अनीश कुमार की कविताएं

 

अनीश कुमार 


कविता क्या है? क्यों है? इसे ले कर आलोचकों के ही नहीं बल्कि कवियों के मन मस्तिष्क में अक्सर सवाल उठते रहते हैं और कवि इसे अपनी कविता का विषय बना कर इस सवाल को भी कविता में अंकित करते रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि कविता उस आन्तरिक संवेदना से उपजती है जिसे व्यक्ति शिद्दत से महसूस करता है। यह मनुष्य को सही मायनों में मनुष्य बनाने की कला है। कवि अनीश कुमार अपनी एक कविता में लिखते हैं : 'हर वह चीज़/ जो हमारे अनुभवों को,/ दुखों को,/ प्रेम को,/ और प्रश्नों को/ स्पर्श करती है –/ वह कविता है।' अनीश कुमार के पास संवेदनाओं से घनीभूत अनुभूतियां हैं जिसे वे अपनी कविताओं में उम्दा तरीके से अभिव्यक्त करते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अनीश कुमार की कविताएं।



अनीश कुमार की कविताएं


उलझन


मैंने अपने फ़ोन की स्क्रीन पर

एक प्रेम कविता टाइप की —

तीन बार मिटाई,

चौथी बार भेज दी

किसी ऐसे को

जो उसे कभी नहीं पढ़ेगा।


कौन-सी उलझन थी यह?

क्या शब्दों की

या मेरे भीतर

अर्थो की धीमी मृत्यु की?


मैंने वॉट्सऐप पर

अपने आख़िरी आँसू का

ब्लू टिक देखा —

कभी-कभी रोना भी

डिलीट फॉर एवरीवन नहीं होता।


पलंग के नीचे

एक चप्पल साल भर से अकेली है,

जैसे किसी रिश्ते की

एकतरफ़ा थकान —

क्या यह भी कोई उलझन है?


तुमने जो खिड़की बंद की थी

वह अब मेरी नींद की दीवार है।

मैं उधर देखता हूँ,

जहाँ से कभी उम्मीद आती थी

और अब

सिर्फ़ बेमतलब ट्रैफिक की आवाज़ें लौटती हैं।


मैंने अपने जिस्म पर

मॉनसून के बादल की तरह

तुम्हारी याद ओढ़ी थी,

पर वो भी ऐसी निकली

जिसे आंकड़ों में “आंशिक बारिश” कहते है

और किसान “धोखा”।


अब कौन-सी उलझन को सुलझाऊँ?

टूटे हुए कॉफ़ी मग की,

या उस चुप्पी की

जो हर चुस्की के साथ

और गहरी होती जाती है?


कोई मेट्रो की भीड़ में

अपना हँसता हुआ चेहरा भूल आया है,

कोई महानगर की धूल में

अपनी माँ की लोरी,

और हम सब

अपने अंदर

वो दरवाज़ा बंद करना भूल गए हैं

जो हर बार

दस्तक बन कर हमें जगा देता है।


मैं बस इतना जानता हूँ—

कि कुछ उलझनें

सुलझाने के लिए नहीं होतीं,

बस...

