शाहनाज़ इमरानी की कहानी ‘लड़ाई जारी है’
शाहनाज इमरानी |
जन्मस्थान - भोपाल (मध्य प्रदेश)
शिक्षा - पुरातत्व विज्ञान (आर्कियोलॉजी) में स्नातकोत्तर
सृजन - कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ छपी हैं।
पहला कविता संग्रह "दृश्य के बाहर"
पुरस्कार - लोक चेतना की साहित्यिक पत्रिका "कृति ओर" का प्रथम
सम्मान!
संप्रति - भोपाल में अध्यापिका
हाल ही में पकिस्तान में वहाँ की मशहूर माडल
कंदील बलोच की उसके भाई ने गला दबा कर हत्या कर दी। कंदील का अपराध केवल
उसका स्त्री होना था। सोशल साईट्स पर उसके द्वारा अपनी अलग-अलग पोज में तस्वीरें
लगाना उसके भाई को नागवार लगता था। कंदील की हत्या कर जैसे उसने घर की इज्जत को
बचा लिया। एक अरसे से ‘इज्जत’ के नाम पर महिलाओं को चारदीवारी में कैद करने ही
नहीं बल्कि पुरुष वर्ग पर अवलम्बित करने की कोशिशें सफलतापूर्वक चल रही हैं। लेकिन
महिलाओं के एक वर्ग में स्वतन्त्रता की जो चेतना विकसित हुई है वह दिनों-दिन अपना
एक स्थायी रूपाकार लेने लगी हैं। कंदील हो या फिर शाहनाज़ इमरानी के कहानी की पात्र नसीम बानो, विद्रोह के
स्वर उठने लगे हैं जिसे पितृसत्तात्मक समाज बर्दाश्त करने के लिए तैयार आज भी नहीं
है। बदलाव प्रकृति का नियम है और स्त्रियों की पूर्ण स्वतन्त्रता के रूप में यह
बदलाव अब खुले रूप में नजर आने लगा है। इसी भावभूमि पर आधारित है शाहनाज़ इमरानी की
कहानी ‘लड़ाई जारी है।’ शाहनाज़ इमरानी अभी तक कविताएँ लिखती रही हैं। यह कहानी उनके द्वारा लिखी गयी पहली कहानी है। इस नवागत कहानीकार के सुखद रचनात्मक भविष्य की कामना करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी पहली कहानी ‘लड़ाई जारी है।’
लड़ाई जारी
है
शाहनाज़ इमरानी
सूरज डूबने लगा था, आवाज़ें टूट-टूट कर हवा में
बिखर रही थीं। दूर तक फैले दरख़्त और परिन्दे धीरे-धीरे अँधेरे में डूब रहे थे। उस
घर की तेज़ रौशनी दूसरे घरों से उसे अलग कर रही थी। यह वही घर था जिसमें आज एक मौत
हुई थी। बढ़ते अँधेरे के साथ इसमें विलाप भी शामिल हो गया था। मग़रिब की नमाज़ के बाद जब जनाज़ा उठाया जा रहा था, अब आस-पास की लम्बी हरी-हरी घास भी काली दिखने लगी
थी।
जनाज़ा नसीम बानो का था। कई
साल पहले वो जब गाँव में आई थीं यह जगह दरख्तों के झुंड से घिरी
कुछ लोगो का ही बसेरा थी। वक़्त के साथ-साथ यहाँ की
आबादी भी बढ़ती गई। ज़मींदारी ख़त्म हुई और बसेरा गाँव में बदल गया। रोने की कई आवाज़ों के बीच चंपिया सुबकने लगी। हज़ार बार का सुनाया हुआ
क़िस्सा फिर से सुनाने लगी — ‘उस दिन
मैँ रोटी ले कर बैठी ही थी कलुआ
आया तो मैंने पूछा— रोटी खा
लें? यह सुन कर उसने, थाली पर लात मारी और बोला
तेरी माँ की-- जब देखो खाती रहती है।
तुझे पता है....... कि सारा दिन खेत में काम करने के बाद मजूरी लेते समय कित्ती गाली खाने
को मिलती है। लगता है भीख दे रहे हैं। मैं तो गुस्से में सब भूल बैठी। अन्न का
अपमान सहन नहीं हुआ, जैसे चंडी चढ़ गई मुझ पर। हँसिया लेकर कलुआ के पीछे भागी, तो सारे गाँव में कोहराम मच गया।
