नासिर अहमद सिकन्दर के कविता संग्रह “अच्छा आदमी होता है अच्छा” पर उमाशंकर सिंह परमार की समीक्षा।



नासिर अहमद सिकन्दर

नासिर अहमद सिकन्दर का एक कविता संग्रह पिछले वर्ष ही प्रकाशित हुआ है। “अच्छा आदमी होता है अच्छा” नाम के इस संग्रह में नासिर ने अपनी छोटी कविताओं के माध्यम से कविता में लय और छंद को साधने की सफल कोशिश की है। नासिर की इन कविताओं के गहरे अभिधार्थ भी हैं जिनमें व्यंग्य का पुट है। नासिर के इस संग्रह की एक पड़ताल की है युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने। तो आइए पढ़ते हैं नासिर अहमद सिकन्दर के कविता संग्रह “अच्छा आदमी होता है अच्छा” पर उमाशंकर सिंह परमार की यह समीक्षा। 
                     
युग–बोध का प्रतिरोधी शिल्प

उमाशंकर सिंह परमार

नासिर अहमद सिकन्दर का नया कविता संग्रह “अच्छा आदमी होता है अच्छा” उदभावना प्रकाशन से 2015 में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह के पूर्व नासिर के तीन और कविता संग्रह अलग-अलग समय में प्रकाशित हो चुके हैं। इस संग्रह में छोटी और मध्यम सब मिला कर 98 कविताएं हैं। इस किताब में बडी कविताएं न के बराबर हैं अन्त में ही एक कविता है “चिट्ठी पत्री और प्रधानमन्त्री” जिसे आकार में बडा होने के कारण लम्बी कह सकते हैं। अधिकांश कविताओं का रचनाकाल वर्ष 2011-12 का है कुछेक 1995-96 की भी हैं पर 2011-12 की लिखीं कविताओं की संख्या अधिक है। और लगभग सभी कवितायें छोटी है। वर्ष 2011-12 का समय पूँजीवाद व बाजारवाद के पूरे अधिपत्य का समय है। 1991 से 2000 तक का समय बाजार के आगमन का समय है, 2000 से 2010 तक का समय विस्तार और अधिपत्य का समय है। और 2010 के बाद का समय बाजारवाद की समूची सांस्कृतिक उपलब्धियों व विश्वविजय की उदघोषणा का युग है। जाहिर है नासिर जैसा सजग कवि अपने समय की मूल चेतना का ही रेखांकन करेगा। 

नासिर का युग पूँजी द्वारा ध्वस्त किए जा रहे मानवीय मूल्यों व प्रतिरोध की लोकतान्त्रिक परम्पराओं के विघटन का युग है। श्रम और पूँजी के रिश्तों में बढती खांई का युग है। उत्पादन प्रक्रिया से श्रम को पृथक कर उसे अचेतन कर देने का युग है। सत्ता पाने के लिए मनुष्य की आपसी समरसता व भ्रातत्व को नष्ट कर साम्प्रदायिक, जातिवादी हथकंडों को अपनाने का युग है। नासिर इस युग की इन नयी संरचनाओं से वाकिफ हैं। इसलिए उनके इस संग्रह में छोटी कविताओं की बहुलता है। छोटी कविता आकार में जरूर छोटी होती हैं पर प्रतिरोध के समय वही कारगर होती हैं। लम्बी कविता अपने कथ्य व कहन को जल्दी व्यक्त नहीं कर पाती जबकि छोटी कविता दो या तीन पंक्तियों में ही अपना काम खतम कर देती है। छोटी कविता प्रतिरोध की बेहद जरूरी रणनीति है। यह दागो और भूल जाओ की नीति पर काम करती है। इतिहास देखिए जब भी कोई बडा प्रतिरोध हुआ है जो क्रान्ति गीत के रूप में छोटी कविता ही रही है। छोटी कविता लिखने के अपने रचनात्मक खतरे भीं हैं। छोटी कविता लिखना सरल और सहज काम नहीं है। पहला खतरा भाषा का होता है। छोटी कविता में यदि भाषा का अर्थवान प्रयोग नहीं है यदि शब्द शक्तियां अपना काम नहीं कर पा रहीं तो छोटी कविता बेहद फूहड मजाक बन कर रह जाती है। और दूसरा सबसे बडा रचनात्मक जोखिम होता है कविताओं का आपसी सामन्यजस्य स्थापित कर रचना को युग का प्रबोध देना। दूसरा जोखिम बहुत से कवियों में है़। नासिर के संग्रह “अच्छा आदमी होता है अच्छा” में कविताएं तो छोटी हैं और वैविध्यपूर्ण भी हैं, अलग अलग विषयों पर है़ लेकिन युग के प्रति सजगता इतनी गहरी है कि हर छोटी कविता अगली छोटी कविता का हिस्सा प्रतीत होती है। जैसे कई अवान्तर कथाएं मिल कर एक बडी कथा का निर्माण करती हैं। कई खंड कथाएं मिल कर एक महाकाव्य का निर्णाण करती हैं वैसे ही इस संग्रह की समस्त छोटी कविताएं एक बहुत बडी कविता का निर्माण कर रही है। हर छोटी कविता दूसरी छोटी कविता से कुछ इस तरह अन्तर्ग्रथित है कि उसे अलग कर पाना सम्भव नहीं हैं। ये अलगाव सम्भव नहीं है इसलिए इसे युग की गाथा कह रहा हूं। बाजारीकृत हिन्दुस्तानी लोक की चीख कह रहा हूं। उदारीकृत मनुष्यता की बेचैनी कह रहा हूं। इस संग्रह में हाशिए पर ढकेली जा रही अस्मिताओं व छद्म अस्मिताओं के उभार की कथा है तो दूसरी ओर बाजार द्वारा ध्वन्स किए जा रहे संवैधानिक मूल्यों व नव निर्मित अमानवीय मूल्यों के आपसी संघर्षों की कथा है। एक तरफ बाजार के खतरनाक इरादे हैं तो दूसरी ओर मनुष्यता को बचाने की जद्दोजेहद है।