उनकी गिरहों में सांस लेना

सीखना होता है।



कचरा नहीं होती कविता


लाख कचरा हो तुम्हारे ज़ेहन में,

पर जो उतरती है काग़ज़ पर

धीमे सुर में, नर्म धूप में,

वो कविता होती है –

बिलकुल उम्दा, बेहद हल्की,

मगर कचरा कभी नहीं।


वो कविता जो बिके हज़ारों में,

चढ़े मंचों पर, हो सजीले बखान,

उसी को न मानो कविता का प्रमाण –

कभी चुपके से उतरने दो

किसी बूढ़ी आँख के कोने में

एक अश्रु बन कर,

या किसी दोपहर

किसी मज़दूर की रोटी के नीचे

छिपी भूख बन कर –

कविता वहाँ भी हो सकती है।


केवल युद्ध, नारे, जुलूस,

या स्त्री के ही हक़ का घोष नहीं कविता –

कभी किसी काले रंग के कारण

जेल में गली एक उम्र की दास्ताँ,

भी कविता हो सकती है।


कवियों के लिए हो

क्षितिज – धरती और आकाश का मिलन,

पर चरवाहों के लिए

चरागाह,

और मवेशियों की साँझ भी

हो सकती है कविता।


बरसात की छमछम,

काग़ज़ की नाव,

बिलकुल! –

पर साथ ही

नगरपालिका की लचर व्यवस्था,

गली में बजबजाती नालियाँ,

और बदबू मारता कचरा-डब्बा

भी कविता हो सकता है –

अगर वह आदमी को

आदमी से जोड़ दे।


हर वह चीज़

जो हमारे अनुभवों को,

दुखों को,

प्रेम को,

और प्रश्नों को

स्पर्श करती है –

वह कविता है।


लेकिन...

कचरा?

नहीं!

कचरा नहीं होती कविता।

कचरा होता है —

वह जो जीवन को बिना समझे

उस पर थूकता है।

कचरा होता है —

जो सौंदर्य से डरता है

और प्रश्न से भागता है।

कचरा, अगर कहीं है —

तो आदमी के भीतर है,

कविता के भीतर नहीं।



गुलमोहर की याद में तुम


गुलमोहर के तले वो आख़िरी मिलन था —

जैसे शब्दों ने थाम ली हो साँस,

जैसे वक़्त की रफ़्तार

किसी अधखिले हुए फूल पर ठहरी हो।


उस दिन तुमने कहा था—

“फूल गिरते रहेंगे,

पर कोई पेड़

कभी हमारी तरह नहीं खिलेगा।”

और मैं कुछ नहीं बोला।

सिर्फ़ तुम्हारी छाया में बैठा रहा,

नीचे पड़े फूलों में से एक फूल उठा

उसे निहारता रहा....

जैसे तुम्हारा ही चेहरा हो


अब हर बार जब गुलमोहर

फूलों से भर उठता है —

मैं लिपट जाता हूँ उस पेड़ से

जैसे कोई प्रेमी नहीं,

बल्कि कोई शोकाकुल बच्चा

अपने ही टूटे खिलौने को

अपने सीने से लगा लेता हो


मैं सोचता हूँ,

क्या तुम भी कहीं

किसी और शहर, किसी और पेड़ के नीचे

ठहर जाती हो यूँ ही,

जब तुम्हारी नज़र

किसी गुलमोहर से टकराती है?


क्या तुम्हारे भीतर भी

फूल गिरने की आवाज़

मेरे नाम की तरह गूंजती है?


क्या पेड़ की शाखों में तुम्हें

अब भी मेरा कांपता हुआ हाथ महसूस होता है,

जिसे तुमने उस दिन

धीरे से थामा था

जैसे कोई विदा

अपनी ही पीड़ा से बचाना चाहती हो?


गुलमोहर अब भी हर साल

उसी जगह, उसी रंग में

विस्फोट की तरह खिलता है —

जैसे उसने हमसे

हमारा वादा अब तक नहीं भुलाया।


मैं हर बार वहाँ जाता हूँ

तुम्हारी अनुपस्थिति को छूने,

और पेड़ की छाल में

तुम्हारे स्पर्श की दरारें

फिर से पढ़ने लगता हूँ —

जैसे कोई अपठित प्रेमपत्र

जो कभी ख़त नहीं बना।


और तब समझ आता है—

प्रेम ख़त्म नहीं होता,

वह किसी पेड़ में खिल जाता है,

जिसे सिर्फ़ वही देख सकते हैं

जिन्होंने वहाँ आख़िरी बार

किसी को सचमुच खोया हो।





माफीनामा


मैं अपने कमरे में बैठा हूँ —

खिड़की से आती हवा मेरी हथेली छूती है,

जैसे कह रही हो: "तू आज़ाद है।"

और मैं चुपचाप अपनी हथेलियाँ देखता हूँ —

क्या इनमें सचमुच आज़ादी की कोई रेखा है?


