! इसलिए पोपट को सिर्फ एक ही ’चानस’
की
तलाश है - ’’हमाली करेंगा तो क्या मिलेंगा ...कुछ
नईं। आक्खा जिंदगानी इधरिच सड़ना पड़ेंगा। मजूरी करके आज तलक कोन खोली लिया है और
कोन मकान बांधा है?
कोई
नईं। फिर मैं किधर से क्या करुंगा। ...किधर से लाऊँगा खोली और घर! ये झूट बात है
मैना। ...जो लोक कल तलक कंगाल था, ...आज लाखोपती बन गया। ...हाजी उमर को जानती ना तू? ...मेरा साथ हवालात में था एक टैम।
पहला दारू का धंदा किया। जभी पइसा कमाया थोड़ा ...तो रंडी का होटल चालू किया। थोड़ा
और पइसा कमाया। पीछू दानचोरी का काम चालू किया ...इस्मगलिंग। पांच साल का अंदर बन
गया लाखोपती। बड़ा-बड़ा बिल्डिंग है उसका। पोलिस का सब बड़ा साब लोक कू पार्टी देता ...बड़ा-बड़ा
मिनिस्टर लोक उसकू अपना घर कू बुलाता।’’ (पृ0 17) प्रलोभन नहीं, मूलभूत आवश्यकता के रूप में उभरा विकल्प! पतनशीलता की रपटीली ढलान पर
रपटने की व्यग्रता नहीं, पैरों
तले पुख्ता जमीन महसूसने के बाद वहीं जम कर पड़ाव डालने का अरमान! जुआ, मटका, स्मगलिंग - पेट की भूख के साथ जुड़ जाएं
तो अनैतिक कहां?
जुर्म की जो दुनिया अभाव की कोख से
उपजती है, वह समृद्ध वर्ग की लीलती लालसाओं और
तृष्णाओं की सुसंगठित शक्ति और तिकड़मी कार्य प्रणाली के मुकाबले बेहद कमजोर, उथली और असंगठित है। दरअसल भूख से
नाचती मजबूरी के चलते उन्हें भान ही नहीं होता कि वे अपनी छुटपुट मासूम आपराधिक
हरकत में अकेले नहीं, पूरे
सिस्टम का पुर्जा बन गए हैं। अपने लिए निष्कृति और बेहतरी, समृद्धि और सम्मान के तमाम रास्तों पर
ताला लगा कर एक बदतर गलीज जिंदगी की मृगमरीचिका में भटकने को विवश। पोपट हो या
जब्बार - रोजगार के रूप में मिले इस ’व्यवसाय’ से
अंततः क्या पाया उन्होंने? मौत
और जेल। न, कामचोरी या आलस्य बिल्कुल नहीं।
मेहनतकश लोग मेहनत करना चाहते हैं, मीठे सपने की खातिर। पोपट को विश्वास है अपने सपनों पर। सपने में दीखे
साधु बाबा और उनकी भविष्यवाणी पर कि ’’अब बदलेंगा तेरा टैम। नया काम चालू कर हाजी मलंग बाबा का नाम लेके।
फायदा होंगा।’’ (पृ0 120) और वो ’मर्द’ काम है - ’’इधर गाड़ी सुलो हुआ ...उतर जाने का।
दुसरा गाड़ी सुलो हुआ ...उसकू पकड़ने का। फिर सुलो हुआ ...छोड़ने का। फिर पकड़ने का
लोकल। जभी लोकल सुलो हुआ ...माल फेंकने का और कूद जाने का। पीछू माल उठाने का और
घर कू आने का।’’ (पृ0 124) पुलिस के बेरहम डंडों से
खौफजदा है पोपट। किस्तय्या की तरह पुलिस का हफ्ता बांधने की कुव्वत होती तो वह भी
ठाठ से दारु बेचने का अवैध धंधा करके पैसा उगाता। चोरी? न! जब्बार की तरह दुरदुराया कुत्ता
बनने की कल्पना से रूह कांपती है उसकी। कभी तड़ीपार तो कभी जेल। जेल में अमानुषिक
यातनाएं। बेशक नत्थू जैसे शातिर मुजरिम हमदर्दी बांटते हुए हमपेशा-हमनसीबों को मार
की पीड़ा से बचने के ’आसान’ मार्ग सुझाते हैं कि ’’तू भी वैसाइच कर जैसा ये सब लोक करता
है ...मैं भी किया था एक बार। ...अपना पिसाब होता है न ...अपना खुद का पिसाब़ ...
दुसरे का नईं ...भला क्या! उसमें चारमीनार का तमाखू ...नईं तो बीड़ी का तमाखू डालने
का ...और पी जाने का सारा पिसाब। कितनाई मारो फिर ...अपने कू कुछ पता नईं चलता।’’ (पृ0 131) और सुलेमान जैसे पक्के चोर
पुलिस कस्टडी में खून थूक-थूक कर मर जाते हैं, लेकिन जब्बार की किंकर्त्तव्यविमूढ़ता
में द्वंद्व नहीं,
द्वंद्वहीन
संकल्प है - ’’पन मैं करुं तो भी क्या। दुसरा रास्ता
नईं मेरे कू। ...कुछ नईं मिला मेरे कू। सच्ची बोलता मैं ...कुछ भी मिलता तो अईसा
नईं होता। अब अइसाच होगा ...दुसरा कुछ नईं होंगा।’’ (पृ0 114) एक और सपना! एक और चोरी! एक और हताशा! कड़ी से कड़ी मार और सजा के
बीच थरथराती जिंदगी। और एक बार फिर मौत की आंख में धूल झोंक कर ’अपनों’ के संग जीने की लालसा! आखिरी चांस’!
यही
है जब्बार! पोपट!
सपनों
से झिलमिलाती आंखें!
एक सपना जब्बार का। पत्नी हसीना और
बेटे अमजद को ’’ले जाना नई दुनिया में। फिर पुरानी
दुनिया छूट जाएगी पीछे। दीवार के उस पार सफेद रोशनी ...तैर कर आ जाएगी पास। ...चले
जाएंगे उस पार। पोटलियां बगल में। शुरु कर देंगे नई जिंदगी ...नया वक्त। कभी लौट
कर नहीं देखेंगे उस तरफ ...जहां कभी था पुराना वक्त ...सड़ा हुआ लिबलिबा मिकदार। जा
रहे हैं पोटलियां दाबे ...जहां एक सुबह है़ ...उजाला है ...जहां चमकती है खूबसूरत
धरती़ ...कपड़े गंदे हैं। कोई बात नहीं। आने वाली सफेद रोशनी में धुल कर हो जाएंगे
साफ।’’ (पृ0 124)
एक सपना पोपट का। सिर्फ एक ’चानस’ ताकि पत्नी मैना को रख सके ऐसा ’कि जइसा हाजी शेख का अउरत भी क्या
रहेंगा।’’ (पृ0 64)
स्वप्न की परिणति स्वप्न भंग। शोक धुन
की तरह दीर्घ और कर्कश! पुलिस से घिरे जब्बार की हसीना को एक ही हिदायत - खोखली और
सारहीन कि पेट को पानी से पोस कर इंतजार करे उसका, रंडी बन कर नरक की लपटों में स्वाहा न
करे खुद को। वह आएगा और संवार लेगा सब कुछ। आशा का मंद्र आलाप! लेकिन पोपट? उसके सपने में तो अनिष्ट की छाया तक न
थी। फिर कहां से क्योंकर गुजरी बगल से धड़धड़ाती लोकल जब ’स्लो’ ट्रेन से उन्हीं पटरियों पर कूद रहा था
वह? प्यास और पीड़ा से आधा घंटा तड़फड़ाता
पोपट बे-शिनाख्त लाश बनने से पहले स्वप्न एवं विश्वास भंग की किरचों को पोर-पोर
में महसूस करते हुए एक और मौत नहीं मरा होगा कि मैना को रंडीपने से मुक्ति दिलाने
के बदले रंडीपना उसके नसीब में लिख कर जा रहा है वह?
तो
क्या स्लम्स माने खंडित स्वप्नों का अखंड सिलसिला???