नासिर अहमद सिकन्दर हमारे समय के बेहद जरूरी कवि हैं। उनका लेखन वैविध्यपूर्ण एवं वैचारिक परिपक्वता से युक्त है। छत्तीसगढ के जमीनी अनुभव व वहां की मिट्टी  की गन्ध उनकी कविताओं में रच बस गयी है। राजधानी से दूर, राजसत्ता व राजसचिवालय से दूर किसी पथरीली जमीन में रह कर वहां की भाषा व संस्कृति को निचोड कर कविता द्वारा युग का ठेठ आसव तैयार कर देना एक लोकधर्मी कवि के लिए बडा रचनात्मक संघर्ष है। अनुभवों व संघर्षों की असलियत व जीवटता देखनी है तो हमें सत्ता केन्द्रों से दूर जाना होगा। राजधानी का राजसी जीवन जी कर हम लोक व युग की सही पडताल नहीं कर सकते हैं। आज का युग भूमंडलीकरण का है। बाजार के इरादे खतरनाक हैं प्रतिरोध को नष्ट करना उसकी पहली प्राथमिकता है। बाजार समझता है कि प्रतिरोध की असली जमीन राजधानी नहीं है। छोटे छोटे गाँव और शहर हैं जहां पूँजी का प्रवाह एकतरफा होता है। इसलिए प्रतिरोध खतम करने के लिए सबसे पहले लोक में जन्मी कविता को साहित्य की मुख्य धारा से अलग करो इस बात का संकेत नासिर जी ने अपने कविता “संग्रह अच्छा आदमी होता है अच्छा” में किया है। कविता का नाम है “दिल्ली का देश” यह दिल्ली देश की दिल्ली नहीं है। यदि देश की दिल्ली होती तो पूरे देश का सामाजिक मानचित्र दिल्ली में दिखता। दिल्ली में जो दिखता है वह केवल दिल्ली का देश है । पूरा भारतीय लोक अलग और दिल्ली अलग। नासिर लिखते हैं 

“दिल्ली में राजघाट  
दिल्ली में कुतुबमीनार
दिल्ली में प्रधान मन्त्री
दिल्ली में सरकार
दिल्ली में बडे कवि
दिल्ली में आलोचक बडे
दिल्ली का देश”।

