रेनू यादव की कहानी 'आत्मदाह'
रेनू यादव |
अपने समय के समाज और राजनीति को मुकम्मल तरीके से दर्ज करने का काम साहित्य करता है। लोकतन्त्र की यह खूबी है कि वह लोक के जरिए संचालित होता है। लेकिन उसकी दिक्कत यह है कि नेता अपने हित के लिए वे सारे छल प्रपंच करने से बाज नहीं आते हैं जो उन्हें सत्ता में स्थापित कर दे। यानी राजनीति अब जनसेवा नहीं बल्कि स्वयं की सेवा के लिए की जाती है। रेनू यादव ने अपनी 'आत्मदाह' कहानी के मार्फत राजनीति की इस विडम्बना को खूबसूरती से उद्घाटित करने का प्रयास किया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रेनू यादव की कहानी 'आत्मदाह'।
'आत्मदाह'
रेनू यादव
‘जल्दी खाओ, धरने पर जाना है। पेद्दन्ना1 के ऑफिस पहुँचने से पहले हमें पहुँचना है’।
कइन-सी कँपकँपाती हाथ सेरामूलम्मा ने गरम तवे से चपाती उतार कर छः वर्षीय सुब्बलक्ष्मी के थाली में रखते हुए कहा। सुब्बलक्ष्मी ने खुश होते हुए पूछा, ‘क्या धरने पर बैठने से देवधर अन्ना वापस आ जायेंगे’?
रामूलम्मा की कोइयायी आँखों में नदी बढ़िया आयी, लेकिन चेहरे की अनगिनत झुर्रियों ने नदी को बहने से रोक लिया। लड़ाई अभी शुरू हुई है, नदी के वेग को रोक लेने से जज्बा बना रहेगा। कहीं नदी के बह जाने से मन हल्का न हो जाए, इस डर से चूल्हे की जलती लकड़ी अपनी फटी आँखों से देखती रह गई, जैसे उस दिन जल रहा था वह...। विपरीत समय के साथ सामंजस्य बैठाना मुश्किल हो सकता है, नामुमकिन नहीं। वह हार नहीं सकती, आग जल रही है और जलते रहने देना चाहती है। सुब्बलक्ष्मी रामूलम्मा की झुर्रियों में छिपी फटी आँखों में जलते सवालों के जवाब ढूँढने की कोशिश करने लगी किंतु उसे कुछ समझ नहीं आया और थोड़ी रूआँसी और थोड़ी उम्मीद के साथ चपाती के बड़े-बड़े निवाले गटकने लगी। निवाला गले में अटक गया सुरहुरी चढ़ गई। अब न साँस लिया जाए और न आवाज़ निकले। रामूलम्मा का ध्यान टूटा और वह गर्दन के पीछे थपकी देने लगी।
उस दिन भी ऐसे ही निवाला गले में अटक गया था जब कई सालों से बिस्तर पर पड़ी सुब्बम्मा से विजयम्मा ताई ने चिल्ला कर कहा, ‘अरे सुब्बम्मा, अब तो उठ जा, तेरे बेटे ने खुद को आग ली है।’
सुब्बम्मा की आँखें अचानक से खुलीं और किसी खाई में अटकी साँस उखड़ कर उल्टी चढ़ी, वह बिस्तर से उठ कर दौड़ पड़ी और घर के चौखट तक पहुँचते ही धम्म से मुँह के बल गिर पड़ी। उस दिन सुब्बलक्ष्मी को कई दिनों बाद चपाती मिली थी वह अम्मा को गिरते देख एक बड़ा निवाला गटक गई और अम्मा की ओर दौड़ पड़ी। अम्मा की चोटी हिला-हिला कर मुँह देखने की कोशिश में गले में निवाला अटक गया। अब वह अम्मा का मुँह देखे या साँस ले, समझ नहीं आ रहा था। सब लोग देवधर अन्ना को बचाने के लिए भाग चुके थे। सुब्बलक्ष्मी की साँस जैसे फाँसी के फंदे पर लटकी हो और अम्मा नीचे से टेक दिए सोई हो। उसे ध्यान आया मटकी में पानी है, वह दौड़ कर मटकी ही अम्मा के पास उठा ले आयी, ग्लास से पानी खुद भी पी रही थी और अम्मा के ऊपर भी गिरा रही थी, पर अम्मा तो टस से मस न हो रही। देवधर अन्ना को बचाने क्यों नहीं भागती अम्मा, सुब्बलक्ष्मी रोने लगी।चिल्लाते, खाँसते और बिलबिलाते नाक, कान से सुब्बलक्ष्मी की साँसें तो लौट आयीं पर अम्मा की साँसें नहीं लौटीं। अम्मा ने मुँह भी नहीं घुमाया, जीते-जी पीठ के बल लेटे-लेटे टूटी छत को निहारती रही और उस दिन पेट के बल पट्ट लेटे -लेटे जैसे धरती में गड़ जाना चाहती हो। अम्मा तो न उठी पर सुब्बलक्ष्मी अम्मा को उठाते-उठाते उसकी पीठ पर ही सो गई ।
रामूलम्मा की थपकी से सुब्बलक्ष्मी के गले में अटका निवाला छटक कर बाहर निकल गया। झरझराती फटी आँखों से निवाले को सुब्बलक्ष्मी देखती रह गई, रामूलम्मा ने दरेरा, ‘ऐसे क्या देख रही है, क्या तू जमीन से उठा कर खाने वाली है? जाने दे छोड़, चल जल्दी टाइम हो गया है।"
