दिनेश कर्नाटक की कहानी 'मियाँ बस्ती'

 

दिनेश कर्नाटक


राज्य का कार्य होता है जनता को बेहतर सुविधाएं प्रदान करना। शासक यह काम करते भी हैं। लेकिन लोकतंत्रात्मक प्रणाली में इन शासकों को चुनाव भी जीतना होता है। इसके लिए वे ऐसे सारे लोकलुभावन काम करते हैं जिनसे बहुसंख्यक जनता उनके पक्ष में बनी रहे। यह लोकतन्त्र की सबसे बड़ी कमजोरी है और यह व्यवस्था इस कमजोरी से आज तक उबर नहीं पाई है। लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में शासक  जाति, धर्म, भाषा जैसे मुद्दों को हवा दे कर अपना पलड़ा भारी रखना चाहता है। समाज तक में आपसी दरार पड़ जाती है। 'मियाँ बस्ती' दिनेश कर्नाटक की ऐसी ही कहानी है जिसमें धर्म के घातक प्रभाव को साफगोई से व्यक्त करते हैं। यहां लम्बे समय से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच आपसी सौहार्द रहा है लेकिन कुछ कट्टर लोग इस आपसी सद्भाव को बिगाड़ने में लगे हुए हैं। देश को विभाजित हो कर एक बार इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है। अब हमें ऐसी परिस्थिति नहीं बनने देनी है जिससे देश एक बार फिर आहत हो। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं दिनेश कर्नाटक की कहानी 'मियाँ बस्ती'।



कहानी

'मियाँ बस्ती'


दिनेश कर्नाटक 


उस दिन जब उसकी बस्ती यानि मियाँ बस्ती को स्थानीय प्रशासन द्वारा अवैध घोषित किया तो राशिद बस्ती के लोगों के भविष्य की कल्पना कर हिल उठा। एकाएक पूरी बस्ती उसकी आँखों के सामने घूम गई। एक के बाद एक कच्ची-पक्की गलियाँ और उन गलियों में कच्चे-पक्के मकानों में रहते बेशुमार लोग। सड़कों में खेलते हुए बच्चे और दुकानों में बैठ कर गपियाते लोग। भले ही शहर के उस तरफ के लोग यहाँ की भीड़-भाड़, गंदगी और लड़ते-झगड़ते लोगों के कारण यहाँ आने से बचते हों, मगर राशिद सोचता है, उसके लिए दुनिया की सब से खूबसूरत जगह यही है और वह कहीं भी गया हो, कितनी ही शानदार जगह लौट कर यहीं आना चाहेगा। 


घरों में लाल निशान लगा दिए गए। मुनादी कर दी गई कि पंद्रह दिनों के भीतर जगह खाली कर दें, वरना बुलडोजर से सारे घरों को ध्वस्त कर दिया जाएगा। राशिद एक बार फिर यह सोच कर कांप उठा कि उसके प्यारे घर को तोड़ दिया जाएगा। इसी तरह के भाव उसके घर के तथा बस्ती के लोगों के मन में आ-जा रहे थे और वे एक-दूसरे से पूछ रहे थे, ‘ये कैसा अन्याय है भाई? न जाने कितनी पीढ़ियों से हम लोग यहाँ रह रहे हैं, अचानक कहाँ जायेंगे? क्या हम इस देश के नागरिक नहीं हैं? जगह तो और भी कई सारी हैं, हमारी बस्ती पर ही बस स्टेशन और मंडी बनाने की जिद क्यों?’ 


जितने मुँह उतनी तरह की बातें। कोई कह रहा था, ‘उसे कोई अचरज नहीं हुआ, पहले से पता था कि ये निजाम ऐसा ही कुछ करेगा।’ किसी का कहना था, ‘नफ़रत करते हैं हम से, नामो-निशान मिटा देना चाहते हैं!’ समझदार किस्म के लोग कहते, ‘कोई मनमर्जी थोड़ा है, देश में कानून का राज है!’ गरम तेवर वाले कहते, ‘हमारे घरों की ओर आँख उठा कर तो देखें, हम भी देख लेंगे!’ उदासीन किस्म के लोग कहते, ‘जो सबके साथ होगा, हमारे साथ भी होगा।’ भले ही लोग तरह-तरह से खुद को दिलासा दे रहे थे, मगर मन ही मन भयभीत होते जा रहे  थे। 


राशिद बस्ती के उन पढ़े-लिखे नौजवानों में से था, जो सिर्फ सुनी-सुनाई बातों ही नहीं मुद्दे के सामाजिक, राजनीतिक तथा कानूनी पहलुओं को भी जानते-समझते हैं, जो आसानी से उम्मीद का दामन नहीं छोड़ते। वह तारीख के हवाले से मानता था कि इस देश की बुनियाद बड़ी सोच पर रखी गई है। हमेशा कहता, ‘हमारा आईन बड़ी चीज है। उसमें सबका ख्याल रखा गया है। फिरकापरस्त और तंग नजरिए वाले लोग तो समाज में रहेंगे ही, पावर में भी आ सकते हैं, मगर आईन उन पर नकेल रखेगा।’ 