यह व्यंग्य कविता है। आकार में छोटी होने के बावजूद भी राजधानी केन्द्रित अभिजात्य नजरिए पर करारा प्रहार करती है। अभिजात्य होने का नजरिया केवल सत्ता पर ही प्रभावी नहीं है साहित्य पर भी यह दृष्टि प्रभावी है। इसलिए दिल्ली में रहने वाला कवि बडा कवि और दिल्ली से दूर रहने वाला कवि छोटा कवि है। कविता का यह अभिजन विभाजन आज के चमकते दमकते बाजार की देन है। सत्ता  शक्ति और पूँजी तीनों का आपसी विलयन ही बाजारवाद का सफेद सच है। साम्राज्यवाद, फासीवाद के बाद अब बाजारवाद वही कर रहा है जो पहले औपनवेशिक सत्ताएं किया करती थीं। यदि यह कहा जाए कि साम्राज्यवाद का आधुनिक व नवपरिवर्तित स्वरूप बाजारवाद है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बस अन्तर यह था कि साम्राज्यवाद में एक केन्द्र होता था जिससे उसकी विरोधी शक्तियों व प्रतिरोधी अवधारणाओं की पहचान हो जाती थी। पर इस बाजारवाद का कोई केन्द्र नहीं है। यह विश्वव्यापी और बहुरूपी है जिससे न तो इसका सही स्वरूप ज्ञात हो पा रहा है न बाजार प्रतिरोधी व समर्थक अवधारणाओं की सही पहचान स्पष्ट हो पा रही है। पहचान की यह नई चुनौती परम्परागत अवधारणाओं के समक्ष आज की सबसे बडी रचनात्मक चुनौती है। जब पहचान की समस्त शक्तियां बेदम हो जाती हैं तब कविता की जिम्मेदारी और बढ जाती है। अस्मिताओं की पहचान व उनके शब्दांकन हेतु कविता को अपनी अन्दरूनी तहों में उतरना होता है। कविता समाज के अन्दर, व्यक्ति के अन्दर, संस्कृति के अन्दर, मूल्यों के अन्दर, विचारधाराओं के अन्दर, परम्परा के अन्दर झांकती है। और सब का मूल्यांकन करते हुए बाजार के खतरों के बरक्स एक मुकम्मल सौन्दर्य बोध व सांस्कृतिक प्रतिरोध की बेचैनीपूर्ण आस्था का प्रतिपादन करती है। इस स्थिति में कविता कवि के अनुभवगत सूक्ष्म संवेगों पर बात करती है वह मनुष्य के परिवेश से ही बाजार के खतरों को खोजते हुए हाशिए में दबी कुचली अस्मिताओं के महत्व को उजागर करती है। इसलिए आज की कविता द्वारा वर्णित परिवेश को देशकाल से जोडना व उथले भौतिक संकुचित विषय से जोडना सरासर गलत है। बाजार के दौर में बाजार के खतरों से उत्पन्न कविता नवनिर्मित समाज का आईना होती है। नासिर अहमद सिकन्दर ने एक जगह लिखा है

“मैने एक कविता लिखी
मेंरे ही अनुभव थे इसमें  
मेंरी ही थी जीवन दृष्टि
मैने दिया शीर्षक इसका
कविता की सामाजिक भूमिका। 
(अच्छा आदमी होता है अच्छा पृष्ठ-12)

यह आज के युग का तकाजा है आज व्यक्ति के अनुभव नितान्त निजी  नहीं हो सकते है। व्यक्ति का परिवेश भी निजी नहीं होता है। सब कुछ एक दूसरे से जुडा है हर एक परिस्थिति हर जगह है। जो एक जगह है वही सब जगह है।