पेद्दन्ना के ऑफिस के सामने रामूलम्मा, सुब्बलक्ष्मी और रज़िया बड़ी देर तक बैठी रहींl। सिक्योरिटी गार्ड के बार-बार हटाने पर थोड़ी दूर जा कर बैठ जातीं लेकिन हटती नहीं। सुबह दस बजे से बैठे-बैठे तपती दुपहरी भी बीत गई, शाम में मुरझाए सूरज के साथ तीनों लौट आयीं। रज़िया कॉलोनी में बर्तन धोने और झाडू-पोछा का काम करने चली गई। रामूलम्मा सुब्बलक्ष्मी को सुबह की चपाती चटनी-पूरी के साथ दे कर जमीन पर ही पट्ट लेट गई।
तन से बीमार रहने पर हिम्मत बनी रहती है पर मन से बीमार पड़ने पर समस्त शक्ति क्षीण हो जाती है। हौसला हो तो उम्र भी बाधा नहीं बनती, निराशा में तो जवान भी निढ़ाल हो जाते हैं।रामूलम्मा पेद्दन्ना से न मिल पाने पर हर रोज रात में ऐसे ही हिम्मत हार जाती। रामूलम्मा को अपनी संचित तपस्या अब किसी बुरे कर्म के प्रताप के नीचे दबा-सा महसूस होने लगा था। पर रामूलम्मा को याद नहीं कि उसने ऐसा कौन-सा बुरा कर्म किया था जो उसे नियति इस तरह से लौटा रही है। ‘ज़िन्दगी में कुछ अच्छा न कर सको तो किसी का बुरा भी न करो’ के सिद्धांत पर चलने वाली रामूलम्मा आजीवन दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम और सर पर पक्की छत के इंतज़ार में गुजार दी। रोटी की तो फिर भी जैसे तैसे जुगाड़ हो जाता, पर अपने सर पर पक्की छत का सपना पूरा न हो पाया। छप्पर में ससुराल आयी रामूलम्मा भरी जवानी में विधवा हो गई और अपना बच्चा नागय्या को ले कर सती होती रही। नागय्या बड़ा हो कर जुआरियों की संगत में आ गया रामूलम्मा का बचा खुचा गहना भी जुआ में खेल गया। रामूलम्मा ने बड़ी मुश्किल से दूसरों के घर में काम कर के उसे पाला था, उसके विवाह से पहले खुद ही मिट्टी की दीवार उठाई और टीन से उसे ढक दिया। एक कमरे के घर के सामने थोड़ी सी जगह में मिट्टी की दीवार बना कर किचन बनाया तो दूसरी तरफ पर्दा डाल कर नहाने की जगह। वैसे भी पानी तीसरे-चौथे दिन ही आता है इसलिए रोज नहाने की समस्या और पानी बहने की समस्या नहीं थी।
कोडालु2 सुब्बम्मा के आते ही एक कमरे का घर जगमगा उठा। सुब्बम्मा ने घर को संभालते हुए अत्ता गारू3।से कहा, ‘अम्मा, अब घर की चिंता न करो, हम सब देख लेंगे’।
विवाह के दो साल बाद ही देवधर के जन्म ने जैसे दिन पलटा दिया हो। श्री श्री श्रीत्रिलिंग संघमेश्वर स्वामी देवालयम में लाख मन्नतों के फलस्वरूप पैदा हुए बेटे का नाम देवधर रखा गया। नागय्या ने जुआ छोड़ कर जिम्मेदारी संभाल ली।
घर से सटे आफताब मियाँ की बेटी रज़िया जब तब सुब्बम्मा का हाथ बटाने आ जाती। सुब्बम्मा ने रज़िया को अपनी बेटी से कम नहीं माना था। आफताब मियाँ के गुजरने के बाद रज़िया तपते धूप में झौंसाई आखिरी दूब थी लेकिन औरों के लिए खर-पतवार, पर खर-पतवार ही दुख के आँसू सोखा करते हैं। सुब्बम्मा को हर रोज मार खाते देख रज़िया सहम जाती और देवधर की सूनी आँखों में खो जाती। धीरे-धीरे देवधर की सूनी आँखों में अदहन की खदकन दिखाई देने लगी और फिर सब कुछ जला कर राख कर देने की चाह। रज़िया उस खदकन और आँच को समझती और अपनी आँखों से ही इशारा कर सब शांत कर देती। न जाने कैसी शांति थी रज़िया की आँखों में, जिसमें झाँकते ही देवधर देवता बन जाता। एक रात वह सबसे नज़रें बचा कर रज़िया के कमरे में पहुँच गया।
अंधेरे में छुप कर प्यार जताने वाले लोग उजाले में साथ खड़े होने की हिम्मत नहीं रखते। मुझे ऐसी दोस्ती और प्यार चाहिए जो समाज के सामने गर्व से मेरे साथ खड़े होने की हिम्मत रखता हो। रज़िया ने सोचा और मुँह फेर लिया।