क्योंकि इसी वक़्त,

मेरे देश के किसी कोने में

एक दलित लड़का

तेरह साल की उम्र में जेल में दाख़िल हुआ होगा

और तैंतीस की उम्र में जब वह बाहर निकलेगा,

तो उसकी माँ की गोदी अब सिर्फ़ स्मृति होगी।


उसे नहीं पता कि

मोबाइल का लॉक कैसे खुलता है,

कि वोटर ID में नाम जुड़वाने के लिए

किसी सरकारी वेबसाइट पर जाना होता है।

उसे सिर्फ़ इतना पता है—

कि उसे बेगुनाह होने पर भी

क़ैद की सज़ा दी गई थी।


और एक मुस्लिम नौजवान —

जिसने कुरान का पहला सबक "इंसाफ़" सीखा था,

उसका नाम ही

इस देश की न्याय-व्यवस्था के लिए

सबसे बड़ा "सबूत" बन गया।


मैं बैठा हूँ —

मेरे पास किताबें हैं,

मेरे पास कविता है,

मैं संविधान की प्रस्तावना तक रच सकता हूँ।

पर क्या मैं ये भी लिख सकता हूँ

कि मेरी चुप्पी में

किसी की जवानी गल गई?


कभी-कभी लगता है —

कि मैं भी शामिल था उस मौन में

जब पुलिस ने बिना वारंट उठाया था उन्हें,

जब अदालत ने तारीख़ पर तारीख़ दी,

जब वकील ने नाम सुनते ही केस छोड़ दिया।


मैंने कभी कुछ नहीं कहा।


आज मैं जो साँस लेता हूँ,

वह शायद उसी के हिस्से की हवा है।

जिसे जेल के सीलन भरे कोने में

अपनी भाषा, अपना नाम,

अपना धर्म तक छुपा देना पड़ा था

जीवित रहने के लिए।


अब जब वे छूटते हैं,

हम कहते हैं —

"देखो, न्याय हो गया!"


पर वह लड़का कुछ नहीं कहता।

उसकी आँखों में आँसू नहीं हैं,

नहीं है कोई ग़ुस्सा भी।

बस एक ख़ालीपन है

जो पूछता है —

“क्या मेरी जवानी अब किसी को लौटाई जा सकती है?”


मैं

एक कविता नहीं,

एक माफ़ीनामा लिखता हूँ —

जो हर उस आदमी की तरफ़ से है

जो चुप रहा

जब दूसरों की ज़िंदगी को

सिर्फ़ नाम और जाति के आधार पर

क़ैद कर दिया गया।



रह गए हम बीच में


हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं

जहाँ प्रश्न पूछना

पहले अपराध होता है,

फिर धीरे-धीरे

गूँगों की भाषा में बदल जाता है।


अब शब्द

व्याकरण से नहीं, विज्ञापन से बनते हैं।

अब संवाद

रोटी से नहीं, नेटवर्क से जुड़ता है।

अब तुम्हारा दुःख

अगर फोटो खिंचवा ले

तो ही 'समझा जाता' है।


हमारे समय में

सबसे बड़ा डर

अब भूख नहीं रहा —

बल्कि वह है

भूल जाने का।


तुम अपने पितरों को भूल चुके हो,

अपना मोहल्ला,

वह दीवार जहाँ किसी ने लिखा था

“इंक़लाब ज़िन्दाबाद”,

अब वहाँ पेंट कर दिया गया है

एक मोबाइल कंपनी का पोस्टर।



---


यह समय

नयी सुविधाओं से भरा हुआ है —

जिसमें पुराने आदमी की कोई जगह नहीं।

और नया आदमी

अब अपनी ही परछाई से डरता है।


हमने तारे नहीं देखे कई रातों से —

हमें बताया गया है

कि वे अब 'क्लाउड' में सेव हैं।


पृथ्वी अब

एक प्रॉपर्टी डीलर के नक्शे में बदल चुकी है।

और आकाश

ड्रोन से मापा जाता है।



---


जो किताबें हमने जलायी थीं

आज वे जलने से पहले

स्कैन की जाती हैं,

PDF बनाई जाती है,

फिर नष्ट की जाती हैं —

ताकि कोई उन्हें दोबारा

याद भी न कर सके।


तुम कहोगे,

यह सब इतना निराश क्यों है?