साहित्य एक व्यापक सांस्कृतिक प्रक्रिया का हिस्सा है। कवि का मुख्य काम इस प्रक्रिया के तहत समाज और साहित्य के अन्दरूनी रिश्तों की पडताल करते हुए मनुष्य विरोधी शक्तियों की पहचान करना है। इस बात को हम दूसरे ढंग से कह सकते हैं कि कवि अपने युग और परिवेश में व्याप्त समानान्तर शक्तियों को सीधे रचनात्मक चुनौती देता है। आज हम जिस दौर में जी रहे हैं वह युग भूमंडलीकरण का युग है। भूमंडलीकरण ने हमारे परम्परागत सामाजिक ताने बाने को तोडकर संरचनाओं को अपने अनुरूप ढाल रहा है। परम्परागत संरचनाओं में उसकी अवधारणाओं के मुफीद नहीं रहा उसे या तो वह नष्ट कर रहा है या फिर हाशिए में ढकेल रहा है। इससे नयी किस्म की संरचनाएं और हाशिए उत्पन्न हो रहे हैं। ये नयी संरचनाएं व हाशिए आज की मूलभूत समस्या है। नवनिर्मित हाशिए केवल परम्परागत वर्गीय संरचना के तहत पहचान में नहीं आ सकते हैं। यदि हम इन संरचनाओं को महज पूँजी व स्वामित्व के मानक से निर्धारित करेगें तो हम नयी अस्मिताओं के उभार को नहीं समझ सकते हैं। क्योंकि आज सत्ता व व्यवस्था भी बाजार की शक्ल अख्तियार कर चुकी है। सत्ता बाजार की अगवानी करने वाली एजेन्ट है। ऐसे में लोक और तन्त्र दोनो का पार्थक्य स्पष्ट दिखने लगता है। सत्ता अपनी उपस्थिति के लिए केवल उत्पादन व वितरण की प्रक्रिया का सहारा नहीं लेती न यह मुद्दों पर आधारित मतदान व्यवस्था का युग है। अब बाजार का युग है। मुद्दे बाजार में उत्पाद की तरह उपस्थित किए जाते हैं और चुनाव खतम होने के बाद मुद्दे अगले चुनाव तक सुसुप्त अवस्था में चले जाते हैं। नासिर की इन छोटी कविताओं में चाहे बदलता परिवेश हो या मूल्यों का संकट हो या निराशा में डूब कर घबराने की अवस्था हो या संवैधानिक लोकतान्त्रिक अधिकारों के हनन के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज हो सब कुछ बडे धीरज से देखा गया है और धीरज से देखते हुए निजी अनुभवों के स्तर पर जीते हुए संवेदनात्मक तरीके से कहा भी गया है। कविताओं में कवि का परिवेश और धैर्य दोनो बेहद सूक्ष्म तरीके से अन्तर्ग्रथित है। कविताएं पढ कर ही नासिर के व्यक्तित्व को पढा जा सकता है। एक अच्छे लोकधर्मी कवि की यही विशेषता होती है कि वह अपनी कविताओं में कितना उपस्थित रहता है। यदि हम कविता पढ कर कवि के लोक की पहचान नहीं कर सके तो कविता और कवि दोनो किसी काम के नहीं हैं। नासिर अपनी कई कविताओं में उपस्थित से दिखते हैं। ऐसा आभास होने लगता है कि संवाद की भंगिमा कविता नहीं दे रही नासिर ही संवाद कर रहे हैं 

“काम की कहां कम्बख्त
नाम ही के चर्चे हैं
कहने को सरकारी नौकरी
दुनिया भर के खर्चे हैं”
 
(अच्छा आदमी होता है अच्छा, पृष्ठ-33)

और इतना ही नहीं अपनी एक कविता चन्द्राकर बाबू में भी अपनी नौकरी की व्यथा कथा कहते दिख जाते हैं 

“अपना जीपीएफ निकालते
बैंक से भी ऋण लेने को
आवेदन देते
नान रिफन्डेबल लोन पर भी
नजर गडाए”। (पृष्ठ 37)  

वाकई मध्यम वर्ग में जो उच्च मध्यम वर्ग था वह तो बुर्जुवा बन गया पर निम्न मध्यम वर्ग, जिसमें छोटे सरकारी कर्मचारी भी हैं, बडी तेजी से हाशिए की तरफ बढ रहा है। एक सरकारी वेतनभोगी कर्मचारी  जब पाई पाई को मुहताज हो सकता है तो आम किसानों और मजदूरों की दुर्दशा का अनुमान करना कोई कठिन काम नहीं है। जो पहले से धनवान थे उनका लगातार धनवान होते जाना और गरीबों का लगातार गरीब होते जाना इस आर्थिक उदारीकरण का एक काला सच है। आर्थिक असमानता की  खाईं इतनी बढ चुकी है कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद में सबसे बडा हिस्सा चन्द पूँजीपतियों के हाथ में ही सीमित हो जाता है। आदमी और आदमी के बीच यह भेद प्राकृतिक नहीं है व्यवस्था की देन है। नासिर एक जगह कहते हैं 

“आदमी तुम भी 
आदमी हम भी
तुम्हारा हमारा
अलग अलग नसीब क्यों” (पृष्ठ 71)