या
जुर्म की दुनिया में उतरे पोपट और जब्बार, सुलेमान और नत्थू ही हैं असली चेहरा?
न्ना!!
एक कतरा सच हैं वे। इस अखंड सच के अन्य
पूरक कतरे हैं ’नरककुंड में बास’ (जगदीश चंद्र, 1994) के कुछ पात्र जैसे काली, किशना, माँझा, छिब्बू, कालू, बरकत। जिस हाड़तोड़ मेहनत से घबरा कर
अपनी ही ऐषणाओं के हाथों परास्त हुए हैं पोपट-जब्बार आदि, उसी का सटीक पर्याय बन कर काली आदि ने
अपनी जिंदगी गला-घुला दी है - कभी जानवर की जगह रेढ़े में जुत कर और कभी मुर्दा
जानवरों की खाल खींचन-धोने के जानलेवा व्यवसाय में लग कर। दोनों उपन्यासों की रचना
में बीस बरस का अंतर है और साथ ही परिलक्षित होता है झोंपड़पट्टियों को लेकर आम
आदमी की अवधारणा में अंतर भी। बीसवीं सदी के नौवें-दसवें दशक में झोंपड़पट्टियों के
फैलाव ने इन्हें वर्जित-घृणित प्रदेश न बना कर महानगरीय संस्कृति के अभिन्न अंग का
दर्जा दे दिया है। झोंपड़पट्टियां सभ्यता-समृद्धि के उज्ज्वल चेहरे पर बदनुमा दाग
सही, लेकिन चेहरे को उज्ज्वल दमकता बनाने के
लिए अपरिहार्य भी हैं। इसलिए झोंपड़पट्टियों की मूलभूत अवस्था में सुधार के साथ-साथ
इनके बाशिंदों की मानवीय इयत्ता को स्वीकारने का भाव क्रमशः उदित होने लगा है ’सम्भ्रान्त अभिजन’ समाज में जिसकी आहटें 1980 में रचित
भीष्म साहनी के उपन्यास ’बसंती’ में भी सुनी जा सकती हैं।
’नरककुंड में बास’ उपन्यास अमरीकी लेखक अप्टन सिंक्लेयर के उपन्यास ’द जंगल’ की याद ताजा करते हुए मानवीय शोषण और
नियति की उस हौलनाक तस्वीर को चित्रित करता है जहां का हर मुहाना एक और ’डैड एंड’ है और इसी ’डैड एंड’ को अपना कर्मक्षेत्र मान कर जूझने की बाध्यता
दुर्धुर्ष योद्धाओं की किस्मत में सतत पराजय लिखती रहती है। अकाल, भूख, गरीबी की मार से निढाल ग्रामीणों के
लिए शहर चमकती आशा और दमकते भविष्य के प्रकाश-पुंज हैं, लेकिन शहर आ कर वे शहर के हृदयहीन
आत्मकेन्द्रित चरित्रा से परिचित होते हैं। यहां आत्मीयता और आश्रय की तरह रोजगार
भी नदारद है। काम की किल्लत नहीं लेकिन काम के लिए बढ़े हाथों की इतनी बहुतायत है
कि ’’झोटे-बैल के स्थान पर आदमी रेढ़ा खींचने
के लिए तैयार है।’’
(’नरककुंड
में बास’ पृ0 60) गांव से नया-नया आया काली रेढ़ा
खींचने का अस्थायी काम पाकर खुश है कि दो वक्त की रोटी की निश्चिंतता तो हुई, लेकिन बरसों से रेढ़ा खींचते साथी
मजदूरों-पल्लेदारों की अवस्था देख कर अवसन्न भी है कि इनमें से अधिकांश के ’’पांव टेढ़े हो गए थे, पिंडलियां पकी हुई लौकी की तरह दिखाई
दे रही थीं और घुटने अंदर को पिचक गए थे। टांगों की नसें फूल कर हल्के नीले रंग की
बेल सी बन गईं थीं। ...कई लोगों की टांगें तो इतनी टेढ़ी हो गईं थीं कि उसमें छोटी
ढोलक को आसानी से फंसाया जा सके।’’ (पृ0 98) बदले में मजूरी - सिर्फ आठ आने, दो आने रेढ़ी का किराया कटने के बाद।
2005 तक आते-आते ’पत्ताखोर’ (मधु कांकरिया) के हथ-रिक्शाचालकों की
मजूरी और भाड़ा दोनों में बेशक इजाफा हो गया है, लेकिन मूलभूत दशा ठीक वही - ढाक के तीन
पात। सहदेव के अनुभव हों - ’...सवारी को हम उनके ठिकाने पहुंचा आए ...गोड़
पिराने लगे। छाती दुखने लगी। फिर भी हम शांत थे। छह रुपए हमारे पास थे। ...पर जब भैया ने बताया कि दिन की शिफ्ट का
भाड़ा ही दस रुपिया है ई गाड़ी का तो हम रो पड़े ...हाड़तोड़ मिहनत करके भी चार रुपिया
टेंट से देने पड़ गए ...ई का नगरी़ ...’’ या इतवारी के - ’’पूरे दिन की कमाई ...गाढ़ी
खटनी ...छिला बदन,
घुटने
की चोट और टेंट से लगे आठ रुपए’’ - अपने व्यवसाय एवं श्रम के प्रति हिकारत का भाव कभी नहीं पनपा इनमें।
रिक्शा को अन्न देवता का पर्याय मान अपने श्रम से उसे पूजते रहे। यही है उनके
संघर्षों और जिजीविषा का सार। यही है ’नरककुंड में बास’ के काली सहित अनेक मजदूरों की आस्था जो उन्हें ’टैनरी’ के अमानवीय माहौल में काम करने को
प्रेरित किए हुए है। चेचक-हैजे जैसे संक्रामक रोगों से मरे जानवरों की सड़ी, बदबूदार मक्खियों के जत्थे से ढकी और
चर्बी के टुकड़ों से अटी कच्ची खालों को धोना-सुखाना - काली को लगता है ’गंदी बदबूदार नाली में कीड़ा बन कर’ रहना पड़ेगा उसे ताजिंदगी। मन है कि
बार-बार विद्रोह करने को उतारु - ’’नर्क के भोगी भी ऐसे गंदे काम नहीं करते होंगे’’। मितलियों का लंबा दौर। भूख क्या इतनी
आक्रामक होती है कि भीतर की मनुष्यता और संस्कार दोनों को निगल कर अपने हाथ का
झुनझुना बना ले इंसान को? काली
की मितलियां वितृष्णा की अभिव्यक्ति नहीं, भीतर के सौन्दर्य बोध से उपजा विद्रोह
हैं। लेकिन भूख अंतिम और भयावह सच है। ’’काम गंदा है तो पैसे भी तो ज्यादा मिलते हैं’’ - मन ही मन हिसाब लगा कर फूला नहीं समा
रहा काली कि अब उसे दो रुपए दिहाड़ी मिलेगी जबकि इससे पहले दिन भर रेढ़ा खींचने के
बावजूद वह दस-बारह आने से ज्यादा नहीं कमा पाता था। क्या यही है नसीब का खुलना? काली जानता है कि खुजली-खारिश, पां जैसी जानलेवा बीमारियां जल्द ही
उसे ग्रस लेंगी लेकिन मेहनत का ऐसा ही ’पुरस्कार’ हर
पेशे में है।
आगत का डर नहीं। डर है भूख से। भूख सोई
रहे पेट में तो सारा जहान अपना। बदन की टीसें ’झुठलाने’ को सौ-सौ उपाय - शराब, अफीम, टेबलेट। नशाखोरी झोंपड़पट्टी की प्रकृति
नहीं, मजबूरी है - दुगुनी स्फूर्ति अर्जित
करने का अचूक अस्त्र। तभी तो बुजुर्ग पल्लेदार अफीम की डबल गोली लेकर बैल की तरह ’’दिन ढले तक पानी-पेशाब पिए-किए बिना
बोरियां ढो’’ (पृ0 99’ नरककुंड में बास’) पाता है और किशना दवाई (शराब) पी लेने
के बाद ’’पंख वाले घोड़े पर सवारी करता है। सोने
के पलंग पर बेफिक्र हो सोता है। न मक्खी सताती है और न मच्छर ही काटता है। न खुजली
का पता चलता है। बस,
यही
दो-चार घड़ियां ही अपने ऐश-आराम की होती हैं।’’ (पृ0 195)
यकीनन इन लोगों की मेहनत को मीठे इनाम
की दरकार है। समाजवादी व्यवस्था को सपना नहीं, वास्तविकता बनाने की जरूरत। वही होगा
अच्छाई और सच्चाई के संवर्धन का मानवीय प्रयास!
