श्रीराम त्रिपाठी का आलेख 'मूल प्रश्न'

 

श्रीराम त्रिपाठी


लेखक के वजूद में पाठक की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। भले ही लेखक स्वांतःसुखाय लिखने का दावा करता है लेकिन उसे मान्यता तो तभी मिलती है जब पाठक उसके लेखन को स्वीकार करता है। पाठक की स्वीकृति के बिना लेखन का कोई मोल नहीं। लेखन का मूल प्रश्न वाकई यही है। श्रीराम त्रिपाठी हमारे समय के गम्भीर आलोचकों में से हैं। उनके आलोचन का तरीका औरों से बिल्कुल अलहदा होता है। लेखक पाठक संबंधों की कड़ियों को एक आलेख के माध्यम से बड़े रुचिकर तरीके से उन्होंने खोलने का प्रयास किया है। यह आलेख एक अरसा पहले अक्तूबर 2002 में 'समय माजरा' पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। लेकिन इसमें उठाई गई बातें आज भी समीचीन हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं श्रीराम त्रिपाठी का आलेख  'मूल प्रश्न'।



'मूल प्रश्न'


श्रीराम त्रिपाठी


“अच्छा तू ही बता, कोई इन्सान कविता-कहानी क्यों लिखता है?... दूसरों की छोड़। अपनी बता। क्यूँ लिखता है तू?”


मैं कुछ नहीं समझ पाया। दोस्त के अचानक हुए सवाल से मैं अचकचा गया। दोस्त से हमारी बातचीत तो देश के हालत पर हो रही थी कि अचानक उसका यह सवाल अचकचा देने के लिए काफ़ी था। मेरे दोस्त का यह सवाल नया भी नहीं था। न जाने कितनी बार, कितनी जगह पढ़ा है। कुछ जवाब तो मेरे ज़ेहन में थे भी, मगर उसके पूछने के अंदाज़ में न जाने क्या था कि मैं परेशान हो गया। क्षणभर को लगा कि उसने अब तक के मेरे लिखे-पढ़े (जो भी थोड़ा-बहुत लिखा-पढ़ा है) को बेकार और अर्थहीन साबित कर दिया है। मैं न जाने किस अतल में डूबने और गुम होने लगा, जहाँ बहुत गहरा और घना अँधेरा था। घुप्प अँधेरा, जहाँ सीलन भी थी। साँस लेना भी मुश्किल था।


मेरा दोस्त ज़ालिम है। एक नम्बर का ज़ालिम। वह सुख-चैन से कभी नहीं रहने देता। उसके पास मैं ही आया था, एक कहानी सुनाने। उसे किसी भी तरह से अच्छा श्रोता नहीं कहा जा सकता। किसी ग़ज़लकार को अगर वह श्रोता के रूप में वह मिल गया, तो ग़ज़लकार साहब की छुट्टी ही समझिये। या तो वे ख़ुदकुशी कर लेंगे या ग़ज़ल लिखना छोड़ देंगे। आज तक मैंने उसे जितनी भी कहानियाँ (अपनी सभी) सुनाईं, उसने ख़ामियों-नुक़्सों का अंबार लगा दिया है। फिर भी न जाने क्या है कि अपनी कोई कहानी उसको सुनाए बिना मेरा मन मानता ही नहीं। अपनी सारी कहानियों को मैंने उसको सुनाने के बाद ही छपने को नहीं भेजी हैं। उसके द्वारा निकाली गई ख़ामियों-नुक़्सों, सवालों-सलाहों पर यदि मैंने पूरी तरह ग़ौर किया होता, तो अब तक मेरी एक भी कहानी मुकम्मल नहीं होती। फिर होता यह कि अब तक एक ही कहानी में मैं खुँपा रहता, मगर यह भी सच है कि उसकी राय, उसके सवाल, उसके द्वारा निकाली गईं ख़ामियाँ अगली कहानियों में किसी-न-किसी रूप में बड़े काम की साबित हुईं। इतना ही नहीं, इससे मेरा आत्मबल और आत्मविश्वास भी बढ़ा। उस अतल अँधेरे में कितना सुकून था! सुख-चैन था! मगर सुकून और मेरा दोस्त! न जाने ये दोनों किस जन्म के बैरी हैं। उसने जैसे मेरे माथे की सिखा को अपनी मुट्ठी में दबोच कर खींचता हुआ बाहरी सतह पर ला कर पटक दिया। मैं लगा बिलबिलाने-तिलमिलाने। चिल्लाऊँ तो कैसे, कोई देखने-सुनने वाला हो, तो न! है ईश्वर, हे अल्ला! ऐसा दोस्त-मित्र या मित्र-दोस्त किसी को न देना।


“देख, लेखक-वेखक के वहम को निकाल फेंक। तू बेहद दुखी इन्सान है। परेशान है तू। मेरे पास तू अपनी कहानी सुनाने नहीं आता। अपनी परेशानी सुनाने आता है; इस आस की चाह में कि मैं तेरी कुछ मदद कर दूँगा। मगर दिखाता ऐसे है कि तू तो एक रचनाकार है। कि तूने रचना की है। काहे की रचना? कैसी रचना?... मुझे अपना अज़ीज़ समझता है इसलिए आ जाता है ज्ञान देने। हाँ, यह देश दुनिया के ज्ञान ही तो देता रहा है। यहाँ के बुद्धू भी बड़े ज्ञानी होते हैं। सारी दुनिया यहाँ ज्ञान ही लेने आती रही और हम अपने ज्ञान को मुफ़्त में लुटाते रहे। दुनिया भर के देवता यहीं वास करते हैं। क्यों, ग़लत तो नहीं कह दिया? तेरी रचना से मेरा क्या वास्ता? क्या मेरी अपनी परेशानियाँ, अपने दुःख कम हैं; जो तेरी कहानी को सुनने-देखने बैठूँ? मुझे फ़ुर्सतिया समझ लिया है क्या?”


भयंकर रूप से उसने मुझे चोट पहुँचाई थी। सोच लिया कि चाहे जो भी हो, अब इससे कभी नहीं मिलूँगा। ख़ुद तो निठल्ला बैठा रहता है। कोई अगर कुछ करता है, तो उसमें रोड़े अटकाता रहता है। ईर्ष्यालु है। चाहता है कि मैं भी उसी के जैसा जीऊँ। उसी के जैसा रहूँ।... मैं ही बेवकूफ़ हूँ, जो उसके पास चला आता हूँ। कुंठित है स्साला! तभी तो सभी कटते हैं इससे। मन में आया कि कह दूँ कि नहीं सुनना है, तो मत सुन। सुनने वालों की कमी है दुनिया में! मैं तो दोस्त समझ कर आ जाता हूँ, मगर तू तो मेरा यश देख कर जलता है। मगर कह न सका। फिर भी मन में तो तय कर ही लिया कि अब इससे कभी नहीं मिलूँगा।... अब तेरी ओर ताकूँ भी तो अपने बाप का नहीं।...


वह समझ गया कि मैं नाराज़ हो गया। भयंकर नाराज़। उसने मेरी पीठ पर एक धौल जमाते हुए कहा, “नाराज़ हो गया? एक ओर तो अपने आप को रचनाकार मानता है, तो दूसरी ओर अपने श्रोता से ही नाराज़ होता है? अरे मूरख, यह भी नहीं जानता कि लेखक नाराज़ होगा तो अपनी बला से, श्रोता की बला से थोड़े ही! नाराज़ हो कर लेखक श्रोता का क्या बिगाड़ लेगा? बोल, क्या बिगाड़ लेगा?... देख, श्रोता तो अपनी समझ और रुचि के हिसाब से ही व्यवहार करेगा। लेखक कोई तोप है या सुर्ख़ाब के पर लगे हैं उसमें कि कोई उसके लिए अपना व्यवहार बदल लेगा! लेखक को उसका व्यवहार पसंद आए, तो ठीक, न पसंद आए तो उसके पास न जाए। एक बात गाँठ बाँध ले। अरे रे रे, तू गाँठ कैसे बाँधेगा? तू तो पैंट-शर्ट पहनता है। अच्छा, अपनी जेब में सँभाल कर रख ले कि लतमरुवा इन्सान ही लेखक बन सकता है।... श्रोता ने अगर लेखक की पसंद-नापसंद के हिसाब से व्यवहार किया, तो समझ ले कि लेखक से उसका संबंध साहित्य से इतर है। इससे लेखक के व्यक्तिगत जीवन को भले ही फ़ायदा पहुँचता हो, मगर उसके साहित्य का तो नुकसान ही होगा। घनघोर नुकसान। क्या तू चाहता है कि जैसे मैं तेरा दोस्त हूँ, वैसे ही यह मेरा श्रोता भी तेरे लेखक का दोस्त हो जाए? ऐसा तो नामुमकिन है। पाठक और लेखक, एक ही राह के राही हो कर भी उनके कार्य की विधियाँ-प्रविधियाँ भिन्न-भिन्न हैं। अच्छा बता, हम एक ही दिशा में चेहरा करके बात करते हैं, या कर सकते हैं?”


ग्लानि और पीड़ा से मैं अभी थोड़ा-सा उबरा था। पीटे गये बच्चे को मनाने के उपक्रम में माँ के सवाल कि “चाकलेट लोगे?” मैंने भी बच्चे जैसा ही जवाब दिया, “नहीं।”


“फिर कैसे मुमकिन है?”


“आमने-सामने।”


“हाँ। अब न आया रास्ते पर। बातचीत आमने-सामने मुमकिन होती है। एक ही दिशा में मुँह कर के नहीं, बल्कि विरुद्ध दिशा में मुँह करके। ध्यान रहे कि बात के विषय को बात करने वालों के बीच में होना चाहिए। किसी भी विषय पर बात करने वालों की संख्या दुगुनी होनी चाहिए। पक्ष-विपक्ष इसे ही कहते हैं। बात करने वालों की दिशा इस रूप में विपरीत होनी चाहिए कि दोनों की आँखें आमने-सामने हों। वे एक-दूसरे की आँखों में आँखें डाल कर बात कर सकें, तो सबसे बेहतर। सच्ची और सही बात तो आँखों में आँखें डाल कर ही कही-सुनी जाती है। इसके लिए किसी तीसरे की ज़रूरत नहीं पड़ती। दोनों एक-दूसरे को कान से सुनते और आँख से पढ़ते हैं, उसे भी जिसे ज़ुबान नहीं बोल पा रही या जान-बूझ कर छिपाये जा रही है, या... जिसका पता ही नहीं है। यानी, दोनों एक-दूसरे की बातों को नहीं, एक-दूसरे को जानने-समझने की भी कोशिश करते हैं। तू अपने को न सिर्फ़ छिपाता है, बल्कि अपनी ख़ामियों को रंग-रोगन करके, बड़े ही सलीके से सजा कर पेश करता है। मैंने इसीलिए ऐसा सवाल किया था, जिससे तू खुले। मगर तू तो पहले से भी ज़्यादा बंद होने लगा।”





मैं अब बहल गया था। अभी-अभी खाई क़सम न जाने कब कैसे हज़म हो गई थी। उसकी डकार तक नहीं थी। सच, ग़लत नहीं कह रहा। उसने मुझे जैसे आईने के सामने खड़ा कर दिया था। मैंने ही न जाने कितनी बार कहा है कि हम अपनी गंदगी को दूर करने के बजाय उसे छिपाने के लिए पहले आकर्षक बनाते हैं, फिर सबको कलाकृति के रूप में दिखाते हैं। यानी, गंदगी को छिपाने के लिए अपने आप को सजाते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह मेकअप और पैकअप ज़माना है। जानते होगे कि सौंदर्य को कभी सजाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। जैसा और जैसे हैं उससे बेहतर कैसे और कितना हो सकते हैं, शायद यही देखने-दिखाने की हमारी कोशिश होती है। गंदगी को तो ख़त्म करना होता है, न कि सजाना। मेरी आँखें उसकी आँखों से मिलीं और हम दोनों ठहाका मार हँस पड़े। पेड़ पर बैठीं चिड़ियाँ आवाज़ करती उड़ गईं। पेड़ से कई पीले-सूखे पत्ते ज़मीन से आ लगे।


उसने संजीदगी से कहना शुरू किया, “जानता है, तेरी कहानी मैं क्यों सुनता हूँ? नहीं न! इसे सोचने की तुझे पड़ी ही नहीं। एक नम्बर का स्वार्थी है। फिर भी दोस्त बनता है और चाहता है कि तुझसे मैं दोस्त की तरह पेश आऊँ। तो क्या यही अपेक्षा मुझे तुझसे न होगी? भाई, मेरे भी मन है। तेरा यह स्वार्थी व्यवहार मुझे बहुत चोटता-कचोटता है। क्या तुझे मेरी मानसिक स्थिति को नहीं देखना-समझना चाहिए?”


मुझे लगा कि वह वाक़ई सही कह रहा है। आख़िर, उससे मैं अपेक्षाएँ रखता हूँ, तो वह भी मुझसे कुछ अपेक्षाएँ रखता होगा। सच, मैंने कभी यह जानने की कोशिश ही नहीं की, जबकि मुझे यह जानना चाहिए कि वह मेरी कहानी क्यों सुनता है। या उसने मेरी कहानी मनोयोग से सुनी भी या नहीं। मैं तो अपनी कहानी में डूबा हुआ उसे कहानी सुनाता होता। कभी-कभार आँख अपने आप उठ जाती, तो उसके चेहरे को देख कर आश्वस्त हो जाती कि मेरी कहानी ने उसे बाँध लिया है। फिर तो दुगुने उत्साह से सुनाने लगता। बारीक़ी से मैंने उसके चेहरे को कभी देखा ही नहीं। देखने की फ़ुर्सत कहाँ होती। मैं तो मगन होता अपनी कहानी और उसके भविष्य में।


“बोलो। बोलते क्यों नहीं?”


मैंने अचकचाते हुए कहा, “मुझसे भूल हुई, बड़ी भूल हुई। स्वीकार करता हूँ। मगर स्वार्थी हूँ, कहना ग़लत है। सच कहूँ, तो मैं सुनाने के दौरान कहानी में ही डूब जाता था। मैं-तू या तू-मैं को भूल कर मैं तू या तू मैं हो जाता था।”


“यानी, वस्तुमय हो जाते थे। यही कहना चाहते हो न। इसीलिए भूल जाते थे कि किसी को अपना अनुभव, अपनी कोई बात सुना रहे हो। भूल जाते थे कि किसी से बतिया रहे हो। लगता है तुम्हें भूल और अपराध का फ़र्क़ ही नहीं मालूम है। भूल माफ़ी के क़ाबिल होती है, मगर अपराध में सज़ा मिलती है। तू जिसे भूल कह रहा है वह तो भयंकर अपराध है। जानता है कि अकारण किसी का किया गया अपमान किसी अपराध से कम नहीं होता। तू छिपा रहा है। इसीलिए और बड़ा अपराध कर रहा है। सच तो यह है कि तू हम दोनों को बराबर याद रखता है। जब मैं कहानी को पूरे मनोयोग से सुन रहा होता हूँ, तो तू इसे अपनी कहानी का प्रभाव मान कर इतराने लगता है कि तेरी कहानी ने मुझे बाँध लिया। फिर तो तेरी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहता। अब तो तू दुनिया से ऊपर हो गया। आचार्य शुक्ल जिसे लोकोत्तर कहते हैं न, वही। हाँ भई, जो लोक के उत्तर हुआ वही तो लोक को सवाल के घेरे में लेगा? लोक में अगर बल है, तो उसके सवाल का जवाब दे। लोक तो अपने स्व को अस्व करता हुआ धरती को धाँगता रहता है। विश्वमित्र ऐसे ही जन बनते हैं। सच तो यही है कि मुझे तू बाँधने आता है। मेरी समझ में नहीं आता कि किसी लेखक का लक्ष्य अपने श्रोता-पाठक को बाँधना कैसे हो सकता है? और किसी श्रोता-पाठक को किसी के द्वारा बँधना प्रिय कैसे लग सकता है?”


मेरे इस दोस्त के साथ दिक़्क़त यही है कि इससे कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता। और छिपाने की यदि रत्ती भर भी कोशिश हुई तो समझ लीजिए कि आपकी ख़ैर नहीं। आपको न सिर्फ़ नंगा किया जाएगा, बल्कि रेशा-रेशा उधेड़ कर रख दिया जाएगा। आप अपने को बिलकुल ही बदरूप, घिनौना और कुत्सित पाएँगे। अपनी ही निगाह में गिरने लगेंगे। मैंने ‘हाश्’ महसूस किया, क्योंकि उसका कहना जारी रहा, “तू ही नहीं, ज़्यादातर लेखक यही समझते हैं और चाहते हैं कि वे अपनी रचना से श्रोता-पाठक को बाँध लें। रचना न हुई मानो रस्सी या हथकड़ी हो गई। यह सोच ग़लत होने के अलावा अमानवीय भी है। रचना बाँधती नहीं, बल्कि पाठक के बंधन को खोलती-तोड़ती है। उसे मुक्त करती है। मनुष्य तो पहले से ही अनगिन बंधनों से बँधा होता है। बंध कभी सम् नहीं होते, फिर भी संबंध-संबंध कहे जाते हैं। जीवन और ज़िंदगी नाना प्रकार के बंधनों में बँधे है। इन बंधनों से मुक्त होने में जो मदद करे, मनुष्य मात्र का वही सच्चा मित्र भी है और हितैषी भी है। इस तरह रचना लेखक को अपने आप से, यानी अब तक की सोच से भी उसको मुक्त करती है। रचना तो अपने पाठक को भी रचती है और उससे रचाती भी है।”


इतना कहते हुए वह चुप हो गया। हम दोनों के बीच चुप्पी पसर गई। फिर वह अचानक दौड़ पड़ा बहुत तेज़। मैं हक्का-बक्का रह गया। कुछ भी समझ नहीं पाया। और न जाने क्यों और कैसे उसके पीछे दौड़ने लगा। वह हाँफते-हाँफते रुक गया, एक छोटी-सी पोखर के पास। मैं भी हाँफता-डाँफता पहुँचा उसके पास और हाँफते हुए ही पूछा, “क्या बात हुई?”


वह हँस रहा था। खिलखिला रहा था।। उसका हँसना देखने लायक़ होता है। अक्सर, ऐसा मौक़ा जब भी आता है, मैं सिर्फ़ देखता रहता हूँ उसे। सिर्फ़ देखता रहता हूँ। मगर इस वक़्त भौंचक था।


“मैं क्यों दौड़ा, यह जानने के लिए तुम मेरे पीछे दौड़े?”


“हाँ। निश्चय ही। तुम मेरे अज़ीज़ हो।”


“अगर अज़ीज़ नहीं होता, तो नहीं दौड़ते न!”


“बेशक।”


“ठीक ऐसे ही लेखक को पाठकों का अज़ीज़ बनना होता है। फिर तो वह जहाँ-जहाँ दौड़ेगा, पाठक भी वहाँ-वहाँ दौड़ पड़ेगा। इसलिए लेखक को अपने पाठक की मनःस्थिति को जानना ज़रूरी है। पाठक की मनःस्थिति में लेखक को शामिल होना होता है, तभी वह अपने पाठक के मन को बदल सकता है। बात अमूर्त हुई जा रही है। चल, इसे ठोस धरातल पर जानने की कोशिश करते हैं। कहानी सुनाने तू आया था न! मैं तो नहीं आया। मैं तुझे बुलाने भी नहीं गया था। न बुलावा ही भेजा था। तो यह जान ले कि गरज़मंद लेखक है न कि पाठक। परेशान और खस्ताहाल लेखक है न कि पाठक। लेखक परेशान और खस्ताहाल इसलिए है कि वह जानता है कि वह परेशान और खस्ताहाल है, जबकि पाठक (सामान्य आदमी) इसे नहीं जानता। अपनी परेशानी और उलझनों से व्यक्ति जब अपने प्रयासों से निजात नहीं पाता है, तो मदद की आस में अपने अज़ीज़ों के पास जाता है। वह चाहता है कि उसका अज़ीज़ उसकी परेशानी और उलझन दूर करने या सुलझाने में रुचि लेने के अलावा उसकी परेशानी और उलझन को किसी अन्य को बताये बिना अपनी परेशानी और उलझन समझे। इसलिए वह अपनी परेशानी और उलझन को इस तरीक़े से प्रकट करता है कि वह परेशानी और उलझन जिस तरीक़े से उसे महसूस हुई, वैसे ही उसके अज़ीज़ को भी महसूस हो सके। एक ही परेशानी से एक से अधिक लोगों के जूझने से परेशानी के ख़ात्मे और उलझन के सुलझने की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए भाई, पाठक को लेखक कुछ देता-ओता नहीं है। इस मुग़ालते को अपने मन से निकाल दे। लेखक तो पाठक से लेने जाता है। सिर्फ़ लेने। लेने के क्रम में अपने आप ही देना हो जाता है, क्योंकि जहाँ ‘लेना’ है ‘वहाँ’ देना मौजूद रहता ही है। मगर तुम लेखक लोग यही मानते हो कि देने जाते हो। जो सरासर झूठ है। कुआँ प्यासे के पास आता है या प्यासे को कुएँ के पास जाना होता है? एक बात मन में गहरे उतार लो कि जो लेखक अपने पाठकों के पास मदद के लिए जाता है, वही पाठकों के द्वारा ‘मददगार’ के रूप में स्वीकार्य होता है, क्योंकि वही कुछ सार्थक देने में समर्थ होता है। कुएँ से प्यासा जितना और जैसा पानी लेता है, कुआँ उतना ही और नया पानी पा जाता है। कुएँ का ताज़ा पानी से भरा होना प्यासे पर निर्भर करता है। ठीक ऐसे ही जो लेखक पाठक से जितना ज़्यादा ले पाएगा, वह उतना ही ज़्यादा पाठक को दे भी पाएगा। लेखक ने ‘दिया’ ऐसा पाठक को कहना चाहिए, न कि लेखक को। असली दाता कभी नहीं कहता कि उसने किसी को कुछ दिया।”


थोड़ी देर रुकने के बाद वह फिर से शुरू हो गया। मैं तो पूरे मनोयोग से उसे सुने जा रहा था। मुझे लगा कि मेरे दोस्त में मुझसे ज़्यादा ही प्रतिभा है। उसके अनुभव तो विशिष्ट और विलक्षण हैं। इसका लिखा कितना अच्छा होता? मुझसे तो यह लाख दरज़े अच्छा लिखेगा।