ऐसा नहीं है कि अमीरी और गरीबी आज की देन है। हर युग में गरीब थे हर समय अमीर थे। पर आजकल अमीरी और गरीबी वकायदा सुचिंतित नीतियों का हिस्सा है। यह एक व्यवस्थागत नीतियो की साजिस का अहम अंग है। “अच्छा आदमी होता है अच्छा” में गिरावट के दौर में अच्छे आदमी की तलाश है। यह तलाश एकांगी नहीं हैं विभिन्न सन्दर्भों व सवालों के परिप्रेक्ष्य में आदमियत की तलाश है नासिर में। आज के समय के प्रति जो बेचैनी दिखती है उसे केवल परिवेश के बदलाव से जोड कर देखना इस कविता संग्रह का कुपाठ होगा। नासिर की कविता घनीभूत क्षणों में सम्प्रेषण की कथा नहीं हैं बल्कि पीडा के विभिन्न स्तरों में घटित मानवीय टकरावों व उसमें निहित नये मूल्यों की कहानी है। इसलिए ये कविताएं परिवेश से उदभूत प्रमाणिक अनुभवों की जुबानी हैं जो अनुभव की विविधता के साथ साथ सन्दर्भों की विविधता भी समाहित करती हैं। आज के सन्दर्भ में सबसे बडा सवाल स्त्री और बच्चों का सवाल है। स्त्री तो पुरातन काल से ही गम्भीर सवाल रही है व्यवस्था के बदलते ढांचों में भी उसकी स्वायत्तता व उसकी आजादी की बात करना शुचितापूर्ण गरिमा के सामन्ती मूल्यों के खिलाफ रहा है। यह स्थिति तथाकथित आधुनिक समाजों में आज भी उपस्थित है। नासिर ने कई कविताओं में पुरुष के सामन्ती वर्चस्व व स्त्री की सहनशील ममतामयी व्यक्तित्व का उल्लेख किया है। देखिए एक कविता जिसमें नासिर ने पुरुष वर्चस्ववाद व स्त्री विरोध में बजबजाते मूल्यहीन सम्बन्धों के दलदल का खाका खींचा है। स्त्री कितने भी ऊंचे पर न हो पुरुषवर्चस्वाद उसे आजादी का मनौवैज्ञानिक आभास भी नहीं देना चाहता है। 

“पारिवारिक
सामाजिक
कार्यालयीन कार्यकलाप में भी
प्रधान साहब में
झलक रहा था
वे पुरुष हैं 
मैडम स्त्री।

यह एक आफिस का बिम्ब है जिसमें प्रधान और मैडम दोनो में असहमति के कारण बहस हो गयी। इस बहस में प्रधान का चरित्र और स्त्री के आचरण उन दोनो की पहचान करा देती है कि एक पुरुष है दूसरी स्त्री। नासिर कुछ कविताओं में स्त्री के वात्सल्यमय स्वरूप का भी उल्लेख करते हैं। पर सबसे ज्यादा कविताएं उनकी बच्चियों और बच्चों पर हैं। पढे-लिखे युवा इस उदारीकृत व्यवस्था में एक गम्भीर समस्या बन कर उभरे हैं। पढ लिख कर बेरोजगार होना भी एक हाशिये का निर्माण है। इस हाशिए कि चर्चा इधर कुछ वर्षों में और तेज हुई है आज की नौजवान पीढी इस दंश को सबसे अधिक भुगत रही है। बेरोजगारी पर मैने बहुत सी कविताएं पढीं हैं लेकिन नासिर ने जिस तरह से इस समस्या की भयावहता को रेखांकित किया है ऐसा रेखांकन दुर्लभ है। वैश्विक स्तर पर व्याप्त बाजारवाद कहीं न कहीं मन्दी का शिकार होता रहता है। मन्दी की अवस्था में बेरोजगारी लाजिमी है। बेरोजगारी जनसंख्या से अधिक व्यवस्था पर निर्भर करती है। यह समस्या आज वैश्विक स्तर पर बडा संकट है। हजारों लाखों युवाओं का बेरोजगार हो कर फालतू हो जाना एक प्रकार का अवर्गीय संघर्ष है। यह नये किस्म का संवर्ग है जो परम्परागत वर्गीय खांचे में नहीं अट रहा है। एक अभिवावक जो खुद इस पीडा को सह चुका हो जब वह अपने दो साल के बच्चे को देखता है तो उसे बेरोजगार नौजवान का स्मरण हो आता है यही नासिर की कविता कहती है।  