किसी की हिम्मत नहीं थी,
जो मुझे पकड़ लेता कलुआ दीदी के घर
में घुस गया। दीदी हमको बचाइ लो आज तो हमको जान से मार
देगी चंपिया। जब मैं दीदी के घर
में दौड़ती हुई पहुँची तो उन्होंने ने मेरे ऊपर बाल्टी
भर पानी डाल दिया। मेरा सारा क्रोध पानी के साथ बह निकला। दीदी ने हाथ से हँसिया ले कर फेंका
और सामने बिछे तख्त पर बिठा दिया। कुछ देर बाद
मुझे होश आया, खूब रोई, दीदी को सारी बात बताई, दीदी ने हम दोनों को ही समझाया रोटी के लिये ही तो यह सारी मशक़्क़त है। दिन भर
की मेहनत के बाद इसको ठुकराना ठीक नहीं। जिस दिन भूखे सोना पड़ता है उस दिन ख़्वाब
में भी रोटी देखते हो न, हर रोज़ की हाथापाई और गाली–गलौज अच्छी नहीं, इस तरह बात-बात पर गुस्सा करना ठीक नहीं। तुम
दोनों पति-पत्नी मोहब्ब्त से रहा करो। उसी दिन से दीदी ने मुझे उनका खाना
बनाने और साफ़-सफाई के काम
पर रख लिया, और हमारी गृहस्थी को ठेका मिल गया। उसके फुसफुसाने पर दो--चार लोगों और मुखिया ने चंपिया को घूर कर देखा
तो वह साड़ी के पल्ले से मुँह पोछने लगी। मौलवी साहब
की बीवी ने ज़ोर से कलमा पढ़ना शुरू कर दिया— ‘लाइलाहा
इल्ललाहो मोहम्मदुर रसूल उल्लाह’। कुछ औरतें उनकी आवाज़ से आवाज़ मिलने की
कोशिश करने लगीं, माहौल में अजीब
सी सुगबुगाहट फ़ैल गई। इधर स्कूल की
चपरासिन ने भी अपनी कहानी चंपिया को सुनानी शुरू कर दी। साड़ी का पल्ला दिखाते हुए बोली – ‘जे धोती न, दीदी ने दी
थी, रमज़ान में फिर नई धोती देती,
इससे पहले ही चली गई रे। हमरी दीदी हमरे परिवार का पेट तो गाँव के
बड़े लोगन के बचे-खूचे खाने से भर जाता है। बारिस में खुद ही बनाते
हैं। रूखा-सूखा कभी रोटी सीझती नहीं हैं और
कभी दाल कच्ची रह जाती। जब कच्चा भात खाने से पेट में दरद होता तो दीदी के
पास आ जाते, कोई न कोई दवाई दे देती थी। हमरी मोड़ी सातवीं कक्षा में आ गयी। दीदी ही लाई। उसके लाने कापी किताब, अब
हमरी मोड़ी का क्या हुई गा रे भगवान उसका बापू तो पहले ही बोलता है सादी कर दो।
आँगन में मच्छरों की भिनभिनाहट बढ़ने लगी थी।
दीदी का नाम यूँ तो नसीम बानो था मगर उनके गुज़रे वक़्त के
साथ नाम खो गया था। नसीम के पिता अशवाक़ मोहम्म्द खां पेशे से वकील और बहुत अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे और अपनी कुछ इन्हीं खासियतों के लिए जाने जाते
थे, पुराने रईस लोग यहां पीढ़ियों से जमे थे। मोहल्ले की सबसे शानदार और पुरानी कोठी, जिससे जुड़ा एक बाग भी था जिसकी देखभाली रमज़ान
करता और हाट बाज़ार का भी काम करता
था, वो तीन पीढ़ियों से इस परिवार में था इसके दादा इस परिवार की चाकरी में आए थे। इसके एवज में उन्हें गांव में जमीन का एक
टुकड़ा दिया गया था। आम लोग ऊंचे ओहदेदार भी अशवाक़ मोहम्म्द खां का सम्मान करते थे। खान-पान, पहनावे से लेकर बोलने और व्यवहार में,
उन पर
अंग्रेजियत हावी थी परन्तु निजी जीवन में वो बहुत दखियानूसी थे। तीन बेटियाँ एक बेटा और