‘अगली बार तभी आऊँगा जब सबके सामने तुम्हारा हाथ थाम सकूँ’ कहते हुए देवधर उस रात चुपचाप वहाँ से चला आया। कई दिनों तक घर से नहीं निकला। अचानक से वह परिवार, समाज, राज्य और राष्ट्र के लिए कुछ भी कर गुजरने वाला एक जिम्मेदार युवक बन गया।रज़िया अब भी सुब्बम्मा का हाथ बटाने आती पर देवधर उसकी ओर मुड़ कर नहीं देखता।
देवधर के जन्म के पन्द्रह साल बाद सुब्बलक्ष्मी का जन्म हुआ था। जुआरी-शराबी नागय्या के ऊपर न जाने कौन-सा नाग बैठा कि उसने सुब्बम्मा को डस लिया। उसने सुब्बम्मा के पेट में ऐसी लात मारी थी कि सुब्बम्मा उसी दिन से बिस्तर पर पड़ गई। कुछ महीनों बाद नागय्या अधिक पीने की वजह से कहीं नाले में मरा पड़ा मिला, वह तब भी बिस्तर से नहीं उठ सकी। उसने जैसे जीने की उम्मीद छोड़ दी थी या सचमुच उठ नहीं सकती थी ।
‘ये बुढ़िया आज फिर से यहाँ आ गई’ लाल आँखों से घूरते हुए पेद्दन्ना अपने ऑफिस में घुसने लगे।
‘पैसों की भूखी है... पोते की मौत की क़ीमत चाहिए’ पिछलग्गू ने कहा।
रामूलम्मा भागते-भागते ऑफिस की तरफ आयी तब तक पेद्दन्ना अंदर जा चुके थे। सुरक्षाकर्मी ने उसे वहीं रोक दिया। रज़िया और सुब्बलक्ष्मी बंजर आँखों से सब देखते रह गए। शाम तक इंतज़ार करने के बाद रामूलम्मा की बढ़ियाई आँखें घर वापस आ गईं।
पेद्दन्ना गरीबों के रहनुमा माने जाते हैं, अब विधायक हैं। वही एक हैं जो मुख्यमंत्री जी से मिलवा सकते हैं। अब तो तेलंगाना अलग राज्य बन चुका है। देवधर की आखिरी ख्वाहिश भी पूरी हो सकती है, भला पेद्दन्ना के पास दस हजार की कैसी कमी? दस हजार तो पेद्दन्ना हाथ झटकते ही दे देंगे लेकिन मुख्यमंत्री जी से मिल कर देवधर की कुर्बानी की कहानी भी सुनानी है ताकि उसका नाम तेलंगाना के शहीदों में दर्ज हो सके।
रामूलम्मा की देह पर पड़ी हर झुर्री पूरा का पूरा इतिहास है। वे पढ़ी लिखी नहीं थीं लेकिन उन्होंने घटना को बहुत ध्यान से समझा-बूझा था, तेलंगाना के एकीकरण से ले कर उसके विभाजन और स्वतंत्र राज्य बनने तक की तारीख दीवारों पर रेखाएँ खींच कर दर्ज की थीं। उसे देखते ही उनकी आँखों के सामने 1956 का वह दिन याद हो आया जब तेलंगाना आँध्र प्रदेश की गोदी में जा बैठा। राज्य के बड़े होने की खुशी में रामूलम्मा ने घर-घर जा कर लड्डू बाँटी थी। लेकिन 1969 में कुछ लोग आंध्र प्रदेश से तेलंगाना को अलगाने के लिए 'जय तेलंगाना' का नारा लगाने लगे । जिस राज्य को बड़ा होता देख रामूलम्मा खुशी के मारे झूम उठी थी अब वह फिर से छोटा हो जायेगा। राज्यों के एकीकरण और अलगाव का असर आम जनता पर ही पड़ता है, राजनैतिक पार्टियों का विस्तार और संकुचन उनके अपने स्वार्थ और हित को ध्यान में रख कर किया जाता है।
2001 में टीआरएस की शुरूआत, 2004 में तेलुगू देशम पार्टी का समर्थन, 2009 में नेताओं का आमरण अनशन, रायलसीमा और आंध्र क्षेत्रों (सीमांध्र) में विरोध-प्रदर्शन, 2013 में आंध्र प्रदेश के बंटवारे के प्रस्ताव को स्वीकृति, 2014 में विधानमंडल के दोनों सदनों द्वारा विधेयक को अस्वीकार किया जाना, तत्कालीन मुख्यमंत्री का विभाजन के विरोध में दिल्ली में धरने पर बैठना, लोकसभा में तेलंगाना विधेयक पास होने पर तत्कालीन मुख्यमंत्री का मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना, राज्यसभा में विधेयक पास होने पर राष्ट्रपति शासन लागू किया जाना, 2 जून को नए राज्य तेलंगाना में नए मुख्यमंत्री का प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेना आदि सब रामूलम्मा के आँखों के सामने घूम गया। रामूलम्मा ने यह सब कुछ विजयम्मा की टी. वी. पर देखा था, साथ ही साथ देवधर को अपने घर से निकल कर राजनीति के गलियारों में भटकते हुए भी देखा था। देवधर दसवीं की पढ़ाई छोड़ सायन्ना के पीछे-पीछे घूमने लगा। बचपन का घुमक्कड़ सायन्ना अचानक से एक दिन सफेद कुर्ता पजामा में बड़ा नेता बन गया। उसके पीछे देवधर जैसे कई लड़के सायन्ना-सायन्ना कहते नहीं थकते। मानो जैसे मुख्यमंत्री बनाने की जिम्मेदारी इन लड़कों के ही कंधों पर हो। सायन्ना ने चिन्ना अन्ना4 से मिलवाया, चिन्ना अन्ना ने देवधर को उसका दिन पलट देने का आश्वासन दिया। देवधर के पैर अब आसमान में रहते। अब गरीबी दूर होगी, बेहतर दवा से अम्मा पहले जैसी उठ खड़ी होगी, दादी का सारा सपना पूरा होगा, ताया-ताई सबका घर मुफ़्त में बनवा देंगे और भी न जाने कितने सपनों की उड़ान वह उड़ रहा था।
