जयनंदन की कहानी 'कवच'

जयनंदन

किसी भी कथाकार के लिए जो सब से जरुरी होता है वह है - चीजों, या घटनाओं को सूक्ष्म रूप से निरीक्षित पाने की उसकी दृष्टि। इस दृष्टि के मार्फ़त ही वह उस कहानी की बुनावट करता है जो उसके समय और सरोकार से सम्बन्ध स्थापित कर सके। इन दृष्टि से देखा जाए तो कथाकार जयनंदन न केवल इन प्रतिमानों पर खरे उतरते हैं बल्कि वे पाठकों को अपनी कहानी पढ़ा ले जाने का हुनर भी जानते हैं। 'कवच' इसी तरह की कहानी है। इस कहानी में स्थानीय शब्दों और गालियों के साथ-साथ बोली का भी जयनंदन ने बेहिचक उपयोग किया है लेकिन यह कहीं पर भी कहानी को अवरोधित नहीं करता बल्कि उसके जरुरी हिस्से के तौर पर सामने आता है। तो आज पहली बार पर प्रस्तुत है जयनंदन की कहानी 'कवच'


कवच

जयनंदन


हनकी बूढ़ी जब सोती थी तो पूरा गांव सो जाता था। कोसनेधिक्कारने और गरियाने का कार्यक्रम उसके मुखारविन्द से अहर्निश चलने लगा था। उसके जेठ का जुल्मी और अत्याचारी बेटा दीन दयाल उसके निशाने पर आ गया था।


जमीन-जायदाद का पूरा हिस्सा दीन दयाल अकेले डकार सके, इसके लिए चार चाचाओं वाले परिवार को उसने बारी-बारी से ठिकाने लगा दिया था। उसकी तीसरे नंबर की चाची कही जाने वाली एक हनकी बूढ़ी ही रह गयी, जिसे वह बहुत जतन करने के बाद भी मिटा नहीं सका। वह कायम रह गयी अपने दो विशालकाय पहलवान बेटों के साथ। तब दीन दयाल ने बेईमानी का एक नया पहाड़ा गढ़ लिया और उसे हिस्सा के नाम पर टांड़-टिकुल की अढ़ाई बीघा जमीन और घर के नाम पर जानवरों वाला चार कोठरी का गोहाल घर दे दिया। वह ग्राम सेवक के पद पर सरकारी नौकर था। लेकिन कर्म से वह ग्राम सेवक कम और ग्राम विध्वसंक ज्यादा था। अलां-फलां की जमीन कैसे नुक्स निकाल कर कब्जाया जाये, इसी फिराक में रहा करता था और बुरी तरह बदनाम था।


हनकी और उसके बेटे जतिन दयाल और विपिन दयाल पांडव की तरह महाभारत में कूद पड़े, लेकिन उसके साथ न कोई कृष्ण था, न कोई घटोत्कच। दीन दयाल ने लोभ, लाभ, पद के प्रभाव और प्रपंच के सहारे अपने पूरे जातीय टोले को अपने पक्ष में कर लिया था। फौजदारी होती तो एक तरफ दो भाई और सामने दर्जनों अंध समर्थक, लाठी, बल्लम, फरसा, गड़ासा और सैप ले कर कौरव दल की तरह मोर्चा संभाल लेते। दोनों भाई बलिष्ठ थे, कुछ देर टिकते और अंततः घायल हो कर मैदान से बाहर हो जाते।


बेटों द्वारा बहादुरी से मुकाबला करते हुए घायल हो जाने के बाद हनकी बूढ़ी कमर कस कर मैदान में उतर जाती और दीन दयाल को कोसने, धिक्कारने और गंदी गंदी गालियां देने की जुबानी जंग शुरू कर देती। हर कोई उसकी धारा प्रवाह गाली बौछार सिफत से वाकिफ था, इसलिए किसी की हिम्मत नहीं होती उसके सामने ठहरने की। उसकी गियारी में गजब की खनक थी। हांक लगाती सी उसकी आवाज गांव में बहुत दूर तक गूंज जाती थी। पूरी निडरता से वह दीन दयाल के घर की ओर मुंह करके ललकारती हुई गालियों के परनाले बहा देती थी - ‘‘तू निरवंश हो जैम्ही (जाओगे) रे दिनदयलवा.... तोर देहिया में कोढ़ फुट जैतौ (जायेगा) रे बइमनमा..... तोरा हम सकरी नदी में गड़ लैवौ (लायेंगे) रे भंगलाहा, चोट्टा, ठूंट्ठा, बढ़नझट्टा, मुंहझौंसा, पिलुआहा, मोंछकबरा, गुहखौना, बेटी-बेचना, बहिन-सुतना, माईचो..... हमर हिस्सवा-बखरवा मार के तू फलम्ही (फलोगे) नंय रे सुअरमुंहा।’’