मगर राशिद को बड़ा झटका तब लगा, जब हाई कोर्ट ने भी हुकूमत की बात पर मोहर लगाते हुए बस्ती को अवैध घोषित कर दिया। ऐसे में उसे लोगों के गुस्से का शिकार होना पड़ा, ‘बड़े आईन की वकालत करते थे, देख ली हकीकत। सब बिके हुए हैं। यहाँ तो जिसके हाथ में लाठी, उसकी भैंस।’ राशिद सोच रहा था कि मान लिया कि हुकूमत को पचास हजार बच्चे, बूढ़ों, स्त्री-पुरुषों के खाने-पीने, रोजगार तथा छत की परवाह नहीं है, मगर कोर्ट को क्या हुआ? कोर्ट तो गरीबों और मजलूमों का आखिरी सहारा होती है! इन दिनों राशिद को नींद नहीं आती थी। चेहरा उतर गया। उधर शहर में हुकूमत से जुड़े हुए लोग अदालत के फैसले का स्वागत करते हुए जश्न मना रहे थे। अम्मी ने उसकी हालत देख कर कहा, “बेटा, हमी लोग अकेले थोड़ा हैं, इतने लोग हैं। तू अपना खून क्यों सुखा रहा है।”


राशिद ने अम्मी से कहा, “चिंता इस बात की नहीं है कि हमारा क्या होगा? हम तो कुछ न कुछ कर लेंगे, मगर उन हजारों लोगों का क्या होगा जो रोज कुंआ खोद कर घर चलाते हैं, जिनके पास कहीं कोई जगह नहीं!”


अदालत के फैसले के तुरंत बाद न सिर्फ शहर के बल्कि देश के दूसरे हिस्सों से भी सभी धर्मों के इंसाफ पसंद लोग एकजुट हुए और उन्होंने ‘मियाँ बस्ती न्याय मंच’ की स्थापना की। शहर में मियाँ बस्ती के पक्ष में बड़ा जुलूस निकला, जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने  एकजुटता दिखाई। उसके साथ पढ़ रही सीमा भी जुलूस में शामिल हुई। लड़ाई का अंजाम जो हो, मगर राशिद को देख कर अच्छा लगा कि इंसाफ पसंद लोगों की कमी नहीं है। 


राशिद के चेहरे में मुस्कान लौटने लगी। 


राशिद अपने परिवार की चौथी पीढ़ी का खुशनसीब सदस्य है, जिसे पढ़ाई नसीब हुई। उसे शहर के उन स्कूलों में पढ़ने का मौका मिला जिनकी ओर उसकी पिछली पीढ़ी के लोग हसरत भरी निगाहों से देखते थे। तीन पीढ़ी से बढ़ईगिरी करने के बाद अब अब्बू का शहर में फर्नीचर का कामयाब शो रूम था। काम-धंधे में उसका मन रमता नहीं था। उसे स्कूल के दिनों से ही सोशल साइंस पढ़ने में आनंद आता। इस विषय को पढ़ने के दौरान उसे इंसानी जिंदगी की शुरुआत से ले कर आगे के सफ़र को ले कर पुख्ता जानकारियाँ मिली। ये जानकारियाँ घर में सुनाई जाने वाली कहानियों से ज्यादा भरोसेमंद थी। मिसाल के लिए शुरुआती इंसान का गुफा में रहना, आग की खोज, पहिये का आविष्कार आदि इंसानी जीवन से जुड़े तथ्यों ने उसे चीजों को देखने का नया नजरिया दिया था। बाद में वह आर्ट साइट की ओर ही मुड़ गया। इन विषयों को पढ़ते हुए उसे लगता जैसे उसे जीवन, समाज व राजनीति को समझने की कोई चाभी मिल गई हो। पढ़ाई पूरी कर अब वह सिविल सर्विस की तैयारी कर रहा था। उसे उम्मीद थी, वह आसानी से राज्य सेवा में जगह बना लेगा। 


पढ़ाई–लिखाई से बनी समझ से उसका साफ़ मानना था कि सबसे पहले वह इंसान है, फिर एक भारतीय और आखिर में मुसलमान। मुस्लिम होने को वह अपनी सांस्कृतिक पहचान के रूप में देखता था। वैसे ही जैसे कोई हिन्दू, कोई सिख, कोई ईसाई। मगर मूल रूप से वह खुद को इंसान समझता। इससे लाभ यह होता कि वह चीजों को बड़े फ़लक से देख पाता। मगर समाज में ऐसा नहीं था, सभी लोग किताबों को राशिद की तरह ध्यान से नहीं पढ़ते थे। लोग सब से पहले इंसान होने के बजाय सब से पहले हिन्दू, मुस्लिम, सिख आदि ज्यादा होते जा रहे थे। और एक-दूसरे से शिकायतों से भरे हुए थे। 


ऐसे माहौल में कई लोगों को राशिद की मौजूदगी चुभती। मगर स्कूल के दिनों में साथ पढ़ने वाली सीमा के साथ ऐसा नहीं है। वह जैसी तब थी, आज भी वैसी ही है। ऐसे लोग कम ही होते हैं। लेकिन अब समय काफी बदल चुका था। बहुत से लोगों को इससे फ़र्क पड़ता था। ऐसे बचपन के साथियों के साथ राशिद की दोस्ती कायम नहीं रह पाई। बस दुआ-सलाम होती। 


इधर राशिद ‘मियाँ बस्ती बचाओ अभियान’ में काफी सक्रिय हो चुका था। आए-दिन मीटिंगें होती। उम्मीद अब सुप्रीम कोर्ट से थी, इसलिए समय से वकीलों को तय करने, लोगों से चंदा लेने तथा सुबूत जुटाने का काम जोर-शोर से चल रहा था। 