लेकिन झोंपड़पट्टी के बाशिंदों में
किशना का भाई कल्लू (’नरककुंड
में बास’), नंदलाल (अनारो, मंजुल भगत, 1977) और दीनू-चौधरी (बसंती) भी हैं -
अपने मूल चरित्र में घीसू-माधो के अवतार। दिवास्वप्नों में मस्त। मुफ्त की रोटियां
तोड़ते और घर की औरतों पर मर्दाना रोब गालिब करते। कभी काम में नुक्स, कभी काम से जुड़े चीकट भविष्य में - भा
जी, उस्ताद दो-तीन साल तो काम सिखाने में
लगा देते हैं। तब तक पल्ले से रोटी-पानी खाओ और उस्ताद की टहल-सेवा अलग से करो।
काम सीख भी जाओ तो मालिक पूरी मजदूरी नहीं देता। कभी कच्चे काम का बहाना और कभी
मंदे की शिकायत। ये रोना-पीटना लगा ही रहता है।’’ (नरककुंड में बास, पृ0 208) फिर भविष्य? निठल्ले को रोटी तो परमात्मा भी नहीं
देता। ’’मैं भी वलैत जाना चाहता हूं’’ - भविष्य न सही, भविष्य का रोमानी सपना तो है बेनूरी
आंखों में। वलैत माने कल्पतरु। हिलाया कि झर-झर पैसा झरने लगा। ’वलैत’ (अमरीका भी) आज की ग्लोबल दुनिया में
नगरीय प्राणी के लिए ठीक वही आशा-पुंज जो पचास से नब्बे के दशक तक गांव वालों के
लिए नगर हुआ करता था। कौन समझाए इस दिग्भ्रमित नई पीढ़ी को कि मृगतृष्णाएं दूर ले
जाकर मारती ही हैं,
पोसती
नहीं; कि जीवन का राग और राज़ दोनों व्यक्ति
के अपने भीतर हैं। बस, लेखक
स्तब्ध है और व्यग्र भी कि जमींदार के गेहूं के ढेर से भी ऊँचे पैसों के ढेर लगा
देने का सपना देखने वाले अहमकों को कैसे उनकी जड़ों से जोड़ा जाए? कैसे उन्हें आस्था से सींचा जाए? वह भी तब जब ऐसी ही मृगतृष्णाओं के
शिकार उनके माँ-बाप कर्जा ले कर उनके लिए टिकट और एजेंट का इंतजाम कर रहे हैं? कबूतरबाजी के संगीन जुर्म को बढ़ावा
देती ये मासूम लिप्साएं पहली ही उडारी पर अपने पंख कतरवा डालती हैं। शुतुरमुर्ग न
होती मानवीय प्रवृत्ति तो शायद अपनी ही बिरादरी की गलतियों को बार-बार दुहरा कर
बार-बार मर्माहत न होती रहती।
तो क्या झोंपड़पट्टी उस अनिवार्य नियति
का नाम है जहां बेहतरी के लिए उठाया गया हर कदम/स्वप्न बदतरी का आगाज करता है? एक विकट दलदल!
2
’’कई बार बह निकले थे आंसू। अब भी बह निकलेंगे। कौन देखेगा?’’
दीनू और चौधरी (बसंती) दलदल से किनारा
कर लहरें गिनने का कितना ही ’ऐयाश’
काम
क्यों न करें, अपनी नियति और परिवार के कुशल माँझी
नहीं बन पाते। ज्यादा से ज्यादा परिवार की स्त्रियों की कमाई पर निर्लज्ज
निर्भरता! या बेटियों को बेच कर रुपया-दारु जुगाड़ने की अमानुषिकता। चौधरी
प्रतिनिधि है इस जमात का जो नाबालिग बेटियों को ही नहीं बेचता, उनके अवैध गर्भ का भी संभावित वर से
सौदा कर डालता है - ’’तीन
सौ पिछले और दो सौ पेट के बच्चे के। तुम्हें बसी-बसाई गिरस्ती मिल रही है। इसके
लिए क्या दो सौ ज्यादा हैं?’’ (पृ0 118)
पेट की आग हो या परिवार (पिता/पति) की
मार, खटती चलती हैं स्त्रियां। महरी बन कर
(अनारो, बसंती), उठाईगीर या रंडी (मुर्दाघर) बन कर।
घरों में बर्तन-सफाई, कपड़ा-चौका
- एक नई दुनिया खुलती है उनके सामने। सुविधाओं और सपनों से भरी। ’मैं’ और ’वह’ के भेद को तीक्ष्ण करती हुई। टी. वी. के
जरिए जागृति के कतरे भी चस्पां हो जाते हैं वजूद पर। और तीव्रतर हो जाता हे गोद
में खेलते बच्चे की शिक्षा की जरूरत का अहसास। सफल हो जाती है अनारो अपने बेटे
छोटू को पढ़-लिखा कर दफ्तर का चपरासी बना कर। लेकिन रोती-झींकती रह जाती है चित्रा
मुद्गल की कहानी ’त्रिशंकु’ की माँ, कि बेटा पढ़ाई छोड़ जुर्म की
दुनिया में चला गया है। बिल्कुल अलग है दूध पीते बच्चे की नाबालिग माँ बसंती। उसके
भीतर का मातृत्व मध्यवर्गीय माँ की तरह अपने आंख के तारे की परवरिश करना चाहता है
- तमन्नाओं का गुलाबी संसार जहां है बोतल से दूध पिलाते बच्चे के गले में बंधा
नैपकिन; खिलौनों और घंटियों से सजा पालना; पाउडर से महकते बच्चे के तन पर साटिन
का कुर्त्ता और फुंदने वाली टोपी, जूते-मोजे। सीमित साधनों में पूरी हो जाएं तमन्नाएं तो ठीक, वरना दूसरे रास्ते - ’’जो कुछ तो मैं अपने पप्पू के लिए करती
हूं ना, उसे तो मैं चोरी मानती ही नहीं। अपने
लिए कुछ उठाऊँ तो बेशक मुझे चोर कह लो।’’( पृ0 161)
अनारो ( मंजुल भगत, 1977) का विस्तार बन कर बसंती कर्मठता, उत्साह, उद्दाम आशा के साथ कड़े संघर्ष की आभा
से प्रदीप्त है। हर प्रतिकूलता और विभीषिका को सीना तान कर झेल जाने वाली।
निर्द्वंद्व, बेखौफ। दीनू के साथ भाग निकली तो ’कल’ का कोई विचार नहीं, दीनू की ब्याहता पत्नी का समाचार जाना
तो पल भर को निस्पंद लेकिन फिर ऊर्जा और ऊष्मा कर अनवरत प्रवाह! समाधानों का अंबार
- ’’तू उसे यहां ले आ। हम सब मिल कर
रहेंगे। तेरी जात में दूसरा ब्याह कर सकते हैं ना! ...मैं सब काम कर लूंगी। उसे सब
कुछ सिखा दूंगी।’’
जन्म
से ही बस्ती को बार-बार उजड़ते-बसते देख कर असुरक्षा और अस्थायी भाव इतने गहरे घर
कर गया है उसमें कि नजर सिर्फ ’आज’ पर। क्षण का भीषण सत्य उसकी बचत और
भविष्य - दोनों पर भारी पड़ता रहा है। क्या चाह कर भी वह अपनी कोठरी की पिछली दीवार
में एक ढीली ईंट को निकाल कर उसके पीछे रखी अपनी कुल जमा पूंजी यानी कांच की चार
चूड़ियां, बालों में लगाने वाले दो रंगीन क्लिप
और पीतल की अंगूठी निकाल पाई? बसंती की लोचशीलता विकट परिस्थितियों
में जीवट का परिचय देती इंसानी लोचशीलता का प्रतीक है। दरअसल क्षणवाद और भोगवाद
बढ़ते उपभोक्तावाद की विकृतियां भर नहीं, घोर गरीबी की मजबूरियां भी हैं जहां जीवन तीन कालखंडों के साथ
अंतर्गुम्फित एक अखंड इकाई बन कर नहीं आता, टुकड़े-टुकड़े मे बंट कर अपने भीतर की विराटता को विकरालता में तब्दील
करता चलता है। बसंती का स्वभाव स्लम्स की इसी मानसिकता का परिचायक है - ’’यही होगा, ऐसे ही चलेगा ...ज्यादा दूर तक तो वह
देख ही नहीं पाती थी ...उस जैसे लोगों के लिए एक दिन दूसरे से जुड़ा नहीं होता।
प्रत्येक दिन अलग-अलग इकाई सा होता है। वह आज के दिन को आने वाले दिन के साथ जोड़
कर नहीं देख सकती थी। आज काम है तो है, कल काम नहीं है तो नहीं होगा। एक दिन दूसरे दिन से तब जुड़ता है जब
काम को पक्का रख पाना अपने बस की बात हो। जहां किसी दिन किसी घड़ी भी काम छूट सकता
हो, घर वाला भाग सकता हो, बसी बसाई बस्ती मलबे का ढेर बन सकती हो, वहां कोई दिनों और महीनों और सालों की
योजना कैसे बना सकता है? जो
दिन बीत जाए, बीत जाए। अगला दिन आएगा तो देख लेंगे।...