अपने को बब्बर शेर समझने वाला दीन दयाल उसका रिकार्ड शुरू होते ही पूंछ सटका कर अपनी मांद में समा जाता। देर रात तक उसका सरापना जारी रहता। जब तक वह जारी रहती, आस-पड़ोस जगा रहता। गाली बकते-बकते वह सो जाती और सुनते-सुनते गांव सो जाता।


बहुत सुबह ब्रह्म मुहूर्त में जाग कर वह फिर शुरू हो जाती। उसकी गाली एक साथ लोरी भी बन गयी थी और परतकाली भी। उसकी गाली सुन कर ही पूरा गांव जाग जाता था।


देखने में लगता था कि एक नंबर की गरिहन (गाली देने में माहिर) हनकी बूढ़ी बहुत बुरी और घटिया औरत है। गांव में कम ही लोग थे जो उसे एक अच्छी औरत मानते थे। लेकिन सच्चाई यह थी कि यह उसका अस्त्र था लड़ने का, प्रतिरोध का। वह हार कर भी हार मानने से इंकार करती थी। गाली दे कर अपना भड़ास निकाल लेना उसकी जिजीविषा का एक पहलू था, खुद को बचाये रखने का एक कवच था। उसका असली नाम हनुमंती देवी था। लेकिन उसके हिनहिना कर गरियाने की वजह से लोग उसे हनकी बूढ़ी कहने लगे थे।


जमीन बंटवारे में दीन दयाल द्वारा की गयी धांधली की वजह से हनकी परिवार का गुजारा बहुत मुश्किलों में फंस गया। एक तो जमीन कम दी और जो दी भी वो अर्द्ध उपजाऊ। हनकी ने उपाय निकाला गोबर ठोक कर गोइठा बनाने का और बेटों ने दूसरे की जमीन लेकर बंटाईदार बनने का। जो दयाल परिवार गांव के पूर्व जमींदार कादिर बख्श के बाद गांव का दूसरा सबसे मातवर परिवार माना जाता था, उसी के एक पटीदार को बंटवारे के दंश ने गर्दिश में ढकेल दिया था और दो जून की खर्ची चलाने के लाले पड़ गये थे। जो हनुमंती देवी राजरानी की तरह रह कर चौआ पर चलती थी, उसे भर दिन जानवरों के पीछे घूम-घूम कर गोबर चुनना और फिर उसे ठोकना पड़ रहा था। जो हाथ मक्खन, मलाई और घी में सने रहते थे, उन्हें अब गोबर गांजना पड़ रहा था।


अपने घर के आगे ही वह गोइठौर बनाने लगी थी। गोइठों का एक गोलाकार पिंड बन जाता था, उसके ऊपर वह गोइठा ठोकती जाती थी, पिंड की परिधि बढ़ती चली जाती थी। उन दिनों गैस चूल्हे की पहुंच शहरों तक ही सीमित थी, वह भी गिने-चुने घरों में। गांव में गृहिणियों को लकड़ी, गोइठा या फिर कोयला के चूल्हे से खाना बनाना पड़ता था। जलावन के लिए विशेष प्रबंध और तैयारी की जरूरत होती थी। खाते-पीते लोगों का एक कमरा जलावन कमरा हुआ करता था। इसमें वे लकड़ी, कोयला या गोइठा आदि संजो कर रखते थे। गरीब-गुरबा लोगों की औरतों को जलावन के इंतजाम करने में काफी समय देना पड़ता था। वे हर रोज अपने मवेशियों के गोबर का गोइठा पाथ देती थीं। खेतों से केतारी के पतौड़े ला कर रखती थीं। बरसात में उन्हें कोयला या फिर जलावन भित्तर में संजोये गोइठा का सहारा लेना पड़ता था।


हनकी चूंकि घर के जानवर के अलावा गांव भर के जानवरों के सामूहिक बथान या फिर उनके चरने की जगह चारागाह से घूम-घूम कर गोबर इकट्ठा करती थी, इसीलिए उसका एक उपनाम गोबर-चुननी भी पड़ गया था। उसके हर रोज की दिनचर्या हो गयी गोइठा ठोकने और बेचने की। गोइठा वह ठोकती जाती और अपने साथ हुई बेईमानी को याद कर करके दीन दयाल के नाम छिया-छिया गालियों का रेला बहाती रहती। जिस तेजी से उसके हाथ चलते थे, उसी तेजी से मुंह से गालियां भी निकलती थीं।


उसके गोइठों की स्थायी खरिदारिन गांव के कलालों की औरतें थीं। इन सारी कलालिनों के शौहर बंगाल और उडी़सा के शहरों में रह कर नकदी कमाई करते थे। कलाली में दारू बेचने से लेकर कपड़ा, फल, मुर्गा-अंडा कुल्फी, पाव-रोटी आदि बेचने के रोजगार से जुड़कर। कलालिनें या तो खुद आ कर खचिये में गोइठा भर कर ले जाती थीं या फिर हनकी बूढ़ी गंडा के हिसाब से गिन कर उनके घर पहुंचा देती थीं। हनकी के स्वभाव से कलालिनें परिचित थीं, इसलिए मजाल नहीं कि कोई उसके मुंह लग जाये। दिनमा की ज्यादती के बाद वह इतनी कटखनी हो गयी थी कि किसी से भी उसे भिड़ जाने में गुरेज नहीं रह गया था।