“फोटो फ्रेम में मढी
मेंरे दो साल के
बच्चे की तस्वीर
जो अभी
मेंरे तीन कमरे वाले मकान के
एक कमरे में
बेरोजगार
युवक सा बैठा है।

इस कविता में केवल बेरोजगारी की पीडा व उसकी भयावहता ही नहीं है इसमें एक  दो साल के बच्चे के भविष्य को लेकर एक अभिवावक की चिन्ता भी है। उसकी चिन्ता भविष्य की अवश्यमभावी परिस्थितियों की जटिलता से है। इस कविता का कहन रिश्तों की गहराई के साथ साथ बाजारवाद के भयावह खतरों को भी मूर्त कर देता है। नासिर के समय का यथार्थ बहुत भीषण गलित रुग्ण और बीमार है इसलिए उसका बोध भी भयावह संकट पैदा करता है। जितना ही यथार्थ को अपने आस पास और भीतर अनुभव करते जाईए वह उतना ही कष्टकारक होता जाता है। चारों तरफ तिकडम, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, छल, बेईमानी, अवसरवाद,  भृष्टाचार ही दिखाई देता है। ये संकट केवल युग के संकट नहीं हैं ये मनुष्यता के अवमूल्यन के खतरे भी हैं। भारतीय लोकतन्त्र की आदतो में शुमार खतरे हैं। इन खतरों के कारण ही आज आम जनता का लोकतान्त्रिक संस्थाओं के प्रति मोहभंग हो रहा है। नासिर अहमद सिकन्दर के कविता संग्रह “अच्छा आदमी होता है अच्छा” में इन समस्त असंगतियों और विसगंतियों का उल्लेख आया है। यदि इन विसंगतियों की चर्चा न होती तो संग्रह युग का आईना न बन पाता जैसा कि नासिर ने भी कहा है 

“कविता के आगे
समाज जैसा
दिखता वैसा / (पृष्ठ76)

जाहिर है कविता का यथार्थ युग का यथार्थ है। यदि कविता इस यथार्थ से बचती है तो कविता छद्म हो सकती है। नासिर ने हर एक विसंगतियों की ओर संकेत किया है। कविताएं छोटी होने के कारण ये असंगतियां भी सूत्र की तरह उपस्थिति हुईं हैं जैसे 

“हम तुम
प्रेम कर रहे थे
धर्म
जाल बुन रहा था (पृष्ठ17)

धर्म की अनुपयुक्तता व मानव के बरक्स इसकी जरूरत का मूल्यांकन वो कई कविताओं में करते हैं। नासिर भली प्रकार के जानते है़ कि धर्म सर्वदा सत्ता और व्यवस्था के पक्ष में रहता है। वह समाज में पहले से व्याप्त बुर्जुवा विभेदों का कारण है। इसलिए नासिर धर्म के द्वारा किए गये विखंडनों के बरक्स वो मनुष्यता को प्रस्तुत करते हैं  

“सुन्नी है
शिया है
सवर्ण है
दलित है
काले हैं
गोरे हैं
होना तो यह चाहिए
कि आदमी है।

नासिर आज कि तमाम प्रतिक्रियावादी, जातिवादी, नस्लवादी अवधारणाओं का घोर विरोध करते हैं। अपने युग की असंगतियों व मानवीय यातनाओं का खाका खींचते समय नासिर अहमद सिंकदर कही भी भावुक अवैज्ञानिकता शिकार नहीं होते हैं। बदलते एतिहासिक सन्दर्भों को देख कर अधिकांश कवि अतीतोन्मुख होकर पुरानी व्यवस्था का रागमाला गाने लगते हैं। ऐसी अतीत धर्मिता कदम पीछे खींचने जैसा है। यह यह अति काल्पनिकता है। लेकिन जिस कवि के पास इतिहास की द्वन्दवादी दृष्टि होती है वह व्यापक परिवर्तनों के बरक्स भविष्य के लिए अपने मूल्यों के आग्रह बदले बगैर गतिमान जीवन की सिफारिश करते हैं। ऐसे कवि मनुष्यता के प्रति चिन्तातुर होते हैं। नासिर भी भविष्य के लिए क्रान्ति की पीठिका तैयार करते हैं। मनुष्यता के हरे रंग के लिए आँखों में लाल रंग की कल्पना करना इस बात का प्रमाण है। लाल रंग आक्रोश और क्रान्ति का प्रतीक है। यदि आक्रोश आँखो में है तो मुट्ठी भींच जाना वांछित प्रहार के लिए विध्वसांत्मक आस्था प्रतिपादन है। उनकी एक कविता है “सामूहिक गान”। इस कविता में लय की भंगिमा देखिए जो एक अलग प्रतिरोध की गूँज बनकर उभर रही है।  