 

उसी दौरान एक दिन अचानक सीमा उसके घर पहुँच गई। “तू यहाँ कैसे?” उसे देख कर चौंकते हुए राशिद ने कहा।   


“बस, पहुँच गई।” सीमा ने मुस्कराते हुए कहा। 


“मेरा मतलब, घर का पता कैसे चला?” राशिद को अभी भी उसके आने पर यकीन नहीं हो रहा था। 


“पहुँच गई, पूछते हुए। वो भईया छोड़ गए।” उसने गेट पर खड़े बस्ती के लड़के की ओर इशारा करते हुए बताया। 


“लेकिन ऐसे माहौल में यहाँ आना ठीक नहीं है!” उसने बड़बड़ाते हुए कहा।  


“राशिद, यही वक्त है आने का और कहने का कि इस लड़ाई में आप लोग खुद को अकेला न समझें।” सीमा ने राशिद तथा उसकी अम्मी की ओर देखते हुए कहा। 


राशिद ने अभी तक अम्मी को सीमा के बारे में बताया नहीं था। ऐसी कोई जरूरत भी नहीं थी। पता चलते ही कि हिन्दू लड़की है, वह घबरा गई- “बेटा, तुम्हारा बस्ती में आना ठीक नहीं। कोई ऊँच-नीच हो गई तो हम क्या जवाब देंगे।” 


“आंटी जी, आप चिंता मत करो। कुछ नहीं होगा।” सीमा ने उन्हें सहज करने की कोशिश करते हुए कहा। 


“क्या कहें बेटा, कुछ समझ में नहीं आता? ये सब क्या हो रहा है?” अम्मी ने परेशान लहजे के साथ कहा। 


“राशिद से यही कहने आई हूँ कि पढ़ाई और लड़ाई साथ-साथ चलती रहनी चाहिए।” उसने मुस्कराते हुए उसकी ओर देखा। 


सीमा राशिद को एक किताब पकड़ा कर तथा सभी को ‘बाय’ कह कर जैसे अचानक से आई थी, वैसे ही चली गई। 


राशिद को गहरी तसल्ली सी मिली। सोचने लगा, बड़ी सोच पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है। इतना निराश होने की जरूरत नहीं है। अंधेरा है, मगर इतना गहरा भी नहीं है।


इसी उम्मीद के साथ उसने अगले दिन से कोचिंग जाना शुरू किया। सीमा उसे दूर से नजर आई। नजर मिलते ही उसके पास पहुँच गई। दिखे तो उसे अन्य सहपाठी भी, मगर उनमें उस तरह की गर्मजोशी नहीं थी। नजरों में बच निकलने का भाव था। राशिद सोच रहा था, ‘सीमा किस मिट्टी की बनी हुई है?’ उसे डर नहीं लगता होगा, जबकि वह खुद देर तक उसके साथ खड़े रहने या लंबी बातचीत से बचता और कोई बहाना बनाकर खिसक लेता ताकि उसके लिए कोई समस्या न हो! 


एक दिन उस ने मजाक में उससे पूछा भी, “तुझे मुझसे डर नहीं लगता?” 


वह चौंक कर उसकी ओर देखने लगी। “किस बात का डर?” फिर उसका मतलब समझ कर बोली, “अब जैसा माहौल हो चुका है उस हिसाब से तो डरना चाहिए। लेकिन बचपन से इतने साल हो गए साथ पढ़ते हुए, तू डरावना तो कभी नहीं लगा?” उसने हँसते हुए कहा। 


“सीरियसली कहूँ तो अब जैसा माहौल हो गया है, लगता है दूर रहना ही अच्छा है। मेरे लिए तो कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन लड़की होने के नाते तुम्हारे लिए चिंता होती है।” राशिद ने गंभीरता से कहा। 


“ये सब मैं समझती हूँ, मगर सिविल की तैयारी करने वाले हमारे जैसे लोगों में इंसानियत की इतनी बुनियादी समझ भी नहीं है तो हमारा पढ़ना-लिखना सब बेकार है।” सीमा ने हँसते हुए कहा। 





राशिद को पहली बार लगा कि सीमा कम से कम उससे तो ज्यादा हिम्मती है। पहली बार उस ने दोस्ती के मामले में खुद को सौभाग्यशाली समझा। 


“तूने मेरी जिम्मेदारी बढ़ा दी है।” उसने मुस्कराते हुए कहा। 


शाम को जब वह कोचिंग से लौट रहा था, तीन-चार अनजान लड़कों ने उसे घेर लिया। एक बोला, “सुन बे कटुवे, मियाँ बस्ती पर कब्जा और लव जेहाद साथ-साथ नहीं चलेगा? तुमको अपने वहाँ लड़कियाँ नहीं मिलती? क्या चल रहा है तेरा? हम सब पर नजर रखते हैं।”


एकाएक हुए इस हमले के लिए राशिद तैयार नहीं था उस के हाथ-पाँव ढीले पड़ गए। “ऐसी कोई बात नहीं है। साथ पढ़ते हैं; बस, यही रिश्ता है।” उसने डरते हुए कहा। 