उसके बलिष्ठ बेटे गांव के कम जोत वाले छोटे किसानों की तरह दूसरों के खेत बंटाई पर लेने की जुगत में लग गये। जिन्हें मालिक की तरह रहने की आदत थी, उन्हें अब बनिहार की तरह रहने की आदत डालनी थी। गांव में ऐसा एक ही आदमी था पूर्व जमींदार कादिर बख्श, जो अपने सैकड़ों बीघे खेत बंटाई पर लगा दिया करता था। उनके खेत बंटाई पर लेने की आपाधापी मची रहती थी। उनका बड़ा ही रहम दिल उसूल था - वे अपने बंटाईदारों को खाद-मसाला के साथ ही जुताई के लिए अपना ट्रैक्टर भी उपलब्ध करवा देते थे। जमीन-जोत निगरानी करने और बांट-बखरा लाने के लिए उन्होंने चार-चार बराहिल बहाल कर रखे थे। बराहिल जिस किसान की सिफारिश कर देते, कादिर उसे बंटाई के लिए खेत दे देते। बराहिल से सिफारिश के एवज में उसे चढ़ावा चढ़ाना पड़ता। इस चढ़ावे के एवज में उसे फसल के बांटने में कुछ हेरा-फेरी करने की छूट मिल जाती।


हनकी के कड़ियल रुख और उसके पहलवान बेटों का डील-डौल देख कर कोई बराहिल उसकी सिफारिश के लिए इच्छुक नहीं था। रवैया देख कर हनकी बूढ़ी ने तय किया कि वह खुद ही जा कर कादिर साहब से मिलेगी।


कादिर साहब अपने इस्टेट के सायबान पर बिछे लंबे-चौड़े गद्देदार दीवान के गाव तकिये से टिके होते और सामने कुछ गरीब-गुरबा तथा अराहिल-बराहिल किस्म के लोग अपनी अपनी फरियाद लेकर खड़े होते। गांव में घटित किसी भी तरह के झगड़ा-टंटा के समाधान का वे एक अघोषित हाकिम थे। अपने खिलाफ होने वाले फैसले को भी मानने से कोई इंकार नहीं करता था। कहीं न कहीं गांव का हर कोई उनके एहसान के बोझ से लदा था और सबको इस बात का इल्म था कि भविष्य में कभी भी उनके इमदाद की जरूरत पड़ सकती है। वे दरअसल थे भी ऐसे कि किसी के प्रति भी मन में कोई खोट या मैल नहीं रखते थे। यही कारण है कि गांव-जवार में वे एक मातवर आला इंसान की नजर से देखे जाते थे।



हनकी बूढ़ी जब अकस्मात वहां पहुंची तो सबकी आँखें फटी रह गयीं और कान खड़े हो गये। परिवार जब संयुक्त था तो हनकी बूढ़ी के कहीं भी आने-जाने में एक रौब और नफासत का इजहार टपकता रहता। वह खुद भी जन-मजूरों का दुखड़ा सुनती और उनके साथ न्याय करती। आज उसे खुद एक फरियादी बन कर आना पड़ा था। अब उसका खिला हुआ चेहरा एक सताये हुए आम आदमी का चेहरा हो गया था। उसे गोबर चुनते हुए या फिर गाली-गलौज के अजस्र झरने को बहाते हुए प्रायः हर आदमी देख और सुन रहा था। कादिर साहब तक भी आवाज आती रहती थी। उन्हें जब दीन दयाल के कारनामे और नाइंसाफी की जानकारी हुई तो हनकी का गाली की शक्ल में चीखना, चिल्लाना और गुहार लगाना बेजा प्रतीत नहीं हुआ। इस मामले में वे हनकी के लिए कुछ भी करने से लाचार थे। चूंकि दीन दयाल खुद को उनकी बराबरी का समझता था। उनकी जमींदारी चले जाने का मखौल उड़ाया करता था और किसी के मामले में हस्तक्षेप को जमींदारी का हैंगओवर कहा करता था।


हनकी पर नजर पड़ते ही कादिर साहब की आँखें चमक उठीं और वे बोल पड़े, ‘‘अरे आप! कहिए, कैसे आना हुआ? अरे इनके बैठने के लिए कुर्सी लाओ।’’


‘‘नंय नंय कादिर साहब, रहे देहो (रहने दीजिए)। अब हम कुर्सी पर बैठे लायक नंय रहलियो हे (नहीं रह गये हैं)। हमरा तोहर पांच बीघा खेत बंटाई पर चाही (हमें आपका पांच बीघा खेत बंटाई पर चाहिए)। तोहर कोई भी बराहिल हमरा साथ देवे ले तैयार नंय हो। (आपका कोई भी बराहिल हमारा साथ देने के लिए तैयार नहीं है)।’’