रामूलम्मा उसे बार-बार जमीन पर उतर आने के लिए कहती, ‘सबके हिस्से का आसमान अलग अलग होता है। लेकिन आसमान किसी में फर्क नहीं करता पर यह दुनियाँ फर्क करती है बच्चा। इसीलिए तो गरीब-गरीब है और अमीर-अमीर। कहीं कोई तुम्हारे गरीबी का फायदा न उठा ले’।
देवधर की आँखों पर रामूलम्मा की नहीं चिन्ना अन्ना के दिखाए हुए सपने थे। जिस समय विधानमंडल के दोनों सदनों द्वारा विधेयक को अस्वीकार कर दिया गया और विभाजन के विरोध में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिल्ली में धरने पर बैठे थे, उसी समय तेलंगाना में देवधर को चिन्ना अन्ना ने पेद्दन्ना से मिलवाया। पेद्दन्ना ने चिन्ना अन्ना से जनसभा से अलग कमरे में देवधर को बैठाने के लिए इशारे से कहा। करीब घंटे भर बाद पेद्दन्ना कमरे में पहुँचे। आम जनता के रहनुमा तब विधायक नहीं थे पर रूतबा किसी विधायक से कम नहीं था। उन्होंने देवधर से उसका दिन पलट देने का वादा किया और नया राज्य बनते ही पार्टी में किसी अच्छे पद पर शामिल होने का पूरा आश्वासन दिया। पेद्दन्ना कभी झूठ नहीं बोलते थे, उनकी बातें पत्थर पर लकीर होती हैं ।
इसके बदले में जो काम करना था उसे चिन्ना अन्ना और सायन्ना समझा देंगे। देवधर काम सुन कर एक पल के लिए काँप गया, “अगर समय पर आप लोग मुझे बचा नहीं पाये तो”?
“ऐसे कैसे हो सकता है मेरे चिन्ना” सायन्ना ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
“अगर मैं जल गया तो आपके दिए हुए दस हजार में तो मेरी ही दवा नहीं हो पायेगी, फिर माँ की दवा कैसे”?
“चुप रहो, खामोखाह डर रहे हो। यदि ऐसा होता है तो भी, तुम्हारी दवा की जिम्मेदारी हमारी होगी। तुम्हारे दस हजार तुम्हारी माँ के लिए सुरक्षित रहेंगे”। चिन्ना अन्ना ने कहा।
चिन्ना अन्ना और पेद्दन्ना एक दूसरे से अभिन्न थे, चिन्ना अन्ना का हर वादा पेद्दन्ना के मन की बात थी। पेद्दन्ना आम जनता की प्रेरणा हैं, ऐसे जमीनी नेता सदियों में कभी-कभी ही पैदा होते हैं। अविश्वास का सवाल ही नहीं था। अगर वह सफल हो गया तो तत्काल दस हजार मिलेंगे ही और साथ में पार्टी में जगह भी, उसके बाद तो दुःख के दिन कट ही जायेंगे। देवधर ने अपने मन को समझाया।
असेम्बली के सामने घटना को अंजाम देना तय हुआ। तय यह भी हुआ था कि मिट्टी के तेल में पानी की मात्रा नब्बे प्रतिशत होगी, तेल का डब्बा उड़ेलते ही लोगों में हाहाकार मच जायेगा, माचिस की तीली जलाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी और अगर पड़ भी गई तो तुरंत कुछ लोग उसे बुझा देंगे। आज़ादी का नारा लगाते हुए आग लगने से पहले ही बचा लिया जायेगा। थोड़ी दूर पर पानी और एम्बुलेंस का भी इंतज़ाम रहेगा।
देवधर ने मिट्टी के तेल का डब्बा अपने ऊपर उड़ेला, सबका ध्यान भी अपनी ओर खींचा, 'जय तेलंगाना' का नारा और तेज हो गया, लोग जोश में आ गए। सायन्ना के दोस्तों ने धीरे से देवधर के हाथ में माचिस भी थमा दी। सायन्ना ने चिन्ना अन्ना को बताने के लिए फोन किया, एक बार, दो बार, तीन बार...। फोन नहीं उठा। देवधर ने असमंजस में माचिस की तीली जला दी, आग भभक-भभक के लय पकड़ ली। चिन्ना अन्ना का फोन उठा, सायन्ना चिल्ला पड़ा, “च.. चिन्ना अन्ना, वह जल रहा है, वह जलता पुतला लग रहा है।”
“कितना हिस्सा जला होगा?”