आज जिंदगी ऐसे ही चलने लगी है, ऐसे ही चलेगी जब तक इसे चलना है।’’ (बसंती,पृ0 152)
अनारो की पेटजाई गंजी (मंजुल भगत, 1995) अठारह बरस के अंतराल को जी कर
बसंती की तरह सपने भर नहीं बुनती, उन्हें साकार करने की ठोस योजनाएं भी बनाती है - बिगड़ैल पति के संबल
से अलग अपने ही प्रयासों से एक संस्था बनते हुए। वह झोपड़पट्टी के अंधेरों को चीरती
रोशनी की प्रतीक है - समृद्धि और सामाजिक प्रतिष्ठा जैसी इंसानी चाहतों का रुख
स्लम्स की ओर मोड़ने वाली कारक शक्ति। उजली-स्याह सच्चाइयों के साथ वक्त तेजी से
बदल रहा है। बेशक। लेकिन फिर भी ’मुर्दाघर’ की
मुर्दनियां अपनी पूरी विभीषिका के साथ वहां मौजूद हैं। रोजगार के नाम पर ’धंधा’ करने को विवश रंडियां - मैना, बशीरन, जमीला, पारबती, मरियम ...। इनमें से कोई भी तो खुशी से
इस पेशे में नहीं आई। घर से भागने की मूर्खता, धोखेबाज प्रेमी, पीढ़ियों से बस्ती के माहौल में रहने के
कारण उसी मशीनी माहौल में ढल जाने की यांत्रिकता, चोरी-चकारी का ’सहूलियत’ भरा पेशा, पुलिस रेड पड़ने पर हवालात से ’होम’ भेजे जाने और किसी ’भाई’ द्वारा जमानत पर छुड़वा कर अपने ’गिरोह’ में मिला लेने की ’कृपा’ - हर दरवाजा देह के विक्रय तक जाता है।
जगदंबाप्रसाद दीक्षित की विशेषता यह है कि वे पात्रों के भीतर उतर कर उनकी व्यथा
के जरिए झोपड़पट्टी के दुर्भाग्य को उकेरते हैं। ’खांसी के बाद सड़क पर फेंका गया बलगम’ - उनके स्त्री पात्रों के लिए दिया गया
विशेषण पूरी बस्ती के वर्तमान और भविष्य को एक साथ बयान कर जाता है। अपने मरद को
कोसती मैना - ’’कभी भला नईं होंगा। मरेंगा तो पानी भी
नईं मिलेगा ...क्या बोला था तू - धंदा करेंगा और पेट भरेंगा मेरा। अब धंदा करती
मैं और पेट भरती तेरा’’; नवजात
शिशु की मौत की कामना करती मरियम - ’’अभी तू जाएंगा ...हो जाएंगा अल्ला कू प्यारा ...क्या बोलेगा उसकू ...कि
तेरी अम्म भोत खराब है ...नईं क्या? अइसाच बोलेंगा तू? ...अइसा मत बोलना अल्ला कू। तेरी अम्मा कू ...दुसरा कुछ रस्ताच नईं। क्या समझा? कुछ रस्ता नईं। सच्ची बोलती मैं। अल्ला
कू मालूम। ...मेरे कू नईं मालूम क्या करूं मैं? किधर जाऊँ। ...हां रे! अपनी अम्मां कू
भी ले चल अपने साथ। मैं चलूंगी तेरे साथ। सुना क्या? अरे! तू हंसा क्या? सच्ची! हंसता! हच्छाला! हच्छाला! हंछता
बदमाछ! मेरी बात छुनके हंछता। हच्छाला!’’ (पृ0 118);
भिखारिन को उसके धंधे के लिए रोजाना दो
रुपए किराए पर अपने बच्चे छोटू को बेचती माँ (चित्रा मुद्गल की चर्चित कहानियां, भूख, पृ0 46); तथा चोरियां करके गुजर-बसर करती काली
लड़की - ’’अपुन क्या बड़ी चोरी करेंगा़ .कोई का
शर्ट़ लैंगा़ ...धोती ...बनियान ...बाहर किधर भी सूखता होंगा ...मोक्का मिलेंगा तो
अपुन उठा लेंगा। ले जाके दे देंगा बाबू भाई को। भाई जो ठीक समझेंगा वो पइसा दे
देंगा अपुन कू। एक टैम का खाना भी मिला तो भोत। जास्ती क्या करने का।’’. (मुर्दाघर, पृ0 66) - नैतिकता के प्रश्न बेमानी हो
जाते हैं यहां। बल्कि एक नया सवाल उठाते हैं कि नैतिकता की संरचनाएं और परिभाषाएं
क्या अघाए लोगों का खेल नहीं? खोखला लेकिन वर्चस्व से परिपूर्ण। वरना दूसरों के मुंह से रोटी छीन
कर अपनी तिजोरियां भरती ’अनैतिकता’ में संलिप्त होकर नैतिकता पर बात करना
क्या ज़रा भी मानवीय है?
चित्रा मुद्गल |
3
’’रेंगते हुए कीड़े रेंगते जाते हैं ...रेंगते-रेंगते मर जाते
हैं’’
इस संभ्रांत अनैतिकता को मुँहतोड़ जवाब
देने की कोशिश में अपने ही बच्चे की मौत की कामना करती मरियम असल में उस हौलनाक
भविष्य को नष्ट कर देना चाहती है जो कुत्तों और कौवों के संग कचरे की पेटी में से
जूठन निकाल कर पेट भरता है; स्कूल जाने की बजाय दो-दो बीड़ी का जुआ खेलता है; आते-जाते बाबू साहब के सामने हाथ फैला
कर अनजाने ही भीख माँगने का अभ्यास करता चलता है; लोकल ट्रेन में कंघा-शीशा-रुमाल
बेचते-बेचते अपराध की दुनिया के उलझे महीन तारों से जुड़ता चलता है। भविष्य के नाम
पर कालिख पुते स्याह वर्तमान का विस्तार। ’काली रोशनी का काला सितारा’। ममता जन्म देने में नहीं, भविष्य बनाने में सार्थकता पाना चाहती है। लेकिन सीधी गलियां अक्सर
मंजिल से दूर होती चली जाती हैं। मैना नहीं चाहती कि बेटा राजू कोढ़ियों की पंगत
में बैठ कर भीख में मिला कीमा-पाव खाए। लेकिन राजू की कुलबुलाती आंतें उसमें और
कोढ़ियों में कोई फर्क ही नहीं देख पातीं। उसका एक ही सपना है एक ऐसे स्टेशन पर
जाना ’’जहां है खूब खाना ...पैसा।’’ नहीं है तो सकुशल वापिस लौटने की
गारंटी। इसी नई पीढ़ी में रोपे हैं समाज ने दिशाहीन, संस्कारहीन, भाषाहीन अपराधियों के बीज। गहरी सादगी
के साथ जगदंबाप्रसाद दीक्षित बच्चों की दुनिया में उतर कर देखते हैं कचरा-पेटी
बीनते-बीनते अचानक चमक जाती राजू की आंखें - ’’वो दिन कि नईं ...मुरगे की पूरी टांग
मिली थी मेरे कू ...पूरी टांग ...ये इतनाली बड़ी। और बिरियानी भी’’। साथ ही सूंघते है विनाश्याक आशंका कि
यह कवायद बड़ा हो जाने पर अपनी भूख मिटाने के लिए क्या उसे पूरी दुनिया को
कचरा-पेटी समझने और निर्ममतापूर्वक खंगालने का प्रशिक्षण नहीं देगी? ’’गन्या ...मादरचोद पत्ता देख के खेलता
क्या? गांडू ...ऐसा मारेंगा लात। तू खेल रे
महादेव ...बिनधास! ...हाय रे! क्या पत्ता
खेला है मेरी जान। कुरबान जाऊँ। चल रे मेरे शेर ...इसकी मैं माँ की़ ...’’ (पृ0 24) इस भाषा में अनास्था और
क्रूरता की जो चिंगारियां हैं, वे संभ्रांत वर्ग के खिलाफ तमाम ताकत के साथ फूटने को आकुल हैं एक
दिन। ’’भोत मजा आया आज ...सच्ची बोलता यार।
अइसा मजा तो वो अंधे बुड्ढे कू फत्तर मारने में भी नईं आता। कायकू ...अपुन वो दिन
वो कुत्ते कू पानी में डुबाके मारा था ना ...पन इतना मजा नईं आया’’ (पृ0 45) में है अपराध जगत की ओर खिंचती
भीतरी दरिंदगी की उर्वर जमीन। सच, दिशाबोध और आत्मानुशासन न हो तो इंसान मूलतः हैवान ही है। जैसे ’त्रिशंकु’ (चित्रा मुद्गल) कहानी में बंबइया झोपड़पट्टी
का अबोध बंडू माँ की दुर्दशा देख पढ़ाई-लिखाई छोड़ कमाने निकला तो ’ईजी मनी’ की तलाश में वैध धंधों से होता हुआ
सिनेमा टिकटों की ’ब्लैक’ करने के ऊपजाऊ धंधे से जुड़ गया। फिर
वही जेल, होम और माफिया की सुरंगें।
चित्रा मुद्गल अपनी कहानियों में
स्लम्स की जिंदगी के रौरव नरक को विविध कोणों से उभारने की कोशिश करती हैं, लेकिन उनका समूचा भावबोध और
अंतर्दृष्टि ’मुर्दाघर’ का अतिक्रमण नहीं कर पाते। ठीक उसी तरह
जैसे भीष्म साहनी बसंती के व्यक्तित्व को अनारो के प्रभाव से मुक्त नहीं कर पाते।
अतः अनुत्पादक अनुकृतियां ही। अलबत्ता उदयप्रकाश ’दिल्ली की दीवार’ (2001) कहानी के साथ नई जमीन तोड़ते जरूर
नजर आते हैं। भूमंडलीकृत विश्व की सच्चाइयों में गहरे पैठ कर वे इस बात को नकारते
हैं कि ईजी मनी और झोंपड़पट्टी का चोली दामन का साथ है। राजनीतिक परिदृश्य पर
बींधती नजर गड़ा वे ईजी मनी से जुड़ी तमाम कारगुजारियों को राजनीति से जोड़ते हैं।
सुखराम सरीखे भ्रष्ट मंत्रियों पर सी़ बी़ आई के छापे की खबर को आधार बना कर वे
जिस काल्पनिक कथा की रचना करते हैं, वहां दीवार के खोखल में छुपे तेरह करोड़ रुपयों की गड्डियां हैं; झाड़ू की ढीली मूठ बांधने के प्रयास में
उस खजाने को अनायास हासिल करता सफाई कर्मचारी रामनिवास है; उस नायाब खजाने की बदौलत घर, प्रेमिका और बस्ती हर जगह ऊँची हैसियत
पाने का रस है तो तमाम ऐयाशियों का सुख लूट लेने की आतुरता भी। यह ऐयाशी कल रहे, न रहे। इस अनिश्चितता में पकड़े/मारे
जाने की ’निश्चित’ आशंका है और अपने भविष्य को पढ़ने की
दूरंदेशी भी। रामनिवास मुस्तैद प्रशासन की चतुरता से पकड़ा गया है और तब बेनकाब
होता है एक बहुत बड़ा घोटाला। लेकिन यहीं उदयप्रकाश स्लम्स की अंदरूनी सड़ांध और
पतनशीलता के बरक्स सभ्य सफेदपोश समाज की स्याह विकृतियों को सतह पर लाते हैं।
बरामद माल के नाम पर तेरह करोड़ नहीं, पच्चीस लाख की आधिकारिक घोषणा ...अभियुक्त के रूप में मन्त्री जी और
उनके बड़े से रैकेट पर उंगली नहीं, एक फर्जी मुठभेड़ में रामनिवास को मार कर कुख्यात अपराधी कुलदीप उर्फ
कल्ला और उसके साथियों का सफाया करने का गर्वोन्नत अहं। कौन बहती गंगा में हाथ
नहीं धोना चाहेगा?