“सब ऐसा ही कहते हैं और एक दिन लड़की को ले कर गायब हो जाते हैं। वो तेरे घर भी आई थी। हम को हल्का-फुल्का मत समझ, पूरी खबर रखते हैं।” एक ने उसे भरपूर नजरों से घूरते हुए कहा। 


“भइया, कैसे समझाऊँ जो आप लोग समझ रहे हैं, वैसा कुछ नहीं है।” उसने उन्हें  भरोसा दिलाते हुए कहा। 


इस घटना के बाद राशिद का उत्साह ढीला पड़ गया। गुमसुम रहने लगा। अम्मी-अब्बू से उसकी यह उदासी छिपी नहीं रह सकी। वे बार-बार पूछते मगर वह कुछ न होने की बात कह देता। अम्मी अकेले में सीमा का जिक्र करती। वह तुनक कर कह देता, ऐसा कुछ नहीं है। अब वह सीमा को नजरअंदाज करने लगा। 


स्कूली दिनों में राशिद को अपनी बस्ती और अपना शहर दुनिया की सबसे खूबसूरत जगह लगता था। यहां की गलियां, नदी-नाले, सड़कें, जंगल, स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े सब अच्छे थे। स्कूल का माहौल भी खुशनुमा था। न उसे शिक्षकों की नजर में कभी कोई भेद नजर आया और न वे उन्हें पराया समझते थे। वे डांटते-पीटते तो किसी अपने द्वारा डांटने-पीटने का एहसास होता। बस्ती के माहौल से आने के कारण राशिद तथा उसके साथियों की भाषा और हरकतों में कस्बाईपन होता। गालियाँ भी निकल जाती, जिसे सभ्य नहीं माना जाता था। बाबा सर अंग्रेजी पढ़ाते। अंग्रेजी राशिद को कम ही समझ में आती थी। बेतकल्लुफ हो कर बोलने की आदत थी। इसलिए आपस में बोलने, पढ़ाई में व्यवधान डालने तथा फिजूल के सवाल पूछने के कारण डाँट खाता रहता। लड़के भी उकसाते। धीरे-धीरे खुराफाती लड़के की छवि बन गई। शिक्षकों को कई बार लगता कि वह उन्हें परेशान करने के लिए हरकतें करता है। फलस्वरूप टोका-टाकी आम बात बन गई। उसे भी बुरा नहीं लगता था, लगता जैसे उसके बहाने सभी का मनोरंजन हो रहा है। 


स्कूल आने वाले उसकी तरफ के अधिकांश बच्चे नियमित रूप से स्कूल नहीं आते थे। होमवर्क को बोझ समझते। लड़ते-झगड़ते। गंदी गालियां देते, जिन्हें शिक्षक मौके पर तो नजरअंदाज कर देते, मगर स्टाफ में नाराजगी के साथ एक-दूसरे को सुनाते। जुम्मे की नमाज के दिन बारह बजे के बाद स्कूल में छुट्टी के जैसा माहौल हो जाता। स्कूल के इस तरफ वाले एकमात्र टीचर जावेद सर भी नमाज के लिए जाते। जब विद्यालय में इस ओर के बच्चों की संख्या कम थी तो स्कूल इस तरह खाली नहीं होता था और बच्चे नमाज के लिए भी नहीं जाते थे।


राशिद आज के हालातों को समझने के लिए जब बीते दिनों की ओर देखता है तो उसे याद आता है कि कैसे धीरे-धीरे शहर की आबो-हवा गर्म होने लगी थी। कैसे शक-शुबहा का दीमक विद्यालय के बच्चों, शिक्षकों, सड़क, बाजार, गाँव तथा घरों तक फैलने लगा था? लोग ऐसी बहसें करने लगे थे, जिससे सिर्फ कड़ुवाहट पैदा होती थी। ऐसी बहसों और बातों से अखबार भरे रहते और टीवी में जहाँ पहले इत्मीनान से बातें होती थी, अब लोग एक-दूसरे पर चिल्लाने लगे थे। स्कूल में जिन लडकों से दोस्ती का संबंध था, उनकी नजरों में अलग ही तरह की आक्रामकता, संदेह और कड़ुवाहट नजर आने लगी। भीड़ के बीच से गुजरते हुए ‘कटुवा’, ‘पाकिस्तानी’ जैसे शब्द सुनाई देने लगे। फलस्वरूप ऐसी कुछ घटनाएं हुई, जिनमें छोटी-छोटी गलतफहमियों पर उधर के लड़कों ने मिल कर इधर के लड़कों को पीटा। बदले में इधर के लड़कों ने उधर के लड़कों को पीट दिया।


राशिद को याद है, मियाँ बस्ती के साथ समस्या तब शुरू हुई जब देश भर में चुनावों के नतीजे एक पार्टी के पक्ष में आने लगे, मगर उसके शहर के नतीजों ने बदलने से इनकार कर दिया। वजह थे, मियाँ बस्ती के लोग, जो आज भी पुरानी वाली पार्टी से ही जुड़े थे। इसके साथ ही बस्ती वालों को समझाने का दौर शुरू हुआ। पहले, वोट के बदले बस्ती को नियमित करने तथा लोगों को जमीन का मालिकाना हक दिलवाने का भरोसा दिया गया। समझाया गया कि विपक्षियों को वोट देना देश विरोधी वर्ग कार्यवाही है। पहले भी बिजली, पानी, सड़क आदि का प्रलोभन दे कर उनसे वोट झटक लिए जाते थे, इसलिए उन्होंने इसे ज्यादा तवज्जो नहीं दी। नतीजे विपरीत आने पर उन्हें अनधिकृत रूप से बसे होने की याद दिलाई गई। उन्होंने डरने से इनकार कर दिया। लगातार दो बार हार का सामना करने के बाद जीत के अश्वमेध यज्ञ पर निकले लोगों की बौखलाहट बढ़ गई। तब बस अड्डे तथा मंडी स्थल के मियाँ बस्ती तक विस्तारीकरण का प्रस्ताव सामने आया। यहीं से ‘मियाँ बस्ती’ के लोगों के सिर पर तलवार लटकनी शुरू हुई।  


