शालिनी खन्ना की कहानी 'दुर्गा'

 

शालिनी खन्ना 



स्त्री सशक्तिकरण के तमाम प्रयासों के बावजूद हमारे समाज में सबसे ज्यादा स्त्रियां ही असुरक्षित हैं। स्त्रियों के लिए खतरा बाहर का ही नहीं होता, यह आन्तरिक भी अधिक होता है। पारिवारिक लोगों से भी उन्हें यह खतरा बराबर बना रहता है। पितृ सत्तात्मक सोच की इंतहा यह कि इस तरह की जो दुर्घटना होती है उसमें दोषी स्त्रियों को ही ठहराया जाता है। उन्हें अपना पक्ष, अपनी बात तक नहीं रखने दी जाती। शालिनी खन्ना की कहानी दुर्गा इसी पृष्ठभूमि पर लिखी गई कहानी है। शालिनी की कहानियों में नारी मनोदशा का वास्तविक चित्रण मिलता है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शालिनी खन्ना की कहानी 'दुर्गा'।



दुर्गा 


शालिनी खन्ना


फगुनिया ने कटोरे में बसियाया भात निकाला, उस पर दो टुकड़े प्याज के और थोड़ा नमक भी डाल दिया। साथ ही दरवाजे के बाहर लगे मिर्ची के पौधे से दो मिर्ची भी तोड़ लाई और उसके साथ बसियाया भात पानी सहित ही सुड़कने लगी। शायद बरसाती ऊमस वाली गर्मी के कारण भात ज्यादा ही बसिया गया था, इसलिए उसकी खटास कुछ अधिक ही लग रही थी। फिर भी फगुनिया को अच्छा ही लगा और अगर अच्छा न भी लगता तो उपाय ही क्या था। चार महीने के उस दुधमुंहे गणेश का पेट भी तो भरना था, अपने खान-पान का विशेष ख्याल उसे रखना ही पड़ेगा। कितनी मान-मनौती करने पर तेरह साल बाद तो वह घर में आया था। लेकिन कैसा अभागा निकला, पैदा होने से पहले ही बाप इस दुनिया से चल बसा। बहुत रोई थी वह, हे भगवान! जब पूत देना ही था तो पालन-पोषण करने वाले को तो रहने देते। यह कैसी शर्त रखी तुमने, एक के बदले एक। उसका मन सोच कर दुखी हो गया। अकेली कैसे संभाल पाएगी दोनों बच्चों को। कुछ लोगों ने रामेसर से शादी कर लेने की सलाह दी। बिना मरद के घर भला कैसे चल पाएगा। लेकिन वह कड़क हो गई, "भाग मे पति का सुख होता तो परमेसर आज जिन्दा होता। दोनों भाइयों की आदतें तो एक ही है। दारु पीने से जब परमेसर चल बसा तो इस रामेसरा का क्या भरोसा। वैसे भी, अभी तो परमेसर के गए साल भर भी नहीं हुआ, इतनी जल्दी दूसरी शादी सोंच नही सकती। एक-दो साल बाद देखा जाएगा अगर जरूरी हुआ तो रामेसर से शादी कर लेगी।" उसने टालने के गरज से कह कर सभी को चुप करा दिया था लेकिन उसका जरा भी मन नहीं था कि वह रामेसरा से शादी करे। जुआ खेलने से ले कर दारु पीने तक सारी बुरी आदतें उसमें भरी पड़ी थी।

      

खाने के बाद उसने अदहन का पानी देगची में रख कर थाली से ढक कर चूल्हे पर चढ़ा दिया था। स्कूल से लौट कर लकड़ी जला कर दुर्गा भात बना ही लेगी। सोंच कर बेटी पर उसे दया आ गई। इतनी छोटी तो है लेकिन कितना कुछ सम्हाल लेती है। इस नाजुक सी उम्र में सुबह उठकर लीपना-पोतना, पानी भरना तथा घर के अन्य छोटे-मोटे काम जैसे भाई को सम्हालना, तैयार करना आदि काम करने के बाद ही वह तैयार हो कर स्कूल जाती है और लौट कर फिर खाना पकाती है। पर इन दिनों कुछ सहमी-सी नजर आती है, कुछ घबरायी सी। कुछ बोलो तो एकदम से चौंक जाती है। हमेशा बकबक करने वाली दुर्गा शांत हो गयी है। न जाने क्यों, उससे थोडी देर भी अलग रहना नहीं चाहती। कल स्कूल से बस्ता लिए सीधे खेत में ही पहुँच गई थी। 