सुनकर कादिर मियां कुछ देर फक्क रह गये..... अपनी सगी चाची और चचेरे भाइयों की ये हालत बना दी दीन दयाल ने! उन्होंने सामने खड़े अपने बराहिलों को कड़ी नजर से घूरा और हनकी बूढ़ी से आवाज में मिठास ला कर कहा, ‘‘ठीक है, आप जाइए। अपने बेटों को भेज दीजिएगा। जो खेत खाली  होंगे, उन्हें मिल जायेंगे।’’


खेत मिल गये। दोनों भाइयों ने कड़ी मेहनत शुरू कर दी। अब तक वे सुकुमार और आरामतलब जीवन के अभ्यस्त रहे थे। खेतों से जब पसीना से सराबोर हो थके-मांदे लौटते तो उनकी दशा देख कर हनकी बूढ़ी की टीस हरी हो जाती। वह अपने को रोक नहीं पाती और दीन दयाल के नाम गालियों का रेला बहना शुरू हो जाता, ‘‘नरक भोगमी रे दिनमा.... पिल्लू पड़तऊ तोर देह में..... (नर्क भोगोगे रे दिनमा, तुम्हारी देह में कीड़े पड़ेंगे)।’’


बेटों ने महसूस किया कि मां की आवाज का जोर थोड़ा मंद होने लगा है और आवाज वांछित जगह तक शायद ठीक से पहुंच नहीं रही है। ऐसा महसूस कर दोनों ने एक उपाय निकाला। पास ही एक बरगद का पेड़ था। आठ-नौ फीट की ऊंचाई पर चार डालियां चार दिशाओं में फैल गयी थीं। डालियों के मिलन स्थल पर काठ का एक चौड़ा पटरा डाल कर उसने एक मचान की शक्ल दे दिया और उस पर चढ़ने के लिए नीचे से एक सीढ़ी लगा दी।


हनकी बूढ़ी को जब-जब जुल्म की यादें कचोटने लगतीं तो आराम से उस मचान पर चढ़कर दीन दयाल को फकड़ाने (बेछूट गाली देने) की क्रिया संपन्न कर देती। कभी कभी इस काम के लिए रात हो जाने पर भी वह अपने को रोक नहीं पाती। गांव में सबने सन्न हो कर इस तरकीब को देखा और महसूस किया कि बदले और विरोध का यह अस्त्र सिर्फ उसे ही नहीं उसके बेटों को भी संतोष का एहसास दे रहा है।


कादिर बख्श को जब जानकारी मिली कि हनकी बूढ़ी अब गाछ पर चढ़ कर दीन दयाल को जहन्नुम भेजने का अभियान चला रही है तो भीतर से वे खुश हुए और एक बराहिल से ऑफर भिजवा दिया कि अगर उसे और ऊंचाई चाहिए तो गांव के बीचोबीच स्थित उनकी हवेली के तीन मंजिले कोठे का इस्तेमाल कर ले। हनकी बूढ़ी ने उनका शुक्रिया अदा करते हुए कहवा भेजा कि वह बूढ़ी जरूर हो गयी है, लेकिन उसकी आवाज में अभी भी इतना दम है कि आठ-दस फीट की ऊंचाई से दिनमा के कान और दिमाग में जहर उढ़ेल सके। ज्यादा ऊंचाई की जरूरत होगी तो वह जरूर उनसे इजाजत ले कर उनके कोठे का इस्तेमाल कर लेगी।


गोबर के गोइठौर और बंटाई की खेती से रोजी-रोटी का जुगाड़ ठीक-ठाक चलने लगा तो हनकी ने सोचा कि अब दोनों बबुओं का ब्याह करके मदद के लिए बहुएं ले आयी जायें। उसके ऐलान करते ही आस-पास के गांव से बरतुहार आने लगे। उसने शर्त तय किया कि लड़की चाहे पढ़ी-लिखी न हो, लेकिन उसे खूब बोलना और निडर बन कर गाली-वाली देना आना चाहिए। लड़की वालों से सीधे सीधे वह यह शर्त रख देती और पूछ लेती कि अगर इस तरह की आपकी बेटी है तो बात आगे बढ़ायी जाये। यह शर्त सुनते ही लोग खिसक लेते, यह मान कर कि बुढ़िया के दिमाग का पेंच ढीला हो गया है। भला ऐसे लक्षण की कोई लड़की चाहता है? कहा यह जाता है कि लड़की सुशील हो, सुंदर हो, कम बोले और मीठा बोले। यह उल्टा ही कह रही है।