वह कह रहा था, “मँगतों को तूने देखा ही होगा। उनके सलीके पर कभी गौर किया है कि नहीं। दाता के मन को कैसे अपने पक्ष में मोड़ देते हैं। इन मँगतों से लेखक को सीख लेना चाहिए। सामाजिकता का अर्थ लेन-देन ही तो है। अपनी बात, यानी, परेशानी, समस्या या उलझन में रुचि पैदा करने के लिए लेखक को अनेकों प्रकार की युक्तियों का सहारा लेना पड़ता है। अगर समस्या या उलझन में पाठक की रुचि ही नहीं पैदा हुई, तो पाठक से ख़ाक़ मदद मिलेगी। पाठक ही क्या, कोई भी व्यक्ति अपनी मनःस्थिति से बाहर निकलना नहीं चाहता, परंतु उसे बाहर निकाले बिना लेखक का काम भी तो नहीं सधना। लेखक इसीलिए पाठक की मनःस्थिति में ख़ुद को शामिल करने का उपक्रम करता है। वह अन्दर-बाहर, दोनों तरफ़ से पाठक को निकालने का प्रयत्न करता है। लेखक और पाठक में यह द्वंद्व निरंतर चलता रहता है, जिसकी निर्माण भाषा के द्वारा ही होता है। इसलिए लेखक भाषा के माध्यम से अपने पाठक की मनःस्थिति में प्रवेश करके उसे गतिशील करता है। भाषा की सबसे छोटी इकाई शब्द है। और शब्द ध्वनियों के संयोजन से बनते हैं। संगीत कला भी ध्वनियों का संयोजन ही है। ध्वनियों के प्रभाव को तू जानता है। संगीत कला सीधे मनुष्य के भाव को प्रभावित करती है। संगीत मनुष्य की चेतना पर आधिपत्य जमा लेता है। फिर तो श्रोता को जब चाहे तब ले जाता है। जिधर चाहे उधर ले जाता है। इसी अर्थ में संगीत वैयक्तिक कला है, तो साहित्य सामाजिक कला। ध्वनियों के मेल से बने शब्दों को एक अर्थ मिलता है। यह अर्थ किसी निश्चित देशकाल में रहते लोगों द्वारा दिया गया होता है। ऐसा नहीं होता कि वह शब्द हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग अर्थ रखता है। शब्द की गरिमा और अर्थवत्ता उसकी सामाजिकता के नाते है। अर्थ तो सामाजिक गतिविधियों का परिणाम होता है। ध्वनियों के कारण साहित्य में संगीत का होना तय है, मगर वह अर्थ के वाहक के रूप में आने पर ही कारगर होता है। जो लेखक अपने श्रोता-पाठक को बाँधना चाहता है, मतलब कि जो-जैसे मैं सोच रहा हूँ, वह भी वो-वैसे ही सोचे। ऐसा करना न केवल साहित्य के लिए, बल्कि पूरे मानव समुदाय के लिए हानिकारी होने के साथ नाशकारी भी है। बाँधने की इच्छा और कामना तो, संगीत प्रधान छंद में बँधे युग और उसकी मानसिकता की प्रवृत्ति है। साहित्य तो द्वंद्व को जन्म देते हुए उसे तीव्र करता है और फिर उन्हें संयोजित कर देता है।”


वह रुका और उठकर चहलकदमी करने लगा। एक पीले पत्ते को उठा कर बारीकी से देखने लगा। उसकी गतिविधि देखते हुए मैं सोचने लगा कि यह पीला पत्ता अपने समाज से जुदा हो गया। पेड़ ही इसका समाज रहा जिससे यह जीवन पाता था और पेड़ को ख़ुद भी ख़ुराक पहुँचाता था। पेड़ पर अब भी असंख्य पत्तियाँ हैं। लगता ही नहीं, इसके अलग होने से उस पर कोई असर पड़ा है। वह तो पहले जैसे खड़ा है। उसकी पत्तियाँ हिल रही हैं, रुक-रुक कर, धीरे-धीरे।


“हाँ, तो लेखक को पाठक का पहले दोस्त बनना होगा। हितुवा कहते हैं न! वही। पाठक को समझना होगा। उससे परिचित होना होगा। मैं दूसरों की नहीं, अपनी बात कर रहा हूँ। तेरी बात यदि मेरी ज़िंदगी की परेशानी-बदहाली को कम करने या जूझने में किसी तरह से मेरी मदद नहीं करती, तो मैं तेरी बात सुनने की जहमत क्यों उठाऊँगा? हरगिज नहीं।”


“सुने बिना तू कैसे जानेगा कि मेरी रचना तेरी मदद करेगी, या नहीं।”


“तेरी बात करने का लहजा, अंदाज। उसका चुनाव। मैं तेरी बात में रुचि लूँ, इसलिए तुझे मेरे मनोनुकूल बात करनी होगी। जब हम दोनों एक-दूसरे के अनुकूल हो जाएँगे, तब तू अपनी मूल बात पर चुपके से आ जाएगा। फिर तो मैं बड़ी सरलता से तेरी बात सुनूँगा। और मान ले, जैसा कि अक्सर होता है, अगर सुनूँगा भी तो तेरा मन रखने के लिए। मतलब, सुनने का दिखावा करूँगा। क्या तू चाहेगा कि मैं ऐसा करूँ?”


उसने मुझे ऐसे मुक़ाम पर ला पटका, जहाँ से निकलने का महज़ एक ही रास्ता था। हर किसी के लिए महज़ एक ही रास्ता, “नहीं।”


“तो मैं यह मानूँ कि तू अपनी नहीं, मेरी उलझन-परेशानी लिखेगा।”


“हाँ।”– मेरे मुँह से अचानक ही निकल गया। मैं इतना नासमझ नहीं हूँ। लेखक हूँ। जानता हूँ कि वह जितनी गहराई में उतर कर बोले जा रहा है, वहाँ ‘हाँ’ ‘ना’ में जवाब नहीं होता। फिर भी न जाने कैसे मेरे मुँह से निकल गया। अब ख़ैर नहीं। वह मेरी मिट्टी पलीद किये बिना नहीं मानेगा। आज का खाना ख़राब करके ही दम लेगा। इस लायक़ मुझे छोड़ेगा ही नहीं कि घर पहुँच कर कुछ खाने लायक़ रहूँ। मैं अपने बचाव में कुछ सोच ही रहा था कि वह हथौड़े की तरह आ टकराया, “उलझन-परेशानी मेरी, और लिखेगा तू? वाह भाई, वाह! कैसे? सुनाइए ज़नाब, अपने अरविन्दाधरोष्ठ से।”


उसकी मनःस्थिति और तैयारी का परिचय था, उसका ‘अरविंदाधरोष्ठ’ कहना। भागने में ही भलाई थी, क्योंकि मैं तो अब जूझने के क़ाबिल ही नहीं रहा था। मैंने अपने आस-पास पसर आये अँधेरे की मदद लेते हुए कहा, “अरे यार, कितनी देर हो गई! परिंदे भी अपने घोंसलों में चले गए। उल्लुओं के घूमने-फिरने का समय आ गया। चल उठ, हम भी चलें। फिर कभी इस पर बात करेंगे। मैं नहीं चाहता कि लोग हमें...”


मेरे अधूरे वाक्य को पूरा तो उसने पूरा किया, “... उल्लू समझें।”– और बड़े ज़ोर से हँस पड़ा। मैं भी उसके साथ हो लिया। मेरे अधूरे को पूरा उसी ने किया था। हँसते हुए ही उसने कहा, “तू तो समझदार है उल्लू नहीं। सच।”


हँसी ने हमारे सारे ग़र्द व गुबार उड़ा दिए थे।


अब हम दोनों साथ-साथ एक ही दिशा में चल रहे थे। मगर लक्ष्य तो अपना-अपना घर था। थोड़ी देर में उसका घर आ जाएगा। फिर तो अकेले ही चलना होगा। मेरा घर उसके घर से आगे जो था। मगर क्या मैं वाक़ई अकेले चलूँगा?



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



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मोबाइल : 07069181001



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