पत्नी---! सब उनसे ख़ौफ़ज़दा रहते, परिवार के सभी फैसले वो
खुद करते थे और किसी में उनके के ख़िलाफ़ जाने या बोलने की
हिम्मत नहीं थी। वो सिर्फ लड़के की पढ़ाई के लिये चिंतित रहते थे। लड़कियों के लिए घर
में ट्यूटर आते। दीनी तालीम भी दी जाती और हर साल प्राइवेट फ़ार्म भरे जाते परीक्षा
के लिए। कई बार अशवाक़ मोहम्म्द खां वो फ़ार्म उठा कर फैंक देते
थे, बीवी की बड़ी मिन्नतों के बाद यह काम अंजाम तक पहुँचता।
वक़्त गुज़रने के साथ नसीम बानो सभी फ़ार्म ख़ुद भरने लगीं, सिर्फ़ दस्तख़त के लिए पिता
के पास फ़ार्म रख कर घंटों दरवाज़े के पीछे खड़ी रहती।
नसीम बानो अशवाक़ मोहम्म्द खां की पहली औलाद, वो भी
लड़की। कई दिन तक अशवाक़
मोहम्म्द खां गुम-सुम रहे थे। पता नहीं नसीम नाम किसने
रखा शायद पैदा करने वाली माँ ने ही, एक दिन जब शाम को
नसीम ज़ोर-ज़ोर से रो रहीं थी अशवाक़ मोहम्म्द खां मोटी सी एक किताब पढ़ने में मसरूफ़ थे। बार-बार उनके रोने की आवाज़ पढ़ने में
ख़लल पैदा कर रही थी। वो तेज़ क़दमों से चलते हुए कमरे में
आए देखा पलंग पर बच्ची हाथ पैर मार-मार कर रो रही है। वो
इतनी ज़ोर से चिल्लाये -- चुप हो जा
कमबख़्त। के बावर्ची ख़ाने में खाना पकाती पत्नी के हाथ से चमचा छूट गया। वो दौड़ती
हुई कमरे की तरफ आयीं। अचानक यूँ चिल्लाने से नसीम अपने छोटे से गद्दे पर ज़ोर से
उछल पड़ी और कुछ वक़्त के लिए सन्नाटा छा गया अभी वो कमरे से
बाहर जा ही रहे थे कि नसीम ने बुलंद आवाज़ में रोना शुरू कर दिया। इस मामूल से तंग
आकर अशवाक़ मोहम्म्द खां ने
अपने स्टेडी-रूम को दूसरे कमरे में मुन्तक़िल कर लिया। वक़्त अपनी रफ़्तार से गुज़रता
रहा, दो लड़कियों और एक लड़के का इज़ाफ़ा और हो गया था घर
में। छोटे-छोटे पैर दिन में सारे घर में दौड़ते और पाँच
बजे के बाद अपने कमरे में रात तक फुसफुसाते रहते। एक तोतली सी आवाज़ देर तक गूँजती,यह आवाज़ अशवाक़ मोहम्म्द खां के बेटे की होती जो गोद में
बैठ कर दिन भर की जानकारियाँ देता।
अशवाक़ मोहम्म्द खां का
मानना था कि लड़कियों को शिक्षा देने का मतलब उनको आज़ादी देना और
ख़ानदान वालों के सामने शर्मिन्दा होना है।
क्यूँकि पहले ही नसीम बानो की शादी में देर हो गयी थी, वो चाहते थे तीनों
लड़कियों की शादी कर दें, फिर अपने बेटे के बारे में तय
करेंगे कि उसे किस फील्ड में ले जाना है। जब नसीम बानो ने दसवीं क्लास पास कर ली
तो उन पर शादी का दवाब बढ़ गया-- उन्होंने अपनी माँ से कहा कि वो
अभी शादी करना नहीं चाहतीं, जब उन्होंने आगे पढ़ने की ख़्वाहिश ज़ाहिर
की, तो हवेली के सारे दरो-दीवार कांपने
लगे अशवाक़ मोहम्म्द खां के गुस्से से उन्होंने बीवी को ख़ूब खरी-खोटी
सुना कर इस अनुचित माँग के लिए दोषी ठहराया, और फिर नसीम बानो को कमरे में बंद कर दिया। दो
दिन की भूखी नसीम बानो के सर से जब पढ़ाई का भूत नहीं
उतरा तो अशवाक़ मोहम्म्द खां को अपनी हार महसूस हुई। वो
नसीम बानो को बालों से पकड़ कर आँगन में
लाये और जूते पहने पाँव से लतियाना शुरू कर दिया। वह बुरी तरह चिल्लाती रही और
उसकी माँ, भाई, बहने और नौकर-चाकर भी छूप
कर देखते
रहे पर किसी में हिम्म्त नहीं थी की वो नसीम बानो को बचा लेता।
रात भर माँ नसीम बानो के ज़ख्मो
को सहलाती रही, लेकिन पिता की कठोरता वैसे ही बनी रही। आख़िर अशवाक़
मोहम्म्द खां ने अपने आख़री सुरक्षित अधिकार का प्रयोग
करने की ठान ली, पत्नी को तलाक़
देना और दो साल पहले तय की हुई नसीम बानो की शादी
को अंजाम तक पहुंचाना। बीते पन्द्रह दिनों में अशवाक़
मोहम्म्द खां ने अपनी बहन को बुला कर शादी की सभी
तैयारियां कर लीं। बीवी सारा दिन बावर्चीख़ाने में खाना पकाते हुए गुज़ार देतीं।
छोटी बहने नसीम बानो को कुछ न कुछ खिलाने और शादी के ख़्वाब दिखाने
में लगी रहतीं। नसीम बानो अपनी बात पर अड़ी हुई थीं
कि शहर जा कर उसे आगे पढ़ना है। मामला संगीन हो
गया था। मोहल्ले की औरतों और लड़कियों के लिए यह बात समझ से बाहर थी
कि एक लड़की शहर जाना चाहती थी वो भी पढ़ाई के लिए।
आस-पास के लोग इस किस्से को दूसरा
ही रंग दे रहे थे। सारे ख़ानदान और मिलने
वालों को दावत नामे बाँट दिए गए। जब नसीम बानो का उबटन
लगने का वक़्त आया तो उसने उबटन लगवाने से
साफ़ इंकार कर दिया। माँ ने बुख़ार का बहाना बना कर दूसरे कमरे में लिटा दिया। माँ
समझ रही थी बेटी की इच्छा के विरुद्ध हो रहा था उसका निकाह। माँ का चेहरा बुझा हुआ था, बहनें कुछ न कर पाने की विवशता
के बीच दबी हुई थीं। माँ जानती थी पति और बेटी को, कि कोई भी पीछे हटने वालों
में से नहीं था। यह हादसा ऐसा था सभी की
पेशानियों पर बल पड़ गए और हर एक की आँखों में नसीम बानो के प्रति तिरस्कार देखा जा
सकता था। क्यूँकि उबटन न लगवाना बहुत बड़ा अपशकुन था। लड़कियां शादी में रगड़-रगड़
कर उबटन लगवातीं हैं, गीत गाये जाते, मगर नसीम बानो ने तो पटले से उठ कर सब के दिल में शक पैदा कर दिया
था, सभी वजह
ढूंढ रहे थे। ख़ानदान की बहुत सी महिलाओं का मानना था-- यह कोई इश्क़
मोहब्बत का क़िस्सा है। यह सब सुन कर अशवाक़ मोहम्म्द खां के सर
पर खून सवार हो गया था। जब वो अपनी बड़ी बहन के साथ अपने एक मात्र बेटे को भेजने की बात कर रहे थे और
पत्नी को तलाक देने की तो उनकी पत्नी ने चाय ले जाते वक़्त दरवाज़े के पीछे
छुप कर सुन लिया था। अशवाक़ मोहम्म्द खां ने बहन से कहा – हालात साज़गार
होते ही वो लड़के को वापिस ले आयेंगे। उनकी बहन ने ज़ारो-क़तार रोते हुए कहा कि
वो सब्र से काम लेंगे। पहले ही बहुत बदनामी हो चुकी है, अब और कुछ
ऐसा नहीं करेंगे जिससे बात बढ़े। अशवाक़ मोहम्म्द खां ने कहा मैंने खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। क्या ज़रूरत थी उसे
दसवीं तक पढ़ाने की? मगर मजबूरी भी थी लड़के ने कह दिया था
लड़की कम से कम दसवीं पास होनी चाहिए।
यह सारी बातें सुन कर उसी रात नसीम बानो की
माँ ने, अपने और नसीम बानो के गहने
और कुछ कपड़ों को एक छोटे से संदूक
में रख कर रमज़ान के हाथ जोड़ते हुए उनकी बहन के घर ले जाने कि मिन्नत की। चालीस से