काफी दिनों बाद दो अक्खड़ बरतुहार, एक बिन मां-बाप की लड़की के फूफा और दूसरा मौसा, ऐसे मिले जिन्होंने उसकी शर्त के अनुकूल अपनी बेटी को बताया। एक ने कहा, ‘‘मोहल्ले में शायद ही कोई ऐसा घर बचा हो, जिससे उसकी बेटी का झगड़ा न हुआ हो। गाली देने में वह पारंगत है और कभी-कभी वह अपने घर के लोगों को भी नहीं बख्शती है।’’ हनकी बूढ़ी खुश हो गयी कि बस बस हमको ऐसी ही पतोहू की तलाश है। चलिए, हम उसे देख-दाख के बतिया लें और जरा थाह लें कि उसे वाकई कितनी गालियां आती हैं।


दूसरे बरतुहार ने कहा, ’’मेरी बेटी गांव भर में झगड़ालू और लड़ाकिन लड़की के नाम से प्रसिद्ध है। कई लोग तो उस पर डायन होने का आरोप लगाते हैं और मारपीट करने पर उतारू हो जाते हैं। लेकिन मेरी बेटी किसी को भी सामने टिकने नहीं देती है। उसकी इसी फितरत के कारण अब तक उसे किसी ने पसंद नहीं किया।’’


हनकी ने कहा, ‘‘वाह, ई तो और भी सोने पर सोहागा हो गेलै (गया)। अव्वल तो डायन-वायन हम नंय मानो हियै (नहीं मानते हैं), लेकिन अगर लोग मानो है तो हमरा कौनो ऐतराज नंय है। ये ही बहाने लोग डर के और दुबक के रहतै (रहेंगे)। गांव के कुछ लोग तो हमरो भी डायन कहो है। चलो ठीक है, तोहर बेटी के भी हम चल के देख लेहियो (लेते हैं)।’’



इन्हीं दोनों लड़कियों से हनकी ने अपने बेटों को ब्याह दिया। उनके आते ही बता दिया, ‘‘हमर एके गो दुश्मन है गांव में। ऊ हमर अपने ही जेठ के बेटा दिन दयलवा है। ओकर नाम दिन दयाल नंय अगिया बैताल होवे के चाहो हलै। ऊ दोगलाहा हमर जिनगी के नरक बना देलकई। बंटवारा में हमरा साथ दगाबाजी कर के भीख जैसन उसर जमीन के चार-पांच टुकड़ा पकड़ा देलकई और हमनी सब के रातोरात मालामाल से कंगाल बना देलकई। हम ठान लेलिए हे कि जिनगी भर ओकरा सरापना और ओकर नाम से लानत-मलामत भेजना है। कभी न कभी तो हमर आह ओकरा जरूरे लगतई, ई हमरा बिस्वास है। अभी तलक हमरा अकेले ई काम करे पड़ रहले हल। अब तूं दुन्हूं के आ जाये के बाद तीनों मिल के ई काम करवै। ओकरा बता देना है कि गरियावे और सरापे में भी ताकत होवो हई।’’


बड़की और छोटकी दोनों बहुओें ने खुशी-खुशी हुंकारी भर दी। अपने चेहरे के भाव से दोनों ने स्पष्ट कर दिया कि गाली-गलौज करना उसका मन पसंद काम है, जिसे वह इस तरह करेगी कि सास को कोई शिकायत नहीं होगी।


अगले दिन मचान पर बड़की बहू को चढ़ाया गया। गांव वालों से उसका परिचय या मुंह देखाई उसके एक सड़ी हुई गाली देने से आरंभ हुआ। उसका पहला वाक्य था, ‘‘रे दिन दयलवा, तोर हगे के रस्तावा में पिल्लू पड़ जैतौ रे (तुम्हारे मलद्वार में कीड़े पड़ जायेंगे)। हमनी के बखरा में डंडी मारके तू भोग नंय सकमी (हमलोगों के हिस्सा में डंडी मार कर तुम भोग नहीं सकोगे) । हैजा हो जइतौ तोर समूचे बाल-बच्चा के और कुल्हे बइमानी वाला धन चल जइतौ डागदर के पेट में......... (हैजा हो जायेगा तुम्हारे बाल-बच्चों को और बेईमानी का पूरा धन डॉक्टर के पेट में चला जायेगा)।’’


नयी आवाज सुन कर दीन दयाल तक घर से निकल आया और टकटकी लगा कर मचान की तरफ देखने लगा, जैसे अपने लिए गलीज गाली नहीं आशीर्वचन सुनने निकल पड़ा हो। लड़की का चेहरा तो सुंदर था, लेकिन उससे जो बोल निकल रहे थे, वे उसे बेचैन बना गये। नयी नयी आयी एक कम उम्र लड़की से इस तरह के बेसउर बोल सुनकर जैसे वह धधक सा पड़ा। लेकिन मन मसोस कर रह जाने के सिवा भला वह कर ही क्या सकता था। गाछ के नीचे सवा छह फीट लंबे हट्ठे-कट्ठे दोनों पहलवान बेटे अंगारे बरसाते नेत्र लिए खड़े थे। पांच-छह को तो दोनों अकेले ही देख लेने की कूबत रखते थे।