राशिद को वह समय भी याद है, जब चुनावी नतीजों के एक हफ्ते बाद ही फुटपाथ या सड़क के किनारे रेहड़ी लगाने वाले बस्ती के लोगों को ढूंढ-ढूँढ कर उनका सामान जब्त किया गया। बस्ती में भी आए दिन किसी की दीवार तो किसी की छत तोड़ दी जाती। ये साफ़-साफ़ बदले की कार्यवाही थी। इन सभी बातों से बस्ती में एक अजीब तरह का खौफ व मनहूसियत छाई रहती। ऐसा पहले नहीं था। लोग रोजी-रोटी की जद्दोजहद में लगे रहते थे, मगर इस तरह का तनाव नहीं था। हवा बदल चुकी थी और आशंका से लोग घबराए रहते।  


फिर चुनाव से ठीक पहले गले में रामनामी ओड़े तथा माथे पर बड़ा सा टीका लगाए हुए लड़कों की सक्रियता अचानक बढ़ गई। उन्होंने मवेशियों का व्यापार करने वाले बस्ती के रिजवान पर गाय की तस्करी का आरोप लगाते हुए न सिर्फ उसकी पिटाई की, बल्कि पुलिस के हवाले भी कर दिया। राशिद को याद है, मामला ‘गाय के अपमान’ का बना दिया गया। पूरे शहर में तनाव फैल गया। रिजवान का परिवार हमेशा से जानवरों का व्यापार करता आया था। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। उससे मवेशियों का लेन-देन इधर-उधर दोनों तरफ के लोग करते थे। रिजवान की पिटाई से बस्ती में भय तथा गुस्सा पैदा हुआ। उधर के लोगों में गौ तस्करी की खबर से आक्रोश फैल गया। 


अभी लोग इस मामले से उबर भी नहीं पाए थे कि उधर की लड़की से बातचीत कर रहे इधर के लड़के को उधर वालों ने पकड़ कर बुरी तरह से पीट दिया। उनका कहना था, इधर के लोग उधर की लड़कियों को फंसा कर उनका धर्म भ्रष्ट करने के अभियान में लगे हैं। कस्बा एक बार फिर से तनाव में घिर गया। दोनों तरफ के लोगों के अपने-अपने तर्क थे। दोनों तरफ गुस्सा था। उधर के लोगों को एकाएक अपनी लड़कियों की तथा इधर के लोगों को अपने लड़कों की चिन्ता होने लगी। दोनों अपने लड़के-लड़कियों को समझाने लगे। फिर वेलेंटाइन डे में उस ओर तेजी से जन्म ले रहे संस्कृति रक्षकों की प्रजाति ने दुकानों में तोड़फोड़ की। इस तरह घटनाओं से हुआ यह कि लोगों को परेशान और गुस्सा दिलाने वाले मुद्दों ने घेर लिया और वे तनाव में रहने लगे। खुशी कहीं खो गई। भय की मैली चादर लोगों के सिर के ऊपर फैल गई।


उधर सीमा को राशिद के बुझे-बुझे से रहने और दूरी बनाने की वजह पता चल गई। राशिद को धमकाने वाले लड़के उस के पास भी आए थे। सीमा ने उन्हें लताड़ते हुए कहा था, ‘लड़कियों को अपनी जागीर और कमजोर न समझें। सब अपना भला-बुरा समझती हैं। और वे लोग दूसरों की ठेकेदारी करने के बजाय अपनी चिंता करें।’ तमतमाते हुए लड़के नतीजा भुगतने की चेतावनी दे कर चले गए। 





अभी सीमा राशिद से मिल कर उसे पूरी बात बताती, बस्ती में सुबह-सुबह आई एक जीप से निकल कर कुछ पुलिस वाले राशिद को घर से उठा कर ले जाने लगे। अम्मी के बीच में आने और शोर मचाने पर कॉलेज के एक मामले की जांच के लिए ले कर जाने को कहने लगे। देखते ही देखते बस्ती के लोग इकठ्ठा हो गए। सभी का कहना था, राशिद पढ़ने वाला बच्चा है। उस का कहीं भी किसी के साथ कोई मामला या विवाद नहीं चल रहा। भीड़ थाने पर गई तो उन्हें आश्वस्त किया गया कि उसे सामान्य पूछताछ के लिए ले जाया गया है। जल्दी ही छोड़ दिया जाएगा। चिंता न करें। 


जल्दी छोड़ने के आश्वासन को जब तीन दिन हो गए तो बस्ती के लोगों ने शहर भर में जुलूस निकाला और थाने के पास धरने पर बैठ गए। इस बीच सीमा तथा उसके साथियों ने प्रेस के सामने सारे मामले का खुलासा किया तो पुलिस को राशिद को छोड़ना पड़ा। 


उधर सीमा के माता-पिता तथा परिवार वाले मियाँ बस्ती तथा राशिद को ले कर उसकी सक्रियता से परेशान थे। मां ने उसे समझाने की कोशिश की- “देख, वैसे ही हमारी बहुत बदनामी हो चुकी है, अब उस से मिलना-जुलना उस के घर जाना छोड़ दे। कल को शादी में समस्या होगी।’’ 


सीमा ने प्रश्न किया-“कैसी बात करती हो? क्या ये लोग किसी पराए देश के हैं! अपने शहर के नहीं हैं?”        