इसलिए
आश्चर्य नहीं कि लेखक स्लम्स के विस्तार की पूरी दुनिया के चप्पे-चप्पे तक फैल
जाने की कल्पना करता है - ’’...यह सुरंग जमीन के भीतर-भीतर पूरे मुल्क और समुद्र के भीतर-भीतर से
गुजरती हुई समूची दुनिया तक फैलती जाती है। यह एक अलग प्रकार का भूमंडलीकरण है जो
इतने अदृश्य और गोपनीय तरीके से हो रहा है कि इसके बारे में कोई भी समाजशास्त्री
अभी ज्यादा नहीं जानता। जो जानते हैं, वे चुप रहते हैं और आने वाले समय का इंतजार कर रहे हैं। ... ...मुमकिन है कि आप अपने फ्लैट या अलग-थलग
बने किसी मकान से बाहर निकल कर किसी ऐसे ही ठेले या रेहड़ी के पास के जमघट को गौर
से देखें तो हो सकता है कि इस सुरंग का कोई मुहाना आपको भी मिल जाए।’’
तो क्या स्लम्स का अर्थ सिर्फ आवासीय
सुविधाओं का अभाव नहीं, मानवीय
गरिमा की रक्षा की मूलभूत गारंटी का अभाव भी है? एक ऐसा अभाव जो पहले पंचम जैसे आदिवासी
से वन और जल छीनता है, फिर
घर-परिवार और अंत में जिंदगी। अपराध? यही कि झुलसती गर्मी में नंगे पांव रिक्शा टानता रहा कोलकाता की
सड़कों पर (मधु कांकरिया, पत्ताखोर
,पृ0 86) - उस भूख को मिटाने जो पेट में
हल्का सा ईंधन डालने पर बुझती नहीं, और भी भड़क जाती है।
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’’अपना दुख तसल्ली नहीं देता। दूसरों का दुख जरूर साहस पिरो
देता है’’ बनाम ’’खंडित जिंदगियों ने ही मुझे एक अखंडित जीवन दर्शन दिया है कि
...जिंदगी से हार मानना ठीक नहीं’’
फिर भी धुआं-धुआं होती जिंदगी में राख
कुछ भी नहीं हुआ है - न सम्बन्ध, न सम्बन्धों की गरिमा; न मनुष्य और न मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था। शिव का साम्राज्य है
यहां - सतत कल्याण,
सतत
संवेदना का प्रसार। शिव यानी जो सबको अपना ले। बाकी सब शव है। मरद (पत्नीत्व) के
लिए तरसती रोजी, बच्चे (मातृत्व) के लिए अकुलाती ’मुर्दाघर’ की तमाम वेश्याएं, पत्नी और बच्चे (घर) के लिए जान जोखिम
में डालता जब्बार और तड़ीपार जब्बार को चुगलखोर दुनिया की नजर से बचाने के लिए
घिसट-घिसट कर पानी,
खाना, माचिस लाती रोजी (मनुष्यता), विधवा लक्ष्मा के रोजगार के लिए
यहां-वहां दौड़ती पड़ोसन सावित्री और तमाम अपरिचय के बावजूद काली को अपने अस्थायी
बसेरे में शरण देते ’नरककुंड
में बास’ के बरकत-मनसुख और छिब्बू-माँझा -
आत्मीय सम्बन्धों का घेरा परिवार की सीमा पार कर पूरी बिरादरी तक व्याप गया है। एक
ऐसी बिरादरी जो रक्त सम्बन्धों से नहीं बनी। बनी है नेह सम्बन्धों से - सुख-दुख की
साझी अनुभूति से, अपने भीतर की सौन्दर्यान्वेषक दृष्टि
का विस्तार कर जीवन के प्रत्येक कसकते पल को उल्लास में बदलने की धुन से। पूर्व
परंपरा से दूर छिटक कर मधु कांकरिया स्लम्स की विभीषिका के पार मनुष्य की गरिमा का
संरक्षण करती इस विलक्षण शक्ति का नमन करती हैं। न, नमन तो भावातिरेक में बह जाने की एक
तात्कालिक प्रतिक्रिया है, जड़
परिणाम के साथ। वे संभ्रांत समाज के भीतरी खोखलेपन, असहायता, अकिंचनता, आधि-व्याधि, रोग-शोक, पतन और पराजय के हाहाकार को झोपड़पट्टी
के बरक्स पढ़ती ही नहीं, परित्राण
पाने के उपाय भी सुझाती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि मधु कांकरिया ने रोमानी
दृष्टि से झोंपड़पट्टी को लेकर ’पत्ताखोर’ में
निजी पाठ प्रस्तुत किया है जो मूलतः झोंपड़पट्टी की अवस्था पर संकेन्द्रित न होने
और नशाखोरी की समस्या के संदर्भ में विश्लेषित किए जाने के कारण विश्वसनीय एवं
प्रामाणिक नहीं। लेकिन गहरा शोध करने के बाद जो लेखिका विषय को अपनी संवेदना और
अंतर्दृष्टि का हिस्सा बनाती हो, उसकी निष्ठा और मिशन पर प्रश्नचिन्ह लगाना संभव ही नहीं। बेशक ’पत्ताखोर’ में एक थिरेपी की तरह नशाखोर आदित्य और
झोंपड़पट्टी के अंतर्सम्बन्धों को गुना गया है, लेकिन पूरी उपन्यास योजना में लेखिका
दो अहम सवाल उठाती हैं। एक, परंपरागत रूढ़ छवियों को लेखकीय/पाठकीय चेतना पर इतना हावी क्यों होने
दिया जाए कि बदलते वक्त के अनुरूप उनकी स्थिति/अस्तित्व/महत्व/प्रासंगिकता में
आवश्यकतानुसार परिवर्तन न किया जा सके? वैश्वीकरण, उपभोक्तावाद, मीडिया द्वारा जबरन फेंकी गई सूचनाएं, जागृति, गरीबी के बावजूद क्रमशः उन्नत होता
जीवन स्तर और एन जी ओ तथा अंततराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की बढ़ती सक्रियता - ये
विविध कारक हैं जिनके संगठित एवं समन्वित प्रयासों ने झोंपड़पट्टी के व्यक्तितव और
चरित्र में अंतर तो किया ही है। आज ’मुर्दाघर’ का
राजू दो-दो बीड़ी का जुआ खेल कर वक्त काटने की बजाय पढ़ लेना चाहता है। बेशक
सामान्यीकरण की कोशिशें सच्चाई से मुंह मोड़ने की पलायनवादी कवायदें होती हैं, लेकिन इन्हीं झोंपड़पट्टियों में शिक्षा
की बढ़ती सुविधाएं एवं आंकड़े क्या इस तथ्य के गवाह नहीं? इसलिए जब पहली बार मधु कांकरिया
कोलकाता के सियालदह और मौलालीं फुटपाथ पर बसाई गई अस्थाई बस्ती की ’जवान होती बच्ची’ को लैम्पपोस्ट की धुंधलाती रोशनी में
पढ़ते दिखाती हैं तो एक क्षीण सी आशा की ओर इंगित नहीं करतीं, पुख्ता संकल्प को रेखांकित करती हैं कि
’’मैं मदर टेरेसा बनूंगी।’’ (पृ0 152) मदर टेरेसा बनने का संकल्प
खामख्याली नहीं, अपने बदतर हालात को समझने-सुधारने और
बृहद् मानवीय समाज से जोड़ने की ललक का द्योतक है। हो सकता है यह कल्पना लेखिका का
यूटोपिया कह कर नजरअंदाज कर दी जाए, लेकिन उन समाजशास्त्रीय सर्वेक्षणों का क्या किया जाए जो दिल्ली की
दो झोपड़पट्टियों - हैदरपुर तथा लाल कुआं में रहने वाले लड़के-लड़कियों के वैचारिक
जागृति से परिपूर्ण सामूहिक प्रयासों को दर्ज करते हैं। हैदरपुर बस्ती की बारहवीं
कक्षा की छात्रा राजेश्वरी और लाल कुआं बस्ती की साधना, दीप्ति, आरती अपने अन्य साथियों के साथ मिल कर ’हैदरपुर दर्पण’ तथा ’लाल कुआं दर्पण’ अखबार निकाल रही हैं। हस्तलिखित!
तात्कालिक महत्व के मुद्दों से लेकर विचारोत्तेजक संवेदनशील मुद्दों की रिपोर्टिंग
और संपादकीय ताकि जे जे बस्ती की बुनियादी जरूरतों की ओर ध्यान आकर्षित कर सके
प्रशासन का, चिंतकों-समाजविदों का, संभ्रांत जगत का। वक्त के बीचोंबीच
तमाम अमानवीयताओं से पंजा लड़ाने को बढ़ा यह हाथ तो कम से कम यूटोपिया नहीं।
मधु कांकरिया की दूसरी आपत्ति यह है कि
यथार्थवादी बनने की धुन में नेतृत्व और आदर्श की प्रतिष्ठा करने की वक्ती जरूरत को
नजरअंदाज करने का प्रचलन क्यों? हर युग को मसीहा की जरूरत है और मसीहा कोई अलौकिक अवतारी पुरुष नहीं, अपनी प्रारंभिक अवस्था में उसी
मिट्टी-पानी से सिरजा कमजोर पराजित प्राणी होता है। फर्क इतना है कि सबके साथ जुड़
कर वह मिट्टी को फौलाद बना डालने का हौसला भीतर की असमाप्त खदान से खोदता चलता है।
इसलिए ’पत्ताखोर’ में नशेड़ी आदित्य का उपचार
डिटोक्सीफिकेशन का कृत्रिम उपाय नहीं, मनुष्य का अकृत्रिम संसर्ग ही कर पाता है। आदित्य पाता है कि गंदगी, अभाव और संत्रास के बावजूद झोंपड़पट्टी ’मिली-जुली संस्कृतियों की पारदर्शी
बस्ती है’ - अपनी ही ’लय-ताल एवं गति में सहजीवन जीते हुए
पवित्र और समग्र’’। बेशक यहां के हताश बाशिंदे जीवन के
संघर्ष से घबरा कर आत्महत्या कर बैठते हैं, लेकिन आत्महत्या के लिए सन्नद्ध आदित्य यहां जिंदगी के तिलिस्म में
बंधता चला जाता है - क्या इसलिए कि ’’ये शुद्ध वर्तमान में जीते हैं जहां जिंदगी की मूलभूत समस्याओं -
रोटी और कपड़े का जाल ही इस कदर बिछा रहता है कि इनके यहां मानसिक समस्याओं को
घुसने को लिए जगह ही नहीं मिल पाती है? या कि सहजीवन से उपजा सहभाव का जादू इनके भीतर के हर वैक्यूम को भर
देता है? (पृ0 165) आदित्य ही नहीं, लेखिका भी चकित हैं कि कर्म और लगन से
दिपदिपाती इन झोपड़पट्टियों को जड़ता, आलस्य और नैराश्य का पर्याय क्यों बना दिया जाता है? क्या इसलिए कि इनके पक्ष को निकट से
देख-गुन-जी कर प्रस्तुत करने वाला कोई नहीं? सभी ’बाहरी व्यक्ति’ की तरह एकांगी ’घुसपैठ’ भर कर पाते हैं - अपनी-अपनी दृष्टि एवं
लक्ष्य से बंध कर। आदर्शवादी प्रेमचंद की पांत में खड़ी होकर जब वे आदित्य के
नेतृत्व में मोहनबागान खटाल के तमाम बाशिंदों के कल्याण के लिए ’श्रमिक एवं रिक्शाचालक विकास संघ’ की स्थापना करती हैं तो खटाल के बाहर
की समृद्ध दुनिया से खटाल के भीतर झांकने और जुड़ने का आह्वान भी करती हैं। एक
नैतिक दायित्व की पूर्ति!