पंचफुटिया तोंदियल दीन दयाल ताकत के मामले में उनके पासंग बराबर भी नहीं ठहर सकता था। ऊपर से नाजायज करने का जो एक बोध होता है, वह भी उसे कमजोर बना देता था। हनकी बूढ़ी जब उसे फकड़ाती (गंदी गाली से गरियाती) थी, तब उसे ज्यादा बुरा इसलिए नहीं लगता था कि वह उम्र में काफी बड़ी थी और चाची लगती थी। लेकिन यह लड़की तो उसकी कोई नहीं लगती, जो सीधे आ कर उसे घिनाने लग गयी है।


बड़की के शानदार आगाज से हनकी और उसके बेटे बहुत खुश हुए। वाह! चुनाव बिल्कुल फिट है। यह लड़की माई की पक्का उत्तराधिकारी साबित होगी।


अगले दिन छोटकी को मचान पर दाखिल कराया गया। पास पड़ोस वालों की नजर टिक गयी मचान की तरफ। अब बारी छोटकी का जलवा देखने की थी। छोटकी ने बड़की से भी बढ़-चढ़ कर खुद को पेश करने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘अरे छौड़ापुत्ता दिन दयलवा, मरम्हीं तौ तोरा कफन तक नंय मिलतौ रे बइमनमा (मरोगे तो तुमको कफन तक नसीब नहीं होगा रे बेईमान)। हमनी ऐसे खाली गरिया के तोरा नंय छोड़े वाला हियौ (हम लोग सिर्फ गाली देकर तुम्हें छोड़ने वाले नहीं हैं)। आ गेलियो हे कमर कसके..... तोर छतिया पर चढ़ के लेवौ हिसवा। कौन बाप-बहनोई तोरा साथ देतौ, ओकरो हमन्हीं देख लेवै....... (आ गये हैं कमर कसके....तुम्हारी छाती पर चढ़के लेंगे हिस्सा। तुम्हारा कौन बाप-बहनोई साथ देगा, उसे भी हम लोग देख लेंगे)।’’


ताल ठोकते हुए छोटकी ने ललकारा तो दीन दयाल ने फिर अपने घर से निकल कर उसकी शक्ल देख ली। दे तो रही है गाली, लेकिन आवाज इतनी मीठी और महीन है कि लगता है जैसे गाना गा रही हो। कुढ़न तो इतनी हुई कि जाके नरेटी दबा दे। लेकिन जतिन-विपिन पास में ही खड़े हो कर अपनी अपनी मूंछें ऐंठ रहे थे।


पास तो परीक्षा में छोटकी भी हो गयी, लेकिन उसकी आवाज एकदम पतली थी, जिसका रेंज बहुत दूर तक नहीं जा पा रहा था। विपिन ने कहा, ‘‘मैया, एकर अवजिया तो खूब दमस के नंय निकल पावो है। बड़ी पातर गियारी है एकर (मां, इसकी आवाज तो दमदार होके नहीं निकल रही है। बहुत पतला गला है इसका)।’’


जतिन ने कहा, ‘‘मैया, एक उपाय तो है हमनी के पास। कादिर साहेब अपन कोठवा देवे ले तैयार हखुन (थे), तौ काहे नंय छोटकी के कोठवा पर चढ़ा देवल जाये। वहां से तो ओकर अवजिया समुच्चे बस्ती में गूंज जैइतै (जायेगी)।’’

‘‘कोठा पर चढ़ा देहीं चाहे चांद पर, एकर आवाज में कड़ुआहट और धिक्कार नंय हऊ। ई मामले में बड़की एकदम फिट हऊ (कोठा पर चढ़ा दो या चांद पर। इसकी आवाज में कड़वाहट और धिक्कार नहीं है। इस मामले में बड़की एकदम फिट है।)।’’ विपिन ने कहा।


‘‘अरे ई भी फिट हो जइतै (अरे यह भी फिट हो जायेगी)। कोठवा पर चढ़ा के लौडिसपीकरवा लगा देवै। महजिदिया से पुरान हो के एक ठो लौडिसपीकर कादिर साहब के इस्टेटवा में रक्खल है।’’


‘‘हां, ई ऐडिया ठीक हऊ।’’


अगले दिन कादिर बख्श के तीन तल्ला कोठा पर चढ़ कर माइक के सामने खड़ा हो कर छोटकी ने दीन दयाल के नाम गालियों की बौछार कर दी - ‘‘सुन ले रे सियार के जलमल (सियार के जन्मे हुए)! तोरा एतना सरापबऊ.... एतना सरापबऊ कि तोर जिनगी नरक बन जैइतऊ....... (तुम्हें इतना सरापेंगे कि तुम्हारी जिंदगी नर्क बन जायेगी)।’’




लाउडस्पीकर के चार चोंगे चार दिशाओं में बांध दिये गये। इस अदा पर गांव वाले सन्न रह गये। दीन दयाल का तो जैसे खून खौल उठा। यह तो हद हो गयी। उसे लगा कि ई ससुर कदिरवा का ही यह सब किया धरा है। वही बुढ़िया का मन बढ़ा रहा है। खेती करने के लिए जमीन तो दिया ही अब उसे गरियाने के लिए अपना कोठा भी दे दिया और साथ में लाउडस्पीकर भी। शायद चाहता है कि गांव के अन्य लोगों की तरह वह भी उसकी मस्काबाजी और जी-हुजूरी करे।