“क… कितना हिस्सा? अरे वह जल रहा है चिन्ना अन्ना”! सायन्ना चीख पड़ा।
“थोड़ा जलने दो, नहीं तो लोगों को ड्रामा लगेगा” फोन में चिन्ना अन्ना के बगल से किसी की आवाज़ आयी।
“अन्ना”!
“थोड़ी देर बाद उसे दवाखाना पहुँचा देना”!!
सायन्ना ने फोन काट दिया और देवधर की ओर भागा। देवधर धू-धू करके जल रहा था। सायन्ना ने जल्दी-जल्दी कम्बल से आग बुझाया और एम्बुलेंस-एम्बुलेंस चिल्लाने लगा लेकिन एम्बुलेंस कहीं दिखाई नहीं दी। सायन्ना के दोस्तों ने बाइक पर बैठा कर उसे अस्पताल पहुँचाया। 90 प्रतिशत जले देवधर ने सुबह तक दम तोड़ दिया। न चिन्ना अन्ना देखने आए और न ही पार्टी के कोई कार्यकर्ता।
‘तेलंगाना को अलग राज्य बनाने के लिए आंदोलन में एक व्यक्ति ने खुद को लगाई आग’, ‘बागी लड़के ने तेलंगाना के लिए दी कुर्बानी’, ‘प्रदर्शनकारी जल उठे, तेलंगाना अलग राज्य बने’, ‘विरोधी पार्टी की चाल, एक व्यक्ति ने लगाई खुद को आग’ आदि समाचारों से समाचार पत्र के पन्ने पट गए थे। पेद्दन्ना सहित कई नेताओं का इस घटना पर अफसोस जताते हुए बयान आ रहा था तो कहीं ऐसा न करने की सलाह दी जा रही थी। सायन्ना पत्थर की मूर्ति की भाँति अस्पताल में बैठा रहा। घर में देवधर की माँ की लाश और अस्पताल में देवधर की... और वह खुद अपने आप में लाश लग रहा था।
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट आने में तीन दिन लगा। सायन्ना के कानों में “थोड़ा जलने दो, नहीं तो लोगों को ड्रामा लगेगा” की आवाज़ बार-बार गूँज रही थी, वह उस आवाज़ को पहचानने की कोशिश कर रहा था, पर पहचान न पाता। उसके मन में कई सवाल थे, जिसे ले कर वह चिन्ना अन्ना के पास गया पर चिन्ना अन्ना की प्राथमिकता तेलंगाना का विभाजन था, वे हर बार यही कहते कि एक बार अलग राज्य बन जाने दो, फिर बात करते हैं। अभी काम पर ध्यान दो। सायन्ना काम पर ध्यान देता, क्योंकि उसका भविष्य पार्टी से ही जुड़ा है। पर रह-रह कर देवधर उसके सामने खड़ा हो जाता, न्याय की माँग करता और उसके बाद “थोड़ा जलने दो, नहीं तो लोगों को ड्रामा लगेगा” वाक्य कानों में गूँज उठता।
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नए राज्य के नए मुख्यमंत्री शपथ ले रहे थे। आज भी गाँव के लोगों की आँखें टी. वी. पर गड़ी थीं। रामूलम्मा निस्तेज पड़ी थी, रज़िया आयी, “दादी, आज तेलंगाना का नया इतिहास शुरू हो रहा है। अब भी ऐसे ही सोई रहोगी”।
रामूलम्मा ने आँखें खोली, उसकी सूनी आँखों में बेबशी साफ झलक रही थी। रज़िया ने फिर कहा, “अब आगे क्या करना है”?
रामूलम्मा ने फिर से आँखें मूँद ली।
रामूलम्मा ने सोचा कि अब तो अलग राज्य बन ही गया है, अब पेद्दन्ना खुद ही पैसे घर पहुँचा जायेंगे। वे देवधर की कुर्बानी जाया नहीं होने देंगे। देखते-देखते एक साल बीत गया, गरीबों के रहनुमा पेद्दन्ना नहीं आए, हालांकि रामूलम्मा ने सायन्ना से कई बार संदेशा भी भिजवाया।
रामूलम्मा ने राज्य के दूसरे सालगिरह पर तय किया कि हर रोज पेद्दन्ना, जो अब विधायक है उनके ऑफिस के सामने जा कर बैठेगी। देवधर की आखिरी इच्छा ‘दस हजार’ अब हासिल कर के रहेगी और उसे तेलंगाना के शहीदों के नाम की सूची में दर्ज करवायेगी। उसने सुबह-सुबह पोहा बना कर सुब्बलक्ष्मी को दे दिया और रज़िया से सुब्बलक्ष्मी का खयाल रखने के लिए कह कर श्री श्री श्री त्रिलिंग संघमेश्वर स्वामी देवालयम दर्शन के लिए निकल गई। रज़िया और सुब्बलक्ष्मी को नहीं पता कि दादी कहाँ गयी हैं। पन्द्रह दिन बाद रामूलम्मा के लौटने पर रज़िया और सुब्बलक्ष्मी दोनों उसे पकड़ कर घंटों रोती रहीं। उस दिन रामूलम्मा को एहसास हुआ कि इन दोनों की आखिरी उम्मीद रामूलम्मा ही है। वह सिर्फ देवधर के विषय में नहीं सोच सकती। एक माँ अपने से अधिक अपने बच्चों के लिए मजबूत हो जाती है। सुब्बलक्ष्मी और रज़िया के लिए रामूलम्मा को भी मजबूत होना होगा।