मां के पास उस की इस बात का कोई जवाब नहीं था। “बेटा, लोग तुम्हारी तरह नहीं सोचते। हम ने रहना तो इन्हीं लोगों के बीच है। हमारी क्या इज्जत रह जाएगी?”


“ये सभी लोग मकान बनवाने, पुताई, कार-बाइक की रिपेयर सहित दुनिया भर के कामों के लिए उनकी खुशामद करते हैं। उन्हीं से नफ़रत भी करते हैं। अजीब लोग हैं।” सीमा ने कहा।  

    

सच सामने आ ही जाता है, बात लव जेहाद की नहीं खुद के लव में असफल होने से यहाँ तक पहुँची थी। सीमा की ओर उम्मीद से देखने वाले उस धर्म रक्षक को वह मुँह लगाने को तैयार नहीं थी। उस का प्रेम इस कदर उफान मार रहा था कि वह न सिर्फ खुद उसकी जासूसी करता था, बल्कि कुछ लोगों को भी उसने उसके पीछे लगा रखा था। 

       

राशिद मन ही मन आशंकित था कि मियाँ बस्ती के पीछे पड़े हुए लोग इतनी आसानी से शांत नहीं बैठेंगे। कुछ न कर करते रहेंगे। उसकी आशंका सही साबित हुई। स्थानीय प्रशासन ने मियाँ बस्ती में अवैध भूमि पर बने एक मदरसे को खोज निकाला। इसके बाद स्थानीय अखबारों में वहाँ दी जाने वाली देश विरोधी शिक्षा तथा जेहादियों से कनेक्शन की खबरें आने लगी। इतना ही नहीं आनन-फानन में उसे ध्वस्त करने की योजना बना दी गई। बस्ती के लोगों ने इसे अपने अस्तित्व पर हमले के रूप में देखा। परिणाम यह हुआ कि पुलिस और प्रशासन के लोग जब कार्यवाही के लिए आगे बढ़े तो बस्ती के लोगों ने छतों से उन पर भारी पथराव कर दिया। 


एकाएक हुए इस हमले से कई पुलिस वाले तथा पत्रकार घायल हो गए। फायरिंग के आदेश हुए जिसमें छह लोगों की मौत हो गई। मियाँ बस्ती में अनिश्चित काल के लिए कर्फ्यू लगा दिया गया और एक बार फिर से वह राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में थी। मीडिया का एक पक्ष पुलिस के लोगों पर हुए हमले को देश विरोधी कार्यवाही के रूप में दिखा रहा था, जबकि कम ही लोग थे जो मारे गए लोगों के परिवार तक पहुँच पाए। स्थानीय अखबारों में कई दिनों तक मियाँ बस्ती को एक खतरे के रूप में दिखाया जाता रहा और मदरसे के मौलवी के विभिन्न प्रकार के जेहाद से जुड़ी हुई कहानियाँ आती रही। देखते ही देखते मियाँ बस्ती देश विरोधी जगह में बदल गई। लोगों का शहर से संपर्क कट गया। रोज कुँवा खोद कर पानी पीने वाले मजदूर वर्ग का जीना मुहाल हो गया। 

राशिद एक बाद एक बाद होती जा रही इन घटनाओं से बहुत दुखी और निराश था। वह शांति से प्रतियोगिता की तैयारी करना चाहता था, मगर इन स्थितियों ने उसे परेशान कर दिया। पढ़ाई में मन नहीं लगता था। घूम-फिर कर वह बस्ती तथा लोगों के भविष्य के बारे में सोचने लगता। दो-तीन बरस पहले जब देश भर से मॉब लिंचिंग की खबरें आ रही थी तो लग रहा था कि गनीमत है हमारे यहाँ यह सब नहीं हो रहा। तब उस के दादा  ने समय की नब्ज पहचानने वाले किसी अनुभवी इंसान की तरह कहा था, ‘जिस तरह महामारी हर घर को छू कर जाती है, उसी तरह फिरकापरस्ती के जरासीम मुल्क के हर कोने और हर घर तक पहुंचते हैं।’ 