पंच बनने का बहुत शौक है उसे। उसके बंटवारे के मामले में भी पंचैती करने के लिए तड़फड़ा रहा है। लेकिन यह मौका उसे कभी नहीं मिलने वाला। जाति के सारे लोग उसके साथ हैं, कुछ बिगाड़ नहीं सकता कादिर बख्श। हवा में तीर छोड़ने की तरह जितनी गालियां दिलवानी है दिलवाते रहे। गाली कोई सट नहीं जाती है उसके बदन में। गाली तो हारे हुए असहाय आदमी का ही हानि रहित अस्त्र होता है। इससे सिर्फ गाली देने वाले की ऊर्जा बर्बाद होती है। जिसे गाली दी जाती है, उसका गाली से बाल बांका तक नहीं होता।


लेकिन यह अजीब है कि दुनिया में गाली के कारण ही कितनी सारी लड़ाइयां हो जाती हैं और कितने लोग मर-कट जाते हैं। लेकिन दीन दयाल या तो बेवकूफ नहीं है या फिर गाली को रुकवाने में समर्थ नहीं है।


परिस्थिति ऐसी हो गयी थी कि ज्यादा धन हथिया कर भी दीन दयाल धनी होने का गर्व  एन्जॉय नहीं कर पा रहा था। दिन-दहाड़े गाली-गलौज से उसका वजन बहुत हल्का होता जा रहा था। दूसरी तरफ हनकी बूढ़ी और उसके दोनों बेटे गरीबी में बसर करके भी सीना तान कर जी रहे थे। निर्भीकता और अक्खड़ता से उसे गरिया रहे थे, उसकी थूकम-फजीहत कर रहे थे और वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा था।


इसी बीच समय ने करवट बदल ली। समय की आदत है कि वह किसी के साथ एक समान नहीं रहता।


धान रोपने के लिए खेत में हल चला रहे विपिन को कड़क धूप में लू लग गयी और वह अचेत हो गया। युवराज जैसे आरामदेह जीवन को अचानक बनिहार के हाड़तोड़ मेहनत वाले जीवन में रुपांतरण आसान नहीं था। जतिन उसे घर ले आया। विपिन खटिया पर जो गिरा तो फिर उठने में बहुत वक्त लग गया। हनकी बूढ़ी ने तमाम तरह की दवा-दारू और टोना-टोटका आजमाना शुरू कर दिया।


जब परिवार संयुक्त था तो दीन दयाल के पिता ने गांव में स्थित एक भूखंड पर एक मंदिर बनवा दिया था। जो था तो मुख्यतः शिवालय ही, लेकिन उसके अलग अलग कोनों-अंतरों में कई और देवी-देवताओं की मूर्तियां लगा दी गयी थीं। दीन दयाल उसमें नियम से रोज धूप-दीप जलाने, जल चढ़ाने और कभी कभी यज्ञ-हवन करने का भी कर्मकांड कर लिया करता था।


हनकी बूढ़ी भी कभी कभी दर्शन कर आती थी, लेकिन उसका कोई नियम नहीं था। विपिन जब कई दिनों तक बीमार पड़ा रहा और प्रायः दवायें बेअसर रहने लगीं तो वह रोज रोज मंदिर जाकर प्रार्थना करने चली जाने लगी कि उसका बेटा जल्दी स्वस्थ हो जाये। कई दिनों तक मूर्तियों के सामने गिड़गिड़ाने और निहोरा करने के बावजूद कोई असर होता नहीं दिखा तो उसका मन क्षुब्ध होने लगा।


दूसरी तरफ दीन दयाल को चम्हलाने (इतराने) का मौका मिल गया। उसे कई लोगों ने बताया कि दिनमा बहुत खुश हो रहा है और कह रहा है कि देखा - दूसरे को गरियाने-सरापने का असर अपने ऊपर ही पड़ जाता है। जो दूसरे के लिए गड्ढा खोदता है, वह खुद ही उस में गिर जाता है। मंदिर जाने से कुछ नहीं होगा। अब साबित हो गया कि भगवान किसके साथ है। जैसी करनी, वैसी भरनी। अभी भी चेत जाये, नहीं तो इससे भी बड़ा अहित होने लगेगा।