रज़िया रामूलम्मा के साथ घर-घर जाकर गुहार लगाती कि लोग उसके साथ देवधर के लिए धरने पर चलें। पर तेलंगाना के अलग राज्य बनते ही अब देवधर सिर्फ सहानुभूति का मुद्दा था, लड़ाई का नहीं। गुहार लगाने का सीधा मतलब होता है कि इन्हें पैसों की भूख है और भूख किसी भी हद तक गिरा सकती है। रामूलम्मा अपनी भूख में दोनों बच्चों को भी कुर्बान कर रही है।
रामूलम्मा के पास देवधर की कुर्बानी और दस हजार के सौदे का कोई लिखित सबूत नहीं था। उसने करिखई लकड़ी से दीवार पर अगला इतिहास लिखना शुरू किया, अपनी लड़ाई का इतिहास। सत्रह खड़िया लाइन के नीचे सात-सात बेड़िया रेखा– 7.7.2017।
रामूलम्मा धरने पर बैठने के लिए कभी सुब्बलक्ष्मी को तो कभी रज़िया को साथ में लेकर जाती। पेद्दन्ना कभी नहीं दिखाई देते। प्रायः चिन्ना अन्ना और सायन्ना दोनों साथ-साथ दिख जाते। चिन्ना अन्ना बार-बार सायन्ना से कहता कि इस बुढ़िया को यहाँ से हटाओ, उधर ही मामला रफा-दफा कर लो। पर रामूलम्मा के हठ के आगे सायन्ना की एक न चलती। एक बार तो चिन्ना अन्ना ने रामूलम्मा से साफ-साफ कह दिया कि देवधर को वे जानते ही नहीं। रामूलम्मा ने सायन्ना को पकड़ा, “तुम तो जानते हो सायन्ना! वह तो तुम्हारे साथ रहता था”।
सायन्ना काँप गया। उसके सामने आग की लपटों में छटपटाते-भागते देवधर की काया आ गई। वह पानी-पानी और एम्बुलेंस-एम्बुलेंस चिल्लाता रह गया पर कोई नहीं आया। उसके माथे से पसीने की बूँदें टपकने लगीं और आँखों में भय, पीड़ा और बेवसी तीनों एक साथ दिखाई दी। रामूलम्मा ने उसकी आँखों में झाँका और कहा, “जो खुद लाचार हो, वह किसी दूसरे की सहायता क्या करेगा”।
सायन्ना बड़ी मुश्किल से ऑफिस के अंदर जा पाया, जैसे उसके शरीर में जान ही न हो। चिन्ना अन्ना ने उससे पूछा तो वह तबीयत खराब है कह कर लेट गया। देवधर के जाने के बाद सायन्ना चिन्ना अन्ना का साथ नहीं छोड़ पाया। पर हर रोज देवधर उसका हाथ पकड़ कर बचाने की गुहार लगाता, अपनी माँ की इलाज के लिए दस हजार की माँग करता। देवधर को पता भी नहीं था कि उसके साथ ही उसकी माँ भी चल बसी थी। सायन्ना चिन्ना अन्ना को फोन करता और पीछे से आवाज़ आती, “थोड़ा जलने दो, नहीं तो लोगों को ड्रामा लगेगा”। यह आवाज़ अब सायन्ना को स्पष्ट हो चुका था कि गरीबों के रहनुमा बनने के लिए भी झूठ और चालाकी का ही सहारा लेना पड़ता है। रहनुमा होना सत्ता का ही एक रूप है। सायन्ना ने कई बार गरीबों के रहनुमा को देवधर के गरीबी की याद दिलाई, पर हर बार कोई नई झूठी कहानी सामने आ जाती। सायन्ना ने सोचा वह मुख्यमंत्री से यह बात बतायेगा, पर कभी कभी सच पर झूठ इतना हावी हो जाता है कि सच बोलने वाला इंसान सामने होते हुए भी अदृश्य हो जाता है। उसके बावजूद भी वह पेद्दन्ना और चिन्ना अन्ना का साथ नहीं छोड़ सकता था। विश्वास करना और सच बोलना-सुनना और साथ देना तीनों अलग-अलग बातें हैं, कभी कभी पता होता है कि सामने वाला झूठ बोल रहा है, फिर भी उसका साथ देना पड़ता हैं, क्योंकि वे हमारे अपने हैं या उनसे कोई फायदा जुड़ा होता है। लोग व्यक्ति के साथ नहीं पावर के साथ खड़े होते हैं, कुर्सी जाते ही पावर समाप्त हो जाती है और लोग उनका साथ छोड़ देते हैं। सायन्ना भी उनके पावर के समाप्त होने का इंतज़ार कर रहा था और इस विश्वास पर जी रहा था कि एक दिन पावर इसके हाथ में आ जायेगा। लेकिन तब तक इसे उनके गुड बुक में रहना जरूरी है। किसी के गुड बुक में बने रहने की पहली शर्त है अपने स्वाभिमान को अपने से किनारे रख देना। सायन्ना खुद को कभी-कभी मरा हुआ व्यक्ति पाता था।