अपने ही देश में इस तरह अपराधी बना दिया जाना राशिद को बुरी तरह कचोट रहा था। राशिद ने बचपन से ही अपनी तरफ के लोगों को असुरक्षा व भय में जीते देखा। शायद इसी कारण वे लोग एकजुट होकर रहते। त्योहारों तथा एक-दूसरे की दुःख-तकलीफ में अपनी एकजुटता का प्रदर्शन करते। किसी के साथ मारपीट या झगड़ा होने पर सब इकट्ठा हो जाते। उनकी इस एकजुटता को उस तरफ के लोग खतरे के तौर पर देखते। उन्हें लगता यूं ही इनकी आबादी बढ़ती रही तो इलाके में गुंडागर्दी तथा अशान्ति फैल जाएगी। बहू-बेटियों के लिए खतरा खड़ा हो जाएगा। कुछ मानते कि ये लोग देश के एक और विभाजन के फिराक में हैं। जबकि इस तरफ के लोग देश के दूसरे हिस्सों में होने वाले दंगों को देखकर आशंकित रहते और मान कर चलते कि दंगे होने पर पुलिस उन्हें ही निशाना बनाती है। ऊपरी तौर पर बाजार तथा कस्बे में जिन्दगी की हलचलें सामान्य रूप से चलती रहती। कस्बे में छुट-पुट झगड़ों के अलावा दंगा जैसा कुछ अभी तक नहीं हुआ। मगर बहुत से लोगों के दिमागों में एक-दूसरे के प्रति भय-अविश्वास और नफरत की हवा भी बहती रहती। 


अवैध मदरसे के नाम पर हुई हिंसा और लोगों की मौत से राशिद को गहरा सदमा लगा। उधर के कुछ लोग एक देश का नाम बार-बार ले कर वहां जाने को कह रहे थे और इधर वालों को सारी समस्या की जड़ बता रहे थे। राशिद सोचता था, वह इधर तथा उधर के लोगों के बीच सेतु बनेगा, मगर कोई इस तरह की बातों को सुनने को तैयार नहीं था। उसे अब सिर्फ नफ़रत की बातें करने वाले लोग नजर आ रहे थे। विवेकपूर्ण आवाजें मौन थी। यहीं से राशिद की लय-ताल बिगड़ने लगी। वह खुद को अकेला समझने लगा और अवसाद की गुफा की ओर बढ़ने लगा। भीतर से सवाल उठता ‘क्या दुनिया में कोई जगह ऐसी होगी, जहाँ लोगों को पराया न समझा जाता होगा?’ 


कोई रास्ता न सूझने और मुकम्मल जवाब न मिलने पर वह निराश हो कर सोचता, ‘ऐसे जीने का क्या अर्थ?’ 


अवसाद व आत्महीनता के किसी ऐसे ही क्षण में वह अपनी डायरी में लिखने लगा-‘घृणा व नफ़रत से घूरती हुई इन परिचित व अपरिचित आँखों को देख कर डर लगता है। ऐसे माहौल में जीने का क्या मतलब, जहाँ आपको शत्रु समझा जाए? घर में बात हो रही थी कि यहाँ से कारोबार समेट कर कहीं और चला जाए, मगर दादा जी का कहना था; समाधान कहीं जाने में नहीं है। सब जगह तो यही माहौल है। जो सब के साथ होगा, वही हमारे साथ होगा। मैं चाहता हूँ दोनों समुदायों के बीच गलतफहमियाँ दूर हों। कोई रास्ता निकाला जाए। मगर पहल कौन करेगा? कोई रास्ता नजर नहीं आता। लोग इतने डरे और घबराए हुए हैं कि इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहते। वे इस दौर को इम्तहान का वक्त बताते हैं, कहते हैं, सब्र के सहारे कट जाएगा, जैसे उन्होंने सारी स्थितियों को मन ही मन स्वीकार कर लिया हो, जैसे किसी जानवर की तरह उनके लिए सिर्फ जीना ही महत्वपूर्ण रह गया हो। मगर ऐसे माहौल में मैं नहीं जी सकता, मेरा दम घुँटता है।’ 


राशिद ने डायरी को अपनी किताबों के बीच रख दिया। 


बस्ती में कर्फ्यू अभी जारी था। इन दिनों वह इतिहास की किताबें पढ़ रहा था। उसने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी के बारे में पढ़ा। कैसे यहूदियों के प्रति शासक वर्ग की नफ़रत देशव्यापी नफ़रत में बदल दी गई थी। कितना भयावह दौर था। क्या इतिहास फिर से खुद को दोहरा रहा है?


कर्फ्यू खत्म हुआ। जीवन पटरी पर लौटने लगा, मगर उजड़ने की तलवार सिर पर लटकी हुई थी। 

अब सारी उम्मीद सुप्रीम कोर्ट से थी। 


राशिद सोच रहा था ‘क्या होगा अगर सुप्रीम कोर्ट भी कोई राहत नहीं देगा?’ 


सीमा का कहना था, ‘उसे सुप्रीम कोर्ट पर पूरा विश्वास है, वह संविधान की मूल भावना को ध्यान में रख कर फैसला देगा।’


आखिरकार फैसले का दिन आ गया।  


सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘जब तक लोगों के रहने लिए वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक उन्हें हटाया नहीं जा सकता।’


फैसले से बस्ती के लोगों को खुशी नहीं हुई। उन्हें उम्मीद थी, कोर्ट सरकार को फटकार लगाएगी। उन्हें लग रहा था फौरी राहत तो मिली है मगर बेदखली की तलवार अभी लटकी हुई थी। राशिद की राय अलग थी। वह फैसले से संतुष्ट था, उस का कहना था, ‘कम से कम हमें देश का नागरिक तो समझा गया। घुसपैठिया तो नहीं माना गया।’ 