लेकिन मुख्यधारा की रोशनी, समृद्धि, आनंद और विशेषाधिकार को छोड़ कर क्यों
हाशिए की फीकी बेनूरी जिंदगी में झांकना चाहेगा कोई? रूढ़ छवियों और पूर्वग्रहों के सहारे
भरी-पूरी जिंदगियों को नकार और विकृति का नाम देकर खारिज करना दरअसल अपनी
श्रेष्ठता और सुविधा को यथावत बनाए रखना है। इसलिए अस्वाभाविक नहीं कि लेखकीय सनक
कह कर जगदंबा प्रसाद दीक्षित से लेकर मधु कांकरिया तक की आवाजों को अनसुना कर दिया
जाए। लेकिन जब झोपड़पट्टियां ही अपनी आवाज सुनाने के लिए खुद ब खुद आगे बढ़ आएं? कब्जा कर लें उस समूचे स्पेस पर जो
इंटरनेट के जरिए दिग्-दिगंत तक अपनी आवाज पहुंचाने की लोकतांत्रिक आजादी देता है? दोनों हाथों से अगल-बगल दो अलग-अलग
शख्सियतों को थाम लम्बी मजबूत मानव श्रृंखला का निर्माण करे जो अपनी अ-सुखद
उपस्थिति से बहुतों की नींद हराम कर दे? बिल्कुल अभी प्रकाशित पुस्तक ’बहुरूपिया शहर’ झोपड़पट्टी के पंद्रह से पच्चीस वर्षीय युवक-युवतियों का एक ऐसा ही
सामूहिक-समन्वित प्रयास है। दिल्ली की हर बड़ी झोपड़पट्टी - एलएनजेपी कॉलोनी, दक्षिणपुरी, नांगला माँची - के सायबर मोहल्ला लैब से जुड़ कर इन्होंने अपने
परिवेश के द्वंद्व को, विस्थापन
और पुनर्वास के दंश को, अपनी
नामालूम सी हस्ती की धड़कन को बड़ी शिद्दत के साथ महसूसा है। सिर्फ महसूसा नहीं, संवेदन की सघन संश्लिष्टता को रचनात्मक
गहराई भी दी है। डायरी, कहानी
और संस्मरण - विधागत सीमाएं जरूर गड्डमड्ड हुई हैं, लेकिन जो पक कर आया है वह 1947, 1984 और 2002 के भारत विभाजन, सिख-दमन और गोधरा कांड के कारण हुई
तंत्र की अमानुषिकता और व्यक्ति की निरुपाय विवशता, विस्थापन के फैलते कहर और पुनर्वास के
सिकुड़ते असर से किसी भी तरह कमतर नहीं। ’विस्थापन सिर्फ घरों का तोड़ा जाना नहीं है’’ और न ही विस्थापन ’’जिंदगियों को दीवारों, गलियों, खरंजों और दरवाजों से बाहर ले’’ आना है बल्कि ऐसे लगता है जैसे
विस्थापन ’जिन्दगी की किताब से कुछ आवश्यक पन्ने
निकाल’ लेने के बाद ढेर से ’कोरे पन्ने’ उसमें जोड़ देना है जिनमें कुछ नया
लिखना या नया आकार देना जिंदा रहने के लिए जरूरी हो जाता है। लेकिन विकट प्रश्न तो
यह है कि ’’इस नए आकार को शहर अपनी किस समझ में
दाखिल करेगा?’’ नांगला माँची झोपड़पट्टी से विस्थापित
किए जाने के हादसे ने अजरा तबस्सुम, जानू नागर, राकेश
खैरालिया, सूरज राय, यशोदा सिंह, नीलोफर, अंकुर कुमार, लव आनंद आदि इन किशोरों के लेखकीय
व्यक्तित्व एवं संवेदना को एक अद्भुत तराश दी है। नांगला माँची बेशक कभी दिल्ली
नगरपालिका के नक्शे में प्रगति मैदान से नोएडा को जाती सड़क पर एक ओर पड़ी झील जैसी
दलदली जमीन का टुकड़ा भर था, लेकिन ये किशोर जानते हैं इनके माँ-बाप ने इस दलदल को पाटने में अपने
खून, पसीने, सपने और सामर्थ्य की आखिरी बूंद तक लगा
दी है। अब यह जमीन का ’बेकार
टुकड़ा’ नहीं, उनके होने और जीने का सबूत है, 1979 से अगस्त 2006 तक की सत्ताइस बरस
की लम्बी जिंदगी की धड़कनों का साक्षी इतिहास। राशन कार्ड, वोटर कार्ड जैसे जरूरी सरकारी पहचान
पत्रा पाकर ’वैध’ बन चुकी झोपड़पट्टी है नांगला माँची।
उसे ही अब तोड़ दिया जाए क्योंकि ’दिल्ली को 2015 तक सुंदर होना’ है और इस मुहिम में यमुना किनारे की जमीन पर अप्पू घर, प्रगति मैदान जैसे लुभावने
पर्यटन-केन्द्र बनाने हैं; क्योंकि
यदि ’’अमरीका का बादशाह बीच में खड़ा होकर
देखे तो दिल्ली के सात गेट उसे साफ नजर आएं - दिल्ली गेट, अजमेरी गेट, तुर्कमान गेट, मोरी गेट, लाहौरी गेट, कश्मीरी गेट और इंडिया गेट।’’ (पृ0 152) पुर्नवास के लिए दक्षिणपुरी
से 75 किलोमीटर दूर नांगलोई की तरफ फैली सावदा-घेवरा की जमीन। कइयों के लिए 12 या
18 गज जगह तो बहुतेरों के लिए इतनी भी नहीं। निरुपाय हो वे क्या करें? किन्हीं अन्य झोपड़पट्टियों में जा कर
सिर छुपाएं? यानी प्रशासन की कवायद झोपड़पट्टियों को
खत्म करने की है, उनके बाशिंदों की स्थिति सुधारने की
नहीं। यानी दिल्ली के नक्शे पर दाग की तरह उभरी कुछ झोपड़पट्टियां मिटाने की सनक, बेशक अन्य झोपड़पट्टियां आकार में फैल
जाएं। सावदा-घेवरा सरीखी नई जगह और दूर-दूर तक अपनी ही वीरानगी से थरथराती नंगी
नुकीली जमीन! यहां कोर्ट के फैसले की प्रतीक्षा तक अस्थायी निवास बनाने के लिए
तंबू की बल्लियां गाड़ते बुजुर्ग कलेजों में बसी पुरानी हूकें भविष्य में बोले जाने
वाला संवाद बन कर जी उठी हैं कि
’’जब हम यहां आ के बसे तो ये जमीन कैसी थी?’’
’’राख थी।’’
’’बंजर थी।’’
’’राख के सिवा कुछ नहीं था’’
’’जब खाना खाते थे तो मुंह में राख आती थी।’’
’’बीस पच्चीस साल अपनी जिंदगी की पूरी कमाई लगा दी इसे बनाने में।’’
’’कमाई ही नहीं, अपने शरीर की मेहनत भी लगा के इसे बनाया है।’’ (पृ0 110)
लेकिन बीते को वहीं छोड़ नई बसावट में
अपने को घुला-मिला लेने की अदम्य जिजीविषा भी उतनी ही तीव्रता के साथ ठाठें मार
रही है -
’’ऐसा लग ही ना रहा कि तुम कहीं और से आई हो। तुम तो यहीं की लग रही
हो।’’
उनकी इस लाइन ने यशोदा और मेरी इस जगह
पर पहले दिन की हिचकिचाहट को दूर कर दिया। मुस्करा कर हम उनकी चारपाई के पास बिछी
दूसरी चारपाई पर बैठ गए। नूरजहां बाजी लक्ष्मी नगर ठोकर नंबर 8 में चालीस गज मकान
खरीद कर पंद्रह साल से रह रहीं थीं। अब वहां से यहां उन्हें 18 गज जमीन दी गई। अभी
वो 18 गज बल्ल्यिों के सांचे में नहीं ढला। आसपास ज्यादा लोग नहीं आए। इसलिए
नूरजहां बाजी का दिल नहीं लग रहा है। ’’पर उससे क्या, मैं किसी न किसी तरह लोगों के बीच जगह ढूंढ कर रहती हूं यहां।’’ (पृ0 245)
और घनीभूत विषाद के बीच जीवन के राग को
जिंदा रखने की उन्मादी आतुरता भी -
’’नांगला से आ कर रावण इस बार जे जे कालोनी सावदा-घेवरा के बी ब्लॉक
में मारा जाएगा। टेंट लग गया है। टेंट लगाने वाले बोले, ’’अब तो हमें यहां जीना है। वहां तो हम
सरकार की जगह पर खेलते थे, ये
तो अब हमारी जगह है। तो क्यों ना खेलें अपनी पुरानी रामलीला।’’ अभी सब कलाकार बिछड़े हुए हैं पर कुछ भी
हो, शुरुआत तो हो ही गई है।’’ (पृ0 147)
एक नहीं, अनेक आवाजों का गुंथा हुआ समूह है ’बहुरूपिया शहर’। अपने-अपने ढंग से जहां-तहां आ कर
अपनी-अपनी बात कहते किशोर - सपनों की सिहरन और वक्त को रचने की पुलकन के बीच निजी
जिंदगी में अभावों और बाधाओं से चौबीसों घंटे दो-दो हाथ करते। कोई कुरियर ब्वाय है
तो कोई एस. टी. डी. बूथ में ऑपरेटर, कोई ब्यूटिशियन है तो कोई सिलाई-कढ़ाई के धंधे में व्यस्त, कोई सर्वे कर्मचारी तो कोई बैंक या
छोटी-मोटी कंपनियों का एजेंट। साझा बात एक ही सबमें कि हार मानने और फिसल कर गिरने
को तैयार कोई नहीं। न, अंधेरे
के बाद अंधेरा नहीं आता। फैलता है भोर का उजाला, अगर ऐन उसी वक्त नींद से बोझिल आंख बंद
न हो गई हो। ये किशोर मुस्तैदी से अपनी आंखें खुली रखते हैं, इस भीषण सत्य के कारण कि ’’जो चीज रू बरू नहीं होती, वो नाटकीय लगती है। तो क्या विस्थापन
भी नाटकीय है? शायद नाटकीय भी है और रू ब रू भी। असीम
जिंदगी में यादों की बनावट कुछ इसी तरह की होती है। हम जिंदगी को शुरु से ही कहानी
का रूप दिए हुए जीते हैं।’’ (पृ0
100) इसलिए इनकी रचनात्मकता का स्फोट किन्हीं बासी, ऊबाऊ, यांत्रिक सच्चाइयों का पिष्टपेषण नहीं
करता, हार्दिकता और अकलुष सम्बन्धों का
सिलसिला बनाए रखता है जहां घनघोर क्षणभंगुरता के बीच आत्मीयता और मनुष्यता सनातन
सत्य बन कर उभरती है। साझापन इनकी पहचान है, जीने की मजबूरी और जीवनी-शक्ति भी। इसलिए जानू नागर की कहानी ’ सुरमा दिल्ली का’ हो या लखमी चंद कोहली की ’तू रहवे कां है’ और ’कृपया प्रतीक्षा कीजिए’, शमशेर अली की मार्मिक कहानी ’लगते सब गुड्डू की नकल है’ हो या यशोदा सिंह की ’वेरिफिकेशन’ - सबमें एक खास तरह की सोधी गंध व्यक्ति
को व्यक्ति से जोड़ कर वर्ग, जाति या समूह नहीं बनाती, मुकम्मल इंसान बनाती है - सृष्टि की अनवरतता का आदिम-अनंतिम सूत्रा।
यह हाशिए की मुख्यधारा में घुल-मिल जाने की ’घुसपैठिया’ कोशिश
नहीं, विभाजनों को नकारने की संगठित लड़ाई है।
बेशक ’बहुरूपिया शहर’ झोपड़पट्टी के सच को झोपड़पट्टी के
दिलोदिमाग के जरिए सामने लाकर साहित्य में पसरे एक भारी वैक्यूम की पूर्ति करता
है।
बेशक साहित्य के पास जादुई छड़ी नहीं कि
घुमाते ही मनचाहा परिवर्तन ला दे स्थितियों में, लेकिन अदृश्य को दृश्यमान करने, अश्रव्य को मुखर करने का नैतिक एवं
कलात्मक बल है उसमें। कलात्मक बल उसके अंकन और आह्वान को कालजयी बनाता है और नैतिक
बल क्रियान्वयन की ऊर्जा से भर कर स्वप्न को यथार्थ में बदलने की शुरुआत करवाता
है। इसलिए अकारण नहीं कि ’दिल्ली
की दीवार’ में उदय प्रकाश कोरोनेशन पार्क से निकल
कर राजधानी के कोने-कोने में छा जाने वाले कोढ़ियों, अपंगों, विकलांगों और आधे-अधूरे मनुष्यों का
चित्राण करते हैं तो हमें घिनौने व्यक्तित्व के नीचे छुपा कोई ’अपना-सा’ मनुष्य दीखने लगता है; रोजमर्रा के जीवन में कड़क मोलभाव करके
रिक्शाचालकों-मजदूरों का हक मार कर अपनी बुद्धिमत्ता (शाइस्तगी?) पर इठलाने वाला हमारा अहं ’पत्ताखोर’ और ’नरककुंड में बास’ के अकिंचन बेहाल पात्रों के आगे शर्म
से पानी-पानी होने लगता है और अपराधियों-स्मैकियों-वेश्याओं से सुलगती घृणा करने
वाला हमारा नैतिक दंभ उनकी ढहती जिंदगियों में हमारे वर्चस्व और हस्तक्षेप को देख
बौखला जाता है। यकीनन स्लम्स का विस्तार पैसे, ताकत और वर्चस्व का अहंवादी विस्तार है
जिसे किन्हीं आवासीय परियोजनाओं द्वारा खत्म नहीं किया जा सकता। खत्म करने के लिए
अपने भीतर झांकने की दरकार है जहां झोपड़पट्टियों को बनाए रखने की मक्कारियां अनेक
चक्रव्यूहों को गुनती-बुनती रहती हैं। चुपचाप!
सम्पर्क-
मोबाईल -09416053847
कलम और मानवीय संवेदनशीलता अभी जिन्दा है-देखकर अच्छा लगा-धन्यवाद
जवाब देंहटाएंकलम और मानवीय संवेदनशीलता अभी जिन्दा है-देखकर अच्छा लगा-धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और सटीक आलेख
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया लेख... यह एक बेहद जरूरी काम करता है...
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