हनकी बूढ़ी ने मन में विचार किया कि अच्छा तो ये बात है। भगवान उस जालिम की सुन रहा है जो अत्याचारी और गुनहगार है। ऐसे भगवान को फिर रहने देने का मतलब क्या है। उसने एक बड़ा सा गैंता उठाया और मंदिर जा कर देवताओं की सारी मूर्तियां और शिवलिंग ध्वस्त कर उन्हें मिट्टी में मिला दिया। इसके बाद कोठे पर चढ़ गयी और माइक से ऐलान करने लगी, ‘‘जो रे नसपीट्टा। जे करे के हऊ कर ले। देखो हियो कौन भगवान तोरा मदत करो हऊ और कैसे तोर ठोरा पर ठिठियाहट आवो हऊ (जो करना है कर लो। देखते हैं कि कौन भगवान तुम्हारी मदद करता है और किस तरह तुम्हारे होंठ पर हंसी आती है)।’’


पूरे गांव में सनसनी समा गयी कि अरे हनकी बुढ़िया ने यह क्या कर दिया। दिनमा को हवा देने का मौका मिल गया। अरे ये सब कादिर बख्श करवा रहा है। जब से उसके बाउजी ने मंदिर बनवाया, तभी से उसका विरोध था। वो यही चाहता रहा है कि गांव में सिर्फ मस्जिद हो, मंदिर नहीं। बुढ़िया का मन चढ़ाते-चढ़ाते कोठा पर चढ़ा दिहिस और आज पर्दे के पीछे से उसने वो काम करवा दिया, जो सालों से उसके मन में बैठा हुआ था। यह सीधे सीधे हिन्दुओं की आस्था पर हमला है।


दीन दयाल ने कादिर साहब के खिलाफ हवा बनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हो सका। इसलिए कि गांव के ज्यादातर लोग बंटाईदार के रूप में उनके एहसानमंद थे। मौके-बेमौके उनके सामने मुंह खोलने पर वे अपना हाथ खोल देते थे। कुछ बुजर्गों ने उसे सलाह दी कि बदले की भावना से कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। देवताओं की मूर्तियां उसने तोड़ी है, अगर उनमें यश होगा तो दैवीय प्रकोप का वह खुद ही शिकार हो जायेगी। हो सकता है उसका बीमार बेटा खाट से उठने की जगह दुनिया से ही उठ जाये।


हनकी बुढ़िया और उसके परिवार पर आने वाले दैवीय प्रकोप की सब प्रतीक्षा करने लगे। खासकर दीन दयाल ने तो टकटकी लगा दी कि कभी भी उसके घर से अर्थी उठने का दृश्य प्रकट हो सकता है। इस बीच गालियों की खेपें जारी रहीं, कभी बड़की, कभी छोटकी तो कभी खुद हनकी बूढ़ी। अब माइक की सुविधा हो गयी थी, इसलिए गला फाड़ कर छाती का जोर नहीं लगाना पड़ता था। अरे दिन दयलवाकहते ही पूरे गांव के कोने कोने में आवाज पसर जाती थी।


जब कई दिन गुजर गये और गालियां नियत समय पर सुबह शाम पूरे सवाब पर प्रसारित होती रहीं तो दीन दयाल को यह एहसास होने लगा कि उसके घर में लगता है सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है और संभवतः विपिनमा भी लगता है ठीक होने लगा है।


यह अनुमान सच निकला। विपिन ठीक हो कर बाहर घूमने-टहलने लगा। दीन दयाल और गांव वाले भौंचक रह गये कि देवी-देवताओं ने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा।

दीन दयाल का मुंह लटक गया और उसे लगने लगा कि अब तक उसके द्वारा किया जाने वाला पूजा-पाठ-यज्ञ-हवन सब व्यर्थ चला गया। जिन देवी-देवताओं की आप पूजा कर रहे हैं, याचना कर रहे हैं, वरदान मांग रहे है, वे सब खुद अपने ही अस्तित्व की रक्षा में असमर्थ सिद्ध हो गये। यह तो बड़ी अजीब बात है। सजा तो उसे कुछ न कुछ जरूर मिलनी चाहिए।


दीन दयाल जला-भुना तो रहता ही था। गालियों के लिए तो क्या मुकदमा करता, लेकिन इस विध्वंसक कार्रवाई के लिए तो कर ही सकता है। यह तो सीधा किसी की आस्था पर प्रहार है। उसने थाने में जा कर प्राथमिकी दर्ज करा दी। थाने से आ कर दारोगा ने निरीक्षण किया और हनकी बूढ़ी को गिरफ्तार कर लिया।


अगले ही घंटे थाने जाकर कादिर साहब ने उसकी जमानत ले ली और लिखित आश्वासन दे दिया कि जो भी मूर्तियां तोड़ी गयी हैं, उसका वे अपने खर्चे से निर्माण करवा देंगे।


दीन दयाल ठिसुआया सा देखता रह गया। गालियों का रेला रात में फिर लाउडस्पीकर से देर तक बहाया जाता रहा और दीन दयाल उसमें लिथड़ कर कसमसाता रहा।


सम्पर्क-

ए - 4/6, चन्द्रबली उद्यान
रोड नं. 1, काशीडीह, साकची
जमशेदपुर (झारखंड) - 831001.

मोबाइल - 9431328758

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04-02-2018) को "अपने सढ़सठ साल" (चर्चा अंक-2869) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं