हेरम्ब चतुर्वेदी की किताब पर दीपेन्द्र सिवाच की समीक्षा


प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी
इतिहासकार प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी की इधर वाणी प्रकाशन दिल्ली से दो महत्वपूर्ण किताबें प्रकाशित हुईं हैं - 'मुगल शहजादा ख़ुसरो' और 'दो सुल्तान, दो बादशाह और उनका परिणय परिवेश'। हेरम्ब जी की इन किताबों को पढ़ कर एक त्वरित टिप्पणी लिखी है दीपेन्द्र सिवाच ने। इसी बीच खबर मिली है कि हेरम्ब जी ने विगत 25 जनवरी को इलाहाबाद के गौरवशाली इतिहास विभाग के अध्यक्ष पद का गुरुतर दायित्व संभाल लिया है हेरम्ब जी को बधाईयाँ देते हुए हम उम्मीद करते हैं कि उनके मार्गदर्शन में विभाग फिर से उन उंचाईयों को छुएगा जिसके लिए वह अतीत में जाना जाता रहा है तो आइए पढ़ते हैं दीपेन्द्र सिवाच की यह समीक्षा - 'इतिहास में प्रेम की एक अजस्र धारा 

इतिहास में प्रेम की एक अजस्र धारा
   
दीपेन्द्र सिवाच 



बीते 27 दिसम्बर को इलाहाबाद पुस्तक मेले में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास विभाग में प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी सर की दो पुस्तकों का विमोचन हुआ। ये दो पुस्तकें थीं -'मुगल शहजादा ख़ुसरो' और 'दो सुल्तान, दो बादशाह और उनका परिणय परिवेश'। इनमें से दूसरी पुस्तक 'दो सुल्तान ...' फिलहाल मैंने पढ़ी है और आज इसी के बारे में।




साल 2013 में उनकी एक पुस्तक आई थी 'मुग़ल महिलाओं की दास्तान : हाशिए से संवरता इतिहास'। ये पुस्तक काफी चर्चित हुई। इस किताब में उन्होंने अजानी और कम चर्चित मुग़ल महिलाओं के मुग़ल इतिहास में अवदान की बड़ी शिद्दत से वर्णन किया है। इस मायने में 'दो सुल्तान दो बादशाह•••'  उस किताब की अगली कड़ी लगी कि इसमें भी तमाम महिलाओं के सल्तनत और मुग़ल इतिहास पर प्रभाव की बात को आगे बढ़ाया है। पहली पुस्तक में केंद्र में महिलाएं हैं लेकिन इसमें  केंद्र में सुलतान और बादशाह हैं और इसमें उनके जीवन में आने वाली महिलाओं का उन पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन है। 

पहली किताब में वे भारत से निकल कर मध्य एशिया तक जाते हैं जबकि इसमें वे भारत की हरी भरी समृद्ध धरती से बाहर नहीं निकलते और शुरू से ही प्रेम की एक अजस्र धारा बहनी शुरू हो जाती है। हाँ, कालक्रम में वे उसी तरह काफी पीछे जाते हैं और इसे वे 13वीं शताब्दी से शुरु करते हैं। अपनी बात कहने के लिए प्रोफ़ेसर चतुर्वेदी मध्यकालीन भारतीय इतिहास की चार मुख्य शख्सियतों को चुनते हैं। इसमें से दो सल्तनत काल की और दो मुग़ल काल की यानी दो सुल्तान- अलाउद्दीन ख़लजी और शेरशाह सूरी तथा दो बादशाह- बाबर और औरंगजेब हैं। इस सूची में जो सबसे रोचक नाम है वो निःसंदेह औरंगजेब का है जैसा कि प्रोफ़ेसर चतुर्वेदी भी स्वीकारते हैं और मेरे हिसाब से एक और रोचक नाम जो इसमें होना चाहिए था और नहीं है वो मुहम्मद बिन  तुग़लक का है। ख़ैर...।

अलाउद्दीन  खिलजी


पहली कहानी अलाउद्दीन ख़लजी की है। उसके जीवन के उस महत्वपूर्ण कालखंड की कहानी जब उसका रूपांतरण एक साधारण अमीर से सुल्तान के रूप में हो रहा था। उस इतिहास की निर्मिति में एक तरफ उसकी पत्नी जो कि उसके मालिक सुलतान जलालुद्दीन खलजी की बेटी और सास यानि जलालुद्दीन की पत्नी 'मलिका ए जहां' थीं और दूसरी तरफ उसकी प्रेयसी महक और ये मिल कर अलाउद्दीन के भाग्य निर्माण की परिस्थितियों में अविकल रूप से योगदान कर रही थीं। वे बताते हैं कि किस प्रकार अन्य परिस्थितियों के साथ-साथ उसकी पत्नी और सास मलिका-ए-जहाँ के प्रति उसके खराब व्यवहार और अपनी प्रेयसी महक के प्रति बढ़ते प्रेम ने उसे एक ऐसी बंद गली में धकेल दिया था जहाँ उसके पास अपने चाचा और सु्ल्तान जलाल की हत्या कर सुल्तान की गद्दी प्राप्त करने का ही एक मात्र  उपाय बचा। इस किताब के इस पहले अध्याय में प्रेम और राजनीति के घात प्रतिघात से निर्मित एक ऐसा सुंदर संसार रचते है कि पाठक उसमें डूबने उतराने लगता है। 

शेरशाह सूरी

शेरशाह के प्रसंग में उल्लेखनीय है कि उसके जीवन में माँ के अलावा कम से कम चार महिलाओं का पदार्पण होता है। विधवा रानी दूदू, चुनार की लाड मलिका, गाजीपुर के वीर सेनानी नासिर खाँ लोहानी की विधवा गौहर गोंसाई और बीबी फतेह मलिका का, लेकिन इसमें अपेक्षाकृत एक सपाट वातावरण निर्मित होता है। उसका कारण शायद ये है कि उसके जीवन में घटनाएं इतनी अधिक और तेजी से घटित होती हैं और ये महिलाएं उसके जीवन में अनायास आती जाती हैं और उसके लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक होती हैं। इसी तीव्रता के कारण उसके जीवन में प्रेम का वो उत्कर्ष नहीं ही दिखाई देता जो अलाउद्दीन या अन्य शासकों के जीवन में है। 


बाबर


बाबर के जीवन में भी अनेक महत्वपूर्ण महिलाओं का प्रवेश होता है जिसमें उसकी पहली पत्नी आयशा सुल्तान बेग़म, एक लौंडा बाबरी, उसका वली अहद देने वाली पत्नी माहिम बेग़म, मासूमा बेग़म और दो कम जानी बेग़में दिलदार बेग़म और गुलबदन बेग़म। पहले बाबर आयशा बेग़म और लौंड़े बाबरी का अंतर्संबंधों का खूबसूरत त्रिकोण बनता है। एक तरफ बाबर अपनी उच्च संस्कारों वाली खूबसूरत पत्नी आयशा बेग़म की ओर आकर्षित नहीं होता है और सही मान नहीं देता है वहीं दूसरी तरफ वो एक लौंडे बाबरी की ओर आकर्षित होता है। इस प्रकरण में स्त्री-पुरुष के अंतर्संबंध और द्वंद का और उसका आदमी के व्यक्तित्व पर प्रभाव का और फिर उससे प्रभावित होती परिस्थितियों का खूबसूरत वर्णन है। ये महत्वपूर्ण है कि बाबर स्वयं अपनी आत्मकथा में अपने समलैंगिक यौनाकर्षण का उल्लेख करता है। अपने इन प्रारंभिक संबंधों की अपूर्णता के अपराध बोध के चलते अपने आगे के संबंधों में बेहतर संबंध बनाने की कोशिश करता है और मासूमा बेग़म से प्रेम कहानी का जन्म होता है। अलाउद्दीन और महक की प्रणय कहानी से जिस परिवेश की निर्मिति का आरंभ होता है वो दाराशिकोह और राना ए दिल तथा औरंगजेब और जैनाबादी व औरंगजेब और राना ए दिल की दिलफरेब कहानियों से पूर्णता को प्राप्त होता है जो कि इस किताब की सबसे खूबसूरत, सरस और करुण प्रेम कथाएँ हैं जिन्हें स्वतंत्र रूप से किसी भी प्रसिद्ध प्रेम कहानी के समकक्ष रखा जा सकता है।




दरअसल इस किताब में जिस इतिहास की रचना की है परंपरागत तरीके का चरित्र प्रधान इतिहास ही है, लेकिन इस की निर्मिति के लिए जिन टूल्स का प्रयोग किया है वे महत्वपूर्ण हैं। वे इतिहास की घटनाओं का स्थूल कारणों से विश्लेषण नहीं करते हैं। वे स्त्री-पुरुषों के अंतर्संबंधों का इन घटनाओं की निर्मिति और उनके उस रूप में घटने पर पड़ने वाले प्रभाव और इन अंतर्संबंधों और घटनाओं के घटने के अंतर्संबंध का विश्लेषण करते हैं। वे इन चारों सुल्तानों और बादशाहों के रागात्मक प्रेम संबंधों के परिप्रेक्ष्य में घटनाओं का मूल्यांकन करते हैं। यही इस किताब की खूबसूरती है और वैशिष्ट्य भी। वे इन सुल्तानों और बादशाहों के काल खंड की घटनाओं को एक कैनवस पर बिखेर देते हैं और उसमें विविध प्रेम कथाओं के रंग से इतिहास की एक खूबसूरत तस्वीर में बदल देते हैं। एक तरफ वे इतिहास की घटनाओं को उपन्यास की तरह आँखों के समक्ष चलचित्र की भाँति उपस्थित कर देते हैं और इसके बीच प्रेम कथाओं की काव्यात्मक प्रस्तुति करते हैं। उनकी भाषा पर गजब की पकड़ है। वो पानी की तरह बहती है। विशेष रूप से प्रेम कथाओं के वर्णन में उनका गद्य भी काव्य का आनंद देती है  ... "उसे लगा कि वह पहली बार ज़िंदगी की एक अनजानी राह पर चल पड़ा है। 

औरंगजेब

राजपूताना, दक्खन, बल्ख़ बदख़्शां से ले कर कंधार तक का यह विजयी योद्धा आज हार चुका है। उसके घुटने काँपे, साँसें अस्थिर हुईं। पहली ही नज़र में उसने जैनाबादी को देखा तो उसका दिल तार-तार हो गया। 
'करने गए थे, उससे तगफ्फुल खा गिला 
कि इक नज़र की, कि बस ख़ाक हो गए!
दुखी और निराश मन, सन्यास को उद्धत जैसे औरंगजेब को शायद किसी ने उबारा था तो मौसी के घर के इस उद्यान में इस नवयौवना ने ..."  युवा कथाकार विमल चन्द्र पांडे की एक कविता 'सूपनखा' को पढ़ते हुए मैंने टिप्पणी की थी कि इतिहास के इतने घृणित रूप में चित्रित पात्र को प्रेम का प्रतीक बना कर कविता वही लिख सकता है जो आपादमस्तक प्रेम में डूबा हो। यही बात मैं यहाँ दोहराऊँगा कि इसमें वर्णित प्रेम कथाओं को इतने सरस और काव्यात्मक रूप में प्रेम में आपादमस्तक डूबा व्यक्ति ही लिख सकता है। दो बातें और, कई बार वाक्यों और प्रसंगों में दोहराव है। शायद इसलिए कि वे विवरणों में इतने गहरे उतर जाते हैं कि जब वे वापस आते हैं तो सूत्र को पकड़ने के लिए दोहराव ज़रूरी बन जाती है। दूसरे, चारों की कहानी उनके सत्ता के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच कर 'एबरप्टली' खत्म हो जाती है। वे केवल उनके सत्ता के सर्वोच्च स्तर तक की घटनाओं और उनके रागात्मक संबंधों का मनोविश्लेषण ही करते हैं। वे अपने पाठक को शिखर पर पहुँचा कर छोड़ देते हैं जहाँ से पाठक धड़ाम से नीचे गिरता है और नए शिखर पर जाने को तैयार होता है। यानि ये कहानियाँ उनके सुलतान और बादशाह बनने के जीवन के पूर्वार्द्ध तक सीमित हैं। अंत में एक बात और। अभी हाल ही में कृष्ण कल्पित की किताब 'हिन्दनामा' आई है। इसमें बड़े रोचक ढ़ंग से भारत के इतिहास को प्रस्तुत करते हैं। वे भारतीय इतिहास के विभिन्न प्रसंगों को कविता किस्सों के रूप में कहते हैं। कहन का ढंग कुछ भी हो सकता है। बस पाठक से कनेक्ट होना चाहिए। हेरम्ब चतुर्वेदी ने इतिहास को प्रेम कथाओं में पिरो कर प्रस्तुत किया है वो भी अद्भुत है।

दरअसल जब वे ये किताब लिख रहे होते हैं तो वे जीवन के महासागर के खारेपन को प्रेम की असंख्य नदियों के मीठे जल से न केवल कम कर रहे होते हैं बल्कि उसे कुछ और मीठा कर रहे होते हैं और आप उसमें अवगाहन कर असीम आनंद प्राप्त कर सकते हैं।


दीपेन्द्र सिवाच 







सम्पर्क 

मोबाईल - 09935616945

टिप्पणियाँ

  1. वाह! जीवन के महासागर के खारापन को नदियों के पानी से मीठा बनाने की कोशिश। क्या उम्दा बात कही है। किताब पढ़ने को उत्सुक हो रहा हूँ। हेरम्ब सर इतिहास का पाठ महज तथ्य पर नहीं कर रहे, उसमें सहृदयता को समाहित करते हुए कर रहे हैं। इतिहास और साहित्य का सुख एक साथ।
    दीपेंद्र सर को बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  2. फिलहाल अलाउद्दीन और औरंगज़ेब की प्रेम कथाएँ पढ़कर पूरी की हैं। दीपेंद्र जी ने सही कहा कि "दास्तान मुगल महिलाओं की " की तुलना में यहाँ प्रेम की अजस्र धारा शुरू से ही बहनी शुरू हो जाती है। अलाउद्दीन और महक के प्रेम का एक अंश जो बहुत अच्छा लगा,"दोनों ही जब पहली बार,अपनी अपनी इस अनजान प्रवृत्ति से रू ब रू हुए हम सहज ही समझ सकते हैं कि नतीजा क्या हुआ होगा!दोनों के लिए वो पहले स्पर्श,और स्पंदन को इतने करीब से सुनना और फिर साँसों का एक हो जाना किसी स्वर्गारोहण की अनुभूति से कम न रहा होगा।। .....

    जवाब देंहटाएं
  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  4. .....आगे भी "वे उस चरम की कल्पना ही कभी नहीं कर पाये थे अपने अपने जीवन में । पहली बार एक सैन्य अधिकारी ने एक नए अनजान क्षेत्र में प्रवेश किया था,जहां अस्त्र शस्त्र , शौर्य,वीरता,क्रूरता से परे सिर्फ आलिंगन में ही बदहवासी और मदहोशी का आलम था। यहाँ खुद समर्पण का सुख,अपनी साँसों का प्रिय की साँसों से एक हो जाना ,यह तो शब्दातीत अनुभूति थी। लेकिन उसका सुख,संतोष व तृप्ति उसके साथी के चलते भी थी। .....अली ने पहली बार इतने कोमल हाथों को महसूस किया था। महक के नाज़ुक,सहमे से स्पर्श का एहसास ही उसके शरीर के रोएँ रोएँ में एक अजब सा भाव जगा रहा था। प्रेम में पूर्ण समर्पण से होकर गुजरने वाला यह सुख और सम्पूर्णता का अनुभव था। " .. हेरम्ब सर से ऐसे ही उत्कृष्ट सृजन की उम्मीद थी। ..उन्हें ढेरों बधाई!!.....

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'