सायन्ना दो-तीन सालों में कभी चैन की नींद नहीं सो सका। पेद्दन्ना, चिन्ना अन्ना सबके हाथों में पावर आ गया । यह आज भी उन लोगों के पीछे-पीछे घूम रहा है। पिछलग्गू होना किस्मत में लिखवा कर ले आया है। यह पिछलग्गू नहीं अंधभक्त हुआ करता था। अंधभक्त होने के लिए सबसे पहले जरूरी है अपने ज्ञान, तर्क, बुद्धि, स्वाभिमान को किनारे रख देना। ऐसा नहीं है कि अंधभक्त प्रचंड मूर्ख होते हैं बल्कि स्वार्थ की नदी में महत्वाकांक्षाओं को बहा कर मंजिल तक पहुँचना प्राथमिकता होती है। वह घंटों बैठे-बैठे चिंतन-मनन करता रहता, ‘जितनी दुनिया बाहर होती है उससे भी कहीं अधिक अंदर होती है। संस्कार कहते हैं कि यह पैसे अब निर्रथक हैं और अधिकार कहता है कि पैसे हक़ हैं। दस हजार देवधर का हक़ है’।
‘असुरक्षा से उत्पन्न राजनीति प्रतिभाओं को मारती है। सत्ता की लालसा रखने वाले अपने फायदे के लिए आसमान का सपना दिखा कर पैरों तले की ज़मीन भी खींच लेते हैं। किसी देश को खत्म करना है तो पहले वहाँ की शिक्षा-व्यवस्था को ध्वस्त कर दो। या तो शिक्षा-व्यवस्था पर पूँजी मत लगाओ या शिक्षा इतनी मँहगी कर दो कि आम लोग शिक्षित ही न हो सकें। शिक्षित व्यक्ति तर्क से सोचता है और अशिक्षित भावनाओं से। सभी शिक्षित हो जायेंगे तो इनके पीछे पीछे कौन घूमेगा? जब युवाओं को बिना शिक्षित किए रोजगार की गारंटी दी जाती है तब युवाओं को बौद्धिक रूप से अपंग बनाया जाता है। जब जनता को मुफ्त राशन, मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी आदि का वादा किया जाता है तब जनता की सहायता नहीं बल्कि सहायता की आड़ में उन्हें मानसिक रूप से विकलांग बनाया जाता है। सत्ता का फायदा जनता के बौद्धिक विकलांगता में है, व्यवस्था की अव्यवस्था में है और आम जनता की महत्वाकांक्षाओं को बढ़ाते हुए आकांक्षाओं-इच्छाओं के पूरा न होने में है’। सायन्ना रामूलम्मा की मदद करना चाहता है, नहीं... नहीं... वह अपनी ग्लानि कम करना चाहता है। उसने निश्चय किया कि राजनैतिक पार्टियों से छुप कर रामूलम्मा की मदद करेगा।
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देवधर को गए चार साल बीत गए हैं, लेकिन रामूलम्मा का पेद्दन्ना के ऑफिस के सामने चक्कर लगाना कम नहीं हुआ। रामूलम्मा की ख़ब़र लोगों तक पहुँच चुकी थी, लेकिन पेद्दन्ना के कानों पर जू नहीं रेंग रहा। एक छोटे से पत्रकार ने एक दिन रामूलम्मा को रास्ते में रोक कर कहा, ‘रामूलम्मा दादी! दूर से हाय-हाय कर सहानुभूति दिखाने वालों से बात कर के समय बरबाद करने से अच्छा ऐसे लोगों से बात करो जो तुम्हारी समस्याओं का समाधान कर सके’।
रामूलम्मा ने बताया कि उसके पास धरने के अलावा कोई चारा नहीं है। पत्रकार ने उसे सायन्ना के मंशा के बारे में बताया कि वह पेद्दन्ना और चिन्ना अन्ना के खिलाफ नहीं जा सकता लेकिन वह आप लोगों की सहायता करना चाहता है । उसने सुब्बलक्ष्मी की ब्लाउज में हिडेन कैमरा फिट कर दिया।
चिलचिलाती धूप में रामूलम्मा, रज़िया और सुब्बलक्ष्मी तीनों पेद्दन्ना के ऑफिस के कुछ दूरी पर बैठे हैं, आज पेद्दन्ना यहीं से गाड़ी से उतर कर अंदर जाने वाले हैं, जनता की भीड़ लगी है। शायद अंदर कुछ होने वाला है।
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सुबह से दोपहर, दोपहर से शाम होने वाली है। रामूलम्मा को साँस लेने में दिक्कत हो रही है, पसीने से तर-बतर है। लगता है धूप लग गई है। रज़िया उन्हें पानी पिला-पिला कर शांत कर रही है। पेद्दन्ना और चिन्ना अन्ना गाड़ी से नीचे उतरते हैं। चिन्ना अन्ना ने पेद्दन्ना को पहले ही आगाह कर दिया था। गरीबों के रहनुमा पेद्दन्ना कई लोगों को सलाम करते हुए रामूलम्मा के सामने से गुजरते हैं, रामूलम्मा हाथ जोड़ लेती है, ‘पेद्दन्ना, अब तो रहम खाओ। देवधर को इंसाफ चाहिए’।