ज़यादा उम्र के रमज़ान अपने साथ नसीम बानो को ले कर उसकी ख़ाला के घर के लिए सुबह होने से पहले रवाना हो गये, किन्तु नसीम बानो की ख़ाला के घर पहुंचने पर
रमज़ान और नसीम बानो को समझ में आया कि यहाँ पढ़ना लिखना
तो दूर की बात है, पेट भर खाना मिलना
भी मुश्किल है। ख़ाला अपने सात अदद बच्चों और ससुराल
वालों में इतनी मसरूफ़ थीं कि उन्हें पता ही नहीं चला कब नसीम और रमज़ान उनकी
टूटी फूटी हवेली से उलटे पाँव बाहर निकल
गये।
रमज़ान ने शहर आ कर अपने जीवन का मक़सद नसीम बानो को बना लिया, नसीम बानो भी मेहनत से पढ़ने लगीं। बी.ए. का रिज़ल्ट आने वाला था कि एक दिन रमज़ान की
तबियत बिगड़ने लगी, बीमार रमज़ान की
देखभाल के साथ नसीम ने मोहल्ले के छोटे-छोटे बच्चो को ट्यूशन पढ़ना भी जारी रखा। दो
महीने में रमज़ान सूख कर काँटा हो गए, उन्होंने अपने गाँव जाने की ख्वाहिश जाहिर की,
उनकी ख़्वाहिश के अनुसार नसीम बानो रमज़ान को उनके गाँव ले गईं। गाँव
पहुँचने के सप्ताह बीतते-बीतते रमज़ान दुनियां छोड़ गए,
मगर जाते-जाते गाँव के सरपँच और अपने कुछ लोगों को कह गए कि उनके न
रहने पर वे नसीम बानो का ख्याल रखें। नसीम बानो ने आगे की पढ़ाई
उसी गाँव में रह कर जारी रखी, कुछ ही समय बाद बदलाव की
लहर उठनी शुरू हुई और इस गाँव से कुछ ही घंटों की दूरी पर
एक स्कूल सरकार की तरफ से खुल गया, इसी स्कूल
में नसीम बानो पहले अध्यापिका और फिर प्रधान अध्यापिका तक बन गई
थीं। उनका बाक़ी समय भी पढ़ने पढ़ाने और गाँव के लोगों से गाँव सुधारने कि बातें करते गुज़र जाता था।
गाँव की औरतें नसीम की हिम्मत और दृढ़ संकल्प से बहुत प्रभावित थीं। उनमे जागृति आ रही थी
किन्तु कुछ औरतों के मन में कई तरह के डर और संदेह चक्कर काटते रहते नसीम के अकेले रहने,
और उनके परिवार के बारे में, नतीजे में
वो अपनी शंका नसीम से जाहिर करती।
एक दिन मसुरियादीन के घर के पिछवाड़े वाले
कुएं की जगत पर कुछ औरते जमा थीं, उनके मन में तरह-तरह के सवाल थे, अपने अधिकारों को लेकर खुसुर-फुसुर कर रहीं थी
वे, सरपंच की पत्नी ने नसीम के
सामने उसके ही जीवन को लेकर कई सवाल उठा दिए! एक तनाव का डेरा तन गया उन सब के सर पर! उन तनावपूर्ण क्षणों
में भी नसीम के चेहरे पर एक शिकन तक नहीं
आई! एक व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट उसके चेहरे पर खेलने लगी। उन्होंने कहा तुम एक औरत हो कर भी यह
सोचती हो कि मैंने और मेंरी माँ ने ग़लत किया है। अपने अधिकारों के दायरे के
बाहर जा कर काम किया है। आख़िर लड़कियां कब तक गाय बनी रहेंगी।
यह हक़ किसने दिया जब चाहा, जहाँ चाहा
बाँध दिया। इसके ख़िलाफ़ बग़ावत तो करनी ही थी। आवाज़ तो बुलंद करनी थी, अपनी
मजबूरी को तोड़ना था मुझे और मैंने किया। सरपँच की पत्नी को समझ में नहीं आया कि जब
अच्छा-ख़ासा घर और वर दोनों मिल रहे थे तब शादी नहीं की और अब अकेले रहती हैं। नसीम बानो बहुत सी लड़कियों की ज़ुबान
बनी और बहुत से ख़्वाबों को उड़ना सिखाया। आज वही नसीम बहुत ख़ामोशी से दुनियां से