“आवाज उठेगी
तो अक्स बनेगा
जो आपकी
लाल आँखों में दिखेगा
हांथ पाँव की हरकत में लरजेगा
मुट्ठियों में भिंचेगा।”

यह प्रतिरोध की सकारात्मक उदघोषणा है। मनुष्यता को बचाए रखने के लिए कवि की बेचैनी है। ऐसी कई कविताएं उनके इस संग्रह में हैं जो संघर्ष का आवाहन और आक्रोश की जोरदार सिफारिश करती है।

अब थोडी सी चर्चा “अच्छा आदमी होता है अच्छा” के कलापक्ष पर भी हो जाए। नासिर की कविताई को हम कला का विरोध एकदम नहीं कह सकते हैं। लेकिन यह विशुद्ध कलावाद भी नहीं है। कला जब तक एक माध्यम बनकर रहती है तब तक उसे कला ही कहते है लेकिन कलात्मक प्रयोग कवि के लिए साध्य हो जाएं तो कला कलावाद में तब्दील हो जाती है। नासिर के इस संग्रह में सन्दर्भ ही अधिक मुखर हैं समाज व युग को परखने के लिए यथार्थवादी पद्धति व सीधे कहने की टेक्निक को अपनाया गया है। सीधे कहन का प्रभाव बहुत ही प्रहारपूर्ण होता है चुटीला व्यंग्य बनाता है। इसे कहें तो हम सपाट कथन कह सकते है़। आज की कविता में यदि सपाट कथनों की भंगिमा नहीं हैं तो मै नहीं समझता कि वह विसंगतियों के खिलाफ युद्धक भूमिका का निर्वहन कर सकती है। अब सपाट कथन को कला कहें या कवि की आदत दोनो गलत है़। वह न तो कला है न आदत बल्कि कवि का तरीका है। यदि हम नासिर की कविताओं को रीतिकालीन मानकों पर कसेंगे तो खाक ही हाथ लगेगा। लय को छोड कर अलंकरण की ऐसी कोई भी ऐसी पद्धति नहीं है जो अभिजात्य रीति से हो सब कुछ नई दृष्टि व आधुनिक सामाजिक विजन के अनुकूल है यह कविता का नया सौन्दर्यशास्त्र है। आज कविता को सामाजिक सौन्दर्यशास्त्र की दृष्टि से परखने की जरूरत है। यही आज की जरूरी कला है। भले ही यह कला परम्परागत न हो लेकिन कविता के कार्यपद्धति की जरूरी शर्त है। नासिर भी इस नयी कला का एक संकेत अपने संग्रह  “अच्छा आदमी होता है अच्छा” में कर रहे हैं 

“कहर है
बला है
आप कहते हैं
कविता कला है।

यहां छिछले कलावाद का प्रतिरोध है। नासिर से यही उम्मीद की जा सकती है जो व्यक्ति आरम्भ से ही अभिजात्य संस्कृति का विरोध कर रहा हो वह कैसे अभिजात्य कला मानकों को स्वीकार कर सकता है। कविता जब तक कहर बनकर टूट न पडे जब तक बला बनकर उभर न जाए तो कैसी कला। नासिर ने इस संग्रह को लय के सृजक कवि केदारनाथ अग्रवाल को समर्पित किया है। और उनकी लयात्मक पद्धति का भी स्मरण किया है। जाहिर है नासिर की कविताओं में लय बन्धों का अभाव नहीं है। यह सच भी है जैसे उपर का उदाहरण देखिए कहर है शब्द के बाद बला आया है। ठीक अगली पंक्ति में कला शब्द का प्रयोग तुकबद्ध लयात्मक भंगिमा दे रहा है। ‘अच्छा आदमी होता है अच्छा’ में कोई कविता ऐसी नहीं है जिसमें लयात्मक बन्ध न हों। ये लयात्मक बन्ध किसी छन्द शास्त्र या पिंगल शास्त्र की अनुकृति नहीं हैं बल्कि स्वाभाविक कहन की एक बेहतरीन पद्धति है। 