"क्यों री दुर्गा... सुबह नौ बजे जलपान किए हुए तुझे अभी तक भूख नहीं लगी जो स्कूल से सीधा खेत चली आई है, खाना खा कर ट्यूशन भी तो जाना होता है। अभी इधर आ गई तो ट्यूशन कब जाएगी। जाती है कि नहीं... जा जल्दी जा" उसने कितना डाँटा, समझाया, मिन्नतें भी की पर दुर्गा भाई को गोद लिए मुँह झुकाए वही खड़ी रही। अंत में उसके साथ ही घर लौटी। फगुनिया को अपने किशोरावस्था के दिन याद आ गए। उम्र के परिवर्तन के साथ ऐसा ही होता है। शरीर मे इतने बदलाव आते हैं तो मन पर भी इसका प्रभाव पड़ता ही है। कुछ दिनों में सब सामान्य हो जाएगा। गणेश को पीठ पर बाँध बांस का छाता उठा कर थोड़े चबेने गमछे में बाँध कर गमछे को कमर में लपेट वह रोपनी के लिए खेतों की ओर चल दी।

               

थोड़ी दूर पर तेतरी का घर था। उसने तेतरी को आवाज़ लगाई। तेतरी और फगुनिया दोनों पक्की सहेलियाँ हैं। दोनों में खूब बनती है। दोनो के बीच बात-विचार चलते रहते हैं। दोनों अपने-अपने नाम को ले कर कहानियाँ बनाती हैं और खूब हँसती हैं। इस गाँव में ऐसा ही होता है। लोग पढ़े-लिखे तो हैं नहीं जिसके कारण अच्छे अर्थ वाले नाम उन्हें समझ में ही नहीं आते। या तो बरसों से चले आ रहे भगवान के नाम पर बच्चों के नाम रख देते हैं या फिर उनके जन्मदिन याद रखने के लिए महीने, सप्ताह, तिथि या यादगार लम्हों के नाम पर बच्चों के नाम रख दिया करते हैं। जैसे चैतुआ, मंगरा, बुधनी, जतरा और न जाने क्या-क्या। फगुनिया का नाम भी तो फागुन के नाम पर पड़ा है। नाम फगुनिया, इसके बावजूद उसकी जिंदगी में कोई रंग न था। हालाँकि वह जहाँ जाती अपने हँसमुख स्वभाव के कारण माहौल को रंगीन बना ही देती थी। तेतरी बताती है कि उसके बाड़ी के पके तेतर तोड़ने का काम चल रहा था, उसी समय उसका जन्म हुआ तो बाबा ने उसका नाम तेतरी ही रख दिया। अब नाम के कारण घर वालों को इतना तो याद रहता ही है कि उसका जन्म चैत महीने में हुआ था क्योंकि चैत महीने में ही तेतर पकते हैं। 





"पर मुझे तो यह फगुनिया, तेतरी जैसे नाम बिल्कुल पसंद नहीं, इससे अच्छा तो ईश्वर के नाम ही रख दो। कम से कम नाम के अनुरूप कुछ तो खूबियाँ उन में आएँगी और जीवन मे कुछ अच्छा कर पाएंगे।" फगुनिया कहती।

    

"तो नाम का असर मिजाज पर भी पडता है क्या?" तेतरी पूछती..।

  

"हाँ,  जरूर पड़ता है। अब मेरा ही नाम देख लो, फगुनिया है तो हर जगह हंसी-खुशी का माहौल बना ही देती हूँ। माना कि ऊपर वाले ने दुःख ही दुःख दिए लेकिन फिर भी नाम के अनुरूप सुभाव तो है ही। जहाँ भी जाती हूँ रंग ही बिखेरती हूँ" फगुनिया बोलती।

          

"वह तो संजोग से तू अपने नाम के अनुरूप है लेकिन क्या सभी लोग अपने नाम के अनुरूप होते हैं ?" तेतरी कहती।

          

"हां थोड़ा बहुत तो असर पड़ता ही है। अब अपने नाम को ही ले लो। तेतरी नाम है तो तेतर की तरह खट्टी-मीठी तो है ही तू। तभी तो सब को इतना भाती है" यह कहते हुए फगुनिया और तेतरी दोनो खूब ठहाका लगाती...।

           

हमेशा की तरह आज भी दोनों हँसती-बतियाती रोपनी के काम में लग गईं थीं। झिमिर-झिमिर बारिश के बीच तेतरी ने गीत गाना शुरू किया, "इस बार फसल डेवढ़ा दोगुना करना भगवनऽऽऽऽ"। फगुनिया के संग-संग अन्य साथिने भी उसका साथ देती हैं। उनका यह गीत लोरी का काम करता है और गणेश रोपनी करती माँ की पीठ पर बड़े आराम से सो जाता है। फगुनिया का ध्यान एक बार फिर दुर्गा की ओर चला जाता है। इस उम्र में आ कर कितनी प्यारी लगने लगी है, रंग भी निखर आया है, शरीर भी थोड़ा भर गया है और उम्र की नजाकत भी है।


"छि: छि:, थू थू' कहीं माँ की ही नजर ना लग जाए।" उसने मन ही मन में कहा। लेकिन किसी की नजर तो लगी ही है। इतनी तेज-तर्रार चंचल रहने वाली अचानक इतनी चुप-चुप सी क्यों रहने लगी है। आज तो स्कूल से सीधा घर ही जाएगी क्योंकि कल उसे इतनी डाँट जो पड़ी है। वैसे डाँटा तो कल भी था लेकिन उस डाँट का असर कहाँ पड़ा था उस पर। पर आज तो कसम भी दिलाई है। इसलिए खेत पर आने का तो सवाल ही नहीं उठता। एक तरफ रटे-रटाए गीत गा कर वह तेतरी का साथ दे रही थी तो दूसरी ओर दुर्गा का खयाल कर वह परेशान भी थी। आखिर वह अकेली रहना क्यों नहीं चाहती। अपने घर में भला किस बात का डर। तीन-चार बरस पहले ही सभी के काम में निकल जाने के बाद वह घर मे अकेली रह लेती थी लेकिन अब क्यों सहम जाती है। अब तो वह पहले से बड़ी है। दो दिन पहले ही जब बालों में तेल लगा कर चोटी बनाते हुए उसे खोद-खोद कर पूछा था उसने, "काहे इतना शांत हो गई है रे... पहले तो ऐसी न थी...क्या हुआ है तुम्हें? कुछ बात है तो बता" उसने कहा था, "माँ...."और उसकी आवाज भर्रा गई थी। इतने में रामेसरा कमरे से निकल आया था और चुप हो गई थी वह। 




    

किशोर उम्र की बातें, सबके सामने थोड़े ही कही जा सकती है। उस पर हम गाँव वाले इतने आधुनिक तो कभी नहीं बन पाएंगे। मर्द और औरत की बातों के बीच एक सीमा-रेखा तो खिंची होती ही है। फगुनिया ने सोंचा।

       

उसके बाद फिर इस विषय पर बात करने का समय ही नहीं मिला। फगुनिया सोचने लगी, कहीं वह कुछ कहना तो नहीं चाहती थी जो रामेसरा को देखकर चुपचाप हो गई थी।

             

उसे याद आया तीन-चार दिन पहले जब उसके स्कूल की छुट्टी थी तो दुर्गा ने उससे लिपट कर उसे काम पर जाने से रोका था, "आज काम पर मत जाओ... मेरे ही साथ रहो माँ"।

         

"ऐसे कैसे चलेगा बिटिया... हम रोज कमाने खाने वाले लोग हैं। कोई पुश्तैनी जमीन जायदाद तो धरी नहीं है जिसमे आराम से फसल उगाही करें और बैठ कर खाएँ।" ऐसा कह कर वह निकली तो उसके साथ ही साथ दुर्गा भी घर से निकल गई थी और जब तक वह खेतों में रही दुर्गा भी पूरे दिन अपनी सखी केतकी के घर बैठी रही।

             

गणेश नींद से उठ कर रोने लगा था, उसे भूख लग गई थी शायद। उसने स्रोत वाले पानी से हाथ-पांव  धोए। गमछे से पोछ कर मेड़ पर बैठ उसे दूध पिलाने लगी। गमछे की पोटली खोल कर चबेना खाते हुए सामने नजर पड़ी तो खेत से लगे चहारदीवारी के पीछे मूनगे के पेड़ की ताजा कोमल पत्तियों को देख कर उसका मन ललचा गया। दुर्गा को बहुत पसंद है मुनगे का साग। थोड़े तोड़ कर दे आऊं तो भात के साथ आज साग भी खा लेगी। बारिश थम चुकी थी। उसने मेड़ पर गमछा बिछा कर गणेश को सुलाया तथा बांस के छाते से ढक दिया। तेतरी को उसका ध्यान रखने को कह कर फटाफट मुनगे का साग तोड़ साड़ी के आंचल में रख कमर में खोंस लिया। दोपहर के भोजन के लिए ठाकुर साहब घर जा चुके थे और रोपनियों को भी थोड़ी देर की फुर्सत थी। इसी समय वे अपना चना, चबेना, सत्तू खाती। फगुनिया इसी मौके की ताक में थी उसने फौरन बेटे को पीठ पर बांधा और अपने घर की ओर चली। घर क्या था, खपरैल झोपड़ी थी जहाँ घुसते ही पहले लंबा बरामदा था जिसमें एक किनारे रसोई का काम होता था तो दूसरे किनारे पर एक चारपाई लगी रहती थी। बरामदे में दो दरवाजे थे जिससे हो कर दो कमरे अंदर को थे। एक रामेसर के हिस्से था तो दूसरा परमेसर के हिस्से। झोपड़ी के बाहर थोड़ी जगह बची थी जिसे बांस से घेर दिया गया था। उसमे वह कुछ सब्जियाँ आदि उगा लिया करती थी। जमीन के उस छोटे से टुकड़े पर दोनों भाइयों का हिस्सा था इसलिए वह चाह कर भी रामेसर को घर से निकलने को नहीं कह पाती थी। वैसे भी वह ज्यादातर बाहर ही रहता था। पर इधर कुछ दिनों से वह गौर कर रही थी कि जब कभी दोपहर को किसी काम से वह घर आती तो रामेसर घर में मौजूद रहता। उसका ध्यान फिर दुर्गा की ओर चला गया। दुर्गा अब तक स्कूल से आ चुकी होगी शायद। उसने लम्बे डग भरना शुरू किया और दो मिनट मे ही घर पहुँच गई। 

       

"अरी दुर्गा, कहाँ  है री.... देख तेरे लिए मैं क्या ले कर आई हूँ " चिल्लाते हुए उसने बरामदे मे कदम रखा तो वहाँ के दृश्य देख उसके होश उड़ गए। दुर्गा काफी अस्त-व्यस्त हालत मे थी। उसके कपड़े जहाँ-तहाँ से फटे थे जिससे उसका कैशोर्य झाँकता नजर आ रहा था। गुस्से से बुरी तरह काँप रही थी वह। उसके होठ थरथरा रहे थे और हाथ मे लुआठी लिए उसकी आँखें क्रोध से खा जाने को तैयार थी। दुर्गा का यह रूप देख फगुनिया चक्कर खाते रह गई। 

        

दुर्गा इस समय साक्षात माँ दुर्गा ही लग रही थी।

                

फगुनिया ने बरामदे के दूसरी ओर नजर डाली। रामेसर जमीन पर अचेत पड़ा था। उसने हाथ लगाया तो देखा उसका पूरा शरीर ठंडा पड़ चुका था।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क :


शालिनी खन्ना 

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