मैं कहूँगा—

निराश नहीं हूँ,

बस उस पेड़ को देख रहा हूँ

जो कटने से पहले

अपने पत्तों को

एक-एक कर

समझा रहा है गिरने का अर्थ।



---


अब जबकि विकास का रथ

हमारे ही शवों के ऊपर से

गुज़र चुका है,

हम पूछ भी नहीं सकते

कि वह किस दिशा में जा रहा था।


हमने तो

केवल बचे हुए कपों को

चाय से भर कर

एक-दूसरे को सौंपा था

कि शायद कोई क्षण

अभी भी मनुष्य हो।


पर समय को

अब फुर्सत नहीं रही।



---


हम रह गए हैं

उन दो पन्नों के बीच

जो इतिहास और भविष्य में छपने से चूक गए

 —


हम अब जीवित हैं

एक ऐसी रेखा पर

जो न प्रश्न है

न उत्तर —

बस

एक सूखा मौन है।






एक उत्तर की लाश


एक उत्तर की लाश

पड़ी थी मेरी आत्मा के आँगन में

ठंडी, बेजान, निर्वस्त्र

जैसे सच को भी कपड़े नहीं दिए जाते

जब उसे जला देना होता है।


मैं देखता रहा

उसके होंठों पर जमी हुई खामोशी

उसकी आँखों में बचे हुए आँसू

जिन्हें कोई पूछने नहीं आया।


लोग आए,

झुंडों में

नारे लगे — "देखो, यही है सत्य का शव!"

फिर वे लौट गए

अपनी-अपनी अंधेरी गलियों में

जहाँ सवालों के पंख काट दिए जाते हैं।


मैं वहीं खड़ा रहा,

सिर झुकाए

एक शोकगीत जैसा

जिसे कभी लिखा ही नहीं गया।


क्या मैं दोषी हूँ,

कि मैंने उत्तर माँगा था

या इस लिए

कि मैंने उसका शव पहचान लिया?


अब हर सवाल

मेरे गले में फँसी हुई चीख है

और हर उत्तर

एक दफनाया गया इतिहास।


अगर तुम आओ

तो मत ढूँढना न्याय की रोशनी

बस बैठ जाना मेरे पास

उस लाश की परछाईं में

शायद वहीं से कोई नया प्रश्न जन्म ले।



सर और मैडम के बीच


(एक टेबल, दो कुर्सियाँ, दो ज़िंदगियाँ)


कक्षा में दोनों साथ घुसे थे —

सर और मैडम।

एक हाथ में चॉक,

एक में रजिस्टर।


सर ने जैसे ही कुछ कहा,

कमरा शांत हो गया।

मैडम ने कहा —

“कृपया ध्यान दें”

तो एक लड़का फुसफुसाया —

“देखो कैसे ऐटिट्यूड मार रही है।”


सर जब डाँटते हैं,

तो “अनुशासन” कहते हैं।

मैडम डाँटे,

तो “मूड ख़राब है आज।”


सर देर से आए,

तो “बहुत व्यस्त होंगे।”

मैडम पाँच मिनट लेट हुईं,

तो “घर सँभाल नहीं पाती क्या?”


सर की बातों में

“ज्ञान” खोजा जाता है,

मैडम की आवाज़ में

“स्वर का चिड़चिड़ापन” गिना जाता है।


छात्र सर से कहते हैं —

“सर आप बहुत इंस्पायर करते हो।”

मैडम से कहते हैं —

“मैडम, आप शादीशुदा हैं क्या?”


सर क्लास छोड़ें तो

“मीटिंग” में हैं।

मैडम क्लास छोड़ें तो

“घूमने निकली होंगी।”


सर पढ़ाते हैं तो

“फ्यूचर बनाते हैं।”

मैडम पढ़ाती हैं तो

“टाइम पास कर रही हैं, जब तक बच्चे बड़े न हों।”


एक ही स्टाफ रूम है,

एक ही सेलरी स्लिप,

फिर भी

एक के शब्द में “हुक्म” होता है,

दूसरी के शब्द में “हिम्मत” ढूँढी जाती है।


और सबसे दुखद ये —

जब बच्चे बड़े होते हैं,

तो

“सर जैसा बनना है”

कहते हैं।

कभी कोई नहीं कहता —

“मैडम जैसा होना है।”


सर और मैडम

सिर्फ़ दो संबोधन नहीं,

ये

एक ही पेशे में

असमान जीवन जीते दो मनुष्य हैं।


और भाषा —

हर दिन

किसी एक को सम्मान

और दूसरे को संदेह बाँटती है।



"मरने से पहले"


उसने कहा —

"मैं शिकायत करूंगा… भगवान से…

सबकी… एक-एक की…"

और ये शब्द नहीं थे —

जैसे किसी चिंगारी ने

अभी-अभी माँ की कोख से जन्म लिया हो।


तीन साल का था वो।

इतना छोटा कि

'ख' और 'ग' का फ़र्क नहीं जानता था —

पर ‘ख़ौफ़’ को पहचानता था।


उसके घुटनों पर जो खून था

वो उसका नहीं था —

वो शायद उस वक़्त का था

जो हर बार मासूमियत को मार देता है।


"भगवान को कहूंगा..."

उसने फिर कहा —

जैसे कोई फटी जेब से

टूटे हुए खिलौनों की लिस्ट निकाल रहा हो।


उसकी आँखों में आँसू नहीं थे —

वहाँ रेत थी।

बंजर हो चुके सपनों की रेत थी

जिसमें अब कोई पैर नहीं रखता

बस उस पर टैंक गुजरते हैं।


"मैं बताऊँगा उसे —

कैसे दीवारें छत बन जाती हैं

और छतें कब्रें..."

उसकी साँस काँप रही थी

जैसे हवा किसी जले हुए जंगल की राख समेट रही हो।


"मैं शिकायत करूंगा —

उनसे भी, जो पूछते हैं,

'कहाँ गिरा था बम?'

पर ये नहीं पूछते —

'किस पर?' "


मरने से पहले

उसकी आवाज़ में कोई ग़ुस्सा नहीं था —

बस एक ठंडा मौन था

जैसे कोई अलमारी में बंद कर आया हो

अपना सबसे प्यारा सपना।


और फिर...

उसने कुछ नहीं कहा।

शिकायत वहीं अटक गई —

एक अधूरी लोरी की तरह,


जो मर गया, वो बच्चा नहीं था।

वो सवाल था —

जिसकी धड़कन बंद हो गई

क्योंकि दुनिया के कान

अब पत्थर के हो चले हैं।


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क्या भगवान अब भी बच्चों की सुनता है?

या वहाँ भी… कोई प्रेस कॉन्फ़रेंस चल रही है?



ताख पर रखी मनुष्यता


ताख पर रखी है —

मनुष्यता

धूल जमी है उस पर

पास ही जूतों की एक जोड़ी भी हैं

जैसे किसी ने उसे वहीं

उतार कर

अपने पाँवों की पहचान भी

साथ छोड़नी चाही हो।


मैं पूछना चाहता हूँ —

क्या मनुष्यता अब

शब्दकोश की कोई बीती प्रविष्टि है?

या वह प्रेमपत्र

जिसे युद्ध के पहले

किसी ने ज़मीन में गाड़ दिया था?


नीचे गलियारे में

बिजली गुल है

और एक आदमी

कैंडल की लौ में

अपना चेहरा ढूँढ रहा है।

उसकी आँखें —

शंकाओं से भीग चुकी हैं

जैसे सरकार ने

बारिश की परिभाषा बदल दी हो।


मैं सोचता हूँ —

अगर हम ताख पर रखी

उस मनुष्यता को

फिर से उठाएँ, तो

क्या वह चल सकेगी?

या

केवल पाँवों के निशान की तरह

वहीं अपनी उपस्थिति दर्ज करवाएगी,


या

हमें उसकी पीठ लगीं

बैटरी बदलनी होंगी —

धर्म, भाषा, जाति

और ब्रांडेड विवेक की?


हो सकता है

वह बोलना भी भूल गई हो —

या बोलना ही न चाहे अब,

क्योंकि उसने देखा है

कि चीखना अब

'ट्रेंडिंग' नहीं होता।


मैं उसे छूता हूँ —

धीरे से...

जैसे अपनी माँ के पुराने आँचल को

छूता है कोई

जो अब लड़ाइयों से थक चुका हो।


तभी

वह कुछ फुसफुसाती है —

"मैं अब भी ज़िंदा हूँ...

बस,

तुम्हारा ही इन्तज़ार कर रही थी

किसी गवाही की तरह।"






जंगल की गूंगी पीढ़ियाँ


जंगल सरकार का हो गया

पर उसकी छाँव

अब भी आदिवासी की स्मृति में बची है —

जैसे माँ की गोद को

किसी नीति आयोग ने

अपवित्र घोषित कर दिया हो।


लकड़ियाँ

पूंजी की गाड़ियों में सजती रहीं

और

सूखती चली गई जंगल की कहानियाँ,

जो आग से नहीं सूखी —

हमारी ही अनदेखी थी।


एक समय था,

जब ये पेड़

नाम नहीं, रिश्ते थे —

महुआ, साल, पलाश और बांस

जैसे कोई भाई–बहन हों।


बाघों से डर नहीं लगता था उन्हें,

क्योंकि आदिवासी

कभी शिकारी नहीं रहे —

वे सहजीवी थे

इस धरती की सबसे पुरानी सभ्यता के।


कभी पढ़ा था —

“जो प्रकृति से जुड़ा है,

वही बचेगा।”

पर हमने जंगल बचा लिए कागज़ पर,

और जंगलवासियों को

विकास की दौड़ में

‘वन्यजीव’ से भी पीछे धकेल दिया


आदिवासी –

इस धरती के पहले प्रेमी थे।

उनकी कोई गीता नहीं थी,

न वेद,

न इतिहास की भारी किताबें।

उनकी देह ही शास्त्र थी,

उनकी भूख ही धर्म।

वे चुपचाप बाँटते रहे

जंगल की रोटियाँ —

बिना दावे, बिना देवता बनाए।


फिर भाषा के साथ लाए गए

कुछ नियम।

उन्होंने तय किया —

कौन ईश्वर के निकट है

और कौन केवल जंगल का पशु।

देश की डिक्शनरी से

गायब हो गया 'आदिवासी' शब्द

और उसकी जगह भर दी गई

‘वन्य क्षेत्र’, ‘पुनर्वास’, ‘संरक्षण’ जैसी योजनाएं।


आज आदिवासी नहीं दिखता

न संसद में,

न न्यूज़ में,

न पाठ्यपुस्तकों में।

दिखता है सिर्फ

किसी बैरिकेड के उस पार —

जहाँ उसके बच्चे

अब भी मिट्टी से खेलते हैं ।


जंगल अब सरकार का है,

पर मारे गए जंगलवासियों की आत्मा अब भी रोती है —

उन पैरों की आहट के लिए

जो नंगे थे, पर सच्चे थे।



आधा 'च' -- ग़ाज़ा के लिए


कुछ टोपियाँ बचीं हैं।

कपड़े की बनी, सिर पर रखने के लिए नहीं,

बस अब

सिर्फ़ पहचानने के लिए।


एक-एक जूता पड़ा है—

जिसका दूसरा कहीं नहीं।

जैसे जोड़ीदार नहीं रहा,

या फिर पैर ही नहीं बचे।


कुछ खिलौने भी हैं।

टूटी कारें,

पिचके हुए गेंद,

एक गुड़िया,

जिसकी आँख खुली रह गई है

हमेशा के लिए।


लोग कितनी आसानी से कह देते हैं—

बच्चे मारे गए।

जैसे कह रहे हों—पेड़ गिर गए।

या—मकान ढह गया।


ओफ़्फ़्फ़.....

उन्हें लगता है—

बच्चे और बचे में 

कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं होता,

बस आधा 'च'ही नहीं हैं!


पर उस माँ से तो पूछो

जिसने उसे अपनी देह से गूँथा था,

जिसने उसके लिए दूध में पानी नहीं मिलाया,

पर अब पानी में

उसका ख़ून मिल चुका है।


उसने लोरी गाई थी,

जो अब

कंक्रीट के मलबों के नीचे दब गई है।

उसने उसे चलना सिखाया था—

और अब कोई निशान नहीं बचा

ज़मीन पर।


मैं कुछ नहीं जोड़ूँगा यहाँ,

क्योंकि इस कविता में

कुछ जोड़ने लायक बचा नहीं।

केवल एक शब्द—

"था"

जो अब

हर मरे हुए बच्चे के नाम के साथ

जुड़ गया है!



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


अनीश

मकान न :-88

डी. सी. कॉलोनी 

बरनाला रोड 

सिरसा -125055

हरयाणा


मोब :-9416224178

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