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


दिनेश कर्नाटक 

ग्राम व पो.आ.-रानीबाग 

जिला-नैनीताल 263126 

उत्तराखंड 


मोबाईल-9411793190 


मेल-dineshkarnatak12@gmail.com

टिप्पणियाँ

  1. जिस दौर में नफरत को राजनीतिक लाभ के लिए दिन दूनी रात चौगुनी दर से बढ़ाया जा रहा हो दूसरे शब्दों में कहा जाय कि नफरत की फसल बोई जा रही हो ताकि वोटों के रूप में उसे काटा जा सके, और बहुत कम लोग इसके खिलाफ बोलने की हिम्मत कर रहे हों दिनेश कर्नाटक की यह कहानी बहुत साहसिक हस्तक्षेप की तरह है। नफरत की राजनीति को बहुत गहराई से उघाड़ती है। हर पहलू पर अपनी बात रखते हुए न्याय के पक्ष में खड़ी होती है। बहुत अच्छी और प्रासंगिक कहानी है।

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  2. कहानी पढ़ी, प्रासंगिक है वर्तमान हालत को बेहतर तरीके से रेखांकित करने में सक्षम

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  3. डॉ दिनेश कर्नाटक जी की कहानी ‘मियाँ बस्ती’ आज के सामाजिक-सांप्रदायिक माहौल का गहरा यथार्थ प्रस्तुत करती है। इसमें धर्म के नाम पर बंटते समाज और राजनीति के स्वार्थों को तीखी सच्चाई के साथ दिखाया गया है। कहानी का नायक राशिद इंसानियत और न्याय की आवाज़ बनकर उभरता है। लेखक ने दिखाया है कि नफरत के बीच भी उम्मीद और संवेदना जिंदा है। यह कहानी बहुसंख्यक समाज के धार्मिक हितों को संस्कृति और राष्ट्वाद राष्ट्र प्रेम का नाम देकर लोकतंत्र की कमजोरी और मानवीय एकता की ताकत—दोनों पर समान रूप से प्रहार करती है।

    मोहन सिंह नेगी

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  4. कहानी के जरिए संवेदनशील लेखक ने अपना धर्म निभाया है। साहित्य मात्र मनोरंजन नहीं करता । वह देशकाल , परिस्थिति और जनपक्षधरता को भी रेखांकित करता है। साहित्यकार से भविष्य यह ज़रूर पूछता है कि उन्होंने अपने समय को रेखांकित किया था ? मुझे प्रसन्नता है कि दिनेश कर्नाटक अपने समय को दर्ज करते हैं ! वह असहमति के साथ - साथ तर्क ' तथ्य और सत्य के साथ संवैधानिक मूल्यों के की पुरजोर वकालत भी करते हैं ! बढ़िया कहानी । लम्बी है लेकिन पाठक को अपने साथ मियाँ बस्ती की यात्रा कराने में जोड़कर रखती है। - मनोहर चमोली

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  5. भाई साहब,सादर नमन, बहुत ही स्पष्टवादिता के साथ आपने हाल ही में घटित घटनाक्रम को नियोजन के साथ पाठकों से सांझा किया है।सत्य कड़वा होता है, यदि कोई पचा सके। आपने हिम्मत की है इसके लिए साधुवाद वर्ना तो हाल ये है -------तेरा निजाम है, सिल दे ज़ुबान शायर की।। सोजे वतन जैसी कृति में ग़लत थोड़े ही लिखा गया था। लिखने का साहस आपमें बना रहे यही शुभकामना है।

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  6. साहसिक और शानदार कहानी, साधुवाद आपको,
    Renu

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  7. सुन्दर 'शिक्षार्थी'2 नवंबर 2025 को 9:53 pm बजे

    यथार्थ कहानियों को लिखने के लिये असल हिम्मत की जरूरत होती है । ऐसी हिम्मत दिनेश कर्नाटक जी जैसे संवेदनशील लेखक ही कर सकते हैं । बहुसंख्यक समाज का हिस्सा होना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल है बहुसंख्यक समुदाय से होते हुए भी अल्पसंख्यकों की समस्याओं को समानुभूति से समझना ।
    बेहतरीन कहानी रचने के लिये साधुवाद दिनेश जी ।

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  8. बेहतरीन कहानी है, इसका मुख्य सार जो है, वो है presumption हम जो पूर्व धारणाए बना लेते है किसी भी संप्रदाय या धर्म के बारे मे वो हमेशा सही नहीं होती, हमें यहां जरूरत है, तथ्यों को समझने की और विवेकपूर्ण सोच की, नहीं तो देश की एकता और अखंडता को भारी नुकसान होगा...

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  9. डॉ शैलेन्द्र धपोला3 नवंबर 2025 को 7:52 pm बजे

    ये कहानी आज के दौर के समाज की वास्तविकता को दर्शाता है,दिनेश जी ने वर्तमान समय में हो रहे सामाजिक परिवर्तनों को बारीक नजर से देखने का प्रयास किया है,जो वास्तव में मुझे भी महसूस होता है।समाज में इतनी चुभन,टूटे अजीब सा डर पहले मुझे दिखाई नहीं दिया। साहित्यकार के रूप में दिनेश जी ने अपना कर्तव्य निभाया।बेहतर समाज के निर्माण में हम सभी ने अपनी भूमिका का निर्वहन करना चाहिए।

    जवाब देंहटाएं
  10. एक जिम्मेदार नागरिक एवं लेखक के रूप में सामाजिक सौहार्द कायम रखने का एक सार्थक प्रयास।

    जवाब देंहटाएं

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