चली गई थीं। सारा गाँव इकट्ठा हो गया था।
अंदर के कमरे से बहुत सारी किताबें और एक अदद
लकड़ी का बॉक्स बाहर निकाल कर रख दिया गया था। बॉक्स में पुराने खतों और काग़ज़ों के
साथ एक बंद लिफ़ाफ़ा और एक पास बुक थी। लिफ़ाफ़ा में रखा पत्र सरपँच
जी के नाम था, सब तरफ खामोशी छा गई थी। सबने
रोना बंद कर दिया था। स्कूल की एक अध्यापिका ने उस ख़त को ज़ोर से पढ़ना शुरू कर
दिया। बैंक के रूपये में से चंपिया और स्कूल की चपरासिन की लड़की की पढ़ाई जारी रखने और चंपिया को हर
महीने दौ सौ रूपये देने, घर का सभी सामान गाँव में
बाँट देने की वसीयत थी। घर को एक स्कूल के रूप में
चलाने का काम सरपंच की पत्नी का और बैंक में बक़ाया धन
लड़कियों की पढ़ाई पर खर्च करने की वसीयत वकील और अदालत के द्वारा बनाई गयी
थी। सभी लोगों ने अवाक् होकर ख़त को सुना। कुछ देर
सन्नाटा छाया रहा। थोड़ी देर बाद बिलख कर रोने
की आवाज़ें आने लगीं इस बार आँगनबाड़ी की चपरासिन और चंपिया के साथ-साथ सरपँच की पत्नी के रोने में भी, किसी आत्मीय को खो देने की
तकलीफ़ थी।
उस समय तो नहीं, लेकिन रात
में जब गाँव की औरतें और सरपंच की पत्नी नसीम
बानो के कमरे में रखे लकड़ी के बॉक्स के अन्दर के काग़ज़ात देख रही थीं तो उसमें वो ख़त भी मिल गया जो नसीम बानो के
मोहल्ले में से किसी ने रमज़ान के पते पर नसीम बानो के लिए लिखा था। बहुत सारी लानतों के बाद लिखा था कि जब रमज़ान अपनी बेटी समान नसीम बानो को लेकर शहर भाग गए
तो सुबह होने पर हर तरफ से लोग उन्हें बुरा
भला कहने लगे और एक हंगामा खड़ा हो गया। यह सब सुन कर
शादी में आए मेहमान अपने-अपने घरों को रवाना हो गए, पूछ-ताछ
के डर से नौकर-चाकर भी भाग
गए, अशवाक़ मोहम्म्द खां की बहन उनके बेटे को ले कर जब
जाने लगीं तो नसीम बानो की माँ ने उनके के पैर पकड़ लिए। बहनें हाथ जोड़ कर रोकने लगीं, तो अशवाक़ मोहम्म्द खां अपनी बीवी की चोटी पकड़ कर घसीटते हुए कमरे में ले गए और दोनों बेटियों को ज़ोर का धक्का
देकर बहन के जाने का रास्ता साफ़ कर दिया। उनके जाने के बाद घुटी-घुटी रोने की आवाज़ें ख़ाली कमरों में दस्तकें देती रही। सुबह से दोपहर हो गयी, अशवाक़ मोहम्मद खां कमरे से बाहर नहीं निकले और न कोई काम करने वाला ही हवेली में आया, नसीम बानो की माँ के साथ उनकी छोटी बहनें जानमाज़ पर बैठी दुआ माँगती रहीं
किसके लिए उन्हें ख़ुद भी पता नहीं था। रात का वक़्त था
और चारों तरफ अँधेरा छाया हुआ था। अचानक हवेली में
आग लग गई,
सबने देखा कि हवेली से उठने वाली आग की
लपटें आसमान को छू रही थीं। सुबह हवेली का
ढाँचा रह गया था और राख़ के साथ बहुत सारे सवाल भी बाक़ी रह गये थे।
संपर्क -
मोबाइल -9753870386
कहानी की दुनिया में एक बुलंद कहानी के साथ पदार्पण करने पर बधाई |
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएंइस जबरदस्त कहानी के लिए शाहनाज इमरानी को बधाई तथा कहानी पढवाने कै लिए पहली बार का आभार- रतीनाथ योगेश्वर /इलाहाबाद
जवाब देंहटाएं