अचानक से कैमरे और माइक के बीच रामूलम्मा घिर गई। उसकी आँखें चौंधियाने लगी, मुँह से झाँग निकलने लगा फिर भी रामूलम्मा आज सब कुछ कह देना चाहती थी, ‘मेरा बच्चा देवधर इस राज्य के लिए शहीद हो गया,आपने कहा था कि उसे इसके लिए दस हजार मिलेंगे, उसकी आखिरी इच्छा पूरी हो सके इसलिए हम आपके सामने हाथ जोड़ते हैं’।
गरीबों के रहनुमा ने चक्कर खा रही बुढ़ी रामूलम्मा को अपने हाथों में थाम लिया। रामूलम्मा के मुँह का झाँग पेद्दन्ना के बाँहों पर गिरने लगा। पेद्दन्ना ने रज़िया के हाथों से पानी लेकर रामूलम्मा को पिलाया, पानी मुँह से बाहर गिरने लगा। रामूलम्मा की जीभ बाहर की ओर लटक गई। पेद्दन्ना की आँखों से आँसू निकल पड़े। मीडिया की सारी कवरेज पेद्दन्ना की आँसूओं पर थी। पेद्दन्ना ने अपनी जेब से एक हजार निकाल कर सायन्ना को थमाते हुए कहा कि इसके अंतिम संस्कार का इंतज़ाम करवा दो और अपने हाथों से रामूलम्मा की लाश को उठा कर एम्बुलेंस में ले जा कर सुलाया।
पड़ोस की विजयम्मा के घर पर रज़िया की गोद में सुब्बलक्ष्मी सर रख कर लेटी है, रज़िया उसके सर को सहला रही है । टी. वी.पर एंकर चिल्ला-चिल्ला कर न्यूज़ पढ़ रहे थे -‘विधायक को ब्लैकमेल करने धरना पर बैठी बुढ़िया रामूलम्मा की हुई मौत’, ‘अपने ही ब्लैकमेलर परिवार के अंतिम संस्कार के लिए दरियादिल विधायक ने दिए पैसे’, ‘गरीबों के रहनुमा पेद्दन्ना की रहनुमाई कोई नहीं भूल सकता’, ‘अपने पोते के आत्मदाह को दिया कुर्बानी का नाम’, ‘अपने पोते की आत्मदाह के लिए माँगे विधायक से दस हजार रूपये’ आदि आदि देख कर रज़िया का सर फटा जा रहा था।वह फूट-फूट कर रोने लगी। तभी विजयम्मा का बेटा मोबाइल ले कर आता है, ‘आपा-आपा, यूट्यूब पर अलग न्यूज़ है’।
‘तेलंगाना राज्य के लिए शहीद देवधर की कहानी’ ख़बर के अंतर्गत यूट्यूबर पत्रकार संयमित भाषा में समाचार पढ़ रहा था, ‘देवधर ने आंध्र प्रदेश से अलग राज्य तेलंगाना राज्य बनाने के लिए एक आंदोलन में आत्मदाह कर लिया। रामूलम्मा का कहना था कि देवधर को आत्मदाह के समय बचाने का वादा किया गया था और इस कार्य के बदले उसे उसकी बीमार माँ के इलाज के लिए दस हजार रूपये मिलने वाले थे। लेकिन घटना स्थल पर देवधर को बचाया न जा सका। देवधर की मृत्यु के साथ ही उसकी माँ भी चल बसी। देवधर की रामूलम्मा, बहन सुब्बलक्ष्मी और उसकी दोस्त रज़िया चार सालों से इंसाफ माँग रहे हैं। इंसाफ की गुहार लगाते लगाते रामूलम्मा ने भी दम तोड़ दिया। सवाल यह है कि अब देवधर की बहन की देख-भाल कौन करेगा?देवधर जैसे अन्य युवकों की कुर्बानी क्या यूँ ही चली जायेगी? आखिर कब तक देवधर के आत्मदाह की आँच पर राजनीति अपनी रोटियाँ सेंकती रहेगी? क्यों चाहिए बँटवारा जिसके लिए गरीबों की बलि चढ़ाई जाए? क्या कभी देवधर को इंसाफ मिल पायेगा’?
रज़िया को रामूलम्मा का रास्ता रोकते पत्रकार का चेहरा याद आ गया । पर मन में सवाल उठा कि नेशनल स्तर पर प्रसारित न्यूज़ के आगे छोटे पत्रकारों की बातें क्या सुनी जायेंगी? उसकी आँसूओं से भरी आँखें अब और कुछ देख पाने में सक्षम नहीं थी।
पर एक छोटा-सा पत्रकार इनकी ओर से आवाज़ उठा सकता है, तो ये कैसे हार मान सकती है? आगे की लड़ाई के लिए एक उम्मीद जागी और रज़िया ने अपने आँसू पोंछ लिए।
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सन्दर्भ
1. पेद्दान्ना – बड़े भाई,
2. कोडालु – बहू,
3. रामूलम्मा– सास,
4. चिन्ना अन्ना - छोटा भाई,
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
रेनू यादव
असिस्टेंट प्रोफेसर
भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय
यमुना एक्सप्रेस-वे
ग्रेटर नोएडा – 201312
ईमेल – renuyadav0584@gmail.com
बहुत बढ़िया कहानी...भ्रष्ट मतलबी स्वार्थी नेता और बिकाऊ मीडिया
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