“न आलोचक की जरूरत
न बिम्बों की फिक्र
सीधी सच्ची बात का
बस हो जाए जिक्र।

देखिए इस कविता का बन्ध लय ताल तुक तीनो छन्दोपागमों का सफलतापूर्वक कविताकरण किया गया है। दरअसल लय की ये भंगिमाएं अक्सर भाषा के साथ तय की जाती हैं। यदि कवि जनभाषा का प्रयोग कर रहा है तो जन की समझ में  आने वाली लय का ही वह संधान करेगा। ऐसी लय भाषा के हल्के व इकहरे प्रयोगों से भी उत्पन्न हो जाती है। लय के साथ नासिर बिम्ब प्रतीक व्यंजना अप्रस्तुत विधान जैसे काव्य तत्वों का सफलतापूर्वक बगैर किसी हो हल्ले के प्रयोग कर लेते हैं। बिम्बों और प्रतीकों से बडी शक्ति उनकी कविता में व्यंजना की दिखाई देती है। व्यंजना उनकी भाषा की जान है। व्यंजना हटा दीजिए आधा संग्रह चरमरा कर बैठ जाएगा। व्यंजना का एक उदाहरण देखिए 

“रक्त में भले
थोडा हीमोग्लोबिन कम हो जाए
पर लाल रहे
उबाल रहे  (अच्छा आदमी होता है अच्छा)

यहां पर व्यंजना का कौशलपूर्ण प्रयोग बेहतरीन लग रहा है। व्यंजना के कारण ही नासिर की ये छोटी कविताएं सूक्ति की तरह दिख रही हैं। एक एक कथन पर पीडा और यन्त्रणा की छाप दिख रही है। व्यंजना भले ही शब्दों का खेल न हो पर अर्थ की छवि का निखार जरूर कर देती है। नासिर के इस संग्रह में सांकेतिक अर्थों को जिस तरह से भाषा की बुनावट से जोडा गया है इससे संग्रह की गरिमा व काव्यात्मकता दोनो बढ गयी है।

नासिर अहमद सिकन्दर अपने कविता संग्रह “अच्छा आदमी होता है अच्छा” में इस दुनिया को अपनी आँखों से ही देखते हैं। अपनी जमीन की भीतरी तहों में उतरकर वो व्यवस्था के क्रिया कलापों का मूल्यांकन करते हैं। इसलिए उनका निजी लोक हिन्दुस्तानी दर्द को बयां कर सकने में सक्षम हुआ है। वैश्विक पूँजीकृत परिवर्तनों व विखंडित होते मूल्यों के आलोक में अलगावग्रस्त मनुष्यता को देखना समय के क्रूर चेहरे को ऐतिहासिक प्रमाणिकता से युक्त कर देता है। संग्रह की कविताएं वर्गीय टकरावों का तकाजा है व विकास की ऐतिहासिक परिणिति है। आज के दौर में परिव्याप्त खतरों को समझने व परखने के बाद भी यदि मनुष्य अपनी चेतना की तलाश में ऐसी यथार्थवादी युगबोध से युक्त लोकधर्मी कविता न लिखे तो यह स्थिति कवित्व की निरर्थकता है। मुझे इस सन्दर्भ में मशहूर शायर फैज अहमद फैज की एक शेर याद आ रही है।
                          तेरे दस्ते.सितम का अज़्ज़ नहीं
                        दिल ही काफ़िर था जिसने आह न की

उमाशंकर सिंह परमार





सम्पर्क-

उमाशंकर सिंह परमार
बबेरू जनपद बांदा
मोबाईल -9838610776

टिप्पणियाँ

  1. मुझे इस सन्दर्भ में मशहूर शायर फैज अहमद फैज की एक शेर याद आ रही है।
    तेरे दस्ते.सितम का अज़्ज़ नहीं
    दिल ही काफ़िर था जिसने आह न की


    *"शेर याद आ रहा है" कर लिया जाए सर. वरना शेर कम और गाय ज्यादा लग रही है.

    बाकी शानदार लेख.

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  2. Achchhi padtaal karti sameeksha...
    Nasir Ji ko padhna chahunga. Shukriya Uma Ji . Salaam pahleebar.blogspot.com
    - Kamal Jeet Choudhary.

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